गुरुवार, 5 जून 2008

जब भी मुझे यह कमीशन का चांटा लगता है...

यह लेख नहीं है ....मेरी पर्सनल डायरी का 25 अगस्त 2006 को लिखा गया एक पन्ना है...जिसे मैं बिल्कुल बदले बिना यहां डाल रहा हूं.....आशा है आप स्वीकार करेंगे !!

यह जो अखबार वाले अपने लेखकों को उनके लेखों एवं फीचरों के लिये मानदेय भेजते हैं, मुझे यह सब बहुत हास्यास्पद सा लगता है। लेखकों की तकदीर पर बस करूणा आती है। अब मैं अपना ही किस्सा ब्यां करता हूं....मैंने शायद जनवरी 2006 में एक अखबार में मसूड़ों से खून आने के संबंध में एक लेख लिख भेजा था। लगभग पांच-छः महीने बाद उन्होंने मुझे 200 रूपये का एक चैक भेज दिया था( आउट-स्टेशन चैक)...पानीपत से जारी किया हुया।
मेरे पास भी वह चैक एक-डेढ़ महीने तक तो ज्यों का त्यों पड़ा रहा। फिर मैंने कुछ दिन पहले –लगभग 10-15 दिन पहले- अपने जगाधरी के खाते में जमा करवा दिया।

आज जब मैं पास-बुक में एन्ट्री करवाने के लिये गया तो बाबू कह रहा था कि आप का चैक भी पास हो गया है। मैंने कहा...ठीक है। जब मैंने पास-बुक में प्रविष्टियां देखीं तो 60रूपये( साठ रूपये) उन 200रूपयों में से कटे हुये थे। मैंने बाबू से पूछा कि यह 60 रूपये का तमाचा किस लिये ? ….तो वह कहने लगा कि 25 रूपये तो डाक-खर्च और बाकी बैंक की कमीशन !! मैं उस से पूछना चाह रहा था कि देख लो, भाई, कोई और भी कटौती रह गई हो तो हसरत पूरी कर डालो।
गुस्सा तो मुझे बहुत आया और बहुत अजीब सा भी लगा ...क्या,यार, लेखकों की यह हालत !! इन कमीशनों के चक्कर में उन के फाके करवाओगे क्या ? उन से ही काहे की ये....... ............( खेद है, ये शब्द मैं यहां लिखने में असमर्थ हूं क्योंकि उन्हें सैंसर करना पड़ रहा है....कभी मौका मिलेगा तो व्यक्तिगत रूप में इस शब्द का रहस्य उजागर कर दिया जायेगा) .....भई , किसी बंदे को आपने 200 रूपये भेजे हैं तो उस के हाथ में लगे केवल 140 रूपये।

अखबार वाले इस राशि का ड्राफ्ट नहीं भेज रहे क्योंकि शायद उन्हे यह झँझट लग रहा होगा, और शायद इसलिये भी नहीं कि ड्राफ्ट बनाने में पैसे लगते हैं...लेकिन आप एक काम तो कर ही सकते हैं कि उसे मनीआर्डर तो करवा ही सकते हैं । और मनीआर्डर का खर्चा आप उस की राशि से घटा लें, जैसे कि अगर आपने किसी मेरे जैसे स्ट्रगलर लेखक को 200 रूपये भेजने हैं , जिस के मनीआर्डर पर दस रूपये लगने हैं तो आप उसे 190 रूपये मनीआर्डर करवा कर छुट्टी करें, और क्या और ये पैसे उसे अगले दो-तीन दिन में पहुंच भी जायेंगे !! आउटस्टेशन चैक के भुगतान के लिये इतने दिन भी तो लग जाते हैं।

कोई पता नहीं किसी लेखक के द्वारा उस राशि की कितनी शिद्दत से इंतज़ार हो रही होगी !!.......लेकिन बात कहीं ना कहीं संवेदना की है....मानवीय मूल्यों की है...अब अखबार वालों को यह सब कौन समझाए ? कौन डाले बिल्ली के गले में घंटी !!.......इसलिये सब कुछ जस का तस चलता आ रहा है......खूब चल रहा है और माशा-अल्ला आने वाले समय में भी बखूबी चलता ही रहेगा।