शनिवार, 23 जुलाई 2011

अब तंबाकू की साधारण पैकिंग करेंगी जादू






आस्ट्रेलिया को इस बात की बधाई देनी होगी कि वह पहला ऐसा देश बन गया है जिस ने ऐसा कानून बना दिया है कि सभी तंबाकू प्रोडक्ट्स को बिल्कुल प्लेन पैकिंग (plain packaging) कर के ही बेचा जाए.... कोई ट्रेडमार्क नहीं, मार्केटिंग की और कोई चालाकी भी नहीं होगी अब इन पैकेटों पर।

इस में कोई दो राय हो ही नही सकती कि अगर तंबाकू प्रोड्क्ट्स की पैकेजिंग बिल्कुल प्लेन –साधारण, बिना तड़क-भड़क वाली कर दी जायेगी तो बेशक यह जनता के हित में ही होगा। और अगर पैकिंग ही बिल्कुल सीधी सादी होगी तो उस पैकिंग पर दी जाने वाली सेहत संबंधी चेतावनियों का असर भी ज़्यादा पड़ेगा ...और पैकेट पर ट्रेड-वेड मार्क न होने से यह जो Surrogate Advertising का गंदा खेल चल निकला है उस पर भी काबू पाया जा सकेगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस बात को जोर से कहना शुरू कर दिया है कि तंबाकू के विरूद्ध छिड़ी जंग में इस की पैकिंग का बहुत महत्व है। और जैसे विभिन्न देश तंबाकू के ऊपर तरह तरह का शिकंजा कस रहे हैं, परचून में बिकने वाले तंबाकू की पैकिंग (retail package) प्रोडक्ट्स और प्रोफिट के बीच एक अहम् लिंक बन चुकी है। इसलिये अन्य देशों से यही गुज़ारिश की जा रही है कि वे भी अपने लोगों की सेहत के लिये प्लेन-पैकेजिंग को ही शुरू करें।

अनुमान है कि भारत में 35 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में तंबाकू का सेवन करते हैं। तंबाकू के उत्पादों पर ऩईं ग्राफिकल चेतावनियों का मामला दिसंबर 2011 तक तो ठंडे बस्ते में ही पड़ा हुआ है। काश, इस के साथ कुछ ऐसा पैकिंग को बिल्कुल फीका, नीरस करने का भी कुछ आदेश आ जाए.... कोई बात नहीं, दुआ करने में क्या बुराई है!

बहुत बार ऐसा भी होता है कि पैकिंग जिस रंग में होगी, उस से ही लोग अनुमान लगा लेते हैं कि यह उन की सेहत के लिये कैसा है, जैसे कि सिगरेट पैकेट के ऊपर हल्के रंग होने से उपभोक्ता समझने लग जाते हैं कि यह प्रोडक्ट भी हल्का-फुल्का ही होगा, इसलिए सेहत के लिये भी कुछ खास खराब नहीं होगा।

लेकिन आस्ट्रेलिया ने ऐसा शिकंजा कसा है इन शातिर मार्केटिंग शक्तियों पर कि वहां पर उन्होंने यह भी तय कर दिया है कि कौन से कलर पैकेट की सभी साइड़ों के लिये इस्तेमाल किये जाएंगे और उन की फिनिश कैसी रहेगी। ...... Great job, Australia! … an example that world should follow!! …

भारत में भी इस तरह के पैकिंग नियम बनाये जाने की सख्त ज़रूरत है लेकिन यह ध्यान रहे कि कहीं चबाने वाला तंबाकू इन नियमों की गिरफ्त से न बच पाए क्योंकि वह भी इस देश में एक खतरनाक हत्यारा है।

पैकिंग से दो बातों का ध्यान आ रहा है ... अमृतसर में डीएवी स्कूल हाथी गेट के पास ही एक तंबाकू वाली दुकान थी .. हम लोग पांचवी छठी कक्षा में उस के सामने से गुज़रते थे तो हमारी हालत खराब हो जाय़ा करती थी ... हमें यह भी नहीं पता होता था कि यहां बिकता क्या है, बस बड़े बड़े गोल गोल काले धेले (यह पंजाबी शब्द है, मुझे पता नहीं हिंदी में इसे क्या कहते हैं) दिखा करते थे ..और हमें वहां से गुज़रते वक्त अपने नाक पर रूमाल रखना पड़ता था। बाद में चार पांच साल बाद पता चला कि यहां तो तंबाकू बिकता है ..हम लोग उस दुकान के आगे से ऐसे बच के निकलते थे जैसे वह अफीम बेच रहा हो ....बस, ऐसे ही तंबाकू की जात से ही नफ़रत हो गई। आज सोचता हूं तो समझ में आता है वह तंबाकू हुक्का पीने वाले खरीद कर ले जाते होंगे।

और दूसरी बात, लगभग दस साल पहले जोरहाट आसाम में एक नवलेखक शिविर में शिरकत करने गया .. वहां पर गुटखे के पैकेट सड़कों पर ऐसे बिछे देखे जैसे किसे ने चमकीली चटाई बिछा दी हो ...और पैकिंग बहुत आकर्षक ...मैंने वहां बिकने वाले लगभग 40-50 ब्रांड के गुटखे खरीदे ...उन की पैकिंग पर एक स्टडी की ... प्रकाशित भी हुई थी .... पैकिंग इतनी शातिर, इतनी चमकीली की गुटखे पर लिखी चेतावनी की तरफ़ पहले तो किसी का ध्यान जाए ही नहीं और अगर चला भी जाए तो कोई उसे पढ़ ही न पाए.... किसी किनारे में छुपा कर लिखा हुआ.... और अधिकांश पैकेटों पर इंगलिश में। काश, कोई इनको भी पैकिंग की सही राह दिखाए ......चलिये, आज आस्ट्रेलिया ने पहल तो की है, देखते हैं आगे आगे होता है क्या !!
कभी इधर भी नज़र मारिए ...
तंबाकू का कोहराम

बिना डाक्टर की पर्ची के दवाईयां न बेचने पर इतना बवाल!

कुछ दिन पहले मैं एक खबर की चर्चा कर रहा था जिस से पता चला था कि इंदौर में डाक्टर दो पर्चीयां बनाया करेंगे –एक मरीज़ के पास रहेगी और दूसरी कैमिस्ट अपने पास रख लिया करेगा। लेकिन आज सुबह पता चला कि दिल्ली में भी कुछ ऐसा ही होने जा रहा है जिस की वजह से वहां कैमिस्टों ने खासा बवाल मचा रखा है।

कैमिस्टों का कहना है कि दिल्ली में यह जो ओटीसी दवाईयों के ऊपर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव है, यह उन के लिए बहुत कठिन काम है। ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों के बारे में उन का कहना है कि उन की जितनी कुल दवाईयां बिकती हैं उन का 60 प्रतिशत तो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां ही तो होती हैं...ऐसे में कैमिस्ट का एक वर्ष तक उन सभी डाक्टरी नुस्खों को संभाल के रखना संभव नहीं है।

न्यूज़ में यह भी लिखा है कि कुछ 16 ऐसी दवाईयां जिन्हें बेहद आपातकालीन परिस्थितियों (life-threatening conditions) में ही इस्तेमाल किया जाता है जैसे कि कैंसर एवं दिल के रोग से संबंधित किसी एमरजैंसी के लिये – इन को भी केवल अस्पताल में स्थित दवाई की दुकानों में ही बेचे जाने का प्रस्ताव है। पढ़ तो मैंने यह लिया लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आया कि अगर ऐसा कुछ सरकार कर रही है तो इस में आखिर बुराई क्या है!

हां, कैमिस्ट एसोशिएशन का यह भी मानना है कि इस तरह की व्यवस्था हो जाएगी तो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों की कालाबाज़ारी शुरू हो जाएगी।

चलिए खबर में लिखी बातों की बात तो हो गई...अब ज़रा मैं भी आपसे दो बातें कर लूं।

ऐसा है कि जितना स्वास्थ्य दुनिया में लोगों को इन ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों ने खराब किया है, शायद ही किसी अन्य दवाई ने किया है। बस नाम पता होना चाहिए...जिस की जो मर्जी होती है कोई भी सख्त से सख्त ऐंटीबॉयोटिक कैमिस्ट से खरीद कर लेना शुरू कर देता है ....बीमारी का पता नहीं, आम मौसमी खांसी जुकाम के लिये भी ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां लेना आम सी बात है। ऐसी दवाईयों का पूरा डाक्टर की सलाह से न करना भी आज विश्व के लिये एक बहुत बड़ी चुनौती है। घटिया, नकली दवाईयां, तरह तरह की हर जगह होने वाली सैटिंग ... खुले ऐंटीबॉयोटिक के नाम पर अजीबो गरीब साल्ट बेचे जाना एक आम सी बात हो गई है... ऊपर से यह जैनरिक और एथिकल दवाईयों का पंगा ... जैनरिक दवाईयां ---जिन के उदाहरणतयः प्रिंट तो रहेगा 60 रूपये की दस कैप्सूल की स्ट्रिप –लेकिन आप के कैमिस्ट से संबंधों के अनुसार वह 30 की मिले, 18 की मिले या आठ रूपये की ही मिल जाए.....................यह एक ऐसा एरिया है जिसे मैंने पिछले 10 वर्षों से जानना चाहिए लेकिन हार कर जब कुछ भी कोई ढंग से बता ही नहीं पाता (या बताना चाहता ही नहीं?) तो मैंने भी घुटने टेक देने में ही समझदारी समझी।

आलम यह है कि मुझे 25 साल इस व्यव्साय में बिताने के बाद आज तक यह पता नहीं है कि जैनरिक दवाई को एथिकल दवाई से कैसे पहचान सकते हैं। एथिकल दवाईयों जैसे ही नाम में आती हैं जैनरिक दवाईयां --- अब पता नहीं इस राज़ को कौन खोलेगा!

अच्छा, यह जो इन कैमिस्ट ऐसोसिएशनों का कहना है कि इस से ऐंटीबॉय़ोटिक दवाईयों की कालाबाज़ारी शूरू हो जाएगी ... मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगता .. जिन्हें सही में इस तरह की दवाईयां चाहिए होंगी उन को तो कभी भी इन को प्राप्त करने में कोई कठिनाई आयेगी नहीं और जिन्हें केवल काल्पनिक, रोगों के लिये, अपनी मरजी से ही इस तरह की दवाईयां चाहिए उन के लिये ऐसी कालाबाज़ारी कल की बजाए आज शुरू हो जाए तो बेहतर होगा..... कम से कम इस तरह की दवाईयां कम ही तो खरीद पाएंगे ...इसलिये इन्हें खाया भी कम ही जाएगा जिस से वे सारी दुनिया का भला ही करेंगे।

यह जो मैं बार बार लिख रहा हूं कि बिना कारण इस तरह की ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां न खा कर भला कैसे कोई सारे विश्व का भला कर सकता है? ¬¬¬ ---दरअसल समस्या यह है कि ऐसी महत्वपूर्ण दवाईयों के अंधाधुंध उपयोग से बहुत सी महत्वपूर्ण दवाईयां जीवाणु मारने की क्षमता खोने लगी हैं --- जीवाणुओं पर अब इन का असर ही नहीं होता --- (Drug Resistance) … जिस की वजह से बीमारी पैदा करने वाले जीवाणु ढीठ होते जा रहे हैं .. यह एक भयंकर समस्या है .... सोचिए जब पैनसिलिन नहीं था तो किस तरह से मौतें हुया करती थीं . किस तरह से टीबी की दवाईयां आने से पहले टीबी होने का मतलब मौत ही समझा जाता था।

जो भी सरकार इस तरह के नियम बना रही है बहुत अच्छी कर रही है.... इस तरह के फैसले बड़ी सोच विचार करने के बाद, विशेषज्ञों की सहमति से लिये जाते हैं... इसलिये इन पर कोई भी प्रश्नचिंह लगा ही नहीं सकता। सरकार का दायित्व है कि उस ने सारी जनता के हितों की रक्षा करनी है ---अब अगर कुछ लोग अनाप शनाप दवाईयां खाकर कुछ इस तरह के बैक्टीरिया उत्पन्न करने में मदद कर रहे हैं जिन के ऊपर दवाईयां असर ही नहीं करेंगी तो फिर कैसे चलेगा, सरकारों ने तो यह सब कुछ देखना है।

जितना लिख दिया था लिख दिया मैंने ---लेकिन इतना तो तय है कि जितने मरजी नियम आ जाएं ... यह जो लोग अपनी मरजी से दवाई खरीद कर खाने के आदि हो चुके हैं, ये बाज नहीं आने वाले, ये कैसे भी जुगाड़बाजी कर के मनचाही दवाईयां खरीद ही लेते हैं ....इस के अनेकों कारण हैं।

इससे दुःखद बात क्या हो सकती है कि अधिकांश अस्पतालों में कोई ऐंटीबॉयोटिक पालिसी ही नहीं है ....और अगर कहीं कहीं है भी तो डाक्टरों को ही उस का नहीं पता .....क्या कहा, पता होगा! --- मुझे तो कभी नहीं लगा ...जिस तरह से सादे खांसी जुकाम के लिये धड़ाधड़ महंगे से महंगे, सख्त से सख्त ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां लिखी जा रही हैं, उस के बाद भी कैसे मान लूं कि कहीं पर भी कोई ऐंटीबॉयोटिक पालिसी है।

Source : Chemists plan to protest OTC ban

एम्स ने खरीदा 28 करोड़ का चाकू

इस चाकू का नाम का ...गामा चाकू (Gamma Knife)… कहने को तो चाकू है लेकिन न ही तो इस में कोई ब्लेड है और न ही इस से कुछ कट लगाया जाता है। एम्स में यह चाकू 14 वर्षों के बाद आया है और इस की कीमत 28 करोड़ रूपये है ..वहां पर पहले एक गामा नाईफ़ 1997 में खरीदा गया था। आखिर इस चाकू से होता क्या है....इस चाकू का इस्तेमाल मस्तिष्क के आपरेशन करने के लिये किया जाता है लेकिन कोई कट नहीं, कोई चीरा नहीं ...फिर कैसे हो पाता है फिर यह आप्रेशन।

दरअसल इस गामा नाईफ से एक ही बार में, हाई-डोज़ विकिरणें (high-dose radiation) मस्तिष्क के बीमार भाग पर डाली जाती हैं ताकि उस का सफाया किया जा सके---यह बिल्कुल एक आटोमैटिक प्रक्रिया होती है और बस एक बटन दबाने से ही सारा काम हो जाता है। समय की बचत तो होती ही है और इस से बहुत से मरीज़ों का इलाज किया जा सकता है।

सर्जरी से संबंधित सभी कंप्लीकेशन से तो मरीज़ बच ही जाता है, साथ ही जल्द ही अस्पताल से उसे छुट्टी भी मिल जाती है और शीघ्र ही अपने काम पर भी लौट जाता है। एक मरीज़ के लिये एम्स में इस का खर्च 75000 हज़ार रूपये आता है .. यह उस खर्च का एक तिहाई है जो किसी मरीज़ को इस इलाज के लिये प्राइव्हेट अस्पताल में खर्च करना पड़ता है।
Source : Quick surgeries at AIIMS

बिना टीके, बिना चीरे, बिना टांके के भी हो रही है सुन्नत

दो-अढ़ाई वर्ष पहले सुन्नत/ख़तना (Male circumcision) करवाने के बारे में एक लेख लिखा था जिस में इस के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई थी ...सुन्नत/ख़तना के बारे में क्या आप यह सब जानते हैं? सुन्नत करवाने से संबंधित विभिन्न पहलू अच्छे से उस लेख में कवर किये गये थे।

मुझे ध्यान आ रहा है ..एक बार एक बिल्लू बारबर से मैं कटिंग करवा रहा था ..वहां बात चल रही थी उस की किसी के साथ कि वह पिछले 25-30 वर्षों में सैंकड़ों बच्चों का ख़तना कर चुका है। यही तो सारी समस्या है ...विभिन्न कारणों की वजह लोग अपने बच्चे का खतना नाईयों आदि से करवा तो लेते हैं लेकिन यह बेहद रिस्की काम है .... न ही तो औज़ारों को स्टेरेलाइज़ (जीवाणुमुक्त) करने का कोई विधान इन के यहां होता है, और न ही ये इस तरह का काम करने के लिए क्वालीफाई ही होते हैं.....बस वही बात है नीम हकीम खतराए जान....चलिये जान तो खतरे में शायद ही पड़े लेकिन इन से इस तरह के सर्जीकल काम करवाने से भयंकर रोग ज़रूर मिल सकते हैं।

तो चलिए, लगता है आने वाले समय में यह लफड़ा ही दूर हो जाए... बिना आप्रेशन, बिना चीरा, बिना टीका, बिना टांके के सुन्नत करवाने की खबर आज सुबह देखी ... सोच रहा था कि यह कैसी खबर हुई, यह कैसे संभव है लेकिन खबर बीबीसी की साइट पर थी तो विस्तार से इसे जानने की इच्छा हुई...New Device Makes Circumcision safer and cheaper.

तो, आप भी यहां इस ऊपर दिये गये लिंक पर जाकर इसे देख सकते हैं कि किस तरह से बिना किसी चीरे के कितनी निपुणता से युवाओं की सुन्नत की जा रही है। कंसैप्ट यही है कि एक रिंग की मदद से शिश्न (penis) के अगली लूज़ चमड़ी (prepuce) की ब्लड-सप्लाई में अवरोध पैदा कर के उस के स्वयं ही झड़ने का इंतजाम किया जाता है इस नई टैक्नीक में...... लेकिन यह काम क्वालीफाई चिकित्सक द्वारा ही किया जाता है।

अगर यह टैक्नीक विकासशील देशों में भी आ जाए तो इस तरह का आप्रेशन करवाने वाले लोगों को बहुत सुविधा हो जाएगी। लेकिन इस समाचार से ऐसा लगता है कि यह टैक्नीक किशोरावस्था या युवावस्था के लिये तो उपर्युक्त है लेकिन शिशुओं के लिये यह उपयोगी नहीं है।