शनिवार, 13 अगस्त 2016

जैसी करो संगत ..वैसी चढ़े रंगत

इस तरह की बातें हम लोग बचपन से सुनते आ रहे हैं ..है कि नहीं? स्कूल की किताबों में भी एक सड़े हुए सेब से दूसरे सभी सेब खराब करने वाली कहानी ...ये सब बातें ही समझाया करती थीं।

बचपन से ही हिंदी फिल्में हमारे दिलो-दिमाग में छाई हुई हैं ...वहां भी यही दर्शाया जाता है कि परवरिश जिस तरह की होगी..हम वैसे ही बन जाते हैं...संस्कार कह लें, संगत कह लें या परिवेश कह लीजिए..बात एक ही है ..

अपनी ड्यूटी की वजह से बहुत से लोगों से मिलना होता है ...

एक महिला मरीज आई थीं कल ...५०-५५ के करीब की उम्र होगी..विधवा हैं...बिहार के मुंगेर जिले की मूलतः रहने वाली हैं...उस के बात करने का सलीका, उस की वेशभूषा से मुझे ऐसा लगता था जैसे वह टीचर हैं या अच्छी पढ़ी लिखी हैं...

आज मैंने पूछ ही लिया कि आप की शिक्षा कहां तक हुई है?

उस का जवाब सुन कर मैं हैरान रह गया...उसने बताया कि वह तो कभी स्कूल ही नहीं गईं...बिल्कुल छोटेपन में मां चल बसीं...इसलिए स्कूल जाने का उपाय हो ही नहीं पाया...

मैं इतना तो ज़रूर से कहा कि आप लगती तो खूब पढ़ी लिखी हैं...

उसने बताया कि उस के पिता रेलवे में थे..शादी से पहले रेलवे कालोनी में रहे, सब पढ़े-लिखे लोगों के साथ ही बैठना-उठना होता था..फिर शादी हो गई ..पति फौज में थे, उन के साथ नौकरी में सारा देश घूम लिया...तीन तीन साल तक बहुत सी जगहों पर रहे..बंगलौर, श्रीलंका का बार्डर, पंजाब......उस महिला ने बहुत से नाम गिना दिए।

आर्मी की नौकरी के दौरान भी सभी पढ़े-लिखे लोगों के साथ उठना-बैठना होता ही है ...बस, उन सभी लोगों से ही सीखा जो सीखा...

मैं और मेरा सहायक उस महिला की ये बातें सुन कर बहुत हैरान भी हो रहे थे....

एक बात तो है कि हम लोग जिस तरह के लोगों के साथ उठते बैठते हैं उन के जैसे ही हो जाते हैं...स्कूल कालेज के ज़माने में देखें तो जिन बच्चों का उठना बैठना जैसे बच्चों के साथ होता वे भी बिल्कुल वैसे ही बन जाते हैं ...पढ़ने लिखने वालों के साथ लगे रहने से बच्चे पढ़ाई में चमक जाते हैं...नावल, अश्लील साहित्य देखने-पढ़ने वालों का अपना एक ग्रुप बन जाता है ...और परिणाम भी उस के अनुसार ही आते हैं...

सत्संग की बातें बिल्कुल सही होती हैं कि सब एक जैसे हैं ...लोगों में किसी तरह का कोई भाव नहीं होना चाहिए....वह बात बिल्कुल ठीक है ..लेकिन जैसी शोहबत होगी वह अपना रंग छोड़ देती है ...

कईं उच्च घरानों के नौकरों-नौकरानियों के तेवर देखते ही बनते हैं....उन का रहन सहन ..बीच बीच में अंग्रेेज़ी झाड़ देना...हम अपने रहन-सहन-बोलवाणी को जाने-अनजाने बदलने लगते हैं जिस संगत के प्रभाव में हम होते हैं...

सत्संग  में एक बात समझाया करते हैं कि आप कितना भी बच कर चलिए कोयले की खान से बाहर निकलने तक कहीं न कहीं कालिख पुत ही जायेगी और इत्र की फैक्टरी में हो कर आइए...चाहे आप इत्र न भी छिड़किए...महक आ ही जाएगी...मैं इस बात से पूर्णतयः सहमत हूं....

हमारी ज़िंदगी में हमारी संगत की बहुत भूमिका है ....कहने वाले तो यहां तक कह देते हैं कि Better alone than in a bad company!

और एक बात, पढ़ाई ठीक है अपनी जगह है...पढ़ाई होनी चाहिए...लेेकिन पढ़ाई के साथ अगर गुड़ाई नहीं हुई तो सब बेकार...जैसे कि पहले के जमाने की हमारी नानीयां-दादीयां पढ़ी कम और गुढ़ी कहीं ज़्यादा हुआ करती थीं....रिश्तों की समझ, रिश्तों को निभाने का फन.....और भी बहुत कुछ ...उन का मानवीय पहलू आज की अपेक्षा कहीं ज़्यादा मजबूत हुआ करता था ...

बस आज उस महिला को मिलने के बाद पढ़ाई लिखाई औस संगत सोहबत पर ये विचार कलमबद्ध करने का मन हुआ, सो कर लिया...

इस पोस्ट को लिखते समय बार बार परवरिश फिल्म का वह गीत याद आ रहा है ...खुली नज़र क्या खेल दिखेगा दुनिया का, बंद आंख से देख तमाशा दुनिया का ...पता नहीं इस गीत का इस पोस्ट से कोई संबंध है भी कि नहीं! .. लेकिन फिर भी यह गीत इस फिल्म की तरह दिलकश तो है ही ....लीजिए आप भी सुनिए...