मंगलवार, 15 जनवरी 2008
जहां पर वडे-पाव का भी भरोसा नहीं, वहां भी रेडियो-जाकी........
केवल नमक ही तो नहीं है नमकीन !
तो, अब बात आती है कि अगर सोडियम ही विलेन है तो सोडियम तो फिर हमारे खाने वाली और भी चीज़ों में मौजूद है, क्या वह हमारी सेहत को खराब नहीं करता ? -- आप बिल्कुल ठीक सोच रहे हैं कि सोडियम कहीं से भी हमारे शरीर में आए, वह हमारे शरीर में पानी तो इक्टठा करता ही है। चलिए, बात करते हैं ---मीठे सोडे की, वही जिसे हम लोग बेकिंग सोडा भी कहते हैं, इस का कैमिकल फार्मूला है---सोडियम बाईकार्बोनेट अर्थात् फिर वही विलेन सोडियम.....जी हां, यह वाला सोडियम भी उसी कैटेगरी में ही आता है। यहां यह ध्यान रहे कि सभी बेकरी प्राड्क्टस में, प्रोसैस्ड फूड्स इत्यादि में भी यह बेकिंग पावडर मिला ही होता है, जिन के माध्यम से भी सोडियम हमारे शरीर में जाता रहता है। तो, अगली बार जब आप का डाक्टर नमक कम करने की सलाह दे, तो आप यह मत भूलिएगा कि केवल नमक ही नमकीन नहीं है......कुछ छुपे रूस्तम और भी हैं।
यह बात भी नहीं है कि जिस बंदे को ब्लड-प्रेशर है केवल उसे ही ज्यादा नमक से बच के रहना है, बल्कि एक स्वस्थ बंदे का भी इस सोडियम नामक विलेन से बचने में ही बचाव है। यहां तक कि बच्चों में भी जितना कम नमक खाने की आदत डाली जाए, उतनी ही ठीक है.....देखिए, यह नमक ही नमकीन वाली मैंटैलिटि कितनी हमारे अंदर घर कर चुकी है कि मैं सोडियम की बजाए बार-बार नमक ही लिखे जा रहा हूं। , चलें, देखते हैं कि कैसे इस नमक के कम इस्तेमाल से हम अपनी तंदरूस्ती में मिठास घोल सकते हैं....
- सब से पहले तो अपनी खाने वाली टेबल से वह बरसों पुरानी नमकदानी अभी हटा दीजिए। न वह वहां पड़ी होगी, और न ही झट से आप उस के ऊपर लपकेंगे। उसे किचन से मंगवाने में या तो आप ही आलस कर जाएंगे या तो लाने वाला ही शायद भूल जाएगा। सो, दही, सब्जी, दाल में खाने की मेज पर बैठ कर नमक न छिड़कें।
- दूसरी बात यह है कि स्लाद के ऊपर, विभिन्न फलों के ऊपर नमक न ही डालें तो ठीक है। दही , लस्सी , जूस भी बिना नमक के ही पिएं तो ही आप की सेहत के लिए ज्यादा ठीक होगा। शिकंजी में भी नमक की मात्रा कम ही रखें। बाजार में गन्ने का रस पीते समय भी दुकानदार को नमक न ही डालने की ही हिदायत दें।
- छोटे बच्चों में भी इन सब बातों का ध्यान रखें क्योंकि जब वे बढ़े होंगे तो फिर उन के भी स्वाद वैसे ही डिवैल्प हो जाएंग।
- अकसर , कईं मरीजों को कहते सुना है कि इस ब्लड-प्रेशर की वजह से अब तो दाल-सब्जी भी फीकी ही खानी शुरू कर दी है, लेकिन यही लोग बाद मेंबताते हैं कि वे बस नमकीन लस्सी, नमकीन दही, आचार आदि के ही शौकीन हैं। इस का मतलब सोडियम तो शरीर में पहुंच ही गया --चाहे किसी भी रूप में ही पहुंचे।
- हां, तो आचार से याद आया कि इस में नमक की बहुत ही ज्यादा मात्रा होती है, इस लिए अगर ब्लड-प्रेशर के मरीज इस से भी बच कर ही रहें तो ही बेहतर होगा।
- यहां तक कि बाजार में बिकने वाले जंक फूड में , भुजिया वगैरह में भी नमक की मात्रा बहुत ज्यादा होती है।
- दोस्तो, यह कोई कर्फ्यू वाली बात तो है नहीं कि मैंने कहा और आपने आज ही से सारी चीज़ें खानी छोड़ देनी हैं , बस मेरी तो इतनी सी गुज़ारिश है कि जो कुछ भी खाएं उस के अपने शरीर पर होने वाले प्रभावों के बारे में भी जरूर सोच लिया करें। देखिए, आप को भी मेरी तरह कैसे इन सब चीज़ों से विरक्ति सी ही हो जाएगी।
- कभी कभी कसम तोड़ने में भी कोई बुराई नहीं है......बहुत ज्यादा गर्मी में नमकीन लस्सी ,नमकीन शिकंजी अथवा तरबूज पर नमक लगाने का स्वाद भी तो भूले नहीं भूलता ....क्या करें......ठीकहै, ठीक है, कभी कभी कसम तोड़ देने से ही जान में जान आती है।
- वैसे तो दोस्तो, किताबों में यह भी लिखा है कि एक बंदे को दिन में बस इतने ग्राम नमक ही खाना चाहिए....लेकिन पता नहीं जो बात लोगों को कंफ्यूज़ करे, मुझे उन से हमेशा ही से चिड़ रही है। अब, कौन यह हिसाब किताब रखे.....ऐसे में बेहतर यही है न कि ऊपर लिखी हुईं सीधी साधारण बातों को ही अपने जीवन में उतार लिया जाए। दाल, सब्जी में तो हम लोग वैसे ही स्वाद से थोडा़ सा भी ज्यादा नमक कहां सहन कर पाते हैं। वैसे भी कुदरती खाद्य़ पदार्थों में तो पहले से ही सोडियम रहता ही है।
- दोस्तो, वैसे तो बाज़ार में ब्लड-प्रेशर के मरीज़ों के लिए बाज़ार में कम-सोडियम वाला नमक भी मिलता है, लेकिन प्रैक्टिस में मैंने देखा है कि ज्यादातर लोग वह खरीद नहीं पाते हैं और एक-आध बार खरीद भी लेते हैं तो उसे लगातार लेना उन से निभ नहीं पाता है।सैंकड़ों-हज़ारों में कोई एक इस को नियमित यूज़ कर भी लेता होगा, लेकिन इस सौ करोड़ से भी ज्यादा लोगों के देश में इस की बात ज्यादा क्या करें जहां अभी तक आम आदमी किसी बढ़िया सी कंपनी का आयोडाइजंड नमक तो लेने से कतराता रहता है।इसलिए हमारी भलाई तो इसी में है कि हम ऊपर लिखी छोटी छोटी बातों को अपने जीवन में उतारना, चाहे शुरू में थोड़ा-थोड़ा ही सही, शुरू कर दें। बात वही करनी मुनासिब सी लगती है जो कोई भी बंदा आज से ही क्या, अभी से ही अपनी जिंदगी में उतार ले।
- तो , ठीक है ,दोस्तो , अगर आप ने आज गन्ने का रस पीने से पहले उस दुकानदार को नमक न मिलाने के लिए कह दिया ,तो मुझे यह लगेगा कि मेरी यह पोस्ट लिखने की मेहनत सफल हो गई.........क्या , आप समझ रहे हैं कि नहीं तो मैं लिखना बंद कर दूंगा...................अफसोस, दोस्तो, ऐसा न कर पाऊंगा क्योंकि आदत से मजबूर हूं and they say .....Old habits die hard !!
तंबाकू की लत से जुड़े कुछ मिथक....
कुछ दिन पहले जब मैं मुंबई के लोकल स्टेशनों के बाहर सुबह-सवेरे कुछ महिलाओं एवं बच्चों को दांतों पर मेशरी (जला हुया तंबाकू) घिसते हुए देख कर यही सोच रहा था कि यद्यपि यह भयंकर आदत मुंह के कैंसर को निमंत्रण देने के बराबर ही तो है, फिर भी जब हम विश्व तंबाकू मुक्ति दिवस मनाते हैं, तो उस अभियान में यह लोग केंद्र-बिंदु क्यों नहीं बन पाते। तम्बाकू पीना, चबाना, मुंह में लगाना या किसी भी रूप में प्रयोग करना नई महामारी को खुला निमंत्रण दिए जा रहा है और हम अपने अधिकतर संसाधन लोगों को केवल सिगरेट के दुष्परिणामों से वाकिफ़ करवाने में ही लगा देते हैं.........लेकिन समय की मांग है कि इस के साथ-साथ देश में व्याप्त तंबाकू प्रयोग से संबंधित विभिन्न मिथकों को तोड़ा जाए !!
बीड़ी सिगरेट से कम हानिकारक ?----
यह बिल्कुल गलत सोच है। बीड़ी भी कम से कम सिगरेट के जितनी तो घातक है ही। इस को सिगरेट की तुलना में चार से पांच गुणा लोग पीते हैं। एक ग्राम तंबाकू से औसतन एक सिगरेट तैयार होती है लेकिन इतना तंबाकू 3या 4 बीड़ीयां बनाने के काम आता है।
बीड़ी का आधा वज़न तो उस तेंदू के पत्ते का ही होता है जिस में तम्बाकू लपेटा जाता है। इतनी कम मात्रा में तम्बाकू होते हुए और अपना छोटा आकार होते हुए भी एक बीड़ी कम से कम भारत में बने एक सिगरेट के समान टार तथा निकोटीन उगल देती है, जब कि कार्बनमोनोआक्साइड तथा अन्य विषैले रसायनों की मात्रा तो बीड़ी में सिगरेट की अपेक्षा काफी ज्यादा होती है।
हुक्का पीना....कोई बात ही नहीं.....यह तो सब से सुरक्षित है ही !---रीयली ???-----हुक्के के कश में निकोटीन की मात्रा थोड़ी कम होती है क्योंकि इस में धुआं लम्बी नली व पानी में से छन कर आता है, लेकिन कार्बन-मोनोआक्साईड तथा कैंसर पैदा करने की क्षमता में कमी नहीं होती है। हुक्के में तंबाकू की मात्रा ज्यादा होती है जिससे शरीर में निकोटीन की मात्रा, ज्यादा देर तक हुक्का पीने के कारण बीड़ी सिगरेट के बराबर ही हानि पहुंचाती है।
यार, पिछले बीस-तीस साल से तो ज़र्दा-धूम्रपान का मज़ा लूट रहे हैं, अब क्या खाक होगा !----- ज़र्दा एवं धूम्रपान से होने वाली बीमारियों का शुरू शुरू में तो कुछ पता चलता नहीं है, इन का पता तब ही लगता है जब कोई लाइलाज बीमारी हो जाती है। लेकिन यह ही पता नहीं होता कि किस को यह लाइलाज बीमारी पांच वर्ष ज़र्दा-धूम्रपान के सेवन के बाद होगी या तीस वर्ष के बाद। चलिए, एक उदाहरण के माध्यम से समझते हैं--- अपने मकान के पिछवाड़े में बार-बार भरने वाले बरसात के पानी को यदि आप न देख पायें तो नींव में जाने वाले इस पानी के खतरे का अहसास आप को नहीं होगा। इस का पता तो तभी चलेगा जब इससे मकान की दीवार में दरार आ जाए या मकान गिर जाए, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। ज़र्दा-धूम्रपान एक प्रकार से बार-बार पिछवाड़े में भरने वाले पानी के समान है।
रोगों को मिल गई खान,
जिसने किया ज़र्दा-धूम्रपान !!
पान-मसाला, ज़र्दा मुंह को बस थोड़ा तरोताज़ाही ही तो करता है, और है क्या, काहे की टेंशन मोल लें ?-
दोस्तो, पिछले दो-तीन दशकों से तो हमारे देश में तंबाकू खाने की लत बहुत ही बढ़ गई है। पान-सुपारी-चूना वगैरह के साथ तंबाकू मिलाकर उसे चबाने की अथवा गालों के अंदर या जीभ के नीचे या फिर होठों के पीछे दबा कर रखने की बुरी आदत शहरी एवं ग्रामीण दोनों वर्गों में बहुत ज्यादा देखने को मिलती है। पान-मसालों या तंबाकू युक्त गुटखा के उत्पादों का आकर्षण तो बस बढ़ता ही जा रहा है। इन को तो विज्ञापनों की मदद से कुछ इस तरह से पेश किया जाता है कि ये तो मात्र माउथ-फ्रेशनर ही तो हैं !!—लेकिन ये लतें भी धूम्रपान जितनी ही नुकसानदायक हैं।
इन के प्रयोग से मुंह की कोमल त्वचा सूखी, खुरदरी तथा झुर्रीदार बन जाती है। मरीज का मुंह धीरे-धीरे खुलना बंद हो जाता है और उस व्यक्ति की गरम, ठंडा, तीखा, खट्टा सहन करने की क्षमता बहुत ही कम हो जाती है। इस स्थिति को ही सब-म्यूकस फाईब्रोसिस कहा जाता है और यह मुंह में होने वाले कैंसर के लिए खतरे की घंटी ही है।
अब, देखा जाए तो देश में तंबाकू की रोकथाम के कायदे-कानून तो काफी हैं...लेकिन, दोस्तो, बात फिर वहीं आकर खत्म होती है कि कायदे, कानून कितने भी बन जाएं, लेकिन फैसला तो केवल और केवल आप के मन का ही है कि आप स्वास्थ्य चाहते हैं या तंबाकू-----अफसोस, आप दोनों को नहीं चुन सकते। बस, कोई भी फैसला लेते समय ज़रा ये पंक्तियां ध्यान में रखिएगा तो बेहतर होगा....
ज़र्दा-धूम्रपान की लत जो डाली,देह रह गई बस हड्डीवाली !!
2 comments:
पांडे जी, समय समय पर आप के द्वारा दिए गए प्रोत्साहन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।