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बुधवार, 24 नवंबर 2010

एड्स से बचाव के लिये रोज़ाना दवाई -- यह क्या बात हुई ?

अभी मैं न्यू-यार्क टाइम्स की साइट पर यह रिपोर्ट पढ़ रहा था -- Daily Pill Greatly Lowers AIDS Risk, Study Finds. शायद आप को भी ध्यान होगा कि आज से 20-25साल पहले एक फैशन सा चला था कि मलेरिया रोग से बचने के लिये हर सप्ताह एक टैबलेट ले लें तो मलेरिया से बचे रहा जा सकता है – इस फैशन का भी जम कर विरोध हुआ था, उन दिनों मीडिया भी इतना चुस्त-दुरूस्त था नहीं, इसलिये अपने आप को समझदार समझने वाले जीव कुछ अरसा तक यह गोली खाते रहे...लेकिन बाद में धीरे धीरे यह मामला ठंडा पड़ गया। आजकल किसी को कहते नहीं सुना कि वह मलेरिया से बचने के लिये कोई गोली आदि खाता है।

एक बात और भी समझ में आती है कि जब किसी एचआईव्ही संक्रमित व्यक्ति पर काम करते हुये किसी चिकित्सा कर्मी को कोई सूई इत्यादि चुभ जाती है तो उसे भी एचआईव्ही संक्रमण से बचने के लिये दो महीने पर कुछ स्ट्रांग सी दवाईयां लेनी होती हैं ताकि वॉयरस उस के शरीर में पनप न सके –इसे पोस्ट post-exposure prophylaxis – वायरस से संपर्क होने के बाद जो एहतियात के तौर पर दवाईयां ली जाएं।

लेकिन आज इस न्यू-यार्क टाइम रिपोर्ट में यह पढ़ा कि किस तरह इस बात पर भी ज़ोरों शोरों से रिसर्च चल रही है कि जिस लोगों का हाई-रिस्क बिहेवियर है जैसे कि समलैंगी पुरूष –अगर ये रोज़ाना एंटी-वायरल दवाई की एक खुराक ले लेते हैं तो इन को एचआईव्ही संक्रमण होने का खतरा लगभग 44 फीसदी कम हो जाता है। और ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर समलैंगिक पुरूषों में रोज़ाना दवाई लेने से खतरा कम हो सकता है तो फिर अन्य हाई-रिस्क लोगों जैसे की सैक्स वर्करों, ड्रग-यूज़रों (जो लोग ड्रग्स—नशा -- लेने के लिये एक दूसरे की सूई इस्तेमाल करते हैं) में भी रोज़ाना यह दवाई लेने से यह खतरा तो कम हो ही जायेगा। अभी इस पर भी ज़ोरों-शोरों से काम चल रहा है।

मैं जब यह रिपोर्ट पढ़ रहा था तो यही सोच रहा था कि इस तरह का धंधा भी देर-सवेर चल ही निकलेगा कि एचआईव्ही से बचने के लिये स्वस्थ लोग भी रोज़ाना दवाई लेनी शुरू कर देंगे। लेकिन सोचने की बात है कि यह दवाईयां फिलहाल इतनी महंगी हैं कि इन्हें खरीदना किस के बस की बात है? एक बात और भी तो है कि भारत जैसे बहुत से अन्य विकासशील देशों में जो लोग एचआईव्ही से पहले से संक्रमित है उन तक तो ये दवाईयां पहुंच नहीं पा रही हैं, ऐसे में समलैंगिकों, सैक्स वर्करों और सूई से नशा करने वालों की फिक्र ही कौन करेगा ?

रिपोर्ट पढ़ कर मुझे तो ऐसा भी लगा जैसे कि लोगों के हाई-रिस्क को दूर करने की बजाए हम लोग उन्हें एक आसान सा विकल्प उपलब्ध करवा रहे हैं कि तुम अपना काम चालू रखो, लेकिन एचआईव्ही से अपना बचाव करने के लिये रोज़ाना दवाई ले लिया करो। इस रिपोर्ट में तो यह कहा गया है कि यह दवाईयां सुरक्षित हैं, लेकिन दवाई तो दवाई है ---अगर किसी को मजबूरन लेनी पड़ती हैं तो दूसरी बात है, लेकिन अगर हाई-रिस्क बिहेवियर को ज़िंदा रखने के लिये अगर ये दवाईयां ली जाने की बात हो रही है तो बात हजम सी नहीं हो रही। आप का क्या ख्याल है?

रिपोर्ट पढ़ते पढ़ते यही ध्यान आ रहा था कि आज विश्व की समस्त विषम समस्याओं का हल क्यों भारत के पास ही है? इन सब बातों का सही इलाज अध्यात्म ही है, और कोई दूसरा पक्का उपाय इस तरह की विकृतियों को दूर करने का किसी के पास तो है नहीं। यह क्या बात है , समलैंगिक पुरूष हाई-रिस्क में चाहे लगे रहें, नशा करने वाले नशे में लिप्त रहें लेकिन एचआईव्ही संक्रमण से बचने के लिये रोज़ाना दवाई ले लिया करें---यह भी कोई बात हुई। एक तो इतनी महंगी दवाईयां, ऊपर से इतने सारे दूसरे मुद्दे और बस यहां फिक्र हो रही है कि किस तरह से उसे संक्रमण से बचा लिया जाए। बचा लो, भाई, अगर बचा सकते हो तो बचा लो, लेकिन अगर उस की लाइन ही बदल दी जाए, उस की सोच, उस की प्रवृत्ति ही बदल दी जाए तो कैसा रहे ----- यह चाबी केवल और केवल भारत ही के पास है।

शुक्रवार, 4 जून 2010

अमेरिकी टीनएजर्स का सैक्सुअल बिहेवियर- एक रिपोर्ट

अमेरिका की एक सरकारी संस्था है --सैंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल-- इस ने कल ही वहां के टीनएजर्स के सैक्सुअल बिहेवियर के बारे में एक रिपोर्ट जारी की है ---CDC Report Looks at Trends in Teen Sexual Behaviour; Attitudes toward Pregnancy.
इस रिपोर्ट के मुताबिक कुछ बातें हैं जिन्हें हिंदी चिट्ठों के पाठकों से साझा करना ज़रूरी लग रहा है। मैंने ये आंकड़े इस रिपोर्ट के आधार पर cnn.com पर छपी इस स्टोरी से लिये हैं-- Teens having sex: Numbers staying steady.
15से19 साल के युवक-युवतियों के सैक्सुअल बिवेवियर के बारे में छपी इस रिपोर्ट के अनुसार 2006 से 2008 के दो साल के आंकड़ों से यह पाया गया है कि 42 प्रतिशत से ज़्यादा अथवा 43 लाख टीनएज किशोरियां कम से कम एक बार यौन संबंध बना चुकी हैं। टीनएज लड़कों के लिये ये आंकड़ें 43 प्रतिशत के हैं या 45 लाख लड़के।
जिन लड़के-लड़कियों का सर्वे किया गया उन में से 30 प्रतिशत के दो अथवा उस के अधिक पार्टनर रहे हैं। जिन टीनएज लड़कियों ने छोटी उम्र में ही पहला सैक्सुअल अनुभव किया था, उन के पार्टनर ज़्यादा होने की संभावना रहती है। और यह भी पता चला कि जो टीनएज़र अपने मां-बाप की पहली संतान हैं और 14 वर्ष की आयु में अगर वे एक टूटे परिवार (जहां मां-बाप एक साथ नहीं रहते) में रहते हैं तो उन के सैक्सुअली एक्टिव होने की संभावना ज़्यादा होती है।
यह तो आप जानते ही हैं कि अमेरिका में टीनएज उम्र की लड़कियों के मां बनने के आंकडे़ काफी ऊपर हैं। अमेरिका के बाद अगला नंबर है युनाइटेड किंगडम का। कैनेडा में टीन-बर्थ रेट है 1000 में से 13 (13 per1000) जब कि अमेरिका में यह रेट है 43 per 1000.
इस स्टोरी में तो यह भी लिखा गया है कि उन्हें इस बात की तसल्ली तो है कि लगभग 80 प्रतिशत टीनएज लड़कियां और 90 प्रतिशत टीनएज लड़के अपने पहले सैक्सुअल अनुभव के वक्त किसी न किसी तरह का गर्भनिरोध का तरीका इस्तेमाल करते हैं। कांडोम के गर्भ निरोध के लिये सब से ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है। 95 प्रतिशत सैक्सुअली अनुभवी लड़कियों ने कम से कम एक बार इस का उपयोग किया है। इस के बाद नंबर आता है वीर्य-स्खलन से पहले ही withdraw कर लेना और उस के बाद में नंबर आता है गर्भनिरोधक गोली का।
और जो टीनएजर पूरी तरह से यौन संबंधों से किनारा किये रहते हैं उन का इस तरह के व्यवहार से दूर रहने के नैतिक अथवा धार्मिक कारण पहले नंबर पर हैं --दूसरा नंबर है गर्भ ठहर जाने का डर। इस स्टोरी में यह भी लिखा है कि ऐसा नहीं कि प्रेगनैंसी ने किसी तरह से टीनएजर्स को रोक के रखा हुआ है। इस में लिखा है कि मां बाप को तो शायद सुन कर हैरानगी होगी कि ऐसे लड़के लड़कियों (जो इस तरह के संबंधों में लिप्त होते हैं) में से लगभग एक चौथाई ने तो यह कहा कि उन्हें खुशी होगी अगर वे गर्भवती हो जाएं अथवा अपने पार्टनर को गर्भवती कर दें।
और अधिकांश टीनएजर्स -- 64 प्रतिशत लड़कों एवं 71 प्रतिशत लड़कियों ने यह माना कि अगर शादी-ब्याह के बिना बच्चा हो भी जाता है तो यह ठीक है।
और एक दुःखद बात देखिये --सर्वे में पाया गया है कि 15 से 19 उम्र की टीनएज लड़कियों में यौनजनित रोग ---क्लैमाइडिया एवं गोनोरिया रोग (Chlamydia and Gonorrhoea)...किसी भी दूसरे आयुवर्ग एवं लड़कों की तुलना में काफी ज़्यादा संख्या में हैं।
इस स्टडी के लिये लगभग 3000 टीनएज लड़के लड़कियों का इंटरव्यू लिया गया था।
आप किस सोच में पड़ गये ? ऐसा ही लगते है ना कि ज़माना वास्तव में ही बहुत आगे निकल गया है। और यहां पर कुछ समय पहले शायद एक लिव-इन रिलेशशिप पर कोई फैसला आया था तो कितना बवाल मचा था । अब क्या ठीक है क्या गलत----- यह निर्णय करना एक लेखक का काम नहीं, उस का काम है तसवीर पेश करना, सो कर दी है। वैसे जो ऊपर cnn वाली स्टोरी है उस पर टिप्पणीयां बहुत ही आई हुई हैं, हो सके तो देखियेगा। मुझे तो टाइम नहीं मिला। आज शायद पहली बार मैंने इस तरह के सरकारी आंकड़े पढ़े हैं, सुनी सुनाई बात और होती है और प्रामाणिक तौर पर जारी कोई रिपोर्ट ही विश्वसनीय होती है।
बस इस बात को इधर यहीं पर दफन करते हैं। वैसे भी ...... हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है.....।

गुरुवार, 3 जून 2010

दुर्बलता(?) के शिकार पुरूषों की सेहत से खिलवाड़

आज मैं एक रिपोर्ट देख रहा था जिस में इस बात का खुलासा किया गया था कि इंपोटैंस (दुर्बलता, नपुंसकता) के लिये लोग डाक्टर से बात करने की बजाए अपने आप ही नैट से इस तकलीफ़ को दुरूस्त करने के लिये दवाईयां खरीदने लगते हैं।
और नेट पर इस तरह से खरीदी दवाईयों की हानि यह है कि कईं बार तो इन में टॉक्सिंस(toxins) मिले रहते हैं, बहुत बार इन में साल्ट की बहुत ज़्यादा खुराक होती है और कईं बार बिल्कुल कम होती है। और तो और इस तरह की दवाईयां जो नेट पर आर्डर कर के खरीदी जाती हैं उन में नकली माल भी धडल्ले से ठेला जाता है क्योंकि ऐसे नकली माल का रैकेट चलाने वाले जानते हैं कि लोग अकसर इन केसों में नकली-वकली का मुद्दा नहीं उठाते। तो, बस इन की चांदी ही चांदी।
अपनी ही मरजी से अपनी ही च्वाईस अनुसार मार्केट से इस तरह की दवाईयां उठा के खाना खतरनाक तो है ही लेकिन उच्च रक्त चाप वाले पुरूषों एवं हृदय रोग से जूझ रहे लोगों के लिये तो ये और भी खतरनाक हैं।
आप यह रिपोर्ट - Dangers lurk in impotence drugs sold on web..देख कर इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि इस तरह की दवाईयों में भी नकलीपन का जबरदस्त कीड़ा लग चुका है।
शायद अपने यहां यह नेट पर इस तरह की दवाईयां लेने जैसा कोई बड़ा मुद्दा है नहीं, हो भी तो कह नहीं सकते क्योंकि यह तो flipkart से शॉपिंग करने जैसा हो गया। लेकिन आप को भी इस समय यही लग रहा होगा कि अगर विकसित देशों में यह सब गोलमाल चल रहा है तो अपने यहां तो हालात कितने खौफ़नाक होंगे।
मुझे तो आपत्ति है जिस तरह से रोज़ाना सुबह अखबारों में तरह तरह के विज्ञापन लोगों को ये "ताकत वाले कैप्सल" आदि लेने के लिये उकसाते हैं----बादशाही, खानदानी कोर्स करने के लिये भ्रमित करते हैं ----गोल्ड-सिल्वर पैकेज़, और भी पता नहीं क्या क्या इस्तेमाल करने के लिये अपने झांसे में लेने की कोशिश करते हैं।
और इन विज्ञापनों में इन के बारे में कुछ भी तो नहीं लिखा रहता कि इन में क्या है, और कितनी मात्रा में है। मुझे इतना विश्वास है कि इन में सब तरह के अनाप-शनाप कैमीकल्स तो होते ही होंगे.....और ये कुछ समय बाद किस तरह से शरीर को कितनी बीमारियां लगा देंगे, यह तो समय ही बताता है।
तो फिर कोई करे तो क्या करे ? ---सब से पहले तो इतना समझ के चलने के ज़रूरत है कि अधिकांश केसों में लिंग में पूरे तनाव का न हो पाना ....यह दिमाग की समस्या है...भ्रम है, और इसे भ्रम को ही ये नीम-हकीम भुना भूना कर बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर लेते हैं। युवा वर्ग में तो अधिकांश तौर पर किसी तरह के इलाज की ज़रूरत होती नहीं ---केवल खाना पीना ठीक रखा जाए, नशों से दूर रहा जाए....और बस अपने आप में मस्त रहा जाए तो कैसे यह तकलीफ़ जवानी में किसी के पास भी फटक सकती है।
लेकिन अगर किसी व्यक्ति को यह तकलीफ़ है भी तो उसे तुरंत अपने फ़िज़िशियन से मिलना चाहिए ---वे इस बात का पता लगाते हैं कि शरीर में ऐसी कोई व्याधि तो नहीं है जिस की वजह से यह हो रहा है, या किसी शारीरिक तकलीफ़ में दी जाने वाली दवाईयों के प्रभाव के कारण तनाव पूरा नहीं हो पा रहा या फिर कोई ऐसी बात है जिस के लिये किसी छोटे से आप्रेशन की ज़रूरत पड़ सकती है। लेकिन यह आप्रेशन वाली बात तो बहुत ही कम केसों में होती है। और कईं बार तो डाक्टर से केवल बात कर लेने से ही मन में कोने में दुबका चोर भाग जाता है।
अब फि़जिशियन क्या करते हैं ? -सारी बात की गहराई में जा कर मरीज़ की हैल्प करते हैं और शायद कुछ केसों में इस तकलीफ़ के समाधान के लिये बाज़ार में उपलब्ध कुछ दवाई भी दे सकते हैं। और अगर फिजिशियन को लगता है कि सर्जन से भी चैक-अप करवाना ज़रूरी है तो वह मरीज़ को सर्जन से मिलने की सलाह देता है।
कहने का अभिप्रायः है कि बात छोटी सी होती है लेकिन अज्ञानता वश या फिर इन नीमहकीमों के लालच के कारण बड़ी हो जाती है। लेकिन जो है सो है, लकीर पीटने से क्या हासिल ---कोई चाहे कितने समय से ही इन चमत्कारी बाबाओं की भस्मों, जड़ी बूटियों के चक्कर में पड़ा हुआ हो लेकिन ठीक काम की शुरूआत तो आज से की ही जा सकती है। क्या है, अगर लिंग में तनाव नहीं हो रहा, तो नहीं हो रहा, यह भी एक शारीरिक समस्या है जिस का पूर्ण समाधान क्वालीफाईड डाक्टरों के पास है। और अगर वह इस के लिये कोई दवाई लेने का नुस्खा भी देता है तो कौन सी बड़ी बात है ----यह मैडीकल फील्ड की अच्छी खासी उपलब्धि है। लेकिन अपने आप ही अपनी मरजी से किसी के भी कहने पर कुछ भी खा लेना, कुछ भी पी लेना, कुछ भी स्प्रे कर लेना, किसी भी ऐरी-गैरी वस्तु से मालिश कर लेना तो भई खतरे से खाली नहीं है।
एक अंग्रेज़ी का बहुत बढ़िया कहावत है --- There is never a wrong time to do the right thing. इसलिये अगर किसी को इस तरह की तकलीफ़ है भी तो यह कौन सी इतनी बड़ी आफ़त है -----डाक्टर हैं, उन से दिल खोल कर बात करने की देर है---- उन के पास समाधानों का पिटारा है। शायद मरीज़ को लगे कि यार, यह सब डाक्टर को पता लगेगा तो वह क्या सोचेगा? ---उन के पास रोज़ाना ऐसे मरीज़ आते हैं और उन्हें कहां इतनी फुर्सत है कि मरीज़ के जाने के बाद भी ये सब सोच कर परेशान होते रहें। अच्छे डाक्टर का केवल एक लक्ष्य होता है कि कैसे उसे के चेहरे पर मुस्कान लौटाई जाए -----अब इतना पढ़ने के बाद भी कोई इधर उधर चक्करों में पड़ना चाहे तो कोई उसे क्या कहे।
इस विषय से संबंधित ये लेख भी उपयोगी हैं .....

शनिवार, 22 मई 2010

हार्ट-अटैक के बाद संभोग से इतना खौफ़ज़दा क्यों ?

हार्ट-अटैक के इलाज के बाद जब मरीज़ को हस्पताल से छुट्टी मिलती है तो डाक्टर लोग उससे उस की सैक्स लाइफ के बारे में कुछ भी चर्चा नहीं करते। ना तो मरीज़ ही खुल कर इस तरह की बात पूछने की "हिम्मत" ही जुटा पाते हैं... और इसी चक्कर में होता यह है कि हार्ट-अटैक से बचने पर लोग सैक्स से यह सोच कर दूर भागना शुरू कर देते हैं कि संभोग करना उन के लिये जानलेवा सिद्ध हो सकता है।

अब आप बीबीसी आनलाइन पर प्रकाशित इस रिपोर्ट --- Heart attack survivors 'fear sex' ---को देखेंगे तो आप भी यह सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि अगर अमेरिका जैसे देश में जहां इस तरह के मुद्दों पर बात करने में इतना खुलापन है ---अगर वहां यह समस्या है तो अपने यहां यह समस्या का कितना विकराल रूप होगा।

इस तरह का अध्ययन अमेरिका में 1700 लोगों पर किया गया --और फिर इन वैज्ञानिकों नें अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन की एक मीटिंग में अपनी रिपोर्ट पेश करते हुये साफ शब्दों में यह कहा है कि हार्ट-अटैक से ठीक हो चुके जिन मरीज़ों के डाक्टर उन के साथ उन की सैक्स लाइफ के बारे में बात नहीं करते, वही लोग हैं जो सैक्स के नाम से भागने लगते हैं।

और देखिये विशेषज्ञों ने कितना देसी फार्मूला बता दिया है कि वे लोग जिन्हें कुछ समय पहले हार्ट अटैक हुआ है और वे अब ठीक महसूस कर रहे हैं तो अगर वे कुछ सीढियां आसानी से चढ़ लेते हैं तो वे पूर्ण आत्मविश्वास के साथ संभोग करना भी शुरू कर सकते हैं।

और यह जो फार्मूला बताया गया है यह बहुत ही सटीक है। यह नहीं कि कोई ऐसा मरीज़ अपने डाक्टर से पूछ बैठे कि वह कितने समय तक सैक्सुयली सक्रिय हो सकता है तो एक डाक्टर कहे दो महीने बाद, कोई कहे छः महीने बाद ---और कोई मरीज़ को आंखे फाड़ फाड़ कर देखते हुये उसे यह आभास करवा दे कि कहीं उस ने ऐसा प्रश्न पूछ कर कोई गुनाह तो नहीं कर दिया------तो सब से बढ़िया जवाब या सुझाव जो आप भी अपने किसी मित्र को देने में ज़रा भी हिचक महसूस नहीं करेंगे ---- अगर सीढ़ियां ठीक ठाक बिना किसी दिक्कत के चढ़ लेते हो तो फिर समझ लो तुम अपने वैवाहिक जीवन को भी खुशी खुशी निबाह पाने में सक्षम है --------और वैसे भी हिंदोस्तानी को तो बस इशारा ही काफी है।

लेकिन कहीं आप यह तो नहीं समझ रहे कि यह मार्गदर्शन केवल पुरूषों के लिये ही है ---ऐसा नहीं है, महिलाओं के लिये भी यही सलाह है। इस बात का ध्यान रखे कि महिलायें भी हार्ट अटैक जैसे आघात से उभरने के बाद तभी सैक्सुयली सक्रिय हो पाने में सक्षम होती हैं जब वे सीढ़ियां आराम से चढ़ना शुरू कर देती हैं। और इस अवस्था तक पहुंचने में हर बंदे को अलग अलग समय लग सकता है।

मुझे इस रिपोर्ट द्वारा यह जान कर बहुत हैरानगी हुई कि वहां पर भी लोग इस तरह के अहम् मामले में बात करते वक्त इतने संकोची हैं और दूसरी बात यह महसूस हुई कि हमारे यहां तो फिर हालात एकदम फटेहाल होंगे ----शायद कुछ लोग एक बार हार्ट अटैक होने पर इसी तरह के डर से अपना आत्मविश्वास डगमगाने की वजह से लंबे समय तक संभोग से दूर ही भागते रहते होंगे। और बात केवल इतनी सी कि न तो उन के चिकित्सक ने उन से इस मुद्दे पर बात करना उचित समझा और दूसरी तरफ़ बेचारा मरीज --- हम हिंदोस्तानी लोग खुले में इस तरह की "गंदी बातें" कैसे पूछें, हम तो अच्छे बच्चे है.........अंदर ही अंदर कुढ़ते रहें, कुठित होते रहे लेकिन .......।

दरअसल जैसा कि इस रिपोर्ट में भी कहा गया है कि सैक्स भी मरीज़ों की ज़िंदगी का एक अहम् भाग है और इसलिये शायद वे यह अपेक्षा भी करते हैं कि डाक्टरों को इस के बारे में भी थोड़ी बात करनी चाहिये। क्या आप को नहीं लगता कि मरीज़ों का ऐसा सोचना एकदम दुरूस्त है।

इस तरह के कुछ मरीज़ों को यह भी डर लगता है कि संभोग में लगने वाली परिश्रम की वजह से कहीं से दूसरे हार्ट अटैक को आमंत्रित न कर बैठें, लेकिन ऐसा बहुत ही बहुत ही कम बार होता है ---आप यही समझें कि यह रिस्क न के ही बराबर है -----क्योंकि रिपोर्ट में शब्द लिखा गया है ---extremely unlikely. अब इस से ज़्यादा गारंटी क्या होगी ?

एक बात और भी है कि हार्ट के किसी रोगी में जैसे कोई भी शारिरिक परिश्रम कईं बार छाती में थोड़ा बहुत भारीपन ला सकता है वैसे ही अगर संभोग के दौरान भी अगर ऐसा महसूस हो तो वह व्यक्ति ऐसी किसी भी अवस्था के समाधान के लिये स्प्रे (यह "वो वाला स्प्रे" नहीं है..... जिस के कईं विज्ञापन रोजाना अखबारों में दिखते हैं) का या जुबान के नीचे रखी जाने वाली उपर्युक्त टेबलैट का इस्तेमाल कर सकता है, जिस से तुरंत राहत मिल जाती है।
और इस रिपोर्ट के अंत में लिखा है ---

"Caressing and being intimate is a good way to start resuming sexual relationships and increase your confidence." अब इस का अनुवाद मैं कैसे करूं, हैरान हूं ---मेरी हिंदी इतनी रिफाइन्ड है नहीं, अच्छी भली संभ्रांत भाषा को कहीं अश्लील न बना दूं -----इसलिये समझने वाले समझ लो।

मुद्दा बहुत गंभीर है--- लेकिन इसे हल्के-फुल्के ढंग से इसलिये पेश किया है ताकि बात सब के मन में बैठ जाये। आप इस पोस्ट में लिखी बातों के प्रचार-प्रसार के लिये या इस में चर्चित न्यूज़-रिपोर्ट के लिंक को बहुत से दूसरे लोगों पर पहुंचाने में क्या मेरा सहयोग कर सकते हैं ?

क्या आप को नहीं लगता कि कईं बार हम लोग कुछ ऐसा पढ़ लेते हैं, देख लेते हैं जिस को आगे शेयर करने से हम अनेकों लोगों की सुस्त पड़ी ज़िंदगी में बहार लाने के लिये अपनी तुच्छ भूमिका निभा सकते हैं ? मैं तो बड़ी शिद्दत से इस बात को महसूस करता हूं।

बुधवार, 19 मई 2010

एशियाई समलैंगिकों एवं द्विलिंगियों(bisexual) में एचआईव्ही इंफैक्शन के चौका देने वाले आंकड़े

एशियाई समलैंगिकों एवं द्विलिंगियों में बैंकाक में एचआईव्ही का प्रिवेलैंस 30.8 प्रतिशत है जब कि थाईलैंड में यह दर 1.4 प्रतिशत है। यैंगॉन के यह दर 29.3 फीसदी है जब कि सारे मयंमार में यह दर 0.7 प्रतिशत है। मुंबई के समलैंगिकों एवं द्विलिंगियों में यह इस संक्रमण की दर 17 प्रतिशत है जब कि पूरे भर में एचआईव्ही के संक्रमण की दर 0.36 प्रतिशत है।

संयुक्त रा्ष्ट्र के सहयोग से हुये एक अध्ययन से इन सब बातों का पता चला है--और तो और इन समलैंगिकों एवं बाइसैक्सुयल लोगों की परेशानियां एचआईव्ही की इतनी ज़्यादा दर से तो बड़ी हैं ही, इस क्षेत्र के कुछ देशों के कड़े कानून इन प्रभावित लोगों के ज़ख्मों पर नमक घिसने का काम करते हैं।

न्यूज़-रिपोर्ट से पता चला है कि एशिया पैसिफिक क्षेत्र के 47 देशों में से 19 देशों के कानून ऐसे हैं जिन के अंतर्गत पुरूष से पुरूष के साथ यौन संबधों को एवं द्विलिंगी ( Bisexual- जो लोग पुरूष एवं स्त्री दोनों के साथ शारीरिक संबंध स्थापित करते हैं) गतिविधियों के लिये सजा का प्रावधान है।

इन कड़े कानूनों की वजह से छिप कर रहते हैं-- और इन लोगों में से 90प्रतिशत को न तो कोई ढंग की सलाह ही मिल पाती है और न ही समय पर दवाईयां आदि ये प्राप्त कर पाते हैं। कानून हैं तो फिर इन का गलत इस्तेमाल भी तो यहां-वहां होता ही है। इस के परिणामस्वरूप इन के मानवअधिकारों का खंडन भी होता रहता है।

इन तक पहुचने वाली रोकथाम की गतिविधियों को झटका उस समय भी लगता है जब इन प्रभावित लोगों की सहायता करने वाले वर्कर (out-reach services) - जो काम अकसर इस तरह का रूझान ( MSM -- men who have sex with men) रखने वाले वर्कर भी करते हैं--उन वर्करों को पुलिस द्वारा पकड़ कर परेशान किया जाता है क्योंकि उन के पास से कांडोम एवं लुब्रीकैंट्स आदि मिलने से ( जो अकसर ये आगे बांटने के लिये निकलते हैं) यह समझ लिया जाता है कि वे भी इस काम में लिप्त हैं और इस तरह के सारे सामान को जब्त कर लिया जाता है।

संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई है कि अगर इस वर्ग के लिये भी एचआईव्ही के संक्रमण से बचाव एवं उपचार के लिये कुछ प्रभावशाली करने की चाह इन एशियाई देशों में है तो इन्हें ऐसे कड़े कानूनों को खत्म करना होगा, जिन कानूनों के तहत इन लोगों के साथ भेदभाव की आग को हवा मिलती हो उन्हें भी तोड़ देना होगा, यह भी इस रिपोर्ट में कहा गया है।

विषय बहुत बड़ा है, इस के कईं वैज्ञानिक पहलू हैं, विस्तार से बात होनी चाहिये ---फिलहाल आप इस लिंक पर जा कर मैड्न्यूज़ की साइट पर इस रिपोर्ट को देख सकते हैं --- HIV among gay, bisexual men at alarming highs in Asia.

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

रोज़ाना आ रही है यौन रोगों की सुनामी

यौन रोग ( सैक्सुयली ट्रांसमिटेड इंफैक्शन्ज़) के बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि बैक्टीरियल एस.टी.डी के लगभग 10 लाख नये केस रोज़ाना हो जाते हैं।

इन के बारे में छोटी छोटी बातें हैं जो कि अकसर आम आदमी ठीक से समझ नहीं पाता या शायद उसे कभी इस के बारे में ढंग से बताया ही नहीं जाता। कारण कुछ भी हो इन तकलीफ़ों के बारे में बहुत सी भ्रांतियां हैं।

इन के बारे में हम लोग कितनी भी चर्चा कर लें ---लेकिन सोलह आने सच्चाई यह है कि इन तकलीफ़ों का सब से बड़ा कारण है --ये तरह तरह की यौन-विकृतियां। आपने देखा है कि अकसर अब अखबारों में, चैनलों पर गैंग-रेप की खबरें दिखती हैं। तरह तरह की ग्रुप्स हैं, क्लबें हैं......अखबारों में इस इस तरह के इश्तिहार दिखते हैं कि यह यकीन मानना ही होगा कि अब जहां तक हमारी कल्पना शक्ति पहुंच सकती है वह सब कुछ कहीं न कहीं हो रहा है।

अकसर यही समझा जाता है कि संभोग करने से ही यौन-रोग एक पार्टनर से दूसरे पार्टनर को फैलते हैं लेकिन ऐसा नहीं है यौन-रोग चुंबन से भी और शरीर से निकले वाले अन्य द्वव्यों (secretions) से भी फैलते हैं।

अकसर लेखों में लिखा जाता है कि आप अपने पार्टनर के प्रति वफ़ादार रहें और साथ में यह भी कहीं कहीं लिखा होता है कि जहां ज़रूरत हो वहां पर कंडोम का इस्तेमाल भी ज़रूर करें।

मुझे लगता है कि पढ़े-लिखे लोगों में कैजुएल सैक्स का डर तो है लेकिन उतना नहीं जितना होना चाहिये। और कम पढ़े लिखे लोग और घरों से बाहर दूर-दराज नगरों में रहने वालों लोगों में तो जोखिम और भी है।

पता नहीं क्यों सैक्स के बारे में हम लोग अपने घर में अपने बच्चों के साथ खुल के बात क्यों नहीं करते ---अगर बाप अपने बेटे को और मां अपनी बेटी को समझा के रखे तो यौन रोगों से बचे रहने में काफ़ी मदद मिल सकती है।

यह जो आज पोर्नोग्राफी खुले आम बिक रही है --- इस ने भी सारी दुनिया के सीधे सादे लोगों की ज़िंदगी में आग सी लगा दी है। उस का तजुर्बा करने की ललक कुछ लोगों में जाग उठती है। वे यह भूल जाते हैं ये तो पोर्न-स्टार हैं ---कलाकर हैं ---- और यह भी तो नहीं पता कि ये किन किन भयानक बीमारियों से ग्रस्त हैं। क्योंकि यौन रोगों से ग्रस्त रोग अकसर देखने में स्वस्थ दिखते हैं

और कितनी भी कोई सावधानियां बरत ले, यह यौन-विक़तियों वाला खेल तो आग से खेलने के समान है ही। पिछले कुछ दिनों से मैं कुछ रिपोर्ट देख रहा हूं कि अमेरिका जैसे अमीर देश में भी यौन रोगों के केस बहुत तेज़ी से  बढ़ रहे हैं।

हमारे देश में इन यौन रोगों का दंश सब से ज़्यादा महिलायें सहती हैं। अकसर पुरूष लोग अपनी इस तरह की तकलीफ़ों को बताते नहीं ----बस यूं ही सब कुछ चलता रहता है और बीमारी आगे फैल जाती है। वैसे तो कुछ यौन रोगों के इलाज का तो नियम ही यही है कि मर्द-औरत का इलाज एक साथ हो -----ताकि बीमारी का पूरा सफाया हो सके।

यह इतना पेचीदा विषय है कि जब भी मैं इस के ऊपर लिखने लगता हूं तो यही लगता है कि कहां से शूरू करूं ------बस, ऐसे ही जो मन में आता है लिख देता हूं। लेकिन एक बात तो तय है कि अकसर जो छोटे मोटे यौन रोग दिखते हैं जिन की वजह से यौनांगों पर छोटे छोटे घाव से हो जाते हैं ऐसे रोग इन घावों की वजह से एच-आई-व्ही संक्रमण जैसे रोगों को भी निमंत्रण दे देते हैं। 

कोई समाधान तो हो कि आदमी का ध्यान बस इन सब में ही गड़े रहने से बचा रहे ----कोशिश की जाए की बच्चों को बचपने से ही अच्छे अच्छे संस्कार दिये जाएं ---और यह नियमित तौर पर किसी सत्संग में जुड़े रहने के बिना संभव नहीं है। और बच्चों को शारीरिक परिश्रम करने की आदत डाली जाए ---- सात्विक खाना खाएं और जिस कमाई से यह सब आ रहा है वह भी इमानदारी की हो , और बच्चों के साथ मित्रवत व्यवहार रखा जाए ताकि आप उन की अवस्था के अनुसार ये सब मुद्दे उन के साथ डिस्कस भी कर सकें और वे भी अपना दिल की बातें आप से बांटने में संकोच न करें---- I think that's the only survival kit for saving the younger generation from being swept by this notorious hurricane of sexual perversions ----pre-marital sex, extra-marital affairs, group sex, swaps, sex parties and so on and so forth --------- as I say one's imagination is the limit, really !!!

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

सैक्स पॉवर बढ़ाने के नाम पर हो रहा गोरखधंधा

मुझे इतना तो शत-प्रतिशत विश्वास है ही कि भारत में तो यह सैक्स पॉवर बढ़ाने वाले जुगाड़ों का गोरखधंधा पूरे शिखर पर है। यहां पर इस तरह की दवाईयों, टॉनिकों, बादशाही कोर्सों के द्वारा पब्लिक को जितना ज़्यादा से ज़्यादा उल्लू बनाया जा सकता है उस से भी ज़्यादा बनाया जा रहा है ।

लेकिन जब मैं कभी देखता हूं कि अमेरिका जैसे देश में भी यह सब चल रहा है तो मुझे इस बात की चिंता और सताती है कि अगर उस जगह पर जिस जगह पर दवाईयों की टैस्टिंग करना करवाना इतनी आम सी बात है, लोग सजग हैं, पढ़े-लिखें हैं ---अगर वहां पर सैक्स पावर बढ़ाने वाले फूड-सप्लीमैंट्स में वियाग्रा जैसी दवाई मिली पाई जाती हैं और इसके बारे में लेबल पर कुछ नहीं लिखा रहता तो फिर अपने देश में क्या क्या चल रहा होगा, इस का ध्यान आते ही मन कांप जाता है।

अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन की एक रिपोर्ट दिखी जिस में उन्होंने लोगों को चेतावनी दी है कि सैक्स पॉवर बढ़ाने के लिये "स्टिफ-नाईट्स" नाम के एक फूड-सप्लीमैंट में वियाग्रा जैसी दवाई पाई गई है। अब सब से बड़ी मुसीबत यही है कि लोग इस तरह के प्रोडक्ट्स को बस योन-पावर को बढ़ाने के लिये खाई जाने वाली आम टॉनिक की गोलियां या कैप्सूल समझ कर खा तो लेते हैं लेकिन इन में कुछ अघोषित दवाईयों की मिलावट होने के कारण ये कईं बार मरीज़ों का रक्त-चाप खतरनाक स्तर तक गिरा देती हैं।

जिस तथाकथित सैक्स-एनहांसर की बात हो रही है इस के इंटरनेट द्वारा भी बेचे जानी की बात कही गई है --- और यह छः,बारह और तीस कैप्सूलों की बोतल में भी आती है और बेहद आकर्षक ब्लिस्टर पैकिंग में भी आती हैं।

इतना सब पढ़ने के बाद क्या आप को अभी भी लगता है कि हमारे यहां जो सो-काल्ड सैक्स पावर बढ़ाने के नाम पर सप्लीमैंट्स धड़ल्ले से बिक रहे हैं क्या उन में ऐसी कुछ अऩाप-शनाप मिलावट न होती होगी ? ----पता नहीं, मुझे तो हमेशा से ही लगता है कि यह सब गोरखधंधा है, पब्लिक को लूटने का एक ज़रिया है , उन की भावनाओं से खिलवाड़ है ----और इस देश में हर दूसरा बंदा सैक्स कंसल्टैंट ( कम से कम डींगे हांकने के हिसाब से !!!!) होते हुये भी लोग सैक्स के बारे में खुल कर बात नहीं करते, किसी क्वालीफाईड सैक्स-विशेषज्ञ को मिलते नहीं ----इसलिये जिन्हें इस तरह की दवाईयों से तरह तरह के साईड-इफैक्ट्स हो भी जाते हैं वे भी मुंह से एक शब्द नहीं कहते ------क्योंकि उन्हें लगता है कि बिना वजह उन का मज़ाक उड़ेगा और इसी वजह से इस तरह की जुगाड़ बेचने वाली कंपनियां फलती-फूलती जा रही हैं।

हां, तो मैं पोस्ट लिख कर इस से संबंधित कुछ वीडियो यू-टयूब पर ढूंढने लगा तो मुझे दिख गया कि किस तरह से देश के फुटपाथों पर लोगों की योन-शिक्षा की स्पैशल क्लास ली जा रही है।

गुरुवार, 7 मई 2009

अप्राकृतिक यौन-संबंधों का तूफ़ान ( सैक्सुयल परवर्शन्ज़ का अजगर )

आज एक बहुत ही बोल्ड किस्म की पोस्ट लिख रहा हूं ---लिखने से पहले कितने ही दिन यही सोचता रहा हूं कि इस विषय पर लिखूं कि नहीं लिखूं----लेकिन फिर यही ध्यान आया कि अगर पाठकों तक सही जानकारी पहुंचेगी ही नहीं तो यह जो तरह तरह के अप्राकृतिक यौन संबंधों की तेज़ आंधी-तूफ़ान सी चल रही है उस से बचने के लिये लोग किस तरह से उपाय कर पायेंगे।


चलिये, शुरू करते हैं---इन बलात्कार की खबरों से। आपने भी यह तो नोटिस किया ही होगा कि जब हम लोग छोटे थे और जब कभी महीनों के बाद किसी अखबार में बलात्कार की खबर छपती थी तो एक सनसनी फैल जाया करती थी। लोग हैरान-परेशान से हो जाया करते थे और उस केस से लगभग अपने आप को पर्सनली एन्वॉल्व करते हुये उस केस को मीडिया के माध्यम से पूरा फॉलो-अप करते थे कि उस कमबख्त अपराधी का आखिर हुआ क्या ?


आज का दौर देखिये---लगभग हर रोज़ अखबार में बलात्कार की खबरें छप रही हैं लेकिन लोगों की अब इस में रूचि नहीं रही ----अब वे इस में भी क्रूरता के ऐंगल की तलाश करते फिरते हैं ---अब पब्लिक की फेवरिट खबर हो गई है सामूहिक बलात्कार की खबरें ---जिन्हें मीडिया परोसता भी बहुत सलीके से है। आप भी ज़रा सोचिये कि हिंदोस्तानी के वहशी दरिंदों को आखिर इस गैंग-रेप का विचार कहां से आया ?

सामूहिक बलात्कार की खबर किसी दिन अगर नहीं दिखेगी तो इस तरह की खबर दिख जायेगी की एक 70 वर्षीय बुजुर्ग ने एक छः साल की अबोध बच्ची के साथ मुंह काला किया। छः साल की ही क्यों, इस से कम उम्र की बच्चियों के साथ दुराचार की वारदातें हम मीडिया में देखते सुनते रहते हैं।

और अकसर पुरूष के साथ पुरूष के शारीरिक संबंधों ( male homosexuals) की खबरों भी हैड-लाइन बनने लगी हैं ----लेकिन महिलायें भी क्यों पीछे रहें ? --- उन के भी अंतरंग संबंधों ( लैस्बियन – lesbian relationship) की बातें मीडिया लगातार परोसता ही रहता है , इन समलैंगिक जोड़ों की शादियां भी खूब चर्चा में रहती हैं। और जब कभी विकसितदेशों में इन समलैंगिक संबंधों पर कोई नया कानून बनता है या किसी कानून का वहां विरोध बनता है तो उसे अपने यहां मीडिया के लोग खूब मिर्च-मसाला लगा कर परोसते हैं।

कॉन्डोम के विज्ञापन ऐसे आते हैं जैसे कि किसी नये तरह के पिज़ा के बारे में बताया गया हो --- फ्लेवर्ड कॉन्डोम ---- अब इस तरह के विज्ञापन देख कर किसी पाठक के मन में क्या भाव उत्पन्न होते हैं , मुझे नहीं लगता मेरा इस के बारे में कुछ लिखना यहां ज़रूरी है । एक विज्ञापन ने तो कमबख्त सभी फ्लेवर्ज़ की लिस्ट ही छाप रखी होती है---- मैंगो, स्ट्राबरी.......और साथ में नीचे लिखा होता है कि बनॉनॉ फ्लेवर ट्राई किया क्या ?

अब आगे चलें ---- यह जो आजकल लोग थ्री-सम, फोर-सम की बातें करते हैं .......यह जो सामूहिक सैक्स क्रीडायों की बातें होती हैं ----क्या यह सब कुछ इतना लाइटली लेने योग्य है ? बिल्कुल नहीं -----ये सब की सब बीमारियां हैं, कमबख्त लोगों को लाइलाज रोग परोसने के बहाने हैं, शारीरिक तौर पर तो तबाह करने के साधन हैं ही ये सब, मानसिक तौर पर भी ये यौन-विकृतियां आदमी को खत्म कर देती हैं। एक बार अगर कोई इस अंधी, अंधेर गली में घुस गया तो समझ लीजिये उस का तो काम हो गया । उस का फिर इस तरह के संबंधों से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है -----हर तरह की ब्लैक-मेलिंग, वीडियो फिल्मिंग, दांपत्य जीवन पर बहुत ही बुरा असर और उस से भी ज़्यादा बुरा असर बच्चों के विकास पर -----उन बेचारों का भी मानसिक तौर पर बीमार होना लगभग तय ही होता है।


अब कोई अगर यह सोच रहा है कि यह सब तो अमीर, विकसित देशों में ही होता है तो हमें उस बंदे के भोलेपन पर तरस ही आयेगा। जिस तरह से यौन-विकृतियां हम जगह जगह देख-सुन रहे हैं ----गैंग-रेप, स्पॉउस स्वैपिंग, बाईसैक्सुयल लोग .........ये सब अब कैसे विकसित देशों तक ही सीमित रह पाई हैं ? ग्लोबलाईज़ेशन का ज़माना है तो कैसे कोई भी देश कोई भी ऐसी वैसी चीज़ ट्राई करने में पीछे रह सकता है।


आज से दस साल पहले की बातें याद करूं तो ध्यान आता है कि बंबई के अंग्रेज़ी के अखबारों में ढ़ेरों ऐसे विज्ञापन आते थे ( पता नहीं अब भी ज़रूर आते होंगे...या फिर अब इंटरनेट ने लोगों की मुश्किलों को आसान कर दिया है) ...... कि इस वीकएंड पर अगर ब्राड-माईंडेड दंपति बिल्कुल बिनदास पार्टी में हिस्सा लेना चाहते हैं तो इस मोबाइल नंबर पर बात करें ----साथ में यह भी लिखा होता था कि सब साफ़-सुथरे लोग हैं, ऊंची पोजीशन वाले लोग हैं, और साथ में किसी कोने में यह भी लिखा हुआ दिखता था कि इस के बारे में पूरी गोपनीयता रखी जायेगी ( Confidentiality assured!).


आये दिन बड़े शहरों में अमीरज़ादों की रेव-पार्टियां सुर्खियों में होती हैं। अब इन रेव पार्टी में क्या क्या चलता है इस का अंदाज़ा लगाने के लिये बस अपनी कल्पना के घोडे दौड़ाने की ही ज़रूरत है। ड्रग्स चलती हैं, नशे के टीके चलते हैं, दारू बहती है तो फिर इस के आगे भी सब कुछ क्यों नहीं चलता होगा ? ----आप ने बिल्कुल सही सोचा ---जी हां, सब कुछ चलता ही है।


अब कितनी यौन-विकृतियों के बारे में लिखें ----आप सब कुछ जानते हैं। लेकिन मेरा केवल एक ही प्रश्न है कि ये आज से बीस-तीस साल पहले कहां थीं ? वह भी दौर था कि महीनों बाद किसी युवती के रेप की खबर देख कर देश का खून खौलने लगता था लेकिन आज साले इस खून को क्या हो गया कि छोटी छोटी नाबालिग अबोध बच्चियों के साथ दुष्कर्म की खबरें देख-सुन कर भी यह खून बर्फ़ जैसा जमा ही रहता है ? क्यों एक 25 साल का युवक एक अस्सी साल की औरत के साथ मुंह काला करने पर उतारू हो रहा है ? हो सके तो कभी इस के बारे में सोचियेगा।


25 साल की उम्र में 1987 में एमडीएस करते हुये जब हमें एड्स के विषय पर एक सैमीनार तैयार करने को कहा गया तो हम लोगों ने पहली बार होमोसैक्सुएलिटि ( male homosexuals) का शब्द सुना था । और ये ग्रुप-सैक्स, थ्री-सम, फोर-सम, मुख-मैथुन (ओरल सैक्स), एनल सैक्स (गुदा मैथुन), स्पॉउस स्वैपिंग( एक रात के लिये पति-पत्नी की अदला-बदली) , वन-नाइट स्टैंड -----इन (यहां पर मैंने एक छोटी सी गाली लिखी थी ) विकृतियों के बारे में शायद हिंदोस्तान के चंद लोग ही जानते होंगे। लेकिन सोचने की बात तो यही है कि फिर यह सारा कचरा आया कहां से -------निःसंदेह यह सारा कचरा पोर्नोग्राफी के ज़रिये विश्व भर में फैल रहा है। मैं तो जब भी इस पोर्नोग्राफी के बारे में दो बातें ही जानता हूं ---------सीधा सा नियम है जो इनपुट हम लोग इस के अंदर डालेंगे वैसी ही आउटपुट बाहर निकलेगी। बेशक कोई कितना भी धर्मात्मा क्यों न हो , अगर अश्लील तस्वीरें, फिल्में देखी जायेंगी , अश्लील वार्तालाप में संलिप्त होगा तो फिर परिणाम भयंकर तो निकलेंगे ही।


अब आप भी यह सोच रहे होंगे कि डाक्टर तू भी क्या.....सुबह सुबह नसीहतों की घुट्टी लेकर कहां से आ टपका है ! मैं भी इस तरह के विषयों पर लिखने से पहले बहुत सोचता रहता हूं कि लिखूं कि नहीं लिखूं -----लेकिन फिर जब मन बेकाबू हो जाता है तो लिखना ही पड़ता है। इस तरह के विषयों के बारे में लोगों में बहुत ही अज्ञानता है --- लोग आपस में इन विषयों पर बात करते हुये झिझकते हैं, मीडिया-प्रिंट एवं इलैक्ट्रोनिक इन यौन विकृतियों जैसे विषयों पर खुल कर कुछ कहने से कतराता है --- तो फिर हम जैसे मलंग लोगों को कुछ तो करना ही होगा। लेकिन खफ़ा मत होईये, मैं बस कुछ मुख्य बिंदु यहां लिख कर खिसक लूंगा ----


--- पुरूष समलैंगिक को एचआईव्ही संक्रमण होने का खतरा बहुत अधिक होता है। यह विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है और इस विकृति के परिणाम हम देख ही रहे हैं।

---- जिन महिलायों को गर्भाशय का कैंसर है उन सब के प्रति आदर एवं सहानुभूति के साथ यहां यह लिखना ज़रूरी समझता हूं कि इस तरह के कैंसर के लिये एक से ज़्यादा पुरूषों के साथ शारीरिक संबंध स्थापित किया जाना अपने आप में एक रिस्क फैक्टर है। नोट करें रिस्क फैक्टर है !!

---- यह जो तरह तरह के फ्लवर्ड कॉन्डोम के विज्ञापन दे कर लोगों को किस विकृति की तरफ़ उकसाया जा रहा है , इस का अनुमान आप सहज ही लगा सकते हैं। फ्लेवर्ड ही क्यों आज कल तो ब्रिटेन में शाकाहारी कॉन्डोम( vegetarian condom) ने धूम मचा रखी है। यकीन ना आये तो गूगल सर्च कर के देख लें। बाकी अंदर की बातें आप स्वयं समझ लें -----अब सब कुछ मैं ही लिखूं क्या ?

---- जो अंग जिस काम के लिये बना है उससे वही काम लिया जायेगा तो बात ठीक है-----वरना किसी तरह का अननैचुरल( अप्राकृतिक) यौनाचार अपने साथ तबाही ही लेकर आता है। ओरल-सैक्स ( मुख मैथुन) से तरह तरह की अन्य बीमारियों के साथ साथ ह्यूमन-पैपीलोमा वॉयरस ( human papilloma virus) के ट्रांसफर होने का खतरा बहुत बड़ा होता है ( यह वही वॉयरस है जिसे कि गर्भाशय के मुख के कैंसर के बहुत से केसों के लिये दोषी पाया गया है)। ओरल-सैक्स के द्वारा इस तरह के वॉयरस के ट्रांसफर का जो खतरा बना रहता है उस से गले के कैंसर के बहुत से केस सामने आये हैं, यह मैंने कुछ अरसा पहले ही एक मैडीकल स्टडी के परिणामों को देखते हुये जाना था।

----यह जो वन-नाईट स्टैंड है, ग्रुप सैशन, थ्री सम, फोर-सम हैं ---ये सब की सब दिमागी बीमारियां हैं -----वह इसलिये कि इन के दौरान भयंकर किस्म की लाइलाज बीमारियां मोल लेने का पूरा अवसर मिलता है लेकिन फिर भी इन तरह की यौन-क्रीडायों ( परवर्शन्ज़) में लिप्त होने वाले बस एक खेल ही समझते हैं। ऐसा बिलकुल नहीं है, यह तो बस आग है। बाहर के विकसित देशों में इन यौन-जनित रोगों की वजह यही है कि वहां पर उन्मुक्त यौनाचार है । लेकिन हम लोग की क्या स्थिति है यह कोई स्टडी खुल कर कह नहीं रही है !! वैसे भी जब इस तरह के विषयों पर कुछ कहने-सुनने की बात आती है तो हम लोग कबूतर की तरह आंखें बंद कर लेने में ही अपनी भलाई समझते हुये यह सोच लेते हैं कि इस से बिल्ली भाग जायेगी।


खजुराहों की गुफायों पर आकृतियां( माफ़ कीजिये मैंने देखा नहीं है, बस सुना ही है , उसी आधार पर ही लिख रहा हूं) , कोणार्क की सैंकड़ों साल पुरानी आकृतियां ---- आप यही सोच रहे हैं ना कि डाक्टर फिर वह सब क्या है , लेकिन इमानदारी से इस का मेरे पास कोई जवाब नही है, ज़रूरी तो नहीं कि जो सदियों पुरानी बातें हैं सब पर हाथ आजमाना ही है, वैसे भी हम लोग कब सारी पुरातन बातों को मान ही लेते हैं------हज़ारों साल पहले हमारे तपी-पपीश्वरों ने तो योग-ध्यान-प्राणायाम् को भी अपनी दिनचर्या में शामिल करने की गुज़ारिश की थी, लेकिन अगर हम उन की ये बातें कहां मान रहे हैं ?


बस, दोस्तो, आज तो इन सैक्स-परवर्शन्ज़ के बारे में बातें करने की ओवर-डोज़ सी ही हो गई है ---इसलिये यही यह कह कर आप से आज्ञा लेता हूं कि किसी भी तरह का अननैचुरल सैक्सुयल आचरण केवल खतरा ही खतरा है ----------एक बार इस सुनामी की चपेट में कोई आ जाये तो फिर ......। कहने वाले ऐसे ही तो नहीं कहते कि एक बार मुंह को खून लग जाये तो बस ........।।

शनिवार, 7 मार्च 2009

सुन्नत / ख़तना करवाने ( Male circumcision) के बारे में आप क्या यह सब जानते हैं ?

दो वर्ष पहले अफ्रीका में की किये गये तीन सर्वेक्षणों से यह निष्कर्ष निकाला गया कि जिन पुरूषों की सुन्नत हुई होती है उन में एड्स वॉयरस के प्रवेश का ख़तरा 60फीसदी कम होता है, इसलिये विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एड्स की रोकथाम के लिये ख़तना करवाने की सिफारिश कर दी।

थोड़ा इस बात की चर्चा करें कि यह सुन्नत करवाना है क्या ----जैसा कि आप जानते होंगे कि पिनिस ( शिश्न, लिंग) का अगला नर्म भाग ( शिश्न मुंह अथवा glans penis) ढीली चमड़ी से ढका रहता है जिसे मैडीकल भाषा में प्रिप्यूस ( prepuce) कहा जाता है ---- एक बिलकुल छोटे से आप्रेशन के द्वारा शिश्न मुंह के ऊपर वाली इस चमड़ी को उतार दिया जाता है।

जब से विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह सिफारिश आई है विभिन्न गरीब देशों ने अपनी अपनी सरकमसिज़न पॉलिसी बनाने की तरफ़ कदम उठाने शुरू किये तो हैं लेकिन फिर भी लोगों के बीच इस सुन्नत के बारे में बहुत सी गलत भ्रांतियां चल निकली हैं। एक बहुत ही चिंता की बात यह भी यह है कि नीम-हकीमों ने बिना साफ़-सुथरे औज़ारों के ही यह काम सस्ते ढंग से करना का जिम्मा उठा लिया। वैसे तो तरह तरह की भ्रांतियों को समाप्त करने के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस के बारे में यह वेबसाइट ही बना डाली है, लेकिन फिर भी अभी इस के बारे में बहुत जागरूकता की ज़रूरत है।

सब से पहले तो एक नज़र इस तरफ़ डाली जाये कि यह सरकमसिज़न आप्रेशन( सुन्नत, ख़तना) किया ही क्यों जाता है ---
- एक धार्मिक विश्वास के कारण ---- आप यह तो जानते हैं कि मुस्लिम धर्म में धार्मिक कारण की वजह से छोटे लड़कों की सुन्नत की जाती है।
- दूसरा कारण है जब कोई भी कंप्लीकेशन हो जाये तब ख़तना करना पड़ता है ---- होता क्या है कि कईं छोटे बच्चों की प्रिप्यूस इतनी टाइट होती है --- वह शिश्न-मुंड के ऊपर से बिल्कुल भी टस से मस नहीं होती ----इस अवस्था को फिमोसिस (phimosis) कहा जाता है। इस की वजह से कईं बार यह जटिलता हो जाती है कि छोटे लड़कों को पेशाब करने में ही दिक्तत हो जाती है जिस की वजह से उन के शिश्न-मुंड के ऊपर टाइट चमड़ी को इस छोटे से आप्रेशन के द्वारा उतार दिया जाता है।
- बिना किसी विशेष कारण के भी कईं बार सरकमसिज़न कर दी जाती है।

कुछ बातें इस प्रिप्यूस के बारे में करनी ज़रूरी लग रही हैं ---- अधिकांश नवजात शिशुओं में यह जो चमड़ी है ग्लैंस-पिनिस ( glans penis- शिश्न-मुंड) के साथ पूरी तरह चिपकी पड़ी होती है । और अगर बिल्कुल कुछ भी न किया जाये तो भी लगभग सभी लड़कों में यह चमड़ी लड़के के तीन साल की उम्र के होने तक शिश्न-मुंड से अलग हो जाती है -----------ध्यान दें कि केवल अलग हो जाती है –मतलब यह कि वह आसानी से शिश्न-मुंड से आगे-पीछे सरक सकती है।

यही कारण है कि लोगों को यह निर्देश दिया जाना बहुत ज़रूरी है कि तीन साल की उम्र तक तो शिशु के शिश्न के ऊपर जो foreskin है उस को ज़ोर लगा कर शिश्न-मुंड से पीछे सरकाने की कोशिश न करें। अगर तीन साल की उम्र तक भी ग्लैंस के ऊपर वाली यह चमड़ी ग्लैंस पर चिपकी ही रहती है तो बेहद एहतियात से बिल्कुल आहिस्ता से इस चमड़ी (foreskin) को पीछे सरकाने की कोशिश की जानी चाहिये --- और इस चमड़ी और शिश्न-मुंड के अंदर जो भी मैल सी चिपकी रहती है उसे साफ़ कर दिया जाये। लेकिन अगर शिशु के चार साल के होने तक भी यह चमड़ी शिश्न-मुंड के साथ चिपकी ही रहे तो किसी पैडिएट्रिक सर्जन से एक बार मिलना ठीक रहता है जो कि इस चमड़ी को बिना काटे ही पीछे सरका ( retract) कर सकता है।

अच्छा तो अब इस पोस्ट की दो बहुत ही अहम् बातें ---- पहली तो यह भ्रांति को तोड़ना होगा कि सरकमसिज़न ( सुन्नत, ख़तना) करवा ली और हो गई विभिन्न प्रकार की बीमारियों से शत-प्रतिशत रक्षा ---- इसीलिये बहुत से पुरूष विभिन्न यौन-जनित रोगों से बचाव के लिये कंडोम का इस्तेमाल करना ही बंद कर देते हैं।

इस से कहीं न कहीं हमें किसी रिस्क-बिहेवियर की भनक पड़ती है और लोग इस तरह के रिस्क-बिहेवियर में लिप्त होने के लिये इस सरकमसिज़न को एक क्लीन-चिट ही न समझ लें।

और अब बारी आती है वह बात कहने की जिस के लिये मैंने यह पोस्ट लिखी है ---- इस पोस्ट को पढ़ रहे कितने पुरूष पाठक ऐसे हैं जिन के बेटे सन-सरकमसाईज़ड (uncircumcised) हैं--- ( यह कोई खास बात नहीं कि ख़तना नहीं करवाया हुआ है ) ---- लेकिन उन्होंने कभी अपने बेटे के साथ इस बात की चर्चा ही नहीं की कि शिश्न-मुंड के ऊपर वाली चमड़ी (foreskin) को नियमित तौर पर पीछे सरका कर नहाते समय साफ़ करना निहायत ही ज़रूरी है --- ऐसा करना इसलिये ज़रूरी है कि जो इस ढीली चमड़ी और शिश्न-मुंड के अंदर मैल सी ( जिसे मैडीकल भाषा में smegma- स्मैगमा) इक्ट्ठा होती रहती है अगर उसे नियमित साफ़ न किया जाये तो उस से पेशाब में जलन होनी शुरू हो जाती है और कईं बार तो इस को साफ़ न करने की वजह से मूत्र-मार्ग मे सूजन भी आ सकती है - urinary tract infection (UTI).

इसलिये अनुरोध है कि अपने किशोर बेटे को अगर अब तक यह शिक्षा आपने नहीं दी है तो और देरी मत कीजिये ----यह यौन-स्वास्थ्य का एक अभिन्न अंग है , इसे नज़र-अंदाज़ नहीं कर सकते। और एक सुझाव है कि यह शिक्षा बेहतर तो यही होगा कि बेटे को चार-पांच साल से ही दे दी जाये कि नहाते समय आहिस्ता से शिश्न-मुंड के ऊपरी चमड़ी को थोड़ा पीछे सरका के ( जितना भी आसानी से बिना किसी दर्द के सरकाई जा सके) उस पर लगी मैल को साफ़ कर दिया जाये। और लड़कों को छोटी उम्र से ही इस साफ़-सफ़ाई की आदत लग जाये तो वह भी सारी उम्र अपने यौन-स्वास्थ्य के प्रति सजग रहने के साथ साथ तरह तरह की भ्रांतियों एवं काल्पनिक तकलीफ़ों से बचे रहते हैं। लेकिन इन लड़कों को यह भी ज़रूर बतायें कि रोज़ रोज़ शिश्न-मुंड ( glans penis) पर साबुन लगाना ठीक नहीं है ----जो स्मैग्मा ( मैल) जमा होती है वह बिल्कुल आहिस्ता से उंगली से ही पूरी तरह उतर जाती है ।

और अगर अब तक आप ने अपने टीन-एज- किशोर बेटे से इस के बारे में बात ही नहीं की है तो क्या करें ------- या तो उसे किसी तरह से यह पोस्ट पढ़वा दें, वरना इस का एक प्रिंट-आउट ही थमा दें ---- और अगर यह काम कर ही रहे हैं तो उस के द्वारा इस स्वपन-दोष वाली पोस्ट का पढ़ा जाना भी सुनिश्चित करे -----------------काश, हम लोगों के ज़माने में भी हमें ये सब बातें बताता ---हम लोगों ने तो यूं ही काल्पनिक बीमारियों की सोच में पढ़ कर ही अपने जीवन के सुनहरे काल के बहुत से वर्ष गर्क कर दिये ------लेकिन अब हमारे बच्चे इस तरह की बातों पर ध्यान देने लगेंगे तो बहुत बढ़िया होगा। आप भी झिझक छोड़ कर यह सब बातें अपने बेटे के साथ सांझी करेंगे तो ठीक रहेगा ----मेरा तो यह लाइफ़ का अनुभव है, आगे आप की मरज़ी -----जैसा ठीक समझें, वैसा करें।

वैसे तो सैक्स-ऐजुकेशन के लेबल के अंतर्गत लिखी मेरी सभी पोस्टें एकदम दिल से लिखी गई हैं ---आप देखें कि अपने बेटे की मैच्यूरिटि के अनुसार कौन कौन सी पोस्टें वह पढ़ सकता है---- कल रात यूं ही मैं इन पोस्टों का लेबल बदलने की कोशिश कर रहा था तो मुझे अचानक एक मैसेज दिखा कि इस लेबल की सभी पोस्टें डिलीट कर दी गई हैं------ मेरा तो सांस ऊपर का ऊपर ही रह गया ----थैंक-गॉड, ऐसा कुछ नहीं था , मुझे समझने में ही कमी थी ---उस का मतलब था कि अब ये पोस्टें बिना लेबल के हैं, इसलिये फिर मैंने उन्हें बारी बारी से सैक्स-ऐजुकेशन लेबल के अंदर रख दिया। मैं घबरा इस लिये गया कि दोस्तो ये पोस्टें मुझे स्वयं पता नहीं मैंने किसी घड़ी में लिख दी डाली हैं ---जो मैं इन दस-ग्यारह पोस्टों में पहले लिख चुका हूं अब कोई कहे कि ऐसा फिर से लिखो, वह मेरे तो बस की बात ही नहीं है, दोस्तो।
शुभकामनायें।

रविवार, 18 जनवरी 2009

यह खतरनाक स्प्रे बिकता है धड़ल्ले से !!

कल अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन की एक चेतावनी पढ़ने का मौका मिला--- चेतावनी थी कि चमड़ी सुन्न करने वाली क्रीम, जैल एवं ओंएटमैंट से क्यों बच कर रहा जाये। अभी मैंने पूरी रिपोर्ट पढ़नी शुरू ही नहीं की थी तो मेरा माथा ठनका कि क्या सैक्स-मैराथन के लिये वहां भी लोग इस का इस्तेमाल कर रहे हैं , लेकिन मैं गलत साबित हुआ।

मैं सोच रहा था कि उस में बात उस स्प्रे के इस्तेमाल की भी होगी जिस को कईं लोग विज्ञापनों के चक्कर में पड़ कर सैक्स-मैराथन में भाग लेने से पहले इस्तेमाल करते हैं। इस तरह के गुमराह करने वाले विज्ञापन अकसल कईं जगह दिख जाते हैं --- जो एक तरह से पाठकों को एक बार इसे इस्तेमाल करने का निमंत्रण दे रहे होते हैं। और बहुत से काल्पनिक शीघ्र पतन की शिकायत से जूझ रहे अपने ही भाई-बंधु इन के चक्कर में पड़ जाते हैं----शायद उन्हें भी लगता है कि चलो यही ठीक है किसी डाक्टर से अपना दुःखड़ा रोने की ज़हमत ही नहीं उठानी पड़ेगी। स्प्रे मार लेने से ही काम चल जायेगा।

अपने देश में रोना इस बात का भी है कि इस तरह के विज्ञापन अच्छी खासी जगहों पर नज़र आते रहते हैं ---- कुछ तो कईं मैगज़ीनों में और कुछ हिंदी की अखबारों में भी देख चुका हूं। कुछ साल पहले मैं इस तरह के बेबुनियाद विज्ञापनों के विरूद्ध एक शीर्ष संस्था को बहुत लिखा करता था लेकिन कुछ भी जब मुझे होता दिखा नहीं तो मैंने चुप होने में ही बेहतरी समझी। वहां पर इस तरह की शिकायत करने की इतनी औपचारिकतायें हैं कि कुछ महीनों में ही मेरा खौलता हुया खून ठंडा पड़ गया। और फिर धीरे धीरे समझ आ गई कि अगर इस तरह की गल्त भ्रांतियों का गला काटना है तो कलम से ज़्यादा ताकतवर कोई तलवार नहीं है ----बाकी सब धकौंसले बाजियां हैं, दिखावे हैं ---- असलियत कुछ नहीं । बस कलम चलाओ और आम आदमी के साथ सीधे जुड़ जायो-----यही काम पिछले आठ सालों से कर रहा हूं, और कुछ कर पाने के लिये कोई बैकिंग भी तो नहीं है। बस, सब के लिये खूब प्रार्थना ज़रूर कर लिया करता हूं कि सभी लोगों की किसी न किसी तरह से , किसी न किसी रूप में, किसी न किसी के द्वारा रक्षा होती रहे । इस समय आशीष महर्षि के ब्लाग पर लिखी कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं ----
मेरे सीने में ना सही, तेरे सीने में ही सही,
आग जहां भी हो, जलनी चाहिये।

एक आम इंसान की त्रासदी देखिये कि उसे जब यह विज्ञापन दिखा, साथ में एक कामुक सा विज्ञापन दिखा --- उस बेचारे को क्या पता वह क्या खरीद रहा है, वह झट से एक शीशी खरीद लेता है --- उस लाचार को तो बस इतनी आस है, इतनी उम्मीद है कि इस से वह थोड़ा लंबा खिंच जायेगा --- अगर ऐसा वह सोचता है तो उस में उस का कोई दोष नहीं है ----दोष है उन सब का जो इस तरह के विज्ञापन देते हैं एवं उन से भी बड़ा दोष उन का है जो इन विज्ञापनों को देख कर भी देखा-अनदेखा कर देते हैं। अच्छा आम आदमी की बेचारे की मानसिकता यही है कि चलो, क्या फर्क पड़ता है –स्प्रे ही तो मारना है, हम कौन सा कोई गोली, कैप्सूल खा रहे हैं। लेकिन उस की त्रासदी देखिये कि उसे इस तरह के स्प्रे से जब कोई भी नुकसान हो जाता है तो अव्वल तो उसे पता ही नहीं चलता कि यह स्प्रे की वजह से है और अगर पता लग भी जाये तो वह कंपनी का क्या उखाड़ लेगा ---- चुप्पी साधे रखता है, किसी डाक्टर के पास जाने से भी कतराता है क्योंकि इस तरह के स्प्रे वगैरह कोई क्वालीफाइड डाक्टर लोग तो लिखते नहीं हैं और अगर इसे लेने की सलाह किसी नीम-हकीम ने दी थी तो वे ठहरे मंजे हुये खिलाड़ी ---स्प्रे की जगह कोई लोशन थमा देंगे ---- उन के पास किस चीज़ की कमी थोड़े है !!

यह मैराथन वाली बात भी ऐसी ध्यान में आई कि मैं तो भाई अपनी मूल बात से ही भटक गया कि अमेरिका की एफडीए ने चेतावनी दी है कि अगर चमड़ी को सुन्न करने वाली वस्तुओं का गल्त इस्तेमाल किया जाये तो इस से दिल की धड़कन में गड़बड़ हो सकती है, दौरे पड़ सकते हैं , सांस लेने में तकलीफ़ हो सकती है, आदमी कोमा में जा सकता है और मौत भी हो सकती है।

These skin-numbing products in cremes, ointments or gels contain anesthetic drugs such as lidocaine, tetracaine, benzocaine, and prilocaine that are used to desensitize nerve endings near the skin's surface. If used improperly, the FDA said in an agency news release, the drugs can be absorbed into the bloodstream and cause reactions such as irregular heartbeat, seizures, breathing difficulties, coma or even death.

बार बार फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने इस के गल्त इस्तेमाल से सचेत रहने की बात की है और मैं उस चेतावनी में यही ढूंढ रहा था कि ज़रूर कहीं ना कहीं इस तरह के स्प्रे की इस तरह के गलत (मैराथन के लिये !)इस्तेमाल की भी बात की गई होगी , लेकिन शायद वहां पर लोग इतने जागरूक हैं कि यह सब इस काम के लिये इस्तेमाल नहीं करते होंगे। लेकिन सहवास से पहले इस स्प्रे का इस्तेमाल किया जाना शायद इस के गलत इस्तेमाल की सब से बड़ी उदाहरण है।

वैसे अमेरिका में तो उन्हें इस तरह की कुछ शिकायतें प्राप्त हुईँ कि जब महिलाओं ने अपनी मैमोग्राफी करवाने से पहले इसे अपने वक्ष-स्थल पर लगाया तो इस से कुछ कुप्रभाव उन में हुये और वहां पर महिलाओं ने जब लेज़र से अपने बाल उतरवाने से पहले भी इस तरह की चमड़ी सुन्न करने वाली क्रीमों आदि को इस्तेमाल किया तो भी कुछ बुरे प्रभाव देखने में आये जिस की वजह से वहां पर यह चेतावनी दी गई कि अपने फ़िज़िशियन की सलाह के बिना आप को किसी भी ऐसे प्रोडक्ट को इस्तेमाल करने के लिये मना किया जाता है।

इन क्रीमों, जैलों, ओएंटमैंटों में जिन चमड़ी सुन्न करने वाली दवाईयों की बात का उल्लेख था वे हैं --- लिडोकेन, टैट्राकेन, प्राइलोकेन, और बेनज़ोकेन – ( lidocaine, tetracaine,prilocaine and benzocaine) .

ये सब दवाईयां इस्तेमाल शरीर के किसी हिस्से को सुन्न करने के लिये इस्तेमाल की जाती हैं --- इन की अपनी अपनी अलग इंडीकेशन्ज़ हैं, ये विभिन्न ताकत में मिलती हैं( different strengths 2%, 3% आदि)--- जो दवा आंख में डाली जाती है उस की स्ट्रैंथ अलग है, मुंह में लगाई जाने वाली सुन्न करने वाली दवाई की स्ट्रैंथ अलग है । इस लिये इन के गल्त इस्तेमाल से बहुत बड़ा पंगा हो सकता है ।

मैं पिछले पच्चीस सालों से मुंह में कोई भी सर्जरी करने के लिये लिडोकेन 2% के इंजैक्शन का ही इस्तेमाल कर रहा हूं ---- ऊपर लिखी सब दवाईयां हैं तो सुन्न करने के लिये ही ना, लेकिन कभी भी लक्षमण-रेखा क्रॉस कर के किसी दूसरे साल्ट को इस्तेमाल करने का विचार भी नहीं आया ----लेकिन जो ले-मैन इन के स्प्रे के इस्तेमाल के चक्कर में पड़ जाता है उस बेचारे को ना तो किसी साल्ट की परवाह ही होती है और ना ही इस की स्ट्रैंथ की ---- कैमिस्ट चुपचाप मांगी गई वस्तु थमाने के अलावा ज़्यादा मगज़मारी करते नहीं हैं !!

अकसर मैं मुंह में इंजैक्शन लगाने से पहले एक स्प्रे का इस्तेमाल करता हूं जिस में इस सुन्न करने वाली दवा की स्ट्रैंथ 15 फीसदी ( 15% lidocaine) तक रहती है --- इस का फायदा यह होता है कि मरीज़ को जब उस के बाद हम इंजैक्शन लगाते हैं तो उसे सुईं की चुभन तक का बिल्कुल पता नहीं चलता और अपना काम आसान हो जाता है । और कईं बार बच्चों के हिलते-डुलते दांतों को एक ऐसी ही दवा वाली जैल ( लगा कर ही निकाल दिया जाता है। कहने का भाव है कि जिस का काम उसी को साजे----- डाक्टर लोग अपनी सारी सारी उम्र इन दवाईयों के साथ बिता देते हैं ---- इसलिये कोई भी काम उन की सलाह से ही किया जाये तो ठीक है, वरना आप ने तो देख ही लिया कि जब इस तरह के स्प्रे का लोग गल्त इस्तेमाल करते हैं तो आफ़त ही मोल लेते हैं। मैराथन तो गई भाड़ में, जान बची सो लाखों पाये।

मुझे ध्यान आ रहा है बंबई में एक मरीज़ था जो दो-तीन बार आया --- इलाज करवाने के बाद कहने लगता था कि इस तरह का स्प्रे हमें भी दिला दो --- मैंने पूछा क्यों, कहने तो लगा कि बस यूं ही मुंह में जब छाले वाले हों तो काम आ सकता है। अब पता नहीं उसे किस काम के लिये यह चाहिये था ---खुदा ही जाने, लेकिन मैंने उसे इतना ज़रूर समझा दिया था कि यह एक बहुत ही स्ट्रांग सी दवा है जिसे केवल डाक्टर की देख रेख में ही इस्तेमाल किया जा सकता है ।

जाते जाते बस एक छोटा सा नारा मारने की इच्छा सी हो रही है --- इस कमबख्त स्प्रे की ऐसी की तैसी !!--- बस, इतना कह कर ही लगता है काम चला लूं ---क्योंकि जो इस तरह के स्प्रे बेचने वालों के लिये मन में विचार, श्लोक आ रहे हैं वे तो लिखने के बिल्कुल भी काबिल नहीं हैं ---- जब कभी चिट्ठाजगत समारोह वगैरह में मिलेंगे तो वह भी चाय-नाश्ते के समय साझे कर ही दूंगा लेकिन यहां ---- बिल्कुल नहीं !!!

इतनी सीरियस सी पोस्ट के बाद चलिये फिक्र-नॉट की टेबलेट के रूप में एक गाना सुनते हैं।

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2008

संदेशे आते हैं.....सैक्स पार्टनर्स को यौन-जनित रोगों के !!

अपने किसी सैक्स पार्टनर को यह बताने के लिये कि उसे भूल से कोई यौन-संबंध से फैलने वाली बीमारी परोस दी गई है कंप्यूटर माउस की एक क्लिक की मदद ली जा रही है।

एक रिपोर्ट के अनुसार तीस हज़ार लोगों ने एक ऐसी इंटरनेट सेवा का इस्तेमाल किया है जिस के द्वारा अपने सैक्स पार्टनर्ज़ को सचेत किया जा सकता है कि हो सकता है कि उन को सिफिलिस, गनोरिया, एच.आई.व्ही अथवा अन्य रोगों से संक्रमित किया जा चुका है।

इन्स्पाट सर्विस ( inSPOT service) के नाम से जानी जाने वाली इस सर्विस को सॉन-फ्रांसिस्को में 2004 में शुरू किया गया था और अब यह इदाहो, लूईसियाना, न्यू-यार्क, ओरेगन, पैनिसिलवेनिया, एवं वाशिंगटन जैसे अन्य राज्यों में भी चालू है।

2004 में सैन-फ्रांसिस्को के पब्लिक-हैल्थ विभाग एवं एक स्वयं-सेवी संगठन ने समलैंगिक पुरूषों का सर्वे करने पर यह पाया कि अधिकांश पुरूष अपने कैजुअल सैक्स पार्टनर्ज़ को इस बारे में नहीं बताते कि उन में sexually-transmitted disease- STD रोग डॉयग्नोज़ हुआ है। लेकिन रिपोर्ट ने इस बार का बहुत ज़ोर से दावा कि इन पुरूषों ने कहा कि अगर कोई आसान सी, अनॉनीमस सर्विस हो जिस के माध्यम से वे अपने पार्टनर्ज़ को उनमें भविष्य में होने वाले रोग की संभावना से आगाह कर सकें--- तो वे इस सर्विस को ज़रूर इस्तेमाल करेंगे।

इस के परिणाम स्वरूप ही इन्स्पाट (inSPOT) सर्विस का जन्म हुआ----पहले पहल तो समलैंगिक पुरूषों के लिये ही लेकिन बाद में किसी के भी द्वारा इस का इस्तेमाल किया जाने लगा। इस सर्विस को इस्तेमाल करने वाले एक वैब-साइट पर जाते हैं, एक फार्म की विभिन्न जगहों पर क्लिक करते हैं जो उन्हें अपने सैक्स-पार्टनर का ई-मेल एड्रैस लिखने को कहा जाता है और साथ में यह बात भी विशेष रूप से लिखने को कहा जाता है कि उस पार्टनर को आप के द्वारा किस बीमारी या बीमारियों से संभवतः एक्सपोज़ किया जा चुका है।

जिस पार्टनर को संभवतः किसी यौन-संक्रमित बीमारी से एक्सपोज़ किया जा चुका है उसे एक ई-मेल प्राप्त होता है जिस की सबजैक्ट लाइन में लिखा होता है ----“ इ-कार्ड ---एक शुभचिंतक दोस्त की तरफ़ से .....आप की सेहत से संबंधित... मार्फ़त इन्स्पाट ”।
The person potentially exposed to an STD will then get an e-mail with the subject line, “ E-card from a concerned friend re: your health via in SPOT.”

जो लोग संदेश भेजते हैं वे चाहे तो अपना नाम साथ भेजें ---वरना वे अनॉनीमस ढंग से भी ये संदेश भेज सकते हैं। वे इ-कार्ड पर भेजे जाने वाली तस्वीरों का भी चयन कर सकते हैं और “I am sorry” लिख कर भी भेज सकते हैं।
2004 से तीस हज़ार लोगों ने इस तरह के लगभग पचास हज़ार ई-कार्डों को भेजा है। लेकिन एक बात तो है कि कुछ शरारती किस्म के लोग इन कार्डों को किसी को परेशान करने के लिये भी इस्तेमाल कर रहे हैं।

और यह भी अभी स्पष्ट नहीं है कि इस सर्विस से यौन-जनित रोगों में कमी आई भी है कि नहीं । वैसे मामला कुछ ज़्यादा ही कंप्लीकेटेड सा नहीं लग रहा क्या -----ठीक है कुछ तो फायदे होंगे ही इस सर्विस के लेकिन इस तरह की बीमारियों से बच निकलने का केवल एक ही अचूक फार्मूला है और वह है .... आग से खेलने से बचा जाये ......कोयलों की दलाली होगी तो मुंह काला तो होगा ही, बाद में चाहे कितनी भी चौंचलेबाजी कर ली जाये।

शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

सै्क्स शिक्षा.....श...श....श.....चुप रहो, वरना पाप लगेगा !!

यहां तो भई यौन-शिक्षा पर कभी भी न बनेगी एक राय.......

दो तीन पहले मैं अपने 10साल के बेटे के साथ हेयर-ड्रैसर की दुकान पर बैठा अपनी बारी की इंतज़ार कर रहा था....उस के टीवी पर केबल टीवी पर दिखाई जाने वाली वही हिंदी डबिंग वाली कोई अंग्रेज़ी फिल्म चल रही थी। दो-तीन मिनट बाद एक जबरदस्त चुंबन का सीन आ गया.....अब मेरा बेटा मेरे मुंह की तरफ़ देख रहा था और मुझे स्वयं इस कद्र शर्मसार होना पड़ रहा था जैसे कि इस में मेरा ही कोई कसूर है। खैर, घर में होता तो जिस किसी के हाथ में भी रिमोट होता है वो इस तरह के सीन की दूर-दूर की संभावना होते होते ही रिमोट का बटन दबा देता है, लेकिन नाई की दुकान पर चल रहे चैनल पर तो अपनी मर्ज़ी नहीं ना चलती।

हां, तो आज के अखबार में एक बार फिर से एक खबर दिखी है ...जिस का शीर्षक है....यौन-शिक्षा पर नहीं बन रही एक राय। उस खबर के पहले पैरे को यहां लिख रहा हूं....बच्चों को यौन शिक्षा देने के लिए उपयुक्त पाठ्यक्रम पर एक राय नहीं बन पा रही है। यहां, यूनीसेफ व नाको द्वारा तैयार पाठ्यपुस्तकों में ज़रूरत से ज्यादा खुलापन नज़र आ रहा है, वहीं नाको ने किशोर शिक्षा कार्यक्रम पर जिन पुस्तकों को तैयार किया है, वो युवा संगठनों, शिक्षाविदों को कुछ ज्यादा ही संकुचित लगती हैं। उन्होंने इसमें संशोधन की मांग की है।

अगले पैरे मैं यहां लिख नहीं रहा हूं क्योंकि इस तरह की खबरें मैं और आप देख कर, पढ़ कर , सुन-सुन कर थक चुके हैं। बच्चों की यौन शिक्षा भी तो भई एक राष्ट्रीय मुद्दा ही हो गया है......आए दिन कोई न कोई दिखती है कि वहां वहां स्कूल किताब में यह शिक्षा इस तरह से दी जा रही है, वहां उस ढंग से दी जा रही है.......कोई ग्रुप तो पूरी तरह से इस तरह की शिक्षा का घोर विरोध कर रहा है। कईं जगहों पर तो बड़े विरोध होने लगते हैं।........पिछले कितने ही सालों से यह सब कुछ चलता चला जा रहा है।

यह सब देख कर बेहद दुख हो रहा है कि इस सौ करोड़ से भी ज़्यादा के देश में क्या इतने सुलझे हुये लोग भी नहीं हैं जो बच्चों की सैक्स शिक्षा का प्रारूप तैयार कर सकें।

कारण पता है क्या है....हम लोग दोगले हैं....मुझे अपनी एक प्रोफैसर के शब्द याद आ रहे हैं......हीर-रांझा के किस्से सारे लोगों को बहुत पसंद हैं....लेकिन शर्त है कि हीर पड़ोसी के घर से संबंध रखने वाली हो। कोई भी परिवार यह गवारा नहीं करता कि हीर उस के घर से हो।

ठीक है, अब तक यौन शिक्षा पर एक राय नहीं बन पाई है.....तो क्या टीवी पर जो रोज़ाना जबरदस्त अश्लीलता परोसी जा रही है.....उस पर कोई मां का लाल रोक लगा सकता है.....!! और तो और इंटरनेट पर जो कुछ भी आज बच्चों को उपलब्ध है, उस को कौन कंट्रोल कर सकता है.....क्या है यह किसी के बश की बात !!

तो फिर यौन शिक्षा की एक राय बनाने के लिये इतना रोना-धोना आखिर क्यों......कुछ भी करो,लेकिन भई एक बार शुरू तो करो..... उस सिस्टम में जो खामियां समय के साथ नज़र आएंगी उन्हें तुरंत दूर किया जा सकता है। लेकिन, हम सब को अपनी आंखों से यह संकीर्णता का चश्मा तुरंत ही उतार फैंकने की बहुत ज़रूरत है।
आप का क्या ख्याल है ?

रविवार, 18 मई 2008

शीघ्र-पतन......अब इस का फैसला भी होगा घड़ी की टिक-टिक से !!

पोस्ट लिखने से पहले ही यह बता दूं कि मैं कोई सैक्स-रोग विशेषज्ञ नहीं हूं.....लेकिन एक आम पढ़े-लिखे सजग नागरिक होने के नाते मैं अपनी व्यक्तिगत परसैप्शन एवं सैंसिटिविटि के आधार पर यह पोस्ट लिख रहा हूं। मुझे कुछ पता नहीं कि मैं अपने इन विचारों को लिख कर ठीक कर रहा हूं या नहीं , लेकिन आज सुबह से ही मेरे मन की आवाज़ थी कि इस विषय पर लिखना होगा, सो लिख रहा हूं।

एक दूसरी बात यह भी यहां लिखना ज़रूरी है कि हिंदी चिट्ठाकारी का संसार अंग्रेज़ी चिट्ठाकारी से बहुत ज़्यादा अलग है। वहां पर ना किसी का ठीक से नाम पता, ना ही आईडैंटिटि ही पता........इसलिये आदमी कुछ भी लिख कर...कंधे झटका कर...हैल विद एवरीबॉडी कह कर पतली गली से निकल ले.....यह यहां पर संभव नहीं है क्योंकि हिंदी चिट्ठाकारी में सब अपने से ही लगते हैं...दरअसल लगते ही नहीं हैं, हैं भी अपने ही ....हिंदी चिट्ठाकारी तो भई एक परिवार सा ही दिखता है.....यहां पर जितनी भी महिलायें भी लिखती हैं वे भी एक तरह से अपने चिट्ठाकारी परिवार के साथ ही साथ अपने परिवार का एक अहम् हिस्सा ही लगती हैं...इस लिये इन की उपस्थिति में कुछ भी बहुत सोच समझ कर ही लिखना होता है।

मैं यहां पर इस तरह की कहानी सी क्यों डाल रहा हूं ...इस का कारण केवल यही है कि डाक्टर होते हुये मैं पिछले कईं महीनों से दुविधा में हूं कि क्या मुझे व्यक्तिगत अथवा सैक्स संबंधी खबरों पर अपनी टिप्पणी देनी चाहिये क्योंकि कईं बार इतनी महत्वपूर्ण खबरें मैं यहां-वहां खास कर अंग्रेज़ी के अखबारों में देखता हूं कि मेरे लिये तुरंत उन के ऊपर कुछ कहना बेहद ज़रूरी हो जाता है। अब मैं इतने महीने तक तो इस तरह के विषयों पर लिखने से गुरेज सा ही करता रहा हूं ......लेकिन यह सोच रहा हूं कि ऐसा करना हिंदी पाठकों के साथ अन्याय ही होगा। इसलिये अब से निर्णय ले लिया है कि खबर कैसी भी हो.....शरीर के किसी भी सिस्टम से संबंधित...अब मैं उस पर अपनी टिप्पणी देने से, अपना मन खोलने से नहीं हटूंगा।
कल के अंग्रेजी के अखबार में एक न्यूज़-रिपोर्ट दिखी .....
Ejaculating under 60 sec ‘premature’
Experts hope quantification of time will put many out of their misery.
अब मेरा विचार तो यही है कि इस से बहुतों की मिज़री (परेशानी) मुझे तो नहीं लगता कि किसी तरीके से कम होगी।
खबर में कहा गया है कि इस बात की अब आधिकारिक पुष्टि हो गई है कि इंटरकोर्स शुरू होने से 60सैकंड के भीतर ही अगर किसी पुरूष का वीर्य-स्खलन हो जाता है तो इसे शीघ्र-पतन ( premature ejaculation) कहा जायेगा। इंटरनेशनल सोसाइटी ऑफ सैक्सुयल मैडीकल के विशेषज्ञों ने पहली बार इस शीघ्र-पतन की पारिभाषित किया है....रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि विश्व भर में 30 फीसदी पुरूष इस यौन-व्याधि (Sexual disorder) से परेशान हैं।

रिपोर्ट में एक अमेरिकन यूरोलॉजिस्ट ने यह भी कहा है कि शीघ्र पतन की इस से पहले वाली परिभाषायें वीर्य-स्खलन (ejaculation) की समय सीमा के बारे में कुछ कहती ही नहीं......इस लिये जो पुरूष भी शीघ्र डिस्चार्ज हो जाते थे वे यही समझते लगने लगते थे कि उन्हें तो शीघ्र-पतन की तकलीफ़ है जिस के परिणाम स्वरूप उन के वैवाहिक संबंध में दिक्कतें आनी शुरू हो जाती हैं, उन पुरूषों को बेहद मानसिक तनाव हो जाता है और यह स्थिति उन्हें अवसाद की खाई में धकेल देती है।

उस विशेषज्ञ ने तो यह भी कहा है कि इस शीघ्र-पतन को पारिभाषित किये जाने का यह प्रभाव होगा कि जो पुरूष एक मिनट में स्खलित हो जाते हैं ....वे अब जान जायेंगे कि ऐसा होना एक मैडीकल अवस्था है तो चुपचाप खामोशी में इसे सहना से बेहतर है चिकित्सक से मिल कर इस का निवारण कर लिया जाये। और एक बार जब प्री-मैच्योर इजैकुलेशन ( शीघ्र-पतन) का डायग्नोसिस हो जाये तो उस की मनोवैज्ञानिक चिकित्सा एवं दवाईयां शुरू कर दी जाती हैं।

रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख है कि अब चूंकि शीघ्र-पतन को पारिभाषित कर ही दिया गया है...इस से दवा-कंपनियों को भी शीघ्र-पतन के मरीज़ों को भविष्य में किये जाने वाले क्लीनिकल ट्रॉयल्ज़ हेतु चिंहिंत करने में आसानी हो जायेगी.......( क्योंकि मापदंड जो फिक्स हो गया है......60सैकंड से कम वाला शीघ्र-पतनीया और 61सैकंड वाला धुरंधर खिलाड़............आप ने नोट कर लिया न कि मैंने कहा खिलाड़ न कि लिक्खाड़) ...यह कोष्ठक वाली लाइन मीडिया डाक्टर की अपनी है............

अच्छा खबर की बात तो होती रहेगी...पहले उस कार्टून के बारे में तो दो बातें कर लें जिसे इस न्यूज़-रिपोर्ट के साथ दिया गया है। इस कार्टून में यह दर्शाया गया है कि एक दंपति अपने शयन-कक्ष में अलग-अलग पड़े हुये हैं....चद्दर ओड़ के....पुरूष की हालत का ज्ञान इस बात से लगाया जा सकता है कि उस की जीभ बाहर निकली हुई है और चेहरे से पसीना टपक रहा है.....और महिला हैरान-परेशान सी यही सोचे जा रही है कि आज इस ने इतनी तेज़-रफ्तार गाड़ी क्यों चलाई !!....और इस के साथ-साथ उन की चादर पर एक स्टॉप-वॉच भी पड़ी हुई है जिस पर 55 सैकंड की रीडिंग है.....यह स्टॉप-वाच और उस पर यह 55 सैकंड वाली रीडिंग देख कर सोच रहा हूं कि ये अखबार वालों के कार्टून भी बहुत नटखट होते हैं........अब दोस्तो हिंदी और अंग्रेज़ी माध्यम में अंतर ही देख लीजिए......उस इंगलिश के पेपर में तो कार्टून छप भी गया....कार्टून के माध्यम से काफी कुछ कह भी दिया और इधर मुझ बेचारे को कार्टून का सही वर्णन करते हेतु सही शब्दों को ढूंढते ढूंढते ही मेरी डियर नानी मां याद आ गई।....सचमुच याद आ गई दोस्तो क्योंकि दोस्तो जब हम भी हम उस के यहां दो-तीन दिन रहने को जाते थे तो वह देवी हम से बेहद प्यार करती थी, बहुत ही बेहतरीन खाना खिलाती थी, पसीने से लथपथ होते हुये भी हमें रोज़ाना तंदूर की कड़क रोटियां खिलाती थीं और हम सब के लिये हैंड-पंप चला चला कर पानी की गागरें भर कर सुबह सुबह रख लेती थीं ...वरना जिस समय भी घर के बाहर गली में लगे कमेटी के नल से पानी आता था, पीतल की बड़ी बड़ी भारी गागरों में पानी ला कर इन पानी के मटकों को भर कर रखती थीं...........उस की केवल और केवल एक शिकायत थी कि तुम लोग इतने खुराफाती हो कि गागर में पूरा हाथ डाल कर पानी निकालते हो.....इस से पानी खराब हो जाता है, ऐसा वह समझती थी .....इस समय सोच रहा हूं कि क्या वह गलत कहती थी........बिल्कुल नहीं, मैंने भी तो चंद यही बातें ही सीखीं....लेकिन इतने सारे साल कठिन पढ़ाई करने के बाद !!!....अच्छा प्यारी सी स्वर्गीय नानी की बाकी बातें फिर कभी , अभी तो मैंने बस यह प्रूफ मुहैया करवाना था कि कार्टून को ब्यां करते करते मेरी तो असल में ही नानी की प्यारी यादें हरी हो गईं

भारत में किये गये सर्वे बतलाते हैं कि इस देश में सभी व्यस्क पुरुषों में से 10 फीसदी पुरूष ऐसे हैं जो किसी न किसी तरह के सैक्सुयल-डिस्फंक्शन से जूझ रहे हैं .....जिन में से 7 फीसदी पुरूष ऐसे हैं जो इस शीघ्र-पतन की वजह से परेशान हैं। मैक्स हास्पीटल के एक यूरोल़ाजिस्ट के अनुसार....... “Premature ejaculation most commonly affects Indian men aged 19-26years and decreases by nearly 50% after they reach 30.”
यानि कि 19-26 वर्ष के भारतीय युवक आम तौर पर इस शीघ्र-पतन से परेशान रहते हैं जो तकलीफ़ इन के तीस वर्ष के होते होते आधी हो जाती है। अब आप देखिये कि कितनी महत्वपूर्ण स्टेटमैंट हैं....इस पर चर्चा अभी थोड़ी ही देर में करते हैं।
…..इसी यूरोलॉजिस्ट ने आगे इस न्यूज़-रिपोर्ट में कहा है....... “Till now, whenever patients complained of Premature ejaculation or reaching climax before five minutes of intercourse, we first put them on counseling sessions. However, now we know that in patients who ejaculate within a minute, it is a pathological disorder that would need immediate medical intervention. In absence of any standardization earlier, doctors failed to diagnose serious premature ejaculation cases thereby prolonging mental and physical trauma for the patient”. .......यानि रिपोर्ट में कहा गया है कि अब तक तो जब भी मरीज़ शीघ्र-पतन की शिकायत करते थे या यह कहते थे कि इंटर-कोर्स के पांच मिनट के अंदर ही उन का वीर्य-स्खलन हो गया ( यानि काम हो गया या छूट गया !)…..तो हम लोग सब से पहले उन की काउंस्लिंग शुरू कर दिया करते थे। यह डाक्टर आगे कहते हैं कि अब हमें पता चल गया है कि जो पुरूष एक मिनट के अंदर ही स्खलित हो जाते हैं.....ऐसा होना एक पैथॉलाजिक डिस्आर्डर है.....यानि की बीमारी है यह....जिस के लिये तुंरत मैडीकल मदद ली जानी चाहिये। यह डाक्टर आगे यह फरमाते हैं कि इस से पूर्व चूंकि कोई मानक तय नहीं थे .......डाक्टर गंभीर तरह के शीघ्र-पतन रोगियों के डॉयग्नोज़िज़ में असमर्थ रहते थे जिस के कारण मरीज बेचारा लंबे समय तक फिजीकल एवं मानसिक यातना सहता चला जाता था।

मीडिया डाक्टर की टिप्पणी ................
रिपोर्ट आपने भी पढ़ ही ली....और उस में दिये गये कार्टून के बारे में भी आपने जान ही लिया, अब आप का इस के बारे में वैसे ख्याल है क्या ?........ठीक है, चलिये , मैं अपना ख्याल ही पहले आप के समक्ष रखता हूं।
सब से पहले तो मैं यह मानता हूं कि जिन लोगों ने भी यह परिभाषा दी है...वे मेरे से बहुत ज़्यादा समझदार हैं, अपने फील्ड के धुरंधर एक्सपर्ट हैं....इसलिये यह सब कुछ बहुत गहन रिसर्च का ही नतीजा होगा, लेकिन एक ले-मैन की तरह तो मुझे टिप्पणी देने से कोई रोक तो नहीं सकता, है कि नहीं ?...

तो मेरी सुनिये......मुझे तो यह खबर पढ़ कर हंसी सी ही आई.........नहीं, नहीं, मैं किसी तरह से किसी रोगी का मज़ाक नहीं उड़ा रहा हूं.....लेकिन जो दशा एवं दिशा आज रिसर्च की है उस के बारे में सोच कर बेहद अजीब सा लगता है। यही सोचता रहा कि अब कोई मरीज जब अपने डाक्टर के पास इस तरह की तकलीफ के साथ जायेगा तो पहले तो डाक्टर उसे कहेगा कि पास वाली दुकान से एक स्टॉप-वाच लेकर घर जा और कल आ कर बतला कि तुम 60 सैकंड की समय सीमा के अंदर ही थे कि उसे एक-दो सैकंड के लिये पार कर पाये थे.....तुम्हारी तो भई आगे की मैनेजमैंट इस टाइम पर ही निर्भर करेगी।

फिर ध्यान आया कि एक बार यह 60 सैकंड वाली बात पूरी तरह पब्लिक हो जाये.....मुझे पूरा विश्वास है कि विकसित देशों की कंपनियां ऐसे ऐसे गैजेट्स कर लेंगी जिन का नारा ही यही होगा कि इन क्रूशीयल क्षणों का मज़ा आप इस स्टॉप-वाच को शुरू और बंद करने में क्यों बर्बाद किये जा रहे ...हम ने बना दिया है यह गेजेट जिसे बस आपने मैदाने-जंग में उतरने से पहले पहनना है, इस पर सारी रीडिंग्ज़ अपने आप आ जायेंगी......आप को तो बस इस के सिवा कुछ करना ही है ही नहीं ( really ?)…।

मेरा विचार यह है कि अब इस रिसर्च का, शीघ्र-पतन की इस नईं परिभाषा का इतना प्रचार-प्रसार कर दिया जायेगा कि जिन लोगों के वैवाहिक संबंध जीवन रूपी सीधी सादी पटड़ी पर सरपट दौड़े जा रहे हैं ...उन को ख्वाहख्मां से एक तरह की हीन भावना का शिकार बना कर , उन के दांपत्य जीवन में भी इस तरह की परिभाषायें जहर ही घोलेंगी, उन के दांपत्य जीवन की रेल को ये मानक पटड़ी से नीचे गिरा कर ही दम लेंगी।

यही सोच रहा हूं कि जिस देश में काम-सूत्र की रचना हुई ...क्या अब इस तरह के टुच्चे-टुच्चे सर्वे यह तय करेंगे कि कौन शीघ्र-पतनी है और कौन तीसमारखां.....। मुझे तो पता नहीं क्यों ये सब सर्वे-वर्वे बिलकुल बेकार से ही लगते हैं......जैसा कि आप ने ऊपर रिपोर्ट में पढ़ा कि पहले जो मरीज पांच मिनट तक नहीं चल (!!) पाते थे ….उन्हें ही काउंसिल किया जाता था ,लेकिन अब ऐसा कौन सा कर्फ्यू लग गया कि आप विशेषज्ञ लोग सीधे ही पांच मिनट से एक मिनट पर उतर आये।

मेरे विचार में इस तरह की रिसर्च-वर्च सब दवा कंपनियां ही करवाती होंगी.....अब वे ढेरों दवाईयां बना रही हैं....वे अपने गोदाम भरने के लिये ही तो बना नहीं रही हैं.....अब उन्हें हर कीमत पर ग्राहक चाहिये......शीघ्र-छुट्टिये( प्री-मेच्योर इजैक्युलेटरस) नहीं मिल रहे तो मीडिया में इस तरह कि रिपोर्टें बारम्बार छाप कर इस सीधी-सादी जनता का दिमाग इतनी हद तक खराब कर दो, इन में इतनी ज़्यादा हीन भावना पैदा कर दो कि दिहाड़ीदार मज़दूर भी शाम को दिहाड़ी कर के लौटते समय तेल, हल्दी, घी के साथ साथ पास वाली दुकान से इस के लिये भी एक टेबलेट लेना न भूले........बच्चे के लिये कोई छोटा मोटा फल खरीदना तो पीछे कहीं रह गया ....उस मजदूर की ऐसी की तैसी...कैसे न खरीदे वो इस गोली को जो उसे इस हीन-भावना से उठा तो पाये।

विचार मेरा यह भी है कि इस तरह की न्यूज़-रिपोर्टों में सैक्स को एक मकैनिकल-प्रक्रिया का ही दर्जा दे दिया जाता है.......यानि कि 2 जमा 2 चार.....लेकिन सैक्स एक बिल्कुल ही व्यक्तिगत सी , बेहद व्यक्तिगत सी बात है..जो कोई भी दिमागी तौर पर तंदरूस्त बंदा हर किसी के साथ डिस्कस नहीं करता फिरता.........और फिर इस देश में.....तौबा..तौबा....इस देश में तो सैक्स के विभिन्न पहलू हैं.........इतने कहने पर भी मजबूर हूं कि यहां पर तो सैक्स के पूजा है......एक आराधना है, अर्चना है......केवल किसी अबला का शोषण नहीं है, बाहर के मुल्कों की तरह स्लीपिंग पिल नहीं है, वासना नहीं है.......................ऐसा क्यों लिख रहा हूं.......क्योंकि ज़िंदगी की किताब के जो पन्ने रोज़ाना पढ़ता हूं उन के आधार पर ही सब कुछ कह रहा हूं ...कोई अपनी तरफ से मिर्च-मसाला नहीं लगा रहा......कईं ऐसे ऐसे मरीज़ देखता हूं जिन की हालत कईं कईं बरसों से कुछ इस तरह की है कि वे तो अपनी दिन-चर्या भी नहीं कर पाते..........और मेरे महान देश की ये पूजनीय महान देवियां इन की सेवा-सुश्रुषा में बिल्कुल मां की तरह से सारा जीवन एक बिता डालती हैं.........अब इन दंपतियों को यह एक मिनट का पाठ कोई भी पढायेगा तो क्या बच पायेगा, अगर ज़ुर्रत भी करेगा तो तमाचा ही खायेगा !! मैंने यह भी सुन रखा है कि अमीर मुल्कों की औरतें तो अच्छे भले मर्दों को अपनी नाइट-गाउन की तरह बदल कर , उन के GPL लगा कर किसी दूसरे की हो जाती हैं......( क्या ......अब आप यह पूछ रहे हैं कि यह GPL तो बता कि क्या होता है.....आप सब सुधि पाठक हो, आप को यह ज्ञान तो होना ही चाहिये....नहीं है तो आपस में पूछ कर काम चला लो,भाई। फिर भी कहीं पता ना लग पाये तो इस नाचीज़ को ई-मेल कर के पूछ लीजियेगा......कोई बात नहीं....अभी तो बस इतना समझ लीजिये कि यह है कोई सीरियस सी बात !!) …..हां, इन के लिये तो बहुत ज़रूरी है इस तरह की शीघ्र-पतन की डैफीनीशन्ज़.....क्योंकि 55 सैकंड तक ही चल पाने वाले निकम्मे पति से कानूनी तौर पर छुटकारा लेने से लिये उसे कोई तो ग्राउंड चाहिये कि नहीं !!

एक बात आपने भी नोटिस की होगी इस रिपोर्ट में कि विशेषज्ञ कह रहे हं कि भारत में शीघ्र पतन के बहुत से केस 19-26 वर्ष के दरमियान पाये जाते हैं ....और 30वर्ष की आयु तक पहुंचते पहुंचते इन केसों की संख्या आधी रह जाती है। इस के बारे में थोड़ी चर्चा करते हैं......इस का कारण जो मैं समझ पाया हूं कि इस उम्र के दौरान इन नीम-हकीमों ने इन छोरों का दिमाग इतना ज़्यादा खराब कर दिया होता है कि वे अपने आप को असक्षम सा समझने लगते हैं। तरह तरह के पैम्फलेट ये सो-काल्ड सैक्स –स्पैशलिस्ट छपवा कर सार्वजनिक स्थानों पर बांटते फिरते हैं जिन में सब कुछ इतने ज्यादा नैगेटिव एवं डरावने से ढंग से कहा गया है कि इस उम्र के नौजवान अपने इतने ज़्यादा प्रोडक्टिव वर्षों में तरह तरह की हीन भावनाओं से ग्रस्त हो जाते हैं। इन में अकसर कुछ इस तरह से बातें की गई होती हैं कि बचपन की गलतियों से बरबाद हुये जीवन को ठीक कर लो, हस्त-मैथुन से , स्वप्न-दोष से जो लिंग टेढ़ा हो चुका है, बिल्कुल क्षीण हो चुका है, उस को ठीक कर भई , खानदानी हकीम जी आप लोगों के शुभचिंतक हैं जो बादशाही इलाज से सब कुछ ठीक ठाक कर देंगे........................अरे, बेवकूफों, ठीक तो उसे करोगे जो ठीक नहीं होगा......इन युवकों को बस यही तकलीफ है कि इन का दिमाग आप नीम-हकीमों ने ही तो खराब कर रखा है..they have literally mentally tortured some of our youth in believing that they are capable of doing nothing…..that they are impotent. Unfortunately once such a feeling takes roots in tender minds, then these .....इन्हें ना तो कुछ है , ना ही होगा......अगर कोई व्याधि थोड़ी बहुत है भी , तो क्वालीफाईड चिकित्सक किस लिये मैडीकल कालेजों से हर साल इतनी संख्या में निकल रहे हैं………….वे आखिर किस मर्ज की दवा हैं।

बात सोचने की यह भी तो है कि अगर इन युवकों में शीघ्र-पतन की समस्या इतनी ही ज़्यादा गहरी है तो फिर तीस साल के बाद इस शीघ्र-पतन के लोग आधे क्यों रह जाते हैं .....क्या ये सारे डाक्टर के पास जा कर इलाज करवा लेते हैं.......नहीं, नहीं, मुझे तो नहीं लगता कि चंद लोगों ( आटे में नमक के बराबर!)…के इलावा लोग इस तकलीफ़ के कारण किसी डाक्टर के पास कभी जाते भी हैं !!.....सीधी सी बात है कि इतने धक्के खा के इधर उधर वे इस उम्र में थोड़े मैच्योर होने लगते हैं और इस तरह की काल्पनिक (ज्यादातर काल्पनिक ही !!!!!!!!!!!!!......कोरी काल्पनिक.......!!!!!!) व्याधियों से वे ऊपर उठने लगते हैं। अरे भई इस देश के युवक अच्छी तरह से जानते हैं कि उन के वंशज क्या थे.....वे सैक्स को किस स्तर पर रखते थे.........उन्हें कुछ समय तक तो ये पैंफलेट गुमराह ( सैक्स शिक्षा के दुर्भाग्यपूर्ण अभाव के कारण ) कर सकते हैं लेकिन उन के पुरातन संस्कारों की जड़े इतनी पुख्ता हैं कि ये उन्हें डगमगाने नहीं देतीं।

हां, युवक की बात तो हो गई. लेकिन इतना तो हम मानते ही हैं कि कुछ दवाईयों के प्रयोग से इस तरह की समस्या टैंपरेरी तौर पर आ सकती है जिसे डाक्टर के परामर्श से दवा चेंज करने पर बिलकुल ठीक किया जा सकता है। और हां, कुछ शारीरिक तकलीफें भी हैं जिन में इस तरह की समस्यायें कभी कभी किसी को हो सकती हैं........जिन का समाधान चिकित्सक मरीज को बताते ही रहते है

हां, अगर किसी को कोई रियल बीमारी की वजह से ही यह सब हो रहा है तो फैमली फिजीशियन उसे किसी सर्जन अथवा यूरोलॉजिस्ट के पास चैक-अप क लिये रैफर कर ही देता है जिधर उस का आसानी से इलाज हो जाता है । लेकिन जाते जाते एक बात कहनी बहुत जरूरी समझता हूं कि इस तरह की तकलीफ़ें का केंद्र-बिंदु हम मन ही होता है.....और इन का समाधान भी हमारी पुरातन योगिक क्रियायों में धरा-पड़ा है....प्राणायाम्, ध्यान........और सब से ज़रूरी कि सभी व्यस्नों से कोसों दूर रहा जाये........।सादा, पौष्टिक भोजन लें। और क्या , बाकी सब राम भरोसे छोड़ दें.........सैकस कोई मैराथान रेस नहीं है...........किसी को दिखावा थोडे ही करना है..............इस देश में सैक्स को बहुत ऊंचा स्थान हासिल है.......पूजा के समान है यह......क्या आप यह नहीं मानते ??.......वैसे भी मियां-बीवी राज़ी तो क्या करेगा काज़ी ...........क्या पता कोई 30सैकंड वाले दंपति इतने खुश हों और बीस मिनट सरपट दौड़ने वाला धुरंदर धावक अंदर से बीवी की गालियों का ही पात्र बनता हो।

यह सब इतना पर्सनल है.....इतना पर्सनल है कि मेरी मीडिया से यही गुजारिश है कि कम से कम इस देश के बंदों को चैन से सोने तो दो यारो, पैसा कमाने के , सैंसेशन क्रियेट करने के और मौके कम हैं कि आपने उस की पलंग की चादर पर एक स्टॉप-वाच रख कर उस की नींद ही हराम कर दी। कुछ तो सोचो, यारो, कुछ तो सोचो.............बस, और क्या कहूं !!
जाते जाते बस इतना आप सब ब्लागर-बंधुओं से पूछ रहा हूं कि अगर आप इजाजत दें तो इस न्यूज़-रिपोर्ट के साथ जो कार्टून पेपर में छपा है उसे भी स्कैन कर के इस पोस्ट में डाल दूं.........लेकिन आप की आज्ञा के बिना नहीं......उसे देख कर आप बहुत हंसेंगे !!
ps……अगर किसी को यह पोस्ट पढ़ कर थोडा बहुत अटपटा लगा हो कि अब हिंदी चिट्ठों में भी लोग दिल खोलने लगे हैं तो उन से मैं कर-बद्ध क्षमा-याचक हूं.......लेकिन इतना तो आप को अब तक का मेरा ट्रैक-रिकार्ड देख कर यकीन हो ही गया होगा कि I am not interested in getting cheap thrills by writing such pieces……और इस का छोटा सा प्रूफ यह ही है कि मुझे पता है कि मेरा टीन-एज बेटा मेरी सारी पोस्टें पढ़ता है, और फिर भी मैंने इस तरह के सेंसेटिव से विषय पर लिखने का फैसला लिया क्योंकि I feel strongly about this sensitive issue because it involves millions of simple, naive, innocent people worldwide !!

बस, अब तो लिखना बंद करूं ....कहीं ऐसा न हो कि आप सब लोग अपनी टिप्पणीयों के माध्यम से मेरी धुनाई ही कर दो।