बुधवार, 16 जनवरी 2008

इस बवासीर, फिश्चूला, मस्सों को कभी भी न लें इतनी लाइटली----


एनो-रैंकल एरिया में होने वाली आम तकलीफ़ों जैसे कि बवासीर, मस्सों एवं फिश्चूला (जिसे अकसर भगंदर भी कहते हैं) इत्यादि को कभी भी लाइटली न लिया जाए। इस प्रकार की बीमारियां मरीज की ज़िंदगी में एक तरह से ज़हर ही घोल सकती हैं। अकसर देखा गया है कि लोग इन तकलीफों को बड़ा ही लाइटली लेते हैं ।

ऐसे ऐसे मरीज हैं जो वर्षों तक इन तकलीफों से परेशान रहेंगे लेकिन प्रशिक्षित डाक्टर के पास जाने से कतराते रहेंगे या झिझकते रहेंगे। लेकिन मेरी समझ में यह कभी नहीं आया कि डाक्टर के पास जाने में किसी तरह की शर्म आखिर क्यों----जैसे शरीर के बाकी अंग हैं, वैसे ही यह भी है और दूसरी बात यह कि डाक्टरों के लिए यह कोई विशेष बात है ही नहीं....उन के पास रोज़ाना इस तरह के शायद दर्जनों मरीज आते ही हैं।

सालों साल मल द्वार (ano-rectal) की तकलीफों से जूझने का मतलब बार-बार अपनी ही मरजी से तरह तरह की खाने की व लगाने वाली दवाईयां इस्तेमाल करना, जो अकसर रोग को दबा तो देती हैं लेकिन जड़ से खत्म नहीं करतीं। अपने शुभचिंतकों की सलाह से कोई भी दवा शुरू कर दी जाती है, कुछ समय ठीक ----फिर वही तकलीफ और वह भी पहले से ज्यादा उग्र रूप में।

जगह-जगह पोस्टर लगे हुए आप ने भी देखे होंगे जो यह दावा कर रहे होते हैं कि एक ही टीके से पुरानी से पुरानी बवासीर को जड़ से खत्म करें.......ऐसे इश्तिहार अकसर नीम हकीमों के ही होते हैं, प्लीज़ इन के चक्कर में पड़ कर अपने रोग को बढ़ावा कभी न दें। अकसर इन धन-लोलुप नीम-हकीमों के चक्कर में पढ़ कर लोग अपना रोग तो बढ़ा ही लेते हैं, और यह भी नहीं पता कि वो कौन सी सिरिंजें एवं सूईंयां इस्तेमाल कर रहे हैं.....पता ही नहीं कौन कौन से और रोग साथ में उपहार स्वरूप दे दें......देखिए कहीं लेने के देने ही न पड़ जाएं।

एक तो इस देश में विज्ञापन-कर्त्ताओं ने भी भोली-भाली, जल्दी ही किसी की बातों में आ जाने वाली जनता का पीछा न छोड़ने की ठान रखी है। दीवारों पर एक क्रीम का इश्तेहार जहां तहां नज़र आता रहता है कि इस क्रीम के इस्तेमाल से आप बवासीर, भगंदर से पूरी तरह छुटकारा पा सकते हैं।

जी नहीं, अकसर बवासीर, भगंदर (फिश्चूला) आदि रोगों का डैफिनिटिव इलाज(definitive treatment) करवाना ही पड़ता है, जितना जल्दी हो जाए, उतना ही ठीक है ....नहीं तो ये अकसर बहुत बढ़ जाते हैं। डैफिनिटिव इलाज से भाव है कि अगर कोई बंदा ऐसी तकलीफ से जूझ रहा है तो उसे सर्जन को जा कर दिखाना ही होगा, उस के कहे अनुसार दवाईयां भी लेनी होंगी और अगर वह आप्रेशन की सलाह दे रहे हैं तो झट से करवाने में ही समझदारी है। ऐसा कभी नहीं होता कि फिश्चूला अपने आप ही ठीक हो जाएगा...हां, वो कुछ समय के लिए दब जरूर सकता है जिस से मरीज यह वहम पाल लेते हैं कि यह तो अपने आप ठीक हो जाएगा।

दोस्तो, मेरे साथ काम करने वाले एक डाक्टर को भी इस फिश्चूला की तकलीफ ने कैसे परेशान किए रखा, आप को बताना चाहूंगा। उसे 6-7 साल पहले ऐसे ही मल-द्वार के पास दर्द हुई--- सर्जने को दिखाने पर उस ने एनल ग्लैंड की इंफैक्शन की बात कही, कुछ दवाईयां दीं, जिस से हमारे उस मित्र का बुखार भी टूट गया और वह ठीक सा भी महसूस करने लगा। लेकिन उसे उस जगह में हमेशा भारीपन सा रहने लगा...थोड़ी थोड़ी दर्द हमेशा ही रहने लगी। फिर बुखार हो गया ---फिर दवाईंया खानी पड़ी...फिर ठीक हो गया.....यह सिलसिला 4-5 महीने चलता रहा और आखिर उसे सर्जन से उस एबसैस को ड्रेन करवाना ही पड़ा।

जब उस सर्जन ने उस एबसैस से पस निकाली तो उसे वह पस थोड़ी पनीर जैसी दिखी ( cheesy material) – इसलिए उसे लैब में टैस्ट के लिए भेजा गया। रिपोर्ट कुछ ऐसी आई कि कुछ इस तरह की कोशिकाएं उस में दिखीं हैं जो टीबी में होती हैं.....तो क्या था, उस को टीबी की दवाईयां शुरू कर दी गईं कि शायद दो-महीने का कोर्स करने से तकलीफ जड़ से खत्म हो जाएगी जिस से कि आप्रेशन का जख्म भी बिलकुल ठीक हो जाएगा। लेकिन यह क्या, उस का जख्म तो क्या सूखना था, वहां से तो रोज़ाना रिसाव ही शुरू हो गया ....टीबी की दवाईयां भी छःमहीने तक खा ली गईं लेकिन कोई राहत महसूस न हुई। उसे एक और आप्रेशन करवाने की सलाह दी गई।

दोस्तो, आप सुन कर हैरान होंगे कि बस इसी तकलीफ से जूझते हुए उस ने चार-पांच साल निकाल दिए.....बस आलस की बात कि कौन पड़े दोबारा इस आप्रेशन के चक्कर में । लेकिन आखिर जब इस तकलीफ ने उस का जीना दूभर ही कर दिया तो उसे दोबारा से एक अन्य वरिष्ठ सर्जन से आप्रेशन करवाना ही पड़ा...............दो महीने तो वह छुट्टी पर रहे....और पूरे 6 महीने तक उन की पट्टियां चलीं.

दोस्तो, यह हमारे ही एक डाक्टर की आपबीती इसलिए यहां बतानी ज़रूरी समझी कि हम सब यह समझ सकें कि इन तकलीफों के लिए हमें बेकार में लालची किस्म के नीम-हकीमों के चक्कर में न पड़ कर किसी अनुभवी सर्जन से परामर्श करना चाहिए ताकि शुरू में ही ऐसी किसी तकलीफ का डट कर मुकाबला किया जाए ताकि वह फिर से अपना सिर न उठा सके।

हमारे उस सहकर्मी डाक्टर को आप्रेशन करने वाले सर्जन ने यह बताया कि तुम्हारी किस्मत अच्छी थी कि एनल-स्फिंकटर बच गया नहीं तो मल के त्यागने पर कंट्रोल हमेशा के लिए समाप्त हो सकता था।

अच्छा, तो दोस्तो, एक बात और कि इन सब रोगों को कब्ज अथवा टायलेट करते समय ज़ोर लगाना जैसी अवस्थाएं बढ़ावा देती हैं. इसलिए कब्ज को दूर रखें....अपने खाने-पीने में सावधानियां बरते, मोटे आटे का ही सेवन करें जिस में से चोकर न निकाला गया हो, अंकुरित दालों का प्रचुर मात्रा में सेवन करें, खूब स्लाद-सब्जियां खाएं....आंवले का इस्तेमाल किसी भी रूप में जरूर किया करें....इससे कब्ज दूर रहेगी। अपनी ही मरजी से कब्ज तक की दवाई लेते रहना चाहे खाने वाली या पीने वाली ----बिलकुल ठीक बात नहीं है, एक बार यह दवाईयां आप ने अपनी ही मरजी से लेनी शुरू कर दी तो आप फिर इन के चक्रव्यूह से मुश्किल से ही निकल पाते हैं। So, then why not to go natural and make some minor changes in our day-to-day life to keep such irritating problems miles away………लेकिन कब्ज नहीं भी है , तो भी , ऊपर लिखी हुई तकलीफ़ों के लिए क्वालीफाइड एवं अनुभवी डाक्टर से मिलना जरूरी है.....शायद वह आप को किसी आप्रेशन की सलाह ही न दे और शुरूआती दौर में आप का दवाईयों से ही मामला सुलट जाएगा। जो भी हो, लेकिन please, for God’s sake, don’t ever ignore these ano-rectal problems…..take care !!