शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

ज़र्रे ज़र्रे में हैं किस्से-कहानीयां ...बात तो समेटने भर की है ...



दरियादिली …..


“उस लेडी को मैंने जानबूझ कर मना किया”….मैं जिस आटोरिक्शा में बैठा, उस का ड्राईवर मेरे बैठते ही अपने आप बोलने लगा…


मैंने दूर से देखा तो था कि एक महिला उस से कुछ पूछ रही थी, फिर अचानक पिछले रिक्शा की तरफ़ चली गई…


“ऐसा भी क्या हो गया कि मना कर दिया….?”


“यह मैडम जब भी रिक्शा में बैठती है, हैरान कर देती है, तेज़ चलाओ, और तेज़ चलाओ…जब तक अपने ठिकाने तक आटो पहुंच नहीं जाता, इन का बार बार चिल्लाना - देखो, वह गाड़ी भी आगे निकल गई, और तुम कुछ कर ही नहीं रहे हो..”


“अच्छा…यह बात है …”


“हां, जब तक वह रिक्शा में बैठी होती हैं, उन की इस बार बार की चिक-चिक से मेरा सर दुखने लगता है…मैंने कुछ दिन पहले यह ठान लिया कि आगे से इस मैडम की सवारी नहीं लेनी….

बार बार एक ही बात कि मैं लेट हो जाऊंगी…

लेट हो जाएंगी तो भई वक्त पर निकलिए घर से ….मेरे पास तो एक रिक्शा ही है, मैं इसे कैसे उड़ा कर पहुंच दूं….

चाहे भाड़ा तो 200 रुपए का हो जाता है, लेकिन जहां पर मैडम का ऑफिस है वहां से वापसी पर भाड़ा नहीं मिलता….” बस, इतनी बात कर के वह चुप हो गया…


मुझे लगा उसे अपने मन की बात बाहर निकाल के सुकून सा मिल गया …

लेकिन मुझे क्या पता था…कि यह तो ट्रेलर था, पिक्चर तो अभी बाकी थी….


जाते जाते अचानक एक निर्माणाधीन बिल्डींग की तरफ़ इशारा कर के बताने लगा

“मेरे पास सिर्फ़ रिक्शा चलाने के लिेए आधा घंटा ही है, उस के बाद मैं इस बिल्डिंग वालों के लिए काम करता हूं….”


“क्या वहां पर सिक्योरिटी का काम करते हो…?”


“नहीं, नहीं, ऐसा कुछ नहीं….यह बिल्डिंग उस हीरोईन की बन रही है…वह तो बाहर गांव रहती हैं, उन की बेटी ही यह बिल्डिंग का काम करवा रही हैं….बिल्डिंग बन रही है, इसलिए वह पास ही किराये पर रहती हैंं…”


उस हीरोईन की बेटी को संबोधन करते वक्त वह उस के नाम के साथ दीदी हर बार लगा रहा था….


“वैसे वहां पर काम क्या करना होता है …?”


“कईं काम हैं, गाय के लिए चारा लेने जाना, कुत्तों को टहलने ले कर जाना, तरह तरह के घरेलू इस्तेमाल की चीज़ें लाना ….इत्यादि …

दीदी, मुझे ठीक सुबह साढ़े चार बजे फोन कर देती हैं….एक तरह से अलार्म होता है …वह तो तीन बजे उठ जाती हैं….

मैं उठ कर फ्रेश हो कर नहा धो कर दीदी के यहां पहुंच जाता हूं…

वहां से दीदी मेरे रिक्शा में बैठ कर वहां जाती हैं जहां पर गाय के लिए चारा बिकता है ….गोरेगांव से घास आता है वहां पर …पांच हज़ार रुपए का घास लिया जाता है …”


“पांच हज़ार रुपए का घास महीने का …?”


“नहीं, नहीं, रोज़ पांच हज़ार रुपए का घास ….और मेरा वहां काम होता है, घास के जो बड़े बड़े पैकेट होते हैं उन की गिनती करना और उन को गाय के मालिकों में बांट देना….”



(बहुत से लोगों को नहीं पता होगा कि मुंबई में जगह जगह पर, चौराहों के पास, या बाज़ारों में गाय बंधी हुई दिखती हैं….जिन के पास उन के मालिक या मालकिन बैठी होती है, बहुत से लोग गाय के चारा खिलाने के लिए वहां आते हैं, दस, बीस, पचास रुपए का चारा अपने हाथों से खिलाकर पुण्य के भागी बनते हैं और आगे निकल जाते हैं….उस गाय के स्वामी ने अपने पास इस घास के चारे के साथ साथ गाय के लिए अलग तरह की खाद्य सामग्री भी रखी होती है …जैसे भूसे से बने लड्डू टाइप के मिष्ठान, और भी कुछ कुछ चीज़ें …स्वामी ने पैसे लेने हैं और पुण्याभिलाषी ने यह सब कुछ गाय को खिला देना है ….शाम तक अच्छी कमाई हो जाती है गाय के स्वामी की, और गाय को दोहने से जो दूध मिलने वाला है, वह तो हुआ बोनस….


यह इतनी लंबी बात मैंने इसलिए लिखी कि यह जो गाय के स्वामी घास बेचते हैं यह भी उन को इसी तरह से किसी दानवीर ने दान ही में दिया होता है, मुझे आज उस ड्राईवर की बात सुन कर यही लगा….)


“और घास वाला काम निपटाने के बाद फिर और क्या काम करते हो…?”


“कईं काम होते हैं घर में …बाज़ार से कुछ खरीदारी कर के लाना, मैडम के पास जो कुत्ते हैं उन में से कुछ को मैं टहलाने ले जाता हूं….”


“कितने कुत्ते हैं..?”


“35 कुत्ते हैं…”


“बेचने का काम भी करते हैं…?”


“नहीं, नहीं, उन का शौक है, जानवरों से बहुत प्रेम करते हैं….35 कुत्ते हैं और 29-30 बिल्लीयां हैं….अब कभी किसी कुत्ते की तबीयत ठीक नहीं, कभी किसी बिल्ली की ….उन को डाक्टर के पास भी मैं ही लेकर जाता हूं….”


“अच्छा, यह सब तुम करते हो …!”


“और यही नहीं, इस इलाके में जितने भी पालतू कुत्ते हैं उन के लिए दीदी दिन में तीन बार मटन बनवा कर उन में बंटवाती हैं….”


“वैसे तुम्हें क्या मिलता है उन के यहां से …?”


“मेरा यही है कि मैं जैसे ही वहां जाता हूं, जहां तक वहां रहता हूं और उन के काम करता रहता हूं, मेरे रिक्शे का मीटर डाउन ही रहता है, कभी रोज़ के एक हज़ार मिल जाते हैं, कभी डेढ़ हज़ार…”


“बहुत अच्छे…”


मेरी मंज़िल आ चुकी थी, मैं उसे भाड़ा दे भी चुका था…लेकिन उस की बात लगता है अभी पूरी नहीं हुई थी, मुझे भी इतनी जल्दी नहीं थी कि मैं उस की बात बीच ही में काटने की गुस्ताखी कर देता …


“दीदी बहुत अच्छी हैं, गरीबों के साथ बहुत हमदर्दी रखती हैं, मेरे भी कपडे़, जूते …सभी वही दिलाती हैं, कुछ अरसा पहले मेरे गांव के एक रिश्तेदार की टांग टूट गई, मैं दीदी के पास ले कर गया तो दीदी ने उस के इलाज का पूरा खर्च उठाया …दो ढ़ाई लाख रुपए लग गए थे ….दीदी का दिल उन की मम्मी से भी बड़ा है ”


“इस पूरी बिल्डिंग में वे लोग खुद ही रहेंगे या भाड़े पर उठा देंगे…?”


“खुद ही रहेंगे, तीन चार माले तो उन लोगों को अपने लिए चाहिए. एक कुत्तों के लिए रखेंगे और एक नौकरों के रहने के लिए…..”


“बढ़िया है ….लगे रहो इस काम पर …बढ़िया लोग नसीब से मिलते हैं…वैसे यह आटोरिक्शा अलग से इस तरह कब चलाने का वक्त निकाल पाते हो ?”


“जी हां, जैसे ही वहां दीदी के यहां कोई काम नहीं होता, मैं एक दो घंटे के लिए बीच में रिक्शा चला लेता हूं…”


उस को मिलने के बाद मैं सोच रहा था कि महानगरों में इन रिक्शा वालों की भी कितनी बड़ी भूमिका है, घर-बाहर छोड़ कर कैसे परदेस में रोज़ी-रोटी के लिए पहुंच जाते हैं और अपने अच्छे व्यवहार से, ईमानदारी से लोगों के दिलों में जगह बना लेते हैं….यह ड्राईवर से बात करने के बाद मुझे उस रिक्शा वाले का ख्याल आ गया जो घायल हालात में सैफ अली खां को रात के दो बजे अस्पताल लेकर गया था…..


अच्छा, पूरी स्टोरी खत्म हुई …अभी के लिए …लेकिन बात यह है कि हर इंसान के पास बहुत सी स्टोरीयां हैं, जिन्हें वह कहने को बेताब है …लेकिन सुनने वालों के पास वक्त नहीं है…..कहानीयां, किस्से सिर्फ़ इंस्टाग्राम पर, फेसबुक पर ही नहीं बुनी जाती, असल ज़िंदगी में भी एक से एक प्रेरणादायी कहानी-किस्से हैं, जिन्हें अभी कहा नहीं गया, सुना नहीं गया….शायद इस का कारण यह भी है कि लोग अब बेमतलब के किसी के साथ बोलना-बतियाना नहीं चाहते….अगर बात ही नहीं करेंगे तो भी बात आगे कैसे चलेगी, बात से बात कैसे निकलेगी…..मुझे पंजाबी की एक बहुत बड़ी प्रोफैसर मिसिज़ बराड़ की बात याद आ रही है जिस में वह कहती हैं कि आज कल की पीढ़ी के पास बातें हैं ही नहीं, बस हूं, हांं, यस, नो, हॉय, बॉय हैलो…..और कुछ नहीं, इसलिए इस पीढ़ी की बातें एक दम सिमट गई हैं…..सुकड़ गई हैं।


यह जो ऊपर मैंने उस रिक्शेवाले से हुआ वार्तालाप आप तक पहुंचाया, मैंने इसमें न कुछ जो़ड़ा है न ही घटाया है ….क्योंकि उस से मुझे क्या हासिल …और जितने विश्वास से वह यह बातें बता रहा था, उस दौरान भी मुझे नहीं लगा कि कुछ बना रहा है…..उसे भी यह सब गढ़ने से क्या मिलने वाला था….रिक्शा के भाड़े के सिवाए…..।


अभी मैंने यह लिखते लिखते गूगल से भी पूछ लिया ….जितनी बातें गूगल ने बताईं उन से रिक्शा वाले की कही बातों की पुष्टि ही हुई….अब यह तो गूगल बताने से रहा कि किस के घर में कितने कुत्ते हैं और कितनी बिल्लीयां. …..