गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

टूर रोमांचक तो था बेशक..लेकिन गुलमोहर को नज़र लग गई..

परसों भी सुबह जब मैं अपने सुबह के साईकिल टूर पर निकला तो बाहर मौसम अच्छा खुशगवार बना हुआ था..ठंडी हवाएं चल रही थीं..बस बीच बीच मेें कुछ बूंदे टपक पड़ती थीं..अच्छा लग रहा था, बस लोग टहलने कम निकले हुए थे, यहीं कोई जॉगिंग करता नज़र आ रहा था। 


मैं अभी पांच सात मिनट ही चला था कि इस भव्य जलाशय जैसे दिखने वाले स्थान पर नज़र पड़ गई। मोटरकार-स्कूटर पर घूमने का सब से बड़ा नुकसान कि आप जगहों को टटोल नहीं सकते, उन की तलाशी नहीं ले सकते...आज मैंने अपनी साईकिल रोकी ..और इत्मीनान से इसे देखा...एक राहगीर से पूछा कि यह क्या है, उसने कहा कि यहां पर लोग तैरने आते थे, अब सूख गया है। बात हज़्म नहीं हुई...मुझे यह स्वीमिंग पूल तो किसी नज़र से नहीं लग रहा। कोई बात नहीं, फिर कभी पता करेंगे इस के बारे में...लेिकन इतना तो पता लग ही गया कि किस तरह से सरकार की सुविधाएं बिना रख-रखाब के ऐसे ही खत्म हो जाया करती हैं। 



आगे पहुंचा तो यह अक्क का जंगली पौधा देखा...और इस के फूलों के दर्शन बहुत समय बाद हो गए....अच्छा लगा..बचपन में देखा करते थे ये पौधे हर जगह दिख जाया करते थे..और अकसर शरीर में कहीं दर्द होने पर इस के पत्तों को बांध दिया जाता था.....जितने मासूम पुराने लोग उतने ही मासूम इलाज-टोटके......अब जितने शातिर लोग उतने ही ....


आगे चलते चलते देखा कि कैसे एक पॉश कालोनी में भी लोग अपने अपने घरों की साफ़-सफ़ाई के लिए ही सचेत रहते हैं...बाहर गया क्या हमने ठेका ले रखा है! यह स्थान मिलेनियम स्कूल के पास है और यहां पर इस तरह से जंगली झाड़ियों की वजह से गंदगी फैली हुई दिखी। 

इस तस्वीर के लेते ही बरसात शुरू हो गई और देखते ही देखते मौसम के तेवर ऐसे बदले कि अगले दो तीन मिनट में ही सुबह सात बजे ऐसा अंधेरा छा गया जैसा शायद ही पहले कभी इतनी सुबह देखा होगा, मुझे याद नहीं। और तेज़ हवाओं के साथ बरसात शुरू ..मूसलाधार बारिश...साईकिल चलाना मुश्किल हो रहा था...लेकिन फिर भी रोमांचक लग रहा था तो साईकिल चलती रही ....





पांच सात मिनट साईकिल चलाते चलाते लगा कि अब रूक जाना ही ठीक है ...मौसम के मिजाज कुछ बिल्कुल ही अलग से नज़र आए। रोमांचक तो लग रहा था..दो चिंताएं भी थीं..एक तो जेब में प्लास्टिक की पन्नी में जो मोबाईल डाला हुआ था, उस की चिंता थी ..इतनी बारिश में पन्नी क्या कर लेगी...और दूसरा पतलून काली पहनी थी..सुनसान रास्ता .. कोई रूकने का ठिकाना दिख नहीं रहा था...इसलिए बिजली गिरने का भी डर लग रहा था...सुन रखा है काले कपड़ों पर ज़्यादा गिरती है। एक जगह एक मोटरसाईकिल वाला किसी घर के बाहर रूका हुआ था...शेड के नीचे... मैं भी वहां खड़ा हो गया..वह कह रहा था कि उससे मोटरसाईकिल नहीं चल रहा था। दो चार मिनट के बाद मैं वहां से चल दिया...तब तक पानी गिरने की रफ्तार कुछ कम हो चुकी थी

इस भवन के लोहे के गेट को गिरे हुए देख कर यह आभास हो सकता है कि पिछले दस-पंद्रह मिनट के दौरान कितने ज़ोर का तूफ़ान था..लेिकन यह क्या, मेरी खींची फोटो धुंधली...मुझे संदेह तो हो गया कि कैमरे मैं पानी चला गया होगा...लेिकन मैं जिद्दी फिर भी फोटो खींचने से बाज थोड़े ही न आ गया। इस के बाद की सभी फोटो धुंधली हैं, मैंने इन्हें यहां शेयर करने के लिए एन्हांस किया है। 

हां, तब तक बारिश बंद हो चुकी थी..लेकिन मैं रास्ता भूल चुका था। जिस रास्ते पर मैं चल रहा था, वहां बहुत आगे निकलने के बाद भी जब मेरा कोई जाना पहचाना रास्ता नहीं दिखा तो मैंने साथ चले रहे किसी प्राईव्हेट सिक्योरिटी गार्ड़ों से रास्ता पूछा...उन्होंने बताया कि आप गलत रास्ते पर आ गये हैं...अब तो आप कानपुर रोड पर ही निकलेंगे..दो तीन किलोमीटर के बाद।

कोई बात नहीं...मैं चलता चलता बाहर कानपुर रोड़ पर निकला.....लखनऊ के अमौशी एयरपोर्ट के पास... वहां पर मेट्रो का काम बड़े ज़ोरों शोरों से चल रहा है...जैसे ही मैं उस रोड़ पर पहुंचा मुझे थोड़ा अंदाज़ा हुआ कि दस पंद्रह मिनट के तूफ़ान ने क्या कहर बरपाया है....जगह जगह पेड़ टूटे हुए थे....लेिकन मेट्रो वालों का कमाल देखिए कि चंद ही मिनटों में उन की क्रेनें इन टूटे हुए पेड़ों को उस रोड़ से हटाने के काम में भी लग चुकी थीं। इस तस्वीर में भी एक क्रेन यही काम कर रही है।

जैसे ही मैं अंदर एक कॉलोनी में मुड़ा तो वही सदियों पुराना पचड़ा...किन्नरों से झांय-झांय। ये सब वर पक्ष वाले ही लग रहे थे...पास ही एक सजी हुई कार में इन्हें दुल्हन को लेकर उड़ जाने की जल्दी थी..लेिकन पहले किन्नर टैक्स तो भरो ....किन्नर इन्हें यहां से निकलने दें तो ही ये चलें....मैंने देखा हमेशा की तरह इस भीड़ में सिर्फ़ एक ही बंदा हाल-बेहाल हो रहा था..(शायद वह वर का बापू ही रहा हो!) ...बाकी देखिए निकम्मे रिश्तेदार किस तरह से जेब में हाथ डाल कर मुफ्त के मनोरंजन का आनंद उठा रहे हैं। बहरहाल, मैंने तो यह तस्वीर ली और आगे निकल गया।

लेकिन आगे आकर मैंने जगह जगह पर इतने पेड़ गिरे हुए देखे कि मेरा मन बहुत खराब हुआ...और विशेषकर गुलमोहर के पेड़ ही गिरे हुए थे। मुझे ऐसे लगा जैसे गुलमोहर के पेड़ों को मेरी ही नज़र लग गई हो। गुलमोहर के हज़ारों रंग बिरंगे फूल ज़मीन पर बिखरे पड़े देख कर बुरा लगा। 





मैं अभी सोच ही रहा था कि मेट्रो रेल की क्रेन तो मेन रोड पर तुरंत हरकत में आ गई...और उस ने साफ सफाई शुरू कर दी...लेकिन इन  कालोनी की सड़कों की सफाई तो तभी होगी जब सरकारी तंत्र तीन चार घंटे के बाद पांच बार चाय पी कर उठेगा। लेकिन मैं गलत था...यहां पर भी सफाई हो रही थी ....आस पास रहने वाले लोग लकड़ियां इक्ट्ठी करने के लिए जुटने लगे थे...जहां पेड़ों की बड़ी बड़ी टहनियां गिरी हुई थीं, वहां पर लोग कुल्हाडी एवं गंडासे के साथ आ चुके थे...और अपने काम में मशगूल थे....एक दो जगह तो इस लकड़ी की मलकियत को लेकर कुछ कहासुनी भी हो रही थी। मैं एक पेड़ को देख रहा था कि साईकिल पर एक लड़का कुल्हाड़ी लेकर वहां आया और मुड़ने लगा... उसे लगा होगा यह कोई सरकारी बंदा लग रहा है शायद....मैंने उसे आवाज़ दी..मैं तो भई देख रहा हूं....तुम करो जो काम करने आए हो। कुछ लोग तो रिक्शे और ठेले लेकर पहुंच चुके थे। 



आज की साईकिल यात्रा रोमांचक तो थी ...मैं इसे ताउम्र नहीं भूलूंगा...लेिकन पेड़ों की तबाही, फूलों की बरबादी के मंजर भी न भूलेंगे...जब मैं अपनी सोसायटी में दाखिल हुआ तो वहां गेट के अंदर आने पर ऐसे लगा जैसे कुछ हुआ ही न हो... आप इस तस्वीर में देखिए...मैं यही सोचने लगा कि जो लोग इस समय घरों से बाहर आएंगे उन्हें तो यही लगेगा जैसे कि कुछ खास हुआ ही नहीं...या फिर जो मीडिया परोस देगा। 

लेकिन गेट के आगे आया तो देखा कि हमारे घर के बाहर लगा एक छायादार पेड़ भी इस तूफान की भेंट चढ़ गया था....यह भी इस कॉलोनी में हम जितना ही पुराना था....हम ने इसे धीरे धीरे बढ़ता देखा...एक बार आंधी में हिल गया तो इसे एक बड़े से बांस के साथ सहारा भी दिय़े रखा कुछ महीने तक......लेकिन आज यह भी छोड़ गया। बहुत बुरा लगा।

सड़क पर गिरे हुए गुलमोहर के फूल जाते जाते हमारे यहां फूलदान में पहुंच कर भी चंद घंटों के लिए खुशियां दे गये....

यह पोस्ट मेरी सब से महंगी पोस्ट लगी.....बेटे ने खूब कहा कि यार, कितनी बार आप को कहा है कि बारिश में यह फोन मत लेकर जाया करो, पर आप हो कि......फोन का कैमरा चलना बंद हो चुका था...उसने तुरंत नेट से इस का इलाज ढूंढा ...और इसे अगले चौबीस घंटों के िलए चावल के डिब्बे रूपी आईसीयू के सुपुर्द कर दिया.....थैंक ग़ॉड कैमरा तो चलने लगा है, लेकिन अभी इस का एक बटन ठीक से काम नहीं कर रहा...देखते हैं, फिर चावल के डिब्बे में दबा कर देखते हैं...

पोस्ट लिख ली है...लेकिन ध्यान यही आ रहा है ......तीन चार दिन पहले आने वाले भूकंप का ...फिर इस तरह से पेड़ों की बरबादी दिख गई..सुंदर फूल किस तरह से बिना किसी भूल के पैरों तले मसले गये.......मुझे बार बार पिछले कुछ दिनों से वक्त फिल्म का वह गीत ध्यान में आ रहा है.......आदमी को चाहिए, वक्त से डर के रहे......वक्त की हर शै गुलाम! सब कुछ जो हम देख रहे हैं इस परमसत्ता ईश्वर की अनुकंपा से ही घट रहा है......यह जब चाहे इस संसार रूपी खेल को समेट ले...

सोमवार, 27 अप्रैल 2015

तस्वीरों को ही बोलने देते हैं...

आज मैं प्रातःकाल की साईकिल यात्रा के लिए पुराने लखनऊ की तरफ़ निकल गया...कुछ ज्‍यादा अच्छा महसूस नहीं किया...कारण तो आप को तस्वीरें ही ब्यां कर देंगी...मुझे यही लगा वापिस आते आते कि प्रातःकाल का समय तो खुले वातावरण में, हरे-भरे क्षेत्र में ही बिताया जाए तो बढ़िया लगता है। शहर में तो सुबह सुबह ही....

 ये दो युवक जा रहे थे ..एक जगह पर फौजियों का सप्लाई डिपो था..उधर मुड़ने लगे तो मैंने सोचा वहां जाकर ये लोग मच्छी-वच्छी सप्लाई करते होंगे..लेकिन नहीं उधर नहीं गए। मैंने पूछा तो इन्होंने बताया कि तोरई लेकर केसरबाग सब्जी मंडी जा रहे हैं...वहां पर हमें ८० से १०० रूपये पांच किलो के हिसाब से मिल जाते हैं।

चलिए यह भी अच्छा है लखनऊ को भी दो चार दिन में एक सांध्य टाइम्स मिल जायेगा।

घी बदलने पर एक बात याद आ गई..एक बार हम लोगों ने एक हवन का आयोजन करवाया घर में ..मुझे बड़ी हैरानगी हुई कि उस संस्था वालों ने इसी ब्रंॉड का शुद्ध घी लाने को कहा ...अग्नि में डालने के लिए। हवन तो बढ़िया हो गया लेकिन बहुत से  प्रश्न मन ही में रह गए उस दिन।

सरकार की भी सिरदर्दीयां कम नहीं होती, चारबाग रेलवे स्टेशन के पास यह पोस्टर दिखा...राहगीर इससे लाभान्वित होते होंगे।

चारबाग स्टेशन के बाहर मैंने इस युवक को इस जगह पर पेन्ट ब्रुश से कुछ लगाते देखा तो सोचा कि यह यहां पर ऐसा क्यों कर रहा है, पलट कर पीछे देखा तो यह गोंद से किसी विज्ञापन को चिपकाने में लगा हुआ था।

यह है जी चारबाग रेलवे स्टेशन का नज़ारा। बाहर आने पर भी नज़ारा दिल्ली बंबई रेलवे स्टेशनों जैसा ही है।

चारबाग स्टेशन से मैं नाका हिंडोला की तरफ़ मुड़ा तो इस थियेटर की तरफ ध्यान चला गया....पोस्टर की टांगों के स्टाईल से आप समझ ही गये होंगे कि यहां कौन सी फिल्में लगा करती हैं।

मैं हरे भरे पेड़ों का दीवाना.....मुझे सुबह सुबह इस तरह के नज़ारे देख कर अच्छा नहीं लगा।

मैंने सोचा आज अपने ब्लाग में यह भी दर्ज कर दूं कि २०१५ के अप्रैल महीने में लखनऊ शहर में पानी पीने वाले पाउच दो दो रूपये में बिकते हैं।

आगे कुछ तस्वीरें हैं जिन के बारे में कुछ लिखने ज़रूरी नहीं समझता...वे स्वयं बोल रही हैं।









बाहर से आकर काम करने वाले श्रमिकों की ज़िंदगी बड़ी कठिन है यहां लखनऊ में भी ... लेकिन वे भी क्या करें, पापी पेट का सवाल है .....उन का ही नहीं, उन पर आश्रित पूरे पूरे कुनबे का भी! जैसे तैसे गुजर बसर करते रहते हैं। इन के भी अच्छे दिन आएं तो !!





हां, एक बात और...आज की यात्रा के दौरान एक जगह देखा कि किसी महिला के रोने की आवाज़ आ रही थीं...ऐसा लगा जैसे कोई उसे पीट रहा हो ...उस समय ध्यान आया कि लोग बाग बस टीवी में वह घंटी बजाओ वाला विज्ञापन ही देख लेते हैं.....ऐसी विपदा की घड़ी में कोई घंटी बजाना तो दूर,  उधर कोई देखता तक नहीं...

मैं वहां चंद लम्हों के लिए रूका...मैंने देखा एक पक्षाघात (पेरेलाइसिस) से ग्रस्त (जिस का बायां हाथ और पांव ठीक से नहीं चल रहा था) उसने दाएं हाथ में एक लकड़ी उठाई हुई थी......और अंदर से ज़ोर ज़ोर से रोने की आवाज़ आ रही थी...मुझे यही लगा कि यह हरामी का पिल्ला अपनी जोरू पर अपनी मर्दानगी दिखाने के बाद थक कर बाहर आ गया है .....आज एक बार फिर यही लगा कि ईश्वर जो करता है..उस में कुछ गहरा राज़ तो होता ही है.....अगर यह हरामी पेरेलाइसिस होते हुए भी बीवी को पीट सकता है तो अगर यह नार्मल होता तो उस की जान ही निकाल देता.....बाहर खटिया पर औंधी पड़ी एक बच्ची दूध की बोतल मुंह में लगाए अंदर कमरे की तरफ़ टकटकी लगाए ताके जा रही  थी......बिल्कुल छोटी ..शायद एक साल की भी नहीं होगी....उस की बेटी होगी।

आज का प्रातःकाल टूर बस ऐसा ही रहा ....कोई बात नहीं अनुभव में इज़ाफ़ा हुआ कि सुबह के समय शहर की तरफ़ नहीं गांव की तरफ़ निकल जाना ठीक है। आप का क्या ख्याल है, लिखिएगा।

आज की यह पोस्ट इन मेहनतकश भाईयों के नाम.....हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे ..इक बाग, इक खेत नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे.......बिल्कुल ठीक बात है, युसूफ भाई भी तो यही कह रहे हैं..

रविवार, 26 अप्रैल 2015

मसूड़े कईं बार देखने में भयानक रोग से ग्रस्त दिखते हैं..

यह औरत ६०-६५ साल की है..एक ही बात रट रही थी कि मैंने अपने दांतों की कहीं से सफाई करवाई थी तो बस उस के बाद यह मैल फिर से जमने लगी। ऐसी अनेकों भ्रांतियां लोगों में हैं ...उन्हें लगता है कि दांतों की सफ़ाई किसी दंत चिकित्सक ने कर के जैसे कोई अत्याचार कर दिया हो, हो सकता है कि अगर किसी झोलाछाप ने ऐसा किया हो, उस ने कोई भयानक लफड़ा कर दिया हो, बिल्कुल हो सकता है.....लेकिन प्रशिक्षित बीडीएस डिग्री धारक दंत चिकित्सक अपने काम में पारंगत होते हैं.

बहुत बार तो लोग इस तरह के रोगों का इलाज इन भ्रांतियों की वजह से करवाते ही नहीं हैं।

इस तस्वीर में आप देख रहे हैं कि इस के दांतों की मैल (टारटर) इतनी ज़्यादा है कि उन्होंने ने दांतों को ही परे धकेल दिया है...अदंर की तरफ़ भी देखिए कितना टारटर जमा हुआ है। ये दोनों दांत अब हिलने भी लगे हैं।

यह महिला अभी भी न आती..लेकिन इसे इसलिए आना पड़ा क्योंकि दांतों पर जमे हुए इस पत्थर की वजह से इस के मुंह में पत्थर की आस पास वाली जगह में ज़ख्म होने लगे ..पिछले बहुत दिनों से परेशान थी...यह डर रही थी कि कहीं कोई ऐसी वैसी बीमारी तो नहीं हो गई...लेकिन जैसे ही इस की अगले हिस्से की स्केलिंग करी है ...तो इसे तुरंत आराम महसूस हुआ...बिना किसी विशेष दवा के यह मसूड़ा वाला ज़ख्म अपने आप दो चार दिन में भर जायेगा।


उस के बाद इस का पूरा इलाज किया जायेगा...दांत तो दोनों अपनी जगह से हिल ही चुके हैं..टेढ़े मेढे हो गये हैं, देखने में भी ठीक नहीं लग रहे...अगर महिला की सहमति होगी तो इन्हें तो निकालना ही पड़ेगा। बहुत से लोग इस के लिए सहमत नहीं होते.....जैसी उन की इच्छा।

पोस्ट इसलिए लिखी है कि यह संदेश दिया जा सके कि मुंह का नियमित निरीक्षण करवाते रहना चाहिए... और इस तरह की गंदगी से मसूड़ों की बीमारी गंभीर रूप तो धारण कर ही लेती है, दांत भी हिलते लगते हैं, पायरिया बढ़ने पर कईं बार सारे दांत भी निकलवाने पड़ सकते हैं।

भ्रांतियों के मकड़जाल में न फंसने का एक ही उपाय है कि प्रशिक्षित दंत चिकित्सक से बात करें...वह ही आप की परेशानी का समाधान सुझा सकता है। 

गधे और घोड़े में तो भेद हो नहीं पाता!

एनबीटी का मैसेज भी आया था कि आज आप साईक्लिंग इवेंट के लिए गोमती नगर आएं...बस, ऐसे ही आज साईक्लिंग जाने की इच्छा ही नहीं हुई। वैसे भी इस तरह की हाई-फाई नौटंकियों से दूर ही रहना अच्छा लगता है।

अभी सोचा कि कल की साईकिल यात्रा का वृत्तांत तो लिखा ही नहीं, चलिए उसे ही आप से शेयर करते हैं। 

कल जब मैंने अपनी यात्रा शुरू की तो मेरी नज़र इस घोड़े पर पड़ गई....इस की सुस्ती देख कर लगा ही नहीं कि यह घोड़ा है, एक बार तो लगा कि गधा ही होगा। 

जब मैं एक गांव की तरफ़ निकल गया तो मुझे यह गधा दिख गया...आप को भी गधा लग रहा है न! 


अकसर कईं बार गधा और घोड़ा देख मैं पशोपेश में पड़ जाता हूं कि यार यह घोड़ा है, घोड़ी है या फिर खोता है (गधे का पंजाबी शब्द खोता). ..



कईं बार मैं थोड़ा बहुत कद-काठी से घोड़े- घोड़ी का अनुमान तो लगा लेता हूं ...और कईं बार.............हा हा हा हा हा (समझ गए!!) 

अब लगने लगा है कि जो कहावत नौकरीपेशा लोग अकसर दोहराते रहते हैं कि गधे और घोड़े को एक ही चाबुक से हांका जाता है, ठीक ही होगी.....जब हम जैसे घूमने-फिरने वाले लोगों को  ही घोड़े और गधे में अंतर करने के लिए इतनी मशक्कत करनी पड़ती है, तो फिर सरकारी तंत्र तो ठहरा सरकारी!


वैसे तो सेहत एक ऐसा मुद्दा है जिस पर शायद हमारा वश किसी सीमा तक ही होता है...यह किसी भी तरह से उपहास का कारण नहीं है लेकिन फिर भी मैंने पिछले रविवार को जब एक पुलिसकर्मी को कुछ बेबस अवस्था में देखा तो मुझे बहुत महसूस हुआ। यह सिपाही बीमार लग रहा था ..जिस तरह से लाठी की टेक लगा लगा कर चल रहा था और इस की पन्नी में लौकी का जूस भी इस की हालत ब्यां कर रहा था....इस की सेहत पर कोई और टिप्पणी नहीं। 

बस, उस वक्त यही ध्यान आ रहा था...कि सब के दिन एक समान नहीं रहते ...कभी कभी किसी निर्दोष पर ताबड़तोड़ लाठी भांजते हुए अगर पुलिसकर्मी यह याद कर लें कि कभी हमें भी लाठी का इस्तेमाल इस तरह से टेक लगाने के लिए भी करना पड़ सकता है, तो कानून और व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर इन के द्वारा किये जा रहे इंतज़ामों में भी मानवीय दृष्टिकोण शामिल हो ही जाएगा। ईश्वर इसे स्वस्थ करे .....और अपनी लाठी अपने "असली अंदाज़" में पकड़ पाए। 

हम लोग अकसर कभी कभी आकाश में उड़ते हुए हवा से बातें करने लगते हैं, कुछ लोगों को हिकारत भरी निगाहों से देखने की बहुत बड़ी भूल भी करते रहते हैं....लेकिन समय से डर कर रहना चाहिए....."वक्त" फिल्म ने हमें बहुत बरसों पहले चेता दिया था ...कल के भूपंक के झटकों ने एक बार फिर से याद दिला दी......हमारे फ्रेजाईल अस्तित्व पर .....प्रकृति जब चाहे चंद लम्हों में सब कुछ उल्टा-पुल्टा कर दे। 
 कल मुझे सूर्य महाराज के दर्शन इस प्रकार से हुए
कल मैंने अपनी यात्रा के दौरान इन स्कूल के बच्चों को देखा तो मेरा ध्यान हमारा आरक्षण पालिसी की तरफ गया....यह जो साईकिल चलाने वाला लड़का है, यह किसी दूर गांव से शहर पढ़ने जा रहा है। देश में सभी मां-बाप की संवेदनाएं एक सी होती हैं...हम लोग अपने बच्चों को उन की बस में बिठाने जाते हैं..और लौटने पर रिसीव करने के लिए भी खड़े होते हैं अकसर...लेकिन ये बच्चे अपने आप ही बहुत से संभ्रांत परिवारों से कहीं ज़्यादा सुसंस्कृत और लाइव-स्किल्स सीख जाते हैं...अपने आप ही चलते चलते......वैसे भी संभ्रांतम् स्कूलों के कारनामें हम आए दिन अखबारों में पढ़ते ही हैं...़

जिस रोड पर यह स्कूली छात्र साईकिल चला रहा था वहां पर साढ़े सात बजे के करीब ट्रकों और अन्य वाहनों का खूब आना जाना शुरू हो चुका था। 

और ये बच्चियां देखिए किस तरह से खुशी खुशी सरकार के सर्वशिक्षा अभियान को सफल करने में जुटी हुई हैं......मुझे इस तरह उमंग से स्कूल जाते बच्चों को देखना बहुत खुशी देता है। 

लेकिन इन बच्चों को देखते ही मेरे मन में देश की आरक्षण नीति के बारे में बहुत से विचार कौंदने लगते हैं। सरकारी नीति है, टिप्पणी करनी वैसे तो बनती नहीं, लेकिन फिर भी अब देखादेखी हमभी मन की बात कहना सीख रहे हैं। अकसर देखा है कि सरकारी आरक्षण का फायदा संभ्रांत लोग और उच्च पदों पर आसीन लोगों के बच्चे ही ले पाते हैं......यह बहुत बड़ा मुद्दा है .....सोचने की बात है कि कितने इस तरह के बच्चों को आरक्षण का फायदा मिल पाता है.....आप भी इस के बारे में सोचिए......मैंने तो देखा है अधिकारियों के बच्चे ही इस तरह के लाभ अधिकतर उठा पाते हैं....आरक्षण का मतलब तो यही है कि इस का लाभ पंक्ति के आखिर में खड़े इंसान तक भी पहुंचे.....एक बार किसी को आरक्षण का फायदा मिल गया....वह कोई अफसरी या नौकरी पा गया तो अब आरक्षण किसी दूसरे परिवार को उठाने के लिए इस्तेमाल हो तो बात है!...वरना सारी रेवडियां चंद परिवार ही खाते चले जाएं तो कैसा लगता है!  यह विचार तो अकसर आते रहते हैं...खाली पीली ख्याली पुलाव हैं, मैं जानता हूं...कुछ भी बदलने वाला भी नहीं, क्योंकि नियम में बदलाव कर पाने वाले स्तर के लोग क्या ऐसा बदलाव करना चाहेँगे!
प्रकृति की गोद में.....Far from the madding crowd!
यह धावक यह प्रेरणा देता दिख गया कि हर काम में लगन चाहिए
इमारतों का यह सीमेंट जैसे कलर बहुत बढ़िया लगता है..
भट्ठी वाली माई से जुड़ी मीठी यादें
कल गांव की इस तोरई की सब्जी खा कर तबीयत इन के जैसे ही हरी हो गई.
आप इस दबंग को भी देख लें.. (possibly inspired by Bollywood) 
हम लोगों ने जहां दबंगई दिखाऩी होती है हम अपने आप को सलमान खा समझ लेते हैं......ऐसा ही एक दबंग मैंने सड़क पर देखा जो झट से अपनी कार से उतरा और एक ट्रक ड्राईवर से कुछ इस तरह से पेश आने लगा......मुझे लगा कि उस ड्राईव की सीट पर बैठा कोई सवा सेर किस्म का होगा, जो यह शहरी फूले पेट वाला दबंग वापिस लौट आया। 
किसी भी भीमकाय घने छायादार पेड़ पर कब्जा करने के मामले में भी हम बहुत दबंग हैं..
किसी सिरफिरे दबंग का शिकार बनी बच्चों की प्यारी यह बिल्ली मौसी 
एक जगह और हमारी दबंगई चल जाती है... मासूम निर्दोष जानवरों पर ...अकसर सड़कों पर कुत्ते इस तरह की बेमौत मरते दिख जाते हैं....लेकिन कल पता नहीं यह बिल्ली किस दबंग की बदहवासी का शिकार बन गई....देख कर मन दुःखी हुआ। 

और क्या लिखें, बस अपने आप से इतना ही कह रहा हूं कि काश! हम बंदे बन जाएं....बस......हमारे सत्संग का भी यही मिशन है......कुछ भी बनो मुबारक है, पहले तुम इंसान बनो। 

हां, एक बात और...कल की साईकिल यात्रा के दौरान यह पोस्टर भी दिख गया जो लोगों को चेता रहा था कि राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप लोकतंत्र के लिए खतरा है। धन्यवाद....याद दिलाने के लिए। 

अभी अभी एफ एम पर हमारी पसंद का यह गीत बज रहा था तो बेटा कहता है कि पापा, इन्हें हमारी पसंद का कैसे पता चल जाता है...