बुधवार, 31 अगस्त 2016

कहानी लिखना कभी तो सीख ही लूंगा..

पिछले १५-१६ वर्षों से बेकार में कलम घिसते घिसते अभी तक एक कहानी लिखना सीख नहीं पाया...

शायद २००१ या २००२ की बात होगी, एक नवलेखक शिविर लगा था जोरहाट में १५ दिन के लिए...वहां पर बस एक कहानी लिखी थी, उस के बाद कभी यह काम नहीं हो पाया...

बहुत बार अपने ब्लाग के द्वारा भी लेखक मित्रों से पूछा...लेेकिन संतोषजनक जवाब नहीं मिला...किसी ने कहा कि जो आप लिख रहे हो, उसे कहानी ही समझो....किसी ने कहा कि महान् कथाकारों की ५००-६०० कहानियां पढ़ो...अपने आप रास्ता मिल जायेगा...मुझे यह सुझाव बहुत अच्छा लगा था..

मैं निरंतर पढ़ता रहता हूं...पुराने नये लेखकों को जिसे भी पढ़ने का मौका मिल जाता है, पढ़ लेता हूं...शायद सैंकड़ों कहानियां हिंदी-पंजाबी की पढ़ भी चुका हूंगा..लेकिन मेरी मोटी बुद्धि में कुछ नहीं पड़ता...मुझे तो कभी डैंटिस्ट्री पढ़नी मुश्किल नहीं लगी जितनी मुश्किल यह कहानी लिखनी जान पड़ती है ....

कल दोपहर १ बजे अचानक लखनऊ के मिजाज कुछ ऐसे खुशगवार दिखे थे...
सारी कोशिशें कर चुका हूं....दर्जनों या सैंकड़ों लेखकों को सुन भी चुका हूं...यहां लखनऊ में रहते हुए तो यह सिलसिला पिछले साढ़े तीन सालों से कुछ ज़्यादा ही रहा ... मैंने हमेशा साहित्यिक समारोहों में ही शिरकत करने को तरजीह दी हमेशा... पुस्तक मेले, लिटचेर फेस्टिवल, सेमीनार ...कुछ नहीं छोड़ा....लेकिन इतने सारे महान लेखकों की ज़िंदगी के बारे में और उन की कालजयी कृतियों के बारे में पढ़ कर मुझे इन हस्तियों के संघर्ष का, उन की तंगहाली का ...उन के द्वारा झेली गयी चुनौतियों का तो अच्छे से पता चल गया ...लेकिन मैं कहानी नहीं लिख पाया...

शायद आप के मन में भी यह प्रश्न आ ही गया हो कि यार, तुम कहानी लिखना ही चाहते क्यों हो, चुपचाप डैंटिस्ट्री करो और साथ में ब्लागिंग करते रहो ....इन कहानी-वहानी के चक्कर में पढ़ते ही क्यों हो! ....हां, ठीक है, वह तो मैं अपनी क्षमता अनुसार कर ही रहा हूं... लेकिन कहानी लिखने की भी मेरी जिद्द है ....

कहानी मैं इसलिए भी लिखना चाहता हूं क्यों कि इस में कोई भी लेखक अपने मन को अच्छे से खोल सकता है ...कोई चूं-चड़ाक नहीं करता ...अपनी ज़माने भर की बातें कह भी लेते हो और कहानी के रूप में कहने की वजह से यह सब बहुत आसान जान पड़ता है ...

हां, इग्नू ने १५ साल पहले हिंदी में सर्जनात्मक लेखन नाम का एक डिप्लोमा शुरू किया था...मैंने भी उसे ज्वाईन किया ...पहले कंटेक्ट प्रोग्राम में गया चार पांच दिन का था...फिरोज़ुपर से चंडीगढ़ गया छुट्टी लेकर ...लेकिन वहां पढ़ाने वाली विद्वान महिला इतनी ज्यादा अच्छी थीं कि उस मोहतरमा ने पहले ही दिन कह दिया....कोर्स के दौरान जितने भी कंटेक्ट प्रोग्राम होने हैं, उन में अटैंडैंस की चिंता न करिए आप लोग....वह सब की लग जाती है। साथ में उस की पढ़ाने में भी बिल्कुल रूचि नहीं थी....मैंने उसी रात फिरोज़पुर की वापिसी की गाड़ी पकड़ी और फिर से उस कोर्स की कोई किताब नहीं खोली....

एक तो उस कोर्स की किताबें थीं भी बड़ी मुश्किल ..कलिष्ठ हिंदी ...अब मेरे जैसे पंजाबी-भाषी लोगों को जिन का पाला हिंदी से मैट्रिक तक ही पड़ा हो, उन्हें कहां ये सब समझ में आए....कईं बार लगता है कि कुछ लोगों की जिद्द हमें लखनऊ ले आई .(एक कहानी तो वक्त आने पर इस पर भी लिखेंगे)...यह मेरी हिंदी के लिए भी अच्छा रहा ...मैं यहां के अखबारों, जन-मानस, अपने मरीज़ों से हिंदी को अच्छे से जाना ...भाषा की शैली के बारे में यहां के लोगों के उमदा संवाद से बहुत कुछ समझा...यही कुछ किया लखनऊ में रहते हुए...मुझे लगता कि जैसे मैं लखनऊ में अपनी हिंदी सुधारने ही आया हूं..

सोच रहा हूं कि यह कहानी ही तो नहीं लिख रहा मैं...हां, इग्नू के उस हिंदी लेखन वाली कुछ किताबें मेरे पास अभी भी बची पड़ी हैं, उन में से एक किताब है ...कहानी लेखन के आधारभूत नियम....पिछले कुछ दिनों से इसे पढ़ रहा हूं...अब यह समझ आ रही है क्योंकि लखनऊ प्रवास ने मेरी हिंदी को इन पुस्तकों को पढ़ने लायक तो कर ही दिया है ...निःसंदेह ...Thank you, Lucknow!

नावल, उपन्यास तो कभी नहीं, मैं उपन्यास लिखने की तो कभी कल्पना भी नहीं कर सकता ...लेकिन कहानी तो मैं सीख कर रहूंगा.... मुझे बहुत सी बातें कहनी हैं....मेरे मन में बहुत कुछ भरा है ...ब्लॉग पर वह लिखा नहीं जा सकता ...कहानियों में ही अपनी बातें कहा करेंगे.....कहानी सीखने के लिए अगर मुझे अपनी सर्विस भी छोड़नी पड़ी तो मैं वह भी कर जाऊंगा किसी दिन ....किसी उस्ताद की शागिर्दी भी करनी पड़ी तो भी मैं तैयार हूं....जब तक दिल की सभी बातें कहानियों में नहीं पिरो दूंगा, चैन नहीं आयेगा...

लेकिन हर कला के लिए मैं समझता हूं सतत प्रयास और अभ्यास की ज़रूरत है जो मैं नहीं कर पाता हूं ....बस, बक बक ज्यादा करता हूं, इस तरह का सर्जनात्मक काम कम....शायदी ख्याली पुलाव या हवाई किले अच्छे बना लेता हूं..

आज कल मैं प्रेम-चंद के रचना संचयन का अध्ययन कर रहा हूं...इस में एक कहानी मैंने आज शाम पढ़ी....इस का नाम था..दूध का दाम ....मुझे आखिर तक नहीं पता चला कि इस का अंत क्या होने वाला है, यह कहानी प्रेमचंद जी ने १९३४ में लिखी थी, उस समय हमारे देश में कितना छुआछूत था, इसे मैंने इसे पढ़ कर जाना ....बिल्कुल सही कहते हैं कि साहित्य किसी भी समाज का आईना होता है ... जो भी किसी समय में घटित होता है, साहित्यकार लोग उसे आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेजते रहते हैं...प्रेमचंद की साहित्य रचना को कोटि-कोटि नमन...

हां, मैं अकसर लिखता रहता हूं कि अगर आप के पास किताबें-वाबें नहीं हैं या आसानी से उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं तो आप वर्धा  हिंदी विश्वविद्यालय की इस साइट पर जा कर हज़ारों कहानियां, नावल, नाटक, कविताएं .....कुछ भी पढ़ सकते हैं .... www.hindisamay.com  ...इस का वेबलिंक यह रहा ... हिंदीसमय.... इस में सैंकड़ों लेखकों के नामों और कृतियों को क्रमवार रखा गया है ...उदाहरण के तौर पर आप मुंशी प्रेमचंद जी के लिंक पर क्लिक करेंगे तो इस पेज पर पहुंच जाएंगे...

दो साल पहले मुझे इस विश्वविद्यालय ने एक संगोष्ठी में वक्ता के तौर पर बुलाया था ....ब्लॉगिंग से जुड़ा कुछ विषय था... मुझे तब इस साइट का पता चला था...उस अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में हिंदी पर बहुत काम हो रहा है...बहुत भव्य एवं सुंदर कैंपस है ....

 कुछ कुछ बोरिंग सा लग रहा है यह सब लिखना ... सामने टीवी पर मेरे स्कूल के समय का एक सुपर-डुपर गीत चल रहा है..(one of my all time favourites!) .... बहुत बार पहले भी शेयर कर चुका हूं...एक बार फिर से ...बोरियत को भगाने के लिए ही सही .... आप भी सुनिए...

सोमवार, 29 अगस्त 2016

गोलगप्पे भी बदल गये दिक्खे हैं....



सही बात है जैसे सब और चीज़ों का स्वरूप बदला है...ये गोलगप्पे भी बदल गये दिक्खे हैं...पंजाब हरियाणा दिल्ली के गोलगप्पे बंबई में पानी पूरी और लखनऊ में पानी के बताशे हो जाते हैं...लेकिन मुझे गोलगप्पा ही अच्छा लगता है ...क्योंकि इस में शायद हंसी की एक छींट सी दिखती है ....

अब तो अकसर बड़ी मिठाई-वाई की दुकानों के बाहर ये पानी के बताशे, इमरती, टिक्की के स्टाल देख कर और इन पर तैयार लोगों के सिर की नीली टोपियां और हाथों में दस्ताने देख कर किसी कारपोरेट अस्पताल के पोर्च में खड़े डाक्टरों की टीम की तरफ़ ध्यान चला जाता है जो किसी तगड़ी आसामी की बाट जोह रहे होते हैं कि कब कोई सही-सा मुर्गा फंसे और कब इसे हलाल करें...


पहले गोलगप्पे खाते समय इतना कुछ सोचना नहीं पड़ता था कि खिलाने वाले की पर्सनल हाईजिन कैसी है, आसपास का एरिया किस तरह का क्या है, इन सब बातों से बेपरवाह एक मटके में इमली का पानी होता था, जिसे बाहर से लाल रंग कर दिया होता था, नहीं तो लाल कपड़ा बांध दिया जाता था...(इस का कारण मुझे आज तक कभी समझ नहीं आया)..और बस चार पांच गोलगप्पे हम लोगों ने खाने होते थे ...उस में उबले हुए आलू के दो चार टुकड़े वह डालता और साथ में उबले हुए चार-छः काले चने ...पानी में डुबोता और वहां से हमारी दोने में रख देता...


अब तो पानी के बताशे खाना परोसना भी हाई-टैक हो गया है ...अच्छी बात है ...ये लखनऊ की एक मिठाई की दुकान के बाहर की तस्वीरें तो मैं पोस्ट कर ही दूंगा...लेकिन अकसर होटलों में जिस तरह से प्लेट में सजा कर गोलगप्पे परोसे जाते हैं...साथ में अलग अलग तरह का पानी, इस तरह से यह सब खाने में कहां मज़ा आता है! कुछ दिन पहले तो एक फोटो दिखी जिस में प्लेट में एक सिरिंज भी रखा हुआ था ...पानी डालने के लिए...बड़ा अजीब सा लगा ....जैसे कोई एक्सपेरीमेंट करने आये हों....वैसे भी कुछ जगहों पर मटके में भी हाथ डालने से पहले डाक्टरी दस्तानों का प्रयोग होते दिख जाता है....अजीब सी फिलिंग होती है यह देख कर ...

पानी के बताशों के लिए भी ग्राहकों को विशेषकर पढ़ेलिक्खों को आकर्षित करना अब आसां नहीं दिखता ....यहां लखनऊ के कैंट एरिया में सदर बाज़ार में तो कुछ दुकानों ने बोर्ड लगा रखे हैं कि वे आर ओ का पानी इस्तेमाल करते हैं...

स्वाद तो हर जगह गोलगप्पों का बढिया ही होता है ... मुझे याद आ रहा है कि कुछ साल पहले हम लोग भुवनेश्वर गये तो वहां भी एक गोलगप्पे वाला यू.पी से ही गया हुआ था...वह बहुत बढ़िया गोलगप्पे खिलाता था ...हम लोग अकसर उधर रोज़ ही निकल जाया करते थे... वह हमें पहचानने लगा था....मुझे ऐसा लगता है कि गोलगप्पे जैसी चीज़ें महानगरों में भी इतनी ज़्यादा चल पड़ी हैं, इस के पीछे भी यूपी से गये लोगों की बड़ी भूमिका है ...ये बड़े मेहनती हैं....इस का प्रमाण हमें तब भी मिला जब मनाली के आगे रोहतांग पर यूपी से गये लोग भुट्टे बेच रहे थे....great entrepreneurs indeed!

 मैं अकसर सोचता हूं कि तकनीक में तो हमने बहुत तरक्की कर ली, लेकिन कंटेंट में गड़बड़ी करने लगे....जैसे मीका के गाने हम लोग कितने दिन सुन सकते हैं लेकिन इस तरह के गीत हम सुनते-देखते नहीं थकते....


बीडीएस करते समय हमारी एक बहुत अच्छी मैडम थी...मैडम संतोष रियाड़...वे हमें दूसरे वर्ष में ओरल एनॉटमी पढ़ाती थीं, और हर पाठ के बाद हमें एनॉटमी के हर पाठ की Clinical implications अच्छे से समझाया करती थीं, और वे सब बातें हमारे मन में टिकी हुई हैं आज भी ....

चलिए, गोलगप्पों की तो बातें हो गईं, अब एक डेंटल-सर्जन के नज़रिये से इस की क्लीनिकल इंप्लीकेशन्स भी देख लेते हैं....

तालू का जलना 

यह तो हम बहुत वर्षों से जान ही चुके हैं कि आजकल गोलगप्पे वाले पानी को तैयार करने में कुछ गड़बड़ी तो करते ही हैं क्योंकि इमली महंगी है और टारटरी एसिड जैसा कुछ इन लोगों के हाथ लग चुका है ...लेकिन हम कहां खाते समय इन सब बातों की परवाह करते हैं !

पांच छः साल पहले मेरे पास एक महिला आई जिस का तालू जला हुआ था....देखने में वह कैमीकल बर्न जैसा लग रहा था...बहुत पीड़ा में थी....मुझे कुछ समझ में नहीं आया...मैं ऐसे ही पूछ लिया कि कुछ गर्म तो नहीं खाया, नहीं, उसने बताया कि कल शाम को लड़का गोल-गप्पे लाया था, उसे खाने के तुरंत बाद ही यह हो गया...

यह कैमीकल-बर्न ही था... उसे समझाया ...दो चार दिन दवाई लगाने से वह ठीक हो गईं...ये गोलगप्पे का पानी बनाने वाले कुछ एसिड-वेसिड तो मिलाते ही हैं, अगर ज़्यादा पड़ जाए तो यह परेशानी हो सकती है ....अभी भी कभी कभी लोग आते हैं मुंह के जल जाने के .. और काफी बार उस के पीछे पानी के बताशे ही निकलते हैं...

आप भी अपना ध्यान रखिएगा...लेकिन कैसे, वह मुझे भी नहीं पता! ....देश में पानी के बताशों के प्रति दीवानगी का आलम देखते बनता है ...हमारे घर के पास बाज़ार में एक बंदा सुबह सी पानी के बताशे खिलाने लग जाता है ...उस का सैट अप बिल्कुल पानी की छबील जैसा है ...he is very chilled-out....इत्मीनान से लगा रहता है, और पास में पत्तल के दोनों का अंबाल लगा होता है ...कुछ समय पहले मुझे पता चला कि उस के पास ही गोलगप्पे तैयार करने का एक कारखाना है!

मुंह न खुलने की वजह से पानी का बताशा न खा पाना
इस के मुंह में दो उंगली भी नहीं जा पा रही 
अगर गुटखा-पान मसाला चबाने वाले को कभी पानी का बताशा मुंह में डालने में दिक्कत आ रही है तो यह भी एक बहुत दुःखद लक्षण है मुंह की एक गंभीर बीमारी का ....बहुत से मरीज हमारे पास आते ही इस तकलीफ के साथ हैं कि मुंह पूरा नहीं खुल रहा ...और पता तब लगा जब पानी के बताशे भी नहीं खाए जा रहे ....जैसे कि यह १९-२० साल के नवयुवक के साथ हुआ...यह मेरे पास परसों आया था...छः साल से लगभग रोज़ाना छः पैकेट गुटखे-पानमसाले के खा रहा है ...और अभी इसे यह तकलीफ़ हो गई है .... इस तकलीफ़ के बारे में पढ़ना चाहें तो बाद में इस लिंक पर जा कर पढ़ लीजिएगा....अभी नहीं, वरना पानी के बताशों का स्वाद जाता रहेगा.... 


पानी के बताशे खाते खाते सामने टिक्की दिख जाती है, तब तक एक तरफ़ गर्मागर्म इमरती भी बुलाने लगती है ....मेरे साथ ऐसा बहुत बार होता है ....लेेकिन कल एक बहुत सुंदर मैसेज वाट्सएप पर आया है, शेयर कर रहा हूं, आप भी ध्यान रखिएगा...


रविवार, 28 अगस्त 2016

मन की बात क्या आप भी पीएम को लिखते हैं?

हमें पी.एम के भाषण के बारे में अभी तक इतना ही पता था कि ये वे बड़े बड़े लोग हैं जो राष्ट्रीय त्योहारों की पूर्व-संध्या पर देशवासियों को भाषण देते हैं ...यही तो बचपन से देखा करते थे ...बड़ा सीरियस या भाषण हुआ करता था...बहुत बार तो मुश्किल सी इंगलिश में यह बात कही जाती जिसे का हिंदी अनुवाद फिर कोई दूसरा सुनाया करता (जहां तक मुझे याद है!)...

हां, कईं बार पीएम तब भी बोला करते थे टीवी पर जब देश के किसी हिस्से में साम्प्रदायिक दंगे भड़क जाते थे या पड़ोसी देश से कुछ लफड़ा बढ़ जाता था तो भी पीएम बोला करते थे..

लेकिन पीएम नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से देशवासियों से मन की बात करने का सिलसिला शुरू कर के एक प्रशंसनीय पहल की है, उस का कोई जवाब नहीं...

मुझे भी पीएम की मन की बात सुनने का मन होता है ....आज तो मैं अपना ट्रांजिस्टर १५ मिनट पहले ही पकड़ कर बैठ गया...अच्छा लगता है ...दिल से कही बातें सीधी दिल में उतर जाती हैं...

मुझे कुछ दिन पहले ध्यान आया की पीएम की मन की बातें तो सुन लीं...लेकिन हम ने अपनी तो उन से कही नहीं...जैसे ही मुझे यह विचार आया ...अब मैंने भी अपने मन की बातें पीएम को भेजनी शुरू कर दी हैं...जब भी मन होता है लिख लेता हूं...चिटठी लिख कर भेजता हूं..

मुझे कईं बार लगता है कि मन की बात इतना पापुलर है जितना शायद रामायण सीरियल था...सब लोगों को इस की प्रतीक्षा रहती है ...

आज भी उन्होंने बहुत से current topics पर बात करी.....शिक्षक दिवस के बारे में बात करते हुए उन्होंने सिंधु के कोच गोपीचंद की बहुत प्रशंसा की ...बिल्कुल सही बात है उस बंदे की जितनी तारीफ की जाए कम है ...आज कल बहुत कम लोग ऐसे मिलते हैं...वरना बातें ज्यादा करने वालों का ही हर तरफ़ बोलबाला है ....छाये हुए हैं...मुझे तो गोपीचंद की वह बात भी बहुत बढ़िया लगी थी जब इस ग्रेट-आदमी ने करोड़ों रूपयों के एक कोल्ड-ड्रिंक के विज्ञापन को इसलिए करने से मना कर दिया था क्योंकि वह स्वयं इसे नहीं पीते..... indeed great! ....वरना गुटखे के विज्ञापन इतने नामचीन हस्तियों को करते देख कर इन की "गरीबी" पर तरस आता है और मुंह के कैंसर के युवा रोगियों की चंद तस्वीरें इन्हें भेजने की इच्छा होती है। 

पीएम ने अपने टीचर के बारे में भी कहा कि अब उन के अध्यापक ९० साल की उम्र के हो चुके हैं लेकिन अभी भी हर महीने उन की टीचर अपने हाथ से लिखी चिट्ठी उन्हें भेजते हैं....वे कौन सी किताबें पढ़ रहे हैं, उन के बारे में ...कुछ Quotations, और जो मैंने महीने में काम किये होते हैं उन के बारे में अपनी राय भी भेजते हैं....मोदी बता रहे थे कि अभी भी लगता है जैसे कि वह मुझे एक correspondence course के द्वारा पढ़ा रहे हों...

और भी बहुत सी बातें मन को छूने वाली की गई आज की मन की बात में ....कुछ बातें जो हमें पहले से पता नहीं होती ..शायद हम लोग इतनी परवाह ही नहीं करते इन बातों के बारे में सोचने की ..लेकिन मन की बात में जब वे कही जाती हैं तो उस का बहुत प्रभाव पड़ता है ...

२५ सालों से देख रहे हैं कि गणेश-चतुर्थी और दुर्गा पूजा के समय जिस plaster of paris से मूर्तियां बनती हैं ...वह पर्यावरण के लिए खतरा है ..विसर्जन के बाद पानी में यह सब मिल जाता है ...और जल में रहने वाली जीव-जंतुओं के लिए भी यह खतरनाक साबित होता है ....लेकिन आज जिस तरह से मिट्टी के इस्तेमाल से इन मूर्तियों को तैयार करने की गुजारिश की गई, आशा है उस का सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा...

और भी बहुत सी बातें थीं आज की मन की बात में .....चलिए..उस का यू-ट्यूब लिक ही यहां एम्बेड कर रहा हूं ...फुर्सत लगने पर सुनिएगा....


 आज कल त्योहारों की बहुत सी बातें हो रही हैं...आज की मन की बात में थीं...अभी मुझे एक सुपरहिट पंजाबी गाने पर एक मराठी महिला ने जो डांस किया था ...वह ध्यान में आ गया...कुछ साल पहले यह वीडियो वॉयरल हुआ था...शेयर कर रहा हूं..full marks to this lady for her enthusiasm .... it proves that music has no barriers...it unites people! ... वैसे कहते भी हैं कि नाचते समय ऐसे नाचो जैसे अपने लिए नाच रहे हो...गाते समय ऐसे गाओ जैसे अपनी रूह के लिए गा रहे हो....I like this clip so very much! 




काश! ट्रैफिक कंट्रोल भी मेट्रो अपने हाथ में ले ले

२१ जून को विश्व योग दिवस था....मुझे लगता है मैं शायद उस दिन योग करते करते इतना थक गया कि मुझे अपने ब्लाग पर वापिस लौटने के लिए २ महीने से भी ज्यादा का समय लग गया...इन दिनों मैं बड़े बड़े लेखकों को पढ़ने-समझने में व्यस्त रहा ....लखनऊ की जान अमृतलाल नागर जी, कथाकार यशपाल जी, पंजाबी साहित्यकार गुलज़ार सिंह संधू जी....और भी कुछ न कुछ पढ़ता ही रहा ...


लखनऊ शहर में मेट्रो का काम ज़ोरों-शोरों से चल रहा है...जैसे भी हो विधानसभा चुनाव से पहले मेट्रो दौड़ा ही दी जायेगी...

पहले सुनते थे दिसंबर में अमौसी एयरपोर्ट से चारबाग रेलवे स्टेशन तक मेट्रो दिसंबर से चलाई जायेगी...लेकिन दो दिन पहले खबर थी कि दिसंबर से ट्रायल शुरू होंगे ...यात्री फरवरी २०१७ से इन में यात्रा कर सकेंगे।


अभी अमौसी एयरपोर्ट से मवैया तक ही मेट्रो दौड़ेगी....मवैया से चारबाग स्टेशन की दूरी तो चाहे एक डेढ़ किलोमीटर ही होगी ..लेकिन कुछ टेक्नीकल मुश्किलों की वजह से यह काम कुछ महीनों के लिए लटक जायेगा।


आज मैंने मवैया में ये तस्वीरें खींचीं ...यह मुश्किल एरिया है मेट्रो के काम के लिए ..ट्रैफिक तो यहां पर काफी होता ही है ..यहां एक रेलवे ब्रिज भी है ...जिस के ऊपर से यह मेट्रो को चलाया जायेगा...


मैं भी ज्यादा तकनीकी डिटेल्स तो जानता नहीं हूं ...बस जो देखा सुना है ..वही शेयर कर रहा हूं ...ये तस्वीरें ही बहुत कुछ बोलती हैं...



हां, एक बात पिछले कुछ दिनों से ध्यान में यह आ रही है कि मैट्रो रेल का निर्माण जिन जिन इलाकों में चल रहा है ...वहां पर मेट्रो ने अपने ट्रैफिक मार्शल तैनात किये हुए हैं...जो पूरी तन्मयता से अपना काम करते हैं ...absolutely no trespassing ....अकसर मेट्रो रेल का सड़क ट्रैफिक का शानदार नियंत्रण देख कर मुझे यही लगता है कि इतना अच्छे से तो ट्रैफिक तब भी कंट्रोल नहीं हो पाता था जब मैट्रो रेल का काम नहीं चल रहा था...इन की सारी वर्क-फोर्स अनुशासन में रहती है, प्लानिंग बहुत बढ़िया होती है ...इसलिए लोगों को कम से कम दिक्कत होती है ...थोड़ी बहुत तो अब तकलीफ़ होगी ही अगर मेट्रो का मजा लेना है ....


वैसे मैंने तो देखा है सब से ज्यादा शिकायत भी इस समय बड़ी गाड़ियों में चलने वालों को ही है ...वे लोग ही हर समय परेशानी सुनाते रहते हैं कि बस इत्ती सी दूरी तय करने में हालत बिगड़ गई ...इतना समय लग गया... शायद इन लोगों में ही सहनशीलता की सब से ज्यादा कमी दिखती है ...

कईं रास्ते जो वन-वे थे ..वहां भी अब बीच में बडे़ बड़े कुछ ब्लाक्स जैसे रख के और उन्हें रस्सियों से जोड़ कर आने और जाने वाले ट्रैफिक को सुव्यवस्थित कर दिया गया है ...

जितनी तारीफ़ की जाए मेट्रो रेल के अनुशासन की ....इन के प्रशासन की...उतनी ही कम है! इस पोस्ट में शेयर की गई सभी तस्वीरें आज सुबह की मवैया क्षेत्र की है ं...

कल मुझे एक सुंदर गीत सुनने को मिला ...आप से शेयर कर रहा हूं...

खुशबू जैसे लोग मिले अफसाने में ...एक पुराना खत खोला अंजाने में ...

शनिवार, 13 अगस्त 2016

जैसी करो संगत ..वैसी चढ़े रंगत

इस तरह की बातें हम लोग बचपन से सुनते आ रहे हैं ..है कि नहीं? स्कूल की किताबों में भी एक सड़े हुए सेब से दूसरे सभी सेब खराब करने वाली कहानी ...ये सब बातें ही समझाया करती थीं।

बचपन से ही हिंदी फिल्में हमारे दिलो-दिमाग में छाई हुई हैं ...वहां भी यही दर्शाया जाता है कि परवरिश जिस तरह की होगी..हम वैसे ही बन जाते हैं...संस्कार कह लें, संगत कह लें या परिवेश कह लीजिए..बात एक ही है ..

अपनी ड्यूटी की वजह से बहुत से लोगों से मिलना होता है ...

एक महिला मरीज आई थीं कल ...५०-५५ के करीब की उम्र होगी..विधवा हैं...बिहार के मुंगेर जिले की मूलतः रहने वाली हैं...उस के बात करने का सलीका, उस की वेशभूषा से मुझे ऐसा लगता था जैसे वह टीचर हैं या अच्छी पढ़ी लिखी हैं...

आज मैंने पूछ ही लिया कि आप की शिक्षा कहां तक हुई है?

उस का जवाब सुन कर मैं हैरान रह गया...उसने बताया कि वह तो कभी स्कूल ही नहीं गईं...बिल्कुल छोटेपन में मां चल बसीं...इसलिए स्कूल जाने का उपाय हो ही नहीं पाया...

मैं इतना तो ज़रूर से कहा कि आप लगती तो खूब पढ़ी लिखी हैं...

उसने बताया कि उस के पिता रेलवे में थे..शादी से पहले रेलवे कालोनी में रहे, सब पढ़े-लिखे लोगों के साथ ही बैठना-उठना होता था..फिर शादी हो गई ..पति फौज में थे, उन के साथ नौकरी में सारा देश घूम लिया...तीन तीन साल तक बहुत सी जगहों पर रहे..बंगलौर, श्रीलंका का बार्डर, पंजाब......उस महिला ने बहुत से नाम गिना दिए।

आर्मी की नौकरी के दौरान भी सभी पढ़े-लिखे लोगों के साथ उठना-बैठना होता ही है ...बस, उन सभी लोगों से ही सीखा जो सीखा...

मैं और मेरा सहायक उस महिला की ये बातें सुन कर बहुत हैरान भी हो रहे थे....

एक बात तो है कि हम लोग जिस तरह के लोगों के साथ उठते बैठते हैं उन के जैसे ही हो जाते हैं...स्कूल कालेज के ज़माने में देखें तो जिन बच्चों का उठना बैठना जैसे बच्चों के साथ होता वे भी बिल्कुल वैसे ही बन जाते हैं ...पढ़ने लिखने वालों के साथ लगे रहने से बच्चे पढ़ाई में चमक जाते हैं...नावल, अश्लील साहित्य देखने-पढ़ने वालों का अपना एक ग्रुप बन जाता है ...और परिणाम भी उस के अनुसार ही आते हैं...

सत्संग की बातें बिल्कुल सही होती हैं कि सब एक जैसे हैं ...लोगों में किसी तरह का कोई भाव नहीं होना चाहिए....वह बात बिल्कुल ठीक है ..लेकिन जैसी शोहबत होगी वह अपना रंग छोड़ देती है ...

कईं उच्च घरानों के नौकरों-नौकरानियों के तेवर देखते ही बनते हैं....उन का रहन सहन ..बीच बीच में अंग्रेेज़ी झाड़ देना...हम अपने रहन-सहन-बोलवाणी को जाने-अनजाने बदलने लगते हैं जिस संगत के प्रभाव में हम होते हैं...

सत्संग  में एक बात समझाया करते हैं कि आप कितना भी बच कर चलिए कोयले की खान से बाहर निकलने तक कहीं न कहीं कालिख पुत ही जायेगी और इत्र की फैक्टरी में हो कर आइए...चाहे आप इत्र न भी छिड़किए...महक आ ही जाएगी...मैं इस बात से पूर्णतयः सहमत हूं....

हमारी ज़िंदगी में हमारी संगत की बहुत भूमिका है ....कहने वाले तो यहां तक कह देते हैं कि Better alone than in a bad company!

और एक बात, पढ़ाई ठीक है अपनी जगह है...पढ़ाई होनी चाहिए...लेेकिन पढ़ाई के साथ अगर गुड़ाई नहीं हुई तो सब बेकार...जैसे कि पहले के जमाने की हमारी नानीयां-दादीयां पढ़ी कम और गुढ़ी कहीं ज़्यादा हुआ करती थीं....रिश्तों की समझ, रिश्तों को निभाने का फन.....और भी बहुत कुछ ...उन का मानवीय पहलू आज की अपेक्षा कहीं ज़्यादा मजबूत हुआ करता था ...

बस आज उस महिला को मिलने के बाद पढ़ाई लिखाई औस संगत सोहबत पर ये विचार कलमबद्ध करने का मन हुआ, सो कर लिया...

इस पोस्ट को लिखते समय बार बार परवरिश फिल्म का वह गीत याद आ रहा है ...खुली नज़र क्या खेल दिखेगा दुनिया का, बंद आंख से देख तमाशा दुनिया का ...पता नहीं इस गीत का इस पोस्ट से कोई संबंध है भी कि नहीं! .. लेकिन फिर भी यह गीत इस फिल्म की तरह दिलकश तो है ही ....लीजिए आप भी सुनिए...