सोमवार, 2 जून 2008

क्या आप ने कभी लट्टू चलाया है ?


मैं
तो कभी नहीं चला पाया....अपनी टोली के दूसरे लड़कों को इतनी आसानी से बार-बार उस मिट्टी के बने लट्टू पर झट से डोरी लपेट कर ज़मीन पर छोड़े जाने का सारा एक्शन मैं बड़ी हसरत से देखा करता था। बहुत बार मैंने भी उस मिट्टी के बने लट्टू पर डोरी लपेट कर उसे ज़मीन पर छोड़ने की नाकाम कोशिश की।

अच्छा तो अब आप को याद आ रही है उन पांच-पांच पैसे में बिकने वाली मिट्टी के लट्टूयों की .....तो यह भी बता डालिये कि आप के इस के साथ क्या अनुभव रहे ? मुझे तो आज दोपहर में उन लट्टूयों के बारे में ही सोच कर इतना सुखद लग रहा था कि क्या कहूं !!

दोस्तो, मैं उस ज़माने की बात कर रहा हूं कि जब ये मिट्टे के बने लट्टूओं पर बहुत बढ़िया सा चमकीला काला-लाल पेंट भी किया गया होता था। उन्हें देखना ही कितना सुखद हुया करता था। और फिर जब हम खुराफाती लड़की की टोली में इन को चलाने का मुकाबला हुया करता था तो पूछो मत कि कितना मज़ा लूटा करते थे।

इमानदारी से कह रहा हूं कि दशकों पुरानी यह बात आज ही याद आई है कि दो लड़के अपने अपने लट्टू पर डोरी लपेट कर एक साथ ज़मीन पर छोड़ते थे, जिस का लट्टू ज़्यादा समय तक चल पाया, वही जीता ....वही सिकंदर। लेकिन हारने वाला भी अपनी हार इतनी आसानी से कैसे स्वीकार कर ले...... फिर वह बिल्कुल नाच ना जाने आंगन टेढ़ा कि तर्ज़ पर कह उठता कि देख, मेरे वाला इस बार तो ज़मीन पर पड़े हुये पत्थर से टकरा गया, ऐसा कर, तू अब देख......भूल गया, परसों मैंने तेरे को कितनी बार हराया था।

पेंट वाले लट्टूओं के साथ ही साथ ऐसे लट्टू भी तो आया करते थे जिन पर पेंट नहीं हुया होता था...बस, मिट्टी के लट्टू होते थे जिन के नीचे एक लोहे की पिन सी लगी होती थी।

लिखते लिखते मुझे आज खुशवंत सिंह जी की वह वाली बात बहुत याद आ रही है कि खुदा का शुक्र है कि किसी ने कलम के लिये कंडोम नहीं बनाया......दोस्तो, मैंने इस महान लेखक के अखबारों में छपे लेखों से लिखने की बहुत प्रेरणा ली है.......वे अकसर लिखा करते हैं कि पेन को बस कागज़ पर छोड़ना ही आप का काम है, बाकी काम धीरे धीरे अपने आप होने लगता है।

यह मैं इसलिये यहां लिखना ज़रूरी समझता हूं कि जब मैं यह लेख लिखने लगा तो बहुत सी बातें मेरे ध्यान में ही नहीं थीं, लेकिन अब लिखते लिखते याद आने लगा है। जैसे कि मुझे अभी ध्यान आ रहा है कि मिट्टी के लट्टूओं के बाद फिर लकड़ी के बने लट्टू बाज़ार में आने लग गये थे। लेकिन मैं उन मिट्टी के लट्टूओं के बारे में यह बताना तो भूल ही गया कि जिन लड़कों की गैंग में मैं शामिल था, उन में से कईं लड़कों को जेबों में कईं कईं मिट्टी के लट्टू ठूसे रहते थे ...क्योंकि जब एक लट्टू टूट जाता था तो बिना किसी शिकन के झट से जेब से दूसरा लट्टू तुरंत ना निकले तो यह एक प्रैस्टीज इश्यू हो जाया करता था और लड़कों में खिल्ली उड़ती भला कौन बर्दाश्त करे, भई .......मैं बार बार एक बात फिर से दोहरा रहा हूं कि मुझे इन लट्टूओं को देखने से ही बहुत अच्छा लगता था। जिन लकड़ी के लट्टूओं की मैं बात कर रहा हूं उन की भी बनावट भी बिल्कुल मिट्टी के लट्टूओं के जैसी ही हुया करती थी....जिन पर भी डोरी लपेट पर उन को ज़मीन पर छोड़ा जाता था।

ये लकड़ी के लट्टू मेरे बेटे ने बंबई रहते खूब चलाये हैं.....बंबई की यही तो खासियत है कि यहां सब कुछ मिल जाता है। और वह भी रेलवे स्टेशनों के प्लेटफार्मों पर या फुटपाथों पर.....यह सब कुछ बहुत आसानी से मिल जाता है ताकि कोई भी बच्चा इन छोटी मोटी चीज़ों के लिये कभी तरसे नहीं। इन लकड़ी के लट्टूओं को चलाने में मेरे बड़े बेटे ने इतनी महारत हासिल कर ली कि मुझे उस से ईर्ष्या होती कि यार, इसे भी तो किसी ने नहीं सिखाया,यह कैसे इतनी आसानी से इन को चला लेता है और वह इतना धुरंधर लट्टूबाज हो गया कि इन लट्टूओं को जमीन पर छोड़ कर ....उन्हें चलते चलते फिर से.....अपने हाथ में पकड़ी डोरी की मदद से ज़मीन पर चलते चलते लट्टू को अपने हाथों पर ट्रांस्फर कर लेता ( बिल्कुल उसी तरह जिस तरह मेरी बचपन की टोली के लोग खासकर दोस्त दारा किया करता था !)..... मुझे यह सब देखना बहुत रोमांचक लगता।

यह नब्बे के दशक का वह दौर था जब उन 5-5, 10-10 रूपये के जंक-फूड के पैकेटों के साथ एक बिल्कुल छोटा सा प्लास्टिक का लट्टू आने लगा था.....जिस की उम्र एक-दो दिन की ही हुया करती थी, क्योंकि अकसर ये इधर उधर पड़े किसी के पैरों तले आ ही जाते थे।

अब आते हैं नये मिलिनियम में.....अर्थात् चार-पांच साल पहले मेरा बेटा क्लब से खबर लेकर आया कि शर्मा अंकल अपने बेटे के लिये दिल्ली से बे-ब्लेड लाये हैं.......यकीनन उस ने कुछ वर्णऩ इस तरह का किया कि हमें भी उत्सुकता हो उठी कि यार, देखना ही होगा, यह कौन सा करिश्मा है। मुझे याद है मैं और मेरी पत्नी उसे लेकर फिरोज़पुर की एक स्थानीय खिलौनों की दुकान पर पहुंच गये........दाम पता किया तो अढ़ाई सौ –तीन सौ रूपये। और साथ में दुकानदार की शर्त की ना ही पैकिंग खोल कर चैक ही करवायेगा और ना ही कोई गारंटी होगी......कहने लगा कि हमें तो कंपनी से जाते आते हैं वैसे ही हम आगे बेच देते हैं, हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं। फिर उस ने बताया कि जो बच्चे ठीक से हैंडल नहीं कर पाते, उन के बे-ब्लेड झट से खराब हो जाते हैं......और ये फिर रिपेयर नहीं हो पाते...उस ने इतना कहते हुये पास ही पड़े खराब बे-ब्लेड़ो का ढेर दिखा दिया। लेकिन फिर भी रिस्क लेते हुये हम एक बे-ब्लेड खरीद ही लाये।

अभी दो-तीन दिन हुये थे कि कोई और डिजाइन बेटे के दोस्तों के पास आ गया.....तो फिर वैसा ही डिजाइन लुधियाना से मंगवाना पड़ा। बस, देखते ही देखते घर में कईं तरह के बे-ब्लेड दिखने लग गये। इन बे-ब्लेड़ों की शुरूआत हुई एक टीवी प्रोग्राम से ही थी, लेकिन हमें ही इतनी बार सिर मुंडवा कर पता चला कि यार, यह भी एक लट्टू ही तो है.......बस, उसे ज़मीन पर छोड़ने का मकैनिज़्म ही तो अलग है......पहले डोरी से यह काम हो जाता है और यहां से काम एक प्लास्टिक की लंबी सी पत्ती से हुया करता था। लेकिन यकीन मानिये जो रोमांच बचपन में दिखने वाले उस लट्टू का था, वह तो भई अलग ही था।

हम हिंदोस्तानियों के इतनी सफाई से नकल करने के हुनर को सलाम......कुछ ही महीनों में ये बे-ब्लेड पहले पचास-साठ रूपये में और फिर कुछ ही समय के बाद बीस-बीस, तीस तीस रूपये में बिकने लग गये। घर में जगह जगह बे-ब्लेड दिखने लग गये.....बच्चों में क्लबों, पार्टियों में इन के बारे में चर्चा होने लगी कि यार, तेरे पास कितने हैं, तेरे पास क्या वह लाइट-वाला है या नहीं !!

बस, पता नहीं कुछ ही महीनों में फिर से इन बच्चों को कभी बे-ब्लेड़ों का नाम लेते देखा नहीं..........अब तो पता नहीं कि ये धीरे धीरे मार्कीट से ही गायब हो गये हैं या अपने बच्चे ही बड़े हो गये हैं।

लेकिन मेरे छोटे बेटे के पास बहुत साल पुराना एक लकड़ी का लट्टू पड़ा हुया है जिस को मैंने भी खूब चलाया है...........नहीं, साहब, नहीं, यह डोरी वाला नहीं है.......डोरी वाला तो कईं वर्षों से दिखा ही नहीं है और डोरी वाला लट्टू इस जन्म में तो मेरे से चलने से रहा। यह लकड़ी का खूबसूरत-सा लट्टू तो हाथ से घुमा कर चलाने वाला है जिसे मैं कईं साल पहले घुमा कर उस के नर्म-नर्म पेट पर छोड़ दिया करता था जिससे उसे बहुत मज़ा आता था। और उस की किलकारियां सुन कर मुझे उस से भी ज़्यादा मज़ा आता था...................सचमुच, अपनी बड़ी बड़ी खुशियां भी कितनी छोटी छोटी बातों में छिपी बैठी हैं !!.....क्या आप को ऐसा नहीं लगता, दोस्तो !!

क्या करें नए रचनाकार....

नए लेखकों को क्या करना चाहिए ?...इस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं प्रख्यात लेखक मुद्राराक्षस। ......दोस्तो, मैंने यह जबरदस्त लेख तीन साल पहले एक अखबार में पढ़ा था, इस ने मुझे इतना कुछ कह दिया कि मैंने इस की कतरन अपनी नोटबुक में लगा रखी है। आज अपने स्टडी-रूम की सफाई करते करते जब इस कापी के ऊपर नज़र पड़ी तो सोचा कि यार, यह तो आप सब से शेयर करने वाली क्लिपिंग है। सो, इस को जैसे का तैसे ही लिख रहा हूं।
युवा रचनाकारों को कोई सलाह दे पाना मुश्किल काम है। लगभग 54 बरस हो गए हैं लिखते और छपते लेकिन हर नई चीज़ के लिए कलम उठाने से पहले गहरी उलझन होती है कि वह लिखने के लिए मेरे पास पूरी तैयारी नहीं है।
सार्त्र ने आत्मकथा में लिखा था कि लेखन एक बंदूक होता है। बंदूक सिर्फ उसका घोड़ा दबाने से ही काम नहीं करती । उससे निशाना लेने के लिए लंबे और श्रमसाध्य अभ्यास की जरूरत होती है। फिर बंदूक चलने पर निशाना ही नहीं लगाती, वह चलाने वाले को भी भरपूर धक्का देती है।
कुछ निशानेबाजी तो सिर्फ कौशल के लिए होती है और कुछ कारगर। लेखन भी बहुत कुछ ऐसी ही चीज़ है।
युवा लेखक को सलाह इसलिए भी मुश्किल काम है कि हर लेखक नई दुनिया खोजता है। उसे कौन बता सकता है कि तुम अमुक को खोजो क्योंकि जिस अमुक की सलाहें दी जाएंगी वह तो सलाह देने वाले की खोज है। क्या निराला को किसी ने बताया था कि तुम ऐसी कविता लिखो? आइन्सटाइन को किसने बताया था कि वे क्वाण्टम फिजिक्स का नया इतिहास रचें बल्कि उनके अध्यापक तो उनके काम से गहरी असहमति जताते थे। नए लेखक को एक घबराहट ज़रूर होती है कि उसकी रचना अक्सर छप नहीं पाती या संपादक अस्वीकार कर देता है। कुछ लेखकों को संयोग से यह कभी नहीं झेलना पड़ता लेकिन ऐसा कुछ झेला तो भवभूति जैसे शिखर के संस्कृत नाटककार ने भी , तभी उसने लिखा था कि धरती बहुत बड़ी है और समय निरवधि है, कभी तो लोग पहचानेंगे। और वे पहचाने गए।
निराला का विरोध भी हुआ और उनकी रचनाएं अस्वीकृत भी हुईं....तभी उन्होंने लिखा था ....एक संपादकगण निरानंद, वापस कर देते पढ़ सत्वर, दे एक पंक्ति दो में उत्तर। मुक्तिबोध तो बड़े उदाहरण हैं कि उनकी कोई कविता या निबंध की किताब उनके जीवनकाल में नहीं छपी थी। कभी-कभी किसी तेजस्वी लेखक के साथ यह भी होता है। इसके लिए भी लेखक को तैयार रहना चाहिए।
एक विनम्र सुझाव देना चाहूंगा...किसी भी रचना को लिखने से पहले व्यापक अध्ययन ज़रूरी होता है। अपने समय का ओर अपने इतिहास में जो कुछ लिखा गया वह गंभीरता से पढ़ना चाहिए। दुनिया में क्या लिखा गया, इसका भी बोध होना चाहिय, तभी पता लग सकता है कि कितना और कैसा क्या कुछ लिखा गया है। तभी यह भी पता लगता है कि जो कुछ लिखा जा चुका है उससे अलग और बेहतर कुछ कैसे लिखा जा सकता है।
PS…..मुझे लेखक मुद्राराक्षस जी की सभी बातें बहुत भा गई। हिंदी चिट्ठाकारी में बहुत से साहित्यकार हैं...अगर मुद्राराक्षस जी के लेखन एवं जीवन के बारे में बतलाने का कष्ट करेंगे तो अच्छा लगेगा।
देखिये , आज एक बार फिर इस पोस्ट को लिखने के चक्कर में मेरा स्टड़ी-रूम साफ होते होते रह गया। ....पता नहीं इस कबाड़खाने की किस्मत कब खुलेगी.....दोस्तो, यह रूम इतना ज़्यादा अव्यवस्थित है कि मुझे यहां बैठ कर कुछ लिखे पढ़े महीनों बीत जाते हैं।