शनिवार, 23 मई 2015

लखनऊ का 44 डिग्री पारा एक सबक याद करा गया...

कल के अखबार में पढ़ा था कि परसों लखनऊ का पारा ४३ डिग्री था...आज के पेपर में पढ़ा कि कल का पारा ४३.९ डिग्री सेल्सियस था। दोनों दिनों में चलने वाली लू का मैं भी गवाह हूं।

मेरी बीवी मुझे बार बार याद दिलाती हैं कि बाहर कहीं भी गाड़ी पर जाया करो...झुलसने वाली गर्मी में भी पता नहीं आप को स्कूटर चलाना क्यों अच्छा लगता है!

अब इस का मैं क्या जवाब दूं....वैसे भी मुझे शहर में स्कूटर से चलना बहुत अच्छा लगता है...जहां चाहा उसे खड़ा कर दिया...जितनी भी तंग जगह हो तो भी यह तो निकल ही जाता है। रही बात झुलसने वाली ...२२-२३ बरस तक साईकिल पर झुलसते रहे ..फिर पिछले २५ बरसों से स्कूटरों पर झुलस रहे हैं तो ऐसे में गर्मी में झुलसने से कोई परहेज नहीं....बस, थोड़ी सावधानी बरतनी ज़रूर चाहिए...यह समय ने सिखा दिया है।

वैसे भी अाजकल हर जगह पार्किंग की इतनी ज़्यादा सिरदर्दी है कि कहीं भी जाने का मजा कार में जाने से अधिकतर तो किरकिरा हो जाता है.....हर तरफ से हार्न ...यहां पार्किंग नहीं, वहां नहीं, इससे अच्छा है घर में बैठ कर ही तारक मेहता का उल्टा चश्मा लगा लिया जाए।

जब स्कूल जाते थे ..सातवीं कक्षा तक पैदल ही जाते थे...मां कितनी बार कहा करती थी कि सिर पर एक छोटा सा तोलिया गीला कर के रख लिया करो...स्कूल से वापिस आते हुए..नहीं तो लू लग जाती है. हम ने कभी उन की यह बात नहीं मानी...क्योंकि हमें सिर पर तोलिया गीला कर के रखने से शर्म लगती थी।

यहां तक की रूमाल भी कभी सिर पर नहीं रखा ...जिस समय हम लोग दोपहरी में घर आया करते थे...हां, एक काला चश्मा हुआ करता था घर में ....कभी कभी चार पांच मिनट के लिए उसे ज़रूर लगा लिया करते थे...उसे भी लगाने से झिझक ही होती थी....लोग क्या कहेंगे...इतना फैशन क्यों, हम लोगों को गर्मी से ज़्यादा इन कमबख्त लोगों की ज़्यादा चिंता हुआ करती थी।

दोस्तो, मुझे सब से समझदार वे लोग लगते हैं जो अपने सिर पर अंगोछा-वोछा बांध कर गर्मी के दिनों में बाहर निकलते हैं.....कईं बार देखता हूं कि किसी किसी ने एक तोलिया ही सिर पर रखा होता है.....गीला किया होता है...बहुत अच्छी बात है।

आज से १०-१५ बरस पहले हम लोग जयपुर में जाते थे तो देखा करते थे कि वहां पर युवतियां स्कूटर चलाते हुए अपनी बांहों पर एक कपड़ा चढ़ा कर रखा करती थीं और मुंह पर भी एक दुपट्टा अच्छे से लपेट कर रखा करती थीं और अपने कपड़ों के ऊपर अपने भाई की कोई कमीज़ चढ़ा लिया करती थीं......हमें शुरू शुरू में यही लगता था कि यह सब इन्हें चमड़ी को काला पड़ने से बचाने के लिए करना पड़ता होगा.....जी हां, वह बात भी ठीक है लेकिन आज के दौर में ये लू के थपेड़े ही कुछ इस तरह के हैं कि जितना इन से बचा जा सके उतना ही ठीक है।

आज कर देखते ही हैं कि बहुत से लोग अपने चेहरे को अंगोछे या पतले दुपट्टे आदि से ढंक कर ही निकलते हैं। अच्छी बात है।

मुझे बिल्कुल अच्छे से याद है कि स्कूल के दिनों में या फिर साईकिल के दिनों में मैं जब भी बाहर गर्मी से आता तो मेरा सिर दुःखने लगता था...टोपी तो आज से २०-२५ बरस पहले बिकने लगी थीं.....तब तक हम लोग २५ साल तक यह यातना झेल चुके थे.....रंगीन चश्मे वश्मे भी लोग २०-२५ बरस पहले ही ज़्यादा पहनने लगे थे ..पहले तो लोग इसे शौकीनी कहा करते थे।

मुझे याद है कि १९८४-८५ के दौरान जब मैं येज्दी मोटरसाईकिल चलाता था तो उन दिनों मुझे बाटा कि एक दुकान से पावर का एक माथे पर टिकाने वाला कवर सा मिल गया था...उस से धूप से बड़ी राहत मिला करती थी....प्लास्टिक का था ...जैसा आज कल लोग किसी मैच को देखने जाते समय कार्डबोर्ड का माथे को कवर करने वाला एक जुगाड़ रख लिया करते हैं।

हां, अभी मुझे आप से कल का अपना अनुभव शेयर करना है....कल मुझे दोपहर में १०-१५ मिनट स्कूटर चला के कहीं जाना  था....मैंने थोड़ा आलस्य किया कि अब कौन हेलमेट निकाले डिक्की में से...सफेद टोपी तो पहना ही हूं...ऐसे ही हो कर आता हूं.......दोस्तो, यकीन मानिए...जितनी गर्मी उन लू के थपेड़ों से मुझे कल लगी ...मुझे यह सारी बातें जितनी मैंने ऊपर लिखी हैं अनायास याद आ गईं....और मुझे सड़क पर चलते चलते ऐसे लग रहा था जैसे कि मैं किसी तंदूर के बिल्कुल सामने बैठा हूं।

वैसे भी आज कर अधिकतर हेल्मेट चेहरे को कवर कर लेते हैं और लू का इतना पता नहीं चलता .. फिर भी थोड़ी सी जगह भी खाली हो तो उसमें से जाड़े और लू के दिनों में हालत खराब हो जाती है.....मुझे पिछले दिनों में यह भी समझ आने लगा है कि लोग हेल्मेट डाले हुए भी गले के आसपास अंगोछा क्यों लपेट लिया करते हैं.......आज से मैं भी कोशिश करूंगा कि अंगोछे को साथ लेकर और पानी से गीला कर के ही चला करूं।


हां, तो दोस्तो मेरा कल का सबक बस यही था ....कल इतनी ज़्यादा गर्मी थी और अचानक ध्यान आ गया कि आज तो गुरू अर्जुन देव जी का शहीदी दिवस है.....जगह जगह पर ठंडे-मीठे पानी की शबीलें लगी हुई थीं.....जहां तक मुझे याद है कि पहले यह दिन लगभग ५ जून के आसपास आया करता था...तो पंजाब में इस दिन अनेकों जगह पर रूह-अफजा, शर्बत, मीठे धूप के स्टाल और काले चने का लंगर बांटा जाता था.....कल भी यहां पर खूब लंगर लगा......लेकिन पता नहीं अब हम लोग वेस्टेज भी बहुत करते हैं.....बहुत ज़्यादा ......और उस से भी ज़्यादा गॉरबेज के अंबार लगा देते हैं। मुझे नहीं पता हम लोग कब सुधरेंगे....सुधरेंगे भी या यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहेगा।

 बल्ले बाऊ तेरे....शाबाश....आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है
लेिकन यह बाऊ तो अपनी बातें सुन कर ही सुधर गया लगता है, कल वाट्सएप पर यह तस्वीर दिखी कि इसने गर्मी से और दुर्घटना से बचने का एक अनूठा जुगाड़ कर लिया है....

इतनी ज़्यादा गर्मी में मेरे विचार में पहाड़ों की ठंडी ठंडी बातें सुनते हैं.......