शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009
भारत का पहला नेशनल मैडीकल ई-न्यूज़ पेपर
शुक्रवार, 13 नवंबर 2009
कुपोषित बच्चे --- मध्यप्रदेश हो या पंजाब, की फ़र्क पैंदा ए !!
कल सुबह मैं बीबीसी की एक रिपोर्ट पढ रहा था ---यह भारत में कुपोषण का शिकार बच्चों के ऊपर थी। बेशक एक विश्वसनीय रिपोर्ट थी---यह पढ़ते हुये मुझे यही लग रहा था कि जिन बड़े लोगों को लाखों-करोड़ों रूपये रिश्वत में लेने की कभी न शांत होने वाली खुजली होती है या जो लोग इतनी ही बड़ी रकम के घपले कर के दिल के दर्द की बात कह कर बड़े बड़े अस्पतालों में भर्ती हो जाते हैं, उन्हें इस तरह की रिपोर्टें दिखानी चाहियें ---- शायद वे चुल्लू भर पानी ढूंढने लगें ---- लेकिन इन दिल के दर्द के मरीज़ों के पास दिल कहां होता है ?
यह रिपोर्ट पढ़ते हुये मेरा ध्यान अपने फुरसतिया ब्लॉग के श्री अनूप शुक्ल जी की तरफ़ जा रहा था --एक बार उन्होंने मुझे इ-मेल की थी कि उन्होंने मेरी तंबाकू वाली सचित्र पोस्टों के प्रिंट आउट अपने ऑफिस में लगा रखे हैं और इस से उन के ऑफिस में काम कर रहे बहुत से वर्करों को तंबाखू, गुटखा, पानमसाला छोड़ने की प्रेरणा मिलती है।
लेकिन इस देश से रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार को उखाड़ने के लिये क्या करना चाहिये --- मुझे लगता है कि जो लोग इस तरह से पैसा इकट्ठा करने में लगे रहते हैं उन के दफ्तरों में बड़ी बड़ी हस्तियों की तस्वीरें टांगने से तो कुछ नहीं होता ----सीधी सी बात है कि इन्हें इन तस्वीरों के बावजूद भी शर्म नहीं आती ----लेकिन ये इन तस्वीरों की आंखों ज़रूर झुका देते होंगे। अगर इस तरह की रिपोर्टों के प्रिट आउट सामन रखने में ऐसे लोगों को कोई झिझक महसूस हो तो कम से कम भ्रष्टाचार की आंधी में अंधे हो चुके ये लोग गांधीजी के उस कथन का ही ध्यान कर लिया करें ----जिस में उन्होंने कहा कि मैं तुम्हें एक तैलिसमैन ( Touchstone) देता हूं --जब भी आप कोई काम करने लगो तो देश के सब से गरीब आदमी की तस्वीर अपनी आंखों के सामने रख कर यह सोचो कि मेरा यह फैसला क्या उस अभागे आदमी का कुछ भला कर के उस की तस्वीर बदल सकता है ?
ऐसे रिश्वतखोरों के दफ़्तर में बीबीसी की इस रिपोर्ट के प्रिंट आउट उन के ऑफिस के पिन-अप बोर्ड पर या फिर टेबल के कांच के नीचे रखे होने चाहिये जिस पर कागज़ रख कर वे किसी बात के लिये अपनी सहमति देते हैं ---शायद इन बच्चों की तस्वीरें देख कर उन का मन बदल जाए।
रिपोर्ट में बड़ा हृदय-विदारक दृश्य बताया गया है ---यह भी नहीं है कि यह सब हम लोग पहले ही से नहीं जानते ---लेकिन बीबीसी संवाददाता ने जिस तरह से पास से इसे कवर किया है वह इन तथ्यों को अत्यंत विश्वसनीय बना देता है।
रिपोर्ट में मध्यप्रदेश की बात की गई है --- वहां पर एक करोड़ बच्चे हैं और जिन में से 50से 60प्रतिशत भूखमरी एवं कपोषण का शिकार हैं। इस बीमारी का इलाज करवा रहे बच्चों के पास संवाददाता गया। इस तरह के बच्चों का वर्णऩ भी इस रिपोर्ट में है जो कि इतने कमज़ोर हैं कि वे खाना न खाने/चबाने की हद तक लाचार हैं।
रिपोर्ट में साफ़ कहा गया है इस सब के लिये बहुत सी बातें जिम्मेदार हैं ---- पिछले कुछ सालों से सूखा पड़ा हुया है, भ्रष्टाचार है ----विभिन्न स्तरों पर है, इन बच्चों के लिये आने वाले राशन को इधर-करने पर भी इन सफेदपोश लुटेरों का दिल नहीं पसीजता----केवल इस लिये कि कुछ एफ.डी और जमा हो जाएं, कुछ शेयर और खरीद लिये हैं या फिर छोटी उम्र में ही बहुत से प्लॉट खरीद लिये जाएं ------लेकिन स्वर्ग-नरक यहीं हैं ----- ऐसे लोगों को बड़ी बड़ी बीमारियों से कोई भी बचा नहीं सकता क्योंकि अकसर इस तरह के स्मार्ट लोग इतने स्ट्रैस में जीते हैं कि सारी सारी उम्र की कमाई बड़े बड़े कार्पोरेट अस्पतालों को थमा कर इन्हें अपने पापों का प्रायश्चित तो करना ही पड़ता है।
हां, तो कल शाम मैं और मेरी मां अंबाला छावनी से जगाधरी की लोकल ट्रेन में सफ़र कर रहे था --- सामने वाली सीट पर एक दादी अपने दो पोतों के साथ बैठी हुई थी --- 13-14 साल की उम्र के थे वे दोनों लाडले। 50-55 मिनट का सफ़र है---लेकिन जब हम लोग गाड़ी में चढ़े तो उन्होंने ने बिस्कुटों का एक एक पैकेट पकड़ा हुआ था ----उस के बाद प्यारी दादी ने उन्हें ब्रैड-पकोडे खरीद कर दिये ---- अभी वे खत्म ही नहीं हुये थे कि दादी अम्मा ने अपने पिटारे से मठरीयां निकाल लीं और साथ में भुजिये का पैकेट पड़ा था और तली हुई मूंगफली बेचने वाले को भी दादी ने यूं ही जाने नहीं दिया ----इस के बाद बारी आई घर में बने रोटियों की नींबू के आचार के साथ खाने की।
कमबख्त नींबू के आचार के महक इतनी बढ़िया कि मेरी जैसे पास बैठे बंदे का जो दिल मितला रहा था वह उस की रूहानी खुशबू से ही ठीक हो गया। लेकिन दादी के बार बार मिन्नतें करने के बाद भी उन लाडले पोपलू बच्चों ने रोटी नहीं खाई ---- आखिर हार कर दादी खुद ही खाने लगीं। दादी उन्हें बार बार यह कहे जा रही थी कि गाड़ी में खाने का बहुत मज़ा आता है ( जिस से आप भी सहमत होंगे) और उस बेचारी ने तो इतना भी कहा कि साथ में वह उन को चाय भी दिला देगी ---- लेकिन उन दुलारों के पेट में जगह भी तो होनी चाहिये थे -----और वैसे भी जब इतनी लाडली दादी साथ तो भला कौन पड़े घर की रोटियों के चक्कर में !!
कल ही सुबह मध्यप्रदेश के बच्चे में कुपोषण की बातें पढ़ीं थीं और शाम को गाड़ी में मैं पंजाब-हरियाणा में कुपोषित बच्चे तैयार होने की प्रक्रिया देख कर यही सोच रहा था कि काश, लोग समझ लें कि बच्चों का यह खान-पान भी उन्हें कुपोषण की तरफ़ ही धकेल रहा है। दादी जी, फूल कर कुप्पा हो रहे बबलू-पपलू की सेहत पर थोड़ा सा रहम करो।
क्या इस तरह बच्चों को खाय-पिया लग जायेगा ?
हनी, हम लोग बच्चों को मार रहे हैं !!
वैसे, इस गाने में भी ये लोग अपने हिंदोस्तान की ही बात कर रहे हैं ना ?
बुधवार, 11 नवंबर 2009
ब्रेस्ट कैंसर से बचाव सारी महिलायों का हो तो बात बने !!
मुझे न्यू-यार्क टाइम्स की साइट पर एक चर्चा पढ़ने का अवसर मिला जिस का शीर्षक था ---ब्रैस्ट कैंसर ---किस की जांच होनी चाहिये ? इस चर्चा मे कुल 117 लोगों ने भाग लिया हुया था --पहले ही पेज़ पर शूरू शुरू के दो-तीन कमैंट्स का मैं हिंदी में अनुवाद कर के यहां लिख रहा हूं ---आशा है कि यह जानकारी आप के लिये भी उपयोगी होगी। मेरा ख्याल है कि मैमोग्राफी से तो अधिकांश पाठक परिचित ही होंगे---अगर इस के बारे में कुछ जानना चाहें तो यहां क्लिक करिये।
AL -- मैं जब अपनी छाती के इलाज के लिये ( mastitis) - वक्ष-स्थल की सूजन-- के लिये अपने डाक्टर के पास न्यूयार्क सिटी में पिछले हफ्ते गई तो उस ने मुझे कहा --- जब तुम 35 साल की हो जायोगी तो स्क्रिनिंग के लिये आना। अगर सब कुछ ठीक ठाक हुआ तो फिर अगले पांच साल तक ( जब तक तुम चालीस की नहीं हो जायोगी) तुम्हें मैमोग्राफी की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
मैंने पूछा कि इतनी कम उम्र में ही इस तरह के चैक-अप का क्या लाभ जब कि अभी तक ठीक से रिसर्च से यह भी पता नही चला कि इस से कुछ लाभ भी होगा कि नहीं।
तब मेरे डाक्टर ने मुझे जवाब दिया -- मैंने अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि जिन महिलायों ने स्वयं अपनी छाती में किसी गांठ को महसूस किया और फिर बाद में उस का इलाज करवाया उन में से 75 फीसदी महिलायें 10 साल तक जीवित रहीं जब कि जिन महिलायों में यह मैमोग्राफी द्वारा पता चला कि उन्हें ब्रेस्ट में कुछ गड़बड़ी है ऐसे महिलायो से फिगर 95 प्रतिशत थी।
स्टीफन -- मेरी पत्नी 1998 में 43 वर्ष की थी जब मैमोग्राफी के द्वारा यह पता चला कि उ की छाती में बिल्कुल मामूली सी कैल्सीफिकेशन सी है ---डाक्टरों को पूरा विश्वास था कि यह कुछ भी नहीं है लेकिन बॉयोप्सी से पता चला कि यह स्टेज0 कैंसर था। मेरी पत्नी का आप्रेशन कर के खराब टिश्यू को निकाल दिया गया और बाद में रेडियोथैरेपी दी गई --- डाक्टरों ने अनुमान लगाया कि 95प्रतिशत चांस हैं कि यह इलाज मुकम्मल हो गया है। लेकिन एक बार फिर वे गलत साबित हुये जब यही कैंसर दोबारा से वापिस लौट आया और यह बहुत उग्र तरह का कैंसर था। इस के लिये मेरी पत्नी का वक्ष-स्थल निकालना पड़ा ( mastectomy) और बाद में पलास्टिक सर्जरी कर दी गई ---और यह 1999 की बात है। सौभाग्यवश कैंसर आसपास के एरिया में ( lymph nodes) में फैला नहीं था । तब से लेकर अब तक उस का नियमित चैकअप होता है और कैंसर वापिस लोट कर नहीं आया।
यह बात साफ़ है कि मेरी पत्नी जो रूटीन मैमोग्राम 1998 में करवाया उसी ने उस को जीवन दान दे दिया। उस समय उसे कोई लक्षण नहीं थे, न ही किसी तरह की कोई गांठ आदि ही थी ----इसलिये अगर उस समय उस ने वह मैमोग्राम न करवाया होता तो कैंसर चुपचाप अंदर ही अंदर फैलता रहता और यह अपनी जड़े इस हद तक मजबूत करलेता कि फिर इस का इलाज ही संभव न होता।
यह ठीक है कि स्क्रीनिंग के तरीके परफैक्ट नहीं हैं लेकिन फिर भी कुछ न करवाने से तो बहुत बेहतर ही हैं।
-------
यह बातें हैं अमीर देशों की ---लेकिन महिलायों में छाती के कैंसर के बहुत से केस तो अपने देश में होते हैं। कभी कभी अखबार में विज्ञापन दे देने कि महिलायें अपने वक्ष-स्थल की स्वयं जांच किया करें ---- कोई भी कठोरता अथवा गांठ आदि का पता चलने पर तुरंत अपनी डाक्टर से मिलें।
जब टैक्नोलॉजी उपलब्ध है तो ऐसे में क्यों कोई भी महिला इस मैमोग्राफी का टैस्ट करवाने से वंचित रहे --- देश में इस टैस्ट के बारे में घोर अज्ञानता है ----इस के बारे में कुछ होना चाहिये। हर बड़े शहर में एक-दो ऐसे एक्स-रे क्लीनिक तो होते ही हैं जहां पर मैमोग्राफी करने की सुविधा होती है। सात-आठ सौ रूपये का खर्च आता है।
मुझे लगता है कि यह सुविधा मोबाईल यूनिट्स के द्वारा गांव गांव तक पहुंचनी चाहिये ----क्योंकि हमारे देश में ऐसे कईं कल्चरल कारण भी हैं कि अनेकों महिलायें इस तरह की तकलीफ़ आदि से परेशाना होते हुये भी ढंग से न तो डाक्टर के पास ही जाती हैं और न ही विभिन्न कारणों की वजह से उन का इलाज पूरा ही हो पाता है।
और हम तो इलाज की बात ही नहीं कर रहे ---हमारा तो लक्ष्य है कि किसी भी महिला को यह तकलीफ़ हो ही क्यों ----हम क्यों न उसे बिल्कुल प्रारंभिक अवस्था में ही डायग्नोज़ कर के दुरूस्त कर दें।
बहुत बड़ी बड़ी गैर-सरकारी संस्थायें बड़े बडे़ काम करती हैं, बढ़िया से बढ़िया धार्मिक स्थल तैयार किये जाते हैं लेकिन इस तरह की मशीनें धर्मार्थ अस्पतालों में लगाई जाएं जिस में सभी जरूरतमंद महिलायों का यह टैस्ट बिल्कुल कम दाम पर या मुफ्त किया जा सके------ और अकसर यह महिलायें वो हैं जिन्हें पता भी नहीं है कि इस टैस्ट की कितनी बड़ी उपयोगिता है। क्या इस तरह की सुविधा उपलब्ध करना किसी धर्मार्थ कर्म से कम है।
इन लेखों को भी अवश्य देखिये
दस साल में कितना कुछ बदल गया है
स्तन कैंसर पर आर अनुराधा का लेख
वैसे तो देखा जाये तो सभी सरकारी अस्पतालों में भी इस तरह की सुविधायें होनी ही चाहियें ------- कम पैसे की वजह से भला क्यों कोई किसी जीवन रक्षक टैस्ट से वंचित रहे ?
धीमी गति से खाना बचाये रखता है मोटापे से ...
हम सब लोग बचपन से ही यह बात सुनते आ रहे हैं कि अगर खाते समय जल्दबाजी करोगे तो मोटे हो जाओगे। लेकिन शायद कभी लोग इस तरफ़ इतना ध्यान नहीं देते कि यह भी कोई बात है कि हमारे खाने की स्पीड अब हमारा वज़न तय करेगी !!
लेकिन वास्तविकता यह है कि यह एक वैज्ञानिक सच्चाई है। अब रिसर्चरों ने इस का कारण ढूंढ निकाला है। होता यह है कि जब हम इत्मीनान से खाना खाते हैं---निवाले छोटे छोटे लेते हैं, चम्मच में चावल आदि थोड़े थोड़े लेकर खाने का लुत्फ़ उठाते हुये खाते है तो कुछ समय बाद ही हमारे पाचन प्रणाली से दो हार्मोन रिलीज़ होते हैं --- पैप्टाइड वाय वाय ( peptide YY- PYY) एवं GLP-1 ( ग्लुकोन लाइक पैप्टाइड)।
ये हार्मोनज़ रिलीज़ होते ही हमारे मस्तिष्क में मौजूद भूख नियंत्रण तंत्र ( appetite control centre) को संदेश देते हैं कि अब और खाने की तलब नहीं है, अब हो गया। इसलिये धीमी गति से खाये गये कम खाने से ही भूख शांत हो जाती है। सीधा सा मतलब है कि अगर खाना की कम मात्रा से तृप्ति हो गई है तो शरीर में कैलरीज़ की मात्रा भी कम ही गई ------इस से आदमी मोटापे से भी बचा रहता है।
लेकिन तेज़ तेज़ अफरा-तफ़री में खाने वालों में होता यह है कि जब तक ये हार्मोन उन की पाचन-प्रणाली रिलीज़ करती है वे तब तक ही खूब सारा खाना लपेट चुके होते हैं --इसलिये उन के शरीर में बिना वजह ज़्यादा खाना पहुंच जाता है।
यह तो बात आजकल हो रही है कि अब रिसर्च से यह पता चल गया है कि खाने में उतावलापन, हड़बड़ाहट एवं जल्दबाजी दिखाना मोटापे को बुलाना है क्योंकि आज की युवा पीड़ी हर बात का प्रूफ मांगती है। और यही जैनरेशन है जो कि हर समय जल्दी में रहती है और जगह जगह से चलते फिरते जल्दबाजी में कुछ भी लेकर खाते रहते हैं -----इसलिये इन का पेट नहीं भरता।
काश, हम लोग इत्मीनान से बिना बात करते हुये दाल-रोटी को लुत्फ उठाने की कला सीख लें ---- यह बात सब से पहले तो मैं अपने आप ही से कह रहा हूं कि अकसर मैं भी इस काम को बहुत ही जल्दबाजी से निपटा लेने के चक्कर में रहता हूं।
कल रात जब मैंने सेब जैसे और नाशपती जैसे मोटापे की बात कही तो एक मित्र ने कहा कि यार, बताओ इसे केले जैसा कैसे करें ----मुझे पढ़ कर बहुत हंसी आई ---और मित्र को इस समय यही कर रहा हूं कि यह रहा पहला सबक ----हम खाना धीरे धीरे इत्मीनान से खायें ----ऐसा करने से कम खाने से ही हमारा पेट भर जायेगा।
जानवर आदमी से ज़्यादा वफ़ादार है !!
मंगलवार, 10 नवंबर 2009
सैक्स पॉवर बढ़ाने के नाम पर हो रहा गोरखधंधा
मुझे इतना तो शत-प्रतिशत विश्वास है ही कि भारत में तो यह सैक्स पॉवर बढ़ाने वाले जुगाड़ों का गोरखधंधा पूरे शिखर पर है। यहां पर इस तरह की दवाईयों, टॉनिकों, बादशाही कोर्सों के द्वारा पब्लिक को जितना ज़्यादा से ज़्यादा उल्लू बनाया जा सकता है उस से भी ज़्यादा बनाया जा रहा है ।
लेकिन जब मैं कभी देखता हूं कि अमेरिका जैसे देश में भी यह सब चल रहा है तो मुझे इस बात की चिंता और सताती है कि अगर उस जगह पर जिस जगह पर दवाईयों की टैस्टिंग करना करवाना इतनी आम सी बात है, लोग सजग हैं, पढ़े-लिखें हैं ---अगर वहां पर सैक्स पावर बढ़ाने वाले फूड-सप्लीमैंट्स में वियाग्रा जैसी दवाई मिली पाई जाती हैं और इसके बारे में लेबल पर कुछ नहीं लिखा रहता तो फिर अपने देश में क्या क्या चल रहा होगा, इस का ध्यान आते ही मन कांप जाता है।
अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन की एक रिपोर्ट दिखी जिस में उन्होंने लोगों को चेतावनी दी है कि सैक्स पॉवर बढ़ाने के लिये "स्टिफ-नाईट्स" नाम के एक फूड-सप्लीमैंट में वियाग्रा जैसी दवाई पाई गई है। अब सब से बड़ी मुसीबत यही है कि लोग इस तरह के प्रोडक्ट्स को बस योन-पावर को बढ़ाने के लिये खाई जाने वाली आम टॉनिक की गोलियां या कैप्सूल समझ कर खा तो लेते हैं लेकिन इन में कुछ अघोषित दवाईयों की मिलावट होने के कारण ये कईं बार मरीज़ों का रक्त-चाप खतरनाक स्तर तक गिरा देती हैं।
जिस तथाकथित सैक्स-एनहांसर की बात हो रही है इस के इंटरनेट द्वारा भी बेचे जानी की बात कही गई है --- और यह छः,बारह और तीस कैप्सूलों की बोतल में भी आती है और बेहद आकर्षक ब्लिस्टर पैकिंग में भी आती हैं।
इतना सब पढ़ने के बाद क्या आप को अभी भी लगता है कि हमारे यहां जो सो-काल्ड सैक्स पावर बढ़ाने के नाम पर सप्लीमैंट्स धड़ल्ले से बिक रहे हैं क्या उन में ऐसी कुछ अऩाप-शनाप मिलावट न होती होगी ? ----पता नहीं, मुझे तो हमेशा से ही लगता है कि यह सब गोरखधंधा है, पब्लिक को लूटने का एक ज़रिया है , उन की भावनाओं से खिलवाड़ है ----और इस देश में हर दूसरा बंदा सैक्स कंसल्टैंट ( कम से कम डींगे हांकने के हिसाब से !!!!) होते हुये भी लोग सैक्स के बारे में खुल कर बात नहीं करते, किसी क्वालीफाईड सैक्स-विशेषज्ञ को मिलते नहीं ----इसलिये जिन्हें इस तरह की दवाईयों से तरह तरह के साईड-इफैक्ट्स हो भी जाते हैं वे भी मुंह से एक शब्द नहीं कहते ------क्योंकि उन्हें लगता है कि बिना वजह उन का मज़ाक उड़ेगा और इसी वजह से इस तरह की जुगाड़ बेचने वाली कंपनियां फलती-फूलती जा रही हैं।
हां, तो मैं पोस्ट लिख कर इस से संबंधित कुछ वीडियो यू-टयूब पर ढूंढने लगा तो मुझे दिख गया कि किस तरह से देश के फुटपाथों पर लोगों की योन-शिक्षा की स्पैशल क्लास ली जा रही है।
मोटापा --सेब जैसा या नाशपती जैसा ?
शायद आपने पहले ना सुना हो कि मोटापे की दो श्रेणीयां होती हैं -- सेब जैसा तथा नाशपती जैसा।
जो मोटापा कमर से ऊपरी हिस्से में होता है उसे Apple-shaped obesity कहते हैं और जो मोटापा कमर से नीचे वाले हिस्से में जमा होता है उसे नाशपती जैसा मोटापा ( pear-shaped obesity) कहा जाता है। यह तस्वीर देखने पर आप को अच्छी तरह से क्लियर हो जायेगा।
सेब के आकार वाला मोटापा नाशपती के आकार वाले मोटापे से ज़्यादा खतरनाक होता है क्योंकि नाशपती आकार मोटापे में जांघों एवं नितंबों पर जमा फैट कोशिकाओं की विशेषतायें सेब-आकार मोटापे में मौजूद फैट-कोशिकाओं से भिन्न होती हैं।
एक और बात का ज़िक्र करना ज़रूरी है कि जो लोग धूम्रपान करते हैं उन में मोटापा अकसर सेब आकार जैसा और दूसरे लोगों में यह नाशपती के आकार जैसा होता है।
मोटापा से होता है मधुमेह का रिस्क 90 गुणा
आज सुबह मैं CNN की साईट पर डायबिटीज़ से संबंधित लेख पढ़ रहा था। कुछ बातें यहां दोहराने योग्य हैं ---हम में से बहुत से लोग पहले ही से इन्हें जानते हैं लेकिन फिर भी पुनरावृत्ति ज़रूरी है।
यह तो हम सब जानते ही हैं कि भारत में मधुमेह की समस्या इतनी विकराल हो गई है और दिन प्रतिदिन यह ऐसी विकट हो रही है कि इंडिया पर सारे विश्व में डायबिटीज़ की राजधानी होने का ठप्पा लगाया जा रहा है।
विकसित देशों में भी यह बहुत बड़ी समस्या है। अमेरिका में ही 240 लाख लोगों को डायबिटीज़ है, और 57 लाख लोगों की अवस्था प्री-डायबिटीज़ वाली है। अब यह प्री-डायबिटीज़ का क्या चक्कर है ? जब हम लोग खाली पेट ब्लड-शुगर का टैस्ट करवाते हैं तो 99mg% तक तो नार्मल है, 100-125 mg% को प्री-डायबिटिक कहा जाता है जिन में अभी बीमारी तो नहीं है लेकिन उन्हें अपनी जीवनशैली एवं खानपान में पूरी एहतियात की ज़रूरत है और जिन लोगों में फास्टिंग ब्लड-शुगर की मात्रा 126 एवं उस से ऊपर आती है उन को डायबिटिक लेबल किया जाता है।
दो बातें टाइप वन एंड टू डायबिटीज़ के बारे में करते हैं --- अधिकांश टाइप 1 डायबिटीज़ के केसों का अठराह वर्ष ( under 18) से कम उम्र में पता चल जाता है। इसे टाइप 1 इसलिये कहा जाता है क्योंकि यह एक ऑटोइम्यून डिसीज़ है जिस में पैनक्रिया ग्रंथी में मौजूद सैल( कोशिकायें) जो इंसुलिन बनाते हैं नष्ट हो जाते हैं जिस की वजह से इंसुलिन नहीं बन पाती और मधुमेह की बीमारी हो जाती है।
Type I Diabetes cases are mostly detected in under 18 years of age though it can strike at any age. It is an autoimmune disease in which the insulin-producing cells of the pancrease get destroryed which lead to diabetes.
और जहां तक टाइप 2 डायबिटीज़ का सवाल है यह पहले तो बड़ी उ्म्र के लोगों को ही अपना शिकार बनाया करती थी लेकिन अब मोटापा इतना आम सी बात होने के कारण यह बीमारी छोटी उम्र में भी ---यहां तक कि बच्चों को भी ----धर-दबोचने लगी है। टाइप2 डायबिटीज़ में यह होता है कि मरीज के शरीर में इंसुलिन के प्रति इन-सैंसिटिविटी उत्पन्न हो जाती है जिस की वजह से शरीर में ग्लुकोज़ की मात्रा बढ़ी रहती है।
अकसर लोगों में यह धारणा है कि जिस किसी भी परिवार में मधुमेह है बस फिर तो यह अगली पीड़ियों में भी आगे ही चलता है। लेकिन ऐसा नहीं है ---- CNN जैसी विश्वसनीय साइट पर यह जानकारी उपलब्ध है कि रिस्क तो बढ़ता है लेकिन यह धारणा ठीक नहीं है। जिस परिवार में टाइप 1 डायबिटीज़ है, उस में आगे बच्चों को यह बीमारी होने का रिस्क पांच प्रतिशत ज़्यादा होता है और टाइप 2 डायबिटीज़ में यह रिस्क तीस प्रतिशत होता है. इसलिये अगर परिवार में डायबिटीज़ का कोई मरीज़ है तो खाने पीने में एवं शारीरिक परिश्रम करने में तो और भी नियमितता की ज़रूरत है ताकि इस 30% को बस एक आंकड़ा ही बने रहने दिया जाए।
ऐसा भी नहीं कि स्लिम-ट्रिम लोग डायबिटीज़ के शिकार नहीं होते, दुनिया भर के बीस प्रतिशत डायबिटीज़ के रोगी दुबले पतले ही हैं।
हमारे पेट का मोटापा ( abdominal obesity) डायबिटीज़ के लिये सब से खतरनाक है-- क्योंकि इस मोटापे में हमारे शरीर के अंदरूनी अंगों के आसपास जो फैट जमा हो जाता है बस वही हमें ले डूबता है ----लेकिन हमारे देश में तो अकसर जब तक पेट बाहर निकल कर लटकने न जाये तब तक तो उसे खाता-पीता मानते ही नहीं हैं। मोटापा होने से डायबिटीज़ होने का रिस्क 90 गुणा बढ़ जाता है।
पंजाब की तो मैं गारंटी लेता हूं कि वहां पर तो लोगों की सेहत की यही परिभाषा है कि बंदा अच्छा तगड़ा होना चाहिये। शादी से पहले दुबले पतले लोगों को यह कह कह कर सांत्वना दी जाती है कि कोई गल नहीं, विवाह के बाद सब ठीक हो जायेगा। और अकसर होता भी यही है ----सुबह से परांठे, पूरी-छोले, दाल-मक्खनी, मलाई दार लस्सी, ज़्यादा मीठे वाली चाय--मलाई मार के, चिकन-शिकन, बटन चिकन, मच्छी फ्राई,....अब क्या क्या लिखूं ----बस समझिये हर तरफ़ दूध( पता नहीं असली या सिंथैटिक), देसी घी, फ्राई चीज़ों की भरमार और सारा दिन सब जगह इन्हीं के खाने पीने की बातें -------और मेहनत का काम न के बराबर ---ऐसे में भला कैसे फूल के कुप्पा हुये बिना रह सकता है ----लेकिन परिवार वाले , सगे -संबंधी गबरू की सेहत देख देख कर फूले नहीं समाते कि हुन बनी गल----एह होई न गल -----ऐन्नू कहंदे ने सेहत ---- लेकिन यह वाली सेहत साथ में ढ़ेरों बीमारियां भी तो ले आती है।
वैसे दूसरे की बातें क्या करें ----पहले हम लोग अपनी तरफ़ ही क्यों न देखें ----तो फिर आज ही से कम से कम फीकी चाय पीनी शुरू करें , मैं तो कर रहा हूं , आपने क्या सोचा है ?
सोमवार, 9 नवंबर 2009
सूचना के अधिकार कानून के लिये फीस
हां, तो आज सुबह आज की पंजाब केसरी अखबार पर जब नज़र पड़ी तो इस के पृष्ट पांच पर यह खबर दिखी जिसे आप से शेयर करना चाह रहा हूं ------लीजिये, पढ़िये ...
सूचना देने के लिये केवल निर्दिष्ट राशि ही वसूली जाएगी : सी आई सी
नई दिल्ली 8 नवंबर -- एक बहुप्रतीक्षित फैसले के तहत केंद्रीय सूचना आयोग ने कहा है कि सूचना मुहैया कराने के लिये आवेदक से सूचना का अधिकार कानून में निर्दिष्ट शुल्क के अलावा कोई राशि की मांग नहीं की जा सकती। सूचना का अधिकार कानून के तहत आवेदन करने वाले लोगों के लिये यह फैसला राहत लेकर आया है क्योंकि जब बड़ी मात्रा में सूचना मांगी जाती है तो दिल्ली पुलिस सहित कई सरकारी एजेंसियां अतिरिक्त शुल्क के तहत लाखों रूपये की राशि का मांग करती हैं. ये सरकारी एजैंसियां इसका हवाला देती हैं सूचना दिखाने के लिये काफी मानव संसाधनों के इस्तेमाल की जरूरत पड़ेगी या उन्हें परिवर्तित करना होगा। इसके लिये आवेदक को प्रशासन की गणना के मुताबिक कार्य दिवसों के आधार पर भुगतान करना होगा।आप का इस खबर के बारे में क्या ख्याल है ?
सेहत का फंडा ---भाग 2.......इन बच्चों का क्या होगा ?
यह भी मैंने देखा है कि कारण कोई भी हो मां बाप इस के लिये ज़्यादा टैंशन लेते नहीं हैं और मूर्खता की हद तब दिखती है जब बड़ी शेखी बघेरते हुये हम से ही यही कहते हैं कि इसे तो बस बिस्कुट ही पसंद हैं, जब भी खाता है पूरा पैकेट तुरंत खत्म कर देता है। यह क्या है ? ---- शर्तिया तौर पर मोटापा, ब्लड-प्रैशर, मधुमेह जैसी बीमारियों को आमंत्रण है और क्या है ?
एक बात और बहुत नोटिस की है कि अकसर लोग बिस्कुटों को जंक-फूड में शामिल नहीं करते, लेकिन ऐसी बात नहीं है --- दिन में एक दो बिस्कुट खाने की बात और है और पूरा पूरा पैकेट लपेट लेना कहां की अकलमंदी है ? अब अगर बच्चे पूरा पूरा पैकेट खाने लगेंगे तो खाने के लिये कहां से जगह बचेगी और हो भी यही सब कुछ ही रहा है ।
मुझे बड़ी खीझ होती है कि जब इन्हीं बच्चों के अभिभावक यही कहते हैं कि हमें तो यही लगता है कि बच्चा है ,इस के खाने के यही दिन हैं ---क्या फर्क पड़ता है। लेकिन बहुत फर्क पड़ता है क्योंकि खाने पीने की सारी अच्छी बुरी आदतों की शुरूआत ही इसी उम्र में ही होती हैं।
एक समस्या और भी है कि हमारे यहां दुकानदारों ने एक अच्छा ब्रॉंड तो शायद ही रखा हो लेकिन चालू किस्म के लोकल ब्रांड के बिस्कुटों के दर्जनों ब्रांड इन के यहां मिल जायेंगे।
बिस्कुटों की इतनी खिंचाई होते देख आप को लगता होगा कि क्या डाक्टर बिस्कुट नहीं खाता होगा ? --- ऐसा नहीं है कि मैं नहीं खाता, खूब खाये हैं, पहले इतना कहां लोग सोचा करते थे --खास कर बेकरी वाले बिस्कुट मुझे बहुत ही पसंद हैं। लेकिन वैसे 40 की उम्र पार करने पर बहुत कुछ सोचना ही पड़ता है ----मैं बेकरी वाले बिस्कुट नहीं खाता ---क्योंकि तरह तरह की मिलावटों के बारे में पढ़ कर मन इतना भर चुका है कि जब इन्हें खाने की तलब लगती है तो बेकरियों द्वारा इन के बनाने में इस्तेमाल किये जाने वाले घी के बारे में सोच लेता हूं तो अपने आप तलब शांत हो जाती है ।
कुछ लोग यह भी कह देते हैं कि उस में क्या है, हम लोग अपने सामने अपने मैटीरियल से बेकरी से बिस्कुट तैयार करवा लेते हैं ----शायद यह अच्छा विकल्प है लेकिन फिर भी 35-40 से ऊपर वाली उम्र के लोग इस तरह के पदार्थ जो घी, चीनी भरे होते हैं उऩ से थोड़ा सा बच कर रहा जाये तो ठीक ही लगता है, आप क्या सोच रहे हैं ?
अब तो मैं केवल ब्रिटॉनिया मैरी जैसे एक-दो बिस्कुट ही लेता हूं और मेरे बहुत से डाक्टर मित्र भी यही लेते हैं --- यह कोई पब्लिसिटी शटंट नहीं है --- यह बिस्कुट वैसे ही बहुत हल्का फुल्का है और ब्रिटॉनिया की क्वालिटी के बारे में तो आप जानते ही हैं !!
मुझे इस बात की भी बहुत फिक्र होती है कि जब लोग यह बताते हैं कि उन के बच्चे दालों, सब्जियों से दूर भागते हैं ---- यह अपने आप में एक बहुत ही ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात है --- यह एक ऐसी बात है कि जिस के लिये इन बच्चों के मां-बाप को शोक मनाना चाहिये क्योंकि ऐसे अधिकांश केसों में ऐसा होता है कि इस तरह के बच्चे बड़े होकर भी फिर पिज़्जा, बर्गर, हॉट-डॉग, हाका-नूडल्स पर ही पलते हैं और तरह तरह की शारीरिक व्याधियों के शिकार हुये रहते हैं।
हमारे सारे स्वाद बचपन में ही डिवेल्प होते हैं ----इसलिये यह बहुत ही ज़रूरी है कि हम बच्चों में सब दालों सब्जियों को स्वाद डिवेल्प करवायें। मुझे याद है कि मैं बचपन में केवल करेला खाने में थोड़ा नाटक किया करता था ----इतना बड़ा होने के बाद भी मुझे करेला कभी भी अच्छा नहीं लगा -----कभी कभी एक-दो खा तो लेता हूं लेकिन बस मजबूरी में।
बच्चे स्कूल की कैंटीन से जंक-फूड लेकर खाते रहते हैं ----कुछ अच्छे स्कूलों में तो अब कैंटीनें होती ही नहीं हैं लेकिन बच्चों को घर से भी दिया जाने वाला खाना सेहतमंद होना चाहिये ----लंच-बाक्स में बिस्कुट, चिप्स, भुजिये का क्या काम !!
सोच रहा हूं कि सेहत के फंडे में जितनी बातें पाठकों से शेयर करूंगा वे सभी मैं अपने आप से भी करूंगा, दोहराऊंगा और इंटरोस्पैक्शन करने का अवसर भी मिलता रहेगा कि कहीं दीपक के तले ही अंधेरा तो नहीं है।
सेहत का फंडा ---भाग 1.
न करने वाली बातों में सब से अहम् है कि तंबाकू,गुटखे के किसी भी तरह के उपयोग से दूर रहा जाये। शराब -चाहे कितनी भी महंगी क्यों न हो और चाहे कितने ही डाक्टर कहें कि थोड़ी पीने से कुछ नहीं होता --- से पूरी तरह से दूर रहा जाए।
यह लिखते लिखते ध्यान आ रहा है कि सेहत की फंडे की जब बात करते हैं तो यह भी नहीं है कि हम लोग इन बातों से पहले से वाकिफ़ नहीं हैं -- अधिकांश बातें हम लोग पहले से जानते हैं लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि हमें इन बातों को आपस में बार बार दोहराने की ज़रूरत होती है।
कुछ दिनों पहले मैं एक इंटरव्यू लेने गया हुआ था ---वहां नॉन-मैडीकल मैंबर भी थे लेकिन वे सब बिना शक्कर वाली चाय पी रहे थे । कुछ समय बाद मेरे एक सीनियर से बात हो रही थी -बता रहे थे कि उन्होंने कभी भी दूध में चीनी नहीं डाली। शक्कर आदि की ढ़ेरों बुराईयां गिना रहे थे और मेरा बढ़ता वजन देख कर मुझे भी कह रहे थे कि तुम्हें भी मीठे पर कंट्रोल करना चाहिये।
अगर हम लोग इस तरह की छोटी छोटी बातों पर बार बार बात करते हैं तो पता नहीं किस समय किस के मन में कौन सी बात बैठ जाती है।
इसी तरह नमक के इस्तेमाल में भी बहुत ही ज़्यादा एहतियात रखने की ज़रूरत है। वरना कौन सा रोग किसी की कब धर दबोचे यह सब बिना किसी दस्तक के ही हो जाता है।
कुछ भी हो सेहत के लिये परहेज़ तो करना ही होगा, कुछ भी मुंह में डालने से पहले पूरी तरह से सचेत रहते हुये यह निर्णय करना होगा कि इस खाध्य पदार्थ में क्या क्या मिला हुआ है और इन में से किन किन इंग्रिडिऐंट्स के मिलावटी होने की पूरी पूरी आशंका है, क्या यह मेरी सेहत के लिये ज़रूरी है और क्या मैं इस के बिना रह सकता हूं ?
मुझे लगता है कि अगर हम लोग कुछ भी खाने से पहले यह सोच लें तो काफ़ी हद तक हम बहुत सा कचरा खाने से बच सकते हैं ----वैसे मैंने भी यह अप्रोच रखी हूई है और इसी कारण मैं बाज़ार की बहुत सी वस्तुओं से बचने की कोशिश कर लेता हूं।
मरीज़ों की प्राइवेसी की परवाह कैसी ?
लेकिन इस में आखिर ऐसा क्या है जो मुझे ठीक नहीं लग रहा ? --इस का कारण यह है कि इस में मरीज़ों के चेहरों को दिखाया गया है। इस में मरीज़ों की प्राइवेसी की सम्मान नहीं किया गया।
वैसे यह मुंह के कैंसर से बचाव की जागरूकता अभियान के लिये बनाया गया एक बहुत प्रभावपूर्ण विज्ञापन है लेकिन यह मरीज़ों के चेहरे दिखाने वाली बात अजीब सी लगती है।
मुझे ऐसा लगता है कि जिन मरीज़ों के चेहरे इस फिल्म में दिखाये जाते हैं उन के प्रति कभी भी अगर समाज के द्वारा किसी तरह का भी भेदभाव किया जाए तो यह बहुत गड़बड़ हो जायेगी। वैसे तो एक शिष्ट समाज में जब हम लोग एक मरीज़ की बात किसी के साथ किसी दूसरे के साथ शेयर नहीं करते तो ऐसे में कैसे हम मुंह के कैंसर जैसे रोग से लाचार रोगियों की तस्वीरें इतने व्यापक स्तर पर दिखा सकते हैं।
मानता हूं कि इस तरह की तस्वीरें दिखाने से लोगों के मन में तंबाकू आदि के बारे में डर पैदा होगा। लेकिन हमें बीमार आदमियों एवं उन के परिवारजनों के बारे में भी सोचना चाहिये कि नही ?
अगर तस्वीरें दिखानी ही हैं तो हम क्यों नहीं उन की आंखों पर कुछ इस तरह के डाट्स आदि दिखाते जिन से उन की पहचान को गुप्त रखा जा सके। यह बहुत ज़रूरी है।
कईं बार मैं सोचता हूं कि शायद समाज में आम आदमी की प्राइवेसी का ध्यान रखा ही नहीं जाता। मेरे विचार में यह फिल्म बनाने वालों में संवेदनशीलता की घोर कमी की तरफ़ इशारा करती है। इस तरह के विज्ञापन को तुरंत दुरूस्त किये जाने की ज़रूरत है।
यह तो एक विज्ञापन फिल्म की बात है --अकसर हमारी मैडीकल कि किताबों में भी मरीज़ों की फोटो की आंखों पर काली पट्टी सी लगाई जाती है ताकि उन की पहचान न हो सके। मुंह के कैसर से संबंधित मेरी पोस्टों में भी मैंने मरीज़ों की तस्वीरें इस तरह से ली हैं कि उन फोटो के द्वारा उन की पहचान संभव न हो।
देश में कुछ बहुत बड़े प्रतिष्ठित लोग भी मुंह के कैंसर जैसी बीमारी से जूझ रहे हैं तो ऐसे में इस तरह की विज्ञापन फिल्म में इन हस्तियों का भी कुछ संदेश जनता तक पहुंचा दिया जाता तो शायद ठीक होता। लेकिन शायद इन हाई-फाई लोगों की प्राईवेसी आम आदमी की प्राइवेसी से ज़्यादा मायने रखती है ?
अब अगह कोई यह दलील दे कि उस विज्ञापन फिल्म में जिन मरीज़ों के चेहरों को दिखाया गया है उन से समुचित कंसैंट (सहमति) ली गई है तो भी यह कैसी कंसैंट है, मेरे विचार में तो इस तरह की कंसैंट के बावजूद भी उन का चेहरा इस तरह से ना दिखाया जाए कि कोई भी उन की शिनाख्त कर सके।
मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009
सी.टी स्कैन से भी होता है ओवर-एक्सपोज़र ?
मैं तो इस खबर के बाद यही सोच रहा हूं कि इस तरह की अवेयरनैस मुझे लगता है कि इस देश में तो नहीं है। अवेयरनेस नहीं, जागृति नहीं तो इसीलिये कोई प्रश्न भी नहीं पूछता।
पीछे आपने भी मीडिया में देखा होगा कि खूब आ रहा था कि बार बार सी.टी स्कैन करवाने से जो रेडिएशन ओवर-एक्सपोज़र हो जाता है वह शरीर के लिये नुकसानदायक है। और अब यह नई बात पता चली कि सी.टी स्कैन करवाते समय भी इस तरह का अंदेशा बना रहता है।
तो इस का समाधान क्या है ? --- सब से पहला तो यह कि यह जो आजकल सी.टी स्कैन करवाने का फैशन सा चल निकला है, इस को रोकना होगा। फैशन ? – आप सोच रहे होंगे कि डाक्टर यह क्या कह रहा है, अब विशेषज्ञ कहते हैं तो हम करवाते हैं, वरना हमें कोई शौक है !!
बीमारों एवं तीमारदारों के साथ पूरी सहानुभूति रखते हुये यह कहने की हिम्मत कर रहा हूं कि आजकल बिना सी.टी स्कैन के कईं बार डाक्टरों की तो बल्कि मरीज़ों की तसल्ली नहीं होती। इस में दो तीन बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं----
--- आप किसी प्राइवेट विशेषज्ञ के पास जाते हैं तो उस के पास जाने से पहले अपनी पूरी तसल्ली कर लें। एक बार उस के चैंबर में दाखिल हो गये तो जहां तक हो सके अपना मैडीकल ज्ञान वेटिंग-रूम में ही छोड़ जाएं --- मरीज़ के लिये ठीक है उस का दुःख नया है लेकिन विशेषज्ञ तो दशकों से ऐसे ही मरीज़ देख रहा है। और अगर आप ने अपनी तरफ़ से कह दिया कि डाक्टर साहब, सी.टी स्कैन करवा लें क्या ? –तो मुझे यह बतलाईये कि अगर आपने सी.टी स्कैन करवाने की ठान ही ली है तो आप को कौन रकता है !! बल्कि अगर विशेषज्ञ जांच करने के बाद उसे वैसे ही सारा माजरा समझ में आ जाता है और वह इस तरह के सी. या एमआरआई करवाने की सलाह ही नहीं देता तो आप बधाई के पात्र हैं।
---अब चलिये कुछ लोगों को जिन्हें उन की कंपनी इस तरह के टैस्टों पर किये जाने वाले खर्च को रिएम्बर्स करती हैं अर्थात् उन्हें सारा पैसा अपने एम्पलॉयर से मिल जाता है। अब इसे कुछ भी कहिये ---लेकिन उन्हें कईं बार लगता है कि चलों, यार, यह बार बार सिरदर्द जा नहीं रहा, कल पैस फिसल गया था, सिरदर्द है, सी.टी हो क्यों न करवा लिया जाए......अब अगर इस तरह के बाशिंदों ने भी यह ठान ही लिया है तो भला है कोई जो इन्हें ऐसा करवाने से रोक पाये ----- बात ज़्यादा होगी तो डाक्टर को यह सुनने को मिल सकता है---आप का क्या जा रहा है, सरकार जब कोई सुविधा दे रही है तो आप क्यों एडवाईज़ नहीं कर रहे ?
--- कुछ सरकारी संस्थान ऐसे हैं जिन्हें अपने मरीज़ो के लिये शहर के प्राइवेट सी.टी,एमआरआई सैंटरों के साथ टाई-अप कर रखा है, जिन्हें वे मरीज़ों की गिनती के अनुसार उस सैंटर के साथ हुये करार की शर्तों के अनुसार मासिक बिलिंग के अनुसार पेमैंट कर देती है। इन में भी मुझे ऐसा लगता है तो कईं बार ( बहुत बार लिखने से डर रहा हूं, अधिक बार लिखने के लिये क्वालीफाईड नहीं हूं , इसलिये कईं बार लिख कर ही काम चला रहा हूं !!) बस ऐसे ही इस तरह के टैस्ट करवा लिये जाते हैं। मैं तो भई प्रामाणिक बात करता हूं ---अगर किसी को इस में कोई शक हो तो क्यों न एक साल में हुये सी.टी स्कैनों में से कितने स्कैनों की रिपोर्ट किसी भी तरह से पाज़िटिव आई, इस का अध्ययन किया जा सकता है। इस तरह के संस्थानों में तो बहुत बार मरीज़ की मरजी चलती है ---अगर उसे बाहर से किसी झोलाछाप चिकित्सक ने भी कह दिया है कि तुम यह सी.टी करवा ही लो, तो फिर कोई डाक्टर उस की ख्वाहिश पूरी न कर के तो देखो, अकसर इस तरह के केसों द्वारा हंगामा, हो-हल्ला किये जाने के डर से डाक्टर आसान ही डगर पकड़ तो लेते हैं लेकिन किस कीमत ? -----सरकारी पैसा गया सो गया, मरीज़ की ख्वाहिश पूरी करने के चक्कर में उस ने बिना वजह रेजिएशन ले लीं ?
----जो मेरा पीजीआई रोहतक में प्रोफैशनल अनुभव रहा है कि वहां पर दो-तीन डाक्टरों की टीम यह तय करती है कि किसी व्यक्ति को इस तरह के टैस्टों की ज़रूरत है कि नहीं .... अगर टैस्टों की ज़रूरत है तो सब्सिडाईज्ड रेट पर इन-हाउस सैंटरों पर ही ये महंगे टैस्ट मरीज़ों को उपलब्ध करवा दिये जाते हैं।
अब एक ऐसी श्रेणी की बात भी कर लें जिन के लिये ये टैस्ट ज़रूरी तो हैं लेकिन जिन्हें झोलाछाप, फुटपाथ-मार्का नकली चिकित्सकों ने इस कद्र उलझा के रखा हुया है कि वे हर बीमारी के पीछे किसी प्रेतात्मा का हाथ बताते रहते हैं ---कईं बार सोचता हूं कि इन चक्करों में उलझे रहना शायद इन कम-खुशकिस्मत लोगों की मजबूरी भी हो सकती है। अगर टैस्ट करवाने को कोई कह भी दे तो पैसे कहां से आएंगे ?
इसी संबंध में एक किस्सा सुना रहा हूं ---लड़का बहुत दिनों से कह रहा था कि पोर्टेबल हार्ड डिस्क लेनी है। कुछ दिन पहले मैं उस के साथ चंडीगढ़ पहुंचा ---स्टेशन के बाहर ही –हम दोनों आटो की इंतज़ार कर रहे थे कि अचानक एक आटो वाला एक पचास के करीब की महिला को बुरी तरह ठोक कर चला गया। जिस तरह से वह महिला गिरी और बेहोश हो गई मुझे तो लगा कि चोट खासी गहरी लग गई लगती है। महिला का वर्णऩ तो किया ही नहीं ---- यह वो महिला बिल्कुल वैसी थी जिसे हम पढ़े लिखे लोग अनपढ़, गरीब, .....पता नहीं क्या क्या कह देते हैं ? ---शायद यह सब लिखना इतना ज़रूरी नहीं था क्योंकि वह तो केवल एक मां थी। उस के बच्चों ने उस को घेर रखा था।
मैंने पानी की बोतल उसे दी--- उस ने पानी पिया ---मैंने उस के बच्चों को कहा कि कुछ समय के लिये इन्हें लिटा दो, उसे लिटा दिया गया , उस के कुनबे के लोगों में से कोई उस का सिर दबा रहा था...मैं भी अपना काम कर रहा था ---उन के पास ही खड़ा मैं बड़ी शिद्दत से इस प्रभु से यही प्रार्थना किये जा रहा था कि कैसे भी इसे ठीक कर दे, भाई। मुझे यह तो यकीन ही था कि परमात्मा ही कुछ चमत्कार करे सो करे, इन्हें कोई दो-चार सौ रूपये दे भी देगा तो इतने में इन का क्या बनेगा, शायद इतने रूपयों में तो ये किसी बड़े हास्पीटल के गेट तक ही पहुंच पाएं ---- बस, मैं बड़ी इमानदारी से उस लम्हों में प्रार्थना से जुड़ा हुया था -----और मेरा ऐसा विचार बन रहा था कि ये कुछ ठीक हो तो ही मैं और मेरा बेटा वहां से चलें !!
तभी वह औरत ने बात करना शुरू कर दिया –वह अपने बेटे को बता रही थी कि यह सब कैसे हुआ ---- दोस्तों, मैं बता नहीं सकता कि मुझे उस पल कितनी खुशी हुई ---मेरी खुशी का पारावार नहीं था ---- मुझे शायद यही लग रहा था कि मेरी अरदास काम कर गई ----- तभी एक आटो दिखा, हम बैठ कर मार्कीट की तरफ़ निकल पड़े।
मुझे पता है कि इस औरत के सिर पर इस तरह की टक्कर के इंपैक्ट के कारण वह जो दो-तीन मिनट बेसुध रही वह भविष्य के लिये एक दुर्भाग्यपूर्ण भी हो सकती थी लेकिन यही सोच कर ही मन को तसल्ली दे दी कि जिस ने उस की अभी इस समय रक्षा की है, वह भविष्य में भी करेगा ---- सोच वैसे रहा था कि अगर इस का सी.टी करवाना होगा तो कौन करवायेगा .......और साथ ही यह भी समझने की कोशिश कर रहा था कि यार, कुछ तो बात है उस बात में भी कि जब दवा काम नहीं करती तो दुआ काम करती है।
गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009
महेश भट्ठ की फिल्म -- प्लेट में ज़हर ( Poison on the platter)
दिमाग में तुरंत कईं प्रश्न कौंध गये --- कोई हाईब्रिड वैरेयटी( मैं इस की लाभ-हानियों के बारे में कुछ ज़्यादा नहीं जानता), क्या ये टीकों के तैयार तो नहीं किये गये या ये कुछ नये नये रासायनों की तो देन नहीं हैं। ध्यान तो एक बार बीटी बैंगन की तरफ़ भी गया।
आज सुबह राज भाटिया की यह पोस्ट देख कर पूरी स्टोरी जानने की इच्छा हुई। और इस के बारे मैंने सोचा कि इस मुद्दे के बार में और भी प्रामाणिक रिसर्च का पता लगाया जाए।
बस ऐसे ही घूमते घूमते मैं यहां पहुच गया जहां से मुझे पता चला कि फिल्मकार महेश भट्ट ने मार्च 2009 में एक फिल्म बनाई है --- Poison on the platter. इसलिये इस के यू-ट्यूब लिंक्स यहां लगा रहा हूं ----कुल चार पार्ट्स हैं, लेकिन दूसरे भाग शायद कुछ गड़बड़ सी लगती है ----यह मुझे पूरी नहीं दिख रही ।
वैसे थाली में ज़हर नाम की एक स्टोरी यहां भी दिखी।
भई मुझे तो यह सब जान कर डर सा लग रहा है, आप का क्या हाल है ? आप भी सोच रहे हैं न कि यार, अब हमारे भुरते को भी नज़र लग गई !!!!
बुधवार, 14 अक्तूबर 2009
बेशक तस्वीरें बोलती हैं .....
इन तस्वीरों में बहुत बड़ी बड़ी, नामी-गिरामी, रईस हस्तियों को वोट डालते दिखाया जाता है ----इस के बारे में मेरे क्या विचार हैं ? --यह तो भई लिखने की कतई इच्छा ही नहीं हो रही, क्यों यह सब लिख कर खाली-पीली टाइम खराब करने का ?
चुनाव के दिन सारा दिन टीवी के लगभग सभी चैनलों पर यही दिखता रहता है कि फलां फलां ने वोट वहां डाला, उस की बीवी ने वहां डाला, साथ में उस के बेटे भी थे और बहू भी थी। फिर उन के साथ एक दो बातें भी दिखाई जाती हैं। और दूसरे चैनल पर दिख जाता है कि किस हस्ती ने नाश्ते से पहले, किस ने मंदिर जाने के बाद और किस ने सुबह के भ्रमण के तुरंत बाद वोट डाला। सोचने की बात यह है कि Agenda Setting Theory के अंतर्गत आखिर मीडिया कौन सा एजैंडा सैट कर रहा है ?
ओ..हो....इतना महान काम कर दिया, वोट डाल के। जिस अंदाज़ में ये सब लोग अपनी उंगली पर काली स्याही से लगा निशान मीडिया के सामने दिखाते हैं उसे देख कर सिरदर्द होने लगता है। इतनी भी कौन सी बड़ी बात है ---प्रजातंत्र है, जहां करोड़ों लोगों ने वोट किया, आप लोगों ने भी किया ---इस में आखिर इतनी बड़ी बात है क्या यह कभी भी मेरी समझ में नहीं आयेगी।
वैसे सोचने की बात है कि अगर कुछ नामी गिरामी हस्तियां मीडिया को अपनी यह उंगली दिखाते फिरते हैं तो इस में इन का क्या कसूर ? --- लगता है कि वोट वाले दिन इन हस्तियों को जो इतनी ज़्यादा कवरेज मिलती है इस में दोष मीडिया का ही है। मुझे तो यह सब देख कर बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता।
और अगले दिन जो लगभग सभी अखबारों के पहले पन्ने पर फोटो छपते हैं उन्हें देख कर भी कोई खास तबीयत खुश नहीं होती। आठ-दस बहुत ही बुज़ुर्ग महिलायों की तस्वीरें तो दिख जाती हैं जिन्हें उन के रिश्तेदारों ने स्वयं उठाया होता है। इन बुज़ुर्ग महिलायों की इतनी उम्र हो चुकी होती है कि शायद ही उन्हें पता होता होगा कि कौन से चुनाव हो रहे हैं और कौन कौन से प्रत्याशी हैं ?
दा हिंदु में छपने वाली तस्वीरें होती भी ऐसी ही हैं जो कि पाठक को बहुत सोचने पर मजबूर करती हैं। मुझे कहने में यह कोई झिझक नहीं है कि आज तक चुनाव से संबंधित मैंने जितनी भी तस्वीरें देखी हैं यह उन सब में से बेहतरीन है।
मैं इस तस्वीर को लगभग दस मिनट तक देखता रहा ---शायद मैं इस के चेहरे की हरेक सिलवट में छिपी हुई बीसियों कहानियां पढ़ने की नाकाम कोशिश कर रहा था।इस तस्वीर को देख कर कोई ऐसा होगा जो इस की हिम्मत की दाद दिये बिना रह सके। यह तस्वीर है भी तो परफैक्ट---तस्वीर में पूरा फोकस अम्मा पर होते हुये भी बैकग्राउंड में पूरी चुनावी एक्टिविटी को कैप्चर किया गया है।
अरे भाई, मीडिया वालो, चुनाव के दिन बड़े बड़े रइसों, नामी-गिरामी हस्तियों की तस्वीरें खींचने से थोड़ी सी भी फुर्सत मिले तो इस तरह की जिंदादिल, जिवंत, जीवित देवियों की तस्वीरें विभिन्न चैनलों पर सुबह सुबह से ही बार बार फ्लैश किया करें ---अगर इन से दो बातें भी करें तो कितना बढ़िया होगा । आप सोच रहे हैं कि इस तरह की इन देवियों को इस से क्या हासिल होगा ?
इन को क्या हासिल होगा ? --- शायद ये तो फायदे -नुकसान जैसी चीज़ों से बहुत ऊपर उठ चुकी हैं, लेकिन इन तस्वीरों को चुनाव के दिन बार बार दिखाने से हमारे कुछ युवा लोगों को शायद चुल्लू भर पानी की ज़रूरत महसूस होने लगे ----- शायद उन्हें इस देवी की हालत देख कर कुछ तो प्रेरणा मिले कि यार, अगर यह वोट देने जा सकती हैं तो हम क्यों नहीं ? ---बहुत हो गई सुस्ती , हम भी नहा धो कर अपने अधिकार का इस्तेमाल कर के आते हैं !!
तो, हो गई न इस तरह की फोटो से वोटों का प्रतिशत बढ़ाने में मदद। बहरहाल, मैं इस गुमनाम देवी के ज़ज्बे को दंडवत् प्रणाम् करता हूं और सभी चिट्ठाकरों की ओर से इन के स्वास्थ्य एवं दीर्घायु की कामना करता हूं।
मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009
ये तस्वीरें आंखें गीली कर देती हैं !
शनिवार, 10 अक्तूबर 2009
अंकुरित करने की प्रक्रिया बहुत आसान
गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009
मुलैठी खाने से पैदा होते हैं बुद्धु बच्चे ?
मुझे तो आज ही पता चला कि पश्चिमी देशों मे भी लोग मुलैठी ( जेठीमधु, मधुयष्टिका) के इतने दीवाने हैं ---चेतावनी यह है कि गर्भवस्था के दौरान अगर एक सप्ताह में 100ग्राम शुद्ध मुलैठी खा लेती हैं तो बच्चों की बुद्धि पर एवं उन के व्यवहार पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
मेरा मुलैठी ज्ञान आज तक बहुत सीमित था --- अधिकतर व्यक्तिगत अनुभवों पर ही आधारित था। बचपन से अब तक गला खराब होने पर ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां लेने में मुझे कभी भी विश्वास ही नहीं रहा। बस, दो-चार मुलैठी चूस लेने से गला एकदम फिट लगने लगता है, इसलिये मेरी इस पर अटूट श्रद्धा कायम है और मै अपने मरीज़ों को भी कहता हूं कि गले तकी छोटी मोटी मौसमी तकलीफ़ों के लिये ये सब देसी जुगाड़ ही असली इलाज हैं (शायद कोई तो मान लेता होगा !!!)
और कईं बार घर में मुलैठी का पावडर डाल कर चाय भी बनती है----वही खराब गले को लाइन पर लाने के लिये। मुझे इतना पता था कि आयुर्वैदिक दवाईयों में भी मुलैठी इस्तेमाल होती है।
मुलैठी कैंडी
लेकिन मुझे इस बात का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि पश्चिमी देशों में इस के बनी कैंडी आदि भी इतनी पापुलर हैं -- और यह मुलैठी खाने से बुद्धु बच्चे पैदा होने की बात सुन कर ही यह सब जानने की इच्छा हुई।
मुझे लगता है कि यह समस्या दूर-देशों की अपनी ही अनूठी समस्या है जहां पर कैंडी इत्यादि के मुलैठी का इ्स्तेमाल किया जाता है और इन कैंडियों का इतनी ज़्यादा मात्रा में इस्तेमाल होता है । सोच रहा हूं कि इतनी ज़्यादा कैंड़ी खाने से मुलैठी की मात्रा का तो टोटल हो गया, लेकिन जितनी शक्कर आदि शरीर में गई उस का क्या ?
जिस एरिये की महिलायों पर यह स्टडी हुई है मेरे विचार में वहां पर तो गर्भावस्था में इस तरह की इतनी ज़्यादा मुलैठी कैंडी से बच के ही रहा जाए।
लेकिन आप बिल्कुल पहले जैसे मुलैठी चबाते रहिये ----आप बिल्कुल लाइन पर चल रहे हैं-------हमारी समस्या है कि नईं पीढ़ी का इन सब बातों पर विश्वास नहीं है---चलिये, यह स्वयं भुगतेगी।
मुझे पता है कि इस न्यूज़-स्टोरी में आप के साथ कुछ साझा करने जैसा नहीं था, लेकिन इस के बहाने अगर हम लोगों ने मुलैठी जैसे प्रकृति के तोहफ़े को थोड़ा याद कर लिया है, उस के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की है ----क्या यह कम है ? वैसे बाज़ार में बिकने वाले खुले मुलैठी पावडर के बारे में आप का क्या विचार है ------ जहां लोग धनिया पावडर में अनाप-शनाप मिलावट करने से गुरेज नहीं करते वहां पर कैसे मिले शुद्ध मुलैठी पावडर !!
बुधवार, 7 अक्तूबर 2009
एनडीटीवी इंडिया ने खोल दी मीठे ज़हर की पोल
अकसर ऐसे कार्यक्रम देख कर लगने लगता है कि ये जो हिंदी के न्यूज़-मीडिया चैनल हैं ये भी आम आदमी की आंखे और कान ही हैं। इन के संवाददाता इतनी मेहनत कर के, अपने आप को जोखिम में डाल के ऐसी ऐसी बातें जनता के सामने लाते हैं जिन के बारे में वैसे तो उसे कभी पता चल ही नहीं सकता।
लेकिन सोचने की बात यह भी है कि जागरूकता से भरपूर इतने बढ़िया बढ़िया कार्यक्रम देखने के बाद क्या पब्लिक सब तरह का कचरा खाने से गुरेज़ करनी लगती है--जिस तरह से बाज़ार में मिठाईयों आदि की दुकानों पर भीड़ टूट रही होती है उसे से मुझे तो ऐसा नहीं लगता। लेकिन लोगों के मन में आज के आधुनिक मीडिया द्वारा इस तरह की बातें डालना भी एक बहुत अच्छा प्रयास है ----ठीक है जब किसी को ज़रूरत महसूस होगी वह उस ज्ञान को इस्तेमाल कर ही लेगा (इतनी जल्दी भी क्या है यारो, जब जीना है बरसों !!!)..
असर होता है---डाक्टर हूं, सब देखता, पढ़ता-सुनता रहता हूं ----अभी कुछ दिन पहले की ही बात है जब टीवी पर पाव रोटी या पांव रोटी का कार्यक्रम आ रहा था ---- उस दिन के बाद डबलरोटी खाने की इच्छा ही नहीं हुई। और अब घर में जब कभी ब्रैड आती है तो केवल एक ही बढ़िया ब्रांड की ही आती है ---- लोकल ब्रांड तो बच्चे अपने डॉगी को भी नहीं डालते ----कहते हैं कि जो हम नहीं खाते इस छोटू को भी नहीं देंगे।
जिस तरह से कल एनडीटीवी ने दिखाया कि किस तरह से सिंथैटिक दूध बनता है ---जिस में दूध तो होती ही नहीं, केवल कैमीकलों की ही मिश्रण होता है जो कि बीसियों भयंकर बीमारियों की खान होते हैं। मिलावटी मावे में क्या क्या होता है इसे देख कर तो लगता नहीं कि कोई मावे के पास भी फटक जाए।
देसी घी की पोल भी अच्छी तरह से खोली गई कि उस में कितनी तरह के ज़हरीले पदार्थ डाले जाते हैं। कल का कार्यक्रम देख कर छोटे बच्चे भी कहने लगे कि लगता है अब तो केवल दाल-रोटी पर ही टिक के रहना चाहिये।
मिठाईयां किसे अच्छी नहीं लगतीं----मुझे भी बेसन के लड्डू, पतीसा और बर्फी बहुत अच्छी लगती है लेकिन महंगी से महंगी दुकान की भी खरीदी इन मिठाईयों पर मेरा तो भई बिल्कुल भी भरोसा नहीं रहा। इसलिये मैं कभी गलती से एक आधा टुकड़ा खा लूं तो भी मैं अपराधबोध का शिकार ही हुआ रहता हूं कि सब कुछ पता होते हुये भी .....।
हां तो बताया यह भी जा रहा है कि अगर हम इस तरह की मिलावटों से बचना चाहते हैं तो किसी मशहूर दुकान से ही खरीदी मिठाई खाएं अथवा स्वयं मिलावट की जांच कर लें। लेकिन मैं इस से इत्तफाक नहीं रखता ----किसी दुकान में बढ़़िया कांच लगवा लेने से ,एक-दो स्पलिट एसी फिट करवा लेने से क्या क्वालिटी की भी गारंटी हो जाती है। और जहां तक मिलावट को खुद जांचने की बात है अभी तक तो चांद को मांगने जैसी बात लगती है। लेकिन भवि्ष्य में इस के बारे में कुछ हो तो बहुत बढ़िया रहेगा।
मैं कईं बार सोचता हूं लोग ठीक ही कहते हैं ---हमारे यहां शायद जानें बहुत सस्ती हैं। मिलावट के बारे में टीवी चैनल इतनी जागरूकता फैला रहे हैं लेकिन फिर भी यह गोरख-धंधा फल-फूल ही रहा है। दो दिन पहले कहीं पढ़ रहा था कि अमेरिका में एशियाई मुल्कों से आयात किये हुी सूखे आलूबुखारे बिक रहे थे ----जब वहां की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने उन की जांच की तो उन में ---- Lead (शीशा) की मात्रा बहुत अधिक पाई गई । तुरंत वहां पर उस एजेंसी ने लोगों को हिदायत दे दी कि इन सूखे आलुबुखारों से बच के रहो और यहां तक कि वहां की सरकार ने इस तरह के प्रोडक्ट्स की फोटो कंपनियों के नाम के साथ वेबसाईट पर भी डाल दी।
और एक हम हैं कि दीवाली आ रही है और शुद्ध मिठाई के लिये तरसे जा रहे हैं। मैं आज सुबह ही किसी के साथ हंसी मज़ाक कर रहा था कि देखना, खन्ना साहब, वही दिन वापिस आ जायेंगे जब हम लोगों को चीनी के खिलौनों एवं कुरमुरे से ही दीवीली मनानी पड़ा करेगी।
जावेद अख्तर ने लिखा है कि पंछी नदियां पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके, सोचा तूमने और मैंने क्या पाया इंसा होके -------उसी तरह हम लोगों ने इतनी ज़्यादा तरक्की कर ली कि हम लोग मिठाई के लिये ही तरस गये ---- बचपन में अमृतसर में खाई बर्फी का स्वाद अभी में मुंह में वैसे का वैसा ही है-------तब हमारे जैसे ही सिरफिरे हलवाई हुआ करते थे जो घंटों एक कड़ाई में पक रही दूध की रबड़ी में घंटों कड़छे मार मार के थकते नहीं थे -------लेकिन अब कहीं भी न तो ऐसे सिरफिरे हलवाई ही दिखते है और न ही वैसी छोटी छोटी हलवाईयों की दुकानें जिन की खुशबू दूर से ही आ जाया करती थी और हम बच्चों का नाटक शूरू हो जाया करता था।
PS....Please let me know some good on-line tutorials for knowing the proper placement of pictures in a blog post. And also for putting some text-boxes, full-quotes etc. Thanks.
शनिवार, 26 सितंबर 2009
जब चिकित्सा-कर्मी ही बीमारी परोसने लगे …
और आज डेनवर कि यह खबर दिख गई कि वहां के एक अस्पताल के सर्जीकल विभाग में एक 26 वर्षीय चिकित्सा-कर्मी को बीस साल की सजा हो गई है।
इस का दोष ? –इस महिला ने उस अस्पताल में दाखिल दर्जनों लोगों को हैपेटाइटिस-सी इंफैक्शन की “सौगात” दे डाली। इस न्यूज़-रिपोर्ट में यह भी दिखा कि यह अस्पताल में भर्ती मरीज़ों की दर्द-निवारक दवाईयां पार कर जाया करती थी।
और फिर उन के सामान में हैपेटाइटिस-सी संक्रमित सिरिंज सरका दिया करती थी---यह महिला स्वयं भी हैपेटाइटिस-सी से संक्रमित थी।यह तो ऐसी बात है जिस की कभी कोई मरीज़ शायद कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं सोच रहा हूं कि दुनिया में हर देश की, हर समुदाय की अपनी अलग सी ही समस्यायें हैं---हमारे देश का मीडिया अकसर दिखाता रहता है कि किस तरह से दूषित रक्त का धंधा चल रहा है –—देश में कुछ जगहों पर कमरों में लोगों ने अवैध रक्त-बैंक ( रक्त की दुकानें) की दुकानें खोल रखी हैं।
और अमीर देशों की हालत देखियें कि वहां पर वैसे तो वैसे तो कानूनी नियंत्रण कितने कड़े हैं लेकिन वहां भी अगर बाड़ ही खेत को खाने पर उतारू हो जाये तो ……..!
हैपेटाइटिस-सी
हैपैटाइटिस-सी की बीमारी एक खतरनाक बीमारी है जिस के फैलने का रूट हैपेटाइटिस बी जैसा ही है ---दूषित रक्त, दूषित सिरिंजों, संक्रमित व्यक्ति के विभिन्न शारीरिक द्व्यों ( body fluids of the infected individuals) जिन में वीर्य, लार आदि सम्मिलित हैं। इस से संक्रमित व्यक्ति से यौन संबंधों के द्वारा भी इस का संचार होता है।हैपेटाइटिस सी से संबंधित जानकारी इस पेज पर पड़ी हुई है।
और दूषित रक्त में जो हैपैटाइटिस सी का मुद्दा है उसके बारे में यह कहा जाता है कि हमारे यहां तो ब्लड-बैंकों में इस टैस्ट को अनिवार्य किये हुये तो कुछ ही समय हुया है ----इस का मतलब उस से पहले सब कुछ राम भरोसे ही चल रहा था –लेकिन इस बीमारी के कुछ पंगे ये हैं कि इस से बचाव का अभी तक कोई टीका नहीं है और शरीर में इस बीमारी के कईं कईं वर्षों तक कोई लक्षण ही नहीं होते।
एक ग्राम कम नमक से हो सकती है अरबों ड़ॉलर की बचत !
केवल बस इतना सा नमक कम कर देने से ही वहां पर हाई-ब्लड-प्रैशर के मामलों में ही एक सौ दस लाख मामलों की कमी आ जायेगी। यह न्यू-यॉर्क टाइम्स की न्यूज़ रिपोर्ट मैंने आज ही देखी।
ऐसा कुछ नहीं है कि वहां अमेरिका में यह सिफारिश की जा रही है और भारत में कुछ और सिफारिशें हैं। हमारे जैसे देश में जहां वैसे ही विशेषकर आम आदमी के लिये स्वास्थ्य संसाधनों की जबरदस्त कमी है ---ऐसे में हमें भी अपनी खाने-पीने की आदतों को बदलना होगा।
जबरदस्त समस्या यही है कि हम केवल नमक को ही नमकीन मानते हैं। यह पोस्ट लिखते हुये सोच रहा हूं कि नमक पर तो पहले ही से मैंने कईं लेख ठेल रखे हैं ---फिर वापिस बात क्यों दोहरा रहा हूं ?
इस सबक को दोहराने का कारण यह है कि इस तरह की पोस्ट लिखना मेरे खुद के लिये भी एक जबरदस्त रिमांइडर होगा क्योंकि मैं आचार के नमक-कंटैंट को जानते हुये भी रोज़़ इसे खाने लगा हूं और नमक एवं ट्रांस-फैट्स से लैस बाकी जंक फूड तो न के ही बराबर लेता हूं ( शायद साल में एक बार !!) लेकिन यह पैकेट में आने वाला भुजिया फिर से अच्छा लगने लगा है जिस में खूब नमक ठूंसा होता है।
और एक बार और भी तो बार बार सत्संगों में जाकर भी तो हम वही बातें बार बार सुनते हैं लेकिन इस साधारण सी बातों को मानना ही आफ़त मालूम होता है, ज़्यादा नमक खाने की आदत भी कुछ वैसी ही नहीं हैं क्या ?
इसलिये इस पर तो जितना भी जितनी बार भी लिखा जाये कम है ---एक छोटी सी आदत अगर छूट जाये तो हमें इस ब्लड-प्रैशर के हौअे से बचा के रख सकती है।
मंगलवार, 22 सितंबर 2009
ताकत से लैस हैं ये खाद्य-पदार्थ – 2. अंकुरित दालें
कच्चे खाने ( raw food) पर लिखी गई एक बहुत ही बढ़िया इंगलिश की किताब मैंने पढ़ी थी – Raw Energy –अभी भी मेरे पास पड़ी होगी कहीं किताबों के ढेर में । मैं इस में लिखी बातों से बहुत प्रभावित भी हुआ और उन से इत्तफाक भी रखता हूं।
इस किताब में कच्चे खाने की सिफारिश करते हुये बार बार यह कहा गया है कि धीरे धीरे हमें अपने खाने में कच्चे खाने को अधिक से अधिक जगह देना चाहिये। उन दिनों मैं बंबई में सिद्ध समाधि योग (turning point in my life !!) के प्रोग्रामों में भी जाया करता था –इसलिये इस किताब में लिखी बातों ने मेरे ऊपर बहुत असर किया।
दरअसल पका हुया खाने के चक्कर में हम लोग पहले तो बेशकीमती विटामिन और खनिज तत्व गंवा बैठते हैं और फिर बाद में विटामिनों की गोलियां निगल कर इन की भरपाई करने का विफल प्रयास करते रहते हैं।
हम अकसर थोड़ा बहुत सलाद खा कर ही इत्मीनान कर लेते हैं -- मुझे याद है हम लोग जिस योग-क्लास में जाया करते थे वहां पर Raw food तैयार करवा कर हमें खिलाया जाता था। हमें बार बार यह भी कहा जाता था कि जब आप कच्चा खाना खा रहें हैं तो आप को इस बात का ज़्यादा ध्यान रखने की ज़रूरत नहीं होती कि कहीं आप ओव्हर-ईटींग तो नहीं कर रहे, और आप जितना चाहे खा लें, ज़्यादा कैलोरी की चिंता करने की भी आफ़त नहीं।
चलिये, आज के विषय पर लौटते हैं – अंकुरित दालें ---इन की जितनी भी प्रशंसा की जाये उतनी ही कम होगी। मैं जिस किताब की बात कर रहा हूं उस में इन अंकुरित दालों एवं अनाजों को पावर-डायनैमो ( sprouts are compared to power dynamos). आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि ये कितनी अथाह शक्ति का स्रोत होंगे।
मैं जितनी बार भी अपने किसी मरीज़ को अंकुरित दालें आदि खाने की सलाह देता हूं तो मुझे यही जवाब मिलता है कि हां, हां, कभी कभी खाते हैं। लेकिन आगे पूछने पर पता चलता है कि वे इन अंकुरित दालों को भी पका कर ही कभी कभी खाते हैं। यह पूछने पर कि क्या इन अंकुरित दालों को बस ऐसे ही बिना पकाये खाया है, तो लगभग हमेशा यही जवाब मिला है कि यह तो हम से नहीं हो पाता।
क्या आपने कभी अंकुरित दालें आदि बिना पकाये खाई हैं ? मैंने पिछले 15 सालों में खूब खाई हैं। कैसे ? --- लगभग आधी कटोरी अगर आप ले कर उस में थोड़ा सा नींबू डाल लें तो आराम से खाया जाता है। और फिर सेहत के लिये थोड़ा स्वाद का ध्यान तो छोड़ना ही होगा। वैसे, अगर आप को इन्हें खाने में दिक्तत सी आये तो आप इन के दो-चार चम्मच लेने से शूरूआत कर सकते हैं।
स्वाद के लिये जहां तक इन में नमक डालने की बात है, किसी भी उम्र के लिये उस की सिफारिश नहीं की जा सकती क्योंकि इस से यू ही उच्च रक्तचाप होने की संभावना बढ़ती है----इसलिये जितना नमक कम लिया जाये उतना ही बेहतर है। अकसर बच्चों के भी बचपन में ही स्वाद डिवैल्प होते हैं इसलिये उन्हें भी बचपन से ही जितना हो सके किसी तरह कम नमक-मिर्ची वगैरह की ही आदत डाली जाये तो उम्र भर सेहतमंद रहेंगे।
वैसे मुझे याद हैं जब मैंने 1994 में अंकुरित दालों आदि को खाना शूरू किया तो मेरे को भी थोड़ी कठिनाई तो होती थी ---- लेकिन हमारे उस बंबई वाले ग्रुप में जब सभी खाते थे तो फिर आराम से यह सब हो जाता था और जब हमें वीकएंड-रिट्रीट के लिये बंबई के पास मुरबाड आश्रम ले कर जाया जाता था तो वहां तो हमें पूरा कच्चा खाना ( raw food) ही दिया जाता था।
और मैंने जिन अंकुरित दालों आदि को खूब खाया है और आज कल भी अकसर खाता ही हूं वे हैं साबुत मूंग की दाल ( हरी, छिलके वाली दाल), मसर की दाल आदि, मेथी दाना भी अकुरित कर के कईं बार खाया है। वैसे कहते तो हमें कईं तरह के अनाज को अंकुरित कर के खाने को भी थे लेकिन वह पता नहीं कभी हो नहीं पाया।
अनुभव के आधार पर भी कह सकता हूं कि ये अंकुरित दालें आदि तो पावर-डायनैमो ही हैं। इन का नियमित सेवन बेइंतहा फायदेमंद है ----इन के क्या क्या गुण गिणायें ? अगर आप ने अभी तक ट्राई नहीं किया तो अभी शूरू करिये। अगर शूरू शूरू में दिक्तत लगे तो आप इन्हें दाल-रोटी के साथ उस तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं जिस तरह कभी कभी सेव, भुजिया आदि को लेते हैं।
और जो लोग अकेले रहते हैं, होस्टल में रहते हैं या जिन्होंने टिफिन लगा रखा है उन्हें भी ये अंकुरित बहुत रास आयेंगे। इन्हें तैयार करने में कोई विशेष ताम-झाम की भी ज़रूरत नहीं होती। आसानी से सब हो जाता है। बस इन का सेवन करने की इच्छा होनी चाहिये।
मुझे ध्यान आ रहा है कि हमें उस योग क्लास में कभी कभी इन अंकुरित दालों को पानी में भिगाये हुये पोहे में डाल कर भी दिया जाता था जिन में कच्ची गाजर आदि को भी कद्दूकश कर के डाला होता था और थोड़ा गुड़ भी ----सचमुच वे दिन भी क्या दिन क्या थे !!
और हां, इसे पढ़ने के बाद आप अंकुरित अनाज के अपने अनुभव बांटिये जिन के इस्तेमाल का मुंझे कोई खास अनुभव नहीं है।
ताकत से लैस हैं ये खाद्य-पदार्थ –1. आंवला
Photo Courtesy : berrydoctor.com
आज का मानव क्यों इतना थका सा है, परेशान सा है, हर समय क्यों उसे ऐसे लगता है कि जैसे शरीर में शक्ति है ही नहीं? अन्य कारणों के साथ इस का एक अहम् कारण है कि हम लोगों ने अपनी सेहत को बहुत से हिस्सों में बांट दिया जाता है या कुछ स्वार्थी हितों ने हमें ऐसा करने पर मजबूर कर दिया है।
जहां तक ताकत के लिये इधर उधर भागने की बात है, ये सब बेकार की बातें हैं, इन में केवल पैसे और सेहत की बरबादी है। हम लोग अपनी परंपरा को देखें तो हमारे चारो और ताकत से लैस पदार्थ बिखरे पड़े हैं, लेकिन हम क्यों इन को सेवन करने से ही कतराते रहते हैं !!
चलिये, आज मैं आप के साथ इन ताकत से लैस खाने-पीने वाली वस्तुओं के बारे में अपने अ्ल्प ज्ञान को सांझा करता हूं---निवेदन है कि इस लेख की टिप्पणी के रूप में दूसरे अन्य ऐसे पदार्थों का भी आप उल्लेख करें जिन के बारे में आप भी कुछ कहना चाहें।
आंवला --- या अमृत फल ?
अब आंवले की तारीफ़ के कसीदे मैं पढूं और वह भी आप सब गुणी लोगों के सामने तो वह तो सूर्य को दीया दिखाने वाली बात हो जायेगी।
सीधी सी बात है कि हज़ारों साल पहले जब श्रषियों-मुनियों-तपी-तपीश्वरों ने कह दिया कि आंवला तो अमृत-फल है तो मेरे ख्याल में बिना किसी तरह के सोच विचार के उसे मान लेने में ही बेहतरी है।
अब, कोई यह पूछे कि आंवला खाने से कौन कौन से रोग ठीक हो जाते हैं ----मुझे लगता है कि अगर यह प्रश्न इस तरह से पूछा जाये कि इस का सेवने करने से कौन कौन से रोग ठीक नहीं होते हैं, यह पूछना शायद ज़्यादा ठीक रहेगा।
वैसे भी हम लोग बीमारी पर ही क्यों बहुत ज़्यादा केंद्रित हो गये हैं –हम शायद सेहत पर केंद्रित नहीं हो पाते ---हम क्यों बार बार यही पूछते हैं कि फलां फलां वस्तु किस किस शारीरिक व्याधि के लिये ठीक रहेगी, हमें पूछना यह चाहिये कि ऐसी कौन सी चीज है जो हमें एक दम टोटली फिट रखेगी।और यह आंवला उसी श्रेणी में आने वाला कुदरत का एक नायाब तोहफ़ा है।
इसे सभी लोग अपने अपने ढंग से इस्तेमाल करते हैं---ठीक है किसी भी रूप में यह इस्तेमाल तो हो रहा है। मैं अकसर तीन-चार रूपों में इस का सेवन करता हूं ----जब इस सा सीजन होता है और बाज़ार में ताजे आंवले मिलते हैं तो मैं रोज़ एक दो कच्चे आंवलों को काट कर खाने के साथ खाता हूं ---जैसे स्लाद खाया जाता है, कुछ कुछ वैसे ही।
और कईं बार सीजन के दौरान इस का आचार भी ले लेता हूं --- और अब बाबा रामदेव की कृपा से आंवला कैंड़ी भी ले लेता हूं ----बच्चों के लिये तो ठीक है लेकिन फ्रैश आंवला खाने जैसी बढ़िया बात है ही नहीं।
और कुछ महीनों के लिये जब आंवले बाज़ार से लुप्त हो जाते हैं तो मैं सूखे आंवले के पावडर का एक चम्मच अकसर लेता हूं ---बस आलसवश बहुत बार नहीं ले पाता हूं।
बाज़ार में उपलब्ध तरह तरह के जो आंवले के प्रोडक्टस् मिलते हैं मैं उन्हें लेने में विश्वास नहीं करता हूं ----क्योंकि मुझे उन्हें लेने में यही शंका रहती है कि पता नहीं कंपनी वालों ने उस में क्या क्या ठेल ऱखा हो !! इसलिये मैं स्वयं भी यह सब नहीं खरीदता हूं और न ही अपने किसी मरीज़ को इन्हें खरीदने की सलाह देता हूं। इस मामले में शायद आंवले का मुरब्बा एक अपवाद है लेकिन जिस तरह से वह अब बाज़ार में खुला बिकने लगा है, उस के बारे में क्या कहें, क्या ना कहें !
हमारे एक बॉस थे --- वे कहते थे कि उन के यहां तो आंवले के पावडर को सब्जी तैयार करते समय उसमें ही मिला दिया जाता है --- लेकिन पता नहीं न तो मैं इस से कंविंस हुआ और न ही घर में इस के बारे में एक राय बन पाई।
अगर किसी को अभी तक आंवला खाने की आदत नहीं है और झिझक भी है कि इसे कैसे खाया जायेगा तो आंवला कैंडी से शुभ शूरूआत करने के बारे में क्या ख्याल है ?
सोमवार, 21 सितंबर 2009
ग्लूकोज़ की बोतल भी देती है ताकत !!
पिछले पोस्ट में हम लोग कुछ ताकत की दवाईयों की चर्चा कर रहे थे ---कुछ दवाईयां तो छूट ही गईं। ग्लूकोज़ की बोतल, ग्लूकोज़ पावडर,कैल्शीयम की गोलियां, और खाने में मछली, चिकन-सूप, चिकन एवं मांसाहारी आहार.
ग्लूकोज़ की बोतल वाली ताकत
---बहुत से लोगों से अकसर नीम-हकीम इस ग्लूकोज़ की बोतल के द्वारा ताकत दिलाने का झूठा विश्वास दिला कर तीन-चार सौ रूपये ऐंठ लेते हैं, लेकिन ताकत कहां से आयेगी !
दरअसल अभी भी देश में यही सोच है कि अगर किसी भी कारण से कमज़ोरी सी लग रही है तो एक-दो शीशी ग्लूकोज़ की चड़वाने से यह छू-मंतर हो जायेगी।
लेकिन ग्लूकोज़ चढ़ाने के लिये क्वालीफाईड चिकित्सकों के अपने कारण होते हैं--- administration of intravenous fluids has got its own indications. लेकिन मरीज़ की फरमाईश पूरी करने के चक्कर में कईं बार बहुत पंगा हो जाता है।
ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ाने के लिये बहुत से कारण है---कईं बार उल्टी-द्स्त किसी को इतने लग जायें कि शरीर में पानी की कमी सी होने लगे (डि-हाईड्रेशन) तो भी इस के द्वारा शरीर में शक्ति पहुंचाई जाती है।
ग्लूकोज़ का पैकेट
--- अकसर ग्लूकोज़ के पैकेट का भी कुछ लोगों में बहुत क्रेज़ है । बिना किसी विशेष कारण के ही यह पैकेट खरीद कर पिलाना शूरू कर दिया जाता है।
बात यह है कि यह भी डाक्टर की सलाह के अनुसार ही खरीदा जाना चाहिये। एक बात का विशेष ध्यान रखें कि कभी भी डाक्टर से अपनी तरफ़ से अलग अलग चीज़ों के नाम जैसे कि ग्लूकोज़ का पावडर आदि मरीज़ को पिलाने की बात स्वयं न करें। अगर ज़रूरत होगी तो वह स्वयं ही बता देगा।
अगर अपनी मरजी से पिला रहे हैं तो फिर चीनी पीस कर ही पानी में निंबू-नमक के मिश्रण के साथ पिला दें।
कैल्शीयम की गोलियां
--- एक तो इन कैल्शीयम की गोलियों का बहुत बड़ा क्रेज़ है लेकिन इस में भी यह देखा गया है कि जिस वर्ग को ये मिलनी ज़रूरी होती हैं वे ही नहीं खा पाते। और जिन को ज़रूरत नहीं होती वे फिज़ूल में छकते रहते हैं और अपने आप को शरीर में ज़्यादा कैल्शीयम जमा होने के दुष्परिणामों से कईं बार बचा नहीं पाते।
सब से पहली तो यह बात है कि आहार संतुलित होना बहुत ही ज़रूरी है----लेकिन पता नहीं क्यों मुझे मंहंगाई की वजह से और समाज में व्याप्त खाने से संबंधित भ्रांतियों की वजह से यह सलाह देनी कईं बार बहुत घिसी-पिटी सी लगती है, लेकिन फिर भी देनी तो पड़ती ही है।
दरअसल यहां लैपटाप पर कोई सेहत के विषय पर पोस्ट लिखनी बहुत आसान सी बात है लेकिन वास्तविकता उतनी ही भयानक है। आज जिस तरह का मिलावटी, कैमीकल दूध जगह जगह पकड़ा जा रहा है , ऐसे में कैसे मान लें कि दूध में कैल्शीयम होगा ही -------इस का क्या कहें, लेकिन बस यूरिया, डिटरजैंट, और तरह तरह के कैमीकल न हों तो गनीमत समझिये।
दूसरा मेरा व्यक्तिगत विश्वास है कि ये अगर किसी को ये कैल्शीयम आदि लेने के लिये कहा भी जाये तो बढ़िया कंपनी का खरीदना चाहिये ---चालू किस्म की कंपनियां क्या करती होंगी, इस का अनुमान भली-भांति लगाया जा सकता है।
अगली पोस्ट में देखेंगे कि कौन कौन से खाद्य पदार्थ ताकत के वास्तविक भंडार हैं।
इन्हें भी देखें ---
ताकत की दवाईयां –कितनी ताकतवर ?
शनिवार, 19 सितंबर 2009
ताकत की दवाईयों की लिस्ट
इस तरह की दवाईयों की लिस्ट यहां देने से पहले यह कहना उचित होगा कि ऐसी कोई भी so-called ताकत की दवा है ही नहीं जो कि एक संतुलित आहार से हम प्राप्त न कर सकते हों, वो बात अलग है कि आज संतुलित आहार लेना भी विभिन्न कारणों की वजह से बहुत से लोगों की पहुंच से दूर होता जा रहा है।
जो लोग संतुलित आहार ले सकते हैं, वे महंगे कचरे ( जंक-फूड – पिज़ा, बर्गर, ट्रांसफैट्स से लैस सभी तरह का डीप-फ्राईड़ खाना आदि) के दीवाने हो रहे हैं, फूल कर कुप्पा हुये जा रहे हैं और फिर तरह तरह की मल्टी-विटामिन की गोलियों में शक्ति ढूंढ रहे हैं। दूसरी तरफ़ जो लोग सीधे, सादे हिंदोस्तानी संतुलित एवं पौष्टिक आहार को खरीद नहीं पाते हैं , वे डाक्टरों से सूखे हुये बच्चे के लिये टॉनिक की कोई शीशी लिखने का गुज़ारिश करते देखे जाते हैं।
मैं जब कभी किसी कमज़ोर बच्चे को, महिला को देखता हूं और उसे अपना खान-पान लाइन पर लाने की मशवरा देता हूं तो मुझे बहुत अकसर इस तरह के जवाब मिलते हैं ----
क्या करें किसी चीज़ की कमी नहीं है, लेकिन इसे दाल-सब्जी से नफ़रत है, आप कुछ टॉनिक लिख दें, तो ठीक रहेगा।
( कुछ भी ठीक नहीं रहेगा, जो काम रोटी-सब्जी-दाल ने करना है वे दुनिया के सभी महंगे से महंगे टॉनिक मिल कर नहीं कर सकते)
--इसे अनार का जूस भी पिलाना शूरू किय है, लेकिन खून ही नहीं बनता ..
(कैसे बनेगा खून जब तक दाल-सब्जी-रोटी ही नहीं खाई जायेगी, यह कमबख्त अनार का जूस भर-पेट खाना खाने के बिना कुछ भी तो नहीं कर पायेगा)
विटामिन-बी कंपैल्कस विटामिन
--- जितना इस ने लोगों को चक्कर में डाला हुआ है शायद ही किसी ताकत की दवाई ने डाला हो। किसी दूसरी पो्स्ट में देखेंगे कि आखिर इस का ज़रूरत किन किन हालात में पड़ती है। इस में मौजूद शायद ही कोई ऐसा विटामिन हो जो कि संतुलित आहार से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अपने आप ही कैमिस्ट से बढ़िया सी पैकिंग में उपलब्ध ये विटामिन आदि लेना बिल्कुल बेकार की बात है।
किसी दूसरे लेख में यह देखेंगे कि आखिर इस विटामिन की गोलियां किसे चाहिये होती हैं ?
डाक्टर, बस पांच लाल टीके लगवा दो !!
एक तो डाक्टर लोग इन लाल रंग के टीकों से बहुत परेशान हैं। क्या हैं ये टीके----इन टीकों में विटामिन बी-1, बी –6 एवं बी –12 होता है और कुछ परिस्थितियां हैं जिन में डाक्टर इन्हें लेने की सलाह देते हैं। लेकिन पता नहीं कहां से यह टीके ताकत के भंडार माने जाने लगे हैं, यह बिल्कुल गलता धारणा है।
अकसर मरीज़ यह कहते पाये जाते हैं कि मैं तो हर साल बस ये पांच टीके लगवा के छुट्टी करता हूं। बस फिर मैं फिट ------- आखिर क्यों मरीज़ों को ऐसा लगता है, यह भी चर्चा का विषय है।
मैं खूब घूम चुका हूं और अकसर बहुत कुछ आब्ज़र्व करता रहता हूं ----इस तरह की ताकत की दवाईयों की लोकप्रियता के पीछे मरीज़ कसूरवर इस लिये हैं कि जब उन्होंने कसम ही खा रखी है कि डाक्टर की नहीं सुननी तो नहीं सुननी। अगर डाक्टर मना भी करेगा तो क्या, वे कैमिस्ट से खरीद कर खुद लगवा लेंगे। और दूसरी बात यह भी है कि शायद कुछ चिकित्सकों में भी इतनी पेशेंस नहीं है, टाइम नहीं है कि वे सभी ताकत के सभी खरीददारों से खुल कर इतनी सारी बातें कर पाये। इमानदारी से लिखूं तो यह कर पाना लगभग असंभव सा काम है -----वैसे भी लोग आजकल नसीहत की घुट्टी पीने में कम रूचि रखते हैं, उन्हें भी बस कोई ऐसा चाहिये जो बस तली पर तिल उगा दे-----वो भी तुरंत, फटाफट !!
जिम में मिलने वाले पावडर
---- कुछ युवक जिम में जाते हैं और वहां से उन्हें कुछ पावडर मिलते हैं ( जिन में कईं बार स्टीरायड् मिले रहते हैं) जिन्हें खा कर वे मेरे को और आप को डराने के लिये बॉडी-वॉडी तो बना लेते हैं लेकिन इस के क्या भयानक परिणाम हो सकते हैं और होते हैं ,इन्हें वे सुनना ही नहीं चाहते। अगर इन के बारे में जानना हो तो कृपया आप Harmful effects of anabolic steroids लिख कर गूगल-सर्च करिये।
अगर कोई किसी तरह के सप्लीमैंट्स लेने की सलाह देता भी है तो पहले किसी क्वालीफाईड एवं अनुभवी डाक्टर से ज़रूर सलाह कर लेनी चाहिये।
संबंधित पो्स्टें
पौरूषता बढ़ाने वाले सप्लीमैंट्स
शुक्रवार, 18 सितंबर 2009
ताकत की दवाईयां --कितनी ताकतवर ?
गुरुवार, 10 सितंबर 2009
इंटरनेट पर दवाई खरीदने का पंगा
ऐसा कहा गया है कि ब्रिटेन में लगभग दो करोड़ लोग इंटरनेट पर दवाईयां खरीदते हैं और फिर इन के दुष्परिणामों से बचने के लिये डाक्टरों के चक्कर काटते रहते हैं।
बिना अपने डाक्टर से बात किये किसी भी दवाई को स्वयं ही ले लेना अच्छा खासा डेयरिंग का काम हैं। मैं अकसर सोचा करता था कि शायद हम लोग ही इतनी डेयरिंगबाज हैं लेकिन यहां तो ….।
एक बात यह भी है कि जो दवाईयां इंटरनेट से खरीदी जाती हैं वे जैन्यून होते हुये भी नुकसान कर सकती हैं कि क्योंकि आम व्यक्ति को न तो उस की खुराक का, न ही अन्य ड्रग-इंटरएक्शनज़ का पता रहता है इसलिये इस काम में बहुत लफड़ा है।
इन दवाईयों में सब तरह की दवाईयां शामिल हैं जैसे कि सैक्स से संबंधित तकलीफ़ों के लिये , वज़न कम करने हेतु और कुछ युवक तो इंटरनेट पर स्टीरॉयड्स जैसी दवाईयां खरीद कर खा रहे हैं और तरह तरह की बीमारियों को बुलावा दे रहे हैं।
जैसे जैसे आज की पीड़ीं नेट पर आश्रित सी हो रही है इस से लगता है कि आने वाले समय में यह ट्रैंड बड़ जायेगा---समय रहते ही समझ जाने में समझदारी है।
अन्य पोस्टें
खुली बिकने वाली दवाईयां
आप भी कहीं नईं दवाईयों से जल्द ही इंप्रैस तो नहीं होते