बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

आखिर धरा क्या है इन किताबों में !


मुझे भी नहीं पता कि क्या धरा है किताबों में ....कुछ धरा भी है कि नहीं...लेकिन मुझे किताबें बहुत अच्छी लगती हैं ...सब तरह की किताबें ...इन्हें पढ़ना भी भाता है क्योंकि छुटपन से ही नंदन, चंदामामा, लोटपोट...धर्मयुग..और भी पता नहीं क्या क्या पढ़ते आ रहे हैं..अच्छा लगता था, और कोई दिललगी का ज़रिया नहीं था...घर में सब लोग कुछ न कुछ पढ़ते ही दिखते थे ...मां रोज़ाना दुर्गा का पाठ करती दिखती या रामायण पढ़ती ..और फिर उसे बड़े सम्मानपूर्वक किसी केसरी कपड़े में लपेट कर एक लकड़ी के स्टैंड पर रख देती...

घर में वह लकड़ी का स्टैंड अभी भी धरा-पड़ा होगा ..लेकिन अब घर में धार्मिक किताबें पढ़ने वाला कोई नहीं है ...क्योंकि हम ज़रूरत से ज़्यादा पढ़ लिख जो गए ...इसलिए जब मैंने दो दिन पहले अपनी रूटीन चहलकदमी के दौरान एक दुकान पर वैसा ही एक लकड़ी का स्टैंड देखा तो मैंने उसे खरीद लिया .. और किताबें खरीदने के अपने बेहद शौक के चलते किसी शख़्स द्वारा व्याख्या की हुई गीता भी इस के साथ ही खरीद ली ...पहले ही से बहुत सारी गीताएं जमा कर रखी हैं ...कभी ढूंढूंगा उन सब को ...बहरहाल, मुंबई के भारतीय विद्या भवन, गिरगांव चौपाटी में गीता ज्ञान के एक कोर्स भी कईं बरस पहले अपना नाम लिखवा दिया ..हर इतवार के दिन सुबह क्लास लगती थी ..संस्कृत से आसान हिंदी में इसे हमें पढ़ाया जाता था ....लेकिन चंचल मन का क्या करूं..कुछ महीने गया बड़े शौक से ...लेकिन कुछ भी पल्ले ही न पड़ रहा था ..फिर जाना बंद कर दिया...और गीता के ज्ञान से वंचित रह गया...मेरी बकट-लिस्ट में गीता को बांचना है तो लेकिन पता नहीं कब वह वक्त मिलेगा ...वैसे भी इन साठ सालों में फिल्मी गीतों का इतना ज्ञान इतना अंदर भरा जा चुका है कि उस में शायद और कुछ ठूंसने की जगह ही नहीं बची....हां, बालीवुड की मसाला फिल्मों में जो गीता का ज्ञान बांटा जाता है, वह अच्छे से समझ में आ जाता है .

मां अपने जीवनकाल के आखिरी तीन चार महीने बेहद दर्द में थी ..पेनक्रियाटिक कैंसर की वजह से ...बेचारी ने गर्म पानी की सिंकाई कर कर के अपने पेट झुलसा लिया - बिल्कुल काली पड़ गई थी वह जगह जहां पर हॉट-वॉटर बाटल रखे रखती थी ...लेकिन चुपचाप दर्द सहती थीं ..पढ़ना लिखना इस दुनिया से कूच कर जाने से दो दिन पहले तक भी जारी ...पता नहीं जाने से एक सप्ताह पहले मां को क्या विरक्ति हुई ..बेड के पास ही धरी पड़ी कुछ धार्मिक किताबों को ओर इशारा कर के कहने लगीं...बिल्ले, हटा इन को ...और मुझे मुंशी प्रेम चंद की कहानियों की किताबें दे ...मेरे पास पूरा सेट था...वह बड़े चाव से वह दो-तीन दिन पड़ती रहीं ...

किताबों का भी क्या है, किसी के लिखे कोट्स भी क्या है ...मुझे तो ऐसे लगता है कि सब कुछ मेरे मूड पर निर्भर करता है ..कभी कभी मुझे लगता है कि आखिर है क्या इन किताबों में ...ठीक है, उन लोगों के अपने तजुर्बे होंगे ...वहां तक तो चलिए ठीक है ...तजुर्बे बांटने के लिए होते हैं ..लेकिन कोई दूसरे के तजुर्बों से फायदा तो कम ही ले पाता है ...लेकिन कुछ किताबों के लिखने वाले जीने की कला सिखाने लगते हैं ...वह भी लिखने वाले के ऊपर है ...कईं बार तो लगता है कि कमबख्त यह तो ढोंगी है, यह क्या सिखाएगा ...फिर उस किताब को दूर रख देता हूं ...

और कभी कभी लगता है कि किताबें हमारा सच्चा दोस्त हैं ...सच में दोस्त तो हैं ही...मैंने न्यूयार्क की लाइब्रेरी के फुटपाथ के बाहर धातु की कुछ पट्टियां फिक्स हुई देखीं ...मुझे वे सब पढ़ कर बहुत अच्छा लगा ...उस में एक फट्टी पर लिखा था कि किताबों को पढ़ना गुज़रे दौर के लोगों के साथ मिलने जैसा है ..कितनी बड़ी बात है ...सच में बात सही तो है ...मैंने भी अपनी पसंद की किताबें जमा तो कर रखी हैं लेकिन पता नहीं इन के बारे में चिढ़ा रहता हूं ...शायद इसलिए कि मुझे इन को पढ़ने का वक्त ही नहीं मिलता ...नहीं नहीं, मैं टीवी नहीं देखता, हमारे यहां टीवी कोई भी नहीं देखता, और ऐसा भी नहीं है कि मोबाइल ही में हर वक्त घुसे रहते है ं...बस, ड्यूटी कर के घर आओ तो थक जाता हूं ...आराम फरमाने लगता हूं ...कोई किताब जैसे ही हाथ में लेता हूं नींद घेर लेती है ...और वह पन्ना वहीं का वहीं रह जाता है ..


मुझे यह लकड़ी का स्टैंड देख कर यही लगने लगा कि हम लोग भी कितना ज़्यादा बेकार की रूढ़ियों मे जकड़े पड़े हैं ...बहुत अच्छी बात है कि हम धार्मिक किताबों की इज़्ज़त करते हैं, उन्हें बड़े कायदे से रखने के लिए, पढ़ने के लिए हम इस तरह के स्टैंड का इस्तेमाल करते हैं ...बहुत अच्छी बात है ...लेकिन कभी हम इस तरह के स्टैंड पर रख कर दूसरी किताबें रख कर पढ़ने की क्यों नहीं सोचते! - और भी बहुत सी किताबें हैं जिन का बहुत ज़्यादा सम्मान करते हैं ...वे भी हमें रास्ता दिखाती हैं, मन को बहलाती हैं ...दिमाग की बत्ती जलाती हैं ...मैं समझता हूं कि ग़नीमत है कि हम इस तरह के लकड़ी के स्टैंड (हम लोग इसे गुटका कहते रहे हैं...) पर गैर-धार्मिक किताब रखने को कोई पाप करने की श्रेणी में तो नहीं रखते ...लेकिन फिर भी इन पर दूसरी किताबें रखते भी तो नहीं...लेकिन मैं आज से रखा करूंगा ...आज भी मैंने इस पर रीडर-डाइजेस्ट की एक किताब रखी जिसे में कभी कभी उठा लेता हूं ...पचास साल पुरानी है ..लेकिन उस मेंं  लिखी बहुत सी बातें आज भी उतनी ही मौज़ू हैं जितनी उस दौर में रही होंगी ...अच्छा लगता है ... एक पन्ना भी पढ़ लेते हैं तो मन कुछ तो ठहर जाता है, वरना यह बंदर यूं ही बिना वजह उछल कूद मचाए रखता है....

कुछ नहीं है इस पोस्ट में ...क्योंकि यह भी एक डॉयरी लिखने जैसा ही है ..किसी को कोई नसीहत देना, अच्छे-बुरे की तरफ़ इशारा करना इस का कतई मक़सद है भी नहीं ...हर बंदे की अपनी अपनी यात्रा है ....उस ने अपने सबक सीखने हैं जो वक्त ने उसे सिखाने हैं ...उसे अपने ढंग से अपने सवालों के जवाब ढू़ंढने हैं ..लेकिन मज़ाक में कहते हैं न ..बहुत सही बात है कि जब मैंने ज़िंदगी के कुछ सवालों के जवाब ढूंढ लिए तो ज़िंदगी ने फ़ौरन सवाल ही बदल दिए ....

तू भी भाई कोई किताब ही उठा लेता ...

यही होता है हम सब के साथ, यही है ज़िंदगी ....इसे ज़िंदादिली से जी कर छुट्टी करनी चाहिए, ज़्यादा कोई हिसाब किताब का फायदा है नहीं...जैसे इस गीत में धर्मेन्द्र ज्ञान बांट रहे हैं ...वैसे यह गीत जिस महान बंदे ने लिखा है उस का नाम है आनंद बख्शी ....और उन के बेटे राकेश बक्शी हमें बताते हैं कि उन के डैड को गीता पर, वेदों पर अगाध श्रद्धा थी ...यह उन के गीतों से झलकता भी है ....तो फिर फिक्र की बात ही क्या है, हमें गीताज्ञान एक रास्ते से समझ में नहीं आया तो दूसरे रास्ते से समझ में आ गया ...समझ भी ऐसा आया कि ये गीत रट गए.....शायद कहीं न कहीं आत्मसात हो कर, डीएनए में ही रच बस गए....😎