tag:blogger.com,1999:blog-46763981607149514852024-03-17T06:38:00.909+05:30मीडिया डाक्टर ब्लॉगर - डा. प्रवीण चोपड़ा..
2007 से ब्लॉगिंग में सक्रियDr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.comBlogger1382125tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-79962821097621197492024-03-16T23:14:00.006+05:302024-03-16T23:39:12.854+05:30मराठी नाटकों की लोकप्रियता .....<p>इतना तो मैं जानता था कि यहां मुंबई में मराठी नाटक देखना लोग खूब पसंद करते हैं...और मुझे इतना ही पता था कि कुछ जगहों पर जैसे की रविन्द्रालय, व्हाई बी चव्हान, वीर सावरकर भवन इत्यादि पर मराठी नाटकों का मंचन किया जाता है ...कुछ ज़्यादा मुझे इस के बारे में पता नहीं था ..</p><p>लेकिन दो चार दिन पहले एक रिटायर बंधु आए तो उन के हाथ में महाराष्ट्र टाइम्स समाचार-पत्र था.....बात जब चली कि अब रिटायर होने पर टाइम कैसे पास होता है तो उन्होंने झटपट अपना बढ़िया रुटीन बता दिया ...साथ में यह भी बताया कि मराठी नाटक देखने भी जाता हूं ...मुझे पता था कि वह भी गुज़रे दौर में मराठी रंगमंच पर काम करते रहे हैं....मैंने पूछा तो कहने लगे कि हां, उस शौक को फिर से ज़िंदा करने की कोशिश में लगा हूं...</p><p>इस के साथ ही उन्होंने मेरे सामने महाराष्ट्र टाइम्स में मराठी रंगमंच के विज्ञापनों का वह पन्ना सामने रख दिया....मैं उस पन्ने पर इतने सारे विज्ञापन देख कर हैरान था....कहने लगे कि वीकएंड पर अगर आप महाराष्ट्र टाइम्स या लोकमत खरीदेंगे तो आप को पता चलेगा कि किस तरह से दो पेज़ इन मराठी नाटकों के विज्ञापनों से भरे रहते हैं....</p><p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEghQmWo3n62WcYL_WQC9G5hK-SpxlXFKwK6OTqxDvex7FrSPNHr1enJZnbEiqKJHzWSDJIv1JE-rx5e4icNJ6hNNrrriWBPHGTgNJH3oFBk5Ldpr24isCa5L5ZeVBVEIlbEmVVwbRPnwQJ0W6x8zzp9PGFFwCenk_ebdkYHZ3DLNGppZk44UELVh9LANcs/s4032/IMG_0577.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEghQmWo3n62WcYL_WQC9G5hK-SpxlXFKwK6OTqxDvex7FrSPNHr1enJZnbEiqKJHzWSDJIv1JE-rx5e4icNJ6hNNrrriWBPHGTgNJH3oFBk5Ldpr24isCa5L5ZeVBVEIlbEmVVwbRPnwQJ0W6x8zzp9PGFFwCenk_ebdkYHZ3DLNGppZk44UELVh9LANcs/w480-h640/IMG_0577.HEIC" width="480" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">महाराष्ट्र टाइम्स - मुंबई ...दिनांक 16 मार्च 2024 </td></tr></tbody></table><br />आज शनिवार था, रेलवे स्टेशन के अंदर घुसने से पहले उन की बात याद आ गई ...महाराष्ट्र टाइम्स की एक कापी खरीद ली...सारे पन्ने उलटे ...थोड़ा बहुत समझ में आ भी गया....क्योंकि सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ी थी ...यह भी उन का ही मराठी पेपर है ...और विशेष तौर पर मैं मराठी नाटकों वाला पन्ना देख कर सच में दंग रह गया....<p></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiOgNWv9c0TXxTECHaIZhiRhqjf-G3JukiDs-DTqqbhyphenhyphenzmVLvrK1xceVKmjccw0-eC8EEfN2LRDGXVh4gLmAwT71uMx_VAqoCSOjza8adxKj83gRD4RZbcpcXXH2Lvt4kT-2GRnfsqihb_qJ6Jyc4oYRMbHGEwrrPy27EWmdnfo6FxlUgcWMc-_YfZf0p4/s4032/IMG_0578.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiOgNWv9c0TXxTECHaIZhiRhqjf-G3JukiDs-DTqqbhyphenhyphenzmVLvrK1xceVKmjccw0-eC8EEfN2LRDGXVh4gLmAwT71uMx_VAqoCSOjza8adxKj83gRD4RZbcpcXXH2Lvt4kT-2GRnfsqihb_qJ6Jyc4oYRMbHGEwrrPy27EWmdnfo6FxlUgcWMc-_YfZf0p4/w480-h640/IMG_0578.HEIC" width="480" /></a></div><br />उस दिन जो साथी मराठी नाटकों के संसार की बातें कर रहे थे उन्होंने कहा कि ये जितने भी नाटकों के विज्ञापन आप देख रहे हैं ये सब हाउस फुल होते हैं.....अगर आपने कभी चलना हो तो मुझे पहले बता देना....मैंने कहा कि मैं तो म्यूज़िक कंसर्ट्स की बुकिंग बुक-मॉय-शो पर करवा लेता हूं ...यह सुविधा भी तो होगी ...कहने लगे कि है तो लेकिन पहली कुछ चार पंक्तियों की बुकिंग उस हाल में ही होती है ....उसे बुक-मॉय- शो पर नहीं किया जाता....और जिस दिन से यह शो की बुकिंग उस हाल में शुरू होनी होती है उस के बारे में अखबार से ही पता चलता है और लोग उस दिन सुबह ही उस हाल में पहुंच जाते हैं ..बुकिंग के लिए। <p></p><p>मुझे उन की यह बात सुन कर अपने बचपन-जवानी के दिन याद आ गए ...जब किसी नई पिक्चर रिलीज़ होने से कुछ दिन पहले उस की एडवांस बुकिंग शुरु हो जाती थी ...और हम लोगों को अकसर उस टिकट खरीदने के लिए सिनेमा हाल के चक्कर काटने पड़ते थे ...बहुत घपलेबाजी थी तब भी ....कुछ ही टिकटें वे लोग एडवांस बुकिंग में देते थे ...नहीं तो टिकटों की काला बाज़ारी कैसे हो पाती...</p><p>खैर, अच्छा लगा कि मराठी नाटकों की लोकप्रियता के बारे में जान कर ....और लोग टिकट खर्च कर जाते हैं मराठी नाटक देखने और इतने व्यापक स्तर पर ....यह एक बहुत सुखद जानकारी थी ...वैसे तो हिंदी के भी जो नाटक होते हैं मुंबई में ...उन की भी टिकट लेनी ही होती है ....</p><p>मुंबई के बाहर मेरा अनुभव कुछ अलग रहा ....18 साल की उम्र में अमृतसर में अपने कॉलेज में ज़िंदगी का पहला नाटक देखा ..पंजाबी भाषा में .....टोबा टेक सिंह ...इस के लेखक और निर्देशक थे पंजाब के एक बहुत बड़े लेखक, नाटककार, निर्देशक ...गुरशरण सिंह जी .....उम्र के उस पड़ाव में इस नाटक ने हम सब के एहसासों को झंकृत किया ...</p><p>फिर शायद अगले तीस साल तक छुट्टी ...कहीं कोई नाटक नहीं देखा ...न ही कुछ रूचि-रूझान था इन सब में....फिर जब पचास बरस की उम्र के आस पास लखनऊ में रहने लगे तो वहां भी हिंदी नाटकों की दुनिया बहुत निराली है ....बहुत से नाट्य-गृह भी हैं...आए दिन किसी न किसी नाटक का मंचन होता ही रहता है ....नाटकों से जुड़े हुए बहुत बड़े बड़े संस्थान हैं....अधिकतर तो ये सब हिंदी भाषा में ही होते थे, और कभी कभी अवधी भाषा में भी नाटक देखने को मिल जाते थे ....</p><p>लखनऊ में जो सात-आठ साल रहे वहां पर बहुत से नाटक देखने को मिले ...नाटकों में काम करने वाले कलाकारों को देखने और उन को अलग अलग प्रोग्रामों में सुनने का मौका मिला ....वहां यह भी जाना कि मुंबई में जो लोग हिंदी फिल्मजगत में स्थापित हैं उन में से बहुत से कलाकार लखनऊ रंग मंच द्वारा ही तैयार किए गये हैं....कलाकार ही नहीं, बॉलीवुड के बहुत से लेखक भी लखनऊ द्वारा तैयार किए गए हैं.....</p><p>लखनऊ में जितने हिंदी के नाटक देखे उन के नाम याद करना मेरे लिए बहुत मुश्किल काम है ....शायद 2013 में जब नए नए लखनऊ में गए तो वहां पर असगर वज़ाहत के नाटक - जिस लाहौर नहीं वेख्या, ओ जम्मेया ही नहीं....। यह बहुत अच्छा नाटक है, आप यू-ट्यूब पर इसे देख सकते हैं। बहुत से नाटक और भी देखे ..लेकिन वहां पर टिकट नहीं लगती थी, सब कुछ मुफ्त देखने को मिलता था ...दर्शकों के लिए तो बढ़िया है लेकिन नाटकों के लिए, नाटकों की सेहत के लिए, कलाकारों के लिए तो ठीक नहीं है ....तब भी बातें चल तो रही थीं कि नाटक देखने के लिए टिकट होनी चाहिए....</p><p>लखनऊ में रहते हुए ही नादिरा बब्बर के कुछ नाटक देखने को मिले ...जो उन्होंंने लिखे भी थे, और निर्देशन भी उन का ही था....क्या बेहतरीन नाटक लिखे थे....जूही बब्बर ने भी उन में काम किया था....मैं तो हिंदी नाटकों को देख कर दंग रह जाता था कि इतने इतने लंबे ़डॉयलाग याद करने .....और पूरी परफेक्शन के साथ उन को निभाना ...वाह वाह .....👍<br /></p><p>रंग मंच एक अद्भुत विधा है ...मुझे ऐसा लगता है कि हिंदी के साथ साथ अपनी मातृ-भाषा में नाटक पढ़ने-देखने चाहिए...बहुत कुछ होता है इन से सीखने के लिए ....हमारे अंदर तक ये अपना प्रभाव छोड़ते हैं ....शिक्षित करते हैं.....देखने चाहिएं जब भी मौका मिले ....मराठी और हिदी के बारे में तो मैं कह सकता हूं ....इंगलिश नाटकों के बारे में मुझे कुछ इतना ज्ञान नहीं है....जिन को मैं देखने गया वह मेरी समझ से ऊपर के थे, शेक्सपियर के या गेलिलियो इत्यादि.....कुछ भी मेरे पल्ले नहीं पड़ा ...और जो इंगलिश के नाटक मेरी समझ में आ जाएं, उन की देखने की मेरी कभी इच्छा हुई नहीं ..वैसे ही ....टाइम्स ऑफ इंडिया में आते हैं इन के भी विज्ञापन अकसर ...लेकिन कभी नहीं गया देखना.....शायद कभी कभी हिंदी नाटक के विज्ञापन भी मुंबई की टाइम्स आफ इंडिया में आते हैं....</p><p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhTVbPPhzWtxeeO2dZSJN2P1cVxWgjVQsynB-jUmVlrHkW-3sJUSKasKX9xwjlwWGkqhm-gOzZSYwqfnRJLI31fX-4kCTVrWTh0I0QPaZNPPorJjV_jYjtA77Vnek4RBhlPrlb_-w9KzLthfxnSgL6HLyhNtyy-arK_nOHkb2IY42HaWNyluumQ8U5D-w/s4032/IMG_0555.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhTVbPPhzWtxeeO2dZSJN2P1cVxWgjVQsynB-jUmVlrHkW-3sJUSKasKX9xwjlwWGkqhm-gOzZSYwqfnRJLI31fX-4kCTVrWTh0I0QPaZNPPorJjV_jYjtA77Vnek4RBhlPrlb_-w9KzLthfxnSgL6HLyhNtyy-arK_nOHkb2IY42HaWNyluumQ8U5D-w/w480-h640/IMG_0555.HEIC" width="480" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मैने उन सज्जन को कहा कि इसे ज़रा पकड़िए मुझे एक फोटो खींचनी है ...</td></tr></tbody></table><br />यह पोस्ट किस लिए.....सिर्फ एक सलाह देने के लिए कि अगर आप नाटक देखने नहीं जाते तो जाना चाहिए ...जिस भी भाषा में आप को पसंद हो, जाइए....और हां, नाटकों की किताबें भी पढ़िए.....और हां, किताबों से याद आया.....कल ट्रेन के जिस डिब्बे में चढ़ा उस में एक सज्जन एक किताब के पन्ने उलट पलट रहे थे ...जिज्ञासा हुई ...क्योंकि यह जो प्रजाति (मैं भी उसी एन्डेंजर्ड स्पीशिस से ही हूं) में अखबार हाथ में लेकर चढ़ती है या अपने थैले में से कोई किताब निकाल कर पढ़ने लगती है यह भी लुप्त होने की कगार पर ही है .....और जो लिखने वाले हैं उन को तो हरेक से बात करनी होती है, बर्फ तोड़ने में कोई शर्म नहीं महसूस होती उन को ....मैंने भी उनसे ऐसे ही पूछ लिया कि क्या पढ़ रहे हैं, उस सज्जन ने बताया कि गीता प्रैस गोरखपुर की उपयोगी कहानियां पढ़ रहा हूं....कहने लगे कि मैंने तो पढ़ ली है, आप ले लीजिए, पढ़िएगा.....मैंने कहा, नहीं, आप पढ़िए....मैं भी ऐसी किताबों का संचय करता रहता हूं , पढ़ता भी हूं। फिर हम की बात गीता प्रैस गोरखपुर के बारे में होने लगीं कि किस तरह से वे सस्ते दामों पर श्रेष्ठ साहित्य उपलब्ध करवा रहे हैं....बस, दो मिनट में हमारा स्टेशन आ गया....जाते जाते बता कर गए कि प्रिंसेस स्ट्रीट पर गीता प्रैस गोरखपुर की दुकान है....मैंने भी कभी किसी ज़माने में गीता प्रैस की बीसियों किताबें खरीदी थीं, याद नहीं कितनी पढ़ी, कितनी ऐसे ही यहां वहां पड़ी अल्मारियों से झांक रही होंगी कहीं पड़ी, कितनी किताबों को तो दीमाक ही चाट गईँ....कोई बात नहीं, यह सब भी साथ साथ चलता है...<p></p><p>हां तो बात आज मराठी नाटकों की हो रही थी ....मराठी रंग मंच ने हमें एक से एक बेहतरीन कलाकार दिए हैं ....हिंदी सिनेजगत में ..किस किस का नाम लें, किस को ऐसे कैसे भूल जाए...इसलिए नाम किसी का भी नहीं लिख रहे हैं.....बस, इतनी गुज़ारिश है कि नाटक देखा करिए, पढ़ा करिए, अन्य भाषाएं पढ़ते हैं, अपनी मातृ-भाषा में भी लिखिए, पढ़िए, बोलिए .....और अपनी मातृ-भाषा में छपने वाले किसी अखबार को भी देखना अच्छा लगता है...ज़मीन से जुड़ी बातें और आम आदमी की खबरें उस में भी भरी पड़ी होती हैं ....वैसे मुझे मराठी में हो रही बातचीत सुनने में बड़ा मज़ा आता है ....लोगों में चल रही उस बातचीत मैं नए लफ्ज़ चुनने लगता हूं ....कुछ शब्दों के अर्थ के कयास लगा लेता हूं, कुछ के अर्थ बाद में किसी से पूछ लेता हूं ....और सब से खुशी मुझे लोगों के चेहरों को देख कर होती है जब वे अपनी मातृ-भाषा में बतिया रहे होते हैं ...</p><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/tLC8YVxqnVU?si=eS1VfT2atUOu6nh6" title="YouTube video player" width="560"></iframe>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-39715928284411979312024-03-13T08:31:00.003+05:302024-03-13T08:46:25.514+05:30पावडर वाले दुध दी मलाई मार गई....<p>आज से पचास बरस पहले जब रोटी, कपड़ा और मकान फिल्म आई तो उस का यह गीत ...महंगाई मार गई जो प्रेमनाथ पर फिल्माया गया था, हमें बहुत पसंद था, रेडियो पर बजता था, गली मोहल्ले में जब कोई जश्न या ब्याह-शादी होती तो बड़े बडे़ स्पीकरों पर बहुत से गीत बजते थे ..उनमें से यह भी बहुत बजता था...उस में एक लाइन यह भी है ..पावडर वाले दुध दी मलाई मार गई....</p><p>हमें उन दिनों पता ही नहीं था कि यह पावडर वाला दुध होता क्या है, उस के दो चार बरसों बाद जब हमारी बड़ी बहन अपनी बेटी को दूध की बोतल में पावडर घोल कर पिलाया करती थी ..लोक्टोजेन शायद ...मैंने पहली बार उस दूध वाले पावडर के दर्शन किए थे ...१५ बरस की उम्र में ....बस, मुझे यही लगता था कि यही पावडर वाला दूध है जिसे मेैं बडे़ चाव से खाता रहता था जितने दिन भी वह हमारे पास होतीं...उन्होंने कभी टोका नहीं, रोका नहीं ....अभी भी याद करता हूं तो हंसती हैं....</p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiBKmIX_m1hlYJW0YBMYR03OkAMvlBGtdYRzoX3LeN2uPp9Zn-uSKKnXWGX1vAbwjZhCN7cVl1pNCDwrLuCjF6a470AWddu3mYeA0JjFSmVU25B6vOe0X0EkbwZxebkQHCH3v8ftKTG-pqinmQORKbClzvhTtxAJPPKRB09Zo6F3jqi0tUmuzIzAy5uoyw/s4032/IMG_0477.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiBKmIX_m1hlYJW0YBMYR03OkAMvlBGtdYRzoX3LeN2uPp9Zn-uSKKnXWGX1vAbwjZhCN7cVl1pNCDwrLuCjF6a470AWddu3mYeA0JjFSmVU25B6vOe0X0EkbwZxebkQHCH3v8ftKTG-pqinmQORKbClzvhTtxAJPPKRB09Zo6F3jqi0tUmuzIzAy5uoyw/s320/IMG_0477.HEIC" width="240" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFh1ovzLy0CJ2QS5oSm4rbJ7xgyZb7hCu83FXUYgT11D2GxxBYLOhxryNugv3Ya-VTv7le4iERzfdrJZWufHo1OU7y4pcRrSGS-ejV2mJcGCOgaam4A_h97o73_6Ab4LeCYcHx44cFj_cETUTLUys-rfPpvxMbqYPd9GnHIil32OqDH80i4S6pvUfdl0E/s4032/IMG_0476.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" 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src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEial6aBWe02Op6RI014wAjEmXqqfS5_r5SU6YxQYgTD4-9ETT2Rd3xX28tRL-YurcimgkBtur5rPHa0K8a3TLvF7wZoySHQM_DQ2h3r23uW2rue5PAa9aNV0hOffhGpaGQGnHnGzqK74Ggyh08esEbGSypYCjplOuCwil3oct3I7JEvPlTtNqGn_URaZZE/s320/IMG_0475.HEIC" width="240" /></a></div><br />आज से ५०-६० बरस पहले की दूध की बात करें तो ज़ाहिर सी बात है कि मलाई का ज़िक्र होना लाज़िम है ....मुझे आज लिखने का यह ख्याल इस वक्त इसलिए आया कि मैंने अभी चाय बनाने के लिेए जैसे ही दूध का पतीला फ्रिज में से निकाला उसमें जिस मलाई के दर्शन हुए, उसे देख कर मैं डर गया...यह कोई सनसनी फैलाने वाली बात नहीं है, हो सकता है कि आज कल पैकेट का दूध इतना बढ़िया क्वालिटी का आने लगा हो कि उस एक किलो में मलाई के ऐसे अंबार लग जाते होंगे ...मुझे इस का कुछ इल्म नहीं है, बस लिख रहा हूं ....क्योंकि मैं इस तरह की मोटी मलाई के बारे में पिछले लगभग २५-३० बरसों से सोच रहा हूं ....लोगों से बात भी करता हूं लेकिन इस का राज़ नहीं जान पा रहा ......लेकिन दूध एवं दूध से बनी सभी चीज़ें मैंने कई सालों से बंद कर रखी हैं ...दूध को तो पिए शायद १० साल ही हो गए होंगे ...(यह कोई मशविरा नहीं है किसी को, ध्यान दें, यह केवल एक आपबीती है अपनी ही डॉयरी में लिखने के लिए)....चाय मुझे हरी, पीली, हर्बल, फर्बल कभी भाई नहीं, झूठी तारीफ़ होती नहीं, आखिर करें भी क्यों, लेकिन जो हिंदोस्तान की साधारण चाय है उसमें थोड़ा बहुत दूध तो जाएगा ही न ...बस, दूध से मेरा उतना ही वास्ता है....दही या रायते के दो चम्मच कईं बार किसी सब्जी के साथ मजबूरी वश लेने पड़ते हैं.....दिली इच्छा होती है कि दूध से बनी कोई मिठाई, या देसी घी से तैयार कुछ भी न खाऊं....कोई थमा देता है तो परेशान हो जाता हूं ...क्या करूं इस का ....मजबूरी वश चख लेता हूं...लेकिन किसी पार्टी वार्टी में मूंग के दाल के हलवे, गाजर के हलवे पर जैसे टूट पड़ता हूं ....फिर अपराध बोध से परेशान होता हूं ...इसलिए मुझे कहीं भी आना जाना भी पसंद नहीं हैं, क्योंकि उस वक्त मैं अपने खान-पान पर कंट्रोल नहीं कर पाता ...<p></p><p>हां, तो बात चल रही थी मलाई की .....अभी लिखते लिखते सोच रहा हूं कि इतनी मोटी मोटी मलाई का रोना रोने मैं इसलिए बैठ गया कि हम ने ५०-५५ बरस पहले मलाई को उस के सही रूप में देखा हुआ है ....बिल्कुल पतली सी मीठी मीठी मलाई को परत हुआ करती थी दूध पर ...जिसे हम लोग शक्कर के साथ खा जाते, या टोस्ट पर लगा कर खा जाते ...और वह मलाई खाने के लिए भी एक दो दिन इंतज़ार करना पड़ता था ...क्योंकि उस मीठी मलाई पर हाथ साफ करने वाले हम ही तो न थे, भाई बहन भी थे.....😂 </p><p>अब कोई इस पोस्ट को पढ़ने वाला यह कहे कि भाई मैंने मलाई का सही रूप देखा नहीं होगा....मलाई अगर तुम्हारे यहां पतली होती थी तो ज़रूर तुम लोग जहां से दूध लाते थे उन की भैंसे कमज़ोर होंगी.....इस तर्क के आगे मैं कुछ न कहूंगा...केवल नतमस्तक हो सकता हूं क्योंकि मैें तो सिर्फ और सिर्फ आंखों देखी ब्यां कर रहा हूं...</p><p>दूध लेने उन दिनों हम लोग डोलू ले कर जाते थे ...कभी पैदल कभी साईकिल पर ..साईकिल पर जाते वक्त थोड़ा ध्यान रखना पड़ता था क्योंकि साईकिल पर डोलू टांगने से वह छलक जाता था अकसर और एक हाथ में डोलू पकड़े पकड़े साईकिल चलाना कईं बार थोड़ा मुश्किल भी होता था...एक तो अचानक ब्रेक वेक लगाने का चक्कर और दूसरा छोटी छोटी कोमल उंगलियां थक जाती थीं यार 😎....</p><p>जैसे ही हम घर में दूध पहुंचाते, मां को डोलू पकड़ाते ...तो मां का कवांटिटी एवं क्वालिटी चैक शुरु हो जाता ....मां कहती कि ये लोग नहीं सुधरेंगे ...आज भी इतनी झाग डाल दी....मां कहती कि उस को कहा करो कि दूध मापने से पहले झाग तो मार लिया करे....हम सुन लेते लेकिन दूध वाले को कुछ नहीं कहते ...क्या करें हम ऐसे ही थे बचपन से ही .....चुपचाप, सहने वाले ...</p><p>अच्छा जी दूध चढ़ गया अंगीठी पर ....और कुछ ही वक्त के बाद उस की मलाई का जायजा लिया जाता ....अगर तो मलाई मोटी होती (नहीं, बि्लकुल ऐसी नहीं जैसी आप इस फोटो में देख रहे हैं.....) सब ठीक, अगर मलाई हुई पतली तो फिर मां को लगता आज फिर डेयरी वाले ने पानी ठेला लगता है ....पहले ग्राहकों की आंख चुरा के यह काम पूरे ज़ोरों पर था ...हर रोज़ डेयरी वालों के पास दो चार ग्राहकों की यही शिकायत सुनने को मिलती कि दूध पर मलाई ही नहीं आ रही .....लोग यह तो कह नहीं पाते कि दूध पतला है, या कुछ और लफड़ा है, लेकिन इतना तो कह ही देते ....एक दो दिन डेयरी वाला सुधरा रहता और मलाई मोटी आने लगती (उतनी तो कभी नहीं जो आप ऊपर फोटो में देख रहे हैं....😁...तीसरे दिन से फिर वही पतली मलाई....पतला दूध ....फिर एक वक्त वह भी आया कि लोगों ने यह तो मान लिया कि दूध में पानी तो मिलाते ही हैं ये लोग, लेकिन पानी तो कम से कम साफ मिलाया करें....) </p><p>मलाई वलाई भी जो उन दिनों मां के प्यारे हाथों से खा ली, खा ली.....उस के बाद तो मलाई की तरफ़ कभी देखने की इच्छा नहीं हुई....इतनी इतनी मोटी मलाईयां.....क्या होगा इन में, क्या न होगा.....डर लगता है ..लखनऊ में रहते थे तो वहां पर मक्खन खूब बिकता है दुकानों पर, खोमचों पर .....देख कर डर ही लगता रहा हमेशा कि यार, क्या बेच रहे होंगे ये मक्खन के नाम पर.....किस दूध से तैयार होता होगा यह मलाई-मक्खन ...एक आध ट्राई करने के लिए खा भी लिया होगा...</p><p>आज से ५०-६० बरस पहले जो हम लोग दूध अपने सामने गाय-भैंस से दुहलवा कर लाते थे उस मलाई की तो बात ही क्या थी, जब कभी उस का मक्खन, घी तैयार होता तो जैसे सारा घर महक जाता एक बहुत अच्छी खूशबू .......और अब जब कभी इस तरह की मोटी मलाई से मक्खन और घी तैयार होता है तो पूरे घर में बास फैल जाती है ...लेकिन फिर भी हम लोग वह घी खाते हैं ....मैं भी ले लेता हूं ...जिस तरह से शहर की एक दो १००-१५० साल पुरानी मशहूर दुकानों से खरीदी हुई मिठाई भी खा लेता हूं ....अपनी मूर्खतावश यह सोच कर कि इन का देशी घी तो ठीक ही होगा........लेकिन, नहीं, अब बहुत कम हो गया है ...अब तो एक दो दुकाने हैं ....जहां पर लड्डू और दूसरी मिठाईयों में देसी घी इस्तेमाल नहीं होता, वहीं से कभी कुछ खरीद लेते हैं ....क्या करें, ये लड्डू, इमरती की आदतें कहां छूटती हैं....</p><p>मलाई से याद आया ....जैसे आज महिलाएं नेटफ्लिक और विमेन-लिब की बातें करती हैं ....उन दिनों ऐसा कुछ न था, एक साथ बैठ कर स्वैटर बुनना, गपशप करना, अखबार-मैगज़ीन पढ़ना और उस में से स्वैटर के नए नमूने ढूंढना.....और अपने घर में आने वाले दूध की गुणवत्ता की बातें करना ....यही कुछ था हमारी माताओं और बड़ी बहनों की ज़िंदगी में ....और दूध की गुणवत्ता का एक ही पैमाना....मलाई की मोटाई .....😎😂 और उस से तैयार होने वाले देशी घी की मात्रा....</p><p>मज़े तो तब मक्खन के भी थे.....बॉसी रोटी के ऊपर लगा कर ऊपर से गुड़ की शक्कर उस पर उंडेल कर मज़ा आ जाता था....और आलू के परांठे पर, दाल में वह मक्खन डालते ही तुरंत महक छोड़ कर गायब हो जाता था ...लेकिन एक बात तो फिर भी है कि उन दिनों भी गाय भैंस को पसमाने के लिए (उसे दूध देने के लिए तैयार करने के लिए) अक्सर बछड़े को उस का स्तनपान करने के लिए छोड़ना कम तो हो गया ...और लोग उसे पसमाने की बजाए उसे ऑक्सीटोसिन का टीका ठोंकने लगे थे....अजीब तो लगता था, लेकिन हमें कुछ समझ नहीं थी, लेकिन जब मां के साथ होते तो मां भी और कुछ लोग और भी टोक ही देते उस टीका लगाने वाले को कि यह मत किया करो........लेकिन उन का अपना तर्क था कि यह ...और वह .....। खैर, उस टीके पर अपना कंट्रोल नहीं था, बहुत अरसा बाद हमें पता चला पढ़ाई लिखाई करने के बाद कि इस ऑक्सीटोसिन के इंजेक्शन का मतलब क्या है, क्या नुकसान हैं....एक ही सूई से सभी गाय -भैंसो को टीका लगाते रहते थे ....और टीका लगाना तो गलत लफ्ज है, वे तो सिरिंज को दूध से ला कर जैसे गाय भैंस को टीका ठोक देते थे ....मोटी सी स्टील की सूई ....मुझे तो कईं बार डर भी लगता कि कहीं सूईं टूट गई तो ...वैसे भी जानवर को उस टीके की ठुकाई से कितना दर्द होता होगा....हम सोच सकते हैं ...</p><p>आज की मलाईदार बातें यही खत्म ....मुझे तैयार हो कर काम पर निकलना है ...देर हो जाएगी...लिखने का क्या है, बातें याद आती जाएंगी और लिखते चले जाएंगे. वैसे यह बात तो पक्की है कि हमारे वक्त की मलाईयां हमें लुभाती थीं, अब डराती हैं....वैसे अगर कहीं शुद्ध भी मिल जाए तो डाकटर लोग ही डरा देंगे ....इस पोस्ट को बंद करते ख्याल आया कि जब भी मक्खन मलाई की बातें करते हैं तो वह माखनचोर, यशोदा का नंदलाला का याद न आए, ऐसा कैसे हो सकता है....तो फिर इसे सुनिए.....<a href="https://www.youtube.com/watch?v=bEzDep-qXZQ">यशोदा का नंद लाला </a> और इसे भी ज़रूर सुनिए ... <a href="https://www.youtube.com/watch?v=g8siENrpCiA">बडा़ नटखट है </a>...</p><p>(Disclaimer- Obviously, these are my personal views in my blog, may be some problem with the brand that we use....may be! --- everyone is free to explore his own truth and act as per his/her doctor's advice while making decisions about their diet) </p>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-32984136222106287622024-03-02T08:10:00.003+05:302024-03-02T08:12:34.465+05:30पनीर के बारे में हम पहले ही से थे फ़िक्रमंद <p>इसी फ़िक्र के चलते ही हम ने पिछले 20-25 बरसों से बाज़ार से कभी पनीर खरीदा नहीं ....2002 के आसपास की बात है हम लोग जहां रहते थे वहां दूध-दही की नदियां बहा करती थीं किस्सों में ....इसलिए हम भी वहां पहुंचते पनीर, और मिठाईयों (विशेषकर बर्फी, छैना ...) पर टूट पड़े ...फिर नकली दूध, नकली और मिलावटी पनीर, नकली दूध से बनी मिठाईयों की खबरों ने ऐसा हिला कर रख दिया कि यह सब खाना बहुत कम हो गया....और पनीर तो बाज़ार से खरीदना बंद ही हो गया...लेकिन सोचने वाली बात है कि घर में जो पनीर बनेगा वह भी दूध तो उसी से बनेगा जो बाज़ार में मिल रहा है ....अब घर में कभी एक दो अच्छी ब्रांडेड कंपनियों के पनीर के पैकेट दिख जाते हैं...(सोचने वाली बात यह है कि जिस फूड-चेन के प्रोडक्ट्स में एनॉलॉग पनीर की बात पिछले दिनों हम लोगों ने पढ़ी-देखीं, वे भी तो अच्छी ही हैं....बुरा कुछ भी तो नहीं यहां 😂</p><p>बातें ऐसी सिर दुखाने वाली हैं सच में ....लेकिन अपने अनुभव लिख देने चाहिए, शायद किसी को कोई रास्ता दिखे या हमारे रास्ते में जो गलतियां हैं कोई हमें उस के बारे में ही बता दे, लेकिन अगर लिखेंगे नहीं तो बात कैसे बनेगी....बचपन से पनीर बहुत पसंद रहा है, इस के पकोड़े, इस की भुर्जी और आलू-मनीर और मटर पनीर की सब्जी जिस के लिए पहले पनीर को अच्छे से फ्रॉई किया जाता था पहले....ज़िंदगी की उस अवस्था में किसी फ़ुर्सत होती है यह देखने की जो वह खा रहा है, वह क्या है ....बस स्वाद ही सर्वोपरि होता है ....लेकिन जैसे ही कुछ 20-25 बरसों से इस नकली और मिलावटी पनीर की खबरें पढ़ीं तो बस बाहर से पनीर खरीदना लगभग बंद ही हो गया....</p><p>हां, लिखते लिखते याद आ रहा है यह कोई 20 साल पहले की बात है ...वही दूध-दही की नदियों वाले इलाकों की ....जब अखबारों में यह आने लगा कि पनीर बनाने के लिए जो दूध फाड़ते हैं डेयरी वाले उसमें किसी एसिड का इस्तेमाल किया जाता है ....मुझे याद है कि मां की टिप्पणी यह होती थी कि अब अगर वे दूध के फाड़ने के लिए नींबू का इस्तेमाल करने लगें तो हो चुका उन का धंधा......लेकिन फिर भी ये सब पढ़ कर बाहर के पनीर से बेरुखी सी हो गई ....यहां तक कि किसी भी ब्याह-शादी-पार्टी में पनीर खाना बंद दिया...</p><p>बाहर से पनीर खरीदना ही नहींं, कहीं भी बाहर ---किसी पार्टी में, किसी शादी-ब्याह में, बड़े से बड़े रेस्ट्रां में खाते वक्त भी पनीर कभी चखते तक नहीं, कभी उस पीली दाल के साथ मजबूरी वश एक दो चम्मच शाही पनीर की ग्रेवी लेनी पड़ जाती है ....यही कारण है मुझे कहीं भी खाने वाने के लिए बाहर जाना पसंद नहीं है ...दारू पीनी नहीं, नॉन-वेज भी नहीं, पनीर भी नहीं, कोई मिल्क प्रोडक्ट भी नहीं तो फिर बाहर खाने जाना ही क्यों है.....(हां, जो बात आप के मन में आ रही है वह मैं भी सोचता हूं कि फिर जी ही क्यों रहे हैं ...😎...यह जीना भी कोई जीना है लल्लू)....दाल-रोटी में तो न तो दाल अपने स्वाद की मिलती है और रोटियां भी कच्ची पक्की ....बाहर कभी खाना मेरे लिए किसी सज़ा भुगतने जैसा है ....वही जाता हूं जहां जाने से बचा नहीं जा सकता....😎....खाने पीने के बारे में और भी बता दूं कि शायद दस साल तो कम से कम हो गए होंगे दूध नहीं पीता हूं, दही भी एक दो चम्मच मजबूरी में कभी लेने पड़ते हैं ....लेकिन यह जो मैं ब्लॉग में लिख रहा हूं यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, इस को फॉलो मत करिए, पढ़ने वाले अपनी सेहत के खुद जिम्मेदार हैं ....मेरी लिखी हुई बातों के भरोसे मत रहिए....लेखकों का काम कईं बार इशारे इशारे में अपनी बात कहनी होती है .....अपनी सेहत, अपने खान-पान के सभी फैसले खुद और अपने चिकित्सक की सलाह के मुताबिक करिए.....जहां तक मेरी बात है, मैं भी वही करता हूं जो मुझे मुनासिब जान पड़ता है, सदियों से चली आ रही खाने-पीने की धारणाओं के बहाव के विरूद्ध चलना मुश्किल होता है ....लेकिन हर इंसान के फ़ैसले अपने होते हैं ....होने भी चाहिए...क्योंकि सही गलत के लिए वह खुद जिम्मेदार होता है ...</p><p>कुछ दिन पहले उस बड़ी सी फूड-चेन में अनॉलॉग पनीर के बारे में चिंता हुई ....मैं तो वहां से एक बर्गर के अलावा कभी कुछ खाता नहीं था (वह भी साल में एक दो बार) .....लेकिन जिस तरह से आज के जवान पनीर के दीवाने हैं, बड़े ब्रांड के पनीर वाले बडे़ पकवानों के दीवाने हैं, यह चिंता का विषय़ तो है ही ...</p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgORdY0s0g9mct6z0y2nKBYQBeNe_SaxcoXRCM8KxCWse9GqM8ctF6lgOT1nDIrcTJUNrGISgvJtx-6Z8V0ro09cLCkt9akrGLMPtmpc1icMNLVVOAqvk6RzQrMh5FvzvO1QOnwA22H9zNPZUbB8v8CNXCUZNASl6QN03admZin3i48rJK6YeAI2YvnRUE/s4032/IMG_0204.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="2268" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgORdY0s0g9mct6z0y2nKBYQBeNe_SaxcoXRCM8KxCWse9GqM8ctF6lgOT1nDIrcTJUNrGISgvJtx-6Z8V0ro09cLCkt9akrGLMPtmpc1icMNLVVOAqvk6RzQrMh5FvzvO1QOnwA22H9zNPZUbB8v8CNXCUZNASl6QN03admZin3i48rJK6YeAI2YvnRUE/w360-h640/IMG_0204.jpg" width="360" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b>यही साहसी पत्रकारिता है ...मुंबई वासी क्यों टाइम्स ऑफ इंडिया के दीवाने हैं, यह तो इसे पढ़ने वाले ही जानते हैं ...किसी भी तस्वीर के सभी रूख दिखाने में अव्वल है टॉइम्स, इस का पाठक कभी भी ठगा हुआ सा महसूस नहीं करता ...(टाइम्स आफ इंडिया की रिपोर्ट ...दिनांक 1 मार्च 2024) </b></td></tr></tbody></table><p> इस विषय़ पर मेरा कुछ लिखने का मन तो नहीं था, क्या हर वक्त अपनी ही हांकते रहें, लेकिन जब से उस फूड-चेन की इस तरह की खबरें पढ़ी थीं, मन में बड़ी उथल-पुथल सी मची हुई है.....आज सुबह जल्दी उठ गया....पहले तो सत्यजीत रे की कहानी Fritz पढ़ी, नेट पर नहीं, किताब में .....मुझे उन को पढ़ना अच्छा लगता है, फिर सामने कल की अखबार पर नज़र पड़ गई ....कल पढ़ी तो थी, कैसे छूट गया इस रिपोर्ट को पढ़ना.....हैरानी भी हुई ...इसे आराम से पढ़ा और फिऱ अपनी बात लिखने बैठ गया.....😂</p><p>मिलावट वैसे तो हमारे बचपन के दिनों से ही खाने-पीने की चीज़ों मे शुरू हो चुकी थी .....लेकिन इस का पता हमें रोटी-कपड़ा-मकान के इस गीत से ही चला था ....<a href="https://www.youtube.com/watch?v=_04WDX2w11g">पावडर वाले दूध की मलाई मार गई ..</a>..(यह फिल्म छठी सातवीं जमात के दिनों में अमृतसर में देखी थी) फिर भी लगता है मिलावट आटे मे नमक के बराबर रही होगी उस दौर में ....अब तो दाल में कंकड़ ही कंकड़ हैं....ऐसे लगता है, हर चीज़ खाते वक्त सोच विचार करना पड़ता है ....</p><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/t5qFfmwHjAU?si=SybIl9kmA-Tm9KKb" title="YouTube video player" width="420"></iframe>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-30319452057951438702024-02-11T00:33:00.005+05:302024-02-11T08:01:34.539+05:30६० साल पुराना एफिडेविट - दारु परमिट के लिए <p><span style="font-size: large;"> </span></p><p><span style="font-size: large;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-size: large;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAW4PM6RwZGlM7Tc9SR70yaVW_0GkVWfqWDr-91f9zl1zJaDp3hRlR1QxpqvqxysBmEJBQcTUWreevN_0XiK5_QYKdYlnRB4wKBjlEWqJiYd0I-vNruG8aTeFxzakfPat9hww-XKjyJ9dDU_X3sLdy2NZIQN8wDo7IK8sM4BTDRIelokkQqFIyhSmRaok/s3863/IMG_8661.heic" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2754" data-original-width="3863" height="285" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAW4PM6RwZGlM7Tc9SR70yaVW_0GkVWfqWDr-91f9zl1zJaDp3hRlR1QxpqvqxysBmEJBQcTUWreevN_0XiK5_QYKdYlnRB4wKBjlEWqJiYd0I-vNruG8aTeFxzakfPat9hww-XKjyJ9dDU_X3sLdy2NZIQN8wDo7IK8sM4BTDRIelokkQqFIyhSmRaok/w400-h285/IMG_8661.heic" width="400" /></a></span></div><span style="font-size: large;"><br />दो दिन पहले मुझे अपने हाथ से एक ६० साल पुराने एफिडेविट को छूने का और अच्छे से पढ़ने का मौका मिला...तब से मैं बहुत हैरान हुआ....</span><p></p><p><span style="font-size: large;">यह एफिडेविट पचास नए पैसे के स्टांप पेपर पर लिखा हुआ था- जी हां, हाथ से लिखा हुआ था...जिस पर १ रूपए की कोर्ट फीस की टिकट भी लगी हुई थी....और इस शपथ-पत्र में लिखा यह था ..... </span></p><p><span style="font-size: large;">मैं .......(नाम) , उम्र लगभग ५५ साल, (पूरा पता) बम्बई का रहने वाला हूं - do hereby state on solemn affirmation as under - </span></p><p><span style="font-size: large;">१. मेरी पैदाइश बंबई की है ...तारीख लिखी थी ...और मैं तभी से बंबई का नागरिक हूं। </span></p><p><span style="font-size: large;">२. मुझे लिकर-परमिट की ज़रूरत है, डाक्टरी प्रमाण पत्र (नाम एवं इलाके सहित) दिनांक .......(१९६४) के अनुसार मेरी सेहत ठीक नहीं है। </span></p><p><span style="font-size: large;">Whatever is stated above is true to my knowledge and belief. </span></p><p><span style="font-size: large;"> </span></p><p><span style="font-size: large;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> <span style="background-color: #04ff00;"> </span></span><span style="background-color: #04ff00;"><b>प्रार्थी के हस्ताक्षर </b></span></span></p><p><span style="font-size: large;"> </span></p><p><span style="font-size: large;"><b style="background-color: #fcff01;"><span>किसी वकील ने भी उस की शिनाख्त करते हुए हस्ताक्षर किए हैं। </span></b></span></p><p><span style="font-size: large;"><b style="background-color: #fcff01;"><span>और उस पर बंबई के रजिस्ट्रार और प्रेज़ीडेंसी मैजिस्ट्रेट के भी हस्ताक्षर हैं। </span></b></span></p><p><span style="font-size: large;"> </span></p><p><span style="font-size: large;">यह सारा एफिडेविट इंगलिश में हाथ से फाउंटेन पेन या होल्डर से लिखा हुआ है, केवल प्रार्थी के हस्ताक्षर ही हिंदी में हैं। </span></p><p><span style="font-size: large;">यह १९६४ का है, पूरे ६० साल पुराना एफिडेविट ....मैं अपनी हैरानी को बहुत से लोगों के साथ बांट चुका हूं कि दारू पीने के लिए भी ऐसा परमिट लगता था ...</span></p><p><span style="font-size: large;">उत्सुकतावश मैंने फिर गूगल सर्च किया ....यह लिख कर के महाराष्ट्र लिकर परमिट १९६४ शपथ-पत्र, एफिडेविट ....इंगलिश में लिख कर सर्च किया....बहुत से रिजल्ट आए लेकिन ऐसा एफिडेविट कहीं दिखा नहीं ....परमिट तो होते ही होंगे ....उस दौर को परमिट राज भी कहते थे ....हर जगह परमिट, कोटा बंधा हुआ होता था ...राशन की दुकान में मिट्टी के तेल, शक्कर, आटे, चावल का और सीमेंट की दुकान में सिमेंट का, शायद कोयले का भी ...कोयले का तो मुझे अच्छे से पता नहीं ...लेकिन कोयले की दलाली करने वालों - 😎(दुकानदारों) को तो परमिट लगता ही था, मुझे किसी पुराने कोयले के डिपो का एक लड़का एक बार बता रहा था....</span></p><p><span style="font-size: large;">हम लोग बचपन में देखा करते थे, और बाद में भी कि कईं जगह पर किसी दारु की दुकान के साथ थोड़ी-बहुत जगह का जुगाड़ कर के उसके अंदर बैंच लगे होते, बाहर एक टॉट का टुकड़ा लटका होता और उस के बाहर बोर्ड लगा होता ....देसी दारु का मंज़ूरशुदा अहाता .....पंजाब ही में नहीं, हरियाणा में भी देखा ....ड्राई राज्यों को छोड़ कर सभी जगह होते ही होंगे ....अब देसी के साथ अंग्रेज़ी भी लिखा होता है ....</span></p><p><span style="font-size: large;">आज कल वैसे भी शराब की बिक्री को एक तरुह से बढ़ावा दिया जा रहा है ....गाड़ी कमाई हो रही है, एक्साईज़ टैक्स ही होता है न, इस की बिक्री से खूब कमाई होती है ...अब दारु ठेकों पर ही नहीं, दूसरी दुकानों या मॉल-वॉल में भी मिलने लगी है ....</span></p><p><span style="font-size: large;">लिखते वक्त भी उस ६० साल पुराने एक एफिडेविट का ख्याल आ रहा है कि इतने से काम के लिए भी लोग कैसे कानून का पालन करते थे ...और सरकारों को भी दारू की बिक्री से हासिल होने वाले टैक्स की ज़्यादा परवाह न थी....अब तो एक तथाकथित दारु घोटाले ने नेताओं की नींद उड़ा रखी है, कुछ तो नप चुके हैं कब के ....कुछ पर कार्रवाई की प्रक्रिया चल रही है ...</span></p><p><span style="font-size: large;">खैर, क्या वह पुराना दौर ही लाईसैंस, परमिट का था....आप को याद ही होगा िक पहले घर में रेडियो सुनने के लिए भी लाईसेंस बनता था डाकखाने में और रेडियो की क्वालिटी के मुताबिक (इंडियन है, या इंपोर्टेड या कितने बैंड का है, बैटरी वाला है या बिजली से चलता है) उस की लाईसेंस फीस तय होती थी.....मैंने एक बार उस लाईसैंस की फोटो भी साझा की थी, फिर कभी कर देंगे....१५ रूपये साल के लगते थे बढ़िया रेडियो को घर में रखने के लिए, और मैं जिस दौर की बात कर रहा हूं ....१९७० के आस पास की, उन दिनों मैंने भी डाकखाने में रेडियो के लिए ३-४ या पांच रूपए की लाईसैंस फीस भरी हुई है ........</span></p><p><span style="font-size: large;">सही बात है हमने दूरी तो काफी तय की है ....बड़े चेलेंज रहे हैं हमारे लोगों के सामने, खैर, वे तो हैं अभी भी, रहेंगे भी....बस, उन की टाईप बदल गई है....और जब कभी देसी दारु की बात चलती है या खुद ही याद आते हैं वे देसी दारु के अहाते, आम के अचार या उस के मसाले के ही साथ, तली हुई नमकीन दाल, या फिर सादे नमक को ही दारु के साथ थोड़ा चाट लेने वाले मंज़र याद आते हैं, अखबारों में देसी दारु से अचानक बीसियों लोगों का अपनी जान खो देना और अपनी आंखें खो देना याद आता है .....तो उसी वक्त एक अहाते में ही फिल्माया गया यह सुपर-डुपर ...सुपर-सुपर -डुपर गीत भी याद आए बिना नहीं रहता ...<iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/Z6ahS2FS8-I?si=qfInKOpfrkTVHY_H" title="YouTube video player" width="560"></iframe></span></p><p><span style="font-size: large;">अपने घर में दारु पीने के लिए भी परमिट की ज़रुरत वाली बात तो कभी भूलने वाली नहीं मुझे.....</span><span style="font-size: large;"><br /></span></p><span style="font-size: large;"><br /></span>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-86464465027709725902023-11-29T22:49:00.003+05:302023-12-16T20:26:52.128+05:30नमक स्वाद अनुसार .....<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhvVdY8x-JX1A0ZHcHiPXnV1uWYA_7oEs4qXebSvwEmeUzTxJhqb-Dq4WznGkc687TxZyjIeiK2_LpK4Pf548HXQyuSTz1IZsP8rCdH-xjuXB3f5hKK4Ae1PALI-23tFmsnIFvisvmnWVmO1Ly2dr8ZdT2O9qxEPN4dLdX9TTn4Kga_SGIdhW_ms8pxcng/s2443/IMG_5626.heic" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1851" data-original-width="2443" height="303" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhvVdY8x-JX1A0ZHcHiPXnV1uWYA_7oEs4qXebSvwEmeUzTxJhqb-Dq4WznGkc687TxZyjIeiK2_LpK4Pf548HXQyuSTz1IZsP8rCdH-xjuXB3f5hKK4Ae1PALI-23tFmsnIFvisvmnWVmO1Ly2dr8ZdT2O9qxEPN4dLdX9TTn4Kga_SGIdhW_ms8pxcng/w400-h303/IMG_5626.heic" width="400" /></a></div><br />एक बार टाइम्स ऑफ इंडिया में एक ख़बर दिखी थी -अमेरिका में कुछ रिसर्च हुई है कि अगर लोग जितना नमक खाते हैं, उस में से एक ग्राम नमक खाना कम कर दें तो अमेरिका में करोड़ों-खरबों डालरों की बचत हो जाएगी ...जो पैसा वैसे ज़्यादा नमक खाने से पैदा होने वाली बीमारियों पर खर्च होता है ...मुझे हैरानी नहीं हुई बिल्कुल यह पढ़ कर ...क्योंकि ज़्यादा नमक एक बहुत बड़ा विलेन तो है ही ...पोस्ट लिखने के बाद देखा तो मुझे मेरी एक दस वर्ष पुरानी पोस्ट याद आ गई ....<a href="https://drparveenchopra.blogspot.com/2014/11/blog-post_40.html">इस के बारे में यह रहा उस का लिंक.</a><br /><p></p><p>बचपन में हम लोग देखा करते थे कि हर घर में खाने की मेज पर या तो एक छोटी नमकदानी सजी रहती थी ...नहीं तो घर में कहीं भी खाना खाते वक्त कोई न कोई आवाज़ दे ही देता था कि ज़रा नमकदानी तो इधर भेजो....मुझे मेरी बड़ी बहन का ही ज़्यादा नमक खाना याद है ...वह तो ज़रूर ही दाल की कटोरी में एक्सट्रा नमक डालती और फिर उसे अकसर उंगली ही से झट से मिला भी देती दाल में ...बडा़ होेने पर मैं उस के पीछे अकसर पड़ा रहता हूं कि नमक कम खाना चाहिए....कहती हैं कि अब कम खाती हूं ...</p><p>मैं यह जो पोस्ट लिखने इस वक्त बैठ गया हूं उस का कारण यह है कि कल की टाइम्स में एक बड़ी अहम् खबर छपी थी कि कम नमक खाने का दर्जा एक तरह से उच्च रक्तचाप की दवाईयां खाने के बराबर है ....और उसमें मेडीकल रिसर्च की भी बात की गई थी ...मुझे उसमें लिखी हर बात मुनासिब लिखी ....दिल्ली के बहुत बड़े हृदय विशेषज्ञ ने भी इस बात की पुष्टि की है ...अगर आप उस खबर को देखना चाहें तो इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं...</p><p><b><a href="https://timesofindia.indiatimes.com/home/science/reducing-salt-intake-as-beneficial-as-bp-1st-line-drugs-study/articleshow/105542317.cms?from=mdr">Reducing Salt Intake as Beneficial as BP First-line drugs: Study </a></b></p><p>(Times of India, Mumbai ....28th Nov, 2023) </p><p>साधारण खाने से जितना नमक हम लोग दाल-सब्जी में खाते हैं उस की कोई खास बात नहीं है ....समस्या यही है कि खाने के अलावा हम लोग दिन भर यहां वहां जंक-फूक खाते रहते हैं वह तो नमक से लैस होता ही है ....हम लोगों की और भी बहुत सी आदते ैहं जो हमारे अंदर ज़्यादा नमक (सोडियम) डंप करती रहती हैं ...</p><p>छाछ, लस्सी, गन्ने का रस, अधिकतर फल हमें नमक के बिना काटने को दौड़ते हैं .....यही लगता है क्योंकि हम उन को बिना नमक लेते ही नहीं हैं....दही में भी नमक डालते हैं...शिकंजी में भी नमक जो चुटकी भर डालना होता है, हम उसमें भी मनमर्ज़ी करते हैं....</p><p>लिखते 2 ख्याल आया कि बचपन में हम लोग कच्चा आम, ईमली खाते वक्त भी एक हाथ में नमक रखते थे, उस के बिना नहीं खाते थे तरबूज, जामुन, फालसा, छोटे छोटे लाल रंग के बेर भी बिना नमक के नहीं खाते थे ..। लखनऊ में आप कहीं से भी जब मूंगफली लेते हैं तो वह खोमचे वाला उस में तीन चार नमक की पुड़िया ज़रूर रख देता है, साथ में हरी मिर्च की चटनी भी ....और हां, शकरकंदी लीजिेए भुनी हुई कहीं से ...वह भी हम कहां बिना नमक के खाते हैं, ....नमक और नींबू के बिना शकरकंदी का क्या मज़ा...। </p><p>लखनऊ की बात तो मैंने लिख दी ...लेकिन पंजाब, हरियाणा, दिल्ली विल्ली में हम लोग कहीं भी खड़े हो कर केले खाते हैं तो वह उन को काट कर उन में नमक ठेल देता है क्योंकि घर के बाहर कोई भी केला नमक के बिना खाता ही नहीं ....और वह नमक भी उसमें ऐसे ठूंस देता है जैसे कोई समाज कल्याण कर रहा हो ....केला हो गया, लईया-चना भी हमें नमकीन ही चाहिए, भुजिये मेें तो नमक भरा ही रहता है ....</p><p>अभी लिखते लिखते मुझे खुद डर लगने लग गया है कि हमारी खाने-पीने की आदतें भी कितनी खौफनाक हैं ....हम किसी की नहीं सुनते, सेहत से कोई लफड़ा हो जाता है तो हम समझते हैं कि विशेषज्ञ बचा लेगा, वह भगवान है ........ठीक है, छोटा मोटा भगवान तो वह है ही बेशक, एक बार तो मौत के मुंह से बाहर निकाल लेगा .......लेकिन हम कहां अपने खान-पान में कुछ सुधार करने को राज़ी होते हैं इतनी आसानी से ...</p><p>खीरा, ककड़ी भी खाएंगे तो भी नमक के साथ, सलाद में भी नमक...शराबी बंधु महफिल में भी कईं बार नमक ही रख लेते हैं अपने साथ (मैंने कई बार देखा कि शराबी बंधु जो काजू-चने न रख पाएं, वे कोई भी आचार ही रख लेते हैं ....और कईं बार तो देसी दारू पीते वक्त कुछ बंधुओं को साथ में चुटकी भर नमक चाटते देखा है .....यह किसी का मज़ाक नहीं बना रहा हूं ....क्योंकि वह काम मैंने कभी नहीं किया.....बस, कुछ बातें सच् सच अपनी पोस्ट में दर्ज करने के लिए लिख रहा हूं....</p><p>भुजिया खाने का तो मैं भी बड़ा शौकीन हूं ....लोकल स्टेशन पर बिना सोच विचार किए सेव-मुरमुरा, कुरमुरा, तली हुई मूंगफली, नमकीन दाल.....और भी बहुत कुछ --बस ऐसे ही ट्रेन की इंतज़ार करते करते खरीद लेता हूं ....पहले तो रोजाना ही ऐसा करता था, अब डरने लगा हूं ....महीने में शायद एक दो बार ...और घर में भी बीकानेरी भुजिया इत्यादि खाता ही हूं .........लेकिन यह पोस्ट लिखने भर से मेरी यह खराब आदत सही नहीं ठहराई जा सकती .....अपने पैर पर खुद कुल्हाडी़ मारने वाली बात है .....किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता ....</p><p>समोसे, वडा-पाव, भजिया-पाव.....चाइनीज़, हाका, मोमोज़......सच में बाहर जाते हैं तो लगता है जनता रब की बारात में आई हुई है ....(यह एक पंजाबी कहावत है ...इंज लगदै जिवें ओह रब दी जंजे आया होवे)....</p><p>काजू भी खाने हैं तो नमक वाले, पिस्ता भी नमक वाला ...भुने हुए चने भी नमकीन.....</p><p>कितनी लंबी लिस्ट लिखूंगा .....बस, यही मानिए की दाल-रोटी-सब्जी के अलावा हम जितना कुछ भी नमक वाला खा रहे हैं, वह हम अपने आप से धोखा कर रहे हैं......कुछ लिस्ट तो ऊपर दी है....और एक बात, ये जो आज की नईं जेनरेशन प्रोसैसेड फूड की दीवानी है न, यह सारे का सारा सोडियम से लैस होता है ....हम खुश होते हैं कि टिक्की आधे मिनट में तैयार हो गई, रेडीमेड दाल, चने, पनीर ...गर्म पानी में डालते ही खाने लायक हो गया ....इन के बारे में कभी अपने डाक्टर से बात करिए.....मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूं , सीधी सपाट बातें लिखता हू्ं ......लेकिन मुझे इन सब चीज़ों से बेहद नफरत है....यही वजह है कि मुझे कहीं भी बाहर जा कर खाना पसंद ही नहीं है .......कोई भी हो, कहीं भी है, कुछ भी हो.....बाहर जा कर कंट्रोल नहीं होता, तला-मला, फ्राई आने दो, और उस के बाद जलेबी, आईसक्रीम और गुलाब जामुन जब खाता हूं तो अपने आप से दिल ही दिल में क्या कहता हूं, वह तो मैं लिख भी नहीं सकता...</p><p>इस पोस्ट में तो नमक की ही बात कर रहे हैं, लेकिन अकसर जो चीज़ें हमारे खाने पीने की नमक से लैस होती हैं...वे अच्छे-बुरे घी, तेल, मसाले भी लैस होती हैं ...जैसे मटन,मुर्गा, मछली .....कोई भी नॉन-वैज हो...इसलिए उन्हें खाने से होने वाली पेचीदगी और भी ज़्यादा है ...</p><p>कहीं किसी पढ़ने वाले को यह नहीं लग रहा कि इतना डराया क्यों जा रहा है.......नहीं, नहीं, ऐसा कुछ नहीं है, वैसे भी कौन किस की सुनता है...हम चिकित्सक हैं, हम ही नहीं किसी की सुनते ....मैंने बताया न कि कैसे भुजिया खाते हैं, कैसे मीठा खाते हैं ....और फिर सिर पकड़ कर एसिडिटी से परेशान हो कर घंटो पड़े रहते हैं.... </p><p>दरसल, नमक -सोडियम क्लोराईड में सोडियम ही विलेन है ....इस का मतलब यह हुआ कि जिन जिन चीज़ों के बनाने में मीठा सोड़ा, बेकिंग पावडर आदि इत्यादि इस्तेमाल होता है उन में भी सोडियम तो है ही ....जो अधिक मात्रा में हमारी सेहत से कैसा खिलवाड़ करता है, यह हम सब जानते हैं....बार बार डाक्टर लोग बताते रहते हैं .....अखबारों में लिखा दिखता है, रेडियो-टीवी पर भी सुनते हैं ....</p><p>कभी ख्याल किया हो तो जब कोई दस्त से परेशान हो तो उस के लिए जो ओआरएस (जीवन रक्षक घोल) घर में बनाया जाता है उसमें भी एक लिटर पानी में चीनी, नींबू के साथ साथ एक चुटकी</p><p> नमक ही डाला जाता है ...</p><p>बेकरी के जितने भी उत्पाद हैं, बिस्कुट हो, या पेटीज़ हों या कुछ और, सब कुछ कॉमन-साल्ट से .....और अगर उस से नहीं भी तो किसी न किसी रूप में सोडियम तत्व उसमें मिला ही रहता है ...</p><p>यह पोस्ट भी ऐसी है, जो मन में आ रहा है, लिखते जा रहा हूं...क्या करें, डॉयरी हो या हो ख़त ..हम इसी तरह से लिखते रहे हैं ....</p><p>बातें तो बहुत हो गईं ...लेकिन पते की बात इतनी है जो मुझे समझ में आई है कि खाने में ...दाल, रोटी, साग, सब्जी में जितना नमक हम खा लेते हैं बस उतना ही काफी है, उतनी ही ज़रूरी है ....बाकी जो हम यहां वहां से ठूंसते फिरते हैं, वह तो बाद में उत्पात ही मचाता है ...किसी का आज, किसी का कल.......लेकिन तंग तो इस की बहुतायत से लोग रहते ही हैं ....डाक्टर भी क्या करें, कह ही तो सकते हैं.....</p><p>मेज़ के ऊपर छोटी नमकदानी रखनी ही नहीं चाहिए.....नमक मांगने के लिए कोई आलस ही करेगा....वरना, दाल, भाजी, सलाद, अमरूद ...छाछ सब में छिड़कने लगेगा....</p><p><b>सीख........आज के पाठ की वही घिसी-पिटी दशकोंं पुरानी सीख है कि नमक का कम इस्तेमाल करें ...जितना कम हो सके .....सब्जियों, फलों के माध्यम से भी हमें नमक (सोडियम) हासिल हो जाता है ...इस की कमी के बारे में इतना चिंता न करें...</b></p><p>हां, लिफाफा बंद करते करते एक बात याद आ गई ...वैसे भी मैं बीपी वीपी का कोई विेशेषज्ञ तो हूं कि मेरी इन बातों पर अंध-श्रद्धा करें और उन्हें पत्थर की लकीर की तरह मान लें, नहीं, आप अपने चिकित्सक से बात करें ....अपने फैसले खुद करें., अपने डाक्टर से बात करने के बाद ....और हां, मुझे कुछ महीने पहले किसी ने पूछा कि शरीर में हमेशा के लिए किसी के नमक कम भी हो सकता है क्या.....मुझे नहीं पता था, मुझे तो बस डी-हाईड्रेशन का ही पता था जिसमें किसी को कुछ दिनों के लिए नींबू-पानी, ओआरएस इत्यादि लेने की सलाह देते हैं....लेकिन उसने बताया कि डाक्टर ने उसे कहा है कि तुम ने हमेशा ही ज़्यादा नमक लेना है ....बात मेरे पल्ले नहीं पड़ी, मैंने साफ साफ कहा कि मुझे ऩहीं पता इस के बारे में ....</p><p><b>पोस्ट पढ़ने के बाद आप क्या सोचेंगे...क्या कुछ असर पड़ेगा भी या नहीं, लेेकिन जैसा कि मैं अकसर सोचता हूं कि इसे लिखना मेरे खुद के लिए एक रिमांइडर का काम करेगा....वैसे तो मैं नमक कम ही लेता हूं ...दही में, छाछ में, नहीं, जूस में नहीं, फ्रूट में नहीं, सलाद में नहीं.....जितना हो सके, ख्याल कर लेता हूं ...जंक भी न के बराबर, महीनों बीत जाते हैं एक वड़ा-पाव, समोसा खाए...बस, मुझे भुजिये इत्यादि खाते वक्त सोच विचार करना होगा .....</b></p><p><b><a href="https://drparveenchopra.blogspot.com/2008/01/blog-post_14.html">केवल नमक ही तो नहीं है नमकीन </a>... (पंद्रह बरस पुरानी मेरी एक पोस्ट....मुझे उसे पढ़ते पढ़ते हंसी आ रही थी....मैं ही नहीं बदला इतने बरसों में तो पढ़ने वालों से ऐसी उम्मीद क्यों करें, भई..) 😂😎</b></p><p><b>10 साल पहले भी कुछ लिखा था नमक के बारे में ...अगर देखना चाहें तो यहां देखिए....<a href="https://drparveenchopra.blogspot.com/2014/08/blog-post_15.html">ज़्यादा नमक का सेवन कितना खतरनाक है!!</a></b></p><p>वैसे नमक हो, तेल हो, मीठा हो, तीखा हो...जितनी गड़बड़ी हम लोग अपने खानेपीने में कर रहे हैं, उस के बारे में आज की टाइम्स आफ इंडिया में भी एक बहुत बड़े डाक्टर ठक्कर का एक लेख आया है....देखिए, उन्होंने सब कुछ कितना सच सच लिख दिया है, और वह भी इतनी सहजता के साथ ...उस लेख को भी देख लीजिए लगे हाथों.......क्या पता, मेरी बात का नहीं, उन की बात का ही असर हो जाए.....<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNCV7GQqnd2MLTFioK7FdMgGQGJIN8CsNElQkSfyfvBFn0DqTx4S7WwMnE0YHiP4zeoPwdOVsjcMBAEFBYwdUNvrXuSa9AMXpMnXH4l9qBuykdKKYnzJYBQKrpjmFqf9Dzsv0xovjSzhHr0mbhP1Ze_LMtgpZ6ob9bcb3W5MfUmMhO5xQDwx3ddaetG_0/s4025/IMG_5625.heic" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1402" data-original-width="4025" height="139" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNCV7GQqnd2MLTFioK7FdMgGQGJIN8CsNElQkSfyfvBFn0DqTx4S7WwMnE0YHiP4zeoPwdOVsjcMBAEFBYwdUNvrXuSa9AMXpMnXH4l9qBuykdKKYnzJYBQKrpjmFqf9Dzsv0xovjSzhHr0mbhP1Ze_LMtgpZ6ob9bcb3W5MfUmMhO5xQDwx3ddaetG_0/w400-h139/IMG_5625.heic" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">times of India 29.11.23 (click on pic to read it) <br /></td></tr></tbody></table></p><p>नमक स्वाद अनुसार....शीर्षक इस लिया रखा क्योंकि उस वक्त इसी का ख्याल आया क्योंकि इसी नाम से एक किताब आई थी 2-3 बरस पहले ...साहित्यिक कृति थी ...कोई डाक्टरी नहीं झाडी़ थी उसमें लेखक ने .....और जो ऊपर बहुत पहले मैंने कल की खबर का लिंक दिया है कि कम नमक को ब्लड-प्रेशर की दवाई जैसी अहमियत दी गई है ....उस का मतलब यह नहीं कि आप जो दवाईयां ले रहे हैं, उन्हें बंद कर दें और नमक खाना कम कर दें.......ऐसा नहीं, दवाईं अपने डाक्टर की सलाह अनुसार लेते रहें, मेरे कहे मुताबिक यह देखें हर वक्त खाते समय कि क्या नमक का यह इस्तेमाल ज़रुरी है या मेरी जान ज़्यादा ज़रूरी है........जो भी जवाब मिले, उसी मुताबिक आगे की रणनीति तय करिए .....😂.....</p><p>लेकिन मैं इतने लिखने के बाद अब कल से नमक के इस्तेमाल के बारे में और भी ज़्यादा सचेत रहने की कोशिश करूंगा....एहतियात बरतूंगा....</p><p>एक बात और सता रही है ....नमक स्वादानुसार ....यह अकसर पत्रिकाओं में जो रेसिपी लिखी होती हैं उन के नीचे लिखा रहता था....था इसलिए कि अब कहां ये सब इतना छपता है मैगजीन में ...और एक बात, हिंदोस्तानी घरों में अगर कभी दाल या सब्जी में नमक ज़्यादा पड़ जाए तो घर की गृहिणी को ऐसे लगता है मानो उसने कोई संगीन ज़ुल्म कर दिया हो ....इस तरह की दकियानूसी बातें हैं भाई जो कचोटती हैं....नमक ज़्यादा पड़ भी गया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा.....हमारे मोहल्ले में एक सिपाही रहता था ....जब उस कबख्त की दाल में सिपाहिन से कभी नमक ज़्यादा पड़ जाता था तो रोटी की थाली दूर फैंक देता था.....और सारा घर सहम जाता था....अरे, भई पकी पकाई मिल रही है....खा ले ....नमक ज़्यादा है तो दो चम्मच दही डाल ले...</p><p>लिखते लिखते सिर भारी हो गया है खामखां ....चलिए, सुनयना फिल्म की गीत सुनता हूं भारीपन को दूर भगाने के लिए....1979 की फिल्म ...मैंने कालेज में नये नये पैर रखे थे, रात में कभी कभी विविध भारती लग जाता था तो उस में यह गीत बजता था ...सुन कर मज़ा आता था ....परसों इसे बहुत अरसे बाद विविध भारती पर सुना ....</p><p><br /></p><iframe width="420" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/_2H32Ojp1e0?si=tj9uu944hZUT3hIL" title="YouTube video player" frameborder="0" allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen></iframe>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-30173900594374370622023-11-23T15:18:00.020+05:302023-12-16T20:26:56.735+05:30मुक़द्दर तो उन का भी होता है जिन के हाथ नहीं होते ....<p><span><span style="font-size: large;">आते जाते रस्तों पर कुछ मंज़र ऐसे होते हैं जो दिलोदिमाग में जैसे सेव हो जाते हैं..सेव ही नहीं हो जाते....लेकिन बार बार उन की फाइल ख़द-ब-ख़ुद खुलती रहती है दिन में कईं बार ...</span></span></p><p><span><span style="font-size: large;">आज सुबह जब मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ आई इक्नॉमिक टाइम्स खोली तो मुझे दो पन्नों पर पसरा हुआ एक इश्तिहार नज़र आया....इश्तिहार किसी बहुत बड़े प्राईव्हेट बैंक का था...जिसमें एक बाप अपने बेटे को एक टॉय-मोटर कार में बिठा कर घुमा रहा है ....दोनों इस मस्ती का भरपूर आनंद लेते नज़र आए...</span></span></p><p><span><span style="font-size: large;">इस इश्तिहार को देखने के बाद मुझे दो दिन पुराना मुंबई सीएसटी स्टेशन का एक मंज़र याद आ गया....याद क्या आ गया, वह दृश्य तो मेरे साथ ही रह गया तब से....</span></span></p><p><span><span style="font-size: large;">दो दिन पहले मैं बाद दोपहर में मुंबई सीएसटी लोकल स्टेशन पर लोकल-ट्रेन से उतरा और मैं प्लेटफार्म पर चल रहा था तो अचानक मैंने एक खड़खड़ाहट की आवाज़ सुनी....देखते ही देखते लोकल ट्रेन के साथ वाले डिब्बे से एक दिव्यांग युवक ने प्लेटफार्म पर लकड़ी से बना एक जुगाड़ सा निकाला जिस के नीचे पहिए लगे हुए थे ...उसे प्लेटफार्म पर रखते ही, वह भी डिब्बे से बाहर कूदा और झट से उस के ऊपर बैठ कर अपने परिवार के साथ बाहर की तरफ़ चलने लगा...</span></span></p><p><span><span style="font-size: large;">मैं यह देख रहा था कि उस की भुजाओं में अच्छी शक्ति थी जितने बल से वह उस जुगाड़ को चलाने में उन को इस्तेमाल कर रहा था ...मैं यही सोच रहा था कि सब ईश्वर के रंग हैं, अगर किसी चीज़ की कमी रह जाती है तो दूसरे तरीके से उस की भरपाई करने की कोशिश करता है ....</span></span></p><p><span><span style="font-size: large;"></span></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span><span style="font-size: large;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHG5lE0xXOnFCp-RshptXQe9glqj_2q8jYaNW8NPYGdnV_D7QLQYS1IxznFcI36YJrZdnqtHfEATvEQfDDRo6OGIh38_LwbCD9PsJS8GWJaqVp8ZzOiS1UINjBEVUgVm3_niF6iwiNwb3x6UbleeMGD7ejhOglD6OG86I3eYzMJk8uCcf_b5lpEX9LxGg/s1024/WhatsApp%20Image%202023-11-23%20at%202.59.39%20PM.jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1024" data-original-width="768" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHG5lE0xXOnFCp-RshptXQe9glqj_2q8jYaNW8NPYGdnV_D7QLQYS1IxznFcI36YJrZdnqtHfEATvEQfDDRo6OGIh38_LwbCD9PsJS8GWJaqVp8ZzOiS1UINjBEVUgVm3_niF6iwiNwb3x6UbleeMGD7ejhOglD6OG86I3eYzMJk8uCcf_b5lpEX9LxGg/w300-h400/WhatsApp%20Image%202023-11-23%20at%202.59.39%20PM.jpeg" width="300" /></a></span></span></div><span><span style="font-size: large;"></span></span><p></p><p><span><span style="font-size: large;">खैर, अभी दस बीस कदम ही चले होंगे कि मैंने देखा कि उस के साथ चलने वाली महिला (संभवत उस की बीवी ही होगी) उस को कुछ पकड़ाने की कोशिश कर रही थी ...मैं उस तरफ़ ठीक से देख नहीं रहा था, इसलिए मुझे लगा कि थैला, बैग इत्यादि उस को थमा रही होगी....</span></span></p><p><span><span style="font-size: large;">लेकिन नहीं, मुझे उसी वक्त पता चल गया कि उस ने जो छोटा बालक उठाया हुआ था उसे उसने उस की गोद में दिया है ...मुझे इस बात ने छू लिया....</span></span></p><p><span><span style="font-size: large;">और मैंने थोड़ा आगे चल कर देखा कि वह अबोध बालक अपने बाप की गोद में भरपूर खुश था ....होता भी क्यों न, बाप की गोद मेंं था ....वह इधर उधर के नज़ारे देखते ही उछल रहा था ...</span></span></p><p><span><span style="font-size: large;"></span></span></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjP7eR3T736DVj9164j5NodBhSlzaT9vBd6uIopcm7HONH5SBgxB0LEUDdbaSz7-DPnCuq1x46VidhjrM8r1ZzhqbmXm48mBNxJa_VIzjD3DxsLFsTuzUsUiwPC6q97GUFKvfaZmA6BOQpASsWyn4P0Iq9_v83cQ2-SLE0yJRgY0Ma1DmwPON8gV518sgo/s1024/WhatsApp%20Image%202023-11-23%20at%203.00.14%20PM.jpeg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><span style="font-size: large;"><img border="0" data-original-height="1024" data-original-width="768" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjP7eR3T736DVj9164j5NodBhSlzaT9vBd6uIopcm7HONH5SBgxB0LEUDdbaSz7-DPnCuq1x46VidhjrM8r1ZzhqbmXm48mBNxJa_VIzjD3DxsLFsTuzUsUiwPC6q97GUFKvfaZmA6BOQpASsWyn4P0Iq9_v83cQ2-SLE0yJRgY0Ma1DmwPON8gV518sgo/w300-h400/WhatsApp%20Image%202023-11-23%20at%203.00.14%20PM.jpeg" width="300" /></span></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: large;">हर बच्चे के लिए उस के सुपर-डुपर हीरो उस के मां-बाप ही होते हैं जिन की गोद ही काफी है ....मनवा बेपरवाह </span></td><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: large;"><br /></span></td><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: large;"><br /></span></td></tr></tbody></table><p></p><p><span><span style="font-size: large;">मंज़र तो कुछ ज़्यादा ही दिल को छू लेने वाला था कि एक दिव्यांग बाप जिस की दोनों टांगे कटी हुई हैं, वह एक लकड़े के जुगाड़ की मदद से प्लेटफार्म पर चल रहा है, और साथ में अपने नन्हे बालक को भी उस की सवारी करवा रहा है ...</span></span></p><p><span style="font-size: large;">जैसे ही मैंने इस परिवार को देखा तो मुझे भारतीय रेल की महानता का ख्याल भी आया कि इस भारतीय रेल के कारण ही यह पूरा परिवार इस तरह से सफर करते हुए मुंबई सीएसटी तक पहुंच भी गया और जो भी इन का उस दिन का प्रोग्राम रहेगा, उस के बाद इसी तरह से ये लोग अपने आशियाने में भी सकुशल लौट जाएंगे....जय हो भारतीय रेल मैया की...निःसंदेह यह मां की तरह अपने सभी यात्रियों का ख्याल रखती है..</span></p><p><span style="font-size: large;">कुछ मंज़र ऐसे होते हैं जो बस उम्र भर याद रह जाते हैं...जून 2007 की बात है, हम लोग कुल्लू-मनाली की यात्रा पर निकले थे...चंडीगढ़ से एक गाड़ी ले ली थी ...उस का ड्राईवर भी छोटी उम्र का ही था...यही कोई 20-22 बरस का रहा होगा....कुल्लू से चले तो मनाली पहुंचने से पहले मनीकरण में एक बहुत ऐतिहासिक गुरूद्वारा है ...कुल्लू से यही कोई एक घंटे का रास्ता होगा....पहाड़ों की सड़कों के बारे में तो आप जानते ही हैं...ऊपर से उस सड़क की मुरम्मत का काम चल रहा था ...जिस की वजह से किनारे एकदम कमज़ोर से ...भुरते हुए ....एकदम शिथिल ...सड़क इतनी संकरी की क्या कहें, लिख नहीं पा रहा हूं ....और सड़क के एक किनारे पर पहाड़ और दूसरी तरफ़ नीचे ब्यास नदी जो पूरे उफान पर थी ...जो पूरे शोर के साथ अपने गन्तव्य की तरफ़ भाग रही थी ....उस रोड़ पर जाते वक्त इतना डर लगा उस दिन कि आज 16-17 बरस हो गए हैं इस बात को ..लेकिन उस के बाद कभी भी किसी रोड़ से डर नहीं लगा....यही लगता है कि अगर उस दिन इतनी जोखिम वाली रोड़ पर ड्राईवर ने गाड़ी चला ली तो दूसरी सड़कों की तो ऐसी की तैसी....यह हुई एक बात...</span></p><p><span style="font-size: large;">दूसरी बात यह है कि मैं जिन 7-8 बरसों में लखनऊ में रहा ...वहां के बहुत बड़े बड़े खूबसूरत बाग़ देखने का, उन में सुबह शाम टहलने के बहुत मौके मिले....किसी महिला को वॉकर के साथ सुबह टहलते देखता, किसी को उस की बिल्कुल झुकी हुई रीढ़ की हड्डी के बावजूद भी टहलते देखता तो मैं अचंभित हुए बिना न रह पाता....एक बार तो इतने बुज़ुर्ग को देखा जो चींटी की चाल से चल रहे थे ...85-90 बरस के रहे होंगे ..लेकिन जब मैंने उन से बात की तो उन्होंने बताया कि वे रोज़ाना आते हैं और पूरे बाग का चक्कर काटते हैं....मैं यही सोचता रह गया कि बढ़िया है यह घर से बाहर तो निकलते हैं ..लेकिन कब चक्कर शुरु करते होंगे और कब उसे मुकम्मल कर पाते होंगे...खैर, इस के अलावा भी मैंने बहुत से ऐसे लोगों को देखा जो शायद घुटनों के हालात की वजह से मुश्किल ही से चल पा रहे होते....लेकिन उन का निश्चय पक्का होता.... सुबह की सैर के इन सब किस्सों पर मैंने इस ब्लॉग में दर्जनों पोस्टें भी लिख दीं...केवल इसलिए कि इन यादगार लम्हों को सहेज लिया जाए कैसे भी ...</span></p><p><span style="font-size: large;">बंबई में भी लोकल ट्रेनों में 80 बरस से भी ऊपर के बुज़ुर्गों को ट्रेन में आते जाते और खास कर चढ़ते उतरते देख कर अब मुझे हैरानी नहीं होती....क्योंकि यह बात तो मेरी समझ में आ चुकी है कि ये लोग शायद पिछले 60-70 बरस से इन्हीं ट्रेनों पर सफर कर रहे हैं...इन को कौन सेफ्टी समझाएगा...वे इन ट्रेनों के वक्त के बारे में, जिस वक्त इन में भीड़ नहीं रहती, कौन सा लेडीज़, जेंट्स, बुज़ुर्ग डिब्बा किस जगह आएगा और किस में चढ़ना है और कहां से आसानी से बाहर निकलना है, इस पर ये बुज़ुर्ग शोध किए हुए हैं...शारीरिक तौर पर थोडे़ कमज़ोर लगते होेंगे, लेकिन बौद्धिक एवं आत्मिक तौर पर एकदम टनाटन हैं....और कईं वयोवृद्ध महिलाओं पुरूषों ने तो अपनी लाठी के साथ कुछ सामान भी उठाया होता है ....</span></p><p><span style="font-size: large;">यह सब मैं क्या लिख रहा हूं...इसलिए लिख रहा हूं कि हम सब इन लोगों से प्रेरणा ले सकें....हम सुबह शाम टहलने न जाना पड़े, इस के लिए नए नए बहाने अपने आप ही से करते हैं अकसर .....लेकिन ऊपर आपने उस दिव्यांग बंदे की चुस्ती-फुर्ती देखी ...अभी उस की फोटो भी लगाऊंगा....सिर्फ इसलिए कि बिना फोटो के आप लोग बात मानते नहीं हो, और अगर फोटो लगी होगी तो सब को प्रेरणा भी मिलेगी कि अगर यह बंदा दुनिया को जीने का अंदाज़ सिखा रहा है, तो हमें तो कुछ भी नहीं हुआ, लेकिन फिर भी हम कभी खुश नहीं रहते ....कभी ईश्वर को कोसते हैं, कभी किसी दूसरे को, कभी तीसरे को ....हर वक्त यही चलता रहता है ....</span></p><div style="text-align: left;"><span><span style="font-size: large; font-weight: normal;">पल पल हर वक्त हंसते हुए इस ईश्वर का शुक्राना करने के अलावा जीने का कोई तरीका ही नहीं ....कुछ भी तो हमारे नियंत्रण नहीं है, इसलिए ईश्वर जिस भी हालात में रखे, उस का शुक्रिया तो करना बनता ही है ....सांसें चल रही हैं....बाहर गई सांस वापिस लौट कर आ रही है, इस से बड़ी अद्भुत बात क्या होगी....प्रकृति के रहस्य क्या जानेंगे, क्या करेंगे....आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आ जाए, चैट जीपीटी आ जाए ...मानवीय संवेदनाएं हमेशा से सर्वोपरि हैं, रहेंगी ...इन की पैमाईश कौन करने बैठेगा ...जब तक सांसों की डोर चल रही है, सब कुछ संभव है....</span></span></div><div style="text-align: left;"><span><span style="font-size: large; font-weight: normal;"><br /></span></span></div><span style="font-size: large;"><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frame="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/6o36cwCfPHA?si=CEDamuxXJbr8FotL" title="YouTube video player" width="560"></iframe></span><p><span style="font-size: large;">ओ हो ...यह पोस्ट तो बड़ी भारी भरकम लग रही है ....हां, बार बार उस दिव्यांग का ही ख्याल आ रहा है कि उसने हार नहीं मानी, किसी से गिला-शिकवा नहीं किया, अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ा, अपने नन्हे-मुन्ने को अपनी गोद में लेकर मुंबई दिखाने निकल पड़ा ....जब कि हम अक्सर देखते हैं जो लोग हर तरह से सक्षम होते हैं, साधन-संपन्न होते हैं कईं बार इस तरह के सैर-सपाटे में उन के नौकर-चाकरों ने बाबू को उठाया होता है ....</span></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjgj5UJYI4Y5lfVz5OA4l3gN5gyhyphenhyphenGCNVeDfXhE1W3hHI3s4Q4iA7QR_0rBWi06O5PT2MIawOUrSIX-lk5hnXCQ_sF2F9xc_orqtSOLU6yH9qMzG92eXdLoWg4ch9Wm4FzTlfMuobjHJaan2vvl_oXdzNP9bfqUFRjc-iuDU0EelRMyhPQEIElDE-YRsaQ/s1024/WhatsApp%20Image%202023-11-23%20at%203.01.35%20PM(1).jpeg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><span style="font-size: large;"><img border="0" data-original-height="768" data-original-width="1024" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjgj5UJYI4Y5lfVz5OA4l3gN5gyhyphenhyphenGCNVeDfXhE1W3hHI3s4Q4iA7QR_0rBWi06O5PT2MIawOUrSIX-lk5hnXCQ_sF2F9xc_orqtSOLU6yH9qMzG92eXdLoWg4ch9Wm4FzTlfMuobjHJaan2vvl_oXdzNP9bfqUFRjc-iuDU0EelRMyhPQEIElDE-YRsaQ/w400-h300/WhatsApp%20Image%202023-11-23%20at%203.01.35%20PM(1).jpeg" width="400" /></span></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: large;"> और इस इश्तिहार की टैग-लाइन पर गौर फरमाईए.... दौलत के सफर की शुरूआत ...<br /></span></td></tr></tbody></table><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-size: large;"></span></div><p></p><p><span style="font-size: large;">और हां, यह तस्वीर भी देख लीजिए जो अखबार में दिखी ....ठीक हैं, ये बाप बेटा भी खुश हैं लेकिन जो प्लेटफार्म पर बाप-बेटा एक लकड़ी के पटडे़ पर निकल पडे़ हैं, उन की खुशी..खास कर उस नन्हे बालक की खुशी मुझे किसी तरह से कम न दिखी ...आप को क्या लगता है? कहीं यह मेरी नज़र का धोखा तो नहीं या मुझ से कुछ देखने में छूट रहा है ....<br /></span></p><span style="font-size: large;"><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/CbALz5gKfxw?si=R_cnwMKkSoRsiHav" title="YouTube video player" width="420"></iframe></span>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-30417535780182532092023-10-01T12:02:00.003+05:302023-12-16T20:27:05.002+05:30आज अचानक स्टोव याद आ गया...<p>15.9.23</p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRit8P0Bn8fklGsWLSEpPz5Al8y8ho2hG6xtB-tPUN_oHCdHjowlIHDGvjRnpseZTTxmWpDIkB97e9EESVw44wqLCmg8dRhjykBZ0PstFjdS-uDsV240HDpoQXyYGOJvCSnKMaxpIEBMWzdYAI9FNvfeMXQf4xRfYgru8QZjMsSzWKgHe1-DD_DjTTZEo/s4032/IMG_2892.HEIC" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRit8P0Bn8fklGsWLSEpPz5Al8y8ho2hG6xtB-tPUN_oHCdHjowlIHDGvjRnpseZTTxmWpDIkB97e9EESVw44wqLCmg8dRhjykBZ0PstFjdS-uDsV240HDpoQXyYGOJvCSnKMaxpIEBMWzdYAI9FNvfeMXQf4xRfYgru8QZjMsSzWKgHe1-DD_DjTTZEo/w300-h400/IMG_2892.HEIC" width="300" /></a></div><br />आज शाम मैं पैदल स्टेशन की तरफ़ जा रहा था तो मेरी निगाह अचानक मेरे आगे चल रहे एक शख्स पर पडी जिसने स्टोव उठा रखा था....मुझे याद नहीं इस तरह से स्टोव को हाथ में उठाए मैंने आखिरी बार कब देखा था...वह भी स्कूल और कभी कालेज के दिनों में ही ...मैंने झट से इस मंज़र की एक-दो तस्वीरें खींच लीं....क्योंकि एक दो पिछले साल एक एंटीक शॉप में ही देखा था इस तरह का स्टोव...बाकी तो यह सब अब कहां दिखता है...<p></p><p>इंसान भी कितना जिज्ञासु जीव है ...फोटो खींच लेने के बाद मुझे यह चाह होने लगी कि किसी तरह इस शख्स से दो बातें भी हो जाएं...बस फिर क्या था, मैं दो चार कदम तेज़ चला और उस के पास पहुंच कर मुस्कुराते हुए कहने लगा कि आज मुद्दतों के बाद इस स्टोव के दर्शन हुए ....मेरी बात सुन कर वह भी हंसने लगा ...बस, फिर बात चल निकली। </p><p>उस ने बताया कि यह स्टोव उस के पड़ोस में अकेले रहने वाली एक बुढ़िया काकी का है ....उन का पति सरकारी नौकरी करता था, रिटायर होने के बाद अब वह परलोक सिधार चुके हैं, महिला को पेंशन आती है, आराम से बैठ कर खाती है...फ्लैट अपना है उस काकी का ...दो बेड-रूम वाला ....एक लड़की है जिस की शादी हो चुकी है और वह इंगलैड में रहती है। काकी कहीं आती जाती नहीं, और अगर कहीं जाना भी हुआ तो टैक्सी में ही जाती है, मैं उस की मदद के लिए साथ चला जाता हूं। </p><p>वह अपने आप ही कहने लगा कि घर का सामान, सब्जी-फल सब वह ही लाता है..दस बीस रूपये दे देती है ..चाय पिला देती है ...वह कहने लगा कि वैसे तो मदद करने के एवज़ में किसी से कुछ लेना नहीं चाहिए...मैंने कहा, ऐसी क्या बात है, वह खुशी से ही तो देती है तु्म्हें अपना समझ कर। हां. हां --वह कहने लगा कि यह तो है और अगर कभी उस की चाय न पियो तो नाराज़ हो जाती है, गुस्सा करती है कि तुम मेरी चाय भी नहीं पीते। कहने लगा कि आधार कार्ड दिखा रही थी मुझे कुछ दिन पहले 1931 का जन्म है उस काकी है। </p><p>1.10.23</p><p>मैंने अभी देखा मैंने इस पोस्ट को लिखना तो दो सप्ताह पहले शुरू किया था ...लेकिन याद है कि अचानक लिखते लिखते नींद आ गई...सो गया...और फिर कभी इसे पूरा करने की इच्छा ही न हुई। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTnwMHoEiOPMW5TkRp0WhJW-9xJqWdrzxe4alCK7Ay9rYkP9VJXffGNQRAZY2l8zJB1VPmYx8riwkhoM6ODcP6-2VlAZe-yrAJl4wOfzwMB9MZwgpLe7-Xxi7S-E9C3-gv-4LRLAbaH4YquGksReZD0MkMdleCexqWH0W8Cu1yxfBW0VBcSfRuXSZ_0m4/s4032/IMG_2894.HEIC" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTnwMHoEiOPMW5TkRp0WhJW-9xJqWdrzxe4alCK7Ay9rYkP9VJXffGNQRAZY2l8zJB1VPmYx8riwkhoM6ODcP6-2VlAZe-yrAJl4wOfzwMB9MZwgpLe7-Xxi7S-E9C3-gv-4LRLAbaH4YquGksReZD0MkMdleCexqWH0W8Cu1yxfBW0VBcSfRuXSZ_0m4/w300-h400/IMG_2894.HEIC" width="300" /></a></div><p>अब देखता हूं लिखते लिखते क्या बातें उस दिन की याद हैं ..बची खुची। लिखना ज़रुरी है ...कुछ भी जो मन में आए लिखते रहा करें...कुछ भी ...बरसों बाद यही साहित्य कहा जाएगा..। हां, मैंने पूछा कि कहां से इस स्टोव को मुरम्मत करवा लाए। उसने जगह का नाम बताया ....और यह भी बताया कि मुरम्मत पर 50 रूपए खर्च हुए हैं...</p><p>चलते चलते मुझे ख्याल आया कि मिट्टी का तेल (घासलेट, केरोसीन) तो आज कल मिलता नहीं है....उसने बताया कि सब मिलता है ..लेकिन अब सफेद रंग में मिलता है और 100 रुपए लिटर मिलता है। वह उस काकी के लिए खरीद के लाता है। रास्ता अभी पड़ा था...और मैंने उस से यह भी पूछ ही लिया कि जैसे एक स्टोव खराब हो गया तो जब तक वह ठीक नहीं हो जाता तब तक उस वृद्धा का खाने-पकाने का काम कैसे चलता है। उसने बताया कि काकी बहुत होशियार है, उसने दो स्टोव रखे हुए हैं, चकाचक हालात में हैं दोनों...एक खराब हुआ तो दूसरे स्टोव से उस का काम चल जाता है। </p><p>मैंने उस से कहा कि आज के ज़माने में भी स्टोव का इस्तेमाल करना ...कुछ हैरान सा करता है। कुकिंग गैस का कनेक्शन क्यों नहीं ले लेतीं वह ...यह सुन कर उसने बताया कि ले सकती हैं, ज़रूर ले सकती हैं लेकिन उसे गैस के चूल्हे से आग लग जाने का डर लगता है ....</p><p>मुझे उस की यह बात सुन कर यह ख्याल आया कि यह जलने-जलाने का सिलसिला तो स्टोव के दिनों में भी होता रहा ....मुझे याद है हम छोटे छोटे थे, मां जब स्टोव को जलाने के लिए संघर्ष कर रही होती बार बार पिन मार मार कर और अगर हम साथ ही बैठे होते तो हमें झट से परे कर देती कि दूर रहो, यह अचानक कईं बार धधक पड़ता है ....हम दूर हो जाते ..वह लगी रहती। </p><p>मुझे याद है वर्ष 1972 दिसंबर के आखरी हफ्ते में हमारे यहां अमृतसर में कुकिंग गैस आई थी, कुल खर्च दो सौ रुपए से कम आया था ...सिलेंडर उन दिनों 21 रूपये का होता था.(इस की रसीद बरसों पहले मुझे मेरे पिता जी की लोहे की संदूकची में पड़ी मिली थीं जिस में वह ज़रूरी कागज़ रखते थे) ....दूसरा सिलेंडर उन दिनों नहीं मिलता तो, कईं कईं दिन बुकिंग करवाने के बाद इंतज़ार करना होता था, वेटिंग लिस्ट हुआ करती थी, काला बाज़ारी ज़रूर होती होगी, सुनते थे ...लेकिन अपने पास ये सब साधन नहीं थे, इसलिए इत्मीनान से मां अपनी पुरानी अंगीठी और स्टोव का रुख कर लेती। </p><p>जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है ....गैस सिलेंडर खत्म होने पर या घर में कुकिंग गैस आने से पहले घर में अंगीठी का ही ज़्यादा इस्तेमाल होता था... स्टोव कभी कभी एमरजेंसी में जलाया जाता था क्योंकि मिट्टी का तेल भी उन दिनों राशन की दुकान से ही मिलता था ...यही कोई पांच लिटर महीने का ...और वह राशन की दुकान वाला बड़ा धूर्त था ...कितने चक्कर लगवाता था, बड़ी बहन के लेडी-साईकिल के कैरियर के पीछे पांच लिटर की पीपी लेकर वहां जाना याद है ....और पांच लिटर की उस की क्षमता होते हुए भी वह उसमें पांच लिटर तेल जब डाल देता तो भी वह ऊपर तक न दिखता ....घर आने पर जब मां देखती कि कितना कम है, तो वह भी उसे कोसने लगती....खैर, दिन बढ़िया चल रहे थे ....मिट्टी का तेल तो शायद दूसरी दुकानों से भी मिल ही जाता होगा और कभी हम लोग ले भी आते होंगे ...एमरजैेंसी में ....लेकिन यह सब ब्लैक में कैरोसीन हो या सिनेमा की टिकटें खरीदना ....यह अपने लिए कभी सिरदर्दी न रहा क्योंकि हम लोग हैंथ टू माउथ जीने वाले लोगों की श्रेणी में आते थे ...अब तो कईं फेशुनेबल लफ़्ज़ आ गए हैं ...शू-स्ट्रिंग बजट पर जीना .....इत्यादि इत्यादि ....सही मायने वही लोग जानते हैं जो उस वक्त के साक्षी रहे हैं...</p><p>हां, तो अंगीठी तो तभी जलाई जाती थी जब सारा खाना उस पर पकाया जाना होता...लेकिन ऐसे ही चाय वाय उबालने के लिए, दूध गर्म करने के लिए स्टोव ही जला लिया जाता...गैस आने के बाद अंगीठी और चूल्हा दूर होते गए, लेकिन तब भी बढ़िया सी दाल और सरसों का साग इस की आंच पर ही पकता....गैस पर पके हुए सरसों का साग हमे बकबका लगता, दाल भी फीकी लगती ....हा हा हा हा हा ......यह तो हम थे, उन दिनों लोग यह भी शिकायत करने लगे थे अड़ोस-पड़ोस में कि जब से गैस आई है उन के तो पेट मे गैस बनने लगती है ...😎😀 ...वैसे तो जब नए नए स्टील के बर्तन 1970 के आस पास चलने लगे तो यह अफवाह आम थी कि इन के इस्तेमाल से कैंसर हो जाता है ...😇</p><p>पीतल का स्टोव मुझे अच्छे से याद है जिस को बार बार मुरम्मत के लिए ले जाना पड़ता था कभी उस का कुछ खराब हो जाता तो कभी कुछ ...लिखते लिखते बातें याद आ जाती है...उन दिनों हमने यह भी सुना था कि कईं बार कोई स्टोव फट गया ....किसी का चेहरा जल गया...मां को इसलिए भी स्टोव से बड़ा खौफ़ लगता था ....उसे एकदम चालू हालत में रखती थीं...मुझे इतना याद है कि जब बहुत छोटे थे तो हमें पांच पैसे की स्टोव की पिन लेकर आनी होती थी ...पांच पैसे की पांच ...जिस से स्टोव को जलाने में मदद मिल जाती थी ...कईं बार दो तीन पिन बार बार स्टोव के सुराख में जब वह न जलता तो मैं परेशान हो जाती ....थक भी जाती होंगी, झुंझलाती भी होंगी ...लेकिन नहीं खाना तो पकना ही होती, चाय और परांठे भी तैयार होने होते ...इसलिए झट से अंगीठी जलाने की तैयारी करने लगती ....कईं बार सोचता हूं तो लगता है कि मेरी उम्र के अधिकतर लोगों ने भी बहुत से दौर देखे हैं, हम बदलते वक्त के गवाह रहे हैं...और हां, स्टोव जलाने के लिेए एक कॉक भी तो हुआ करता था जिसे मिट्टी के तेल के छोटे से डिब्बे में डुबो कर रखा जाता था ...यह भी स्टोव जलाने में मददगार होता था ...</p><p>हां, जब गैस आ गई तो धीरे धीरे जागरूकता के चलते अंगीठी तो रसोई के बाहर ही रखी जाती और स्टोव भी ....उन दिनों हम लोग बहुत डरते थे गैस से ...दिन में जितनी बार गैस को जलाना, उतनी बार बुझा कर, नीचे से उस की नॉब को घुमा कर बंद भी करना ...कस कर ....इतना कस कर कईं बार कि अगली बार मां से वह खुल ही न पाए या कईं बार तो उस गैस की नॉब की चूड़ीयां ही घिल जाती होंगी ....(एक आध बार ऐसा हुआ भी ....पता नहीं क्यों)....</p><p>घर में 1972 के आखरी दिनों में गैस आने की बात याद आती है तो उस दिन पहली बार बनी चाय की भी याद आती है ....दो मिनट में चाय तैयार ....करिश्मा लग रहा था। गैस घर में पहुंचने के कुछ दिन पहले पता चल जाता था ...गैस एजैंसी के चक्कर काट काट के जूते घिसवाने के बाद, फिर रसोई में सीमेंट की एक स्लैब का प्रबंध किया गया....उस सरकारी मिस्तरी के लिए भी यह काम नया था ....उसने तो पक्की मजबूत स्लैब जब तैयार कर दी बिल्कुल लेंटर जैसी ....लेकिन जब तक गैस आ गई और उसे उस स्लैब पर रखा गया तो पता चला कि वह तो बहुत ऊची बन गई है ...उस पर काम करने के लिए मां को नीचे दो तीन ईंटे रखनी पड़तीं... परेशान हो गई मां ....फिर उस सरकारी मिस्तरी ने एक दूसरी स्लैब बनाई ....दूसरी दीवार पर ....पहले वाली से एक फुट के करीब नीचे ....फिर वह गैस की जगह बदल गई और पहली स्लैब पर बर्तन सजाए जाने लगे ....हा हा हा ....कुछ दिन पहले मैं और मेरी बड़ी बहन ये सब बातें याद कर खूब हंस रहे थे ....कुछ यादें होती ही ऐसी हैं....</p><p>लगता है बंद करूं अब इस पोस्ट को ....बहुत हो गया....गैस की लंबी प्रतीक्षा सूची और कनेक्शन मिल जाने के बाद भी किल्लत, मिट्टी के तेल की काला बाज़ारी.....ये सब बातें मेरी उम्र के लोग भुगत ही चुके होंगे ...लेकिन एक बार की बात है बचपन में जब गैस नहीं आई थी, तेल भी नहीं मिल रहा था और कोयला भी न मिल रहा था ...मुझे एक ही ऐसा वाक्या याद है कि मां ने चूल्हे पर रोटी बनाने के लिए लकड़ी के टॉल (लकड़ी की आरा मशीन) से लकड़ी के डक्क (पंजाबी लफ़्ज़ है लकड़ी के छोटे टुकड़ों के लिए) मंगवाए थे ...मुझे याद है मेरा बडा़ भाई उन को बोरे में ला रहा था ....मैं उस के साथ कुछ दूरी पर पैदल चल रहा हूं....</p><p>हम बहुत आधुनिक हो गए हैं....अब ज़माना है दाल सब्जी रोटी परांठे (रेडीमेड) का, रेडी़ टू इट, रेडी टू कुक ....गर्म करने का झंंझट नहीं, एक मिनट दाल को गर्म करने पर माइक्रोवेव में वह मुंह जला देती है ....लेकिन हम भी क्या करें, हमें अंधी दौड़ में पीछे न रह जाने की फ़िक्र है ....हम भाग रहे हैं....हमें अपने खाने-पीने से अब कुछ खास मतलब नहीं रहा ....पेट भर लेते हैं....और उस के नतीजे जो देश समाज के सामने आ रहे हैं, उस के बारे में भी हम सब जानते हैं.....</p><p>उस स्टोव वाले बंदे ने आज मेरी यादों के मकड़जाल को छेड़ दिया हो जैसे.....कुछ फिल्मी गाने भी अपने से लगते हैं, गुज़रे ज़माने के परिवेश से मिलते जुलते हैं.....याद दिलाते हैं उन्हीं दिनों की ....मां की भी .... </p><p><br /></p><p><br /></p><iframe width="560" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/K9aS7I7jpRE?si=eLqGwfK_TzKcx3OC" title="YouTube video player" frameborder="0" allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen></iframe>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-43603544034420731782023-07-08T21:51:00.000+05:302023-12-16T20:27:08.616+05:30चूहेदानी से आप को भी कुछ तो याद आएगा....<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgldhVZ5GU8--oatkTVrVHjTYciKgxDjglKa74vzmBw36TRmPadidRoAhvzLygVJZaQ52MsOgFQkkeD7YKcKM4Gkl5yCRGjeP61W2Jhas6z6QKCAmjjnmIxLjEhWdDdcJYcRc4JrjHeKc_UboqGH3SVaq9OLmMMSqgh40xrxy9ZOHrbqaCCB1clltgu2IM/s4032/IMG_0254.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgldhVZ5GU8--oatkTVrVHjTYciKgxDjglKa74vzmBw36TRmPadidRoAhvzLygVJZaQ52MsOgFQkkeD7YKcKM4Gkl5yCRGjeP61W2Jhas6z6QKCAmjjnmIxLjEhWdDdcJYcRc4JrjHeKc_UboqGH3SVaq9OLmMMSqgh40xrxy9ZOHrbqaCCB1clltgu2IM/w300-h400/IMG_0254.HEIC" width="300" /></a></div><br />कुछ दिनों पहले की बात है घर से कबाड़ निकाला जा रहा था ...मुझे तो ऐसे लगने लगा है कि जिन घरों में भी ज़रुरत से ज़्यादा सामान होता है वे कबाड़ी की दुकान जैसे ही लगने लगते हैं ..लेकिन यह भी एक तरह की बीमारी है जो बस लग जाती है , समय रहते इसका इलाज भी ज़रूरी है...खैर, जैसे ही मुझे यह चूहेदानी दिखी तो मुझे तो गुज़रा ज़माना याद आ गया और मैंने इस की फोटो खींच ली...<p></p><p>मैं यही सोचने लगा कि पहले दिनों में कैसे चूहों से निजात पाई जाती थी ...सब से पहले तो मुझे मेरे स्कूल के पांचवी कक्षा के गुरुजी याद आए ...जिन्होंने हमें उन दिनों यह बताया कि अनाज के भंडारण को कैसे किया जाए कि उसके अंदर चूहे दाखिल न हो पाएं...सच में मुझे उन की एक ही बात याद रह गई ...अनाज के भंडारण के लिए वह भड़ोली आदि की बातें कर रहे थे ...यह एक पंजाबी लफ़्ज़ है मेरे ख्याल है ...दरअसल आज से 50-55 बरस पहले क्या होता था कि गांव-कसबे में अनाज के भंडारण के लिए घरों में मिट्टी की बनी भड़ोली का इस्तेमाल होता था ...फिर धीरे धीरे लोहे की बड़ी बड़ी 5-6-8-10 फुट (ज़रूरत के मुताबिक) पेटियों में घरेलू इस्तेमाल के लिए अनाज रखा जाने लगा....</p><p>हां, मुद्दा तो आज का चूहेदानी है ....बचपन की याद है मुझे बस इतनी कि पूरे गली-मोहल्ले में दो तीन घरों में ही लकड़ी की चूहेदानी होती थी, वह कभी खराब न होती थी, कभी धोखा न देती थी ...यह भी एक स्टेटस-सिंबल से कम बात न थी कि सोढी के घर में या कपूर के घर में चूहेदानी है। पहले हम लोग घरों में तरह तरह का कबाड़ खाने-पीने-पहनने का .....इक्ट्ठा ही कहां होने देते थे ...साफ़ सफ़ाई टनाटन हुआ करती थी ...और अगर कभी रसोई में चूहा दिख गया तो बस, फिर किसी के घर से वह लकड़ी की चूहेदानी लानी होती थी। और रात में खाने के वक्त चूहा पकड़ने की साज़िश होती थी कि आज चूहेदानी में रोटी लगा के सोना है ...और मां सोने से पहले रोटी का एक टुकड़ा उस के अंदर किल्ली में फँसा कर ही सोती ...सुबह उठते ही अगर तो चूहा उसमें फंसा हुआ मिलता तो सब की खुशी का पारावार कुछ इस तरह का होता जैसा किसी बहुत बड़े पहाड़ पर विजय हासिल कर ली हो...और अगर उसमें रोटी गायब होती और लेकिन चूहेदानी का मुंह खुले का खुला होता तो ऐसे लगता जैसे पता नहीं कौन सी जंग हार गए हैं, पल भर की मायूसी और फिर ठहाकों का दौर ...कि चूहा पिंजरे से भी बच कर निकल गया....रोटी उड़ा कर ले गया....देखा जाए तो उस दौर के सीखे हुए ये सबक थे ...जाको राखे साईंयां मार सके न कोए....</p><p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgsNrOTPGLIowPOZU3FUcxd9ryrsX1FfV9enIKQkexo_KA-SsntLA6Rs1dCfN1iSSSUWeHSLaYKCTxcnzmNOPeVsdjr3OgG31P6zF05DqIn1Em1HWjHU8Zexzh44v_0hIJZrnGhoUBq3jEIbhayz_ZFJdF2FQ3a1MvR3I2usCwfPr-0JtroT5SD5FBh5V8/s1608/IMG_0556.PNG" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1608" data-original-width="1242" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgsNrOTPGLIowPOZU3FUcxd9ryrsX1FfV9enIKQkexo_KA-SsntLA6Rs1dCfN1iSSSUWeHSLaYKCTxcnzmNOPeVsdjr3OgG31P6zF05DqIn1Em1HWjHU8Zexzh44v_0hIJZrnGhoUBq3jEIbhayz_ZFJdF2FQ3a1MvR3I2usCwfPr-0JtroT5SD5FBh5V8/w309-h400/IMG_0556.PNG" width="309" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">कल मुंबई की बरसात में भी यह साईकिल सवार दिखा ..एक हाथ से साईकिल चला रहा था, दूसरे से छाता थामे हुए था ...</td></tr></tbody></table><br />और जिस घर में चूहा चूहेदानी में फंसा मिलता तो आसपास दो चार लोगों को (खासकर हमारे जैसे शरारती बच्चों को) तो यह पता चल ही जाता और हम आगे की प्रक्रिया सोच कर रोमांचित होते ....मुझे बिल्कुल अच्छे से याद है कि हमारे घर से चार पांच घर छोड़ कर ही एक शाम लाल नाम के अंकल जी रहते थे ..उन के घर में हर सप्ताह महिलाओं का कीर्तन हुआ करता था दोपहर में ...और एक बात उन के बड़े बेटे को मैंने इतनी बार साईकिल पर चूहेदान को पीछे कैरियर पर रख कर जाते देखा कि मुझे जब भी वह बंदा दिखता तो मुझे यही लगता जैसे वह इसी काम के लिए जा रहा है ....अब हर किसी के साईकिल के पीछे कैरियर तो नहीं होता था ..इसलिए कुछ जां बाज़ लोग एक हाथ में चूहेदानी और एक हाथ से साईकिल चलाते हुए अपनी मंज़िल की तरफ़ निकल पड़ते।<p></p><p>हां, तो यह मंज़िल क्या होती थी, हम को अच्छे से पता होता था ...इसलिए जो भी बच्चे किसी को इस तरह चूहेदानी को थामे या साईकिल के पीछे रखे हुए देख लेते, अपने सभी खेल, कंचे, गुल्ली-डंडा .....सब कुछ छोड़-छाड़ कर हम उस साईकिल वाले के पीछे हो लेते ...कोई ज़्यादा दूर नहीं जाना होता था चूहे को उस की मंज़िल तक पहुंचाने के लिए .....यही कोई चार पांच सौ मीटर पर ही उस की मंज़िल होती थी ...यह दो तरह की होती थी ..एक तो कोई खुला सा बड़ा सा नाला ...या पास में ही मौजूद कोई बडा़ सा खेल का मैदान ...यह उस साईकिल सवार की डिस्क्रिशन होती थी ....अपने आसपास पांच सात बच्चों का जमावड़ा देख कर वह भी अपने आप पर, अपनी बहादुरी पर अंदर ही अंदर इतराता तो ज़रूर होगा...</p><p>हमारे लिए वह पल रोमांच से भरा होता था जब चूहेदानी का किवाड़ खुलते ही जनाब चूहा जी फुदक कर बाहर निकलते ...लेकिन अकसर नाली में गिरने की बजाए वह उस के किनारे पर लैंड कर के सरपट दौड कर देखते ही देखते आंखों से ओझिल हो जाता.(हम लोगों के बिंदास ठहाके शुरु हो जाते) ..और उस साईकिल वाले बहादुर का मुंह उतर सा जाता कि अगर फिर से यह उसी के घर में आ गया तो ....लेकिन नाले में गिरने से कौन सा गारंटी होती कि वह वापिस न आएगा....आज सोचता हूं तो यही लगता है कि यह सारी प्रक्रिया बस उतने तक महदूद थी कि इस बला को अपने घर से तो निकालो....वापिस लौट कर कहीं भी जाए....</p><p>अभी लिखते लिखते याद आया कि कईं बार ऐसा होता था कि घर में कोई चूहेदानी के साथ साईकिल या पैदल यात्रा करने के लिए राज़ी न होता तो उस चूहेदानी के घर के दरवाजे के बाहर ही खोल दिया जाता ....वह नज़ारा हमें इतना रोमांचक न लगता ..लेकिन कभी कभी उस में भी रोमांच का तड़का लग ही जाता जब चूहा पिंजरे से निकल कर मोहल्ले में किसी दूसरे के घर में घुस जाता और अगर उस घर का कोई सदस्य भी यह देख रहा होता तो खामखां एक तकरार सी हो जाती कि यह क्या बात हुई ....अपने घर से निकाल कर इधर भेज दिया...खैर, वह भी बस थोड़े वक्त के लिए ...(कईं बार तो चूहा वापिस अपने पैतृक घर में ही वापिस लौट जाता) ...</p><p>बाद में चूहेदानीयां लोहे से तैयार हुई भी मिलने लगीं और कईं बार तो चूहा रोटी ले कर निकल जाता लेकिन उसमें फंस न पाता ...लेकिन कईं बार बहुत मोटा चूहा अगर उस में फंस जाता तो यह साजिश रचने वाले को उतनी ही ज़्यादा खुशी मिलती। फिर कुछ चूहे मारने की दवाई तो आने लगी जिसे रोटी की जगह उस पिजरे में रखा जाने लगा, जिससे वह मर कर उसी में कैद हो जाता ...हमेें यह देख कर बहुत बुरा लगता कि यह मारने वारने का क्या चक्कर हुआ ...यह तो बहुत बुरी बात है ...हर किसी को जीने का हक है...</p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaRJSXXMJbDkfaCW9reieMSTiUnJ2YLlyaHkYKVXO9JeJm1XybCSReX6CrtFG402_fOvKQvoFP6AirLcGjW429tjspceeCgQHr-flLt6-WovVKDgFRdMit4nVIZcKxvu_KA986Nkf1Aw_btC0dU-jYGdNnVxeGlj7iheiLYhYMVB6Kar_0HgCK6BDncZY/s2164/IMG_0555.PNG" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2164" data-original-width="1242" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaRJSXXMJbDkfaCW9reieMSTiUnJ2YLlyaHkYKVXO9JeJm1XybCSReX6CrtFG402_fOvKQvoFP6AirLcGjW429tjspceeCgQHr-flLt6-WovVKDgFRdMit4nVIZcKxvu_KA986Nkf1Aw_btC0dU-jYGdNnVxeGlj7iheiLYhYMVB6Kar_0HgCK6BDncZY/w230-h400/IMG_0555.PNG" width="230" /></a></div><br />बस, पुरानी यादें तो यहीं तक थीं ....फिर धीरे धीरे पता नहीं चूहे के ज़हर के नाम पर क्या क्या आने लगा ....बेचारे चूहों को शर्तिया मारने की बातें होने लगीं.. ....अब तो बाज़ार में आते जाते देखते हैं कि कुछ ऐसे उत्पाद भी आ गये हैं इसी काम के लिए जिनसे हर्बल गैस निकलती है और वह इन चूहों का सफाया कर देती है ...अकसर बाज़ार में ड़ों आते जाते इस तरह के व्यापारी दिख जाते हैं ....लेकिन मैं इन सब खतरनाक जुगाड़ों का हिमायती नहीं हूं बिल्कुल भी ....<p></p><p>आज दोपहर की बात है ...बंबई के फुटपाथ पर एक बंदा आठ दस छोटे छोटे पाउच रखे बैठा था ..उन पर लिखा था ...रैट-प्वाईज़न ....100% प्वाईज़न---फोटो ले लेता अगर उस वक्त मैं बंबई की उमस की वजह से पसीने से लथपथ न होता ...मैं उसे देख कर यह सोचते हुए आगे बढ़ गया कि क्या ज़माना आ गया, ज़हर के लिए भी सौ-फ़ीसदी की शुद्धता की गारंटी देनी पड़ती है ....व्यापारी भी क्या करें, हर तरफ़ मिलावटखोरी का बोलबाला जो है ....</p><p>चलिए, मेरा एक काम तो पूरा हुआ....मैं कईं बार लिखता हूं न कि कुछ पुरानी आइट्म, बातें, यादें मुझे लिखने के लिए प्रॉप्स का काम करती हैं, जैसे डॉंसर प्रॉप्स इस्तेमाल करते हैं, कुछ कुछ शायद उसी तरह से ...वैसे चूहेदानी की पुरानी बातों से आप को कुछ तो अपने दिन भी याद आए ही होंगे, अगर ऐसा है तो लिख दीजिए इस ब्लॉग के नीचे कमैंट्स में ...अगर अनानीमस (बेनामी) टिप्पणी भी लिखना चाहें तो लिख दीजिए....दिल को हल्का कर लीजिए...</p><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/fuer_eif76M" title="YouTube video player" width="560"></iframe>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-59815187304399307472023-05-24T22:57:00.010+05:302023-12-16T20:27:14.285+05:30बिनाका गीत माला - कुछ यादें , कुछ बातें !<p>अभी मैं अपने रूम की थोड़ी साफ़ सफ़ाई कर रहा था तो अल्मारी के एक कोने में एक छोटी सी किताब दिख गई ...करीब ५० साल पुरानी है ...नाम है हिट फिल्मी गीत -बिनाका गीतमाला-३ (१९७०-१९७६)- मेरे पास तो यह दो तीन बरसों से ही है, यही बंबई से इसे खरीदा था ...उस दिन यह लग रहा था कि काश, इस के सभी अंक कहीं से भी मिल जाएं तो ले लूं...अमीन सयानी की जादुई आवाज़ भी याद है हम सब को ...</p><p>खैर, मुझे उन दिनों की याद करने के लिए ऐसी पुरानी चीज़ें लगती हैं...यह उन दिनों की बात है जब बिनाका गीत माला ही दिसंबर महीने की हमारी सब से बड़ी दिल्लगी हुआ करती थी ...हमें बस यही फ़िक्र रहती थी कि ईश्वर कृपा करें शाम को इस प्रोग्राम के दौरान हमारा रेडियो चलता रहे ....रेडियो भी उन दिनों बड़े नखरे करता था ....कईं पापड़ बेलने पड़ते थे उस की स्पष्ट आवाज़ सुनने के लिए...खैर, कभी आप को अपने रेडियो से जुड़े ब्लॉग का लिंक दूंगा ..जिसमें मैंने रेडियो के बारे में सभी बातें लिख डाली हैं....रेडियो लाईसैंस फीस देने वाले दिनों की बातें भी ..</p><p>खैर, मैं इस वक्त जब यह लिख रहा हूं सच में मुझे याद नहीं आ रहा कि क्या मनोरंजन के नाम पर हमारी ज़िंदगी मेे उन दिनों बिनाका गीतमाला के अलावा कुछ था ....अपने आप से पूछता हूं तो पक्का जवाब मिलता है ...नहीं, बिल्कुल नहींं। यह हमारे लिए ऐसे था जैसे आज की पीढ़ी के लिए बिग-बॉस...या कुछ और ...मुझे तो आज के टीवी के प्रोग्रामों के नाम भी नहीं आते ...आठ दस साल से देखा ही नहीं, ऑउट ऑफ टच....😂</p><p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhlNnOAH5CGjVbAOE02MFl5hdym8U1ihhuf2pvNoM-ijk1aRauinV63M6cnvDfl_8_RfOaghA2__QNl6IU1QF3PH9rkVeyM-TzOJWIa98aOlFfkTGASmiHJjCKCSGrLQ0VFSQuMZqaSeeMhIsw2yPN697JIQi-hUw_aBdotO_2iLJCOAglJehoQDlpf/s1229/IMG_8849.PNG" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="900" data-original-width="1229" height="293" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhlNnOAH5CGjVbAOE02MFl5hdym8U1ihhuf2pvNoM-ijk1aRauinV63M6cnvDfl_8_RfOaghA2__QNl6IU1QF3PH9rkVeyM-TzOJWIa98aOlFfkTGASmiHJjCKCSGrLQ0VFSQuMZqaSeeMhIsw2yPN697JIQi-hUw_aBdotO_2iLJCOAglJehoQDlpf/w400-h293/IMG_8849.PNG" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">हमारे बचपन का सच्चा साथी...मरफी का यह रेडियो ...आज भी देश के किसी कोने में यह हिफ़ाज़त से रखा हुआ है ...धरोहर है अपनी..</td></tr></tbody></table><br />और जो इकलौता रेडियो घर में होता था हम उस के रहमोकरम पर रहते थे ...मेरे भाई को भी रेडियो सुनने का बड़ा शौक था...वह तो उस की आवाज़ साफ़ साफ़ सुनने के लिए थपथपाता ऱहता था उस को ...यह जो मैं तस्वीर यहां लगा रहा हूं यह हमारे घर के मरफी रेडियो की तस्वीर है जिस के साथ अनेकों यादें जुड़ी हुई हैं, दबी पड़ी हैं....उन में से कुछ लिख कर हल्कापन महसूस कर लेते हैं...<p></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpdTIsneKrSvTMlplvwvZVfn78ZdoHZdJ9f7ULBaQGMZRi2U43jig_vgrmSFlSEVkdusHIb12HucP4E6dB-3fvb8Bc3qGfiDNyae6xkq36s6hZ-GyOIl7vhsVdFIs6NleavLD0IdxNQiQKezAi96j5Pamec5Fy1jkpugLiVyzzvH1KvqHdWKDtSQP9/s4032/IMG_8850.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpdTIsneKrSvTMlplvwvZVfn78ZdoHZdJ9f7ULBaQGMZRi2U43jig_vgrmSFlSEVkdusHIb12HucP4E6dB-3fvb8Bc3qGfiDNyae6xkq36s6hZ-GyOIl7vhsVdFIs6NleavLD0IdxNQiQKezAi96j5Pamec5Fy1jkpugLiVyzzvH1KvqHdWKDtSQP9/s320/IMG_8850.HEIC" width="240" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjE5K0haNJy4TBvwDLBeBbWBMd-A54kSmMJsFNJsN5JD4haZL7Gu5cmrjOkMuvrSt4qvqOxAjoVvXpMwPCDnAqQg6uD4Hi-ojGor5hqKO5j215dG3U33HH3wKBR85CDc1w7AQfrN4eICuHG2bG8UpZ5mcwYH8oP1h_sQuzf4Gc5B4nXGCz8fYlqYo1v/s4032/IMG_8875.HEIC" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjE5K0haNJy4TBvwDLBeBbWBMd-A54kSmMJsFNJsN5JD4haZL7Gu5cmrjOkMuvrSt4qvqOxAjoVvXpMwPCDnAqQg6uD4Hi-ojGor5hqKO5j215dG3U33HH3wKBR85CDc1w7AQfrN4eICuHG2bG8UpZ5mcwYH8oP1h_sQuzf4Gc5B4nXGCz8fYlqYo1v/w300-h400/IMG_8875.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">यह भी इसी किताब का ही एक पन्ना है ...</td></tr></tbody></table><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="text-align: left;">दिक्कत उन दिनों की यह भी थी कि रेडियो सुनना भी लगभग एक ऐब ही माना जाता था ....पढ़ाई के वक्त तो रेडियो डर डर के सुनते थे और हमारी कोशिश होती थी कि शाम के वक्त पिता जी के दफ्तर से लौटने से पहले सब गाने वाले सुन सना के उसे बंद कर दें और अपनी कोई कापी किताब उठा लें..(आठवीं क्लास में किताब में रख कर एक नावल भी पढ़ा था, बस एक बात ..उस के बाद पढ़ाई से ही कभी फुर्सत न मिली...लेकिन वह अपराध बोध उम्र भर के लिए साथ रह गया) ...रात के वक्त भी सुनने की इतना छूट न थी ...हमारा रेडियो पहले तो गर्म होने में वक्त लेता था ....ये सब बातें १९७० के दशक के शुरूआती बरसों की हैं...फिर तो १९७५ में हमने बुश का एक ट्रांजिस्टर ले लिया था ..बंबई आए हुए थे ...हमारे ताऊ जी का दामाद बुश कंपनी में बड़े ओहदे पर था ...उसने छूट दिलवा दी थी ....और मुझे याद है हम लोग उस ट्रांजिस्टर को शुरू शुरू में बहुत संभाल कर रखते थे ..अभी भी याद है शाम के वक्त आंगन में चारपाईयां बिछी हुई हैं, पंखे लगे हुए हैं, दो तीन अड़ोसी-पड़ोसी बैठे हुए हैं.....उस पर गीत बज रहे हैं, खबरें आ रही हैं, बीबीसी से भी...वह सैलों से भी चलता था और बिजली से भी ...जहां तक मुझे ख्याल है हम उसे बिजली पर ही चलाते थे ...</span></div><p></p><p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjRCnwmc0WYt3T6Z7pV_cScG4QicGEuuBp0tG3ZeSAfBQ5FT5BLnLRzZSgmXOanxdd2ZzdeRexePKogyh-yLVMcP7UxevQbhUgh1qcSB6s2sDCFoxVKjB-SylB10dBBI7w7KxVsPeCApg6TxaorcCtpC1Xk3YQFBo58r2viCpem0g2C11nJ5E78ZhiP/s2981/IMG_8852.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="2492" data-original-width="2981" height="268" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjRCnwmc0WYt3T6Z7pV_cScG4QicGEuuBp0tG3ZeSAfBQ5FT5BLnLRzZSgmXOanxdd2ZzdeRexePKogyh-yLVMcP7UxevQbhUgh1qcSB6s2sDCFoxVKjB-SylB10dBBI7w7KxVsPeCApg6TxaorcCtpC1Xk3YQFBo58r2viCpem0g2C11nJ5E78ZhiP/s320/IMG_8852.HEIC" width="320" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">अगर पढ़ने में दिक्कत हो तो इस इमेज पर क्लिक कर के आसानी से पढ़ सकते हैं..</td></tr></tbody></table><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiTDV6lQZTnP-2iMQBT-7YN15QjH0f8LU1sJt-5X45LJUBREwefOwTsE9uD-gnzPU_weo99lG9qFfeBPyiAYUEaO3p2Jk8QbxyaWs5edOJn7JI77SuagQpZ2M0-edyzwVHNTRDaSK-5vmVixdjwsnMNe3ylGoEiqY_pWSOSwkQ8B78zfKI9IRcbvMhH/s3858/IMG_8851.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3858" data-original-width="2932" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiTDV6lQZTnP-2iMQBT-7YN15QjH0f8LU1sJt-5X45LJUBREwefOwTsE9uD-gnzPU_weo99lG9qFfeBPyiAYUEaO3p2Jk8QbxyaWs5edOJn7JI77SuagQpZ2M0-edyzwVHNTRDaSK-5vmVixdjwsnMNe3ylGoEiqY_pWSOSwkQ8B78zfKI9IRcbvMhH/s320/IMG_8851.HEIC" width="243" /></a></div><br />कहां यार मैं भी किधर निकल गया ....बिनाका गीतमाला की किताब है सामने और मैं कहां चारपाईयों पर उछल कूद करने लगा (उन दिनों हमें यह काम भी करना बहुत पसंद था, चारपाई के टूटने पर अपनी हड्डियों के टूटने की रती भर भी फिक्र न होती थी) ...डायमंड कामिक्स की इस किताब का दाम ३ रूपये लिखा हुआ है जो मुझे लगभग १०० गुणा दाम चुकाने पर मिली ....खरीदने की कोई जबरदस्ती नहीं थी...लेकिन मुझे चाहिए थी...इसे देखते ही मज़ा आ गया था ..<p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWzR6qhjcOiTQWgrMRaOgtRLZoR14S4yA_EJxm0spFVPkqYlLAve8qihtTXhRIvogTp5gnVttOmvOfgmc0WGFNLNZuoDnsF3LjsfM5bHGmCizUFQnfKijX8FzT5-5KzGQw_iNLl4CceawhREo8EyuFV5_Pu16805cteRcTukqjmSkwpyp2XX3dpwC2/s3899/IMG_8853.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="3899" data-original-width="2895" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWzR6qhjcOiTQWgrMRaOgtRLZoR14S4yA_EJxm0spFVPkqYlLAve8qihtTXhRIvogTp5gnVttOmvOfgmc0WGFNLNZuoDnsF3LjsfM5bHGmCizUFQnfKijX8FzT5-5KzGQw_iNLl4CceawhREo8EyuFV5_Pu16805cteRcTukqjmSkwpyp2XX3dpwC2/s320/IMG_8853.HEIC" width="238" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"> आज की पीढ़ी को यकीं दिलाने के लिए कि रेडियो सुनने के लिए सालाना १५ रूपये की फीस डाकखाने में जा कर भरनी होती थी ...मैंने भी भरी हुई है ..(यह भी खरीदी हुई कॉपी है)..</td></tr></tbody></table><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhngA_JjjogpogltbKKtD6don4MdK2cFLUNO7ort4cUWdjqMTGcq3iRum3tgYd_Mc_AJW_ooQBPCorIgrvSYrR_DFlrzU3FfuvRx_ToN4exoG9WOg5MQpHCX3OU8kzIFDkcs_41oovW1FyAXFigtckpBx1mlh9XbFyv2ps05xoJr0NYkL7tv0wewAoB/s4032/IMG_8854.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhngA_JjjogpogltbKKtD6don4MdK2cFLUNO7ort4cUWdjqMTGcq3iRum3tgYd_Mc_AJW_ooQBPCorIgrvSYrR_DFlrzU3FfuvRx_ToN4exoG9WOg5MQpHCX3OU8kzIFDkcs_41oovW1FyAXFigtckpBx1mlh9XbFyv2ps05xoJr0NYkL7tv0wewAoB/s320/IMG_8854.HEIC" width="240" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">ऊपर वाली रेडियो लाईसेंस बुक का एक पन्ना ....</td></tr></tbody></table><p>१९७० से १९७६ के दिन अपने भी इन गीतों में डूबे रहने वाले दिन थे ...इस किताब में भी इन सात सालों की लिस्ट लंबी है ..जो बिनाका गीत माला की हिट परेड में शामिल किए गए ..इतनी लंबी लिस्ट कहां लिखता फिरूं....हर साल के पहले नंबर पर आने वाले गीत का नाम यहां लिखता हूं ...</p><p style="text-align: justify;">१९७०- बिंदिया चमकेगी चूड़ी खनकेगी...</p><p style="text-align: justify;">१९७१- ज़िंदगी इक सफर है सुहाना </p><p style="text-align: justify;">१९७२- दम मारो दम, मिट जाए गम </p><p style="text-align: justify;">१९७३-यारी है इमान मेरा यार, मेरी ज़िदगी </p><p style="text-align: justify;">१९७४- मेरा जीवन कोरा कागज़ कोरा ही रह गया...</p><p style="text-align: justify;">१९७५- बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई ..</p><p style="text-align: justify;">१९७६- कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है ...</p><p style="text-align: justify;">अभी मैंने यह सोचा कि अगर मुझे इस पोस्ट के नीचे इन सात बरसों में जो गीत पहले नंबर पर रहे....उन में से एक चुनना होगा तो मैं किसे चुनूंगा ....तो मेरी पसंद बिल्कुल स्पष्ट थी ....और उस वक्त १९७१ में मेरी उम्र थी महज़ ९ साल की ...इतना सुना इस गीत को रेडियो पर, मोहल्ले में लगने वाले लाउड-स्पीकरों पर, सर्कस के मैदानों में.....कि ९-१० साल की उम्र में भी इस गीत का फलसफा शोखी की वजह से हमारे दिलो-दिमाग में कैद तो हो गया, .लेकिन इस की समझ बहुत बरसों बाद आई...😎😁</p><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/qPj3AFhbqMM" title="YouTube video player" width="560"></iframe><div><br /></div><div>एक तरफ़ देखिए हमारी पीढ़ी को इन गीतों को सुनने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती थी और दूसरी तरफ़ आज ही की मुंबई की तस्वीर देखिए...मोबाइल पर कुछ भी सुनने का जुगाड़ फुटपाथ पर बैठे बैठे भी हो जाता है....👍 </div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9sxfIzG4TSvmU9BANw_pd8VwEqS2fkuCwF23uv-GLW_cdFRzvVIvJjI2ONDaFTSHHXuRNzEqJumjmz51-LYFf9lR5W2r2GVewLnflUj8Tvd_JzUBl16vfkhTmClJjaM87-MOgUMfUATZfWx3zzpZCFBHOHEObQHXdtyElWU1G2Vm9bYgFGElZ97fu/s4032/IMG_8834.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9sxfIzG4TSvmU9BANw_pd8VwEqS2fkuCwF23uv-GLW_cdFRzvVIvJjI2ONDaFTSHHXuRNzEqJumjmz51-LYFf9lR5W2r2GVewLnflUj8Tvd_JzUBl16vfkhTmClJjaM87-MOgUMfUATZfWx3zzpZCFBHOHEObQHXdtyElWU1G2Vm9bYgFGElZ97fu/w300-h400/IMG_8834.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मुंबई - २४.५.२३</td></tr></tbody></table><div><br /></div><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/Frrg08Hn2tg" title="YouTube video player" width="560"></iframe>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-21977182285891459172023-05-16T08:12:00.004+05:302023-12-16T20:27:20.298+05:30रिप्ड जीन्स - कुछ नेक विचार <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg76DgTTN16WsmnSrCZK021gVf9dL2kP6QY2QM49u206JKh9LTSWEfNuAEylIJN9YU5SwvXGtENmKZmx-xMPypgRHiopYMANbZGv2YyEnv-EGAXwvnEJH_iopSs2f7a04wMy-VGd9lHaNJxe-R3WwxAorNrIJax_JpTYmVdVQ8GlkIn8fMI2sj0-6Nm/s3541/IMG_8550.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="3541" height="341" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg76DgTTN16WsmnSrCZK021gVf9dL2kP6QY2QM49u206JKh9LTSWEfNuAEylIJN9YU5SwvXGtENmKZmx-xMPypgRHiopYMANbZGv2YyEnv-EGAXwvnEJH_iopSs2f7a04wMy-VGd9lHaNJxe-R3WwxAorNrIJax_JpTYmVdVQ8GlkIn8fMI2sj0-6Nm/w400-h341/IMG_8550.HEIC" width="400" /></a></div><br />रिप्ड जीन्स के बारे में पता तो यही कोई १०-१५ बरस पहले लग गया था ...इस पहने हुए जवान लोग दिखने लगे थे ...लेकिन एक बार मैं दंग रह गया था ...यही कोई आठ दस बरस पहले की बात है ...एक ५-६ साल का बच्चा आया अपनी मां के साथ ....बच्चों को सजने-संवरने का शौक होता ही है ...हम भी उस उम्र में अपने ज़माने में बीस पैसे की वो मोमजामे वाली ऐनक लगा कर पता नहीं खुद को क्या समझने लगते थे ..समझें भी क्यों ने ....वक्त ही ऐसा होता है वो... हां, तो उस छोटे लड़के ने बड़े गॉगल-शॉगल लगाए हुए थे, जीन और टीशर्ट , कैप भी पहनी थी और पूरी फार्म में था ...अचानक मेरी नज़र उस की जीन्स की तरफ़ गई जो मुझे एक दो जगह से फटी दिखी...<p></p><p>यह तुम्हारी जीन्स कैसे फट गई -मैंने उसे पूछा.</p><p>डा.साहब, यह फटी नहीं है, इस डैमेज जीन्स को खुद इस की फरमाईश पर खरीदा गया है , उस की मां ने राज़ खोल दिया। </p><p>मुझे उस दिन बड़ी हैरानी हुई कि पांच छः साल का बच्चा भी डैमेज जीन्स पहन रहा है ...और इतने सालों में वाट्सएप पर भी बहुत से वीडियो आते जाते रहते हैं कि बुज़ुर्ग दादी अपने पोते को कुछ पैसे दे कर कहती है कि लाडले, जा, जा के अच्छी से पतलून ले ले ...यह देख कैसे फट चुकी है...। फिर वह दादी को समझाता है कि बेबे, यह फटी नहीं है, इसे पहनने का रिवाज़ है...</p><p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCCEy-YKa0hT44hF6VbX5HTP2RYz4W8odgSLK4GS1Hat4anEbZdGx_4Nzz8UUWvutOdrJjLqCecTg_gLMoxsj7PrS73Y0iwzmQYBHE889MgMOBYOb1RIQ_LBv2sgpmpkTtwvFsUp3h0bKOXuTtS1jkbMXDKxwTS6b27jiP8B-jUOXiHGATBYi9c-Ad/s3648/IMG_8549.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="3648" data-original-width="2809" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCCEy-YKa0hT44hF6VbX5HTP2RYz4W8odgSLK4GS1Hat4anEbZdGx_4Nzz8UUWvutOdrJjLqCecTg_gLMoxsj7PrS73Y0iwzmQYBHE889MgMOBYOb1RIQ_LBv2sgpmpkTtwvFsUp3h0bKOXuTtS1jkbMXDKxwTS6b27jiP8B-jUOXiHGATBYi9c-Ad/w308-h400/IMG_8549.HEIC" width="308" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">वक्त के साथ युवाओं के रोल-मॉडल भी बदल रहे हैं...जो तस्वीर दो दिन पहले अखबार में थी ...उसमें तो पूरी थी, लेकिन यहां इतनी ही लगाना मुनासिब जान पड़ा....</td></tr></tbody></table><br /><b><span style="color: #073763;">इन रिप्ड जीन्स का लफड़ा एक और भी है.....इन्हें पहन कर अमीर तो और भी रईस दिखने लगता है, लेकिन एक औसत आदमी बेचारा मांगने वाला कोई फरियादी टाइप दिखने लगता है </span></b>...अमीर, रईस लोगों का तो पहनना सब की समझ में आ जाता है कि यह कूल, हॉट, मॉड...जो भी कोई समझ ले, वह दिखने के लिए पहनते हैं..और जीन्स जितनी ज़्यादा रिप्ड होगी पहनने वाले का रूआब, रुतबा, ईज्ज़त समाज में, मीडिया में उतनी ही ज़्यादा बढ़ जाती है ..है कि नहीं...अब देखिए दो दिन पहले एक सिने-तारिका की फोटो मैंने अखबार में जब देखी तो मुझे कुछ भी अजीब नहीं लगा, क्योंकि अकसर मुंबई के लोकल स्टेशनों पर, और दूसरे सार्वजनिक स्थानों पर ऐसे फेशनेबुल कपड़े पहने मॉड लोग दिख जाते हैं.....दिख जाते हैं तो भई दिख जाते हैं, क्या करे कोई आंखों पर पट्टी थोड़े न बांध ले...<p></p><p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8FM9V6499ORlKfbeOkjtgkH4dHQV4KUXVerCs5zeorcuQqel4iGmpATiiXdP2zcT9KcuiJkCU6pQcnTn8iYkgMIaZMzyq7T3skhrWw4Vhn88R4eXAjodgYWB-JjCGtTBgU40cHeVwCs6iogszzmlw5TP1-lJrEdPLjV339r3VSTpqnhz414DazLrr/s4032/IMG_8513.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8FM9V6499ORlKfbeOkjtgkH4dHQV4KUXVerCs5zeorcuQqel4iGmpATiiXdP2zcT9KcuiJkCU6pQcnTn8iYkgMIaZMzyq7T3skhrWw4Vhn88R4eXAjodgYWB-JjCGtTBgU40cHeVwCs6iogszzmlw5TP1-lJrEdPLjV339r3VSTpqnhz414DazLrr/w400-h300/IMG_8513.HEIC" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">फैशन के लिए हम कुछ भी करेगा....शौक की कोई कीमत नहीं होती...</td></tr></tbody></table><br />लेकिन कईं बार कुछ ऐसे लोग भी रिप्ड जीन्स पहने दिख जाते हैं जिन्हें देख कर लगता है कि इन्होंने फेशन के लिए पहनी है या मजबूरी में .....बस, लफड़ा इन केसों में ही होता है जब समझ नहीं आती, लेकिन वही बात है कुछ लोगों को बेकार में सिरदर्दी मोल लेने की आदत होती है, क्या करना बेकार के इस हिसाब-किताब के चक्कर में पड कर ...तुम्हारी राह चलो, वह उस की ज़िदगी है, उसे जी लेने दो ...<p></p><p>यही कोई पांच छः साल पहले की बात है, मैं एक दिन ज़ारा के शो रूम में गया बेटों के साथ...वहां मैं एक फटी-पुरानी टी-शर्ट देख कर हैरान रह गया...उसे देख कर हैरानगी की बात उस का कटा-फटा होना न था, बल्कि उस पर ३५०० रूपये को टैग लगा हुआ था...जिस तरह की वह टी-शर्ट थी अकसर उस तरह की टी-शर्ट लोग घर में फटका लगाने के लिए भी इस्तेमाल न करें....ऐसा मैं समझता हूं तो समझता फिरूं ...लेकिन शौक की कोई कीमत नहीं होती ...मैं भी तो सौ साल पुरानी विंटेज किताबे, डेढ़ सौ साल पुरानी डिक्शनरीयां, ६० साल पुराने मैगज़ीन और नावल ढूंढता रहता हूं ..कुछ तो चीथड़े हो चुके होते हैं लेकिन खरीदता हूं न मुंह मांगे दामों पर क्योंकि वे मेरे काम की चीज़े ंहैं ...इसी तरह ये चीथड़े दिखने वाले कपड़े भी किसी के कितने काम के होंगे, मैं क्यों इस सब के चक्कर में पढ़ कर अपना सिर दुःखाने का जुगाड़ कर रहा हूं ....और वह भी सुबह-सवेरे।</p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgbFX03GuxE-KvsG9Sr3s_kCLPzC23Bxs4RnBV5GSS8Fm-NqvGkt79OnzdzQ-06nqnSFC2y5yppzH7Sww-lI28aHWeVHzlLYfLpiex5xbQDZX6jFX_e6I1eRdWnnGIPHTr-SQfGQDNthBxXOiVY_-0IwQoZZpCxqw0XrkT4G7EC95Jaii99WsKKXe3x/s4032/IMG_8521.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgbFX03GuxE-KvsG9Sr3s_kCLPzC23Bxs4RnBV5GSS8Fm-NqvGkt79OnzdzQ-06nqnSFC2y5yppzH7Sww-lI28aHWeVHzlLYfLpiex5xbQDZX6jFX_e6I1eRdWnnGIPHTr-SQfGQDNthBxXOiVY_-0IwQoZZpCxqw0XrkT4G7EC95Jaii99WsKKXe3x/w300-h400/IMG_8521.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">जान-बूझ कर अच्छी भली पतलून को फड़वा लिया बंदे ने फैशन के चक्कर में......दो दिन पहले दिखा बांदरा स्टेशन पर ...</td></tr></tbody></table><p>रिप्ड जीन्स के बारे में यह टुकड़ा लिखने से पहले मैंने सोचा चलो गूगल करता हूं .....मुझे कुछ गलती लगी मैंने लिखा रिग्ड - Rigged jeans - लेकिन गूगल बहुत समझदार है, उसने बराबर मुझे रिप्ड जीन्स का पन्ना खोल कर दे दिया ..कुछ सवाल जवाब भी थे ...एक दो ही पढ़े, बाकी न पढ़ पाया, अगर वे भी पढ़ने लग जाता तो मुमकिन था यह पीस लिखने से रह जाता या फिर आज ड़यूटी पर बेटे की कोई रिप्ड जीन्स पहन कर ही निकल पड़ता ...वैसे एक बार मैंने उसे पहना था घर ही में...सच में उस दिन समझ आई कि ये सब जवानों के काम हैं, बूढ़ी टांगों और घिसे-पिटे घुटनों पर तो ये रिप्ड जीन्स बहुत भद्दी दिखती हैं, कूल-हॉट तो क्या, बंदा सदियों का बीमार दिखने लगता है, मैंने उसी वक्त उसे उतार के परे रख दिया....मैं उस दिन बच्चो ं से मज़ाक कर रहा था कि अब मैं भी यह पहन कर जाया करूंगा ....और वो जैसे हैं ..हां, हां, डैड, पहनो ज़रूर पहनो, यू लुक कूल इन दिस....😎..... i know their satire!!</p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlfODFg1-OMilEEyTM0fT3ct3nwWyyMesfaYnP5_odKLfMDWzOIJ9HgV1RcYpL5kNWl-KMFgSYu6tZqY2mokowX9YnHxz_cAXzN8kD93z1dEFopkLwC28wASrnzppMoWr9td5ow087Er6qW4MMmFEscANfuMFH4YYwZUKigNEYDKbjxlYKH1u4Yntj/s4032/IMG_8497.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlfODFg1-OMilEEyTM0fT3ct3nwWyyMesfaYnP5_odKLfMDWzOIJ9HgV1RcYpL5kNWl-KMFgSYu6tZqY2mokowX9YnHxz_cAXzN8kD93z1dEFopkLwC28wASrnzppMoWr9td5ow087Er6qW4MMmFEscANfuMFH4YYwZUKigNEYDKbjxlYKH1u4Yntj/w300-h400/IMG_8497.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">क्या करें, अंकल, वक्त के साथ कदम के साथ कदम मिला कर चलना पड़ता है ...</td></tr></tbody></table><p>अच्छा, गूगल पर जो दो सवाल जवाब देखे, उसमें लिखा था कि लोग इन्हें पहनते क्यों है, जवाब लिखा था, कूल दिखने के लिए और दुनिया को यह बताने के लिए कि वह कैसे दिखते हैं, उन्हें इस की परवाह नहीं है....लेकिन पता नहीं मुझे लगता है कि कुछ और दिखने के लिए भी लोग इसे पहनते होंगे ...कूल, हॉट, अल्ट्रा-मॉड, हिप दिखने के लिए ....इन सब का एक ही मतलब होगा.....आज के दौर की स्लैंग ...</p><p></p><div style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi6GCdiQ2WjYP3PZfuBPUykrFwFzJzt1r2Cr4whywvex1bHPkKv584a0J9mqNNze4d_0J5TgXrFE8jNutWsXUifAuVw0wBQCwXcWn_t2sDzaEgWW7E70ALnIEgEdDyMsiLKcecx0-Rz3tk98REQpwlLCVpoZrUEnjPttL_SiWVth0LyMY-dSenvbDOe/s1024/WhatsApp%20Image%202023-05-16%20at%207.51.03%20AM.jpeg"><img border="0" data-original-height="1024" data-original-width="768" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi6GCdiQ2WjYP3PZfuBPUykrFwFzJzt1r2Cr4whywvex1bHPkKv584a0J9mqNNze4d_0J5TgXrFE8jNutWsXUifAuVw0wBQCwXcWn_t2sDzaEgWW7E70ALnIEgEdDyMsiLKcecx0-Rz3tk98REQpwlLCVpoZrUEnjPttL_SiWVth0LyMY-dSenvbDOe/s320/WhatsApp%20Image%202023-05-16%20at%207.51.03%20AM.jpeg" width="240" /></a></div><br />फेशन, शौक से मुझे याद आया हमारे परिवार का नन्हा सा सदस्य (जिस की फोटो यह है) इन दिनों मॉडलिंग में अपनी किस्मत आजमा रहा है ....इसे देखते ही लगता है ..."इन परिदों को भी मिलेगी मंज़िल एक दिन, ये हवा में खुले इन के पंख बोलते हैं..."<p></p><p>पोस्ट को बंद करते वक्त यह है मेरा आज का विचार ...जो मन करे पहनिए...फैशन करिए, कूल दिखिए और इस गर्मी उमस के मौसम में कूल बने भी रहिए...ज़िंदगी ने मिेलेगी दोबारा.....मुझे नहीं पता वह पंजाबी कहावत कैसे बनी ...पाईये जग भांदा ते खाईए मन भांदा....(पहनिए वह जो दुनिया को अच्छा लगे, खाइए वह जो आप को अच्छा लगे).....कोई क्यों न पहने वह सब जो उसे खुशी दे, उसे आराम दे, उस के मूड को अच्छा रखे .....खुश रहिए, मस्त रहिए ..रईसी के जलवे अलग हैं, लेकिन आम बंदे के लिए मेरी सलाह यही है कि दूसरे की रिप्ड देख कर अपनी अच्छी भली पतलून को कटवा-फड़वा लेना ठीक नहीं जान पड़ता ....इस से ईश्वर नाराज़ होता है, उस से वह समझता है हम नाशुक्रे हैं.....जैसे जिन लोगों के पास खाने को सब कुछ है, वे छरहरे दिखने के लिए क्या क्या नहीं करते ताकि भूख न लगे, उस के लिए दवाईयां तक ले लेते हैं , भूख अगर लगे भी तो कम ..ताकि वज़न न बढ़े......उन सब के लिए मैं इतना ही कहूंगा कि भूख लगना भी ईश्वर की सब से बड़ी नेहमत है ....जब कभी परिवार में किसी की भूख गायब हो जाती है न तो सारे कुनबे की भूख मर जाती है ...तब इस की क़ीमत पता चलती है......<span style="color: red;">मैंने भी अपने परिवार में दो लोगों की भूख मरती देखी है ...तीन महीने नहीं टिक पाए थे उस के बाद .</span>...उन को देख हमारी भी भूख मरने लगती थी ...इसलिए हमें ज़रूरत है हर वक्त शुकराने में रहने की ......जो मिल रहा है, खाने को पहनने को ..उसे खुशी खुशी पहनें ...सब से ज़्यादा ज़रूरी सांसे हैं, टांगे हैं .....उन को कैसे ढक रहे हैं या नहीं भी ढक पा रहे हैं, यह कुछ मायने नहीं रखता ....ज़िंदगी का जश्न उन सब चीज़ों के साथ मनाना हमें सीखना होगा जो हमें वरदान के रूप में मिली हुई हैं...आंखें, दिल, चलना-फिरना ......और भूख ....</p><p>इस रिप्ड जीन्स की बातों को दिल पर मत लेना यार, जो पहनना है पहनो, मैं भी वही पहनता हूं जो मुझे खुशी देता है, आज सुबह कुछ लिखने के लिए नहीं था, इसलिए यह सब लिख दिया....बस, यूं ही ....</p><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/1h_pH4ZWNKQ" title="YouTube video player" width="560"></iframe>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-21731797265071718192023-05-15T14:06:00.006+05:302023-12-16T20:27:23.790+05:30शकरकंदी में भी कीड़े ...<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj-13DeL7peQGsDd-nAmx9ihC2o5IDEr-bLPmglpKbzzjTE8ZKHblGj_LviL0hHusd_XlrwlJCooS2fWAJuBwG75qopURbjAenziAS5Wuvrs-5TMla9CsWDES4SfANt7Ouzw3ZX-ajOhFJsAGjYqEckUlmwOZnvPPL9aErbs6LBhijcJWAr37CV7duZ/s1024/WhatsApp%20Image%202023-05-15%20at%2012.14.27%20PM%20(1).jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="656" data-original-width="1024" height="256" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj-13DeL7peQGsDd-nAmx9ihC2o5IDEr-bLPmglpKbzzjTE8ZKHblGj_LviL0hHusd_XlrwlJCooS2fWAJuBwG75qopURbjAenziAS5Wuvrs-5TMla9CsWDES4SfANt7Ouzw3ZX-ajOhFJsAGjYqEckUlmwOZnvPPL9aErbs6LBhijcJWAr37CV7duZ/w400-h256/WhatsApp%20Image%202023-05-15%20at%2012.14.27%20PM%20(1).jpeg" width="400" /></a></div><br />हम लोग बचपन से जो खाते पीते रहते हैं हमें उन चीज़ों की आदत पड़ जाती है...है कि नहीं....इसलिए अकसर डाक्टर लोग छोटे-बच्चों के मां-बाप को यही मशविरा हमेशा देते हैं कि इन को सभी प्रकार की दालें एवं साग-सब्जियों और फलों की आदत डालो अभी से ...अगर बचपन में इन की इस तरफ़ रूचि न हुई तो ये उम्र भर इन पौष्टिक चीज़ों से बचते रहेंगे, दूर भागते रहेंगे....हम जिस दौर के हैं, उन दिनों बच्चों को अकसर एक-आध दाल या सब्जी नहीं भाती थी, लेकिन आज बच्चों को, युवाओं को कोई सी भी एक दाल या एक ही सब्जी चाहिए ...हर दिन ...अमूमन दाल मक्खनी या शाही पनीर ....स्विग्गी से या ज़ोमेटो से ....। चलिए, अब जो है सो है, यह आज एक बहुत बड़ा मसला है...मैंने भी बचपन से ही करेला कभी नहीं खाया और आज तक नहीं खा सका। बचपन में खाने-पीने की सही ट्रेनिंग की यह अहमियत है ...<p></p><h4 style="text-align: left;">शकरकंदी और सिंघाडे़ </h4><p>खैर, बात तो शकरकंदी की करने वाला था ...यह हमें बचपन से बहुत पसंद रही है...पंजाब में जिस जिले में मैं 30 बरस तक रहा -अमृतसर में- वहां हमें शकरकंदी और सिंघाड़े (water chestnut) सिर्फ ठंडी़ के मौसम में कुछ ही दिनों के लिए बाज़ार में दिखते थे ...और बस हमें इन को उन दिनों कुछ ही बार खाने का मौका मिल पाता था...लेकिन मज़ा आ जाता था उबली हुई शकरकंदी के साथ सिंघाड़े खाते वक्त जब हम लोग साथ में थोड़ा गुड़ ले लेते थे ...</p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEguEEHhe3K4PLV2Ac0nVoIMHU-oTvIQ_1L0Eg0R71ROTo3ZaGUJG7v5NdRYMXntcuFy9QJsusOpdifGazPbFO5lfHe-dQyl1gRDs20UlosPzsV5sNmJIX4zu2bMa0wGVWALfDeaK0h-A8ycvDJzzR_UZxmvL1azTycse9M46nVeVcNc51TITGfzgb5t/s960/276276589_10221290260671308_1401327185090832728_n%20-%20Copy.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="822" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEguEEHhe3K4PLV2Ac0nVoIMHU-oTvIQ_1L0Eg0R71ROTo3ZaGUJG7v5NdRYMXntcuFy9QJsusOpdifGazPbFO5lfHe-dQyl1gRDs20UlosPzsV5sNmJIX4zu2bMa0wGVWALfDeaK0h-A8ycvDJzzR_UZxmvL1azTycse9M46nVeVcNc51TITGfzgb5t/w343-h400/276276589_10221290260671308_1401327185090832728_n%20-%20Copy.jpg" width="343" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">एक पुरानी कहावत है ....भूख में चने बादाम....या ज़रूरत आविष्कार की जननी है ....जहां मैं काम करता हूं पास ही देखा पिछले साल कि ये बाल गोपाल इत्मीनान से शकरकंदी को भून रहे हैं... 🙏</td></tr></tbody></table><p>अभी भी ये दोनों चीज़ें बहुत पसंद हैं....लेकिन अब इन चीज़ों में वह पुराने वाला स्वाद नहीं रहा, क्या करें, फिर भी खाना तो है ही ..इसलिए अब शकरकंदी को उबालते वक्त उस में गुड़ डालना पड़ता है ताकि वह खाई तो जा सके। और यहां बंबई में यह शकरकंदी लगभग सारा साल ही दिखती है ...हां, उस के रंग शायद दो तरह के होते हैं...एक तो यह है जो मैंने यहां तस्वीर लगाई है थोड़े लाल से रंग में और दूसरी होती है जो भूरे से रंग वाली ....जो अकसर हम लोग पहले खाते रहे हैं...मुझे नहीं पता इन में फ़र्क क्या है...</p><h4 style="text-align: left;">शकरकंदी में कीड़े </h4><p>कल मैं उबली हुई शकरकंदी से जैसे ही छिलका उतार रहा था तो मुझे कुछ सख्त सा महसूस हुआ ....मैंने थोड़ा जोर से दबाया तो अंदर से काला सड़ा हुआ हिस्सा दिखा ...और थोड़ा और ध्यान से देखा तो पता चला कि उस में तो इतने कीड़े हैं....और एक ही शकरकंदी में ही नहीं, कईं टुकडो़ं में ये कीड़े दिखे....</p><p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTYSwzLGlMo4TLpg1lRD3pdL4tWa81nLaU6n1AOqZla-iBW0PZ_CRHZDonhvOGRGheN7jjwwABjy4WEZW7EwS226RMsJtI1sGk-0Kwi0m169ChOJYA11R2l9_HIjmPSha7m0ximhzJGM8aMwVdfV8g6I6kQl7eT2_Uwe0ny48doZR_5_WrZzEOsHRu/s1024/WhatsApp%20Image%202023-05-15%20at%2012.14.15%20PM.jpeg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1024" data-original-width="948" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTYSwzLGlMo4TLpg1lRD3pdL4tWa81nLaU6n1AOqZla-iBW0PZ_CRHZDonhvOGRGheN7jjwwABjy4WEZW7EwS226RMsJtI1sGk-0Kwi0m169ChOJYA11R2l9_HIjmPSha7m0ximhzJGM8aMwVdfV8g6I6kQl7eT2_Uwe0ny48doZR_5_WrZzEOsHRu/w370-h400/WhatsApp%20Image%202023-05-15%20at%2012.14.15%20PM.jpeg" width="370" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">देखिए, शकरकंदी में कीड़े दिख रहे हैं...मैंने पहली बार देखा इन्हें शकरकंदी में </td></tr></tbody></table><br />खाने पीने की चीज़ों में कीड़े देख कर हम लोग आज भी डर जाते हैं, सहम जाते हैं....जैसे मां जब भिंडी या बेंगन काट रही होती और उसमें से कोई कीड़ा निकलता तो हमें दिखाती और समझाती कि इसलिए मैं तुम लोगों को कहती हूं कि सब्जी कच्ची मत खाया करो...हम लोगों की उन दिनों आदत सी कच्ची सब्जी जैसे भिंड़ी, फुल गोभी आदि का एक आध टुकडा़ उठा कर खाने की ....हमें उन सब्जियों में कीड़ा देख कर इतना ़डर लगता जैसे किसी आतंकवादी को देख लिया हो...<p></p><h4 style="text-align: left;">बिना काटे आम खाने वाले भी ख्याल रखें</h4><p>खाने पीने की चीज़ों में मुझे कुछ भी ऐसा-वैसा नज़र आता है तो मैं ब्लॉग में ज़रूर शेयर करता हूं ताकि सभी पढ़ने वालों को इस की जानकारी हासिल हो ..ऐसे ही आज से 8-10 बरस पहले जब हमें आम को चूस कर खाने की आदत थी ...चूसने के बाद जब उस के छिलके को भी दांतों से कुरेदने लगे तो पता चला कि अंदर तो कीड़े ही कीड़े हैं ....बस उस दिन के बाद फिर कभी आम को काटे बिना खाया नहीं ....अगर कभी ऐसे ही बिना काटे खा भी लेते हैं तो वह घटना बराबर याद आ जाती है, ़डर डर खाते हैं...</p><p>लगभग दस बरस पहले मैंने जब आम का यह रूप देखा तो उसे इस ब्लॉग में दर्ज कर दिया था....और मैं अमूमन एक बार लिखने के बाद अपनी पोस्ट पढ़ता नहीं हूं, उसे एडिट करना तो दूर की बात है ....मुझे उसे फिर से पढ़ना कुछ कारण वश असहज कर देता है ....एक रवानगी में जो लिख दिया, उसे क्या बार बार देखना...जो कह दिया सो कह दिया....😎 यह रहा मेरी उस ब्लॉग-पोस्ट का लिंक, देखिएगा....कैसे उन दिनों लखनऊ मेंं आमों की ऐश किया करते थे ...</p><p style="text-align: center;"><a href="https://drparveenchopra.blogspot.com/2014/08/blog-post_34.html">बिना काटे आम खाना बीमारी मोल लेने जैसा...</a></p><p>हां, तो यह पोस्ट सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि हमें अपने खाने पीने के बारे में सचेत रहना चाहिए...मुझे अभी लिखते हुए याद आ रहा था कि शकरकंदी को आज तक हम ने कभी काट कर खाया ही नहीं, छिलका उतारा और खाने लगे ...और हां, बहुत बार अंदर से कुछ सख्त महसूस होता, और कडवाहट सी भी लगती तो हम खा लेते चुपचाप ....यही सोच कर कि कईं बार बादाम भी तो होते हैं कड़वे ...लेकिन अब सोच रहा हूं कि वो सब शकरकंदी अंदर से सड़ी हुई कीडे़ वाली होती होगी ....खैर, अब चिडि़या खेत चुग चुकी है ...अब तो आगे की ही सुध ले सकते हैं....</p><p>खाने पीने की चीज़ों से जितना डर कर रहा जाए उतना ही ठीक है...अच्छे से काट कर , देख कर और उस का स्वाद भी अगर बदला दिखे तो फैंक दीजिए,मत खाईए...सेहत से बढ़ कर तो कुछ है नहीं। कड़वेपन से याद आया कि लौकी का जूस पीते वक्त भी ख्याल रखिए....हमारे एक साथी अधिकारी की पिछले बरस लौकी का कड़वा जूस पीने से जान जाती रही ....ध्यान रखिए, और इस नीचे दिए हुए लेख के लिंक को भी देखिएगा...उसमें बहुत उपयोगी जानकारी है इन कड़वी सब्जियों के बारे में ...अपना ख्याल रखिए...बाती छोटी छोटी हैं, लेकिन कईं बार बहुत महंगी साबत होती हैं....</p><p style="text-align: center;"><a href="https://drparveenchopra.blogspot.com/2022/09/blog-post_15.html">लौकी का रस और वह भी कड़वा </a> (इस लेख को भी ज़रूर देखिए, कभी फुर्सत में) </p><p style="text-align: left;">PS... ये जो आज कल हर मौसम में हर सब्जी और फल बाज़ार में दिखते हैं न, यह भी लफड़े की बात ही है ...हम लोग देखा करते थे गर्मी सर्दी की सब्जियां और फल अलग होती थीं....वे उसी मौसम में उगती थी, दिखती थीं और बिकती थीं. अब किसी भी मौसम में कुछ भी खरीद लो...यह क़ुदरत के साथ पंगे लेने वाली बात लगती है मुझे अकसर ...बिन मौसम के सब्जी फल उगाने के लिए बहुत से कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है एक बात, और उन को कोल्ड-स्टोरेज़ आदि मेंं रखने के लिए भी बहुत से प्रिज़र्वेटिव इस्तेमाल होते हैं....सब कैमीकल लोचा है, और क्या....इसलिए ताज़ा खाएं, सुथरा खाएं, मौसम के मुताबिक ही सब्जियों एवं फलो का सेवन करें। मुफ्त की एक और नसीहत....आदत से मजबूर, क्या करें।</p><p style="text-align: left;">छोटी सी सीख यही है शकरकंदी भी 😎खाइए ज़रूर, लेकिन काट कर ....अच्छे से देख कर, मैं भी आज के बाद कभी इसे काटे बिना नहीं खाऊंगा...</p><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/rPinhygrjZI?start=45" title="YouTube video player" width="560"></iframe>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-78891203139477862642023-04-26T16:29:00.045+05:302023-12-16T20:27:28.384+05:30डालडे पर पलने वाली पीढ़ी के भी अपने मज़े थे...<p>मुझे बार बार पूछा जाता है कि तुम्हारी किताब कब आ रही है...क्यों इतनी देर कर रहे हो ...मैं कैसे भी इस तरह के सवालों को टाल जाता हूं कि बस, आलस की बीमारी है ...जी हां, टालने के लिए कह तो देता हूं और फिर जब अपने आप से कहता हूं कि असल बात यह तो नहीं है...दरअसल मैं अपनी पुरानी यादों की गठरीयों को संभालने में ही इतना मसरूफ़ रहता हूं कि यह किताब विताब लिखने के चक्कर में कौन पड़े ....जब कि मैं बड़ी हलीमी से यह लिख रहा हूं कि कोई किताब लिखना भी अब मुश्किल नहीं लगता...एक हफ़्ते भर का काम है, छुट्टी लेकर इत्मीनान से बैठ जाऊं तो लिख लूं एक किताब भी, उतार दूं लोगों के उलाहने भी ... ..लेकिन पिछले बीस बरसों में ऐसा मौका मिला ही नहीं, पता नहीं क्यूं.</p><p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiV3zAFfK6cjnfGxsVxiyNYLUTGLhAK9s6DFPsYInnbJ4j4ySwOS_pXT31ehHtGoi0RjZuKazltFM0cTHFGrxyhhdVbK57ms3eiaduBZElxKf9LeispOiReh8Lhfoaj1cAMRcqOvoTLOL121A477Av7rvRSPF8Lqx5BBTijhEgxbATcGwqDutieG6mK/s3012/IMG_7709.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1965" data-original-width="3012" height="418" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiV3zAFfK6cjnfGxsVxiyNYLUTGLhAK9s6DFPsYInnbJ4j4ySwOS_pXT31ehHtGoi0RjZuKazltFM0cTHFGrxyhhdVbK57ms3eiaduBZElxKf9LeispOiReh8Lhfoaj1cAMRcqOvoTLOL121A477Av7rvRSPF8Lqx5BBTijhEgxbATcGwqDutieG6mK/w640-h418/IMG_7709.HEIC" width="640" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i><b>मार्च 1963 के फिल्मफेयर में दिखा यह डालडे का डिब्बा जिसने यह पोस्ट लिखने के लिए उकसाया मुझे - स्लोगन देखिए ...माएं जो बच्चों की केयर करती हैं, वे डालडा इस्तेमाल करती हैं .....कुछ सुना सुना नहीं लग रहा ...जैसे वे हाकिंग्ज़ कुकर वाले कहते थे ....जो पत्नी से करते प्यार, वे हॉकिंग से कैसे करें इंकार .... हा हा हा हा 😎</b></i></td></tr></tbody></table><br />खैर, आज डालडे का ख्याल कहां से आ गया है...लेकिन ख्याल तो उस का आता है जिसे हम कहीं भूल गए हों....जब डालडा बचपन ही से अपनी यादों में बसा हुआ है तो उसे कैसे भूल सकते हैं...लेकिन उस के बारे में लिखने का ख्याल इस लिए आया कि दो दिन पहले मैं 60 बरस पुरानी फिल्मफेयर के पन्ने (मार्च 1963) उलट-पलट रहा था....इसे खरीदा सा कुछ महीने पहले ...तो अचानक मेरी नज़र डालडे के इस इश्तिहार पर टिकी की टिकी रह गईं। लिखने का मेरा मक़सद एक यह भी होता है कि इसी बहाने आज से 50-60 पुराने दौर की यादें एक पैकेज की तरह इक्ट्ठा हो जाती हैं ..एक ब्लॉग पोस्ट की शक्ल के रूप में ...और कोई पढ़े न पढ़े, ख़ुद की डॉयरी पढ़ने से सुख मिलता ही है...😎<p></p><p>डालडे का नाम सुनते ही, इस का पुराना इश्तिहार किसी मेगज़ीन में देखते ही हमें याद आती है मां के चूल्हे-चौके की ...आग धधक रही अंगीठी की, उस पर रखे तवे पर डालडे घी में तैर रहे नमक-अजवायन के लज़ीज़ परांठों की ...जो बिना किसी हिसाब किताब के सिंकते रहते थे....जब तक जब का पेट न भर जाए और जब तक स्कूल-कॉेलेज के लिए भी वे बन कर डिब्बे में बंद न हो जाते ..। हमें याद है कि यही हमारा नाश्ता होता था ..डालडे में तैयार हुए दो परांठे- कभी आलू के, गोभी, मूली के भी, लेकिन डालडे में गडुच्च, साथ होता था आम का अचार और एक दम कड़क और खूब शक्कर वाली चाय....सच में पेट भरने के साथ साथ, नज़रें भी संतुष्ट हो जाती थीं और आत्मा को भी परम सुख की अनुभूति होती थी ...कभी कभी बेसन का पूड़ा (जिसे शायद कहीं कहीं चिल्ला भी कहते हैं), बेसन वाली रोटी (मिस्सी रोटी), दाल वाली रोटी, परांठे के साथ आलू-प्याज़ के पकौड़े भी अकसर होते थे ....और महीने में कभी एक आध बार ब्रेड भी खा लेते थे ...अच्छे से सिकी हुई मलाई और चीनी लगा कर (हमें तो तब यही भी नहीं पता था उसे मलाई सेंडविच कहते हैं😀)....</p><p>कुछ बातें सारी पोस्ट लिखने के बाद याद आती हैं जैसे मुझे यह याद आया कि मुझे चीनी के परांठे भी बहुत भाते थे...डालडे में तले ही परांठों की तो बात ही क्या करें....क्या गज़ब महक आती थी। अच्छा, एक मज़ेदार बात और ...मुझे याद है जब मैं छोटा बच्चा था (बड़ी शरारत करता था..), जब अपनी नानी के यहां गया होता तो देर रात में उठ के बैठ जाता ..रोने लगता कि मुझे चीनी के परांठे खाने हैं...नानी तो ठहरी नानी, बेचारी उसी वक्त स्टोव जला कर लग जाती काम और मुझे भी 1-2 चीनी के परांठे खा कर आराम की नींद आती। </p><p>हां, कहां मैं भी नाश्ते का पिटारा खोल के बैठ गया....अच्छी भली डालडे और मां के चूल्हे में सिक रहे परांठों की हो रही थीं...एक बात मुझे और बहुत याद आती है ...हमारा एक दोस्त था, अब तो उस का नाम भी नहीं याद ...लेकिन छु्टी वाली दिन मैं अकसर सुबह-सुबह उस के घर चला जाता क्योंकि वहां से हमें ग्रांउड में गिल्ली-डंडा, कंचे, पिट्ठू-सेका ...कुछ भी खेलने जाना होता था ...जब मैं उस के घर में पहुंचता सवेरे तो मैं देखता कि उस के घर में भी डालडे के परांठों बनाने का बदसतूर जारी है ...लेकिन हमारे घर के मुकाबले में बड़े स्तर पर...क्योंकि उन के घर में आठ-दस लोग थे....मंज़र याद करता हूं तो मज़ा आ जाता है ...उन के आंगन में आठ-दस चारपाईयां बिछी हुई हैं....उस दोस्त की झाई (मां) बार बार बच्चों को आवाज़ें लगा रही है कि उठो, नाश्ता कर लो..अंगीठी पर तले जा रहे गर्मागर्म परांठों से जो धुआं निकलता है ना उस खुशनुमा जानलेवा महक को ब्यां कर पाना मेरे बस में नहीं है, यह तो वही समझ सकता है जो उस दौर का साक्षी रहा है....हां, उस दोस्त के घर में जा कर मुझे यह बड़ा अजीब भी लगता और अच्छा भी लगता कि उस दोस्त के भाई-बहन आंखें मलते हुए बिस्तर से उठ रहे हैं और सीधा मां के पास आकर अपनी थाली में परांठे रखते हैं, साथ में चाय का गिलास उठाते हैं और चारपाई पर जा कर इत्मीनान से नाश्ता करने लगते हैं....मैं वहां बैठा बैठा सोच में पड़ जाता कि हमारे घर में तो नियम है कि बिना मुंह हाथ धोए, बिना दांत साफ किए हुए क्यों हम लोग परांठों तक पहुंच नहीं पाते ....</p><p>खैर, इसी तरह से डालडे पर हमारी पूरी पीढ़ी पल रही थी ...हम से पिछली पीढ़ी के देशी घी के किस्से सुनते सुनते कि इस डालडे का तो उन्होंने नाम तक न सुना था, सब कुछ ख़ालिस देशी घी में ही बनता था हमारे मां-पिता जी के यहां तो ...देशी घी वेरका तो हमारे यहां भी आता था लेकिन इस्तेमाल कम ही किया जाता था...दाल की कटोरी में डालने के लिए, कभी देशी घी के परांठे बन जाते थे, मक्की की रोटी पर रखे गुड़ को नरम करने के लिए देशी घी लगता था और हलवा बनाने के लिए भी कईं बार वही इस्तेमाल होता था ...कहने का मतलब मेरा यही है कि देशी घी की घर में डिमांड ज़्यादा थी और सप्लाई बहुत कम ...इसलिए बरसों बाद जब मैंने रोटी फिल्म में मुमताज का अपने ढाबे पर वह देशी घी का डॉयलाग सुना तो मुझे बहुत हंसी आई....</p><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/wmOcMWJRKew?start=331" title="YouTube video player" width="560"></iframe><div><br /></div><div>डालडा घी को याद करता हूं तो उस डालडे घी से बड़ी मस्ती से चम्मच भर भर के डालडे को निकालती और परांठों पर चुपड़ती मां याद आ जाती है ...ऐसे लगता है जैसे अभी फिर से कहीं से प्रकट हो जाएगी...लेकिन जाने वाले कहां आते हैं, उन की तो यही यादें ही हैं जिन के ज़रिए हम उन खुशनुमा लम्हों को फिर से जी लेते हैं...</div><div><br /></div><div>डालडे के डिब्बे से जुड़ी कुछ यादें ये हैं कि उस के नए दो किलो या चार किलो के डिब्बे को खोलना भी इतना आसान काम न होता था...उस के ढक्कन के नीचे टीन की सील लगी होती थी। हमारे घर में तो उसे खोलने के लिए एक ओप्नर था....लेकिन फिर भी कभी जिसने भी उस ओप्नर का इस्तेमाल किए बिना उसे खोलना चाहा उसने हाथों पर घाव ही किया ...अच्छा, अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि दो और चार किलो के डालडे के डिब्बे हुआ करते थे ...मुझे अब याद नहीं कि क्या एक किलो का भी होता था कि नहीं...शायद इसलिए नहीं याद कि हमने उसे अपने यहां कभी देखा ही नहीं, क्योंकि उन दिनों घरों में जब डालडे की खपत ही इतनी हो रही थी तो क्यों आएगा एक किलो वाला डिब्बा घरों में....</div><div><br /></div><div>नवीं कक्षा की बात है...हमारे साईंस के अध्यापक श्री सतीश वर्मा जी हमें विज्ञान बड़ी मस्ती से पढ़ाते थे ...उन दिनों मेरे 40 में से 38 अंक आते थे विज्ञान में और कक्षा में मेरी उत्तर-पुस्तिका को घुमाया जाता था ...नवीं कक्षा में जब उन्होंने हमें वनस्पति घी को तैयार करने की विधि समझाई ...Hydogenation of Vegetable Oils ..तो डालडा खाने का और भी मज़ा आने लगा ...वह और भी अपना ही लगने लगा ....ऐसे लगने लगा कि वाह, अब तो हम इसे तैयार करने की विधि भी जानते हैं ...हां, वह सब ट्राई करने के चक्कर में नहीं पड़े, यही गनीमत है लेकिन उस प्रक्रिया को जानना भी कम रोमांचक न था...</div><div><br /></div><div>डालडे का टीन वाला डिब्बा जो अभी आप ने ऊपर इश्तिहार में देखा वह जब खाली हो जाता तो उस का क्या अंजाम होता था ...वह अकसर तो कबाड़ी को बेच दिया जाता....जैसा कि अभी मैं आप को उस दौर के गीत के ज़रिए दिखाऊंगा जिस में हास्य कलाकार महमूद ने गले में डालडे का खाली डिब्बा डाला हुआ है ... कईं बार उस खाली डिब्बे में चावल-चीनी जैसी खाने पीने के पदार्थ स्टोर किए जाते थे। बहुत बार तो मैं ही अपने कंचे को संभालने के लिए एक दो डिब्बे हथिया लेता था ...एक में पुराने कंचे और दूसरे में नए कंचे....कंचों का मैं किसी ज़माने में चेंपियन था ...क्या निशाना था....शाम को जब कंचों के खेल खत्म हो जाते तो कंचों को उस डालडे के डिब्बे मे ंडाल कर धोना और फिर उन को गिनना, इसी तरह के मेरे शुगल थे ...</div><div><br /></div><div>एक बात और डालडा डालडा किए जा रहा हूं ....उसी की रट लगा रखी है मैंने ....मैं रथ को कैसे भूल गया ...एक रथ वनस्पति घी भी होता था ...शायद कंपनी ही अलग थी ..कुछ कुछ याद आ रहा है कि घर में कभी डालडे की तारीफ़ करने लग जाते, कभी रथ की ...अच्छा, हम 1975 के आसपास (जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है) ये डालडा और रथ प्लास्टिक के डिब्बों में आने लगे...ये प्लास्टिक के डालडा-रथ के डिब्बे एक किलो के साइज़ के ही आते थे ....मुझे अपने कंचे रखने के लिए वे एक किलो वाले खाली डिब्बे ज़्यादा सुविधाजनक लगते थे ..</div><div><br /></div><div>अभी हम लोग कालेज जाने लगे थे शायद कि पोस्टमेन घी शुरू हो गया ....यह एक बड़े चोकोर से टीन के आकर्षक डिब्बे में मिलता था ...यह लिक्विड तेल होता था ...मूंगफली का तेल ... इस तेल की घरों में बड़ी इज़्ज़त थी....लेकिन इसे भी कम ही इस्तेमाल किया जाता था क्योंकि यह महंगा था ...शायद दाल-सब्जी के लिए ही ...और हमारे प्रिय परांठों पर अभी भी रथ और डालडा ही चुपड़ा जा रहा था ...😃</div><div><br /></div><div>यादें भी बारात की तरह होती हैं, हर याद इस बारात में शामिल होना चाहती हैं लेकिन कोई लिखे भी तो कितना लिखे ...कितना डालडा और रथ खाया, बेहिसाब ...कितना जम गया होगा कितना घुल के बह गया होगा...ये तो ईश्वर ही जानता है लेकिन जो मुझे लगता है कि जितना परिश्रम उस दौर में लोग करते थे अधिकतर तो इस्तेमाल ही हो जाता होगा, यह मेरा कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं है....बस मुझे ऐसा लगता है ...क्या है न, जैसे जैसे देश-समाज में सम्पन्नता आई घी और तेल का भी एक बड़ा बाज़ार बन गया ....यह खाओ, यह मत खाओ......कोई विदेशी तेल के लिए कह रहा है ...कोई देशी ...कोई कुछ कोई कुछ ...कोई किसी तेल की तारीफ़ में लगा हुआ है तो कोई किसी मक्खन, घी या किसी दूसरे तेल की ....डाक्टरी पढ़ कर भी हम जैसे लोग भी अगर सच में कंफ्यूज़ ही हैं तो फिर जनसाधारण की तो बात ही क्या करें, उन्हें ताकतवर मार्कीट शक्तियां जो सबक पढ़ाना चाहती हैं, वे देर सवेर उन को अपनी चपेट में ले ही लेती हैं ..कोई भी हथकंडा अपना लेती हैं, डाक्टरों से कहलवा कर, शॉपिंग प्लॉज़ा में एक से साथ एक मुफ्त दे कर ....या और भी बहुत कुछ कर करा के ...सीधे सादे लोगों को झांसे में लेना कोई मुश्किल काम नहीं है ....इश्तिहार बाज़ी का ज़माना है ...सब कुछ मुमकिन है ...ऊपर डालडे के विज्ञापन में ही आपने देखा क्या क्या फ़ायदे गिनवा गए हैं........</div><div><br /></div><div>खैर, हम लोगों के पास तो कोई विकल्प ही न था, अब परांठे खाने हैं, देशी घी के कनस्तर पहुंच से बाहर हैं तो डालडे-रथ के ही तो खाने पड़ेंगे.....सरसों के तेल के परांठे तो नही न बन सकते....लेकिन यादें तो हैं न हमारी उस से भी जुड़ी हुई ....हमारी मां को कईं चीज़ें सरसों के तेल में भी बनाना अच्छा लगता था ...और उन का ज़ायका भी बहुत अच्छा होता था ...वैसे हमने इतनी उम्र होते होते देखा है कि बहुत से घरों में सरसों का तेल ही इस्तेमाल होता रहा है ...हमारे बड़े-बुज़ुर्ग भी इस की हिमायत करते थे ...क्या था न पहले शुद्धता का कोई इतना मुद्दा भी तो न था...लेकिन सीधे सादे थे अमूमन ...कुछ चीज़ें मुझे याद है हम लोग सरसों के तेल में ही बनी पसंद करते थे ...जैसे कि मेथी आलू...सरसों के तेल में छोंके हुए आंवले, भिंडी इत्यादि ....</div><div><br /></div><div>ऊब गया हूं इस डालडे के बारे में लिखते लिखते ...चलिए, विषय को थोड़ा बदलते हैं....मैं जब इस 60 साल पुराने फिल्मफेयर के पन्ने उलट-पलट रहा था तो मुझे बहुत से इश्तिहार और भी दिखे जिन को देख कर भी कुछ कुछ याद तो आता रहा ...चलिए, उनमें से कुछ को यहां पेस्ट करता हूं ...आप भी गुज़रे दौर का मज़ा लीजिए...</div><div>तर</div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgiYlRrMKzvbAcCOI0ImszmOt8SOMaeOA63bRlPWI_ilHTZxFU_D03y8QnXcr467A5a9JpddXS_h7OHND28ht_-O4kJxYxm-AdOQzrNBuGA1GNJEohtpV9qKjVnr8M2IQzNMIhs4kR1YJtKycARMS3mzlfbtB_X0khw4rIfOwW_wCmbf5DQU3EGw-1a/s4032/IMG_7711.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgiYlRrMKzvbAcCOI0ImszmOt8SOMaeOA63bRlPWI_ilHTZxFU_D03y8QnXcr467A5a9JpddXS_h7OHND28ht_-O4kJxYxm-AdOQzrNBuGA1GNJEohtpV9qKjVnr8M2IQzNMIhs4kR1YJtKycARMS3mzlfbtB_X0khw4rIfOwW_wCmbf5DQU3EGw-1a/w300-h400/IMG_7711.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मुझे आज पता चला कि वाटरबरी के नाम से ठंडी लगने की भी कोई दवा आती थी....मुझे तो इस के बारे में तब पता चला जब नवीं दसवीं क्लास में जब एक बार डा. साहब हमारी सेहत की जांच करने आए...उन को सब ठीक ही लगा लेकिन मैंने बाद में उन से जा कर कहा कि मुझे कमज़ोरी महसूस होती है ...उन्होंने एक पर्ची पर वाटरबरी टॉनिक लिख दिया....पिता जी बाज़ार से लाए और मैं खुद को पहलवान समझने लग गया 😇</td></tr></tbody></table><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhGj4BAMWoqsLxd8cH1lA8hPngo4JmBzMOJFGl66aP9sGkpFKKJy-_8AC-uEhCM9OBxfUPgvyU9cMspwPxW2VNEnmb_hfSReyNPCHD9uCDWmWMohh-7gAp8s2vBGZBytvhpGTSRQiSnKTtAhDEwRHBjjIWo3opXz6qPE6_BkVNDIwZallKA1KGQ4zVf/s4032/IMG_7712.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhGj4BAMWoqsLxd8cH1lA8hPngo4JmBzMOJFGl66aP9sGkpFKKJy-_8AC-uEhCM9OBxfUPgvyU9cMspwPxW2VNEnmb_hfSReyNPCHD9uCDWmWMohh-7gAp8s2vBGZBytvhpGTSRQiSnKTtAhDEwRHBjjIWo3opXz6qPE6_BkVNDIwZallKA1KGQ4zVf/w300-h400/IMG_7712.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">आज हम इस तरह के विज्ञापन का तसव्वुर भी नहीं कर सकते ...पढ़िए ज़रा इसे पूरा ...इस तस्वीर पर क्लिक कर के आसानी से पढ़ पाएंगे ...</td></tr></tbody></table><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIxwZiWE62MMXuR-xmeaz41rW2jyidJ9I3z2ymne_llHbA_bxDi7oYghn9beqVJL_J8y6Kh1LHljDcOVS2DGebcTeDJxYpl1JsbRxWYA6rtumTBoyuYpzikePPhKzD6C8WMh4qQ8JqzYMmVuNrRmopqs-ieBhr8zGLcEggvefYRxTFDkGs_ZvZAY7d/s4032/IMG_7713.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIxwZiWE62MMXuR-xmeaz41rW2jyidJ9I3z2ymne_llHbA_bxDi7oYghn9beqVJL_J8y6Kh1LHljDcOVS2DGebcTeDJxYpl1JsbRxWYA6rtumTBoyuYpzikePPhKzD6C8WMh4qQ8JqzYMmVuNrRmopqs-ieBhr8zGLcEggvefYRxTFDkGs_ZvZAY7d/w300-h400/IMG_7713.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">फिल्मफेयर के आखिरी पन्ने पर उस दौर के सुपरहिट हीरो बिश्वाजीत की फोटो </td></tr></tbody></table><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjhVdamuhQyoGUfY1kAwvREpMblHzkmBh0Juy0pW_1WZazpV2qtPYbeVfeE4oTBcMQ4z_WKj4wc0U6Zevobgrov6Kyd__xJviw_w1Mc9HcDdy99zGybTr-vg2ubnDAdq8iCa5N-4aXLZKchIZMYyghIn3o2-rqiQtaNB8PLHaOx4Wl4mrEVm-f2lCzP/s4032/IMG_7714.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjhVdamuhQyoGUfY1kAwvREpMblHzkmBh0Juy0pW_1WZazpV2qtPYbeVfeE4oTBcMQ4z_WKj4wc0U6Zevobgrov6Kyd__xJviw_w1Mc9HcDdy99zGybTr-vg2ubnDAdq8iCa5N-4aXLZKchIZMYyghIn3o2-rqiQtaNB8PLHaOx4Wl4mrEVm-f2lCzP/w300-h400/IMG_7714.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">अच्छा तो सिने स्टार्ज़ के बारे में जानने के लिए भी किताबें छपती थीं ... नीचे देखिए... फिल्म स्टारों के पोस्टर बेचने की बात लिखी है ...1963 में भी ढाई रुपल्ली में ...😁</td></tr></tbody></table><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhd_O033oP2wD2l809QJUDvKaRRyw_JqY4wtE69wMUQ1P45PRUMZADnK8bacpQMoZWj-RY5Q6KxMcJsnbaAkhjhMEGzSM_ly0fJu2t8rd14B5KBy-9VK0uVt7VdxrwFOnm7iHXV2jilUbaHjeqUvKU-OK-0xCbhkkAwWZnycN-aDFVHToE5YRkIhrX/s4032/IMG_7716.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhd_O033oP2wD2l809QJUDvKaRRyw_JqY4wtE69wMUQ1P45PRUMZADnK8bacpQMoZWj-RY5Q6KxMcJsnbaAkhjhMEGzSM_ly0fJu2t8rd14B5KBy-9VK0uVt7VdxrwFOnm7iHXV2jilUbaHjeqUvKU-OK-0xCbhkkAwWZnycN-aDFVHToE5YRkIhrX/w300-h400/IMG_7716.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मुझे यह समझ नहीं आया कि यह 16 एमएम की फिल्म का क्या फंड़ा था आज से 60 साल पहले ...अगर इस पोस्ट को पढ़ने वाला कोई पाठक इस पर रोशनी डाल सके तो अच्छा होगा...</td></tr></tbody></table><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgLYwZmGTbQdC0QdKP6b8JAJKsBKraii510YTbAK_K9T-9Ahphi5mL2audzPeBErkGNnPWv74DojrgoZwJ3w4M6umtwqiwxxMZNvjCKd27neTU64wtSLY3rycXMzswp1UrjFCN7xpM_L-7Lrr0wnIoOu-k9cXrbVw1xkJtoru8QOlWPWxeKUweHBmuz/s4032/IMG_7717.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgLYwZmGTbQdC0QdKP6b8JAJKsBKraii510YTbAK_K9T-9Ahphi5mL2audzPeBErkGNnPWv74DojrgoZwJ3w4M6umtwqiwxxMZNvjCKd27neTU64wtSLY3rycXMzswp1UrjFCN7xpM_L-7Lrr0wnIoOu-k9cXrbVw1xkJtoru8QOlWPWxeKUweHBmuz/w300-h400/IMG_7717.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">फिनिक्स मॉल है अब मुंबई में ....वहां जाते हैं ...लेकिन 60 बरस पहले वहां पर फिनिक्स मिल हुआ करती थी, जहां फिनिक्स फैबरिक्स नाम का कपड़ा तैयार होता था ...यह मेरा अनुमान है ...नाम से मैं ऐसा समझ रहा हूं..</td></tr></tbody></table><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiT7-xOPlZCETC7LXSlGrD5JqO3dWK712_sor0Xbeou3TQP_d-mjV7Fkv6b-Xuk3q7HVl3n0AsRtsgAHxQopuI_hM1B1X1FYBbUzB-yBsPlCBmG4Ya7rbWZpn7Tn6rRgKZLIgD8N5nEQ8ws4Znvkw8xLu3mxQNOy8Hc54YTikwH1ASXpFOC3dhmSWJ_/s4032/IMG_7719.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiT7-xOPlZCETC7LXSlGrD5JqO3dWK712_sor0Xbeou3TQP_d-mjV7Fkv6b-Xuk3q7HVl3n0AsRtsgAHxQopuI_hM1B1X1FYBbUzB-yBsPlCBmG4Ya7rbWZpn7Tn6rRgKZLIgD8N5nEQ8ws4Znvkw8xLu3mxQNOy8Hc54YTikwH1ASXpFOC3dhmSWJ_/w300-h400/IMG_7719.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">वाह .... फिल्मफेयर के पन्ने पर व्ही.शांताराम जैसे महानायक के दीदार भी हो गए....उस ग्रेट फिल्म डा कोटनीस के एक सीन के के ज़रिए ...</td></tr></tbody></table><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgrlvtdgA-1Cwj1vEaUDBjwIwFi87d9fCAo3Ta54VQ-5Xx1Lp8hRyuDvmGVTtrg83pU0Ier-YAv-kVTkbFsjUJy0ApEPl_t5-1b90t4dg-VlssfhDkc4aya1vHkcBriv6Lr-umsNx01_WZb43D0q6BZ8U0_7FqFbnUieet6qhxVyZ7mFVqwDBijPjP3/s4032/IMG_7720.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgrlvtdgA-1Cwj1vEaUDBjwIwFi87d9fCAo3Ta54VQ-5Xx1Lp8hRyuDvmGVTtrg83pU0Ier-YAv-kVTkbFsjUJy0ApEPl_t5-1b90t4dg-VlssfhDkc4aya1vHkcBriv6Lr-umsNx01_WZb43D0q6BZ8U0_7FqFbnUieet6qhxVyZ7mFVqwDBijPjP3/w300-h400/IMG_7720.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">क्या कहें अब इस विज्ञापन के बारे में ....यह तो बीते ज़माने की एक बात हो के रह गई है ...</td></tr></tbody></table><div style="text-align: center;"><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgK9fOLVTBVsrQ0pB7Rli2p2G19MYVzZxQXe6rrBq70d_LHtZBA1jsHYWwSQ2CPYLjOcJYcDaNo9K2wmFPKkoEbo5zYUs1crUjdDhIequBdndzVwqPsmDOrMip1Cxiw1xwStrrdmNmrD7G5Dxo6mRX6okzOdr7C_VkPYgxfxOtaQRG2jJB8LV1RiQup/s4032/IMG_7721.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgK9fOLVTBVsrQ0pB7Rli2p2G19MYVzZxQXe6rrBq70d_LHtZBA1jsHYWwSQ2CPYLjOcJYcDaNo9K2wmFPKkoEbo5zYUs1crUjdDhIequBdndzVwqPsmDOrMip1Cxiw1xwStrrdmNmrD7G5Dxo6mRX6okzOdr7C_VkPYgxfxOtaQRG2jJB8LV1RiQup/w300-h400/IMG_7721.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">महान अभिनेत्री ललिता पवार जो अपने अभिनय से अपनी भूमिका में जान फूंक देती थी ....क्या गजब का फ़न था इन के पास, ये खलनायक शाकाल, गब्बर वब्बर तो बाद में आए....इन की फिल्म देख कर सच में बच्चे तो डर जाते थे ..ये वो लोग थे जिन्होंने अपनी सारी ज़िंदगी हिंदी सिनेमा को समर्पित कर दी....इन की पुण्य याद को सादर नमन...अभी जो मैं नीचे नील कमल फिल्म का गीत एम्बेड करूंगा उस में भी ललिता पवार ने कमाल का अभिनय किया है ...</td></tr></tbody></table><div style="text-align: center;"><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLwr6IVbn1XXiPOwovwwrZNqdCTfXhqofMdjZA5bzj2GUv8aGu9NB4hmro_TLGb6NlBHo1Orv-rnMuagL2vYvkQjly1p9de6rXR1pGH-5YdMqNtlJjnudcsQm9pWDvbFalorL9vWEb1ZAh6wqe7ghex5Hi2MorrvSgwd_G9Nh-AMVN_JMDJL-NAbl7/s4032/IMG_7722.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLwr6IVbn1XXiPOwovwwrZNqdCTfXhqofMdjZA5bzj2GUv8aGu9NB4hmro_TLGb6NlBHo1Orv-rnMuagL2vYvkQjly1p9de6rXR1pGH-5YdMqNtlJjnudcsQm9pWDvbFalorL9vWEb1ZAh6wqe7ghex5Hi2MorrvSgwd_G9Nh-AMVN_JMDJL-NAbl7/w300-h400/IMG_7722.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">लो... कर लो बात ....ज्यादा मीठा खाने की सलाह दे रहा यह विज्ञापन </td></tr></tbody></table><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCFXxUQWLGbMIL-DLAc3vnvVPTwgj1TGJ1GDd61pzkT0y6ZgCM58hxcHN_OP5Tf0UsO17LiSnWTId6eqqSmckSi6n6x9ltAhH8Zd_gvSmFBzTudTtHG37DxPfW1bxuvbC2OXnt2CgGrei3P874WMr-6rXF5Amc6hWIh2k8_tqBOxMGqeAzvf1uTbWA/s3785/IMG_7718.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="2534" data-original-width="3785" height="268" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCFXxUQWLGbMIL-DLAc3vnvVPTwgj1TGJ1GDd61pzkT0y6ZgCM58hxcHN_OP5Tf0UsO17LiSnWTId6eqqSmckSi6n6x9ltAhH8Zd_gvSmFBzTudTtHG37DxPfW1bxuvbC2OXnt2CgGrei3P874WMr-6rXF5Amc6hWIh2k8_tqBOxMGqeAzvf1uTbWA/w400-h268/IMG_7718.HEIC" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">छुट्टी सब को अच्छी लगती है, इन सिने-तारिकाओं की एक दिन शूटिंग कैंसल हो गई तो ये पिकनिक पर निकल गईं ....और फिल्मफेयर ने उन लम्हों को भी कवर कर लिया ....(पढ़िएगा इसे फोटो पर क्लिक कर के ....आसानी से पढ़ पाएंगे) </td></tr></tbody></table><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCpIaDlJgzOhltmmhsrFn4hcfYSr4r8bz-Ii5NNYh83hxKZu5o6eM9gPmgMNqXx8i-lFt-4AOBI3sfVsHsXxwIkhXNM17Jw-Xuv4DQXTAxbdrIsCeUpBtx1winPbi1XQlcHOpDQaXtR6PuLhr5hUVNavD6tXI4NDrm30qp8JOLWMKzATPtnvnA1Ftt/s4032/IMG_7715.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="2862" data-original-width="4032" height="284" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCpIaDlJgzOhltmmhsrFn4hcfYSr4r8bz-Ii5NNYh83hxKZu5o6eM9gPmgMNqXx8i-lFt-4AOBI3sfVsHsXxwIkhXNM17Jw-Xuv4DQXTAxbdrIsCeUpBtx1winPbi1XQlcHOpDQaXtR6PuLhr5hUVNavD6tXI4NDrm30qp8JOLWMKzATPtnvnA1Ftt/w400-h284/IMG_7715.HEIC" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><br /><i>इस टीनोपाल की डिब्बी ने भी सफेदपोशों की नाक में दम किए रखा ....खास कर के गृहिणियों को तो उलझाए रखा इस तरह के विज्ञापनों ने ....उस की शर्ट या साड़ी मेरी साड़ी से सफ़ेद कैसे वाली प्रतिस्पर्धा ... हा हा हा हा ....<br /></i><br /><div style="text-align: left;">लीजिए, डालडे की इतनी बातें सुनने के बाद नील कमल फिल्म का यह गीत भी सुनिए...खाली डिब्बा खाली बोतल ले ले मेरे यार, खाली से मत नफ़रत करना खाली सब संसार....<a href="https://youtu.be/XYm8tLfK83E"><b>.यह रहा इस का लिंक</b></a> ...वैसे तो नीचे एम्बेड भी कर रहा हूं लेकिन कईं बार एम्बेड डिसएबल हो जाता है ....और ब्लॉग लिखने वाले को पता ही नहीं चलता...इसी फिल्म का वह सुपर-डुपर गीत था ..बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझ को सुखी संसार मिले....अभी मेरी बहन की शादी नहीं हुई थी जब यह फिल्म आई थी....मेरे पिता जी अकसर यह गीत सुनते सुनते रो पड़ते थे ...भावुक थे ... लेकिन आप इन चक्करों में मत पडिए, अगर इतनी मशक्कत कर के यह डालडे की पोथी पढ़ कर आप यहां तक पहुंच ही गए हैं तो महमूद साहब की बेहतरीन अदाकारी के साथ फिल्माया गया यह गीत ज़रूर सुनिए...गले में डालडे का डिब्बा लटका रखा है उन्होंने ...ग्रेट कॉमेडियन ऑफ ऑल टाइम्स ....🙏</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">जल्दी ही फिर किसी किस्से कहानी के साथ मिलते हैं....मुझे खुद पता नहीं इस का टॉपिक क्या होगा, अगर आप के ख्याल में ऐसा कोई विषय है जिस पर लिखा जाना चाहिए...तो नीचे कमेंट में लिखिए...कोशिश करेंगे....अच्छा, अपना ख़्याल रखिए...</div></td></tr></tbody></table><div><br /></div><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/XYm8tLfK83E" title="YouTube video player" width="560"></iframe><div><br /></div><div>PS... इस पोस्ट को लिखने के बाद मैं अपनी बहन से फोन पर बात कर रहा था तो मैंने पूछा कि इन डालडायुक्त बातों में आप भी अपनी यादें जोडिए...आप तो मेरे से 10 बरस बड़ी हैं....उन्होंने जब एक बात सुनाई तो मुझे भी कुछ कुछ याद आ गया ....उन्होंने मुझे कहा कि तुम्हें भी याद होगा कि हम लोग एक बार किराने की दुकान पर थे तो एक बंदे ने चार किलो का डिब्बा उठाया हुआ था ...टीन वाला ..जिस के ऊपर एक हुक सा लगा रहता था ...मुझे भी याद आया कि अचानक वह हुक टूट गया और वह भारी भरकम डिब्बा उस के पांव के ऊपर गया, उस के पैर का अंगूठा भयंकर रूप से कट गया था ....कुछ यादें हमेशा के लिए दिल में कैद हो जाती हैं जैसे...</div><div><br /></div><div>बहन ने यह भी बताया कि बीजी (हमारी मां) के हाथ के परांठे तो सारे खानदान में मशहूर थे ...जब भी हम लोग ननिहाल जाते तो सभी लोग कहते कि परांंठे तो संतोष ही बनाएगी....और हमारी मौसी तो खास कर के बीजी के परांठों की दीवानी थी...</div><div><br /></div><div>ऐसे ही है, जब कोई बात पुरानी छिडती है तो सब को अपने दिन याद आते हैं ..और इसी से लेख में ज़िंदगी आती है ...क्या ख्याल है आपका....!</div>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-74669587745859691492023-04-22T19:20:00.013+05:302023-12-16T20:27:34.286+05:30आज फिर दे दिया न धोखा कैमरे ने ...<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifSDOrAdKGpTYBI2G6qM9EMmOebG50LPI5KY7yieIqoThOuXnkXY52B3TgwdjqsNBsmKXPeP8U_CO8dDvGw8D9UVCC2AVdN1xP1ILAN1aPb0DcV17yAAie0u1HDyI5-1ADNPkZ4YcVxK6upPpBlOp0Ldv9qWrm1gxReZjMhRIyBw7xz_oXwqgJuI_3/s1742/IMG_7642.PNG" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1742" data-original-width="1162" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifSDOrAdKGpTYBI2G6qM9EMmOebG50LPI5KY7yieIqoThOuXnkXY52B3TgwdjqsNBsmKXPeP8U_CO8dDvGw8D9UVCC2AVdN1xP1ILAN1aPb0DcV17yAAie0u1HDyI5-1ADNPkZ4YcVxK6upPpBlOp0Ldv9qWrm1gxReZjMhRIyBw7xz_oXwqgJuI_3/w266-h400/IMG_7642.PNG" width="266" /></a></div><br />अपने ऊपर ही गुस्सा आता है जब कभी कैमरा धोखा दे देता है ...अकसर हम लोगों को कोई लम्हा ही कैद करना होता है ...अगर ऐन उसी वक्त कैमरा ही नाटक कर जाए तो खुद पर गुस्सा तो आएगा ही ...क्यों नहीं मैंने मोबाईल की यादाश्त का ख्याल रखा..<p></p><p>आज ईद है ...बंबई के बाज़ारों में, स्टेशनों पर खूब रौनकें लगी हुई हैं...लोग नए नए कपड़े पहने बाहर निकले हुए हैं....मुझे अकसर ईद के दिन लखनऊ की होली याद आ जाती है जब लोग वहां पर नए कपड़े होली खेलने के लिए ही सिलवाते हैं...नए नए कपड़े पहन पर होली खेलते हैं....</p><p>आज जब मैंने बहुत से लोगों को नए कपड़े पहने देखा तो अच्छा लगा...लेकिन अचानक नज़र पड़ गई दो बंदों पर जिन्होंने पैंट-शर्ट एक ही कपड़े से तैयार हुई पहनी थी...मुझे नहीं याद आज यह नज़ारा मैंने कितने बरसों बाद देखा होगा...मैं थोड़ा सा पीछे हटा...और मोबाईल का कैमरा ऑन करने लगा तो स्क्रीन पर आ गया कि स्टोरेज फुल है, मैनेज करो...क्या मैनेज करो यार, बीच रास्ते में इतनी गर्मी के मौसम में क्या डिलीट करो, क्या रखे रहो...और यह सब भी बीच रास्ते में खड़े होकर ...अपने ऊपर ही खीज गया....वे दोनों तो फ़ौरन आंखों से ओझल हो गए...</p><p>मेरे चेहरे पर एक मुस्कान ज़रूर बिखेर गए लेकिन ....</p><p>अपने ऊपर आये गुस्से का वक्त जब निकल गया तो यह जो मुस्कान मेेरे चेहरे पर आ गई उस का कारण था....मुझे बीते दौर की कुछ बातें याद आ गईं....बचपन में देखा करते थे कभी कभी मां-बाप थोड़ी बचत करने के लिए दो बेटों को एक ही तरह की निक्कर और शर्ट सिलवा देते थे...एक जैसा कपड़ा....उन्हें देख कर बड़ा मज़ा आता था, शरारतें सूझने लगती थीं, लोग हंसने लगते थे ......एक बात साफ़ कर दूं कि पहले हम लोगों की हंसी में वह मक्कारी नहीं थी जो आज अकसर देखने को मिलती है ...हम अगर ऐसे दो छोटे बच्चों पर हंसते भी थे या कोई फि़करा कस देते थे तो उसमें कुछ भी नहीं होता था...हल्के फुल्के मज़ाक के सिवा.....लेकिन अब हम लोगों की खिल्ली उड़ाने लगे हैं....हमें लगता है कि बस हम ही हम हैं, और कुछ नहीं....उस दिन मैं कालोनी में किसी महिला को किसी अन्य कामकाजी महिला (गृह-सेविका) से ऊंची आवाज़ में बातें करता देख रहा था तो मैंने सुना वह उसे कह रही थी ....तुम्हें पता नहीं तुम बात किस से कर रही हो.....बड़ा अजीब लगा उस दिन। खैर, हम मज़ाक की बात कर रहे थे ....मज़ाक उसे करने का हक है जो दूसरों का मज़ाक सह भी ले ..हमारे ज़माने में यह जज़्बा था ही ...हम भी मज़ाक की बातों को हंसते खेलते हंसी हंसी में उडा़ दिया करते थे ...शायद इसलिए लोगों के चेहरे भी खिले रहते थे ...</p><p>अच्छा, एक बात और ....कईं बार ज़रुरी नहीं कि किसी घर के दो बेटे ही दिखते थे एक तरह के कपड़े के ....कईं बार तो भाई ने जिस कपड़े की शर्ट पहनी होती थी, उस की बहन ने उसी कपड़े का फ्रॉक पहना होता था ...कईं बार बड़े लड़के भी एक ही तरह के कपड़े की शर्ट में दिख जाते थे ...लेकिन आज तो 45-50 बरस के दो बंदों को एक ही कपड़े की शर्ट और पतलून में देख कर मज़ा आ गया....कैमरे में कैद करना चाह रहा था क्योंकि ऐसा संयोग बीसियों बरसों में एक बार होता है इस तरह का मंज़र दिखता है ...खैर, कोई बात नहीं, फोटो न सही लेकिन इस पोस्ट के ज़रिए तो मैंने उस लम्हे को अपनी यादों में संजोने की कोशिश कर ली....</p><p>मैं फुटपाथ पर चलता चलता यह भी सोच रहा था जब छोेटे छोटे बच्चों को नए नए कपड़ों में आते जाते देख रहा था कि हमारे महान लेखकों ने भी क्या क्या लिख दिया है हमारे लिए ...उस महान लेखक मुंशी प्रेम चंद की कहानी ईदगाह याद आ गई ....वाह, क्या कहानी थी, एक बार सुन तो कभी दिल से न निकले ....इकबाल था शायद उस छोटे का नाम, अपनी बुज़ुर्ग दादी के साथ रहता था...दादी ने ईद के दिन उसे कुछ पैसे दिए कि दोस्तों के साथ ईद के मेले पर जा रहे हो, कुछ खा पी लेना, कुछ खरीद लेना....उस बालक ने अपने ऊपर बड़ा कंट्रोल रखा ...कुछ न खाया, कुछ न पिया, न ही कुछ खरीदा....एक चिमटा खरीद लाया अपनी दादी के लिए ....और मेले से लौट कर उसे कहता है कि दादी, यह इसलिए लाया हूं क्योंकि चूल्हे पर रोटी सेंकते हुए तुम्हारे हाथ अकसर जल जाते हैं....दादी ने उसे गले से लगा लिया.....</p><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/GEQm2oOOB48?start=93" title="YouTube video player" width="420"></iframe><p><b>एक बात और यह भी मुझे रास्ते में याद आ रही थी कि 12-15 बरस पहले जब मैं ऑन-लाइन कंटैंट तैयार करने के बारे में एक वर्कशाप में भाग ले रहा था तो एक साथी ने एक्सपर्ट से पूछा कि कैमरा कौन सा अच्छा है, उस के बारे में बता दीजिए....उसने कहा कि जो भी जिस वक्त आपने फोटो खींंचनी है, उस वक्त आप के पास जो भी कैमरा है, वह सब से बढ़िया कैमरा होता है। </b></p><p>यह बात समझते समझते हमे ंबरस लग गए...हम लोग लाखों रूपये के कैमरे खरीदते रहे ....हज़ारों रूपयों के लैंस खरीदते रहे ....पता नहीं कहां धूल चाट रहे होगे .......लेकिन हमेशा साथ निभाया हमारी जेब में पड़े मोबाईल के कैमरे ने .......चूंकि हम चलते फिरते फोटोग्राफर हैॆ, हमें स्टिल फोटोग्राफी तो करनी नही, हमें तो कुछ लम्हों को कैद करना होता है जो अपने आप में एक दास्तां ब्यां कर रहे होते हैं....बस एक दो पलों का हेर फेर होता है, कुछ प्लॉनिंग का वक्त नहीं मिलता....कुछ सोचने विचारने का वक्त नहीं होता, ...टार्गेट हमारे सामने होता है और हमें केवल एक बटन दबाना होता है जल्दी से भी जल्दी ...फ़ौरन ....बहुत बार ऐसा होता है कि जेब से फोन निकालते निकालते वह शॉट गुम हो जाता है, मलाल तो होता ही है, क्या करें, इंसान ही तो हैं ....अच्छा, कईं बार ऐसा भी होता है कि मोबाइल तो हाथ में था, लेकिन उसे ऑन करने के चक्कर में वह तस्वीर न ली पाए ....कईं बार कैमरा आन भी हो जाता है और उसे साईलेंट मोड करते करते बहुत देर हो जाती है .......और बहुत बार तो यही होता है जो आज हुआ....स्टोरेज नहीं है...इसलिए, मैं हमेशा कहता हूं कि मोबाइल हाथ में भी हो और कैमरा भी ऑन हो, और फुर्ती से जिसे आप कैमरे में कैद करना चाहते हैं, कर लीजिए...चुपचाप...बिना किसी तरह का भी शोर किए हुए...</p><p>लिखते लिखते बातें खुद-ब-खुद सामने आने लगती हैं....याद आ रहा है कि शायद बचपन में कभी जुड़वा बच्चे दिखते थे तो उन को भी मां-बाप एक जैसे कपड़े पहनाया करते थे...और कईं बार बाप-बेटे या मां-बेटी के कपड़े भी एक जैसे होते थे...अभी मुझे उत्सुकता हुई कि देखूं तो सही कि नेट पर ही कोई ऐसी तस्वीर दिख जाए ...मैंने 'kids with same clothes' लिख कर गूगल सर्च किया तो बहुत सी तस्वीरें दिख गईँ लेकिन जो मैं आप को दिखाता अगर आज दोपहर में मेरा कैमरा ऐन वक्त पर मुझे धोखा न दे जाता ....वह तो अलग ही तस्वीर होती....हां, यह कारण भी हो सकता है कि जो गूगल पर मुझे सर्च-रिज़ल्ट मिले वे सब खाते-पीते अमीर लोगों के थे लेकिन मैंने इस पोस्ट में उन लोगों के बारे में ही लिखा जिन को मैंने देखा कि कुछ बचत करने के लिए दो बेटों के कपड़े एक साथ एक ही जैसे कपड़े के सिलवा दिए ...इत्यादि इत्यादि ....अगर बाप ने शर्ट सिलवाई और कपड़ा बच गया तो छोटे बच्चे की कमीज़ उस में से ही निकलवा ली....जो रईस लोग इस तरह के शौक पालते हैं शौकिया, वह अलग बात है ...बि्लकुल वैसे ही जिस तरह की कटी-फटी जीनें हम लोग रईस लोगों को पहने देखते हैं तो लोग समझते हैं कि यही रिवाज़ है, यही ट्रेंड है.. ..लेकिन किसी भिखारी के असली फटे हुए कपड़ों से हम नाम-मुंह सिकोड़ कर अपना रास्ता लेते हैं...</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCzU9P0-lIv9zS3A_XUAjc_Z2ChgqJlg68u3Ke_3YwEr9lxzBRJqkIlEJbeLgpf13Ev0Iwke-Mr5_y1pFD1M4ZQxHStStdYBWADfm-_y0em2aRxQy8MyUIrORvwXcj243XS-zBiJyABgcXv4kW-uRJNawqYwGTL08HLq6n7zJEg9SVu_SbdfYGywi1/s600/shopping.webp" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="600" data-original-width="600" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCzU9P0-lIv9zS3A_XUAjc_Z2ChgqJlg68u3Ke_3YwEr9lxzBRJqkIlEJbeLgpf13Ev0Iwke-Mr5_y1pFD1M4ZQxHStStdYBWADfm-_y0em2aRxQy8MyUIrORvwXcj243XS-zBiJyABgcXv4kW-uRJNawqYwGTL08HLq6n7zJEg9SVu_SbdfYGywi1/w400-h400/shopping.webp" width="400" /></a></div><p>खैर, ये हुई कैमरे की बातें, यादें....लम्हों को कैद कर लेने की फ़िराक में रहना, उन का रिकार्ड रख लेना ...लेकिन ऐसा लगता है कि दुनिया में बहुत से अहम् फ़ैसले तो ऐसे ही चलते चलते हो जाते हैं....किसी रिकार्ड में उन का ज़िक्र तक नहीं होता (ऑफ दा रिकार्ड)....किसने पेड़ कटवाने का हुक्म दिया, किसने खिड़कियों को हमेशा के लिए दीवार बना कर बंद कर देने का फ़रमान जारी किया, कौन किस के हिस्से की धूप छांव हरियाली हड़प गया, किसी को अंदाज़ा हो ही नहीं सकता...बस, चलते चलते फ़ैसले हुए और तुरंत लागू हो गए....जिन को धूप-छांव-हरियाली, रोशनी से फ़र्क पड़ने वाला है, वे किस के आगे दुखडा रोएं, हर कोई हड़बड़ी में है ..पता नहीं कहां जाना है, कहां पहुंचना है ....क्या हो जाएगा अगर कहीं पहुंच भी गए....क्या न पहुंचेंगे तो क्या रह जाएगा.......कुछ पता नहीं......लेकिन हम दौड़े जा रहे हैं ...आखिर इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है...</p><div style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7BdMkJtQlLBNz9DsfgsD4OmkNDG-XZ2Gf01ix_lDvKux5lOahwkG8bFmoysdrgGGhNSPRA3zLu75uylnReGYBjQPgJavPp_mx0HWX-5mxaNAruo1aKr18Rytg5PKWc9j4Y2Gd6OLybPoNM-iSV-CeLDprM8aBArfxzrFRekyhtXRj6QEYIgkaDfv_/s4032/IMG_7644.HEIC"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7BdMkJtQlLBNz9DsfgsD4OmkNDG-XZ2Gf01ix_lDvKux5lOahwkG8bFmoysdrgGGhNSPRA3zLu75uylnReGYBjQPgJavPp_mx0HWX-5mxaNAruo1aKr18Rytg5PKWc9j4Y2Gd6OLybPoNM-iSV-CeLDprM8aBArfxzrFRekyhtXRj6QEYIgkaDfv_/w400-h300/IMG_7644.HEIC" width="400" /></a></div><div style="text-align: center;"><i>दादर स्टेशन के लोकल प्लेटफार्म से बाहर का ऐसा मंज़र दिख जाए, बहुत कम ही ऐसा होता है ....दोपहर के दो बजे थे और गर्मी बहुत ज़्यादा होने की वजह से दादर की मार्कीट में लोग ज़्यादा न रहे होंगे या ईद मनाने के लिए उन्होंने कहीं और का रुख किया होगा....इस जगह पर हवा के तूफ़ानी झोंके आ रहे थे ...😎</i></div><p>कुछ वक्त के बाद जब मैं दादर पहुंचा तो प्लेटफार्म नंबर एक पर हवा का ऐसा झोंका आया कि मज़ा आ गया....समंदर एक डेढ़ किलोमीटर ही होगा वहां से ....मैंने फोन हाथ में लिया, वाटसएप से बहुत कुछ उड़ाया, मोबाईल को जगह मिल गई कुछ और फोटो ठूंसने के लिए .....और मैंने दादर स्टेशन पर खड़े खड़े बाहर की तस्वीर खींची.....इस की वजह से मुझे एक गाड़ी भी मिस करनी पड़ी , लेकिन इस की परवाह कौन करे जब फोटो लेने का भूत सवार हुआ हो ... हा हा हा हा ...</p><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/IWeGrBFCW-4" title="YouTube video player" width="420"></iframe>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-28824581171931980872023-04-12T18:33:00.010+05:302023-12-16T20:27:38.310+05:30निकल बेवजह ....<p><span style="font-size: medium;">हम लोगों ने कहीं भी जाना होता है तो हम लोग कितनी प्लॉनिंग करते हैं...सब कुछ तय हो जाता है तभी चलते हैं, है कि नहीं...मुझे आज याद आ रहा था कि बचपन में स्कूल आते जाते वक्त भी मुझे एक ही रास्ते से जाना पसंद न था...तब तो कुछ पता नहीं था कि यह नये रास्तों को नापने की इतनी खुजली क्यों है, लेकिन अब इस उम्र में भी जब यह शौक बरकरार है तो सोच में पड़ जाता हूं कि ऐसा इसलिए होता होगा कि मुझे नए रास्तों से गुज़रना भाता है, नये लोग नये मंज़र देखने अच्छे लगते हैं इसीलिए होगा यह शौक भी ....</span></p><p><span style="font-size: medium;">उस दिन भी हमारे एक दोस्त जब भायखला से निकलने लगे तो मेरा भी मन हुआ कि चलिए, आज नया रास्ता ही देख लेते हैं...उन की गाड़ी में बैठ गया, यही सोचा कि रास्ते में कहीं उतर कर ..वापिस दादर की तरफ़ आ जाऊंगा...उन्हें तो रास्ते का पता था कि चेम्बूर से पहले तो कोई ऐसी जगह नहीं है जहां किसी को ऐसे छोड़ा जा सकता है। </span></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiG2oHxUa_8BzkNT1OMUp_DviTMB46cXQFfsOPwyrWz91YvAwFDu19pafO03X3S-LKO4CXqzX9SESGhygCYG1-owu2etxlNnPyYm-InrOXv8R4CHex9zZ7LNKN3LGjn_7mo2XGXA6ZS_hc4XC0J_tvzwDZt7WpxPXbk4giRkboJ_ROV18-xXQXzYs-v/s4032/IMG_7241.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiG2oHxUa_8BzkNT1OMUp_DviTMB46cXQFfsOPwyrWz91YvAwFDu19pafO03X3S-LKO4CXqzX9SESGhygCYG1-owu2etxlNnPyYm-InrOXv8R4CHex9zZ7LNKN3LGjn_7mo2XGXA6ZS_hc4XC0J_tvzwDZt7WpxPXbk4giRkboJ_ROV18-xXQXzYs-v/w400-h300/IMG_7241.HEIC" width="400" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7YQOTEv_f_Yc6EidKs46BtW-D3nr0sNRMVbqhD3zQrC0GxgoxndbeZM7pVhiJU6UTrAWy4GmX7rCXl67jBhLtpj0OXz3HlrZs65aoXXgP0eDk5LXlyGkHmUYCrJOkCValNfX3rY8WaKUhPR8YThIxPwdgy3lYc9eQRoaKH92WvdCXIWjGHHuBAKKo/s4032/IMG_7242.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7YQOTEv_f_Yc6EidKs46BtW-D3nr0sNRMVbqhD3zQrC0GxgoxndbeZM7pVhiJU6UTrAWy4GmX7rCXl67jBhLtpj0OXz3HlrZs65aoXXgP0eDk5LXlyGkHmUYCrJOkCValNfX3rY8WaKUhPR8YThIxPwdgy3lYc9eQRoaKH92WvdCXIWjGHHuBAKKo/w400-h300/IMG_7242.HEIC" width="400" /></a></div><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEham2yZn4dl-aZxqyxzo7TFxtnAsQEbJvN0TKSrudw9MAUMfPX7EfqAfCpJ1ECf9jgyqrwmGDN98nNgTWjdqZRIR3jFIlq9wk3UNLNOEymVmV6LjXd_RkumxyRAOSrSPn7GJstoN86P53tp4KE5gCx6rizL3W1hd2zzZdyUElcLiYAZcx-IEG0KblsQ/s4032/IMG_7244.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEham2yZn4dl-aZxqyxzo7TFxtnAsQEbJvN0TKSrudw9MAUMfPX7EfqAfCpJ1ECf9jgyqrwmGDN98nNgTWjdqZRIR3jFIlq9wk3UNLNOEymVmV6LjXd_RkumxyRAOSrSPn7GJstoN86P53tp4KE5gCx6rizL3W1hd2zzZdyUElcLiYAZcx-IEG0KblsQ/w400-h300/IMG_7244.HEIC" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">इस्टर्न एक्सप्रैस हाईवे पर --- चेम्बूर की तरफ़ आते हुए </td></tr></tbody></table><span><p><span style="font-size: medium;">खैर, हम लोग भायखला स्टेशन से होते हुए, सेंट मेरी स्कूल, मझगांव से होते हुए मझगांव डॉक्स की तरफ से निकल कर ईस्ट्रन एक्सप्रे हाइवे पर चढ़ गए। उन्होंने कहा कि अभी पंद्रह बीस मिनट में आ जाएगा चेम्बूर ....हम लोग चेम्बूर के एक चौक पर जब पहुंच गए तो मुझे याद आ गया कि यहां से तो मानखुर्द का रास्ता निकलता है ...वहीं मैंने उतरना था...</span></p></span><p></p><p><span style="font-size: medium;">वहां उतर कर पुलिस कांस्टेबल से पूछा कि पास में स्टेशन कौन सा है, अगर दो मिनट मैं सोच लेता तो मुझे भी याद आ जाता लेकिन इस तेज़-तर्रार ज़माने में इतना सब्र किस के पास है। उस के बताए अनुसार मैं रिक्शा लेकर गोवंडी लोकल स्टेशन पहुंच गया....उस रिक्शे में बैठे बैठे उन 10 मिनटों में आज से 30 बरस पहले के दिन याद आ गए ...जब मैं इसी इलाके में रोज़ाना शाम के वक्त पांच बजे से नौ बजे तक टीआईएसएस में क्लासें अटैंड करने आता था .... चार बजे बंबई सेंट्रल से चलता था....एक डेढ़ घंटे के बाद देवनार में टीआईएसएस पहुंचता था.... गोवंड़ी स्टेशन से आटो में आ जाता था...कभी पैदल चलने की इच्छा होती थी और वक्त होता था तो पैदल मार्च कर लेता था ...ज़्यादा दूर नहीं है गोवंडी से टीआईएसएस ...मैंने वहां एक बरस के लिए हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन में डिप्लोमा किया था....बहुत कुछ सीखा था उन दिनों वहां से ....</span></p><p><span style="font-size: medium;">खैर, मुझे गोवंडी स्टेशन की सीढ़ियां चढ़़ते चढ़ते यही लग रहा था कि शायद मैं इन पर 30 बरसों के बाद चढ़ रहा हूं ..लेकिन वह स्टेशन नहीं बदला....वहां से कुछ स्नेक्स का पैकेट लिया, और सीएसटी जाने वाली गाडी़ में बैठ गया। आठ दस मिनट में कुर्ला स्टेशन आ गया...</span></p><p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhxeFKQHbdjP0iTc3EqbGm8Cm70JhvRbTUzdGjKEbKfI85jUUjd4EK4RR8JYd_bQ_iG1Ea0sbDVRYJ6-bWcyY0xrr2M7Ot_Uhxgl4Pc62Btt7gJpuBzXVKgPGoeQXVFroQNF_vcu-Ie9tlkbsJjYWBK3VDAJJsPa_AIYNM6RZvjCffyokiGVsAoxh3a/s4032/IMG_7246.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhxeFKQHbdjP0iTc3EqbGm8Cm70JhvRbTUzdGjKEbKfI85jUUjd4EK4RR8JYd_bQ_iG1Ea0sbDVRYJ6-bWcyY0xrr2M7Ot_Uhxgl4Pc62Btt7gJpuBzXVKgPGoeQXVFroQNF_vcu-Ie9tlkbsJjYWBK3VDAJJsPa_AIYNM6RZvjCffyokiGVsAoxh3a/w300-h400/IMG_7246.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">जानवरों को भी जहां अपनापन दिखता है वही अड्डा बना लेते हैं....फूलों को सजाने की तैयारी चल रही थी स्टेशन पर...मुंबई में हर जगह मुझे तो संघर्ष ही दिखता है ....अच्छा खासा संघर्ष ...मुझे यह हर जगह, हर गली-नुक्कड़ पर दिखता है यहां </td></tr></tbody></table><p></p><span style="font-size: medium;">वहां से मुझे दादर जाने के लिए लोकल ट्रेन लेनी थी .. फॉस्ट ट्रेन ..जो सीधा दादर ही रुकती है ...एसी लोकल मिल गई ...लेकिन अंदर तो स्पेशल चैकिंग चल रही थी .... खूब रसीदें काटी जा रही थीं दो महिला टिकट चैकर थीं...लेकिन मेरे पास मेरी आई.डी तक नहीं थी....जब एक टीटी मेरे पास आईं तो मैंने अपना परिचय दिया तो उन्होंने कहा कि सर, कोई आई.डी दिखा दीजिए। इतने में मेरा ध्यान मेरे एक मरीज़ की तरफ़ गया जिसने दूर से मेरा अभिवादन किया था सीट पर बैठते ही ...मैं भी पहचान गया था...मैंने उस टीटीई को कहा कि यह जेंटलमेन मुझे जानते हैं ...(वह शायद किसी स्टेशन के स्टेशन अधीक्षक हैं)...मुझे इतना कहते जब उन्होंने सुना तो उन्होंने तुंरत टीटीई को मेरी पहचान बता दी....</span><p></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiXYwzsvgCjnXejL0r_jkJWfvWVo5qp0q2BCNAjjdldI6aTGB9O_8z6zQlxXTn840Rsx3j_WI9bv-PS3IGoop9C09va70PUkYZ6PvJiHDhpXbTBVRPaoLwYpVJtxgICa4sVl4ymRHUZOqE2tYwXM0GTn2_oPdqRxm4BAM6bBHWqpAUsEV6kuSeZSCqV/s4032/IMG_7248.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiXYwzsvgCjnXejL0r_jkJWfvWVo5qp0q2BCNAjjdldI6aTGB9O_8z6zQlxXTn840Rsx3j_WI9bv-PS3IGoop9C09va70PUkYZ6PvJiHDhpXbTBVRPaoLwYpVJtxgICa4sVl4ymRHUZOqE2tYwXM0GTn2_oPdqRxm4BAM6bBHWqpAUsEV6kuSeZSCqV/w300-h400/IMG_7248.HEIC" width="300" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEivJ9jluMt7Q48khx5YGngj9Y4zWq2n_5KJiV3AP3l9IcyquV4cXMNteIf3ZGVOBSU0UheY7SKX6HlB7l2OAzBMXFmauoiEQA8ZxQh81yLXvuhNhflvEoHmE8oRjX8L65ksPtZOaoIep-9Ue8ck_lYruOnYm-pKZQypw-XjB5wJPcqmwLMcFL6GFSEI/s4032/IMG_7249.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEivJ9jluMt7Q48khx5YGngj9Y4zWq2n_5KJiV3AP3l9IcyquV4cXMNteIf3ZGVOBSU0UheY7SKX6HlB7l2OAzBMXFmauoiEQA8ZxQh81yLXvuhNhflvEoHmE8oRjX8L65ksPtZOaoIep-9Ue8ck_lYruOnYm-pKZQypw-XjB5wJPcqmwLMcFL6GFSEI/w300-h400/IMG_7249.HEIC" width="300" /></a></div><p></p><p><span style="font-size: medium;">सोच रहा हूं कि कभी भी कहीं भी जाने से पहले जेब में आई डी तो लेकर ही चलना चाहिए....चलिए, इसी बहाने तीस बरस पुरानी यादें कुछ कालेज की और कुछ व्यक्तिगत यादें ताज़ा हो गईं ..चेम्बूर में भी हमारा उन दिनों अकसर आना जाना होता था ....उस के लिए हम कुर्ला स्टेशन पर ही उतरते थे...वहां से कभी बस मिल जाती थी, कभी रिक्शा ले लेते थे ...</span></p><p><span style="font-size: medium;">यादें भी क्या हैं, इंसान के साथ रहती हैं हमेशा ....यादों से जुड़े लोग कहां से कहां चले जाते हैं लेकिन यादें हम लोग अपने सीने से लगाए रहते हैं ....मैं अकसर कहता हूं कि किसी भी शहर के हरेक गली-कूचे, बाज़ारों, दुकानों, मंदिरों-गुरूदारों के साथ हमारी यादें जुड़ी होती हैं ....और बड़ी मीठी और गूढ़ी यादें अमूमन, एक दो खट्टी याद को मारो गोली....इसलिए भी कभी कभी बेवजह उन रास्तों पर निकल जाना चाहिए ....इतनी गारंटी मैं देता हूं कि हर बार जब आप घर से बाहर निकलेंगे, पैदल चलेंगे तो ज़रूर कुछ न कुछ ऐसा अपनी आंखों में कैद कर के लौटेंगे जिसे आपने पहली बार देखा उस दिन टहलते हुए ....</span></p><p><span style="font-size: medium;">निकल बेवजह का टाइटल इसलिए कि हमारे एक ब्लॉगर मित्र के बेटे ने यह गीत लिखा है...कुछ दिन पहले उन्होंने शेयर किया था, हमें अच्छा लगा था ...</span></p><span style="font-size: medium;"><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/HVOdNm-Qa3w?start=110" title="YouTube video player" width="560"></iframe></span><div><br /></div><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/HV_MI1lLNvU" title="YouTube video player" width="560"></iframe><div>मैं तो चला जिधर चले रस्ता ......</div>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-90882775088749894502023-03-26T09:09:00.004+05:302023-12-16T20:27:43.087+05:30टीनोपाल, नील, स्टार्च .....और आगे इस्त्री की सिरदर्दी <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh3GyhsJ41IX0glHWnQZNKpqyNOsezehaU2nHyUH_RUWT6nNP4YZ3IHQHBjB33gtDVkPHxHuEpOx7yS9zziwVhI4nq7COK6YHKg2Bam3LiDDIF1U03XPdDMSdscOUsunrLqy7fDzBl7cKeEwOLEt6w6m5rHGpsW5XmnLQ8QKnHxdwg7rwQ5ncVwes-T/s2952/IMG_6594.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2295" data-original-width="2952" height="249" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh3GyhsJ41IX0glHWnQZNKpqyNOsezehaU2nHyUH_RUWT6nNP4YZ3IHQHBjB33gtDVkPHxHuEpOx7yS9zziwVhI4nq7COK6YHKg2Bam3LiDDIF1U03XPdDMSdscOUsunrLqy7fDzBl7cKeEwOLEt6w6m5rHGpsW5XmnLQ8QKnHxdwg7rwQ5ncVwes-T/s320/IMG_6594.HEIC" width="320" /></a></div><br />कल मुझे ४७ बरस पहले की फैमिना का एक अंक मिला ...उस के ऊपर उस का दाम ५५ पैसे लिखा हुआ है। इस तरह के मैगज़ीन एक तरह से प्राप्स हैं जो मुझे लिखने में मदद करते हैं...इन में जो विज्ञापन होते हैं उन पर एक ब्लॉग तो क्या पूरी एक किताब लिखी जा सकती है। कोई कोई विज्ञापन आप को उठा कर गुज़रे दौर के दिनों की यादों की बारात में ले जाता है....अच्छा, इस बात का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है कि फैमिना के इस अंक में ८०-९० विज्ञापन होंगे और हर विज्ञापन में महिला माडल ही दिखीं....एक दो विज्ञापनों में ही पुरूष माडल दिखे ..खैर, मैं तो टीनोपाल के इश्तिहार को देख कर रुक गया....<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-7_wsvXJM2fJdsw_rXnfu5G7enSxzH7md3r75YLb8C1JEYCd7214_FBXmipzzRBjA-igqcGlsJnU3njM7ZHq6x0xQ6IOVqJPQI7_v24y62drNklQ1Nb3RwbyiPk1UWo_d4cFbiQFFCXHrbrfqgrxy1BIOwofy-dCibSEc30F15Q5q0tyUQ-CglKoQ/s4032/IMG_6595.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-7_wsvXJM2fJdsw_rXnfu5G7enSxzH7md3r75YLb8C1JEYCd7214_FBXmipzzRBjA-igqcGlsJnU3njM7ZHq6x0xQ6IOVqJPQI7_v24y62drNklQ1Nb3RwbyiPk1UWo_d4cFbiQFFCXHrbrfqgrxy1BIOwofy-dCibSEc30F15Q5q0tyUQ-CglKoQ/s320/IMG_6595.HEIC" width="240" /></a></div><p>कईं दिनों से राइटर ब्लॉक से जूझ रहे को जैसे एक बहाना मिल गया ....फिर से लिखने का ...मेरे साथ ऐसा ही है, मुझे ये सब बहुत कुछ याद दिलाते हैं और लिखने के तैयार करते हैं। टीनोपाल ....वाह .....मुझे अच्छे से याद है उस छोटी सी एल्यूमीनियम की टीनोपाल की डिब्बी का हमारे गुसलखाने की शेल्फ पर क्या स्थान था। टीनोपाल हो या नील (इंडिगो) ...इंडिगो तो कार्डबोर्ड की डिब्बी में ही पड़ा होता ...लेेकिन इन दोनों चीज़ों को बड़ी एहतियात से रखा जाता। </p><p>टीनोपाल की यादें यह हैं कि इस को मेरे पिताजी की सूती पतलून और शर्ट और मां की सूती साडि़यों और ब्लाउज़ में अच्छी चमक पैदा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था....कपडे़ धुलने के बाद उन को फिर से एक बाल्टी में डाला जाता था जिसमें थोड़ा से टीनोपाल का घोल पहले से रहता था। कईं बार अगर घर में टीनोपाल या नील खत्म होता और मां को कपड़े धोते हुए याद आ जाता तो मैं हमें एक-दो रूपये थमा कर पास ही के एक खोखे से उसे लाने का फ़रमान जारी कर देतीं..और हम पांच मिनट में ये सब चीज़ें लेकर हाज़िर हो जाते....हां, कईं बार ५० या १०० ग्राम की रेड-लेबल चाय, एक पाव किलो चीनी और दो सेरीडॉन की गोलियां भी उस लिस्ट में शामिल हो जाती थीं...टीनोपाल की डिब्बी तो एक रूपये से कम ही में आती थी...मुझे कल रात में याद आ रहा था कि ये घर में बार बार सेरीडॉन की गोलियां क्यों आती थीं...फिर यही ख्याल आया कि महीने के आखिरी दिनों में जब वैसे ही कड़की के बादल छाने लगें और ऊपर से यह सब टीनोपाल, नील, मांड और इस्त्री की सिरदर्दी और ऊपर से हम जैसे खुराफाती बच्चे हों तो सेरीडॉन के बिना उन का काम कैसे चलता...मां तो इन सब से फ़ारिग हो कर सिर पर दुपट्टा कस के लेट जाती ..चाय की एक प्याली पी कर। </p><p>अच्छा, टीनोपाल तो लग गया....एक नील लगाने की प्रोसैस भी होती थी.....अब भी वह होती है पसीने से खराब हो रहे कपड़ों को सफेद करने के लिए....लेकिन यह भी एक फ़न होता है दोस्तो, नील लगाना भी ....कईं बार नील के धब्बे इतने पड़ जाते हैं कि फिर उन को छुड़ाने के लिए भी एक सेरीडॉन की गोली की ज़रूरत पड़ सकती है। और, अब आती है बारी माया की ...जिसे स्टार्च कहते हैं....मुझे अभी यह लिखते हुए याद आ रहा है कि पहले यह स्टार्च-वार्च कोई खरीदता नहीं था (शायद हम ही न खरीदते होंगे ...या टीनोपाल नील तक ही बजट जवाब दे देता होगा...) ...धुंधली धुंधली याद तो है कि कभी एक पैकेट में स्टार्च आती तो थी घर में ...लेकिन कईं बार देखा कि जब स्टार्च चाहिए होती तो उस दिन साथ में अंगीठी पर चावल भी पक रहे होते....उस में से मांड (पंजाबी हमें उसे कहते हैं चावल की पिच्छ) निकाल कर धुले हुए लेकिन गीले सूती कपड़ों को उस में चंद मिनटों के लिए भिगो दिया जाता ..बस स्टार्च लग गई और बस अब सुखाने का काम रह जाता। </p><p>सूखने के बाद उस इस्त्रीकरने वाले भैय्ये की सिरदर्दी शुरु हो जाती ..यह भी याद है कि स्टार्च लगे कपड़ों को इस्त्री करने का रेट डबल होता ...क्या करे...मुझे तो उस कोयले वाली प्रैस से कपड़े प्रैस होते देखना ही इतना अच्छा लगता कि मैं कईं बार और कुछ करने को न होता तो यही देखने लग जाता ...और फिर कुछ कुछ वक्त के बाद उस का उस बड़ी लोहे की प्रैस से राख को निकालना, इधर उधर देख कर मुंह में रखने पान को बदलना, उस से पहले एक दो हंसी मज़ाक की बात करना, मुझे उस की भाषा अच्छी लगती, क्योंकि उस के और हमारे हिंदी के मास्टर के अलावा अमृतसर शहर में हमारा हिंदी से कोई दूर-दराज़ का नाता न था ....यह सब भी कितना रोमांचक लगता था उम्र के उस दौर में ..</p><p>खैर, मैं देखता कि उन स्टार्च लगे कपड़ों को इस्त्री करने में उस के पसीने छूट जाते ...वे कपड़े --जैसे कि साड़ी ही हो, वह आपस में स्टार्च की वजह से इतनी ज्यादा चिपकी होती ...उलझी होती कि पहले तो वह इत्मीनान से उस उलझन को सुलझाता ...फिर उस के ऊपर पानी छिड़क कर दो मिनट के लिए छोड़ देता...फिर इस्त्री करने की बारी आती ....मुझे यह बड़ी सिरदर्दी लगती। </p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgU-_BjhwezzpurYxSBnaYpjAcyT0RvzGhyDagahGWxpBjHMMl8V86ig4guwtevrM-pBq3Ql5KWDlRsRhB_lIDBi4g3pxOCf7O2zScNY-xRRpnRX_bDgzC4K7WJYMB1M3HZTOpJrT3ahBcSPtkdQGlf-bqjFBWxi6WaSh9K8zjyjmc98kLN47ISv4tA/s3780/IMG_6606.HEIC" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2757" data-original-width="3780" height="234" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgU-_BjhwezzpurYxSBnaYpjAcyT0RvzGhyDagahGWxpBjHMMl8V86ig4guwtevrM-pBq3Ql5KWDlRsRhB_lIDBi4g3pxOCf7O2zScNY-xRRpnRX_bDgzC4K7WJYMB1M3HZTOpJrT3ahBcSPtkdQGlf-bqjFBWxi6WaSh9K8zjyjmc98kLN47ISv4tA/w320-h234/IMG_6606.HEIC" width="320" /></a></div>लेकिन साठ सत्तर बरस पुरानी मां और पिता जी की जो तस्वीरें देखता हूं तो मज़ा आ जाता है ...मैं बड़े फ़ख्र से बताया करती कि तुम्हारे पापा को उन दिनों इसी तरह से कपड़ों को पहनने का शौक था...साथ में कभी कभी कह देती हल्के से कि फिर आगे जैसे जैसे जिम्मेदारियां बढ़ती गईं ......(कुछ बातें बिना कहे ही समझने वाली होती हैं...ज़रूरी नहीं हर बार को पूरा कहा जाए) ...<p></p><p>बीस पच्चीस साल पहले हमें भी यह स्टार्च लगवा कर कपड़े पहनने का शौक सवार हो गया...तब तक एक रिवाईव नाम का पावडर आ गया था ...उस में भिगोने से धुले हुए सूती कपड़े एक दम कड़क हो जाते थे ....कड़क ही तो चाहिए थे तो न कपड़े, कड़क चाय की तरह ...लेकिन कुछ ही अरसे के बाद हमें अपने लिए तो यह ज्ञान हो गया कि यार, इतनी सिरदर्दी क्यों ....क्या हो जाएगा कड़क दिखने से, कड़क कपड़े पहनने से ....(हां, कडक चाय से मूड सही हो जाता है, वह पक्का है) ..इसलिए हमने तो मना कर दिया कि हमारे कपड़ों को कड़क मत किया जाए.....(लिखते लिखते याद आ रहा है कि गुज़रे हुए कड़की के दौर में लोगों ने कपड़े कड़क पहनने का शौक जारी रखा, हिम्मत की बात है ..) </p><p>अब मैं लोकल स्टेशनों पर युवा वर्ग के लोगों को - युवकों को, महिलाओं को बिना इस्त्री किए हुए कपडे़ पहने देखता हूं तो मुझे अच्छा लगता है ...क्योंकि मैं भी यही करना चाहता हूं ...अभी नौकरी कर रहा हूं, एक ढंग से कपडे़ पहनना मजबूरी है ...उस से फ़ारिग होते ही अपने मोबाइल से और इस्त्री किए हुए कपड़ों से परहेज़ रखूंगा ...मिल गए तो ठीक नहीं, न मिले तो भी ठीक..वैसे भी जिस तरह के कपड़े पहनना मेरे दिल के बहुत करीब है ..केज़ुएल वियर ...उन में इस्त्री चाहिए नहीं होती..</p><p>इस्त्री करने से एक बात याद आ गई और ...चलिए, लिखते हैं उसे भी ...मेरी बड़ी बहन को भी अच्छे कपडे़, प्रैस किए ही पहनने अच्छे लगते थे...अच्छा, होते सब के पास यही चार पांच जोड़े ही थे, जोडे़ का मतलब सलवार-कमीज़, पतलून-कमीज़ या निक्कर-बुशर्ट ...किसी शादी-ब्याह में जाने से पहले एक जोड़ा सिलवा लेते थे ...हां, तो जब छुट्टियों में या वैसे किसी पारिवारिक समारोह में बाहर कहीं जाना होता तो बहन तो अपने तीन चार जोड़े अच्छे से इस्त्री कर के उन्हें अपने लोहे के ट्रंक में करीने से रख लेती ....और हम भी जैसे जैसे .....हां, हमारे पास भी लोहे की एक छोटी सी प्रैस थी और बहन को कपड़े इस्त्री करने का आलस कभी न था....मैं बहन को ये सब बातें याद दिलाता हूं तो हम बहुत हंसते हैं...</p><p>अभी यह पोस्ट लिख ही रहा था कि एक मित्र का वाट्सएप मैसेज आया कि क्या हुआ, तुम्हारे ब्लॉग सूख गये हैं....और ऐसे तो मेरी पढ़ने की आदत भी छूट जाएगी...😂😎...अच्छा लगता है जब ऐसे संदेश आते हैं....मैंने लिखा कि लिख रहा हूं, अभी भिजवाता हूं ...मुझे पता है कि मेरे अनुभवों से मिलते जुलते और बहुत मुमकिन हैं इन से भी कभी लज़ीज़ अनुभव आप के पास हैं...लेकिन बहुत से लोग लिखते हुए झिझकते हैंं, पता नहीं क्या हो जाएगा....कुछ नहीं होगा, दोस्तो, इत्मीनान रखिए...बस लिखते लिखते लिखने वाला हल्का जरूर हो जाएगा....और कुछ हो न हो....इसलिए जो भी मन में हो, लिखने की आदत डालिए....ब्लॉग लिखते हुए अभी झिझक रहे हैं तो कोई बात नहीं, कुछ दिन डॉयरी लिखिए...उसे पढ़िए, मज़ा आएगा....वह झिझक भी दूर हो जाएगी...</p><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/vOAeO2XDkhk?start=126" title="YouTube video player" width="560"></iframe>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-84723339146820202822023-03-19T11:38:00.001+05:302023-12-16T20:27:48.493+05:30सच कहूं तो ......नीना गुप्ता की आत्मकथा<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_YfFHwrhaTz6l8UBJP14TOjZuHtAYw28lKmTVbJsM-itrYg2rUwQeHA12Oe7Z3hBhMr3E2JX8Uy92J7NNFakDD4s7AYVmO0QC30mBPwB-i9KEimeD0Gk04bm0WVBs6U2_7h4-RUh2gQzqzReO9HgPqeBKiBZnLl12j_Lhh6aGBpdvTyIz6VOAEdiN/s1452/IMG_6306.PNG" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1452" data-original-width="959" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_YfFHwrhaTz6l8UBJP14TOjZuHtAYw28lKmTVbJsM-itrYg2rUwQeHA12Oe7Z3hBhMr3E2JX8Uy92J7NNFakDD4s7AYVmO0QC30mBPwB-i9KEimeD0Gk04bm0WVBs6U2_7h4-RUh2gQzqzReO9HgPqeBKiBZnLl12j_Lhh6aGBpdvTyIz6VOAEdiN/s320/IMG_6306.PNG" width="211" /></a></div><br />कल छुट्टी तो ली थी किसी और काम के लिए ..कहीं जाना था, जा नहीं पाए और सारा दिन नीना गुप्ता की ३०० पन्नों की आत्मकथा पढ़ने में लग गया....परसों देर रात पढ़ना शुरू किया था...अभी अभी ही उस पाठ का समापन हुआ है ...<p></p><p>मुझे पढ़ रहा था और मुझे कहा गया कि मैं तो ऐसे पढ़ रहा हूं जैसे कॉलेज के कोर्स की कोई किताब हो...लेकिन मुझे तो पढ़ते पढ़ते लग रहा था कि इतनी लगन से मैंने अपने स्कूल-कॉलेज के दौर में किसी किताब को नहीं पढ़ा....ऐसा क्या था इस में। इतना ही कहना चाहूंगा कि बहुत ईमानदारी से लिखी हुई आत्मकथा है यह ...वरना, मैं तो एक किताब के थोड़े पन्ने उलट-पलट कर, थोड़ा बहुत उसे पढ़ कर दूसरी किताब या मैगज़ीन उठा लेता हूं ...मैं इंगलिश, हिंदी और पंजाबी और उर्दू में लिखा पढ़ता हूं ...उर्दू में बहुत कम क्योंकि अभी उसे पढ़ने में वह रवानी नहीं है, जो किसी भी ज़बान को पढ़ने के लिए ज़रूरी होती है ...</p><p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhE51oicTPPAWYhNu6H8IPRVLf6-DDUmQmMIM4Hqguo5HhoXyXwvREIMtTW0PA5v8VcwuJgn9ZkV9UmMR4VsnTEe73auNTecPnySYkadG7D2QT0VUvmAOOFCT0YlUidVGrAPcU1BTa45rAwiwQbUUb25hNbTV23Zz6M6CjbSYBwAUS8MvyyaOaYjShi/s4032/IMG_6305.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhE51oicTPPAWYhNu6H8IPRVLf6-DDUmQmMIM4Hqguo5HhoXyXwvREIMtTW0PA5v8VcwuJgn9ZkV9UmMR4VsnTEe73auNTecPnySYkadG7D2QT0VUvmAOOFCT0YlUidVGrAPcU1BTa45rAwiwQbUUb25hNbTV23Zz6M6CjbSYBwAUS8MvyyaOaYjShi/s320/IMG_6305.HEIC" width="240" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">आज सुबह हमारे डाइनिंग पर बिखरी कुछ किताबें-रसाले <br /></td></tr></tbody></table><br />नीना गुप्ता की आत्मकथा को पढ़ते पढ़ते मैं यह सोच कर मन ही मन हंस भी रहा था कि जिन किताबों को हमने पूरा पढ़ा उन के नाम मुझे याद हैं...मेरे से नहीं पढ़ी जाती कोई भी किताब पूरी ...स्कूल-कॉलेज के दिनों में भी बीच बीच में, पुराने सालों के प्रश्न-पत्र देख कर अनुमान लगा लिया करता था ..गलत या सही जो भी होता...उतना ही पढ़ कर जाता। लेकिन हां, मुझे बचपन में किराए पर लाए हुए नंदन, चंदामामा और राजन-इकबाल के जासूसी नावल पढ़ना बहुत पंसद थे ...मां को अपने पाठ की किताब को और रामायण को पूरा पढ़ते देखता था ...देर रात तक कईं बार पढ़ती रहती ...सब की मंगल-कामना करतीं। <p></p><p>दो चार बरस पहले मैं एक आत्मकथा और पढ़ी थी ....सुरेंद्रमोहन पाठक ...जिन्होंने ४०० से ज़्यादा नावल लिखे हैं....उन का नावल तो नहीं पढ़ा कोई लेकिन आत्मकथा इतनी रोचक थी - दो भागों में थी....कि दो तीन दिन लगा कर पढ़ लिया था....और एक बार जब किसी साहित्यिक उत्सव में मिले तो उन को यह बताया भी था..</p><p>३०० पन्नों में नीना गुप्ता ने क्या लिखा है, मेरे लिए बताना कठिन है, क्योंकि उन्होंने दिल से लिखी है किताब....मैं पढ़ रहा था तो किसी ने कहा कि पता नहीं खुद लिखते हैं या लिखवाते हैं...खैर, यह माने ही नहीं रखता, पढ़ते हुए पाठक को समझ आ जाता है कि कितनी ईमानदारी से लिखा गया है ...हम खामखां जज बन बैठते हैं...जिस की ज़िंदगी है उसने जो लिखा उस के बारे में आराम से उसे पढ़ो, समझो ...और जो भी तुम सोचना चाहो सोचो ....कौन रोक रहा है...</p><p>किताबें बहुत सी देखता हूं ..कुछ छूता हूं, कुछ के पन्ने उलट-पलट लेता हूं और बहुत कम को ही पढ़ने का सब्र रखता हूं लेकिन किताबों के बारे में बहुत सी कहावतें याद हैं ..किसी की लिखी किताब को पढ़ना उसे मिलने जैसा है ..पुरानी किताबों को पढ़ना गुज़रे दौर के महान लोगों को मिलने के बराबर है. मैं इसे बिल्कुल सही मानता हूं...</p><p>और किसी भी लेखक को , किसी शायर को एक जज की नज़र से देखना बड़ा आसान है......लखनऊ में एक बार किसी प्रोग्राम में था, वहां पर जावेद अख्तर के सामने उन के मामा मजाज लखनवी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में किसी ने कोई टिप्पणी की। उस का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि देखिए, हर इंसान या हर कलाकार एक पैकेज होता है, उस में बहुत सी चीज़ें शामिल होती हैं.....वह पैकेज ही तभी तैयार हो पाता है क्योंकि उसमें बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे समाज सही ठहराता है, कुछ चीज़े समाज को ठीक नहीं लगतीं....लेकिन जब आप उस शख्स का काम देखते हैं तो उसमें वह अपनी छाप छोड़ जाता है और आने वाली पीढ़ियां उस को पढ़ती हैं, और उस को समझने की कोशिश करती हैं और सीख लेती हैं....</p><p>नीना गुप्ता की आत्मकथा को पढ़ते हुए भी मुझे ऐसा लग रहा था कि इतना संघर्ष किया इस फ़नकार ने, सारी ज़िंदगी ही जद्दोजहद से भरी पड़ी, इतने तरह के अलग अलग अनुभव हुए....अलग अलग लोग मिले अलग अलग जगहों पर ..और सब से कुछ न कुछ सीखा....कोई भी हो जो इतना तप जाएगा, ज़िंदगी के इतने सार सबक समेट लेगा तो फिर उन का करेगा क्या.........सब कुछ हमें अपने फ़न के या अपनी कलम के ज़रिए लौटा देगा.....ताकि बहुत से लोग उन से सीख ले सकें, प्रेरित हो सकें.......लेकिन एक बात तो है कि लोग दूसरों के तजुर्बों से कम ही सीखते हैं....</p><p>बहरहाल, नीना गुप्ता की आत्मकथा ..सच कहूं तो ....मुझे बहुत पसंद आई ....उत्ति उतम ..... बधाई हो ...</p><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/6dNYSyOnRwE" title="YouTube video player" width="560"></iframe>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-34888761408114412992023-03-11T07:53:00.004+05:302023-12-16T20:27:52.054+05:30व्यंग्य लेख .....काटने वाले जूते...<p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi42af18OrR2jeCvzIhAoT-aPbNZumVdR7JayId1H04XVNHe7AOanJj86_ymdnpbehxCIhpJimr9auJkZtGn3zMvPcuxpxJ3CRcDQUM9aLB35x4LBQnEXEKDJPS4OE1f2JEsFKjBGG8MdBrfUuzQVO2cuAytcsjjrUMLKopr5I7iT7N6iXI3zZxLqM7/s4032/IMG_6040.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi42af18OrR2jeCvzIhAoT-aPbNZumVdR7JayId1H04XVNHe7AOanJj86_ymdnpbehxCIhpJimr9auJkZtGn3zMvPcuxpxJ3CRcDQUM9aLB35x4LBQnEXEKDJPS4OE1f2JEsFKjBGG8MdBrfUuzQVO2cuAytcsjjrUMLKopr5I7iT7N6iXI3zZxLqM7/w300-h400/IMG_6040.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">यह तो एक कोना है ....</td></tr></tbody></table><br />जी हां, कुछ दिन पहले शादी में जाना था...नये शूज़ लेने ज़रूरी थे ...हश-पप्पी के लिए....५-६ हज़ार खर्च दिए...वहां शो-रूम में अच्छे से टहल कर भी देख लिया...खुशी हुई कि कहीं काट नहीं रहा, बड़ा नरम नरम है ...बढ़िया है ....<p></p><p>चलिए, ले गए शादी में उसे भी सामान में लाद कर ....क्या है, आज कल वैसे तो हम लोग स्पोर्ट्स शूज़ में ही आराम महसूस करते हैं....एक तो फ्लैट-फुट और ऊपर से अब घुटने भी काम करते वक्त कहा-सुनी करने लगे हैं...कर तो कईं बरसों से रहे हैं ..लेकिन अब कुछ ज़्यादा ही करने लगे हैं ...इसलिए सोच समझ कर पांव रखने पड़ते हैं...जी हां, शादी के तीनों फंक्शनों में पहन लिए हम ने भी नए नए चमकीले शूज़ ...वहां कोई काम तो होता नहीं ज़्यादा चलने फिरने वाला...चाट-पकौड़ी खाओ, दाल-मक्खनी चावल और मूंग के दाल के हलवे की मौज उड़ाओ....रौनक-मेला देखो और वापिस अपने रूम में आ कर पसर जाओ...</p><p>हां, हरेक ......को मुड़ बोहड़ के नीचे तो आना ही होता है ....हम भी वापिस पहुंच गए....नए नए शूज़ का शौक तो होता ही है, मुझे भी लगा तो चलिए अब ड्यूटी पर इन को अच्छे से चमका कर पहन कर जाया करेंगे...एक दो दिन पहन गया ..लेकिन यह देखा कि एक दो घंटे के बाद एक पैर का आगे का हिस्सा दब जाता है ...दुःखने लगता है...चलिए, मैंने इस तरह इतना गौर नहीं किया...यही लगा कि १० नंबर है और १० नंबर का जूता लिया है, और शो-रुम में पूरी तसल्ली भी कर ली थी ...तो फिर यह सब मेरा वहम होगा...</p><p>लेकिन आज फिर मैंने उसे पहना हुआ था...लौटते वक्त लोकल ट्रेन में खड़े खड़े एक पांव उस शूज़ में दबा जा रहा था ...बस, उसी वक्त मुझे यह सब ख्याल आया कि अगर जूता भी आरामदायक न हो तो इंसान परेशान हो जाता है ...</p><p>फिर मुझे १५-२० बरस पहले कहीं पर पढ़ी एक बात याद आ गई कि अगर अपनी ज़िंदगी की परेशानीयां को भूलना चाहते हैं तो तंग जूते पहन लीजिए ...आप दिन भर उन इन तंग, काटने वाले जूतों की वजह से ही इतने परेशान रहेंगे कि आप को कुछ और सोचने की फ़ुर्सत ही न मिलेगी। मैंने उस के साथ यह भी जोड़ दिया कि यही नहीं अगर हम लोग अंडर गार्मैंटस भी तंग डाल लें तो भी हमें ज़िंदगी की दूसरी तकलीफ़ें कुछ भी नहीं लगतीं....यह सब सुनी-सुनाई बातें नही, आपबीती ज़्यादा हैं....दरअसल, खरीदते वक्त नाप का ज़रा ध्यान न रहे, हरेक को खुशफ़हमी रहती है कि उस के अंडरगार्मेंट्स का साईज भी पिछले कईं बरसों से वहीं पर टिका होगा....घर आते हैं, पहन कर देखते हैं, तंग लगता है तो फिर दुकानदार के करिंदों की बातें याद आने लगती हैं कि पहनते, पहनते खुलेगा भी तो ....लेकिन कमबख्त वह नहीं खुलता....और हम सिरदर्द जैसे खरीद लेते हैं...एक बात और, हम लोग कुछ पैसे बचाने के चक्कर में या ऐसे ही बिना किसी कारण के कोई दूसरा ब्रांड ले लें तो उस का इलास्टिक इतना लाइट होता है कि शाम तक ऐसा निशान छोड़ देता है जैसे चाबुक का निशान है ...और मेरी तो एक और परेशानी हो गई है कि अगर अंडरगार्मेंटस तंग हों तो सिर दुखने लगता है ....और अगर अपने साइज़ से ज़्यादा खुले हों तो कोई भी बंदा अपने आप को बीमार समझने लगता है... साफ साफ बात यह है कि मुझे अभी तक यह सब खरीदने की समझ ही नहीं आई....दिक्कत और भी है कि अगर दो-तीन एक बार ले आते हैं तो यही सोच कर लौटाने नहीं जाते कि कौन खामखां मगजमारी करे...और आनलाईन शॉपिंग में दो-तीन किताबों के सिवा अभी तक कुछ खरीदा ही नहीं...बस आलस, हठ, झिझक या बिना किसी वजह से ...</p><p>एक बात और भी तो लिखनी है, मैंने एक कारनामा और किया दो चार बरस पहले ...लखनऊ में एक बार चार पांच जंघी (बनियान) ले आया...अच्छे ब्रांड की ...क्या कहते हैं ....याद नहीं आ रहा नाम.....याद आएगा तो लिख देंगे....लेकिन उस से मेरी बेवकूफी कम न हो जाएगी....दरअसल जब वह बनियान ले कर आया और घर आकर पहन कर देखी तो खुली तो इतनी ज़्यादा न थी, थी खुली लेकिन चल सकती थी लेकिन लंबी ज़रुरत से भी कुछ ज़्यादा ही थी...बस, वही आलस की बीमारी, अब कौन जाए इन्हें बदलने...देखते हैं, पहनते पहनते ठीक हो जाएंगी.....यह कैसा तर्क हुआ ...लंबाई कैसे ठीक होगी भाई......हार कर उन सभी बनियानों के पहनने लायक करने के लिए नीचे से कटवा कर हाथ से सिलवाई करवानी पड़ी.......लेकिन फिर भी वे अजीब सी ही लगती हैं....जिस दिन पहनो, उस दिन सारा दिन अजीब सी फीलिंग घेरे रहती है....लेकिन ये बनियान भी ऐसी हैं, पीछे ही नहीं छोड़ रहीं...अगली बार भी साइज ठीक ही आएगा इस का भरोसा नहीं ..... यह भी कोई बड़ी बात नहीं है मुझ जैसे इंसान को इन टेंडर-वेंडर की रती भर भी समझ नहीं है...हो भी कैसे सकती है, जो बंदा साठ साल की उम्र तक कभी ढंग से अपने अंडरगार्मेंटस और जूते ही नहीं खरीद पाया, वह टेंडर क्या खाक समझेगा....</p><p>अच्छा, फिर खरीदने की बात याद आई ... जूते खरीदने की बात पर वापिस लौटते हैं क्योंकि कमबख्त ये ही मुझे काटने को दौड़ते हैं...खरीदते हैं जूते, बहुत बार बेटे ऑन-लाइन मंगवा देते हैं ...लेकिन वे अकसर बड़े साइज़ के होते हैं या पहन कर काटने लगते हैं तो दो चार दिन में लौटा दिेए जाते हैं...लेकिन तरह तरह के शूज़, सैंडिल, गुरगाबी, चप्पलें, स्पोर्ट्स शूज़ और चप्पलें फिर भी घर में ऐसे इक्ट्ठे हो रहे हैं जैसे कोई शू-स्टोर हो...डिब्बों का एक अंबार लगा हुआ है ..मेरे ही नहीं हैं, उसमें ....शूज़ की अलमारी खोलते डर लगता है, खोलते ही यह समझ नहीं आती कि इन आराम फरमा रहे जोड़ों को कष्ट दें या छोड़े पुराने जूते ही पहन कर निकल पड़ें.....क्योंकि जूते निकालते वक्त एक दो ऐसे जूतों से भी वास्ता पड़ता है जो गिरने का बहाना ढूंढ रहे होते हैं.....क्या करें, वे भी। </p><p>अच्छा, एक बात है, बीसियों शूज़ होने के बावजूद, हम लोग अकसर पहनते अकसर वही एक दो हैं, जो आरामदायक से लगते हैं, जिन्हें पहन कर सुकून मिलता है ......अच्छा, पहले यह जो हम लोग, हम लोग कह कर बात करने की मेरी प्रवृति है न, मुझे उस पर काबू पाना होगा....क्या हम लोग, हम लोग.....मैं अपनी बात कर रहा हूं, क्यों दूसरों को भी साथ मिला लेता हूं ...उन की वे जानें.....क्या मालूम बाकी लोग कितने सलीके से दो चार फुटवियर में ही खुश रह लेते हों....</p><p>जब किसी मौज़ू पर लिखने लगते हैं तो पता नहीं कहां कहां से बातें याद आने लगती हैं, घेर लेती हैं एक दम ....पिछले साल की बात है हम लोग मेट्रो शूज़ के शो-रुम में घुस गए..वहां सेल लगी हुई थी ...धड़ाधड़ जूते बिक रहे थे ...इतनी तेज़ी से बिक रहे थे जितनी तेज़ी से पंजाब में भटूरे-छोले की दुकान पर कडाही से भटूरे भी न निकलते होंगे.....मुझे एक रईस दिखने वाली महिला --हां, दिखने वाली, क्योंकि आज कल किसी की असलियत का पता लगता नहीं, अगर ढंग से कोई ड्रेस अप हो, भारी भरकम मेक-अप टिका ले और अपनी भाव-भंगिमा पर थोड़ा काम कर ले, तो सब रईस ही लगेंगे ...हां, उस महिला ने उस दुकान से मेरे ख्याल में बीस-पच्चीस जूते खरीद लिए ....झट से उसने पेमेंट किया और दोनों बड़े बड़े कैरी-बैग उठा कर बाहर निकल कर टैक्सी का इंतज़ार करने लगी ...</p><p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjYcXr4UIGewdlwTgf-pRmY5967mTpLkxjUh62MljEO_8oyooGMvd-RtJVNUnFgaW2_kD5Hz2-7XngofPcQ9uFh9mMQZZ-GoCowl--rY8I4r7o-1Zi5znJplq0tAlomjP2cSyD9bK7OuO5D72QSJSDeBJnP4DkyCwHxghuM_Li2PtDMmp9DXqQWhlmS/s4032/IMG_6041.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjYcXr4UIGewdlwTgf-pRmY5967mTpLkxjUh62MljEO_8oyooGMvd-RtJVNUnFgaW2_kD5Hz2-7XngofPcQ9uFh9mMQZZ-GoCowl--rY8I4r7o-1Zi5znJplq0tAlomjP2cSyD9bK7OuO5D72QSJSDeBJnP4DkyCwHxghuM_Li2PtDMmp9DXqQWhlmS/w300-h400/IMG_6041.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">एक झलक शू-रैक की....बहुत से जूते सोफों के नीचे, बालकनी में, बेड के नीचे भी धरे-पड़े हैं....मैं कईं बार बहुत हंसता है कि ये सब रईस होने की अलामतें हैं...मतलब निशानीयां हैं... 😎😂</td></tr></tbody></table><br />हम लोगों ने भी पांच पांच छः छः जोड़े तो ले ही लिए होंगे ज़रुर ......लेकिन मैंने तो उनमें से पहना एक भी नहीं ...ये सब चीज़ें खरीदना भी एक ओबसेशन जैसा हो जाता है ....शायद आज का बाज़ार बना देता है ऐसा हमें .....शूज़ इतने ज़्यादा हो जाते हैं कि वे पड़े पड़े खराब होते रहते हैं डिब्बों में , अल्मारियों में ...कभी महानों बाद जब उन पर नज़रें इनायत होंगी और अगर ऊपर से चमड़ा भुरता दिखेगा तो उन को डिस्कार्ड कर दिया जाएगा....मां कहती थीं किसी को पुरानी चीज़ नहीं देनी चाहिए...बाहर कहीं कोने में ऱख आती थीं, जिसे ज़रूरत होगी, उठा ले जाएगा......मां का फंडा भी काफी हद तक नेकी की दीवार जैसा ही था...<p></p><p>कल जब लोकल ट्रेन में मुझे मेरे जूते काट रहे थे ..और घुटने भी दुख रहे थे तो मुझे यही विचार आ रहा था कि दुनिया के मेले में करोड़ों लोग हैं, ऐसे कैसे कि यही कोई १०-१२ साईज़ सब को फिट आ जाएं...कहीं तो चुभेगा, कहीं तो कटेगा....यह तो वही बात हुई कि पहले फुटपाथ पर नकली दातों के नए-पुराने सैट बिक रहे होते थे ...अभी भी होते होंगे.....लेकिन वह मंज़र तो हमने अपनी आंखों से देखा है....चश्मे भी इसी तरह से बिकते दिखते हैं, देख ले यार, जिससे तेरे को साफ दिखे, चल पहन ले, ऐश कर...लेकिन, जूता खरीदना भी एक टेढ़ा काम लगा अभी तक तो ...बचपन में जब मां के साथ शूज़ लेने जाते तो उस बेचारी की कोशिश यही होती कि साइज़ से थोड़ा बड़ा ही होना चाहिए ....बच्चा वाधे पिया होया ए (बच्चा बड़ा हो रहा है)......यह न हो कि जल्दी ही छोटे हो जाएँ ....हां, अगर शूज़ थोड़े बड़े आ जाते तो उस में इंसोल (पंजाबी में पतावे कहते हैं) डलवा कर काम चल जाता ....</p><p>अमृतसर शहर के पुतलीघर चौक में एक दिन पांचवी-छठी कक्षा के दिनों में मैं मां के साथ गया शूज़ लेने....जिस दुकान पर गया वहां पर मैं मास्टर बलदेव राज को देख कर हैरान हो गया...यह उन की दुकान थी ..वह हमें इंगलिश और रेखा-गणित पढ़ाते थे ... और डिप-पैन (होल्डर) से लिखने की प्रैक्टिस करवाते थे ...ले लिया शूज़, लेेकिन घर आ कर देखा तो इतना तंग कि चलने में जान निकले....मां कहें कि कोई बात नहीं बदलवा लेंगे, मेरी यह सोच कर जान निकले की मास्टर की दुकान पर यह जा कर कहूंगा कि यह काटता है ....खैर, मां ले गईँ अपने साथ अगले दिन ...और मास्टर जी ने आराम से बदल दिए शूज़...</p><p>बचपन, जवानी की बातें याद करते हैं तो बहुत कुछ ऐसा है जो हमेशा के लिए याद रह जाता है ....एक बात तो यह कि यही कोई पांचवी छठी की बात होगी, उन दिनों हम लोग सेंडिल पहनते थे ...और अगर नीचे से घिस जाते तो उन के सोल (तलवा) बदलवा लिया जाता था...मुझे अच्छे से याद है एक बार मेरे सेंडिल का तलवा भी बदलवा कर मेरे पिता जी लाए थे ...मैं अकसर उन दिनों को याद करता हूं, बच्चों के साथ शेयर करता हूं उन बातों को तो यह ज़रूर कहता हूं कि जितनी खुशी मुझे उस दिन उन सेंडिलों के नए रूप को देख कर हुई थी, उतनी मुझे कभी हज़ारों रूपये के जूते खरीद कर भी नहीं मिली .... </p><p>दूसरी बात ...मैं ग्याहरवी में पढ़ता था, मेरी बड़ी बहन मेरे से १० साल बड़ी है, उन दिनों वह कालेज में लेक्चरार हो गई थीं, मैं उन के साथ बाज़ार गया तो उन्होंने जिद्द की मुझे जूते दिलाने की ....नार्थ स्टार के शूज़ थे, १२५ रूपये के आए थे ....और शायद चार पांच साल तक मैंने उन्हें इतना पहना ....इतना पहना ..कि उन को घिस कर ही दम लिया.....आज भी जब मैं बहन को मिलता हूं तो उन जूतों को ज़रूर याद करता हूं ...हम लोग खूब हंसते हैं ...पहले हम लोगों के पास चीज़े ंकम थीं, लेकिन हम लोग उन की कद्र करते थे ...अब हम चीज़ों की तो क्या, लोगों की कद्र नहीं करते ....हम बहुत आगे आ चुके हैं...</p><p>एक याद और ...ज़्यादा से ज़्यादा हमारे पास दो शूज़ होते थे...एक काले रंग के, एक कोई कैन्वस के ...और एक हवाई चप्पल ...वह भी ज़्यादातर बाटा की ही होती....और सुबह टहलते वक्त अधिकतर लोगों ने फांटां वाला पायजामा, पैर में बाटा की या कोरोना की हवाई चप्पल - चलते वक्त ठप्प ठप्प करने वाली ....वह भी अकसर नीचे से घिसी होती, नहीं तो उस के स्ट्रैप इतनी ढीले हो जाते कि बिना वजह नाराज़ हो कर बाहर निकले रहते ......फिर उन को बीच सड़क पे अंदर डालते फिरो ....कईं बार तो मोची छोटी सी टाकी लगा कर उस की बीमारी का इलाज कर देता .....लेेकिन फिर एक वक्त यह भी आ जाता कि स्ट्रैप बदलवाने की नौबत आ जाती ....और यह एक मेजर डिसीज़न हुआ करता था कि स्ट्रैप बदलवाने हैं या चप्पल ही नईँ ले ली जाए.....नया स्ट्रैप दो-तीन रूपये में आ जाता था जहां तक मुझे याद है, और चप्पल १०-१२ रूपये की...खैर, नया स्ट्रैप लगवा कर भी मज़ा आ जाता था, एकदम कसा हुआ...हमारी तो चाल ही बदल जाती थी ... 😎😎😎😎😎</p><p>अच्छा, एक और मज़ेदार बात ....उन दिनों हम एक दूसरे के पहने हुए शूज़ पहन भी लेते थे ...हमें उसमें कोई शर्म नहीं महसूस होती थी ...जब मैं बडा़ हो गया तो मेरे जूतों का साइज मेरे चाचा जितना हो गया...तो जब हम मिलते तो चाची बड़े प्यार से हमारे सामने चाचा के कुछ बहुत अच्छे शूज़ रख देतीं कि देखो, जो तुम्हें पसंद हो, पहन लो ...और हम पहन लेते...हमें बहुत अच्छा भी लगता। </p><p>अब, न तो कैंची, हवाई चप्पलों में वह ताकत और न ही जूतों में ..कमबख्त ऐसे घिसते हैं जैसे दो कौड़ी की पैंसिल ...चलिए, घिसें ..कोई बात नहीं ..लेकिन जब कभी अचानक आदमी इन घिसी-पिसी चप्पलों की वजह से फिसलते फिसलते बचता है तो बड़ी राहत महसूस करता है ... अब चप्पलें शुरूआत से ही घिसी पिटी लगती हैं मुझे ...पहले ऐसा न था, बहुत लंबे अरसे तक पहनने पर ही वह घिसने लगती थीं, जैसे हम लोगों की ज़िंदगी में दूसरे पहले डिल्यूट हुए हैं, यह भी होना ही था, जूतों की वजह से स्लिप होना भी एक आम सी बात हो गई है....</p><p>पहले जब बूट खरीद कर लाते तो घर आ कर पैरों मे छाले हो जाते.....फिर उस पर सरसों का तेल लगाया जाता, अंदर रूईं रखी जाती ...बाद में ये जो बैंड-एड आ गईं उन को लगाना पड़ता ....बडे प्रपंच करने पड़ते भाई..फिर भी वह कहां काटना बंद करता ...फितरत हो जिस की काटने की ...फिर कभी कभी कोई कील चुभने लगती तो मोची के पास जा कर उस की ठुकाई करवानी पड़ती ... अभी लिखते लिखते यह भी याद आया कि पहले हम लोग शूज़ के नीचे बडे़ बड़े मोटे कील भी ठुकवा लिया करते थे ताकि जूते कम घिसें ...और कुछ जूतों पर तो अलग से चमड़े या रबर का सोल भी लगवा लेते ताकि जूते हिफ़ाज़त से रहे ...</p><p>कभी कभी बच्चे कहते हैं दिखाओ, जो शूज़ पहने हैं, दिखाओ.....नीचे से कैसे हैं, देखते हैं, फिर नाराज़ होते हैं ....फिर कहते हैं कि कितना बार कहते हैं कि मत पहना करो इन को अब....लेकिन आप को क्या है, आप तो रेंबो हो....फिर नये शूज़ आ जाते हैं शाम को ...लेकिन वह हमें पसंद नहीं आते या उन का साईज ठीक नहीं होता ..फिर वापिस हो जाते हैं....बस ऐसे ही ज़िंदगी चलती रहती है ...लेकिन मैंने एक बात ऊपर लिखी है न कि पहले जो मज़ा जूतों के तलवे (सोल) बदलवा कर आता था वह अब हज़ारों रुपयों के जूते खरीद कर भी नहीं आता....पहले घर में एक चप्पल भी आती थी तो सब को पता चलता था ...जैसे एक ख़त घर में आता था तो वह सब के लिए होता था, सब पढ़ते थे उसे बार बार ......अब हज़ारों रूपये के जूते आ भी जाएं तो जिस के लिए आए हों, उसे ही अकसर खोलने की फ़ुर्सत नहीं होती, तो वह आगे किस को दिखाए ......</p><p>हां, पहले एक शूज़ होता था ....उसे पालिश किया जाता था, मेरे पिता जी अपने जूते रोज़ सुबह खुद पालिश किया करते थे और हमें कहते कहते परलोक सिधार गए कि जूते रोज़ाना पालिश किए पहनने चाहिए क्योंकि जो तुम लोगों का दुश्मन होता है वह पहले तुम्हारे जूतों की तरफ़ देखता है ....पिता जी की यह बात तो कुछ खास समझ आई नहीं अब तक, लेकिन इतनी बात पक्की है जब शूज़ को अच्छे से पालिश किया हो तो बंदा सारा दिन सातवें आसमां पर टिका रहता है ...ज़रूरी नहीं तो किसी के पास दस शूज़ ही हों, लेेकिन बहुत से लोगों को मैने देखा है कि शूज़ चाहे एक हो लेकिन उसे अच्छे से रोज़ पालिश कर के पहनते हैं ....मस्त रहते हैं....समझदार लोग...</p><p>लिखते लिखते बातें याद आती रहेंगी....मेरा क्या है, लिखता रहूंगा ... लेकिन दुनिया में दूसरे काम भी तो हैं....चलिए, सुबह सुबह यह सुंदर गीत सुनिए....मुझे बहुत पसंद है यह गीत, इस की संगीत और इस के बोल ....</p><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/gHEcXqfPXk0" title="YouTube video player" width="420"></iframe>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-36859727528385082032023-03-07T16:47:00.010+05:302023-12-16T20:27:56.100+05:30रविन्द्र जैन की याद में हुए प्रोग्राम की झलकीयां .<p>दो दिन पहले शाम को यहां मुंबई के षणमुखानंद हाल में रविंद्र जैन की याद में एक म्यूज़िक कंसर्ट था...यह ६.३० बजे शुरू होना था...लेकिन मुझे ड्यूटी पर कुछ ऐसा काम था कि मुझे फ़ारिग होते होते साढ़े सात बज गए ...मुझे यही लगा कि कुछ भी कर लूं, सवा आठ बजे तक ही पहुंच पाऊंगा ....वही हुआ वहां पहुंचते पहुंचते साढ़े आठ तो बज ही चुके थे ...</p><p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhV31V1ZGaPCtKe-r4KxYq2FRcFnSyUQeo-uqsdgi4Zo4MHfnqQrpJo9PUxyL1LN6AQR1V_rm4ahjL3CjE7P2646MMsXtb8D2iO-mukXFnBjDLqRtwGHWpHorc5rVWyqfW3o8Sg4qy3GGYJCPiWvOviBXJ4haDUGfXX4HahCxgdH0x7eDyD2qCO8nFC/s3806/IMG_5864.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1413" data-original-width="3806" height="238" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhV31V1ZGaPCtKe-r4KxYq2FRcFnSyUQeo-uqsdgi4Zo4MHfnqQrpJo9PUxyL1LN6AQR1V_rm4ahjL3CjE7P2646MMsXtb8D2iO-mukXFnBjDLqRtwGHWpHorc5rVWyqfW3o8Sg4qy3GGYJCPiWvOviBXJ4haDUGfXX4HahCxgdH0x7eDyD2qCO8nFC/w640-h238/IMG_5864.HEIC" width="640" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">आर जे अकादमी- रविंद्र जैन अकादमी<br /><br /></td></tr></tbody></table>जल्दी से हाल में घुस गया...लेकिन यह क्या, २०-३० लोग तो चाय, वडा और समोसे का लुत्फ उठा रहे थे ...मैंने किसी से पूछा कि इंटर्वल हो गया क्या। कैंटीन वाले ने कहा कि नहीं, बस होने ही वाला है ..। मैंने समोसा खरीदते वक्त ऐसे ही पूछा कि इतने लोग बाहर कैसे हैं....तो किसी दूसरे ने कहा कि हरेक की अपनी पसंद है। चलिए, मैंने भी सोचा कि अब इतना लेट तो हो ही चुका हूं, एक समोसा मैं भी खा ही लूं.....मैं भी बिल्कुल ढीठ प्राणी हूं ...मुझे अमृतसर के इलावा हिंंदोस्तान की किसी भी जगह का समोसा पसंद नहीं है, थोड़ा बहुत फिरोज़पुर का भी ठीक ठाक था..लेकिन अमृतसर की हर खाने की तरह वहां का समोसा भी एकदम दा-बेस्ट(मेरी व्यक्तिगत राय है यह)....मुझे किसी भी दूसरी जगह का समोसा पसंद नहीं है, लेकिन फिर भी खा लेता हूं और फिर अपनी तबीयत खराब कर लेता हूं ..क्योंकि यह जो कच्चा कच्चा मैदा दिखता है न समोसे में ....यह मेरी जान का दुश्मन है....हर बार खा कर तौबा करता हूं लेकिन फिर कुछ दिनों बाद भूल जाता हूं...<p></p><p>चलिए, मैं हाल में अंदर जा कर बैठ गया....बहुत सी सीटें खाली थीं, तो मैंने जो खाली देखी वहीं बैठ गया....जैसा कि टिकट से ही पता चलता है वहां पर सुरेश वाडेकर और अनूप जलोटा भी आने वाले थे...हाल में पहुंचते ही सुरेश वाडेकर गीत गाते दिखे ....हुस्न पहाड़ों का ...क्या कहने कि बारह महीने...मौसम जाड़ों का .... उस के बाद सब को सम्मानित करने का सिलसिला शुरू हो गया....</p><p></p><div style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzb_Dbe12qDqkQLRySXX_45LJgbhn8zzc5zzNKN5K_-FEntymBo7mO106wLVJbsR9c5vLA37DugC3BKHWWnlQj854eVXHLdP6PA4tXYn63oclB8eu-gSQCkQDhQ-Ql3hitNYaBdLIHjzBX0uyABXwuZzkbSWaIaN9xHXa7Kfj8umgkU9bVPxv20dKf/s4032/IMG_5754.HEIC"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzb_Dbe12qDqkQLRySXX_45LJgbhn8zzc5zzNKN5K_-FEntymBo7mO106wLVJbsR9c5vLA37DugC3BKHWWnlQj854eVXHLdP6PA4tXYn63oclB8eu-gSQCkQDhQ-Ql3hitNYaBdLIHjzBX0uyABXwuZzkbSWaIaN9xHXa7Kfj8umgkU9bVPxv20dKf/w640-h480/IMG_5754.HEIC" width="640" /></a></div><br />एक बहुत बड़ी गायिका वहां स्टेज पर उपस्थित थीं....बेगम अख्तर के साथ रह चुकी हैं...और भी बहुत से बडे़ बड़े उस्तादों से सीख चुकी हैं....लोगों ने कुछ गाने की फरमाईश की तो देखिए और सुनिए उन्होंने कैसे बिना किसी साज़ के फ़ौरन समां बांध दिया ......यह होता है टेलेंट ...प्रतिभा....रियाज़ का कमाल........<div><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/oUczPhNy4XI" title="YouTube video player" width="560"></iframe></div><div><br /></div><div><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEheIujHPo44PnnGLWdLMt68Er95DAKMsdh1IMEfA8sThQhVCLl-ClV_lravkZsQYw6tjuc_7_1sKwIkZImhI0D42SHi9ZtqAsQjQy2h0Mu5CHXTuUnVrdv62P5YviQAtiZLvm8RzcRVGy9UQckVU9I12SugZPzUKJrvuONJAbRf9BWtq32kRZ6eihai/s4032/IMG_5752.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEheIujHPo44PnnGLWdLMt68Er95DAKMsdh1IMEfA8sThQhVCLl-ClV_lravkZsQYw6tjuc_7_1sKwIkZImhI0D42SHi9ZtqAsQjQy2h0Mu5CHXTuUnVrdv62P5YviQAtiZLvm8RzcRVGy9UQckVU9I12SugZPzUKJrvuONJAbRf9BWtq32kRZ6eihai/w640-h480/IMG_5752.HEIC" width="640" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">श्रीमति दिव्या रविंद्र जैन</td></tr></tbody></table><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8HAuEU33mI9-0FUxDMRDzpbxaAYWSi6PfSMk-6eCJrSbJU_bh7WXtmnh_INPo_VRMdC3fW_Bhh5jZVveHi-uESr9rZst89DoVt5Wt1BAgoNPAqwlGExxTgvVL_tyfOGQw1FThz_JrcvhZH5HM_A0HpLJ361vYc8tX43_qLrDwtYez8pG8AjeTn4ol/s4032/IMG_5751.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8HAuEU33mI9-0FUxDMRDzpbxaAYWSi6PfSMk-6eCJrSbJU_bh7WXtmnh_INPo_VRMdC3fW_Bhh5jZVveHi-uESr9rZst89DoVt5Wt1BAgoNPAqwlGExxTgvVL_tyfOGQw1FThz_JrcvhZH5HM_A0HpLJ361vYc8tX43_qLrDwtYez8pG8AjeTn4ol/w640-h480/IMG_5751.HEIC" width="640" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">श्रीमति रविंद्र जैन, सुरेश वाडेकर की दीदी को सम्मानित करते हुए, इस तस्वीर में सूरज बड़जात्या के बड़े भाई --नाम भूल गया मैं (शाल ओढ़े हुए) और उन के साथ उन की श्रीमति भी नज़र आ रही हैं...ये सब पुराने लोग आपस में बडे़ अच्छे से संपर्क में हैं....</td></tr></tbody></table><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2FspLi3LwbJGiw_Bf9ByH5maHNOP-FRzmj6oJiFFdJsJ0ZDTJ_3q0ANepU5QQyJQ3IhjbqnaEtFCSIEngQJgf8PvMLpv5y36640EHV_5KkwJwQDduiFptouYotdVQJ53JizOdN5QuehPMyJArsEy_xit94WHX_Taxw9s1rgKtaqQuJvv1JLNGXY1f/s4032/IMG_5750.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2FspLi3LwbJGiw_Bf9ByH5maHNOP-FRzmj6oJiFFdJsJ0ZDTJ_3q0ANepU5QQyJQ3IhjbqnaEtFCSIEngQJgf8PvMLpv5y36640EHV_5KkwJwQDduiFptouYotdVQJ53JizOdN5QuehPMyJArsEy_xit94WHX_Taxw9s1rgKtaqQuJvv1JLNGXY1f/w640-h480/IMG_5750.HEIC" width="640" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgyPWiF87SIMdlcE9-lJqWU8tUmhAOe239BKcfWnVM6sd-huQu8gItHcW1uZSJdyJdgNf7GOgaHOExaTvphu-CxbR5WHFEaknd9kchr4stbtFQNm4gTf-302jMVMXyw9SuaiOe3k9YtuPRG4G2XzCsFrs-ijIXQhEIclfDmrLCqThBipdkeDAiurF-K/s4032/IMG_5746.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgyPWiF87SIMdlcE9-lJqWU8tUmhAOe239BKcfWnVM6sd-huQu8gItHcW1uZSJdyJdgNf7GOgaHOExaTvphu-CxbR5WHFEaknd9kchr4stbtFQNm4gTf-302jMVMXyw9SuaiOe3k9YtuPRG4G2XzCsFrs-ijIXQhEIclfDmrLCqThBipdkeDAiurF-K/w640-h480/IMG_5746.HEIC" width="640" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">अभिषेक रविंद्र जैन, रविंद्र जैन के सुपुत्र सुरेश वाडेकर के साथ खड़े हैं<br /></td></tr></tbody></table><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKrzlIUd8VHDtbu0XyYxfZ7fXxxWTXMq4nBQfbBY78WTDzUiNaLjXZKoIsvNtdy2ZZXcJmSn1h41Zm7ADimqSTROr06EWxYEKgwqcUPfk7kwR1fIy2IHXb1txtecDjCpNVXSF-IdJCBsBWPGeI_WmE6BwuJ_07zEh_Uild-cGQZ-da5bNHmZCvL7FK/s4032/IMG_5745.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKrzlIUd8VHDtbu0XyYxfZ7fXxxWTXMq4nBQfbBY78WTDzUiNaLjXZKoIsvNtdy2ZZXcJmSn1h41Zm7ADimqSTROr06EWxYEKgwqcUPfk7kwR1fIy2IHXb1txtecDjCpNVXSF-IdJCBsBWPGeI_WmE6BwuJ_07zEh_Uild-cGQZ-da5bNHmZCvL7FK/w640-h480/IMG_5745.HEIC" width="640" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi6HDT9fpJATsR0wSVD9dF_6_oeB63k-4C38f3k914nH-60K-cYsqMju8iP_snP7EVRQZ75q1RbFPQjqT1li1X83Ip6Ht1G2F_7uWwx3GZLoN6c6HwuEgQfB5bivL_sJSOE11eGismlkP4R_mNxjh5hMHsdubEppgEVpPl31zisQOifzNmTBw5N1wep/s4032/IMG_5744.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi6HDT9fpJATsR0wSVD9dF_6_oeB63k-4C38f3k914nH-60K-cYsqMju8iP_snP7EVRQZ75q1RbFPQjqT1li1X83Ip6Ht1G2F_7uWwx3GZLoN6c6HwuEgQfB5bivL_sJSOE11eGismlkP4R_mNxjh5hMHsdubEppgEVpPl31zisQOifzNmTBw5N1wep/w640-h480/IMG_5744.HEIC" width="640" /></a></div><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhU_6NkbDgXncSBYyAZe54lrEYYJxuySIy_xKhZpEk_nVqb0lGH4uiKL4U14HDceWLNsWbuqyL7xiarg2IoukS3bzKzyMPql0fsoWPsL-xvhKscJ4qaLT7KjdWlRkmjOhtfRVsudrcdHRuc1yBEkljfAbhKOq01c8agTWAp3KnhKdXo3AoM72AwJiAb/s4032/IMG_5740.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhU_6NkbDgXncSBYyAZe54lrEYYJxuySIy_xKhZpEk_nVqb0lGH4uiKL4U14HDceWLNsWbuqyL7xiarg2IoukS3bzKzyMPql0fsoWPsL-xvhKscJ4qaLT7KjdWlRkmjOhtfRVsudrcdHRuc1yBEkljfAbhKOq01c8agTWAp3KnhKdXo3AoM72AwJiAb/w640-h480/IMG_5740.HEIC" width="640" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">जब मैं हाल के अंदर पहुंचा तो वहां पर सुरेश वाडेकर राम तेरी गंगा मैली का वह गीत गा रहे थे ...हुस्न पहाड़ों का ...</td></tr></tbody></table><br />अब देखिए मेरे वहां पहुंचने के १०-१५ मिनट के बाद ही इंटरवल हो गया....मैं तो पहले ही वह कच्चा-पक्का समोसा खा कर तंग हो रहा था..इसलिए मैंने तो कहां बाहर जाना था, बैठा रहा वहीं पर .....😂<br /><br />रविंद्र जैन के बारे में कुछ बरसों तक ज़्यादा जानकारी थी नहीं....लेकिन जब टीवी पर उन के कईं इंटरव्यू देखे तो समझ में आने लगा कि स्कूल कालेज के जमाने से जिन गीतों पर मैंं फिदा था उन में से बहुत से तो रविंद्र जैन के संगीत से सजे हुए थे ...<p></p><p>१९७८-७९ के दिन याद - ४०-४५ बरस पहले वाले दिन याद करूं ..अपने कालेज के नये नये दिन ....एक रेडियो होता था...जिसे <br />ठंडी़ के दिनों में रात के वक्त आड़ा तिरछा घुमाते रहने से कईं बार दो चार मिनट के लिए विविध भारती लग जाया करता था ...उसी दौरान विविध भारती पर इस तरह के गीत सुनते थे ......सुनयना का <a href="https://www.google.com/search?q=sunaiyna+sunaiyna&oq=sunaiyna+sunaiyna+&aqs=chrome..69i57j0i13i512j0i8i13i15i30.6970j0j7&sourceid=chrome&ie=UTF-8#fpstate=ive&vld=cid:ed2b91d5,vid:lBE7C2GaNdM">सुनयना., सुनयना.</a>....आज इन नज़ारों को तुम देखो और मैं तुम्हें देखते हुए देखूं...<a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Ravindra_Jain">.विकीपीडिया </a> पर देखा तो पता चला कि इस से पहले भी जो गीत चितचोर फिल्म के, गीत गाता चल आदि के सुनते आ रहे थे ...उन के संगीत से लुत्फ़अंदोज़ हुए रहते थे उन में भी दादू का ही संगीत था...रविंद्र जैन मोहब्बत करने वाले उन्हें दादू कहते हैं...</p><p>दिव्या जैन की माता जी निर्मला जैन भी एक महान् लेखिका थीं। प्रोग्राम के दौरान दादू का रामायण सीरियल में जो अहम् योगदान था, उस के बारे में भी बातें हुईं....उस धारावाहिक में जैन साहब ने बहुत से गीत, भजन गाए...एक कलाकार ने आकर उन का यह गीत सुनाया....<a href="https://youtu.be/JG-OjIoPHTk">.सुनो रे राम कहानी </a> ...अभी मैं इस गीत के नीचे लिखे क्रेड्टस देख रहा था तो पता चला कि इस के बोल, संगीत और आवाज़ सब कुछ उन का ही है ...रामायण सीरियल के बाद उन्हें फिल्मों में पार्श्व गायन के भी बहुत से अवसर मिलने लगे ...और वह गीत, शेरो शायरी, गज़लें, नज़्में भी लिखा करते थे ....हिदी, उर्दू, अवधी, भोजपुरी में भी लिखते थे ...सुरेश वाडेकर भी उन के साथ जुड़ी अपनी यादें साझा कर रहे थे कि किस तरह से लगभग रोज़ाना ही उन के साथ बैठना होता था ....</p><p>इस के बाद दूसरे गायकों ने कुछ गीत प्रस्तुत किए जिन में भी रविंद्र जैन ने संगीत दिया था....</p><p>पहेली फिल्म का गीत ...<a href="https://youtu.be/BCS1-tKr3BQ">सोना करे झिल मिल</a>...यह फिल्म १९७६ की है ...और इसे हम लोग ४५ साल से सुनते चले आ रहे हैं....लेकिन अभी तो जब कहीं बजता है तो सब काम छोड़ कर बैठ जाते हैं....</p><p>हिना फिल्म का यह गीत...जाने वाले ओ जाने वाले ....</p><p>छोड़ेंगे न हम तेरा साथ ओ साथी मरते दम तक ....(मरते दम तक- १९८७) </p><p>ले तो आए हो तुम सपनों के गांव में ...(दुल्हन वही जो पिया मन भाए) </p><p><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/BCS1-tKr3BQ?start=15" title="YouTube video player" width="560"></iframe>
<br /></p><p>अभी मैंने देखा मैंने यह गीत यू-ट्यूब पर लगाया तो अपने आप ही कुछ गीत बाद में चलने लगे.....एक था ...अंखियों के झरोखों से ...मैंने देखा जो सांवरे ....मुझे जिज्ञासा हुई कि देखा जाए यह किस का गीत है ....नीचे लिखा था, गीतकार रविंद्र जैन...जितने भी उस दौर के सुपर-डुपर गीत हुए.....उन में से बहुत से गीतों का संगीत दादू का रहा, या उन के लिखे हुए थे .....और बाद में तो वह पार्श्व गायन भी करने लगे...</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen='allowfullscreen' webkitallowfullscreen='webkitallowfullscreen' mozallowfullscreen='mozallowfullscreen' width='320' height='266' src='https://www.blogger.com/video.g?token=AD6v5dxjcY3jyrexH-KYM2-B5gp3n4-gbtBpFK5I83RDHwlOXVBIq_ePohS172HQJA6Jmfm0rx1SQldiRx8Y5AHlUw' class='b-hbp-video b-uploaded' frameborder='0'></iframe></div><p><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>सुनो तो गंगा यह क्या सुनाए.....कि मेरे तट पर वो लोग आए ...(सुरेश वाडेकर)</p><p>इस तरह के प्रोग्राम में शिरकत इसलिए नहीं करते लोग कि गीत सुन लेंगे...गीत तो सुनेंगे ही ....वो तो अब मोबाइल पर कभी भी सुन सकते हैं ...इस तरह के आयोजनों के दौरान इन अज़ीम शख्सियतों के आस पास रहे लोगों से उन के बारे में जानने का मौका मिलता है ...अनूप जलोटा बता रहे थे कि मैं जब भी उन्हें मिलता तो कहते - यार, वो वाला भजन सुनाओ....ऐसी लागी लगन....मीरा हो गई मगन ..अनूप जलोटा ने वह भजन भी सुनाया...इस से पहले उन्होंने शुरुआत अपने उस भजन से की ..श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम....अनूप जलोटा का एक प्रोग्राम हमें लखनऊ में भी देखने का सुअवसर मिला था ...क्या लंबी आवाज़ खींचते हैं......वाह......</p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgY58gacFngpnFFs69x3SntBoYBPCh_CQGxw-zeqhD7byBoQR3UwYkryb-ut3o5F8dDYrDhYdUMow3Xf_sivlIIWqAcUUDAAw97bdkzC159TiVGxnSHfGVUfb7abloo-1EFhah4N37JfKXb5wtqcjcEMjHiZ8Z54FkvjUnDvaYOk8vKBxOQpC33Uci_/s4032/IMG_5763.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgY58gacFngpnFFs69x3SntBoYBPCh_CQGxw-zeqhD7byBoQR3UwYkryb-ut3o5F8dDYrDhYdUMow3Xf_sivlIIWqAcUUDAAw97bdkzC159TiVGxnSHfGVUfb7abloo-1EFhah4N37JfKXb5wtqcjcEMjHiZ8Z54FkvjUnDvaYOk8vKBxOQpC33Uci_/w640-h480/IMG_5763.HEIC" width="640" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम.....</td></tr></tbody></table><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEidpOD-tL3PD0kzSG-ZeKxVaQOMa4MHaG8hhnfbPDQlIk-zEExTuUK_a-dWcUl5Dxh7bzCrKWCYPHr3ldzDP1CMd8mnKmwcQVOBCydC8e5jtUfHijz0y8a7wAXs9Oqid2_-4Je7PPjTSZaqnZVcncvEVKzPKcasHhwQcivWtYh2O0n9P8WZwkuk7zz_/s4032/IMG_5765.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEidpOD-tL3PD0kzSG-ZeKxVaQOMa4MHaG8hhnfbPDQlIk-zEExTuUK_a-dWcUl5Dxh7bzCrKWCYPHr3ldzDP1CMd8mnKmwcQVOBCydC8e5jtUfHijz0y8a7wAXs9Oqid2_-4Je7PPjTSZaqnZVcncvEVKzPKcasHhwQcivWtYh2O0n9P8WZwkuk7zz_/w640-h480/IMG_5765.HEIC" width="640" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">ऐसी लागी लगन ....मीरा हो गई मगन .... </td></tr></tbody></table><p>भजन को बीच ही में रोक के कहने लगे कि यह लंबी लंबी जो आवाज़ निकलती है यह बाबा रामदेव के प्राणायाम का कमाल है ......एक किस्सा सुनाने लगे......एक व्यक्ति जो निरंतर प्राणाायाम किया करता था ...बहुुत लंबी उम्र भोग कर जब ९४-९५ की उम्र में स्वर्गधाम पहुंचा तो मुख्य द्वार पर एक सुंदरी ने उसे वेलकेम ड्रिंक दिया...उसे बहुत खुशी हुई.....वह अभी थोड़ा आगे पहुंचा तो एक दूसरी सुंदरी ने उन के गले में गुलाब के फूलों की एक माला पहनाई .....वह बहुत खुश .......आगे गया तो एक सुंदरी ने उन के समक्ष एक नृत्य की प्रस्तुति दी.....वह बंदा वहां बैठा बैठा यह सोचने लगा कि बेकार में बाबा रामदेव के प्राणायाम के चक्कर में बहुत देरी हो गई यहां आने में ... 😎 दो भजन गाने के बाद अनूप जलोटा ने वह गीत सुनाया ....घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं ....जाते जाते कहने लगे कि यह उन के अपने घर का प्रोग्राम होता है ...यहां वह लोगों से मिलने आते हैं, दादू की याद में पुष्पांजलि देेने आते हैं....</p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgE9IhbffltgoqjecczJfDSE8_v_bC67OYKQZaZWftef9I2iHYf4n_XuEn2Xb7HjkMTCW605JL9gdzGGQ-qua6JjZDKZAdz0i2Vwk2NqpUWmDImDD_D1-xXOM9wXCfKQ4P93PHWc7_uJ2YyGX7SrVomhHZdhuMm4J9DTt8_jxs3zsFpIXLf4TFI0-Ax/s4032/IMG_5758.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgE9IhbffltgoqjecczJfDSE8_v_bC67OYKQZaZWftef9I2iHYf4n_XuEn2Xb7HjkMTCW605JL9gdzGGQ-qua6JjZDKZAdz0i2Vwk2NqpUWmDImDD_D1-xXOM9wXCfKQ4P93PHWc7_uJ2YyGX7SrVomhHZdhuMm4J9DTt8_jxs3zsFpIXLf4TFI0-Ax/w640-h480/IMG_5758.HEIC" width="640" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">२८ फरवरी को रविंद्र जैन का जन्म दिवस है ....</td></tr></tbody></table><p>एक बात और लिख दूं....कहीं भूल न जाऊं...मैं अकसर रेडियो ही सुनता हूं....कल रेडियो पर नौशाद साहब के संगीत के बारे में एक फिल्म लेखक कहने लगा कि फिल्म में उन का संगीत ऐसा होता था जैसे कोई किसी गांव से हो आया हो .....अभी मुझे लिखते हुए याद आया .....तो यह लगा कि बिल्कुल ठीक बात है ...और रविंद्र जैन साहब का संगीत सुन कर ऐसे लगता है जैसे अपने घर पर चारपाई पर नहीं बैठ कर किसी गांव-छोटे कसबे के मेले में घूमते हुए खुशियां मना रहे हैं......सोचिए कोई भी फिलम जिस में इन का संगीत था...चितचोर, अंखियों के झरोखों से ...गीत गाता चल ... क्या क्या गिनाएं .....अपने पास तो इतना भी सब्र नहीं है कि इन महान् हस्तियों के बारे में लिखते हुए घड़ी की तरफ़ देखने लगते हैं.... हां, भाई लोगो, रविंद्र जैन की एक किताब भी छपी हुई है ....देखिए यहां इस की जानकारी- <a href="https://www.amazon.in/-/hi/Ravindra-Jain/dp/9350642352">दिल की नज़र से। </a></p><p>लीजिए, प्रोग्राम के अंत में जब किसी गायिका ने यह गीत गाया .......फकीरा फिल्म का ...<a href="https://youtu.be/VePIQFnrvxg">दिल में तुझे बिठा के ...कर लूंगी मैं वंदना</a> ....मुझे नहीं पता था कि इस का संगीत भी रविंद्र जैन का ही था......१९७६ की फिल्म का वह सुपर डुपर गीत ...४७ साल पहले अमृतसर के किसी थियेटर में देखी थी ....वह गीत हमेशा के लिए याद रह गया....</p><p>प्रोग्राम के आखिर में दादू का संगीतमय किया हुआ वह गीत पेश किया गया.....जोगी जी धीरे धीरे....(फिल्म -नदिया के पार) ..होली के दिन चल रहे हैं तो इस गीत पर धमाल तो होनी ही थी...यह गीत बजते ही लोग मस्ती में आकर नाचने लगे ....</p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiwy1ScEnebw0wP8sGaHdumXXtLgvrELZL5-oZWX8irOSLijgBC0qMRaPhih97p5Zgl8jhLBsaqeHhsQw6BYeX3cWFTdxKN6ajFBj8nHWsdrA1CK3Q5B5CQ6qIpAlJjAcZmTjrXyyMp6bGC6xOlR6nqcysaegV0rNUPIARqbQRRyul4QFJSH0OlECNd/s4032/IMG_5766.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiwy1ScEnebw0wP8sGaHdumXXtLgvrELZL5-oZWX8irOSLijgBC0qMRaPhih97p5Zgl8jhLBsaqeHhsQw6BYeX3cWFTdxKN6ajFBj8nHWsdrA1CK3Q5B5CQ6qIpAlJjAcZmTjrXyyMp6bGC6xOlR6nqcysaegV0rNUPIARqbQRRyul4QFJSH0OlECNd/w640-h480/IMG_5766.HEIC" width="640" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"></td></tr></tbody></table><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlvYDbHM5UYodiO04HC7DvfkaEkYLlVqab5D4IXuujYXZJ-IX7hKENN_NNU3ZWw23Xm1_0xUHUjOOHBg6e6aZbqI1nwkXKpSq7J_ekYan29MAZzBOeNOgP_heaO7xg-J5H5EanU1VxEO5ly7gY0N7KP3wBpbJqq7CiFr0albUdFMDibQ2tQPayrE0t/s4032/IMG_5770.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlvYDbHM5UYodiO04HC7DvfkaEkYLlVqab5D4IXuujYXZJ-IX7hKENN_NNU3ZWw23Xm1_0xUHUjOOHBg6e6aZbqI1nwkXKpSq7J_ekYan29MAZzBOeNOgP_heaO7xg-J5H5EanU1VxEO5ly7gY0N7KP3wBpbJqq7CiFr0albUdFMDibQ2tQPayrE0t/w640-h480/IMG_5770.HEIC" width="640" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhwyS327vauJXQfwUdv1zqgOB8_yszpWPBRE7RK_jsOAokJZC57UgdbXjeM84y7Bx_8ombwqt8z5DUMKhUW_QImjzWbyhpFNYr1G1mHDxan-04SFoTb_B9QZi-UB-Zd5EemqBmQS6Eg2kMVC9kV7C2-Czf6vGKO0D6b0odDjxugMbptjDEiRjLGtLqj/s4032/IMG_5771.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhwyS327vauJXQfwUdv1zqgOB8_yszpWPBRE7RK_jsOAokJZC57UgdbXjeM84y7Bx_8ombwqt8z5DUMKhUW_QImjzWbyhpFNYr1G1mHDxan-04SFoTb_B9QZi-UB-Zd5EemqBmQS6Eg2kMVC9kV7C2-Czf6vGKO0D6b0odDjxugMbptjDEiRjLGtLqj/w640-h480/IMG_5771.HEIC" width="640" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p></p><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/LpxiecUtMKQ?start=77" title="YouTube video player" width="560"></iframe><div><br /></div><div>प्रोग्राम संपन्न हुआ ......लेकिन मेरे लिए अभी कुछ बाकी था शायद .....मैं जिस दरवाज़े से बाहर आ रहा था, उस के सामने अनूप जलोटा का हार्मोनियम उठाए जब उन का एक सहायक दिखा तो मैंने ऐसे ही पूछ लिया.....जलोटा साहब निकल गए....उसने तुरंत कहा, आप के पीछे ही तो खड़े हैं......मैंने अनूप जी को उन के भजनों के बारे में जो कहना था कहा ....कि हमारी तो दिन की शुरूआत ही उन के भजनों से होती है ...वह खुल कर हंसने लगे ...मैंने कहा कि आप के भजन सुन कर बहुत अच्छा लगता है ...कईं बार तो रात को सोते वक्त भी रेडियो पर उन के भजन सुनते सुनते ही निंदिया मैया के आंचल में पहुंच जाते हैं....मुस्कुराते मुस्कुराते एक शेल्फी हुई ....यह सब अचानक हुआ तो लगा कि जिस चीज़ की हम दिल से तमन्ना करते हैं, कुदरत हमें वह चीज़ दिलाने की जी-जां से कोशिश करने लगती है ... <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgui0rYEE-hTDovZmw0KMXhfrLIfMjFcs4w7llNFfL8e6yemtehVtoqj9T8uLaIuuBGeV8ek0pBC5azg7nOvMJTEJ5mIpmaiWZaa9wD1WEYlKZGgIrJyE3pSnKXzKOg7DHlRvQdABODoRN5HT5SmROtOxn0TfXlTqXVPjA-8_w-IoYiCzLZTwqX7a7H/s3088/IMG_5776.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2316" data-original-width="3088" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgui0rYEE-hTDovZmw0KMXhfrLIfMjFcs4w7llNFfL8e6yemtehVtoqj9T8uLaIuuBGeV8ek0pBC5azg7nOvMJTEJ5mIpmaiWZaa9wD1WEYlKZGgIrJyE3pSnKXzKOg7DHlRvQdABODoRN5HT5SmROtOxn0TfXlTqXVPjA-8_w-IoYiCzLZTwqX7a7H/w640-h480/IMG_5776.HEIC" width="640" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div>इतनी राम कथा सुना दी मैंने अब एक बात और सुनिए....मैं अकसर रविंद्र जैन चौक से होकर गुज़रता हूं ..पिछले दो चार दिन में उत्सुकता वश आसपास के दुकानदारों से पूछ चुका हूं कि रविंद्र जैन कहां रहते थे .....या कहां है उन का निवास.....मेरा सवाल सुन कर वे गुम सुम से हो जाते हैं ...जैसे मैंने पता नहीं क्या पूछ लिया हो उन से .....उन्हें नहीं पता कुछ भी ....मैं सोचता हूं कि मेरी उम्र का ही कोई पुराना बंदा ही उन के निवास के बारे में बता पाएगा......लेकिन इस बात की मुझे यकीं है कि उन के लिखे हुए, उन के गाए हुए और जिन गीतों को उन्होंने संगीत दिया ......उन सब गीतों का यह गीतों का भरपूर आनंद लेती होगी......बिना यह जाने की उन के सामने लगे चौक पर जिस हस्ती के नाम का बोर्ड लगा है वही है इन गीतों का जादूगर ......खैर, चलिए, कलाकार अपने फ़न के ज़रिए तब तक ज़िंदा रहते हैं जब तक ये सूरज चांद सितारे दिपायमान रहेंगे .....हम में प्राणशक्ति का संचार करते रहेंगे..... </div><div><br /></div><div>दादू को भावभीनी श्रद्धांजलि.....<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhsmLWOhsZKLv8bx8YXQtsBZEUZHZd6Q5yHHwEg5I-xe66-VUT81cAX6HkLaqpTVADNEnGLC842q5SpwaUPPIS86QtGpfVjeVeaH4bw4z1aXW-llsAe-Alzn5CLq1-23mlS7vYrSU4k_ZBDKU9EDqOlqoQGN-CL3j7YXpIQxRS21RgoPu2Vxr5T8ZFn/s2202/IMG_5908.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1396" data-original-width="2202" height="406" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhsmLWOhsZKLv8bx8YXQtsBZEUZHZd6Q5yHHwEg5I-xe66-VUT81cAX6HkLaqpTVADNEnGLC842q5SpwaUPPIS86QtGpfVjeVeaH4bw4z1aXW-llsAe-Alzn5CLq1-23mlS7vYrSU4k_ZBDKU9EDqOlqoQGN-CL3j7YXpIQxRS21RgoPu2Vxr5T8ZFn/w640-h406/IMG_5908.jpg" width="640" /></a></div><br /></div></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /><div><br /></div>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-4985534093820838682023-03-06T22:15:00.001+05:302023-12-16T20:27:59.059+05:30एंटीबॉयोटिक्स से कहीं ज़्यादा भरोसा है मुलैठी पर..<p>अगर मैं दंत चिकित्सक न होता तो पंजाबी लोकगीत गायक तो बन ही जाता ..नहीं तो किसी म्यूज़ियम का क्यूरेटर हो जाता...कुछ भी कर लेता...बहुत काम हैं जिस तरफ़ भी बंदा अपने मन को लगा ले....मुझे पुरानी एंटीक, विंटेज चीज़ों में खास रूचि है ....सौ साल पुरानी कोई किताब हो, अस्सी साल पुराने मैगज़ीन हों....मैं एंटीक शाप्स में और ऑनलाइन इन को ढूंढता रहता हूं ...ये मेरे लिए सिर्फ़ आइट्म ही नहीं होती, दरअसल ये अपने वक्त के किस्से ब्यां करती हैं और मुझे लिखने के लिए मजबूर करती हैं ...मेरे लिए ये चीज़ें नहीं है, मेरे लिए ये सब लिखने के प्राप्स हैं....जैसे नाचने वालों को प्राप्स लगते हैं, मुझे ये सब प्राप्स लगते हैं लिखने के लिए ....<br /><br />खैर, बात यूं है कि कुछ दिन पहले यहां मुंबई की एक एंटीक शाप में मुझे एक डिब्बी दिखी ...क्या है न, अब ऐसी चीज़ों को देखने से ही एक अंदाज़ा सा हो जाता है कि ये ५० साल पुरानी होगी, यह सौ साल पुरानी वगैरह वगैरह ....खैर, इन दुकानदारों को भी पता रहता है कि जो कलैक्टर इस तरह की दो कौड़ी की चीज़ को ढूंढ़ते हैं, और खरीदते हैं ...उन से कैसे पैसे निकलवाने हैं....चलिए, वे अपनी जगह ठीक हैं....मेरे लिए वह चीज़ अनमोल है जिसे मैंने आज तक कभी नहीं देखा, और आने वाले समय में भी देखने की कोई गुंजाइश नहीं है ... </p><p>चलिए, मैंने वह डिब्बी खरीद ली ...दाम बताऊंगा तो बेवकूफ़ी लगेगी ...खैर, मुझे लेनी थी सो ले ली....देखिए आप भी इसे ....</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYSUpZgED5Bn_oFVWiEYi7XBwWwSSsmRGTBfCXNcbqzX21w1LwvngFltC5gpVXBJl7R8CSWp3B6YIbHwCjMH70Hu88PO1q3NZpsvC2XRT_QhYLgG_vhtYZksPwmK48HDUo0wilLZ-wSPs9KF2Gn15iYJa8KBP7CvMoorPGo5FWR3PvgW2UDf1D-k1Y/s4032/IMG_5902.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYSUpZgED5Bn_oFVWiEYi7XBwWwSSsmRGTBfCXNcbqzX21w1LwvngFltC5gpVXBJl7R8CSWp3B6YIbHwCjMH70Hu88PO1q3NZpsvC2XRT_QhYLgG_vhtYZksPwmK48HDUo0wilLZ-wSPs9KF2Gn15iYJa8KBP7CvMoorPGo5FWR3PvgW2UDf1D-k1Y/s320/IMG_5902.HEIC" width="240" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgcS1iMpgwQY0OiOX8wh9S-7COoo-aa41fzIWD2yQ_WpktF94xC97riJWTxXJkmPoWolmXaD5ZZYSt34LqIP-72lwFWlNI14Q4gdI3IjrpDZxM9_wwFO_vqF9A5dJGuSFLYbw4c-ew7KXeqjPOka-YP99EMMcgAN5OUVTEJbayC0OpbwwezALYBjGDA/s4032/IMG_5001.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgcS1iMpgwQY0OiOX8wh9S-7COoo-aa41fzIWD2yQ_WpktF94xC97riJWTxXJkmPoWolmXaD5ZZYSt34LqIP-72lwFWlNI14Q4gdI3IjrpDZxM9_wwFO_vqF9A5dJGuSFLYbw4c-ew7KXeqjPOka-YP99EMMcgAN5OUVTEJbayC0OpbwwezALYBjGDA/s320/IMG_5001.jpg" width="240" /></a></div><p><br /></p>इस लिंक पर जा कर यह भी देखिए यह अस्सी साल पुरानी डिब्बी इ-बे पर ३४ यू एस डॉलर में बिक रही है ...<a href="https://www.ebay.com/itm/164836362968">यह रहा लिंक </a>....<p></p><p>आपने भी पढ़ लिया होगा कि इस में मैंथोल और मुलैठी का रस (एक्सेट्रेक्ट) आता था ...और यह गले में खिच खिच के काम आती थीं ..इंगलैंड की किसी कंपनी से बन कर आती थीं हिंदोस्तान में ....मुझे याद आ रहा है प्राइमरी क्लास के एक मास्टर ने एक बार हमें बताया था कि अंग्रेज़ों के राज में सूईं भी इंगलैंड से आती थीं और यहां बिकती थीं....यह भी देखिए कि मुलैठी जैसी चीज़ को भी किस तरह से पैक-वैक कर के इंगलैंड से लाकर यहां बेचा जाता था ....ऐसे और भी कुछ प्रोड्क्ट्स - कुछ आम दवाईयों के बारे में भी किसी और दिन बताऊंगा ....</p><p>मुझे यह डिब्बी देख कर बहुत ज़्यादा हैरानी हुई थी ....क्योंकि मेरी उम्र ६० साल है और जहां तक याद है बचपन से ही हमें मुलैठी पर ही भरोसा रहा ...गले में खिच खिच होती, दर्द वर्द होता, खांसी जुकाम होता ...तो हमें मुलैठी ही चबाने के लिेये दी जाती ....उन दिनों दांतों में भी अच्छी ताकत थी ...न नुकुर करते करते उसे चबा ही लेते और झटपट आराम भी मिल जाता ....कभी एंटीबॉयोटिक इस्तेमाल करने का कुछ झंझट ही न था...नमक वाले पानी से गरारे करो, मुलैठी चबाओ, बेसन का पतला सीरा, गुड़ वाली सौंठ खाओ....और मस्त रहो .....यही थी अपनी खांसी-जुकाम, गले में खिच खिच की दवाईयां ....वैसे तो अभी तक भी यही हैं...लेकिन अब कभी कभी एंटीबॉयोटिक लेने की नौबत भी आ जाती है ...लेकिन फिर भी भरोसा अभी भी मुलैठी पर पूरा है ...</p><p>कुछ दिन पहले मैं अपनी बड़ी बहन से मुलैठी के बारे में बात कर रहा था ...उन का गला खराब था ..मैंने कहा कि मुलैठी चबाओ...तो कहने लगी कि मिलती ही नहीं कहीं....मैंने बताया कि बाबा रामदेव की दुकानों पर मुलैठी क्वाथ मिलता है ...मुलैठी को लगभग चूरा कर के ....(shredded licorice) ....मुझे भी यह दिक्कत कईं बार आई है...लेकिन बहन बता रही थीं कि उन के पास मुलैठी का चूरण है वह उसे चाय या पता नहीं गर्म पानी में डाल कर पी लेती हैं....उन को भी राहत मिल जाती है ... अच्छी बात है, हमारे अपने अपने ज़िंदगी के तजुर्बे हैं, जिसे जिस चीज़ से राहत मिले, मां भी ८०-८५ की उम्र तक ये सब चीज़ें ही इस्तेमाल करती थीं ....और पुरानी चीज़ों की भी अच्छी अहमियत तो थी ही, ऐसे ही थोड़े न फिरंगी मुलैठी के रस को इस पैकिंग में इंगलैंड से लाकर बेचते रहे .....८० साल पहले ....यह डिब्बी तो ८० साल पुरानी है ....क्या पता यह धंधा कितना पुराना होगा...</p><p>मुलैठी को खरीदना अब मुश्किल हो गया है ....किसी पुरानी दुकान के पुराने बनिये से मिल भी जाती है कभी तो उस में अकसर घुन सा लगा होता है ...उसे चूसने की इच्छा नहीं होती....खैर, बाबा रामदेव की दुकानों पर जो मुलैठी क्वाथ मिलता है वह भी बढ़िया है ..दस पंद्रह बरस पहले १५ रूपये में मिलता था....अब भी ४० रूपये में मिल जाता है ...लेकिन है यह चीज़ बहुत बढ़िया ....</p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhX2723EVVgMq1sNz7B3Ao3bdNeZpYZ9j_iOb6Dv3tj44hmnuei8foK54jyyHFddAZ1Iwer57_P2R2__aWqhnBTq8EJQn5bwftCPhmqvHsu5POj1sZeqcfDq1GGtzDnOgwhG0BoNcyOKUEC8hWeCkQovv8pwb-vDhBKIzFxHGYbHANFpU2eGvFKxV4B/s4032/IMG_5870.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhX2723EVVgMq1sNz7B3Ao3bdNeZpYZ9j_iOb6Dv3tj44hmnuei8foK54jyyHFddAZ1Iwer57_P2R2__aWqhnBTq8EJQn5bwftCPhmqvHsu5POj1sZeqcfDq1GGtzDnOgwhG0BoNcyOKUEC8hWeCkQovv8pwb-vDhBKIzFxHGYbHANFpU2eGvFKxV4B/s320/IMG_5870.HEIC" width="240" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मुलैठी क्वॉथ ..</td></tr></tbody></table><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqIfuaS8sdjuHNn5eREXyyyNZW2IuqTcEB6rFK_BqdGPxKIqx62sOWN8WuiYdLWeJu5chM3CX-4dcVsw5e0pUJoIfdJLTqbV9ydLsi1LQc7C9PQgDN22BISvlRJeaeUBglGOoex4YSzLqrAgN-XFBmFfoQKrm9LQTi1IGUPcZD2q8bMojLrwYIXPoX/s4032/IMG_5872.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqIfuaS8sdjuHNn5eREXyyyNZW2IuqTcEB6rFK_BqdGPxKIqx62sOWN8WuiYdLWeJu5chM3CX-4dcVsw5e0pUJoIfdJLTqbV9ydLsi1LQc7C9PQgDN22BISvlRJeaeUBglGOoex4YSzLqrAgN-XFBmFfoQKrm9LQTi1IGUPcZD2q8bMojLrwYIXPoX/s320/IMG_5872.HEIC" width="240" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मुलैठी क्वाथ ऐसा दिखता है ....एक चम्मच मुंह में डाल कर चबाते रहिए...कुछ मिनट ..तुंरत राहत महसूस होती है ...</td></tr></tbody></table><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVg3CMmLV2E6WrvIbl1K-E59FLf8vZ3aZdBsybPGV7N99gYjWjcahDzglHErxl985Tp4YAcaVNXk_zat3L5tkm_7OsHDsHTGVxibDlfJ0GHt8xEYqFd_8yMn_ZEH1VMaQK8ANmHgl4Vqr3TzsncjR89Scny3m8oj30v3DGXzAIzu0XetOm8U8Fcp-4/s4032/IMG_5871.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVg3CMmLV2E6WrvIbl1K-E59FLf8vZ3aZdBsybPGV7N99gYjWjcahDzglHErxl985Tp4YAcaVNXk_zat3L5tkm_7OsHDsHTGVxibDlfJ0GHt8xEYqFd_8yMn_ZEH1VMaQK8ANmHgl4Vqr3TzsncjR89Scny3m8oj30v3DGXzAIzu0XetOm8U8Fcp-4/s320/IMG_5871.HEIC" width="240" /></a></div><br /><p>अभी दो तीन महीने पहले मुझे एक लिट-फेस्ट में उषा उत्थुप के प्रोग्राम में जाने का मौका मिला ....उन्हें सुन कर बहुत अच्छा लगा ..इतनी लाइवली हैं...अपनी यादें सुना रही थीं कि किस तरह से उन्हें एड्वटाईज़िंग में पहला मौका मिला ...उन्हें विक्स की गोली के लिए कोई जिंगल लिखना था...कुछ समझ में नहीं आ रहा था ....लास्ट मिनट पर उन की कही लाइन ने जैसे हिंदोस्तान की खिच खिच दूर भगा दी ..........गले में खिच खिच, गले में खिच खिच .....क्या करो....विक्स की गोली लो, खिच खिच दूर करो....मैं इस के बारे में अपने किसी पुराने ब्लॉग में लिख भी चुका हूं ....लेकिन इस वक्त मुझे लिखते लिखते फिर लगा कि खिच खिच पर कोई फिल्मी गीत कैसे नहीं है .....बस, ऐसे ही सोच रहा था तो पता नहीं कहां से खिच खिच से तो नहीं हिचकी वाले फिल्मी गीत की याद आ गई ...यह लिखना बंद कर के पहले तो उसे सुना.....यह मेरे कालेज के दौर का गाना है, बहुत पंसद है ....इस की मेरे पास कैसेट भी थी, बहुत सुना करता था ....लेटे लेटे, आंखें मूंद कर 😂😎😉....हा हा हा हा हा हा हा.....वे दिन भी क्या दिन थे...!! आज सुबह जब मैं जगा, तेरी कसम ऐसा लगा ....कि तूने मुझे याद किया है .....हिच हिच हिचकी लगी ...हिचकी...</p><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/5j_Akdqf6k8?start=37" title="YouTube video player" width="560"></iframe><div><br /></div><div>कुछ आज की भी बात कर ली जाए.....कल दोपहर मेरे गले में अचानक बहुत ज़्यादा इरिटेशन शुरू हो गई ....खांसी भी ...खिच खिच भी ...मैंने मुलैठी ढूंढी और जैसे ही उसे चबाया, आराम आने लगा .....और कल से वही कर रहा हूं....इस से तुरंत राहत मिलती है ...लेकिन मैं यह सब लिख किस के लिए रहा हूं ....कौन सुनता है किसी की आज ....लेकिन जिन पर लिखने की जिम्मेवारी है, उन का फ़र्ज़ होता है सब कुछ सच सच दर्ज करते जाना ......इस से ज़्यादा कुछ नहीं .....वैसे भी लेखकों का काम है मुनादी करना ....</div><div><br /></div><div>बात वही है पिछले कुछ दिनों से मुझे कुछ खास विषयों पर लिखना था ..बस, वह ऐसे ही टलता रहा, आज ऐसे ही मुलैठी की यादों ने इन को पहले समेटने के लिए मजबूर कर दिया....मैं अपने किसी मरीज़ को मुलैठी के बारे में बताता हूं तो उसे समझ नहीं आती कि मैं क्या कह रहा हूं......अगर मीठी लकड़ी कहता हूं तो कुछ को समझ में आ जाता है ....</div><div><br /></div><div><br /></div>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-130005161232424882023-01-15T09:24:00.004+05:302023-12-16T20:28:04.926+05:30बदल गई अब वो नसीहत...."थोड़ी थोड़ी पिया करो"<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnyYyktN8sWMbioH-LDHxGxEERIX8ytkawSrcMZFm64TuPvskHqc8bd-EOFESy_HmRNFLNJ_JA0NOvUsSA8Tm-s5cOXj4pTIHiM9UGdM2k_cUW8l8EVr0bPepvKcDVbXVKzOhTx1lOfEJyQgdMkNksOUcP7cLDZsmX3UeF4pdU1PL3k8JpYQlny9xM/s4032/IMG_2626.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnyYyktN8sWMbioH-LDHxGxEERIX8ytkawSrcMZFm64TuPvskHqc8bd-EOFESy_HmRNFLNJ_JA0NOvUsSA8Tm-s5cOXj4pTIHiM9UGdM2k_cUW8l8EVr0bPepvKcDVbXVKzOhTx1lOfEJyQgdMkNksOUcP7cLDZsmX3UeF4pdU1PL3k8JpYQlny9xM/w400-h300/IMG_2626.HEIC" width="400" /></a></div><br />बाज़ारवाद बहुत ताकतवर है....हमारे तसव्वुर से भी कहीं ज़्यादा ...इसलिए भी होठों पर चु्प्पी का ताला लोगों को लगाना पड़ता है ... हां, यह जो दारू के बारे में नसीहत बदलने वाली बात है यह मीडिया में ज़्यादा दिखाई नहीं देगी...लेकिन फिर भी जो चोटी के मीडिया हाउस हैं वे अपनी परंपरा पर खरे उतरते हुए पब्लिक को इशारा तो कर ही देते हैं...और कुछ वाट्सएप पर इस तरह के स्टेट्स डाल कर अपना फ़र्ज़ निभा देते हैं...<p></p><p>कुछ दिन पहले हमारे एक सीनियर डाक्टर हैं उन्होंने लेंसेट मैगजीन के हवाले से यह बात लिखी थी वाट्सएप पर कि अल्कोहल की कोई भी मात्रा सुरक्षित नहीं है ....हर मात्रा में दारू तबाही मचाने में सक्षम है। अभी कुछ बरसों पहले की बात है यह है कि कहा जाता था कि जो लोग थोड़ी थोड़ी पी लेते हैं, वे तनाव से दूर रहते हैं, मस्त रहते हैं, दिल की बीमारियों की चपेट में आने से थोड़ा बच जाते हैं....यही कह कर लोगों ने अपने दिल को समझा के रखा ....यह थोड़ी थोड़ी कब बहुत ज़्यादा होने लगी किसी को पता ही न चला...और जब आसपास के लोगों ने रोकना चाहा तो वही दलील दी जाती कि यह तो डाक्टर लोग भी कहते हैं कि थोड़ी बहुत तो लेते रहना चाहिए...</p><p>खैर, अभी कुछ अरसा पहले यह चर्चा होने लगी ...जनमानस में नहीं, बल्कि चिकित्सकों ने यह सलाह देनी शुरु कर दी कि थोड़ी बहुत दारू जो रोज़ लेने की बात है यह उन लोगों के लिए जो रोज़ाना पीते हैं और बहुत पीते हैं, टल्ली हो जाते हैं...वे अगर बिल्कुल थोड़ी मात्रा में लेने लगेंगे तो तनाव-वाव से दूर रहेंगे और हार्ट-वार्ट की तकलीफ़ों से दूर रहेंगे ..मुझे लगता है कि डाक्टरों की इस दलील ने लोगों को अगर दारू पीने के लिए उकसाया न भी हो तो भी उस से होने वाली बीमारियों का डर तो कुछ खत्म कर ही दिया....</p><p>खैर, यह वाली सलाह इस तरह से दी जाती थी कि अगर कोई दारू नहीं पीता है तो उसे थोड़ी दारू पीने के लिए नहीं कहना है ...यह बहुत ज़रुरी बात थी ...लेकिन इतनी सी बात भी सुनता कौन है...जिस तरह से दारू को पिछले कुछ सालों से समाज ने स्वीकार किया है, पिछले दस-बीस सालों में यह भी हम सब देख ही रहे हैं....वैसे लिखने वाली बात है नहीं, मेरा काम कोई मोरल-पुलिसिंग का न है, न मैं करना चाहता हूं ...आदमी क्या और औरत क्या, लेकिन अकसर बंबई में इंगलिश दारू की दुकानों के बाहर दारू खरीदने वाली की भीड़ में महिलाओं एवं युवतियों को देखता हूं ....और आते जाते रेस्टरां के बाहर अपने दोस्तों के साथ युवतियों को सिगरेट के छल्ले उड़ाते देखना भी एक आम बात लगती है ...</p><p>जैसा मैंने ऊपर लिखा कि मार्केट शक्तियां बड़ी पावरफुल हैं....अपने रास्ते में आने वाले किसी को भी कब हटा दें, किसी को पता भी न चले, एक बात ...और किस तरह से विज्ञापनों का सहारा लेकर दारू, सिगरेट जैसी चीज़ों को कहां से कहां पहुंचा दें ...कोई कल्पना चाहे न भी कर पाए, लेकिन देख तो हम सब रहे ही हैं...</p><p>हां, अब मुद्दे पर आते हैं...लेंसेट एक बहुत ही सम्मानीय एवं प्रतिष्ठित मैगज़ीन है....मैंने इसे १९८६ में पहली बार देखा था...हमारे कालेज की लाइब्रेरी में आता था ...जिन प्रोफैसर साहब के पास मैं एमडीएस कर रहा था वह इसे पढ़ने के बहुत शौकीन थे, दोपहर में खाने के बाद अकसर उन्हें इसे पढ़ता देखते थे हम ...और मैं भी लाईब्रेरी में ऐसे ही कभी कभी इस के पन्ने उलट-पलट लेता था...बिल्कुल पतला कागज़ और बिलकुल पतली सी मैगज़ीन ..छपाई अति उत्तम...और कंटेंट अति विश्वसनीय..</p><p>हां, उस दिन हमारे एक वरिष्ठ साथी ने हमारे ग्रुप में यह बात शेयर की कि दारू की कोई भी मात्रा सेफ नहीं है....तो पढ़ कर यही लगा कि बड़ी ज़रूरी बात है ...इस के बारे में मुझे भी लिखना चाहिए ...यह कुछ दिन पहले की बात है ...मसरूफ़ रहने से बात आई गई हो गई ....</p><p><i><span style="color: red;"><a href="https://www.thelancet.com/journals/lanpub/article/PIIS2468-2667(22)00317-6/fulltext">Health and Cancer risks associated with low levels of alcohol consumption </a> </span>(इस पूरे लेख को आप यहां पढ़ सकते हैं..) </i></p><p>लेकिन दो दिन पहले जब टाइम्स ऑफ इंडिया देख रहा था ..सच में अब देखने की ही नौबत आ गई है....रोज़ सोचता हूं फलां फलां लेख तो ज़रूर शाम को पढूंगा ...लेकिन शाम को इतना थक-टूट जाते हैं कि अखबार देखने की इच्छा ही नहीं होती...सुबह वक्त नहीं होता ..खैर, उस दिन भी यही खबर दिखी कि विश्व स्वास्थय संगठन ने भी यही कहा है कि दारू की थोड़ी से थोड़ी मात्रा भी सेहत के लिए हानिकारक है, कईं तरह के कैंसर के जोखिम को बढ़ाती है ...लीजिए आप भी पढ़िए...</p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiOHZP0M_q-Lxj5rE2i-sZiWJai-pQ7qIRjgmlEOHr1L9BRMMX1KCO52F9zVGcfeCWyfoMT0_nyx1FFgATDe-53Kjb0eN0v7j4KsoniK1HLh027XLfQdqJVmPIf4wmAAXHYpcd8E13Howb4F85LvK1F7Mq0xDgBAiK1QmjlAeTXOPyT-g9nS1N1-BVi/s2640/IMG_3397.JPG" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="2640" data-original-width="1540" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiOHZP0M_q-Lxj5rE2i-sZiWJai-pQ7qIRjgmlEOHr1L9BRMMX1KCO52F9zVGcfeCWyfoMT0_nyx1FFgATDe-53Kjb0eN0v7j4KsoniK1HLh027XLfQdqJVmPIf4wmAAXHYpcd8E13Howb4F85LvK1F7Mq0xDgBAiK1QmjlAeTXOPyT-g9nS1N1-BVi/w234-h400/IMG_3397.JPG" width="234" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">टाइम्स ऑफ इंडिया, मुंबई .१२ जनवरी २३</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: center;"><a href="https://www.who.int/europe/news/item/04-01-2023-no-level-of-alcohol-consumption-is-safe-for-our-health">NO level of alcohol consumption is safe for your health</a> (please read this also) </div><div style="text-align: center;"><a href="https://www.who.int/europe/publications/m/item/factsheet-5-facts-about-alcohol-and-cancer">Factsheet- 5 facts about alcohol and cancer </a></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: left;">मेरी नज़र में हिंदोस्तान के सब से बेहतरीन अखबार को बाज़ारवाद के उमड़ते बवंडर में भी इस तरह की खबर को जगह देने के लिए शुक्रिया...👍🙏</div><div style="text-align: left;"><br /></div>यह खबर पढ़ने के बाद फिर एक बार लगा कि इस तरह की जानकारी तो हिंदी में भी मुहैया करवानी चाहिए अपने ब्लॉग के ज़रिए मुझे ...चाहे है वो भी एक खुशफ़हमी कि पता नहीं ब्लॉग में जनमानस की ज़बान में लिखने से पता नहीं मै कौन सा पहा़ड़ उखाड़ लूंगा ..चलिए..अपना काम तो कर देना चाहिए...जंगल मे आग लगी तो चिडिया अपनी चोंच में पानी भर भर के उस आग में फैंकनी जाती..किसी ने कहा, अरी पागल, तेरे चोंच भरे पानी से क्या होगा...तो वह बोली, मेरा नाम तो आग बुझाने वालों में लिखा जाएगा....वही बात है इस ब्लॉग में इस दारू न पीने वाली बात को लिखना भी...<div><br /></div><div>दो दिन सोचता ही रह गया लेकिन इस वक्त सोच रहा हूं कि अच्छा ही हुआ...लोगों ने लोहड़ी तो अच्छे से दारू-शारू के साथ मना ली...वरना यह सब पढ़ कर मज़ा किरकिरा हो जाता ....क्योंकि वैसे तो सभी जगह लेकिन पंजाब के तो गीत सुन कर ऐसा लगता है जैसा कि वह दारू पर ही जी रहा है, जीप पर चढ़े हुए कंधे पर दुनाली को टांगे दारू पी कर बड़कां मारने की बातें ...लेकिन यह सब इतना रोमांटिक है नहीं जितना दिखता है ..आस पास के सब लोग जिन को दारू, सिगरेट, बीड़ी पीते देखता था, सब के सब इन्हीं चीज़ों से होने वाली बीमारियों का शिकार हो के चले गए....और कुछ ऐसे भी जिन्होंने कभी इन का सेवन नहीं किया चले तो वह भी गए ....ऐसा नहीं है कि मैं अमर हूं या जो कुछ ऐसा खाते पीते नहीं, वे १५० साल जी लेंगे....ऐसा नहीं है, लेकिन बात इतनी सी है कि मक्खी देख कर तो नहीं निगली जाती ...क्या ख्याल है आपका?</div><div><br /></div><div>अब ख्याल आ रहा है कि पढ़ने वालों को लग रहा होगा कि तुम भी तो बताओ अपने बारे में ....तो उस का जवाब यह है कि सारे अपने सारे खानदान में मैं एक अकेला ही ऐसा हूं जो पता नहीं कैसे बच गया इस से ...अच्छा ही हुआ, वरना जिस तरह का मैं ही मैं तो ठेके पर ही बैठा रहता...ऐसा क्या हुआ कि मैं इसे चखने से भी महरूम रह गया ..क्योंकि मुझे इस से पहले ही से बड़ी नफ़रत थी ...खास कर किसी भी दारू पिए हुए बंदे से बात करने की बात से ही ...फिर १८-१९ बरस की उम्र थी...मेडीकल कालेज अमृतसर की पैथोलॉजी की प्रोफैसर डा प्रेम लता वडेरा हमें एक दिन अल्कोहल के लिवर पर होने वाले बुरे प्रभावों - फैटी लिवर, सिरहोसिस- के बारे में इतने अच्छे से पढ़ा रही थीं कि ऐसे लगा जैसे एक मां अपने बच्चों को सचेत कर रही हो ....वह एक बहुत नामचीन पैथोलॉजिस्ट थी ....हमारी मां की उम्र की ही थीं ...पढ़ाने का तरीका भी ऐसा उम्दा ....(वैसे वो मेरी आंसरशीट को क्लास में दिखाया करती थीं कि ऐसे लिखते हैं पेपर में , यह होती है प्रिज़ेंटेशन....😎) ... देखिए, उन के पढ़ाने का असर कि उस दिन क्लास में मन ही मन यह निश्चय कर लिया कि दारू को तो हाथ नहीं लगाना ....और पापा जो शाम को एक-दो छोटे छोटे पैग लेते थे, उन्हें भी मैंने यह कह कर बोर करना शुरू कर दिया कि पापा, यह खराब है, यह नुकसान करती है ...लेकिन ...लेकिन, वेकिन, छोड़ो, यार ...जितना लिख दिया बस काफ़ी है। </div><div><br /></div><div>एक वक्त वह भी आता है कि जब किसी चीज़ को छोड़ने से भी कुछ खास फर्क पड़ता नहीं, समझ गए न आप.....जैसे गुटखा खाने वाले लोग मुंह के एडवांस कैंसर का इलाज करवाने आते हैं तो कहते हैं कि एक महीने से गुटखा छुआ तक नहीं..बीड़ी पंद्रह दिन से बंद है ....मन तो होता है कहने को कि पी लो, अब और जितनी पीनी हो ....लेकिन मरीज़ से ऐसी बात कहां हम लोग कर पाते हैं....हम भी यही कह कर उस का मनोबल बढ़ाते हैं ...अच्छा किया, बहुत अच्छी बात है ...वैसे ऊपर जो मैंने विश्व स्वास्थ्य संगठन की फेक्ट-शीट लगाई है उसमें यह भी कितना स्पष्ट लिखा है कि जो लोग तंबाकू और दारू दोनों चीज़ों का इस्तेमाल करते हैं उन में कैंसर होने का खतरा कितना बढ़ जाता है ..</div><div><br /></div><div>चलिए, अब इस बात को यहीं विराम देते हैं...ज़्यादा कागज़ काले करने से भी कुछ होता वोता नहीं है...समझदार को इशारा काफी होता है ...अब तो लगता है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह बात अस्पतालों में जगह जगह लगी होनी चाहिए कि दारू की कम से कम मात्रा भी सेहत के लिए सुरक्षित नहीं है ... हां, मैं पंजाब की बातें कर रहा था ..दुनाली, जीपों, दारू और दारू पी कर बड़कें मारने की ....मुझे आज यह लिखते लिखते अचानक याद आया कि हम लोग बचपन में देखा-सुना करते थे कि पंजाब में विवाह शादी से पहले लेडीज़-संगीत (पंजाबी में उसे गौन या गावन कहते थे ...घर घर जा कर उस का सद्दा दिया जाता था...) शादी के कईं कईं दिन पहले यह शुरू हो जाता था ...चार पांच दिन पहले तो हमने देखा है, सुना है ...उसमें भी इस तरह के गीत ढोलक के साथ बजते थे ....नशे दीए बंद बोतले, तैनूं पीन गे ..हाय, तैनूं पीन गे नसीबां वाले ...(नशे को बंद बोतले, तुझे नसीबों वाले पिएंगे).. 😂</div><div><br /></div><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/q4_MHk7j5Gk" title="YouTube video player" width="420"></iframe><div><br /></div><div>एक बात तो मैं दर्ज करनी भूल ही गया कि अभी मेरी जितनी उम्र है उस का आधा हिस्सा जिसने अमृतसर जैसे शाही शहर में बिताया हो ..जहां खाने पीने की पूरी ऐश थी...लज़ीज़ शाही खाना....आलू के परांठे और उस के बाद पेढ़े वाली मलाईदार लस्सी दा कड़े वाला गिलास....कमबख्त उस से ही इतना नशा हो जाता था कि दूसरे नशे के बारे में सोचने की होश ही किसे रहती....एक आम कहावत भी है न ..नशा तो रोटी में भी है ... सच बात है बिल्कुल...। लिखते लिखते याद आया हमारी एक कज़िन हम से १० साल बड़ी होंगी ...जब बंबई से अमृतसर आईं हमारे यहां तो एक दिन पानी का गिलास पकड़ कर इस गाने पर एक्टिंग करने लगीं ..हम सब बच्चों को अपने आस पास बिठा के ....हमें बड़ा अच्छा लगा, वह पानी का गिलास पकड़ कर १-२ मिनट के लिए ही यह गीत गाते झूम रही थीं.... हमने तब फिल्म भी न देखी थी ...बहुत बरसों बाद देखी... हां जी हां, मैंने शराब पी है ... </div><div><br /></div><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/h0yuh_P71-4?start=25" title="YouTube video player" width="420"></iframe><div><br /></div><div>अगर आप इस पोस्ट की भूमिका भी देखना चाहें तो यहां पधारिए.... </div><div><a href="https://drparveenchopra.blogspot.com/search?updated-max=2023-01-15T09:24:00%2B05:30&max-results=1">थोडी़ थोडी पिया करो...लेकिन ठहरिए...😎</a></div>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-13296616163822689692023-01-13T07:47:00.002+05:302023-12-16T20:28:10.940+05:30थोड़ी थोड़ी पिया करो.......लेकिन, ठहरिए!!पचास बरस पहले का दौर याद आता है जब इस गीत या गज़ल का ख्याल आता है ...याद आता है वह वेस्टन कंपनी का टेप-रिकार्डर और उस में टेप पर बज रहा पंकज उधास का गाया वह गीत ....थोड़ी थोड़ी पिया करो...अच्छा लगता था उसे सुनना....१५ बरस पहले २००८ की बात होगी...अभी शायद मुझे ब्लॉगिंग करते एक साल ही हुआ था कि मैंने एक ब्लॉग लिखा था...थोड़ी थोड़ी पिया करो। नहीं, इसमें किसी को दारू पीने के लिए उकसाने वाली बातें न थीं....दिल से लिखा गया एक ब्लॉग था...जो पढ़ने वालों को इतना पसंद आया कि किसी मेहरबान ने उस का उन दिनों एक पॉडकॉस्ट ही बना दिया...<div><br /><div>खैर, दारू की जब बात चलती है तो लोगों के दिलो-दिमाग में यही बात घर कर चुकी है कि थोड़ी बहुत पी लेना सेहत के लिए ठीक ही है ...इस से कोई दिक्कत नहीं होती, बल्कि सेहत पर कुछ अच्छा असर ही पड़ता है ..बिना टेंशन को दूर भगाने के लिए यह सब कुछ करता है ...यह तो एक प्रचलित धारणा है ही ...हर जगह ....दारू पीने वालों ने अपने मन को समझा लिया था ...और दारू बेचने वालों की तो बात ही क्या करें...वह लॉबी तो इतनी ताकतवर है कि किसी को कुछ बताने की ज़रूरत है नहीं...</div><div><br /></div><div>आज बहुत अरसे बाद इस पर लिखने लगा हूं तो इतनी बातें याद आ रही हैं कि लगता है जो जो याद आ रहा है लिख दूं... यादों के झरोखे से दिखने वाले मंज़र कब दूर हो जाते हैं पता ही नहीं चलता....हमारे ताऊ जी के बेटे ने आज से ५०-५५ बरस पहले एक इंगलिश वाइन की शाप खोली...मैं यही कोई सातवीं-आठवीं कक्षा में था...मुझे अच्छे से याद है कि मैं एक दिन उस वाईन-शाप पर गया ...और पता नहीं मुझे क्या करना है, किसी कुर्सी को थोड़ा इधर उधर सरकाना था ...तो वाइन-व्हिस्की या पता नहीं क्या (इंगलिश दारू ही थी) ..उस का एक डिब्बा कार्डबोर्ड का वहां पड़ा था...उन बोतलों से भरा हुआ...मैं जैसे ही उसे उठाया, वह नीचे से फट गया और सारी बोतलें टूट गईं...मुझे बहुत बुरा लगा...थोड़ा डर भी लगा ...वैसे डर बहुत कम था क्योंकि मैं अपने घर वालों को जानता हूं, ये सब बडे़ ही भले लोग हैं, दूसरों को कुछ नहीं कहते तो मुझे इन्होंने क्या कहना था....</div><div><br /></div><div>लेकिन यह बात तो मेरे दिलोदिमाग में आज भी ताजा है कि इतना बड़ा कांड होने के बावजूद किसी ने मुझे इतना भी नहीं कहा कि यार, यह क्या हो गया....वहां पर ऐसा माहौल था जैसे कुछ हुआ ही नहीं, जैसे रसोई में कोई गिलास टूट गया हो....अभी ख्याल आ रहा है कि हम लोगों से जैसा बर्ताव हुआ होता है, हम वही बर्ताव दुनिया को लौटाते हैं .....खैर, हमारे उस कज़िन की दुकान घाटे का सौदा ही थी...क्योंकि बिजनेस चलाना उन के बस की बात न थी, एक बात ....दूसरी बात यह कि शाम को उन के दोस्तो की महफिल रोज़ उस वाइन-शॉप में ही लग जाती थी...और एक महंगी सी बोतल तो उन को चाहिए होती थी ...और इस के साथ साथ दुनिया भर को दारू उधार देने से (जो कभी वापिस न मिला) वह दुकान का ऐसा दिवाला पिट गया कि उसके शटर नीचे गिर गए.... और उन्होंने आल इंडिया रेडियो में एक अच्छी नौकरी कर ली....इस के बाद बीसियों बरसों तक जब तक कुनबे के बुज़ुर्ग जिंदा रहे ...उन के ठहाके इसी बात पर लगते रहे कि चोपड़ों ने दारू की दुकान खोली और वह तो बंद होनी ही थी ...कोई उस ठेके से जुड़ा कोई किस्सा सुनाने लगता और कोई कुछ ...अरे यार, मैं एक बात तो भूल गया कि यह ठेके हमारे ताऊ जी की कोठी के बाहर ही था, मुझे याद है अंधेरा होते ही एक बोतल उस ठेके से उन के लिए भी पहुंचा दी जाती ..कईं बार तो वह खुद ही आ कर ले जाते ...</div></div><div><br /></div><div>वैसे भी यह उन दिनों की बात है जब यह समझा जाता था या यह माना जाता था कि अगर दारू इंगलिश है तो कोई बात नहीं ....यह तो देसी दारू ही है जो शरीर खराब करती है, यही आम धारणा थी लोगों में। और एक बात ...यह जो केंटीन से दारू मिलती थी आर्मी वालों को ..लोगों को उसे पा लेने का बडा़ क्रेज़ था, आर्मी में न काम करने वाले भी इतने व्यापक स्तर पर उस कैंटीन से मिलने वाली दारू का जुगाड़ कैसे कर लेते थे ...यह देख कर बड़ी हैरानी होती थी ...जुगाड़ भी ऐसे ऐसे कि क्या कहें....मौसा जी किसी छावनी में बैंक मैनेजर क्या हो गए, सारे कुनबे में उन का रुतबा बढ़ गया ....पता नहीं मैनेजरी से या इस बात से कि अब वह वहां की कैंटीन से अच्छी क्वालिटी की दारू हासिल करने का जुगाड़ कर पाते ....मुझे उन दिनों की बातें याद आती हैं तो बहुत हंसी आती है जब किसी छत पर या बैठक में दारू की महफिल जमी होती तो कमरे में कितने ठहाके लगा करते ...खुशियां ही खुशियां....सिगरेट से धुएं से भरा कमरा ...ऊल जूल बातें करते बंदे....मुझे पता इसलिए है क्योंकि कईं बार जब बर्फ कम पड़ जाती तो बाज़ार से बर्फ लाकर, दाल मौठ के साथ ...उसे अंदर पहुंचाने की ड्यूटी मेरी या मेरे जैसे किसी दूसरे की लगती थी ....ठहाकों के बावजूद उस कमरे में जा कर अजीब सा महसूस होता था ....जिसे मैं अभी तक कभी लिख नहीं पाया हूं ...खैर, उसे भी लिख दूं कभी तो ... </div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNrnn9it1-HDZWd1H0FvLLbkUT-d9zTrFNvcxOKFYmAGJgwQk12R1wK9cZp4TZuGoUiof867ukZ88ZtE9nxuYfVtAYi14kxZfAVC1kQy-QEjP0_58-V9DtWfkcGTneT63L9YqabEYKbQosGoM7Vr2ORs3wGzgfLkbeUo4hsoJQGyowVq-m1jHeq1yj/s3882/IMG_3290.heic" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2606" data-original-width="3882" height="269" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNrnn9it1-HDZWd1H0FvLLbkUT-d9zTrFNvcxOKFYmAGJgwQk12R1wK9cZp4TZuGoUiof867ukZ88ZtE9nxuYfVtAYi14kxZfAVC1kQy-QEjP0_58-V9DtWfkcGTneT63L9YqabEYKbQosGoM7Vr2ORs3wGzgfLkbeUo4hsoJQGyowVq-m1jHeq1yj/w400-h269/IMG_3290.heic" width="400" /></a></div><br />खैर, उस दौर में हमारे चाचा लोग ५५५ के सिगरेट पीते थे और जॉनी वॉकर दारू ही लेते थे ....मुझे याद है अच्छे से क्योंकि मुझे उस जानी वाकर, वैटे 69 की खाली बोतलें बहुत पसंद थीं...और हमें उन के खाली होने के बाद फ्रिज में पानी ठंडा रखने के लिए इस्तेमाल करने पर ही हर बार पांच फीसदी नशा हो ही जाता था ...और हम इन सब की रईसी को देख कर बस दांतों तले उंगली ही न दबाते थे ..दंग तो रह ही जाते थे ...५५५ कंपनी का सिगरेट ...जिसे उन दिनों शहर में ढूंढना मुश्किल होता था ....सिगरेट के बारे में भी उन दिनों यही बात मानी जाती थी कि जितना महंगा होगा उतना ही कम खराब होगा....५५५ पीने वाले भी कभी कभी ऐसे ही टशन के लिए बीड़ी के दो कश भी मारा करते थे, मैंने यह सब देखा है । वैसे मुझे गुज़रे दौर में महंगे दारू की खाली बोतलें ही न लुभाती थीं, मुझे अभी भी पुराने दौर की चीज़ों से खास लगाव है ...कुछ महीने पहले किसी एंटीक की दुकान पर ५५५ सिगरेटों की लोहे वाली डिब्बी दिख गई ...मैंने पहले कभी न देखा इस तरह की लोहे की डिब्बी को .......बहुत ज़्यादा महंगी बेच रहा था, खैर, मैंने उसे खरीद लिया ...क्योकि अभी तक तो ऐसी सिगरेट की डिब्बी न देखी थी न सुनी, और न ही आगे ही देखने की कभी उम्मीद ही लगी ....अभी ढूंढने लगा यहां पर फोटो लगाने के लिए तो मिली नहीं......पता नहीं कहीं पर रख कर भूल गया हूं....खैर, नेट से फोटो लेकर यहां लगा देता हूं....</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWMPYXy6Bymx5oC9QeVbHc_qLbUaNXCA5Nip_m4hCFzRJTOhweJFI-kdEadb5zJAF75uE2E9apBm_-vZWmXRo4zVTCICfO41dF8ln3Kw4G1ygHkk6uT47or8kX6ExEkSh2PIOoUGQZ7YfJ-NqX1NIZYaDcREyUzA8knt8FvJ6DYB217JqA18Y_7PB7/s4032/IMG_3288.HEIC" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWMPYXy6Bymx5oC9QeVbHc_qLbUaNXCA5Nip_m4hCFzRJTOhweJFI-kdEadb5zJAF75uE2E9apBm_-vZWmXRo4zVTCICfO41dF8ln3Kw4G1ygHkk6uT47or8kX6ExEkSh2PIOoUGQZ7YfJ-NqX1NIZYaDcREyUzA8knt8FvJ6DYB217JqA18Y_7PB7/s320/IMG_3288.HEIC" width="240" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTy3GerHkhNTCMr037fuUX-jb-zbUh6UnM-VD5X48axlHqzhF1CTtl441Cm1UzMYCUx5r18Vz0d1VoCBcXd3MIP5OPpfQxMGNCJytr8iUZsY_tnJnq9mQIyl7pYs8PrOwN_MTInYZgYXy77L9w_TrMTb4HqKh1k9-qI06RRD3LtUE62mjFmnq2Lyp-/s4032/IMG_3289.HEIC" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTy3GerHkhNTCMr037fuUX-jb-zbUh6UnM-VD5X48axlHqzhF1CTtl441Cm1UzMYCUx5r18Vz0d1VoCBcXd3MIP5OPpfQxMGNCJytr8iUZsY_tnJnq9mQIyl7pYs8PrOwN_MTInYZgYXy77L9w_TrMTb4HqKh1k9-qI06RRD3LtUE62mjFmnq2Lyp-/s320/IMG_3289.HEIC" width="240" /></a></div><br />आज सुबह सुबह उठते ही इस दारू का, इन सिगरेटों का ख्याल ऐसे आया कि लगभग ५० बरस पुरानी एक मैगजी़न के पन्ने अभी उलट ही रहा था कि सिगरेट के इस इश्तिहार पर नज़रें जा टिकीं....बस, फिर क्या था, बीते दिन आंखों के सामने घूमने लगे ...कभी यह कभी वो...पढ़ने की तो इच्छा थी नहीं, सोने का भी मन नहीं था चाहे नींद लग रहा था अभी पूरी नहीं हुई.....बस, और कुछ न सूझा तो यही डॉयरी लिखने बैठ गया...</div><div><br /></div><div>यह डॉयरी लिखने की बात यह है कि जो मुद्दे की बात लिखना मैं चाह रहा हूं ....वह तो मैंने शुरू भी नहीं की। क्या करूं....पुरानी इधर उधर की यादों ने ही ऐसे घेर लिया कि लगा कि पहले इन्हें समेट लूं ...लेकिन फिर भी एक छोटा सा अंश ही समेट पाया ...और जो असल बात है वह कहने से रह गया.....कोई नहीं, अगली पोस्ट में उस बात को करते हैं.......ब्रेक के बाद!!😎😂</div><div><br /></div><iframe width="420" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/jX6TSQ-uu4Q" title="YouTube video player" frameborder="0" allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen></iframe>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-36469397227353720562023-01-03T08:57:00.003+05:302023-12-16T20:28:16.466+05:30किताबें पढ़ना तो चाहते हैं लोग....<p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlFLGsvagF826hGU8w2X7uP-pdneE6IOYCK6lfgTYg0E-m7clUX3Ry2bMRasJ1mO7GpedOur4Rq_KmpBY7cs-SYyHtKBAexGqSjjJ37dFPaonw8o9gkehSNHiKQAiEH-B-SKFEjXzKOjuC2TpW_CnKSk1GtEw4cWUaTRYw_vn_BQwtryEysFseVl96/s4032/IMG_0512.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlFLGsvagF826hGU8w2X7uP-pdneE6IOYCK6lfgTYg0E-m7clUX3Ry2bMRasJ1mO7GpedOur4Rq_KmpBY7cs-SYyHtKBAexGqSjjJ37dFPaonw8o9gkehSNHiKQAiEH-B-SKFEjXzKOjuC2TpW_CnKSk1GtEw4cWUaTRYw_vn_BQwtryEysFseVl96/w300-h400/IMG_0512.jpg" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">किताबों की खुशबू में ही कुछ जादू है जो खींचती हैं मुझे ...एनसीपीए,मुंबई, नवंबर २०२२</td></tr></tbody></table><br />कल शाम मैं एक बुक स्टोर में कोई किताब ढूंढ रहा था कि मेरे पास खड़े एक २५-३० बरस के युवक ने मुझ से पूछा कि क्या आप पढ़ने के लिए मेरे लिए कोई बुक सुजेस्ट कर सकते हैं....पहले तो मैं एक बार चकरा सा गया कि अब यह काम भी मेरे हिस्से में आ गया...क्या मैं इतना पढ़ाकू दिखने लगा हूं ...चलिए, दिखूं या न दिखूं लेकिन मुझे किताबें खरीदने का बहुत शौक है ...बहुत ज़्यादा शौक है ...और एक तरह की नहीं, हर तरह की किताबें ...अपना अपना शौक है, किताब कितनी भी महंगी हो, मुझे नहीं लगती....मुझे यही लगता है कि मान लेंगे १-२ पिज़ा खा लिए या बाहर कहीं खाने चले गए....मन को समझाने की बात है, शुरू शुरु में तो इस तरह से समझाना पड़ता था लेकिन अब उसे भी समझ आ गई है, इसलिए अब यह काम भी नहीं करना पड़ता। <p></p><p>हां, मैंने उस युवक से पूछा कि वह किस जॉनर की किताब पढ़ना चाहेगा...उसने कहा कि हैरी-पॉटर टाइप कुछ। खैर, वहां पर हैरी पॉटर की कोई किताब नहीं थी ...मैंने उसे कहा कि इस सेक्शन में तो अधिकतर नावल, इंस्पिरेशनल बुक्स, और ज्ञान झाड़ने वाली किताबें हैं...ज्ञान झाड़ने वाली बात पर वह हंसने लगा...मैंने उसे जैफरी आर्चर की कहानियों की किताब की तरफ़ इशारा किया..लेकिन उस ने उसे भारी भरकम देख कर अहमियत न दी....खैर, मैंने वह किताब खरीद ली...और उसने कहा कि मैं तो अभी शुरूआत ही कर रहा हूं कुछ पढ़ने से ...इसलिए उसने एक पतला सा नावल खरीद लिया...</p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHazknZULpngQ0aPMseXYEUc1CKrars8bX4YZUJbjKe-I8T_q80RGlnkrRyyrRMbYQ33dvxFsyWFtWvFoI69w1tRDaM83YKWWKitcMltSfG0ozEMTx9Nkf4iiKndvncAEWEDEB3g3hhwI4SvKdMcgEScAOzEzdmWWCmJhQMs1GO5mp-AwxZN_XaRvC/s4032/IMG_2765.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHazknZULpngQ0aPMseXYEUc1CKrars8bX4YZUJbjKe-I8T_q80RGlnkrRyyrRMbYQ33dvxFsyWFtWvFoI69w1tRDaM83YKWWKitcMltSfG0ozEMTx9Nkf4iiKndvncAEWEDEB3g3hhwI4SvKdMcgEScAOzEzdmWWCmJhQMs1GO5mp-AwxZN_XaRvC/s320/IMG_2765.HEIC" width="240" /></a></div><br />मुझे अच्छा लगता है जब मैं किसी को किताब खरीदते, पढ़ते या डिस्कस करते देखता हूं...पिछले रविवार मुझे एक भव्य समारोह में जाने का मौका मिला...जहां पर बड़े बड़े लेखकों का जमावड़ा लगा हुआ था...वहां पर २-३ घंटे कैसे कट गए पता ही न चला...मौका सा धर्मवीर भारती साहब के ऊपर एक किताब का विमोचन...जिन्होंने भारती जी का नाम न सुना हो, उन के लिए बता दें कि वह धर्मयुग साप्ताहिक के १९६० से १९८७ तक संपादक थे ...उन्होंने धर्मयुग को उन ऊंचाईयों तक पहुंचाया कि एक दौर में उस की चार लाख कापियां छपी थीं...और कईं बार जब कोई अंक खत्म हो जाता था तो टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग के बाहर लोग प्रदर्शन करने लगते थे कि कापियां खत्म हैं, हमें नहीं मिलीं, दोबारा छापिए। ऐसा था, लोगों का प्यार धर्मयुग के लिए....<p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj6Yg_JhwA2z4e5RBCwQWQzJooZugtqMQWYol7UylKhpBP9cLQEn2JksL9mpk2KEQbQKc7-JHaKU9Hnf1OWiBj7hIgj3ng-fE6JviRcbXyRV2GYuPaL-gMWsZrWDt_8uVdlxDnqFyJKkEDnZvHoao8PdBXUHvRonCY3vdbLriseCFRDtyhCDYKr4Udp/s4032/IMG_2763.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj6Yg_JhwA2z4e5RBCwQWQzJooZugtqMQWYol7UylKhpBP9cLQEn2JksL9mpk2KEQbQKc7-JHaKU9Hnf1OWiBj7hIgj3ng-fE6JviRcbXyRV2GYuPaL-gMWsZrWDt_8uVdlxDnqFyJKkEDnZvHoao8PdBXUHvRonCY3vdbLriseCFRDtyhCDYKr4Udp/w400-h300/IMG_2763.jpg" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">अपने बचपन का साथी ..धर्मयुग </td></tr></tbody></table><p>उस दिन जब उन की श्रीमति जी - पुष्पा भारती जी को सुना तो पता चला कि इस के पीछे जादू क्या था...वह सरल सादा भाषा इस्तेमाल करते थे ...मुझे भी तब समझ में आया कि १९७० के दशक में, अमृतसर शहर में पांचवी छठी कक्षा में पढ़ने वाला मेरे जैसा छात्र और परिवार के सभी लोग धर्मयुग के इतने दीवाने थे कि उस के लिए आंखें बिछाए रहते ...खैर, उस दिन वह किताब भी खरीद ली और उसे पढ़ कर जैसा वह ज़माना फिर से जी रहा हूं आज कल...</p><p>मैं तो किताब कब लिखूंगा मुझे नहीं पता ...मां यह कहती कहती चली गई...दो एक प्रकाशक कहते कहते थक गए ...लेकिन मैं पता नहीं किस बात का इंतज़ार कर रहा हूं ...सठिया तो गया ही हूं ...फिर भी अभी तक कुछ नहीं किया ....मैंने बीते साल की ३१ दिसंबर तक एक किताब की पांडुलिपि पूरी करने का संकल्प अपने स्टडी़-रूम में टांग रखा है, और किताब का नाम भी....लेकिन कुछ नहीं हुआ...बीस बरसों से बस प्लॉनिंग ही चालू है ...जब की खूब किताबें देख कर, अगर पढ़ कर नहीं भी तो उन के पन्ने उलट-पलट कर यह तो मन में विश्वास हो चुका है कि मैं किताब तो लिख ही सकता हूं और ठीक ठीक तरह की लिख सकता हूं....हिदी.पंजाबी, इंगलिश और उर्दू की किताबें पढ़ता हूं लेकिन अभी तक यही मन बनाया है कि अगर कभी किताब लिखूंगा तो वह होगी हिंदोस्तानी ज़बान में ही ..जो हम लोगों की बोलचाल की भाषा है ..हिंदी, उर्दू मिक्स...आम जन की समझ में आने वाली मासूम सी बातें....जैसा कि मैं जानबूझ कर अपने इस ब्लॉग में लिखता हूं.......मुझे किताब के लिए विषय ढूंढने में कोई मुश्किल नहीं है, न ही विषयों की कोई कमी है, बस, एक जगह टिक कर कुछ दिन बैठने भर की बात है ...शायद यही कोई आठ दस दिन ... लेकिन वह कब मुमकिन हो पाएगा, मुझे भी नहीं पता। </p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjIhfzAYLEhBUSjyuF2O2givUqZtYmVmoFJPUXzqVaYC1faCg1uMSNxkT7Cm9R7OtckZAHhIhezGOofa61vMgWaLMQzwDTAjUgED7i4Qgil0HLnyG1PqVzGlfa0TOav2DBSd9JOgvuRgli2rXNqMC0zPjBUpqeHuultp8u2sHUkfluJN0Spn8U87m3Y/s4032/IMG_0474.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjIhfzAYLEhBUSjyuF2O2givUqZtYmVmoFJPUXzqVaYC1faCg1uMSNxkT7Cm9R7OtckZAHhIhezGOofa61vMgWaLMQzwDTAjUgED7i4Qgil0HLnyG1PqVzGlfa0TOav2DBSd9JOgvuRgli2rXNqMC0zPjBUpqeHuultp8u2sHUkfluJN0Spn8U87m3Y/w300-h400/IMG_0474.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">दो महीने पहले एन.सी.पी.ए में ...</td></tr></tbody></table><p></p><p>किताब लिखने के बारे में एक कथन मैंने कुछ महीने पहले एक किताब में यह पढ़ा था कि लेखक को वह किताब लिखनी चाहिए जो वह पढ़ना तो चाहता है लेकिन अभी तक लिखी नहीं गई है। अपना भी मंसूबा तो कुछ ऐसा ही है ..देखते हैं....</p><p>तीन बरस पहले जब अमेरिका गए तो वहां एक शाम न्यू-यार्क में एक लाइब्रेरी के सामने से गुज़र रहे थे ...क्या बात थी उस जगह की...मज़ा आ गया था....अंदर तो नही गया लेकिन उस लाइब्रेरी के इर्द-गिर्द फुटपाथ की कारीगरी देख कर ही हमें नज़ारा आ गया था ...अभी आप को भी वहां की फोटो दिखाते हैं...पढ़िएगा ज़रूर , मज़ा आएगा आपको भी ( चाहे ज़ूम ही क्यों न करना पड़े हरेक फोटो को ...) वहां पर उस फुटपाथ पर क्या क्या लिखा हुआ है ....एक बात जो मुझे हमेशा के लिए याद रह गई कि किताबों को पढ़ना गुज़रों दौर के महान लोगों से मुलाकात करने जैसा शौक है ....जी हां, मैं भी यही मानता हूं...</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEirfwX7EY6YYzRGE9H8apeHP1E65vjoIsTjgLxCFMQ_zmvWSAD1TUkU5FI_MbBfzLaUAnw-FgzmDlqqDUBEnI5HpTzuOt-MXRteIFzjIJoSNSt2WOIuLfBBzdyPlgJsGuWh_dU3XUD-J97nEvWHc2pHEXTf6M9hoa1Fxvdn9xAEXmOny-DmOs7TeCVp/s4032/IMG_20190502_182956.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEirfwX7EY6YYzRGE9H8apeHP1E65vjoIsTjgLxCFMQ_zmvWSAD1TUkU5FI_MbBfzLaUAnw-FgzmDlqqDUBEnI5HpTzuOt-MXRteIFzjIJoSNSt2WOIuLfBBzdyPlgJsGuWh_dU3XUD-J97nEvWHc2pHEXTf6M9hoa1Fxvdn9xAEXmOny-DmOs7TeCVp/w400-h300/IMG_20190502_182956.jpg" width="400" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKgEuuifpnF3S-0j_qbeNs5BRdSEtBiLhINka2t5wZ5gLI9HsjFdTOCpn4MjctvUlvUK73l_ySEMPYXfDTyVUJtsm1OA2UPdNM1uN0FT1N-3OOkqByXxVg62lsSSHaQzKQIS4wUsk5WnS_ktJgYBr8dN4sydjFavGqoHjEOmwCaJIlVXQzVHyjKv4d/s4032/IMG_20190502_183002.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKgEuuifpnF3S-0j_qbeNs5BRdSEtBiLhINka2t5wZ5gLI9HsjFdTOCpn4MjctvUlvUK73l_ySEMPYXfDTyVUJtsm1OA2UPdNM1uN0FT1N-3OOkqByXxVg62lsSSHaQzKQIS4wUsk5WnS_ktJgYBr8dN4sydjFavGqoHjEOmwCaJIlVXQzVHyjKv4d/w300-h400/IMG_20190502_183002.jpg" width="300" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEglfRf0kzpm4-KtUsak0HVBKR605R5R_OnNH78zWxNCg3DmQVxbZ-bjTvYuSLX4IPNO5WT78wuAdXpnsufAj0MbA7IBSfzHvoW5lsZgsp1wT81dfucJQjiOrxvrOuHHqD5K2ZjKOljxUx7-F4nRqYg2_xd9DgLOLAytEAjzXGLpoLLqBqhQsTDhAsPR/s4032/IMG_20190502_183111.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="300" 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src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1TNY-WmKl2PhC4oj6ZmCFpMlRqMiX5IhjsKWnc7H1EgsD8lSP4yVupucePJ0odOYyPMUCV1uNobiG5P2qF4jN82mQusWXM-m-Q7UHPB1z1HuFBx0pMNQVNC59Ae4zEWH0gM3T4kuKsnpvPDly7HxK976Dhf5OHRnBYofxlGD-IocYedNssk7gQ4AT/w400-h300/IMG_20190502_183253.jpg" width="400" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjy4xOXC_otbF9EsRczZ7FMHJV7uOsj4m052bHiV6MH8Ke4f7_sLz7v5yj8UmCEjfq84AI7Os_IoVQfxBulrG9ELqienOL-T6GSEOVcrvAqcf_J2CiPwMHe1x62OXZXfyiEEopXzj9wu3vsSSKu-oqn9GUhcl3b5OX2M4GDdPQxTIm1qqeYDDXDrToj/s4032/IMG_20190502_183300.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjy4xOXC_otbF9EsRczZ7FMHJV7uOsj4m052bHiV6MH8Ke4f7_sLz7v5yj8UmCEjfq84AI7Os_IoVQfxBulrG9ELqienOL-T6GSEOVcrvAqcf_J2CiPwMHe1x62OXZXfyiEEopXzj9wu3vsSSKu-oqn9GUhcl3b5OX2M4GDdPQxTIm1qqeYDDXDrToj/w400-h300/IMG_20190502_183300.jpg" width="400" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgUQ0kuyVU6gupc_szdRVcZqnkN3SuaU9N7dTtVDU_-W2yhBtmCWAqr1CjDZIX4rCFDTEcQHBIZ7PW_cSlbngK6Cy0gHjvlFCg34ALaG_z5x9ZBNW3ERTIsNwwagxrp_WPdyllyRBTXv5FibYk_mXPlYdvzz1r4LB3vbLGgtcY1eHIjTEbVFl8gKfze/s4032/IMG_20190502_183308.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3024" data-original-width="4032" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgUQ0kuyVU6gupc_szdRVcZqnkN3SuaU9N7dTtVDU_-W2yhBtmCWAqr1CjDZIX4rCFDTEcQHBIZ7PW_cSlbngK6Cy0gHjvlFCg34ALaG_z5x9ZBNW3ERTIsNwwagxrp_WPdyllyRBTXv5FibYk_mXPlYdvzz1r4LB3vbLGgtcY1eHIjTEbVFl8gKfze/w400-h300/IMG_20190502_183308.jpg" width="400" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjycGF1YaZK73j3rPjJ_eJsED0urZ-w-kcXpcMITJKje_jLXoiYuQTCgLprv7JYMAcsmBmoRCUEB0gDdTH9RqxOOl6AM-ZllsN-YSURvEr4AMwKy3x_XewehCpLCPEaUw-pcSeo1TsDNFnLTTl1Wvj2GzCqzQWuzZkvN6qTlhIX-KZxhp-VuqBWUo69/s4032/IMG_20190502_183504.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjycGF1YaZK73j3rPjJ_eJsED0urZ-w-kcXpcMITJKje_jLXoiYuQTCgLprv7JYMAcsmBmoRCUEB0gDdTH9RqxOOl6AM-ZllsN-YSURvEr4AMwKy3x_XewehCpLCPEaUw-pcSeo1TsDNFnLTTl1Wvj2GzCqzQWuzZkvN6qTlhIX-KZxhp-VuqBWUo69/w300-h400/IMG_20190502_183504.jpg" width="300" /></a></div><p>कभी कभी लोकल ट्रेन में किसी को अखबार पढ़ते या कोई किताब पढ़ते देखता हूं तो अच्छा लगता है ....कोई कोई धार्मिक किताबें भी पढ़ते हैं...कोई मोबाईल में यह काम करते हैं...दो दिन पहले एक सिख युवक मोबाइल में कुछ गुरमुखी में लिखा पढ़ रहा था, जब उसने मोबाइल बंद किया तो मैंने पूछ ही लिया कि क्या वह जपुजी साहब का पाठ कर रहा था। उसने कहा ..हां, और साथ में उसने कुछ और नाम लिया जिसे मैं अब भूल गया हूं...</p><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/JvqCP393NSg" title="YouTube video player" width="560"></iframe><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div>एक तरफ तो इतना पढ़ने लिखने की बातें , दूसरी तरफ़ ए.बी.सी तक को छोड़ने की इत्लिजा... एक तरफ़ तो बचपन में ऐसे गीत बज रहे होते रेडियो पर और दूसरी तरफ़ हाथ में चंदामामा, नंदन, धर्मयुग और राजन-इकबाल के बाल उपन्यास थामे रहते .... हा हा हा हा .<div><br /><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/9hVPQ0wvjx0" title="YouTube video player" width="560"></iframe></div>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-87388479404136880222022-12-31T18:58:00.005+05:302023-12-16T20:28:18.986+05:30आया रे खिलौने वाला खेल खिलौने ले के आया रे ...मुंबई के लोकल स्टेशन पर जब आप सीढ़ी से नीचे उतरें और सामने ट्रेन खड़ी हो तो ज़्यादा कुछ सोचने-समझने की गुंजाईश होती नहीं सिवाए इस के कि जो भी डिब्बा सामने दिखे जिसमें चढ़ने भर की जगह हो, बस उस में सवार होने की करो, बाकी ढोने का काम तो भारतीय रेल बखूबी कर ही देगी...<div><br /><div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi7eqn_5U8Lf2sm8uPp0mlH1ZvvSXvo4nvBM95k5WngQfxwFlq-3ii8eFhpKdrSBanh8_Rmn8OYEH6ss7d4fzL5v2Bd8Rl6kzeOVtCojoaUXRfFJZWVcVXmA9_QB2miqtfT2_Y54ArjppKxVPLHxz_rU26p-FyFAY13rURuR1Taw5MqTQEB8Dow5k6C/s4032/IMG_2688.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi7eqn_5U8Lf2sm8uPp0mlH1ZvvSXvo4nvBM95k5WngQfxwFlq-3ii8eFhpKdrSBanh8_Rmn8OYEH6ss7d4fzL5v2Bd8Rl6kzeOVtCojoaUXRfFJZWVcVXmA9_QB2miqtfT2_Y54ArjppKxVPLHxz_rU26p-FyFAY13rURuR1Taw5MqTQEB8Dow5k6C/w300-h400/IMG_2688.HEIC" width="300" /></a></div><br />आज सुबह मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ...मैं जिस डिब्बे में चढ़ा वह सामान वाला डिब्बा था ...जहां तक लोग भारी सामान लेकर चढ़ते हैं...वहां बैठने की जगह भी थी ..पांच सात मिनट का सफर था, मैं बैठ गया....इतने में एक रंग बिरंगी बड़ी सी टोकरी लेकर एक आदमी चढ़ा...उसे नीचे टिकाने के बाद वह अपने मोबाइल में मसरूफ हो गया...और मेरा दिमाग यह गुत्थी सुलझाने में लग गया कि यार, यह है क्या, ये खिलौने हैं कैसे.....खैर, एक दो मिनट बीत गए...गुत्थी वुत्थी तो सुलझी नहीं, लेकिन पता नहीं मुझे कहां से बरसों पुराना एक गीत याद आ गया ...<a href="https://youtu.be/OB8DBT7tcN0">आया रे खिलौने वाला खेल खिलौने ले के आया रे </a>....मुझे क्या, हमारे वक्त में यह गीत सब को बहुत भाता था..खूब बजा करता था हमारे रेडियो पर ...</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjBo5MPA0FIjRG9vvYzdVVM5lctZiu0PaRj1SwUbWdr0TvkSGTavC778MaybbCbUyglarObP3v-yybXU8DUIKn6-47mBIR_4kCj3IiJWdfdXVAAGxUPR_mkyRHNlgvgWbLs0We-sxPdH9NQaE9vWZSSUqx0HseReT7zK0NXpG8eoX1_SQRvOuyYTMte/s4032/IMG_2690.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjBo5MPA0FIjRG9vvYzdVVM5lctZiu0PaRj1SwUbWdr0TvkSGTavC778MaybbCbUyglarObP3v-yybXU8DUIKn6-47mBIR_4kCj3IiJWdfdXVAAGxUPR_mkyRHNlgvgWbLs0We-sxPdH9NQaE9vWZSSUqx0HseReT7zK0NXpG8eoX1_SQRvOuyYTMte/w300-h400/IMG_2690.HEIC" width="300" /></a></div><div><br /></div><div>लेकिन मेरे से रहा नहीं गया, मेरा स्टेशन आने वाला था और मुझे अभी तक यही पता न चल सका कि इस टोकरे में है क्या...आखिर, मैंने उस टोकरे वाले पर एक सवाल दाग ही दिया...क्या ये खिलौने हैं?..सवाल तो उसने सुन लिया, हल्का सा उसने मेरी तरफ़ देखा भी लेकिन जवाब देनी की ज़रूरत न समझी...शायद, बंबईया तौर तरीके सीख चुका था या कुछ और कारण होगा....मुझे भी बिल्कुल बुरा नहीं लगा...सवाल उछालना अगर मेरा काम है तो उसे पलट कर जवाब के साथ मेरी तरफ़ फैंकने में किसी की क्या विवशता हो सकती है .....बिल्कुल नहीं...</div><div><br /></div><div>मुझे यह याद नहीं कि मैंने अपने पास बैठे एक युवक से भी वही सवाल पूछा या उसने खुद ही मुझे बता दिया कि यह तो बुढ़िया के बाल हैं। उसने कहा कि जिसे कैंड़ी-फ्लास भी कहते हैं...मैं तुरंत समझ गया कि अच्छा यह तो वही अपने बचपन वाली 'बुड्ढी दा झाता' (बुढ़िया के बालों का गुच्छा है), हमें कैंड़ी-फ्लास का नाम तब कहां आता था, हमने करना भी क्या था नाम वाम पता करके, बस, हमें उस ठंडे-ठंडे, मीठे मीठे झाटे को खाते हुए मज़ा बहुत आता था ..</div><div><br /></div><div>मुझे भी थोड़ा याद तो आया कि इस तरह से कैंडी-फ्लास बिकते मैंने कुछ अरसा पहले भी दुर्गा पूजा के किसी पंडाल के बाहर देखे थे ...बड़े बड़े लिफाफों में ५०-५० रूपये में बिक रहे थे ...वह युवक कहने लगा कि अब पैकिंग ऐसी होने लगी है कि ज़्यादा से ज़्यादा सेल हो सके...सही कह रहा था वह.....अब मुझे एक और जिज्ञासा हुई कि यह गिलास इतने रंगों के हैं या कैंडी-फ्लास के इतने कलर हैं....वह भी पता चल गया कि ये अलग अलग फ्लेवर हैं, अलग अलग रंग में...</div><div><br /></div><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/SMWHFfXOrEU" title="YouTube video player" width="560"></iframe><div><br /></div><div>आज तो वह कैंडी-फ्लास बेचने वाला तो कहीं पीछे छूट गया....मैंने चार पांच बार आनंद बख्शी साहब का वह गीत सुन लिया....आया रे खिलौने वाला खेल खिलौने ले के आया रे ...बख्शी साहब के गीतों की कोई क्या तारीफ़ क्या करें, हर गीत जैसे हमारे जज़्बात की अक्काशी करने वाला ...अच्छा, मज़े की बात यह भी रही कि जैसे ही मुझे उस गीत का ख्याल आया, मैंने यू-ट्यूब पर उसे लगा लिया....मुझे एक मिनट सुनने के बाद यही लगा कि इतने सादे, मीठे, दिल से निकले बोल भी बख्शी साहब की कलम ही से निकले होंगे ...जी हां, जब चेक किया तो मेरा अंदाज़ा बिल्कुल सही निकला.... ज़िंदगी की हर सिचुएशन के लिए फिल्मी गीत हम जैसे लोगों ने दिलो-दिमाग में ऐसे सहेज रखे हैं जैसे लोग मैमोरी-ड्राईव में हज़ारों गीत संजो कर रखते हैं...शायद हम लोगों के दिमाग में भी एक ड्राइव ही अलग से बन चुकी है ...बरसों से इन गीतों को सुनते सुनते, इन का लुत्फ़ उठाते उठाते और इन के बजने पर किसी सपनों की दुनिया में खोते खोते... </div><div><br /></div><div>कैंडी़-फ्लास की बात पर लौटते हैं ...इतनी तरह की रंग बिरंगी कैंडी-फ्लास जिस में पता नहीं कौन कौन से कलर और फ्लेवर पड़े हुए होंगे ...वैसे तो आज कल जो भी बाज़ार में बिक रहा है सब में कलर, फ्लेवर, प्रिज़र्वेटिव तो ठूंसे ही होते हैं ...लेकिन फिर भी हम सब कुछ खाए जा रहे हैं बिना अंजाम की परवाह किए....वैसे, बहुत बार ज्ञान भी खामखां छोटी छोटी खुशियों के आड़े आ जाता है ...शुक्र है जब हम लोग बर्फ के गोले बार बार मीठा रंग डलवा कर खाते थे, उस वक्त इन सब के बारे में कुछ पता न था, वरना ज़िंदगी की उन यादों से भी महरूम ही रह जाते ....</div><div><br /></div><div>अभी सोचा कि दो महीने पहले दुर्गा पूजा के मेले की कुछ तस्वीरें भी लगा देता हूं...कैंडी-फ्लॉस की 😎.....कैंडी-फ्लास से याद आया कि कहीं बार बार पढ़ता हूं कि कैंडी-क्रश नाम की कोई मोबाईल गेम भी है...उस से दूर रहने को कहते हैं लोग....मैंने भी अभी तक उसे खोल कर नहीं देखा...बस, यूं ही बैठे बैठे कैंडी-फ्लॉस का नाम लेते हुए कैंडी-क्रश का ख्याल आ गया....</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgAtKJDpxgIbPSmpwQ5J3IVsMcaQ8HmLEqjeu4dLqfEE2_qSsTjZLkF8wCuhFV8iwTf0IlFfY-ZMfW0hU8_c-fIyFJdrUEWil_4YHhHT25ALeHR-7uF0hkfnOoCCkDcCD_O2aUhv_ruMcJfeSe7CI841i48i2yTLvKD-JOgdft3dWJWFO0sbky-20IN/s4032/IMG_8834.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgAtKJDpxgIbPSmpwQ5J3IVsMcaQ8HmLEqjeu4dLqfEE2_qSsTjZLkF8wCuhFV8iwTf0IlFfY-ZMfW0hU8_c-fIyFJdrUEWil_4YHhHT25ALeHR-7uF0hkfnOoCCkDcCD_O2aUhv_ruMcJfeSe7CI841i48i2yTLvKD-JOgdft3dWJWFO0sbky-20IN/s320/IMG_8834.HEIC" width="240" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEithbt07sqlh0nDb_u09wrdEyCyRAOk8fCap9XY6fWc_aBtrEjUdWJQToz1wzlgCqs7XeZAaZY2THXWsckCHYFUYz1Fdus1YZkFbQ9WS7dBoUlhRrY6Y2Aff46MdJCTxjEFYA3WqXZ0xgNUr5dNkAUBgVjh5Xh1hDYO1zwXbJzbxb57WcUqzLOu_Sdm/s4032/IMG_8833.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEithbt07sqlh0nDb_u09wrdEyCyRAOk8fCap9XY6fWc_aBtrEjUdWJQToz1wzlgCqs7XeZAaZY2THXWsckCHYFUYz1Fdus1YZkFbQ9WS7dBoUlhRrY6Y2Aff46MdJCTxjEFYA3WqXZ0xgNUr5dNkAUBgVjh5Xh1hDYO1zwXbJzbxb57WcUqzLOu_Sdm/s320/IMG_8833.HEIC" width="240" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjsXvDczbrAiIl-lHbJGDd0SyGA4CoXVE4rFdVVxxYObDrm3IMNHyAzFs2mCn8ymvFAGnshz8DjB8t3_5kXjMjMg7Cl67ZkSXjBCcE6qJSmviLk1nS2N2fbWgRV8ON7xT786wJur3zt2lVgxEC5ea-bhOffSWG0Hf9mmJQNRqgbhJ_tCLMsJHoHoWZl/s4032/IMG_8830.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjsXvDczbrAiIl-lHbJGDd0SyGA4CoXVE4rFdVVxxYObDrm3IMNHyAzFs2mCn8ymvFAGnshz8DjB8t3_5kXjMjMg7Cl67ZkSXjBCcE6qJSmviLk1nS2N2fbWgRV8ON7xT786wJur3zt2lVgxEC5ea-bhOffSWG0Hf9mmJQNRqgbhJ_tCLMsJHoHoWZl/s320/IMG_8830.HEIC" width="240" /></a></div><div><br /></div>सोचने वाली बात है कि ये लोग दरअसल बच्चो की ज़िदंगी में खुशियां घोलने आते हैं ...हमें जब अपना या अपने बच्चों का वक्त याद आता है तो एक अजीब सी खुशी मन में होती है ...जब उस बुज़ुर्ग औरत का ख्याल आता है जो सुबह सवेरे रोज़ बाजा बजाते हुए बेटे को फिरोज़पुर में एक गुबारा देने आती थी.....उसे देखते ही बेटा झूमने लगता था ....और उसे देख कर हम ....ऐसे ही खुशियां बढ़ती हैं....</div><div><br /></div><div>छोटी छोटी खुशियां थीं....छोटे छोटे खिलौने थे...मां अकसर मंदिर से मेरे लिए एक मिट्टी का तोता लेकर आती थी....मुझे वह सचमुच में एक तोता ही लगता था ...हरा चमकीला रंग, लाल चोंच ...यादों का क्या है, आती हैं तो इन की एक आंधी सी चल पड़ती है ...और खिलौने वाले भी हमें याद आते हैं ...एक तो वह जो हमें बाइस्कोप से सारी दुनिया की सैर करवा जाया करता था ..और इतने सस्ते में ..पांच दस पैसे में ....उस की डुगडुगी की आवाज़ सुनते ही हम लोग भाग कर उस के बाइस्कोप को घेर लेते ... </div><div><br /></div><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/PtWzkwPIcPc" title="YouTube video player" width="560"></iframe><div><br /></div><div>हां, बाइस्कोप की बातों से याद आया कि अगर आप न पता हो तो बता दें कि इतवार के दिन दोपहर में २ से ३ बजे तक विविध भारती पर एक प्रोग्राम आता है ..बाइस्कोप की बातें ...जिस में एक फिल्म को लेकर उस की पूरी स्टोरी, डायलाग, गीत सुनाए जाते हैं...बिल्कुल फिल्म देखने जैसा लगता है ...मैं उस प्रोग्राम को कभी मिस नहीं करता ...सब काम छोड़ कर उसे सुनता हूं ...वैसे तो अगले दिन सोमवार सुबह भी वह रिपीट होता है .....क्यों क्या परेशानी है, रेडियो नहीं है ? - उस की कोई ज़रूरत नहीं, मोबाइल पर ही आल इंडिया रेडियो की न्यूज़ ऑन एयर डाउनलोड कर आप दिन भर उस पर विविध भारती के बढ़िया कार्यक्रमों का आनंद ले सकते हैं...पिछले इतवार के दिन मेरा साया फिल्म की स्टोरी सुनी...बहुत बढ़िया ...कल आप भी सुनिएगा... </div></div>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-76440991367950132422022-12-29T08:00:00.004+05:302023-12-16T20:28:21.053+05:30वो अटैची का कवर खरीदने वाला दौर ...<p>मुझे अकसर आस पास के लोग पूछते हैं कि तुम्हें लिखने के आइडिया कैसे आते हैं....उन को मैं सिर्फ एक ही जवाब देता हूं कि यह कोई राकेट साईंस नहीं है...मेरा लिखना तो क्या है, कुछ भी नहीं, लिखने वाले ८-८ मिनट में सुपरहिट गीत लिख गए जो ५० साल बाद भी सुपरहिट हैं...इसलिए यह लिखने विखने का कोई सिलेबस नहीं है, न ही कोई सिखा सकता है...बस इशारा कर सकता है ...मैं तो पिछले ३० बरसों से यही सीखा हूं....१९८८ से २००० तक मुझे यही लगता रहा कि बंदा अपने प्रोफैशन से जुड़ें विषयों पर ही लिख सकता है ...ज्ञान बांट सकता है ...लेकिन २०-२२ बरस पहले मुझे यह पता चला कि लिखने के मौज़ू और भी हैं...दो तीन कोर्सों पर उन दिनों बीस-तीस हज़ार खर्च भी किया...लेकिन कुछ बात समझ में आई नहीं ..</p><p>बीस बरस पहले यही लगता था कि मेडीकल विषय पर तो लिखने के लिए २५-३० लेख ही तो हैं, उस के बाद क्या करूंगा....लेकिन आहिस्ता आहिस्ता पांच सात बरस में यह समझ आ गया कि लिखने के बहाने तो अनेकों हैं...विषय भी अपने आस पास बिखरे पड़े हैं, जितने चाहिए उठा लीजिए....बस, उस के लिए एक दो शर्तें हैं...लोगों से जुड़ कर रहना और ज़मीन पर रहना। समझने वाले समझ रहे हैं..। बस, वही आप को लिखने की मौका देते हैं....कईं बार स्टेशनों पर, फुटपाथ पर आते जाते कोई ऐसा शख्स दिख जाता है कि लगता है जैसे यादों की आंधी आ गई हो उसे देखते ही ...</p><p></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi37xKmnWvCFIeUXWgja76c_sNz9k8VPOJ2rdNyhiXmCbqwfgHoDPn5K1wXKEnG9m5A1PFcPkpjNXjf9I2xYh3eJSDVLqAlKj3zpJkP-z1aPoNsBJrEC2CmvjRfpY2pg6GM5ZfwL7XogLz4P1GV6SuG94zj5UT1PfDcdzQ4naxXGuLbGHUz1twf8ees/s4032/IMG_2577.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi37xKmnWvCFIeUXWgja76c_sNz9k8VPOJ2rdNyhiXmCbqwfgHoDPn5K1wXKEnG9m5A1PFcPkpjNXjf9I2xYh3eJSDVLqAlKj3zpJkP-z1aPoNsBJrEC2CmvjRfpY2pg6GM5ZfwL7XogLz4P1GV6SuG94zj5UT1PfDcdzQ4naxXGuLbGHUz1twf8ees/w300-h400/IMG_2577.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">दादर स्टेशन का पुल ... २८ दिसंबर २०२२ </td></tr></tbody></table><br />कल सुबह भी ऐसा ही हुआ...दादर स्टेशन के पुल पर यह शख्स दिखे ...हाथ में कोई ब्रेंडैड अटैची उठाई हुई जिस पर कवर चढ़ा हुआ था, साथ में एक दो थैले ..हां, थैलों का रूप ज़रूर बदल गया है इधर कुछ बरसों से ...सब से पापुलर ये पानमसाले वाले थैले हैं ...एक थैला ८०-१०० रूपये का आ जाता है...जब हमारी बदली होती है तो हमें भी अपनी किताबों-कापियों-रसालों को ढोने के लिए ये चाहिए होते हैं ..एक बार तो ४०-५० के करीब ये थैले हो गए हमारे सामान के साथ ...और हम लोगों ने पैकर-मूवर के आने से पहले इन्हें अपनी बैठक में रख दिया....मुझे उस दिन इतनी हंसी आई और मैंने इन के साथ फोटू भी खिंचवाई ....मुझे यह मज़ाक सूझ रहा था कि ४० बरस हो गए पान मसाले-गुटखे का इस्तेमाल करने वालों को डांटते हुए, उन का इलाज करते हुए..लेकिन कोई पानमसाले के इतने थैले हमारे घर में देख ले तो उसे यही लगे जैसे कि मैं इन कंपनियों का ब्रॉंड अम्बेसेडर हूं......<div><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdXTzfq-P3AqeWQVT11ypwaxAPEYBhcRhtPQFfKvuIa3t3mq-zyRoJT-fyVW6cYUD7-oDNwjUWJ5lyEhecysPUDrnxul79d3ytaXLIOCGOYeZ0rcpbBKF_B0VX_rIXOkx6ypG5NktOcBBpJONTdxKoO8xmxXOqbIg5Ao3ktbzq_S_mYOPMHgKBkqG9/s1024/WhatsApp%20Image%202022-12-29%20at%208.40.52%20AM.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="768" data-original-width="1024" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdXTzfq-P3AqeWQVT11ypwaxAPEYBhcRhtPQFfKvuIa3t3mq-zyRoJT-fyVW6cYUD7-oDNwjUWJ5lyEhecysPUDrnxul79d3ytaXLIOCGOYeZ0rcpbBKF_B0VX_rIXOkx6ypG5NktOcBBpJONTdxKoO8xmxXOqbIg5Ao3ktbzq_S_mYOPMHgKBkqG9/s320/WhatsApp%20Image%202022-12-29%20at%208.40.52%20AM.jpeg" width="320" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"> डेंटल सर्जन के घर में पान मसाले के इतने थैले (२०२० -लॉक डाउन से पहले) ...यह घोर कलयुग नहीं तो और क्या है ...😂</td></tr></tbody></table><div><div><p></p><p>खैर, उस शख्स की बात हो रही थी जिन को मैंने कल सुबह दादर स्टेशन पर देखा और झट से मोबाइल में सहेज लिया...कहां दिखती हैं अब इस तरह की कवर के साथ अटैचियां ....यह तो कंकरीट के इस जंगल का और पब्लिक के समंदर की वजह से मुकद्दर से कभी कुछ ऐसा दिख जाता है जो हमें यादों की दुनिया में ले जाता है ..हां, मैंने इन अटैचियों पर और यहां तक कि होल्डाल (बैड-रोल) और सुराही लेकर सफ़र करने के दौर पर अपने पंजाबी के ब्लाग में कुछ पोस्टें भी लिखी थीं कुछ बरस पहले ....उन के लिंक लगाता हूं यहां, अगर कोई पढ़ना चाहे तो ...</p><h3 class="post-title entry-title" itemprop="name" style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 20px; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; margin: 0px; position: relative;"><a href="https://justpanjabi.blogspot.com/2019/12/blog-post_28.html" style="color: #cc4411; text-decoration-line: none;">ਓਏ ਰਬ ਤੁਹਾਡਾ ਭਲਾ ਕਰੇ - ਓਹ ਅਟੈਚੀਆਂ ਸੀ ਕਿ ਵੱਡੇ-ਵੱਡੇ ਅਟੈਚੇ!</a></h3><div><h3 class="post-title entry-title" itemprop="name" style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 20px; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; margin: 0px; position: relative;"><a href="https://justpanjabi.blogspot.com/2019/11/blog-post.html" style="color: #cc4411; text-decoration-line: none;">ਅੱਜ ਵੀ ਜਦੋਂ ਗੱਡੀ ਛੁੱਟ ਜਾਂਦੀ ਹੈ!</a></h3></div><p>जैसा कि उस शख्स की इस तस्वीर में आप देख रहे हैं वह अपने साथ कुछ बेल-बूटे भी लेकर आए हैं या ले कर जा रहे हैं ....किसी सगे-संबंधी के पास आए होंगे ...खैर, यह भी एक चीज़ होती थी जो अकसर हम लोग अपने रिश्तेदारों के पास लेकर जाते थे या वे जब आते थे तो दो चार ऐसी टहनियों हमारे बाग में ज़रूर लेकर आते थे ...अब यह जो महंगे महंगे पौधे हम लोग भेंट में देते हैं, पहले यह सब कुछ नहीं दिखता था, ज़िंदगी बड़ी सीधी-सरल थी ...</p><p>कल मैं कुछ लोगों को यह तस्वीर दिखा कर उन से पूछ रहा था कि बताइए इस तस्वीर में किस चीज़ की कमी है ....वे तो बता नहीं पाए, आखिर मुझे ही बताना पड़ा कि पुराने दौर में सामान के साथ जब तक एक पानी की सुराही न होती तो सामान पूरा नहीं होता था...सुराही इसलिए कि गिलास मे पानी आराम से डाला जा सकता है और ट्रेन में अपनी जगह पर टिके रहती थी ...मटके को कोई कहां टिकाए, अपनी गोद में ...नहीं, ऐसा संभव नहीं था, मटका तो नहीं, छोटी सी मटकी लोगों को अपनी गोद में रख कर जाते देखा भी है और खुद हम भी लेकर गये हैं...मटकी में अपनी पापा की अस्थियां जिस पर लाल कपड़ा बंधा हुआ था और हरिद्वार ले जाते समय उस का टिकट भी कटवाया है ...</p><p>चलिए, इधर उधर भटकना बंद करें.....वापिस उस अटैची पर आते हैं...इस तरह की अटैचीयों लोग अकसर मिलेट्री कैंटीन से लेने का जुगाड़ कर लेते थे ...कैंटीन की दारू की तरह ...कैंटीन में बहुत सस्ते में मिल जाती थी ...और जुगाड़ भी देखिए कैसे कैसे ...कुछ पैसे बचाने के लिए इतनी मेहनत...खास कर दहेज में बेटियों को इस तरह का सामान देने के लिए लोग मिलेट्री कैंटीन से ही यह सब खरीदने का जुगाड़ कर लेते थे ....हमने भी जुगाड़ से ही ऐसी एक छोटी अटैची वी-आई-पी की खरीदी थी ...हमारे मौसा जी अंबाला में एक बैंक में कुछ मैनेजर टाइप थे ...उन की मिलेट्री कैंटीन में पहचान थी, उन्होंने ही हमें यह खरीदवा कर दी थी ..कम मोल पर ...आम आदमी की खुशियां भी कितनी छोटी छोटी होती हैं...यह १९८० के दशक के शुरूआती बरसों की बात है ...उन्हें बढ़िया बढ़िया दारू भी कैंटीन से लाने का बड़ा क्रेज़ था ...इसलिए रिश्तेदारी में उन्हें लोग बाग मानते थे ...बीस साल की उम्र में परफ्यूम और आफ्टर शेव लगाने का क्रेज़ नया नया होता है ...मुझे भी ओल्ड-स्पाईस की बोतल वहीं से मिली थी ...</p><p>हां, यह वह दौर था जब इस तरह के अटैची खरीदने के बाद उन्हें सब से पहले कवर करने का जुगाड़ किया जाता था ...कवर कुछ लोग सिलवाते थे मोटे कपड़े के चैन-वैन लगी होती थी ...और बाद में तो ये कवर जगह जगह अलग अलग क्वालिटी के बिकने भी लगे थे। नहीं, यार, हम लोगों ने कभी खुद को इतना गरीब भी नहीं समझा कि इन अटैचियों पर कवर डालने की नौबत आ गई हो ...हमें तब भी यही लगता और अब भी लगता है कि इन को अगर कवर ही करना है तो इन को खरीदना ही क्यों, वही पहले वाले लोहे के ट्रंक ही चलाते रहिए.......खैर, यह तो एक खामखां की बात है ..हरेक की अपने मन की मौज है ...पता नहीं कोई कितनी तंगहाली या खुशहाली में इस तरह की अटैची का जुगाड़ कर पाता है ..खैर, मुझे स्टेशनों पर और गाड़ी पर किसी को इस तरह की अटैची से कुछ निकालते डालते देख कर बड़ी हंसी सूझती ...कवर की चैन पर लगा हुआ ताला खोल, फिर अटैची का लॉक खोलना, फिर उसमें से बाबू की ऊनी टोपी निकालनी या मुन्ने के बापू का मफलर या मौजे, या बबलू के पापा की चप्पलें या वह फांटावाला पायजामा जो उन्हें सफर में लगेगा ही लगेगा, वरना नींद ही नहीं आएगी .....कितनी मेहनत का काम लगता था यह सब देखना भी ....<br /><br /></p><p>मेरे मामा अजमेर से जब हमारे पास पंजाब मे ंआते तो उन्हें दिल्ली में गाड़ी बदलनी होती थी ...पुल पुल थे सीढ़ियों वाले...उन्होंने पास एक ऐसा भारी भरकम अटैची होता था..उम्र हो चली थी उन की भी ...वह हमें हंसते हंसते जब सफ़र के किस्से सुनाते तो हर बार कहते उस अटैची को एक भारी भरकम गाली निकाल कर कि जब इसे लेकर सीढ़ियां चढ़ जाता हूं जैसे तैसे तो पहुंच कर इच्छा होती है कि इसे ज़ोर से ठोकर मार दूं (ठुड्ढा मारां ऐहनूं उत्तों ही ते थल्ले सुट दिआं) ...और वहीं से इसे नीचे गिरा दूं....हम उन की इस बात पर बहुत हंसा करते ...</p><p>हां, गाड़ी में उन दिनों इस तरह की महंगी अटैचीयां कईं बार चोरी भी हो जाती थीं...इसलिए लोगों ने इसे सीट के नीचे चैन से बांध कर रखना शुरू कर दिया...मुझे तो उस चैन और ताले से यह बड़ा डर लगता है कि अगर स्टेशन आ जाए और हम लोग उस चेन की चाबी गंवा बैठें तो....खैर, लोगों को गाड़ी के अंदर आकर इस तरह की अटैची को ताले से बांध कर उस की चोरी से निश्चिंत होते देखना भी कम रोचक न था...हम भी कईं बार यह सब करते थे, हम भी तो इसी हिंदोस्तानी मिट्टी में पले-बढ़े हैं... हा हा हा हा हा ...</p><p>फिर धीरे धीरे पहियों वाले अटैची आने लगे ....लेकिन अब भी देखता हूं कि चाहे पहियों वाले अटैची बैग आने लगे हैं लेकिन लोग ....लोग क्या, हम सब लोग उन को ऐसे ठूंस देते हैं सामान के साथ कि उन को पहिये के साथ लेकर चलना भी मुश्किल होने लगता है ...और खास कर के अगर सीढ़ीयां चढ़नी पड़ जाएं तो नानी तो क्या, उस की नानी भी याद आ जाए...</p><p>मैं गोपाल दास नीरज जी के गीतों का बहुत बड़ा फैन हूं .....वही, शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब ..गीत के रचयिता ...अभी मैं कुछ देख रहा था तो उन की एक वीडियो दिख गई ..लखनऊ रहते हुए उन को कईं बार पास से देखने का मौका मिला...एक बार बात भी हुई ...वह अकसर कहा करते थे ...</p><div style="text-align: left;"><b>जितना कम सामान रहेगा...<br />उतना सफर आसान रहेगा... </b><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/_BpCPupXmLs" title="YouTube video player" width="560"></iframe></div><div style="text-align: left;">आठ बरस पहले लखनऊ में जब गोपाल दास नीरज जी के जन्म दिवस समारोह में जाने का मौका मिला ..</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">चलिेए, यही बंद करते हैं अपनी बात ....यह तो टॉपिक ऐसा है कि इस पर एक पोथी लिखी जा सकती है ..वह इसलिए कि हम लोगों ने यह सब जिया है, आंखों देखी बाते हैं, जिन्हें अच्छे से महसूस भी किया है ...और आम बंदे की बिल्कुल छोटी छोटी खुशियों को देखा है .......वैसे ट्रेन-बस के सफर में कितनी भी धक्का-मुक्की सह लेंगे, सब्र कर लेंगे लेकिन मेरी अटैची पर कोई खरोंच नहीं पड़नी चाहिए...इसलिए उसे किसी तरह की झरीट से आहत होने से बचाने के लिए अटैची पर कवर तो चढ़ाना ही पड़ता है, क्या करें मजबूरी है.. 😎😂</div><div style="text-align: left;"><br /></div><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/ipePh7hAkYc" title="YouTube video player" width="560"></iframe><div><br /></div><div><br /></div><div>
<iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/k-ylsJW3NFE" title="YouTube video player" width="560"></iframe><div>कुछ बरस पहले गीतों के दरवेश नीरज जी के जन्मदिवस पर लखनऊ में फिर शिरकत करने को मौका मिला ....</div><div><br /></div><div><br /></div></div></div></div></div>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4676398160714951485.post-36231340436645711312022-12-24T08:00:00.007+05:302023-12-16T20:28:25.728+05:30हिंदी नावलों की दुनिया ...<p>कल मेरा एक दोस्त दुकान पर जाकर टेलीफोन करने वाले दिनों को याद कर रहा था ...किस तरह से बात करते करते जब तीन मिनट हो जाते थे तो उस बूथ वाले को इशारा करना होता था कि हां, और बढ़ा दे, अभी हमें और बातें करनी हैं..और वे बातें भी याद आने लगीं जब बाहर गांव फोन करने के लिए उसे पहले बुक करवाना पड़ता है ...</p><p>क्या है यह पुरानी बातों को याद करने का जुनून..कुछ लोगों को लगता होगा कि यह क्या, हर वक्त पुराने दौर की यादें, बातें.....और कुछ नहीं है करने को .....जो मैं समझा हूं कि अगर कोई पुराना किस्सा सुनाता है, लिखता है या याद करता है तो इस का मतलब यह है कि उसने ज़िदगी को बूंद बूंद नहीं, भरपूर जिया है। अब हमारी उम्र के लोगों को ही देखिए...(६० बरस के आस पास वाले लोग) ...हम लोगों ने इन ६० सालों में क्या नहीं देखा....व्यक्तिगत तौर पर हम लोग, टैक्नोलॉजी के हिसाब से, देश-समाज के हालात कहां से कहां पहुंच गए...और हम ने यह सब जिया...अच्छे से महसूस किया....ऐसा कुछ नहीं है कि पहले सब अच्छा था या बुरा था और अब सब कुछ बुरा ही है, या सब अच्छा ही है....यह फ़ैसला बहुत ही बातों पर टिका होता है ... </p><p>पुरानी यादें गुदगुदाती हैं अकसर ....अगर कोई पुरानी बातें नहीं लिखेगा या सुनाएगा तो मौजूदा पीड़ी या आने वाली पीड़ी को कैसे पता चलेगा...दादी नानी के पास भी कोई गुलशन नंदा जैसा लिखने का हुनर थोड़े न था, लेकिन हम लोग मां से, दादी नानी से बार बार वही किस्से बार बार सुन कर कितने खुश और मस्त हो जाया करते थे ....बीच बीच में सवाल में पूछते थे, हमें लोरी जैसी लगती थीं उन की बातें ..बहुत बार तो सुनते सुनते कब ख्वाबों ख़्यालों की दुनिया में घूमते घूमते कब निंदिया रानी के पास पहुंच गए हैं, पता ही नहीं चलता था ...था कि नहीं ऐसा ही!!</p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBeum-juWWPNNq1gZ3l0GExo3ZF9sB4ViQLVU1Pi9I2ZKhZDvL2cuq06w3Mv2fQdQ4VUAaN2wGpP_CZyFA5z2e0UJqPPKfgS04AzRpG0DpIlyrzczqgfi_zdjKtlXpgsVyc_wrQjR_5CFPM4qoxrWTo-cD58xKBg_pvquY82LAJr2DFf_9bOv6PzZy/s4032/IMG_2367.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBeum-juWWPNNq1gZ3l0GExo3ZF9sB4ViQLVU1Pi9I2ZKhZDvL2cuq06w3Mv2fQdQ4VUAaN2wGpP_CZyFA5z2e0UJqPPKfgS04AzRpG0DpIlyrzczqgfi_zdjKtlXpgsVyc_wrQjR_5CFPM4qoxrWTo-cD58xKBg_pvquY82LAJr2DFf_9bOv6PzZy/s320/IMG_2367.HEIC" width="240" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4nnByro48VNrRhu4W11JbfvCX6eO07Fnx6W0yV0GZnIquMeQBIidPtyOVrdi_Zk-EE-9ehT4D7EXabZIy69mqh62tFM0zYcRAXRPVpxOY9dR3eKvbfw0Joi2sRJDn5KVuBbaODDNmS3gnxMe6vjhm4C2cCEoxg7LeQKtXNcSqUwjlCScH1AN7Thsz/s4032/IMG_2366.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4nnByro48VNrRhu4W11JbfvCX6eO07Fnx6W0yV0GZnIquMeQBIidPtyOVrdi_Zk-EE-9ehT4D7EXabZIy69mqh62tFM0zYcRAXRPVpxOY9dR3eKvbfw0Joi2sRJDn5KVuBbaODDNmS3gnxMe6vjhm4C2cCEoxg7LeQKtXNcSqUwjlCScH1AN7Thsz/s320/IMG_2366.HEIC" width="240" /></a></div><br />तीन चार दिन पहले मैं एक ६०-७० साल बरस पुरानी दुकान पर रखे पुराने नावल देख रहा था ....अब यह दुकान जनरल स्टोर में बदल चुकी है ..लेकिन उसने सैंकड़ों नावलों को बड़े करीने से बुक शेल्फों पर दीवार के ऊपरी हिस्से में टिका रखा है, झांक रहे थे वे सब टकटकी लगाए मेरी तरफ़ ...लेकिन मैं तो उन को पहचान ही न पा रहा था क्योंकि मुझे नावल पढ़ने का कोई शौक न था, एक आधा नावल पढ़ा था तो कैसा लगा था, बाद में उस की भी बात करूंगा...मैं अकसर राजन-इकबाल सीरीज़ के बाल उपन्यास खूब पढ़ता था ...दिन में दो दो भी पढ़ लेता था...किराये पर मिलते थे ...२५ पैसे एक नावल के एक दिन के लिेए...हमें तब पता ही न था कि इंगलिश के नावल भी होते हैं...न स्कूल ऐसा था, न ही कोई ऐसा सर्कल या न ही आसपास ऐसी कोई किताब की दुकानें जिन से हमें यह पता चल पाता .....लेकिन सोचने वाली बात यह है कि पता कर के करना ही क्या था, हमें अपनी पढ़ाई ही से फ़ुर्सत न थी ...वैसे भी मुझे याद है ५०-६० बरस पुराने दिनों की बातें जो मैंने आज छेड़ ली हैं, उन दिनों नावल पढ़ना भी किसी ऐब से कम न था...मैंने अपनी मां से भी बचपन में कईं बार सुना था कि यह नावल पढ़ने की आदत ऐसी है कि इस की लत लग जाती है ..<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjBmLTOy5mEfmDrU_GwKh2V4KcBwuWOdFIPAdEzpLORGc-eW6GTfv3bH5TDgW3V31xjhVvC2yVRFZLLgAQbJqKRFQcbmRWSOHT4rdSR-i_ZNuUWy6gw4zKPGK6_92xfN9rJKvOhUDhaaGkBiSz2TgIICh8IGSfEAEoqoHysB-N1xKocASngyN_0bOMv/s4032/IMG_2368.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjBmLTOy5mEfmDrU_GwKh2V4KcBwuWOdFIPAdEzpLORGc-eW6GTfv3bH5TDgW3V31xjhVvC2yVRFZLLgAQbJqKRFQcbmRWSOHT4rdSR-i_ZNuUWy6gw4zKPGK6_92xfN9rJKvOhUDhaaGkBiSz2TgIICh8IGSfEAEoqoHysB-N1xKocASngyN_0bOMv/s320/IMG_2368.HEIC" width="240" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgA2CBpRonkm0ug6_zKoujuqTIqkI-UxIu1nZGbVDAtyTGfexm4xiIYAEGzauJnOYEWFIXa11oDl-8lWrEdJdpVLaZFs8K_DjkZHWMSoopunfLArAyaMbjqRyecRlqxlu_p65AclgYutULP4hB122DMDaKKMYx3OS9_ZoxItWAuLFmUOuuP8cZiI-tE/s4032/IMG_2369.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgA2CBpRonkm0ug6_zKoujuqTIqkI-UxIu1nZGbVDAtyTGfexm4xiIYAEGzauJnOYEWFIXa11oDl-8lWrEdJdpVLaZFs8K_DjkZHWMSoopunfLArAyaMbjqRyecRlqxlu_p65AclgYutULP4hB122DMDaKKMYx3OS9_ZoxItWAuLFmUOuuP8cZiI-tE/s320/IMG_2369.HEIC" width="240" /></a></div><p>वही बात है कि हर बात को हमारे दौर में कहना ज़रूरी न होता था ..हम लोग अपने आस पास के लोगों को चेहरे के भाव पढ़ कर ही कुछ बातें समझ जाते थे ...मां को गुलशन नंदा के नावल बहुत पसंद थे ...वह अकसर बताया करती थीं कि उस के कुछ नावलों पर तो हिंदी फिल्में भी बन चुकी हैं....लेकिन घर के काम काज में हर वक्त लगे रहते हुए मैंने उन्हें शायद ही कभी एक आधा गुलशन नंदा का नावल पढ़ते देखा था ..हां, हमारे पड़ोस की कपूर आंटी को नावल पढ़ने का बड़ा चस्का था ...मुझे अच्छे से याद है उन के आउट हाउस में रहने वाला ओंकार उन के लिए तीन चार नावल इक्ट्ठे किराये पर ले कर आता था ...वह खुद कभी नहीं जाती थीं ..लेकिन पढ़ने का बहुत शौक था ..हां, हमारी मौसी सुवर्षा को भी ये नावल बहुत भाते थे ...</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9bovPdjWuMVT0aQNIQRFiyGRZ4AleB-9oznEDWesZvxJBRM3HwR-PpRo-5LVbf0fPn7W6RDaQz9VgHpz2_k1pBaDvlvfZ0fERktkU8T12s4-5KIzKlti9qEAEz0JiJfcMb99pHVVKCm8edRm4Tps7U7GrfV_tQMtl5S9P77kYdPYfQOVIj1S5bvyB/s3776/IMG_2370.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3776" data-original-width="2772" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9bovPdjWuMVT0aQNIQRFiyGRZ4AleB-9oznEDWesZvxJBRM3HwR-PpRo-5LVbf0fPn7W6RDaQz9VgHpz2_k1pBaDvlvfZ0fERktkU8T12s4-5KIzKlti9qEAEz0JiJfcMb99pHVVKCm8edRm4Tps7U7GrfV_tQMtl5S9P77kYdPYfQOVIj1S5bvyB/s320/IMG_2370.HEIC" width="235" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiS59zAw79T9jRaJ0UgWnZ5_ONTwUcSGIlK94EzKwCBg8omQgCzbC2kItrI053g22yL_bTv7GmiwAXAPcvVNQsXh9qK1ElVffZaJRPentmo3qbw1AKLJw9AvOMCyhldCjFbHePo7tdWZxvJLw8FZ_C0ykDLhCQySQkj2aiXJuLiwnonz6zXH2amiY61/s4032/IMG_2371.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiS59zAw79T9jRaJ0UgWnZ5_ONTwUcSGIlK94EzKwCBg8omQgCzbC2kItrI053g22yL_bTv7GmiwAXAPcvVNQsXh9qK1ElVffZaJRPentmo3qbw1AKLJw9AvOMCyhldCjFbHePo7tdWZxvJLw8FZ_C0ykDLhCQySQkj2aiXJuLiwnonz6zXH2amiY61/s320/IMG_2371.HEIC" width="240" /></a></div><p>हमारे घर में नावल पढ़ना-वढ़ना एक बड़ी खराब बात मानी जाती थी ...बड़ी बहन ने तो कभी नहीं लेकिन बड़े भाई ने शायद एक दो बार नावल पढ़ा था ...मुझे भी मिडल स्टैंडर्ड के आस पास की एक बात याद है जब घर में एक दो नावल थे ..ऐसे ही किसी कोने में पड़े हुए ..मुझे उस के कुछ पन्ने पर लिखी कुछ बातें बार बार पढ़ने की ललक लग गई ऐसे ही ....क्यों? ---आप को नहीं पता क्या, वो बात अलग है कुछ लोग खुल्लम खुल्ला कह देते हैं, कुछ दिल में रख छोड़ते हैं........बस मुझे उसे पढ़ कर आनंद आने लगा, मस्त लगने लगा ...और मैंने यह पढ़ने वाला काम अपनी रज़ाई में बैठ कर, अपनी कापी में उस नावल को छुपा कर भी किया ....जब कोई उस तरफ़ आ जाए तो मैं उस को छुपा देता.....यह बात कुछ दिनों तक ही चली क्योंकि मुझे इस से बेहद अपराध बोध होने लगा कि ये लोग तो सोच रहे हैं कि मैं पढ़ रहा हूं और मैं इस नावल की दुनिया में खोया हुआ हूं......उस के बाद फिर कभी नावल वावल की तरफ़ न तो जाने की तमन्ना हुई .....न ही अपने पास वक्त होता था ..पढ़ाई लिखाई में ही ऐसे रमे रहते थे कि सिर खुजाने की फ़ुर्सत ही न होती थी तो ऐसे में इन नावलों का क्या करें...मास्टरों का खौफ, मां-बाप का हम पर भरोसा, आने वाले सुनहरे भविष्य के सपनों ने हमें इस तरह के लिटरेचर से दूर ही रखा .....</p><p>लेकिन फिर भी नवीं क्लास में एक दो छात्र क्लास में ऐसी किताबें सारी क्लास को दिखाने के लिए ले आते थे कभी कभी जिन पर हम भी कभी निगाह मार लेते तो हमारा दिमाग ही घूम जाता ...इसलिए बीस तीस बरस बाद जब सी.डी वाले दिन आ गए और इस बात की चर्चा होने लगी कि स्कूलों में बच्चे मोबाइल ले जाते हैं, सी.डी तक ले जाते हैं ......तो हम भी अपने स्कूल के दिन याद आ जाते थे ....हमारे दिनों में एक लेखक था, मस्त राम ......अब था कि नहीं लेकिन उस की किताबें फुटपाथ पर खूब बिकती थीं ....अपने अडल्ट कंटैंट की वजह से ...जहां पर मुझे याद है नवीं दसवीं कक्षा में एक ऐसी किताब भी एक सहपाठी ले कर आया था ...वैसे तो किताब की दुकान से भी मस्त राम की किताब किराये पर लेकर पढ़ी हो होगी .....लेकिन यह हो नहीं पाता था, दुकानदार से उस तरह की किताब को मांगने भर की हिम्मत जुटाने में ही जान निकल जाता थी, सांस फूलने लगती थी कि अगर किसी ने देख लिया....ये सब किताबें भी किराए पर मिलती थीं लेकिन बहुत ज़्यादा किराया लगता था .....शायद रोज़ का एक रूपया या इस से थोड़ा कम....चलिए, अब आगे चलें....जिस रास्ते पर ज़्यादा चले ही नहीं, उस का और कितना ज़िक्र करें...</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhoV8X3dGcdV7GUJUgEJoEOYmA3OLllMrN9UxzDfccIVfkSgxsHFvNPxvIuX0K4Wwla0-o2NAC93wgbAkJ1cz_y9fAaC0cYPbrL9WJrU1i0mJzShyOxiMJqRnKKqwyeRR0ILREUjgqExkDfnXq3LU36Z604bIWP47OjQDNeCXJctFaIfBDLZ5wkGiYW/s4032/IMG_2372.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhoV8X3dGcdV7GUJUgEJoEOYmA3OLllMrN9UxzDfccIVfkSgxsHFvNPxvIuX0K4Wwla0-o2NAC93wgbAkJ1cz_y9fAaC0cYPbrL9WJrU1i0mJzShyOxiMJqRnKKqwyeRR0ILREUjgqExkDfnXq3LU36Z604bIWP47OjQDNeCXJctFaIfBDLZ5wkGiYW/s320/IMG_2372.HEIC" width="240" /></a></div><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi8VENYIJNpJyWvFoI1HWpbMJltJpaeK6tpQlEsrnLIPaM8dBYB6Ti0pof4jpaMvE_i561vxK-9KQQ7IeuoAzy7jO436bBL2-4BGAg7Zc45-Zbl7jP5LtV910givykCBr2lA6M4hHaisu04qJjV5q4ffxcJ1xBbugFTHXp4-mPM_z0oamPRJe_wmQuk/s4032/IMG_2373.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi8VENYIJNpJyWvFoI1HWpbMJltJpaeK6tpQlEsrnLIPaM8dBYB6Ti0pof4jpaMvE_i561vxK-9KQQ7IeuoAzy7jO436bBL2-4BGAg7Zc45-Zbl7jP5LtV910givykCBr2lA6M4hHaisu04qJjV5q4ffxcJ1xBbugFTHXp4-mPM_z0oamPRJe_wmQuk/s320/IMG_2373.HEIC" width="240" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">गुज़रे दौर का सब से खतरनाक डॉयलाग ...."<b>मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं</b>."...बस, यह सुनते ही पाठकों के और फिल्म में दर्शकों के कान खड़े हो जाते थे ...</td></tr></tbody></table><p>हां, पहले घरों में किताबें या नावल ज़्यादा न होते थे ..स्कूल कालेज की किताबों के अलावा ले-देकर चार पांच किताबें हुआ करती थीं, एक तो मां की रामायण, एक उस की पाठ पूजा करने वाली किताब, दो चार किताबें जो हमें स्कूल के पारितोषिक वितरण के दौरान मिला करती थीं और एक दो किताबें जो किसी सगे संबधी ने भेंट स्वरूप दी होती थी ......याद आ गया हम लोग ऐसी किताबों की बड़ी कद्र भी करते थे ..याद आ गया मेरे जीजा जी ने मुझे एक किताब भेजी थी जब मैं १३ बरस का था, यह किताब उन चंद किताबों से है जो मुझे ज़िंदगी में सब से पहले पढ़ने का मौका मिला और जिसे पढ़ना अच्छा लगता था और यह भरोसा भी हुआ था कि हम भी ज़िंदगी में कुछ कर सकते हैं...</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzmIffr0zBDJ6VuK47FD8wiGLpVtdtHncOGgjQE_55AoWEn_9o7XeX0x__Mb65ef60pM8TrX11ULN1xQy6Z2ucCOdDx8ZzLybFFEODpgheGHIfNx73u2-EuVVxFoLj_FmHTDx6o8efo6ABC3Ou3OkwD8llv-kRDxH846SiYTJ4P89VAykDm0H-98O-/s4032/IMG_2375.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzmIffr0zBDJ6VuK47FD8wiGLpVtdtHncOGgjQE_55AoWEn_9o7XeX0x__Mb65ef60pM8TrX11ULN1xQy6Z2ucCOdDx8ZzLybFFEODpgheGHIfNx73u2-EuVVxFoLj_FmHTDx6o8efo6ABC3Ou3OkwD8llv-kRDxH846SiYTJ4P89VAykDm0H-98O-/s320/IMG_2375.HEIC" width="240" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjUdmSn8FO7N8m7GeiQqkVE9b0mpSpZtPGQCmY6ikPdDp-OTF6v-_hkHhit5MSg_7A9TSILobdcsGdvDiqZvRZ2noNEEe7vFDBD4AZ3JR0E_3QfAqstssHcNoa6Lv8uZDqp195oFP74YxpgGFn39LwQAU3jsHr0Wb7ldyGmTA7ViXu4JpCaTkj6U1hZ/s4032/IMG_2376.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjUdmSn8FO7N8m7GeiQqkVE9b0mpSpZtPGQCmY6ikPdDp-OTF6v-_hkHhit5MSg_7A9TSILobdcsGdvDiqZvRZ2noNEEe7vFDBD4AZ3JR0E_3QfAqstssHcNoa6Lv8uZDqp195oFP74YxpgGFn39LwQAU3jsHr0Wb7ldyGmTA7ViXu4JpCaTkj6U1hZ/s320/IMG_2376.HEIC" width="240" /></a></div><p>खैर, बहुत सी किताबों के बीच ही ज़िंदगी कट रही है ...हर तरह की किताबों के सान्निध्य में ...कोई टॉपिक न हो, जिस के ऊपर किताब न खऱीदी हो .....नावल भी बहुत से.....और मज़े की बात इंगलिश के नावल भी ...लेकिन इंगलिश नावल इतने बड़े बड़े पढ़ने के लिए बड़ा सब्र चाहिए..वह अपने में है नहीं, इसलिए हिंदी का भी कभी कोई नावल पूरा पढ़ा हो, याद नहीं.......याद ख़ाक नहीं, पढा़ ही नहीं ...अगर पढ़ा होता तो याद क्यों न रहता, नवीं कक्षा में रज़ाई में बैठ कर छुप छुप कर नावल के कुछ पन्नों के कुछ खास पैरा पढ़ने तो अभी तक नहीं भूला तो फिर नावलों को पढ़ना कैसे भूल सकता था .......नहीं पढ़े नावल जनाब हम ने .....लेकिन दो तीन बरस पहले जब एक बहुत बड़े नावलकार सुरेंद्र मोहन पाठक की आत्मकथा छपी तो वह मैंने बिना सोए , बिना कुछ काम किए जैसे एक ही ढीक में पढ़ गया...(ढीक का मतलब होता है बिना सांस लिए जैसे हम लोग पंजाब में लस्सी के गिलास को मुंह से लगा कर उसे पूरा पी कर ही नीचे रखते हैं...😂)....और जब उस महान नावलकार को दो तीन बरस पहले दिल्ली में एक लिटरेचर फेस्टिवल में मिलने का मौका मिला तो मैंने उन्हें यह बात बताई भी ...और उन की आत्मकथा जो अपने साथ लेकर गया था, उस पर उन के आटोग्राफ भी लिए ....हा हा हा हा ....</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaIcQSiDOrbsKrJAWkyHYsVJzk0E0X4mpw1YbtaF7yDctSOYYSKn0MUeWRZl1SDgAQV_FPtUPAKUWDwSctFcgwYC3NMG9BpR87dz8hkdbuOaThMWgrT_4yrS3ehwhYuLXXuhnzrdg47li--XRbAYMM10GzT9JVMyl9Qh8XC6j8Oalv9W5ugydWSRFd/s4032/IMG_4741.HEIC" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaIcQSiDOrbsKrJAWkyHYsVJzk0E0X4mpw1YbtaF7yDctSOYYSKn0MUeWRZl1SDgAQV_FPtUPAKUWDwSctFcgwYC3NMG9BpR87dz8hkdbuOaThMWgrT_4yrS3ehwhYuLXXuhnzrdg47li--XRbAYMM10GzT9JVMyl9Qh8XC6j8Oalv9W5ugydWSRFd/s320/IMG_4741.HEIC" width="240" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXr9wseRtRAw7noCbdhWtla2A9O21aDHloCDHi-revmmsC2NBmO4VdDDBybCCd7SO_FT9H41KoWXHYf01Bke0jwRsBuh5BBBDKkydUl_yhCI9zpA9MenIvx9sQQC_9xdCEbFT-83lk-3CEj56TnrCE9KeNrqhvBe06RsfosLy2e8Ck1CgCc36lZ1zc/s3088/IMG_4730.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="2316" data-original-width="3088" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXr9wseRtRAw7noCbdhWtla2A9O21aDHloCDHi-revmmsC2NBmO4VdDDBybCCd7SO_FT9H41KoWXHYf01Bke0jwRsBuh5BBBDKkydUl_yhCI9zpA9MenIvx9sQQC_9xdCEbFT-83lk-3CEj56TnrCE9KeNrqhvBe06RsfosLy2e8Ck1CgCc36lZ1zc/s320/IMG_4730.HEIC" width="320" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मशहूर नावलकार सुरेंद्र मोहन पाठक को मिलकर बहुत अच्छा लगा था, सहज और सरल लोगों को मिल कर किसे अच्छा नहीं लगता...यह ३०० से ज़्यादा नावल लिख चुके हैं ...और अभी भी लिखना जारी है ...<br /><br /><br /><div style="text-align: left;"><span style="font-size: medium;">हां, वह अपनी जीवनी में लिखते हैं कि उन्हें पढ़ने की इतनी तलब थी, इतना शौक था कि वह जिसे लिफाफे में मूंगफली खरीदते थे, मूंगफली खाने के बाद उसे भी पढ़ कर ही फैंकते थे...</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: medium;"><br /></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: medium;">चलिए, वापिस ५०-६० बरस पहले के ज़माने का ही रूख करते हैं....जब नावल एक, दो, तीन या चार रूपये में बिकते थे ..लेकिन खरीदते तब भी लोग कम ही थे ...किराये पर लेकर पढ़ते थे .....शायद इसीलिए पढ़ भी पाते थे ...मेरे मामा नावल पढ़ने के बड़े शौकीन थे...पर जैसे मैंने पहले लिखा कि यह वह दौर था जब नावल पढ़ना भी कोई ऐब करने जैसा माना जाता था ...इसलिए इन को पढ़ने वाले भी एक तरह के अपराधबोध के शिकार ही रहा करते थे ....जितना मैं समझा हूं ...</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: medium;"><br /></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: medium;">नावल पर लिखा होता था अकसर कि यह जासूसी नावल है या रोमांटिक नावल है ...ताकि बाद में कोई शिकायत न करे कि पहले से चेताया न था 😎😂.... उस नावल में उस लेखक के आगे आने वाले या पहले से छप चुके नावलों का भी ज़िक्र हुआ करता था ...साथ में एक घरेलू लाइब्रेरी योजना हुआ करती थी उस का भी कार्ड लगा रहता था....</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: medium;"><br /></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: medium;">और बहुत बहुत बार लेखक की यह परेशानी भी पीछे के कवर पेज पर लिखी होती थी कि मेरा चित्र छापने के लिए फलां फलां प्रकाशक ही हकदार है ....अगर मेरी फोटो नहीं है तो समझिए कि आप जाली पढ़ रहे हैं ....लोग भी पहले सीधे-सपाट होते थे, भोली भोली बातें करते थे ....इस सब के बावजूद दिल्ली के फुटपाथों पर जाली किताबों के ढेर लगा रहता था ...यह मैं १९८० के दशक की बातें कर रहा हूं ...जब साठ रूपये की असली किताब का जाली स्वरूप मात्र २०-२५ में मिल जाता था ...इंगलिश भी, देशी भी..कुछ भी ....और इतवार के दिन तो दरियागंज इलाके में, पुरानी दिल्ली में फुटपाथों पर ऐसी दुकानें खूब सजा करती थीं, हम भी अकसर वहीं से खरीदते थे .....अब असली और जाली के चक्कर में पड़ने की फ़िक्र पढ़ने वाला क्या करे, उसे अपनी जेब भी देखनी है, भटूरे-छोले भी खाने हैं, और वापिसी के बस के सफर के लिए पैसे भी बचाने हैं... 😀😀 ....वैसे मुझे कभी यह समझ न आई कि यह जो २-२, ३-३ रूपये के नावल ५०-६० बरस पहले बिकते थे, उन के जाली संस्करण तैयार करने में भी २-३ रूपये से कम क्या खर्च आता होगा...!!</span></div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: medium;">कुछ नावलों के बाहर लिखा होता था कुछ इस का ब्यौरा भी ...विशाल का यह उपन्यास आंसुओं और कहकहों की अनोखी कहानी है ...और ये जो नावल ५०-६० पुराने आज दिखते हैं, इन का आज दाम क्या होगा.......छोड़िए, इस सब के चक्कर में क्या पड़ना, जब आपने खरीदने ही नहीं है ....वैसे इंटरनेट पर आप को इन के आज के रेट भी मिल जाएंगे ....कभी देखिएगा फ़ुर्सत में ...</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: medium;"><br /></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: medium;">इन पुराने नावलों में कुछ इस तरह का जुगाड़ भी रहता था कि पाठकों को जोड़ कर रखा जाए....जैसे लेखक ने अपना पता लिखा होता था कि नावल पढ़ने के बाद अपनी राय से अवगत करवाएं... और नावल की स्टोरी से जुड़े कुछ सवाल भी होते थे ...जिस का सही जवाब देने पर उन की हौंसलाफ़ज़ाई के लिए उन्हें कुछ इनाम भी भिजवाया जाता था ...। ए एच व्हीलर की दुकानें जो स्टेशनों पर होती हैं उन का स्टिकर भी अकसर इन पर लगा मिलता था...किताब के दाम के साथ ...</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: medium;"><br /></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: medium;">मेरे ख्याल में बस करता हूं .....कहीं मैं भी लिखते लिखते कोई नावल जैसा ही कुछ न लिख डालूं......वैसे भी आजकल लोगों को लगने लगा है कि मैं सरकारी काम काज की चिट्ठीयों को भी एक दम सरकारी स्टाईल में लिखने की बजाए...एक स्टोरीनुमा लिखने लगा हूं ..देखते हैं, सुधरने की कोशिश करते हैं...</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: medium;"><br /></span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: medium;">जाते जाते एक बात लिख देता हूं...कुछ न कुछ, जब भी वक्त मिले ...पढ़ते रहना चाहिए...अच्छा लगता है और मेरी उम्र के लोगों को शायद स्क्रीन पर पढ़ने की बजाए हाथ में किताब को उठा कर पढ़ने में कहीं ज़्यादा मज़ा आता है ...किताब के पन्नों से आने वाली खुशबू, उन के उलटने-पलटने की आवाज़ और किताबों को हाथ से छू लेने भर की छोटी सी खुशी....हां, बंद करते करते याद आ गया कि पुरानी किताबों में, विशेषकर नावलों में जो आज के दौर में बिकते हैं उन के शुरूआती पन्नों पर कुछ इश्क-विश्क के किस्सों की भी टोह लग सकती है आप को ...जिस तरह से भेंट करने वाले ने पहले पन्ने पर अपने दिल की भावनाएं लिख कर नीचे अपना नाम लिखा होता है ........क्या करते लोग उस दौर में भी .....न ट्विटर , न इंस्टाग्राम , न ही वाट्सएप था ..</span>. </div><div style="text-align: left;"><br /></div></td></tr></tbody></table><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/4CwFFWleNNA" title="YouTube video player" width="560"></iframe><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdlL9gAtaXbHLwZq2eB5P2ASKnfv2Te4sxnvtKEmjqlWhNn6KowR-8oKlshf0928Pf1HIQ5FlKVkg99wGenZfWJER-pDJLn_OeSp9_z0fcQ39SIhQYLi7lqJFP21hrdtrxRyRL0tUPOSag7YDm8qmr4Z8weNywCwO4ooRuoIxaYCe2SoIxlwYtzD8n/s4032/IMG_2379.HEIC" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="4032" data-original-width="3024" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdlL9gAtaXbHLwZq2eB5P2ASKnfv2Te4sxnvtKEmjqlWhNn6KowR-8oKlshf0928Pf1HIQ5FlKVkg99wGenZfWJER-pDJLn_OeSp9_z0fcQ39SIhQYLi7lqJFP21hrdtrxRyRL0tUPOSag7YDm8qmr4Z8weNywCwO4ooRuoIxaYCe2SoIxlwYtzD8n/w300-h400/IMG_2379.HEIC" width="300" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><br />यह तो एक साधारण नाम है ....लेकिन अकसर नावलों के नाम ऐसे ऐसे रोमांचक होते थे कि बंदा, अपने पैंचर हुए साईकिल और उस की फेल हुई ब्रेक को भूल जाता था कि वह बाद में, पहले नावल का जुगाड़ करने निकल पड़ता है, यह क्रेज़ था आज से ५०-६० पहले वाले ज़माने मे नावलों को ...जब जिसे बुद्धिजीवि लोग पल्प लिटरेचर कह देते हैं अकसर ..., </td></tr></tbody></table><br /><div><br /></div>Dr Parveen Choprahttp://www.blogger.com/profile/17556799444192593257noreply@blogger.com1