एक अंकल जी को जानता हूं –अकसर सैर करते मुलाकात होती थी और रोज़ाना उन को मंदिर जाते भी मैं देखता था। अपने आप में मस्त रहते थे, बेहद डाउन-टू-अर्थ किस्म के इंसान हैं। स्वयं भी सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और बेटा भी बहुत ऊचे पद पर कार्यरत हैं लेकिन इन की विनम्रता से मैं बहुत प्रभावित हूं। अपने बच्चों को भी मैं अकसर उन की उदाहरण दे कर समझाया करता हूं कि बड़े लोगों की यही निशानी है कि वे किस तरह से हमेशा ज़मीन से जुड़े रहते हैं, व्यक्तिगत रूप से ऐसे लोग मेरी पहली पसंद हैं।
कुछ दिनों पहले पता चला कि अंकल जी की तबीयत ठीक नहीं है, उन्हें कुछ दिन से पेट में दर्द सा था। पता चला है कि पहले भी उन्हें पेट में दर्द हो जाया करता था। इस बार जब उन्हें दर्द हुआ तो फ़िज़िशियन ने जब चैक-अप किया होगा तो उसे कुछ संदेह सा हुआ---- अल्ट्रासाउंड समेत और भी सभी टैस्ट हुये तो पता चला कि उन्हें लिवर का एडवांसड किस्म का कैंसर है । मुझे यह जान कर बेहद दुःख हुआ है। एडवांसड इतना है कि यह दूसरे अंगों में भी फैल चुका है ( secondary lesions). आप्रेशन करवाने गये तो डाक्टरों ने उन की हालत देखते हुये और कैंसर की स्टेज को देखते हुये मना कर दिया है। कुछ दिन पहले जब मैं उन को मिलने गया था तो वह मुझे बेहद कमज़ोर लग रहे थे।
मैं यही सोच रहा था कि अब ऐसा एड्वांसड रोग कुछ दिनों में, हफ़्तों में या महीनों में तो हो नहीं गया --- अगर लोग अपनी नियमित जांच करवाते रहें तो कईं तकलीफ़े शुरूआती दौर में ही पकड़ी जा सकती हैं ताकि उन का समुचित इलाज किया जा सके।
मैं इन अंकल जी की बात नहीं कर रहा हूं क्योंकि इन के बारे में मुझे पता नहीं कि पहले भी कब कब इन का कौन सा चैक-अप हुआ और उस में क्या क्या इंक्लूय्ड किया गया लेकिन मैं वैसे ही अपनी एक बहुत ही आब्जर्वेशन शेयर कर रहा हूं कि आज कल जब मरीज़ कुछ कुछ डाक्टरों के पास जाते हैं तो शायद उन के चैकअप में कहीं न कहीं कमी रह ही जाती है। मैं न तो किसी विशेष डाक्टर की और न ही किसी विशेष हास्पीटल के बारे में यह कह रहा हूं लेकिन पता नहीं यह मेरी व्यक्तिगत राय सी बन चुकी है। इस के पीछे हम लोगों के मैडीकल कालेज के दिनों की यादें हैं जब वहां पर लगभग सभी मरीज़ों को काउच पर लिटा कर बड़े इत्मीनान से चैकअप किया जाता था, जिस में उस के पेट की पैल्पेशन भी सम्मिलित हुया करती थी जिस से फ़िजिशियन को पेट के अंदरूनी हिस्सों जैसे लिवर, स्पलीन, किडनी, गॉल-ब्लैडर ( जिगर, तिल्ली , गुर्दे , पित्ता आदि ) के बारे में काफ़ी जानकारी मिलती है।
यह मेरी व्यक्तिगत राय है लेकिन शायद आप ने भी किसी हास्पीटल में यह सब नोटिस किया ही होगा...... ब्लॉगिंग है अपनी राय तो लिख ही सकता हूं लेकिन मैं इस के बारे में अकसर सोचता हूं। शायद आजकल अस्पतालों की भीड़-भाड़ में कहीं न कहीं यह सब तो पीछे छूट चुका है। मुझे यह भी लगता है कि अगर कोई अन्य डाक्टर लोग इसे पढ़ेंगे तो वे यह भी कह सकते हैं कि नहीं, नहीं, डाक्टर यह तुम ठीक नहीं लिख रहे हो, सब जगह हर मरीज़ की पूरी शारीरिक जांच होती ही है। अगर कोई ऐसा कहने वाला है तो मैं उन से पहले ही से क्षमा मांग लेता हूं क्योंकि यह मेरी व्यक्तिगत राय हो सकती है----लेकिन है एकदम पक्की राय। लेकिन यही कारण है कि किसी अस्पताल में जा कर किसी हैल्थ चैकअप प्लान के अंतर्गत अपना सारा चैकअप करवाना और भी ज़्यादा ज़रूरी हो गया है।
कुछ दिनों से मेरे माताजी की टांग में बहुत दर्द है----वह हमारे नेटिव प्लेस कुछ दिनों के लिये गई हुई थीं। कह रही थीं कि घर के पास एक अस्पताल में हड्डी रोग विशेषज्ञ से परामर्श करने गईं ----बता रही थीं कि पांच रूपये की पर्ची बनती है , डाक्टर बिल्कुल फ्री बैठा हुआ था --- मां ने बताया कि न तो उस ने मेरी बात ढंग से सुनी, न ही कोई सवाल किया ---टांग को चैक करने की तो बात ही न थी ---- बस उस ने कुछ एक्सरे लिख दिये ।
---------यकीन मानिये मां की यह प्रतिक्रिया सुन कर उस हास्पीटल की पर्ची देखने की भी मेरी इच्छा नहीं हुई। और न ही मैंने पूछा कि उस ने कोई दवाई दी कि नहीं ----क्योंकि मैं जानता हूं कि अगर मरीज़ों को ऐसे ही देखा जाता है तो वह दवा भी क्या लेगी और वैसे भी वह दवाई तो वह पहले ही से ले ही रही होंगी। एक-दो दिन में किसी हड्डी रोग विशेषज्ञ को दिखवा लेंगे।
रविवार, 3 मई 2009
शरीर की नियमित जांच (हैल्थ चैकअप) का एक और फंडा
शरीर की नियमित जांच करवाते रहना चाहिये ---यह बहुत ही ज़रूरी है। मैं इस के बारे में बहुत सोचा करता था कि यह तो है ही कि इस से लगभग कोई भी शारीरिक तकलीफ़ जल्दी से जल्दी पकड़ में आ जाती है जिस से कि तुरंत उस का समाधान ढूंढने की तरफ़ अपना मन लगाया जा सकता है।
लेकिन मुझे कुछ दिन से इस तरह की नियमित शारीरिक जांच के एक और फंडे का ध्यान आ रहा है जिसे मैं आप के साथ साझा करना चाहता हू.
- पहली बात तो यह कि मैंने देखा है कि जिन लोगों की जीवनशैली में कुछ भी गड़बड़ सी होती है जैसे कि तंबाकू, सिगरेट, अल्कोहल, शारीरिक परिश्रम न करना, सब तरह का जंक-फूड खाना ----कुछ भी !! मैंने यह देखा है कि अगर कभी इन्हें यह कह दिया जाये कि यार, थोड़ा अपने खाने-पीने का ध्यान करो, सेहत की फ़िक्र करो, तो झट से जवाब मिलता है ------क्या डाक्टर साहब आप भी क्या सलाह दे रहे हैं ? बीसियों साल हो गये ये सब खाते पीते, जो नुकसान शरीर में हो सकता होगा वह तो हो ही गया होगा, अब ये सब छोड़ने का क्या फायदा। जितने दिन ज़िंदगी लिखी है उसे मज़े से जी लें, बस यही तमन्ना।
लेकिन मैंने यह भी बहुत नज़दीक से देखा है कि अगर ऐसा कहने वालों की कभी शारीरिक जांच की जाये और सब ठीक ठाक आता है तो इन लोगों को अपनी जीवन-शैली में ज़रूरी तबदीली करने का एक उत्साह सा मिलता है। यह देख कर बहतु अच्छा लगता है । यह समय होता है डाक्टर को अपनी बात उन के आगे रखने का ---कि देखो भई तुम ने इतने साल इस शरीर के साथ हर तरह की बदसलूकी की और तुम भाग्यशाली हो कि यह सब कुछ सहता रहा है लेकिन अब आप की उम्र का तकाज़ा यह कह रहा है कि यह सब इस से अब बर्दाश्त नहीं होगा। मैंने देखा है कि ये शब्द लोगों पर जादू सा असर करते हैं कि चलो, ठीक है , अब तक तो बचे हुये हैं, अब आगे से ही अपनी ज़िंदगी को पटड़ी पर ले आयें।
दूसरी बात है कि अगर किसी मरीज़ के शरीर में कुछ खराबी निकल भी आती है तो वह अच्छी तरह से समझाने के बाद अपनी सेहत के प्रति सचेत हो जाता है और जीवनशैली में उपर्युक्त बदलाव करने हेतु तुरंत राज़ी हो जाता है।
कहने का मतलब है कि नियमित शारीरिक जांच ( हैल्थ चैकअप) करवाने के फायदे ही फायदे हैं----- आज सुबह मुझे ध्यान आ रहा था कि पचास वर्ष की उम्र के बाद तो हम लोगों को हर वर्ष यह हैल्थ-चैकअप की सलाह देते हैं तो अपने सगे-संबंधी, दोस्त को उस की सालगिरह पर इस तरह के चैक-अप करवाने का तोहफ़ा देने वाला आइडिया कैसा है ?
आज रविवार है और मैं घर में ही टाइम पास कर रहा हूं तो यही सोच रहा हूं कि आज एक पोस्ट लिखूंगा कि हमें कौन कौन से टैस्ट एक साल के बाद करवा लेने चाहियें और उन का क्या महत्व है।
लेकिन मुझे कुछ दिन से इस तरह की नियमित शारीरिक जांच के एक और फंडे का ध्यान आ रहा है जिसे मैं आप के साथ साझा करना चाहता हू.
- पहली बात तो यह कि मैंने देखा है कि जिन लोगों की जीवनशैली में कुछ भी गड़बड़ सी होती है जैसे कि तंबाकू, सिगरेट, अल्कोहल, शारीरिक परिश्रम न करना, सब तरह का जंक-फूड खाना ----कुछ भी !! मैंने यह देखा है कि अगर कभी इन्हें यह कह दिया जाये कि यार, थोड़ा अपने खाने-पीने का ध्यान करो, सेहत की फ़िक्र करो, तो झट से जवाब मिलता है ------क्या डाक्टर साहब आप भी क्या सलाह दे रहे हैं ? बीसियों साल हो गये ये सब खाते पीते, जो नुकसान शरीर में हो सकता होगा वह तो हो ही गया होगा, अब ये सब छोड़ने का क्या फायदा। जितने दिन ज़िंदगी लिखी है उसे मज़े से जी लें, बस यही तमन्ना।
लेकिन मैंने यह भी बहुत नज़दीक से देखा है कि अगर ऐसा कहने वालों की कभी शारीरिक जांच की जाये और सब ठीक ठाक आता है तो इन लोगों को अपनी जीवन-शैली में ज़रूरी तबदीली करने का एक उत्साह सा मिलता है। यह देख कर बहतु अच्छा लगता है । यह समय होता है डाक्टर को अपनी बात उन के आगे रखने का ---कि देखो भई तुम ने इतने साल इस शरीर के साथ हर तरह की बदसलूकी की और तुम भाग्यशाली हो कि यह सब कुछ सहता रहा है लेकिन अब आप की उम्र का तकाज़ा यह कह रहा है कि यह सब इस से अब बर्दाश्त नहीं होगा। मैंने देखा है कि ये शब्द लोगों पर जादू सा असर करते हैं कि चलो, ठीक है , अब तक तो बचे हुये हैं, अब आगे से ही अपनी ज़िंदगी को पटड़ी पर ले आयें।
दूसरी बात है कि अगर किसी मरीज़ के शरीर में कुछ खराबी निकल भी आती है तो वह अच्छी तरह से समझाने के बाद अपनी सेहत के प्रति सचेत हो जाता है और जीवनशैली में उपर्युक्त बदलाव करने हेतु तुरंत राज़ी हो जाता है।
कहने का मतलब है कि नियमित शारीरिक जांच ( हैल्थ चैकअप) करवाने के फायदे ही फायदे हैं----- आज सुबह मुझे ध्यान आ रहा था कि पचास वर्ष की उम्र के बाद तो हम लोगों को हर वर्ष यह हैल्थ-चैकअप की सलाह देते हैं तो अपने सगे-संबंधी, दोस्त को उस की सालगिरह पर इस तरह के चैक-अप करवाने का तोहफ़ा देने वाला आइडिया कैसा है ?
आज रविवार है और मैं घर में ही टाइम पास कर रहा हूं तो यही सोच रहा हूं कि आज एक पोस्ट लिखूंगा कि हमें कौन कौन से टैस्ट एक साल के बाद करवा लेने चाहियें और उन का क्या महत्व है।
जब ढंग से की दो बातें ही इलाज होता है
मैं अकसर सोचता हूं कि उम्र के साथ बहुत सी तकलीफ़ें ऐसी आ जाती हैं ( चलिये, हम यहां कैंसर की बात नहीं करते) ---जिन तकलीफ़ों का कोई विशेष इलाज होता ही नहीं है।
हर डाक्टर के पास ऐसे ही कईं मरीज़ रोज़ाना आते हैं जिस के बारे में उसे बिलकुल अच्छी तरह से पता है कि इस अवस्था के बारे में कुछ नहीं हो सकता। लेकिन फिर भी मरीज़ का मन बहलाये रखना भी बहुत बड़ा काम है।
चलिये, एक उदाहरण लेते हैं ओसटियो-आर्थराइटिस की जो कि बड़ी उम्र में लोगों को ओसटियोपोरोसिस के साथ मिल कर बहुत ही ज़्यादा परेशान किये रहती है। चलने में दिक्कत, घुटने में बेहद दर्द ------अब ये तकलीफ़ें ज़्यादातर केसों में तो इसलिये होती हैं कि लोग विभिन्न कारणों की वजह से अपने शरीर की तरफ़ कईं कईं साल तक ध्यान दे ही नहीं पाते --- और बहुत से केसों में यह उम्र का तकाज़ा भी होता है।
मुझे बहुत साल पहले एक हड्डी रोग विशेषज्ञ का ध्यान आ रहा है जो कि बड़ी-बुजुर्ग महिलाओं को एक झटके में बड़े आवेग से कह दिया करता था कि अब उन के घुटनों में ग्रीस खत्म हो चुकी है, कुछ नहीं हो सकता अब इन हड्डियों का। इतना ब्लंट सा जवाब सुन कर अकसर मैंने देखा है कि लोगों का मन टूट जाता है।
इस का यह मतलब भी नहीं कि इन बुजुर्ग मरीज़ों को झूठी आशा दे कर, रोज़ाना अच्छी अच्छी बातों की मीठी गोलियां दे देकर उन से पैसे ही ऐंठते रहें ----या और नहीं तो वही एक्स-रे, वही सीटी स्कैन करवा कर उन की जेबें हल्की कर रहें।
जो मैं कहना चाह रहा हूं वह बस इतना ही है कि मरीज़ की स्थिति कैसी भी हो ----उस को हम ठीक ठीक बता तो दें लेकिन अगर आवेग में आकर बिना सोचे समझे बडे़ स्पष्टवादी बनते हुये सब कुछ एक ही बार में कह देते हैं तो मरीज़ का मन बहुत दुःखी होता है। दवाईयों ने तो जो काम करना होता है वह भी नहीं कर पाती ----क्योंकि मरीज़ का मन ठीक नहीं है। लेकिन अहम् बात यह है कि अगर मरीज़ का मन ठीक नहीं है, डाक्टर की बात से वह खफ़ा है तो उस के शरीर की जो प्राकृतिक मुरम्मत करने की क्षमता ( natural reparative capacity) है , कमबख्त वह भी मौके का फायदा उठा कर हड़ताल कर देती है।
बहुत सी तकलीफ़ें ऐसी हैं जिन का कोई सीधा समाधान है ही नहीं ----- बस, मरीज़ का अगर मन लगा रहे तो यही ठीक होता है। बाकी, आज लोग काफ़ी सचेत हैं उन्हें भी पता होता ही है कि फलां फलां तकलीफ़ें उम्र के साथ हो ही जाती हैं और ये सारी उम्र साथ ही चलेंगी लेकिन फिर भी वे डाक्टर के मुंह से कुछ भी कड़े निराशात्मक शब्द सुनना नहीं चाहते।
अगर ऐसे ओसटियोआर्थराइटिस के केस में डाक्टर इतना ही कह दे कि आप अपना थोड़ा वज़न कम करें , थोडा़ बहुत टहलना शुरू करें ---- खाने पीने में दूध-दही का ध्यान रखें ---- तो मरीज़ बड़े उत्साह के साथ इन बातों को अपने जीवन में उतारने की कोशिश करने लगता है। और साथ में अगर योग, प्राणायाम् के लिये भी प्रेरित कर दिया जाये तो क्या कहने !! ठीक है, वह दर्द के लिये हड्डियों पर लगाने वाली ट्यूब, कभी कभार या नियमित विशेषज्ञ की सलाह से कोई दर्द-निवारक गोली या वह गर्म पट्टी ----ये सब अपना काम तो करती ही हैं लेकिन सब से तगड़ा काम होता है डाक्टर के शब्दों का जिन्हें बहुत ही तोल-मोल के बेहद सुलझे ढंग से निकालना निहायत ही ज़रूरी है।
बस और क्या लिखूं ? ---पता नहीं इन बातों का सुबह सुबह कैसे ख्याल आ गया ---- कहना यही चाह रहा हूं कि डाक्टर और मरीज़ के बीच का वार्तालाप बेहद महत्वपूर्ण है ---इन में एक एक शब्द का चुनाव बहुत ही सोच समझ कर करेंगे तो ही मरीज़ों का मनोबल बढ़ेगा -------------वरना वे हमेशा बुझे बुझे से हर हफ्ते डाक्टर ही बदलते रहेंगे जब तक कि वह किसी आस पड़ोस के बहुत ही मृदुभाषी नीम हकीम के ही हत्थे नहीं चढ़ जायेंगे जो कि बातें तो शहद से भी मीठी करेगा लेकिन खिलायेगा उन को स्टीरॉयड जो कि इन मरीज़ों का शरीर दिन-ब-दिन खोखला कर देती हैं।
जब छोटे से तो बड़े-बुजुर्गों से सुनते थे, अपने हिंदी और संस्कृत के मास्टर जी अकसर कबीर जी, तुलसी दास के दोहे पढ़ाते हुये यह बताया करते थे कि वाणी कैसी हो, इस पर क्यों पूरा नियंत्रण हो ----------और आज इतना साल चिकित्सा क्षेत्र में बिताने के बाद यही सीखा है कि सही समय पर कहे गये संवेदना से भरे दो मीठे शब्द कईं बार इन दवाईयों से भी कईं गुणा ज़्यादा असर कर देते हैं। मेरी अभी तक की ज़िंदगी का यही सारांश है। आप का इस के बारे में क्या ख्याल है ?
हर डाक्टर के पास ऐसे ही कईं मरीज़ रोज़ाना आते हैं जिस के बारे में उसे बिलकुल अच्छी तरह से पता है कि इस अवस्था के बारे में कुछ नहीं हो सकता। लेकिन फिर भी मरीज़ का मन बहलाये रखना भी बहुत बड़ा काम है।
चलिये, एक उदाहरण लेते हैं ओसटियो-आर्थराइटिस की जो कि बड़ी उम्र में लोगों को ओसटियोपोरोसिस के साथ मिल कर बहुत ही ज़्यादा परेशान किये रहती है। चलने में दिक्कत, घुटने में बेहद दर्द ------अब ये तकलीफ़ें ज़्यादातर केसों में तो इसलिये होती हैं कि लोग विभिन्न कारणों की वजह से अपने शरीर की तरफ़ कईं कईं साल तक ध्यान दे ही नहीं पाते --- और बहुत से केसों में यह उम्र का तकाज़ा भी होता है।
मुझे बहुत साल पहले एक हड्डी रोग विशेषज्ञ का ध्यान आ रहा है जो कि बड़ी-बुजुर्ग महिलाओं को एक झटके में बड़े आवेग से कह दिया करता था कि अब उन के घुटनों में ग्रीस खत्म हो चुकी है, कुछ नहीं हो सकता अब इन हड्डियों का। इतना ब्लंट सा जवाब सुन कर अकसर मैंने देखा है कि लोगों का मन टूट जाता है।
इस का यह मतलब भी नहीं कि इन बुजुर्ग मरीज़ों को झूठी आशा दे कर, रोज़ाना अच्छी अच्छी बातों की मीठी गोलियां दे देकर उन से पैसे ही ऐंठते रहें ----या और नहीं तो वही एक्स-रे, वही सीटी स्कैन करवा कर उन की जेबें हल्की कर रहें।
जो मैं कहना चाह रहा हूं वह बस इतना ही है कि मरीज़ की स्थिति कैसी भी हो ----उस को हम ठीक ठीक बता तो दें लेकिन अगर आवेग में आकर बिना सोचे समझे बडे़ स्पष्टवादी बनते हुये सब कुछ एक ही बार में कह देते हैं तो मरीज़ का मन बहुत दुःखी होता है। दवाईयों ने तो जो काम करना होता है वह भी नहीं कर पाती ----क्योंकि मरीज़ का मन ठीक नहीं है। लेकिन अहम् बात यह है कि अगर मरीज़ का मन ठीक नहीं है, डाक्टर की बात से वह खफ़ा है तो उस के शरीर की जो प्राकृतिक मुरम्मत करने की क्षमता ( natural reparative capacity) है , कमबख्त वह भी मौके का फायदा उठा कर हड़ताल कर देती है।
बहुत सी तकलीफ़ें ऐसी हैं जिन का कोई सीधा समाधान है ही नहीं ----- बस, मरीज़ का अगर मन लगा रहे तो यही ठीक होता है। बाकी, आज लोग काफ़ी सचेत हैं उन्हें भी पता होता ही है कि फलां फलां तकलीफ़ें उम्र के साथ हो ही जाती हैं और ये सारी उम्र साथ ही चलेंगी लेकिन फिर भी वे डाक्टर के मुंह से कुछ भी कड़े निराशात्मक शब्द सुनना नहीं चाहते।
अगर ऐसे ओसटियोआर्थराइटिस के केस में डाक्टर इतना ही कह दे कि आप अपना थोड़ा वज़न कम करें , थोडा़ बहुत टहलना शुरू करें ---- खाने पीने में दूध-दही का ध्यान रखें ---- तो मरीज़ बड़े उत्साह के साथ इन बातों को अपने जीवन में उतारने की कोशिश करने लगता है। और साथ में अगर योग, प्राणायाम् के लिये भी प्रेरित कर दिया जाये तो क्या कहने !! ठीक है, वह दर्द के लिये हड्डियों पर लगाने वाली ट्यूब, कभी कभार या नियमित विशेषज्ञ की सलाह से कोई दर्द-निवारक गोली या वह गर्म पट्टी ----ये सब अपना काम तो करती ही हैं लेकिन सब से तगड़ा काम होता है डाक्टर के शब्दों का जिन्हें बहुत ही तोल-मोल के बेहद सुलझे ढंग से निकालना निहायत ही ज़रूरी है।
बस और क्या लिखूं ? ---पता नहीं इन बातों का सुबह सुबह कैसे ख्याल आ गया ---- कहना यही चाह रहा हूं कि डाक्टर और मरीज़ के बीच का वार्तालाप बेहद महत्वपूर्ण है ---इन में एक एक शब्द का चुनाव बहुत ही सोच समझ कर करेंगे तो ही मरीज़ों का मनोबल बढ़ेगा -------------वरना वे हमेशा बुझे बुझे से हर हफ्ते डाक्टर ही बदलते रहेंगे जब तक कि वह किसी आस पड़ोस के बहुत ही मृदुभाषी नीम हकीम के ही हत्थे नहीं चढ़ जायेंगे जो कि बातें तो शहद से भी मीठी करेगा लेकिन खिलायेगा उन को स्टीरॉयड जो कि इन मरीज़ों का शरीर दिन-ब-दिन खोखला कर देती हैं।
जब छोटे से तो बड़े-बुजुर्गों से सुनते थे, अपने हिंदी और संस्कृत के मास्टर जी अकसर कबीर जी, तुलसी दास के दोहे पढ़ाते हुये यह बताया करते थे कि वाणी कैसी हो, इस पर क्यों पूरा नियंत्रण हो ----------और आज इतना साल चिकित्सा क्षेत्र में बिताने के बाद यही सीखा है कि सही समय पर कहे गये संवेदना से भरे दो मीठे शब्द कईं बार इन दवाईयों से भी कईं गुणा ज़्यादा असर कर देते हैं। मेरी अभी तक की ज़िंदगी का यही सारांश है। आप का इस के बारे में क्या ख्याल है ?
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