गुरुवार, 17 अप्रैल 2008

क्या आप को भी कभी ग्राहक राजा लगा है ?

अगर ग्राहक राजा है तो उस का यह हाल क्यों ?
वैसे तो शायद आजकल एक फैशन सा ही हो गया है या बदलते समय की मांग के कारण यहां वहां कईं संस्थाओं में कस्टमर किंग है.....अर्थात् ग्राहक राजा है....के बहुत बड़े बड़े पोस्टर लगे हुये दिख जाते हैं। मैं अकसर अपने आप से ही पूछता रहता हूं कि क्या यह एक तरह की फार्मैलिटी सी है या इस में कुछ ठोस बात भी है।
जनता का जिस तरह का हाल मैं विभिन्न जगहों पर देखता हूं ...वह देख कर मुझे तो कुछ और ही लगता हू। अगर मेरी बात पर ज़रा सा भी शक हो तो देश में कहीं भी उस पंक्ति की तरफ़ नज़र दौड़ा के देख लीजियेगा....सारी बात समझते देर न लगेगी। मैं एक ऐसी खिड़की पर जा कर बिजली का बिल जमा करता रहा हूं....( करता रहा हूं क्या, अभी भी करता हूं) जिस को खिड़की कहना ही बेवकूफ़ी होगी......वह तो सिर्फ़ आधे फुट के करीब का एक झरोखा सा है.....जो लगभग साढ़े-चार या पांच फीट की ऊंचाई पर है, उसी झरोखे के रास्ते से ही हमें अपना बिल उचित राशि के हाथ अंदर पकड़ाना होता है। यह जो सुरंगनुमा तंग सा रास्ता जिस से होकर हाथ उस सर्वेसर्वा बाबू तक पहुंचता है....यह रास्ता बहुत ही संकरा है....एक बार थमा देने पर आप आप अपने द्वारा जमा की गई राशि की काउंटिंग होती भी नहीं देख पाते। हां, कभी कभार जब बाबू कुछ पूछता है तो आप को उस झरोखे के लैवल पर झुकना पड़ता है.......अब सदियों से इतना झुकते आये हैं कि हमें तो इस तरह से बिना वजह ऐसी किसी भी ऐरी-गैरी जगह पर झुकना एकदम नागवारा है..........पता नहीं मुझे तो इस तरह से बिल जमा करवाने में बड़ी ज़िल्लत का सा अहसास होता है। पैदाइश तो चाहे आज़ाद हिंदोस्तान की है, लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों मैं इस तरह की लाइनों में लगे लोगों को देख कर गुलामी के अंधेरे दिनों की कल्पना ज़रूर कर लेता हूं।
कुछ दिन पहले बीमे की किश्त जमा करने गया......वहां पर भी एक तंग सी खिड़की....और बाकी सारी जगह पर कांच और उस के बाहर एक ग्रिल सी लगी हुई थी......सीधी सीधी बात करूं तो इन जगहों पर जाकर मेरा सिर दुःखने लगता है.........नहीं, नहीं, इसलिये तो बिलकुल नहीं कि मुझे लाइन में लगना पड़ता है। वैसे मैं तो इस सामाजिक बराबरी का इस हद तक पक्षधर हूं कि ऐसी किसी जगह पर लोग अगर मुझे पहचान कर लाइन में आने के लिये कहते हैं तो मैं ऐसा सोचना भी पाप मानता हूं.....और मैं इस नियम का अपनी ओपीडी में भी सख्ती से पालन करता हूं.......इस नियम के साथ अपने सारे कैरियर के दौरान न तो कभी समझोता किया और न ही कभी करूंगा।
इन पब्लिक जगहों पर जहां बिल वगैरह भरे जाते हैं .....क्या इन्हें डाका डलने का खौफ़ बना रहता है....लेकिन मैं तो ऐसी जगहों की भी बात कर रहा हूं जहां पर ये कलैक्शन-सैंटर किसी इमारत के अंदर होते हैं और आसपास सैक्यूरिटी गार्ड भी तैनात होते हैं।
अकसर आप ने भी पब्लिक जगहों पर देखा होगा कि जहां पब्लिक का किसी तरह का इंट्रेक्शन सा होता है वहां खिड़की के बाहर खड़े लोगों को एक खुशामदीद का अहसास नहीं हो पाता.......हां, हां, उन ग्राहक राजा है वाले नारों की बात अभी थोडा भूल ही जाइये.......बाहर, देखता हूं कि कुछ लोग विभिन्न कारणों से लाइन जंप कर ही लेते हैं। कहने को तो कईं जगह पर स्त्रियों की लाइन अलग से होती है लेकिन इन जगहों पर भी मैंने देखा है कि खिड़की अलग नहीं होती.................आप समझ गये ना, तो फिर कुछ अवसरवादी लुच्चे किस्म के शोहदों को अपने मन की थोड़ी सी मनमानी करने से इस से बेहतर मौका कहां मिलता है।
शायद एक नियम और जिस के अंतर्गत बैंक के गेट पर ज़ंजीरें सी बांधी जाती हैं....मुझे तो वह भी बेहद अजीब सा नियम लगता है .....न तो किसी की उम्र का ध्यान करो और न ही करो किसी की सेहत का ....बस कोरे नियमों की पालना करो। मैं ऐसा इसलिये भी लिख रहा हूं क्योंकि मैंने बहुत बार बुजुर्ग लोगों को इन संगलियों से उलझकर गिरते गिरते बचते देखा है....लेकिन क्या करे......उस की सुनने वाला है कौन !! आना है तो आ बैंक में, वरना घर बैठ.....तू नहीं तो और सही, आज के दौर में बैंकों में ग्राहकों की भला कोई कमी है।
चलिये, मैं तो कईं दिनों से मन में दबी बात को लिख कर हल्का सा हो गया हूं ....लेकिन फिर सोचता हूं कि इस से क्या फर्क पड़ेगा ......लेकिन उसी समय फिर उसी चीनी कहावत की तरफ़ ध्यान चला जाता है जो कहती है ......तीन हज़ार किलोमीटर के सफर की शुरूआत भी तो पहले कदम से ही होती है !!