१९७१ में जब पाकिस्तान और हिंदोस्तान का युद्ध शुरू हुआ तो हम लोग अमृतसर में रहते थे...मुझे बिल्कुल अच्छे से याद है कि हमें (हमें तो क्या, हमारे घर वालों को) कोई भी युद्ध से खबर सुननी होती थी तो मोहल्ले के सभी लोग अपने अपने रेडवो के साथ जुड़े पतली तार रूपी ऐंटीने इधर उधर घुमाने लगते कि कहीं से बीबीसी स्टेशन कैच हो जाए...और होता भी था, कभी दो मिनट, कभी एक मिनट...कभी पांच मिनट...बीच बीच में रूकावट के साथ लेकिन इस की खबर पक्की मानी जाती थी।
एक बात और बीबीसी पर खबरें आने के समय बहुत से लोग अपने रेडियो पर इस स्टेशन को लगाने की निरंतर कोशिश करते रहते, जो खुशकिस्मत होते उन्हें इस की आवाज़ सुनाई दे जाती.....फिर वह चौड़ा हो कर आसपास वह खबर पहुंचाता फिरता कि यह खबर अभी अभी उसने बीबीसी रेडियो पर सुनी है।
मुझे अभी भी याद है अपने पड़ोस के नानक सिंह अंकल जो अपने ट्रांसिस्टर को तब तक ऊपर नीचे घुमाते रहते जब तक उन्हें बंगला देश की आज़ादी की खबरें अच्छे से न सुनाई देतीं। उन्हें भी बड़ा शौक था बीबीसी सुनने ..। तब टीवी वीवी तो हुआ नहीं करते थे..। बस, रेडियो सिलोन फिल्मी गानों के लिए और बीबीसी खबरें के लिए छाए हुए थे।
फिर अस्सी का दशक आया....पंजाब ने आतंकवाद का बुरा समय देखा...हर रोज़ कभी एक समुदाय के और कभी दूसरे समुदाय के लोग कत्ल होने लगे.....अब सरकारों की अपनी मजबूरियां रही होंगी ...गोलियों से मरने वाले लोगों की गिनती बहुत कम बताने की ......लेकिन हर दिन लोगों को यही व्याकुलता रहती कि बीबीसी ही बताएगा यही गिनती....और आतंकी वारदात की सही जानकारी भी वही देगा.....और देता भी था....बिल्कुल सटीक।
उस के बाद टीवी आ गये, वीडियो आ गये..फिर बीबीसी रेडियो हम लोगों की ज़िंदगी में कहीं दूर हो गया। लेिकन लगभग बीस पच्चीस साल के बाद जब २००८-०९ के आसपास नेट पर अच्छी स्पीड आने लगी और मैं जन संचार की पढ़ाई लिखाई से भी फारिग हो गया तो फिर रूझान हुआ ...बीबीसी की साईट का।
जी हां, जनसंचार की पढ़ाई के दौरान अच्छे से हम लोगों ने समझ लिया कि बीबीसी की साईट एक आदर्श साइट है...सभी तरह से ..कंटैंट की नज़र से, ले-आउट एवं प्रिज़ेन्टेशन की निगाह से...और मैं पिछले लगभग आठ सालों से इसे नियमितता से देख ही लेता हूं....मुझे बहुत से लेखों की प्रेरणा मिली वहां का कंटेंट देख कर, मैं स्वीकार करता हूं।
लेकिन यार मैं पिछले कुछ महीनों से यह महसूस करने लगा था कि बीबीसी की साइट पर भारत से संबंधित कंटेंट बड़ा अजीब से ढंग से ..क्या कहें...हिकारत भरे शब्दों से ... ऐसा कहें कि जैसे किसी को नीचा दिखाना हो तो उस के बारे में हम सब बुरी बातें ढूंढनें लगते हैं, करते हैं ना हम लोग ऐसा ही......कहीं न कहीं मेरे मन में यह विचार आने लगा कि यार, कहीं इन लोगों को यह मलाल तो नहीं है कि हमें क्यों भारत से खदेड़ दिया गया, हम होते तो वहां पर हालात इतने खराब न होते.......मुझे यह विचार बार बार आते रहे दोस्तो पिछले कुछ महीनों में, लेिकन मैंने अपने तक ही रखे।
लेिकन अब निर्भया की डाक्यूमेंटरी ने तो इंतहा ही कर दी......मुझे बहुत बुरा लगा.....मैं उस पाले में से हूं जिन्हें इस फिल्म के बनने पर और प्रसारित किए जाने पर घोर आपत्ति है। मुझे बहुत बुरा लगा इस के बारे में जान कर ...बहुत ही बुरा....वैसे एक बात तो है कि हर कोई कह रहा है कि ये पत्रकार अंदर उस अभियुक्त का इंटरव्यू लेने कैसे पहुंच गई ....आप देखिए नीचे इस स्क्रीन-शॉट में कि इस पत्रकार ने कितने घंटे इस अभियुक्त के साथ इंटरव्यू करते हुए बिताए...यह मैंने अभी अभी बीबीसी हिंदी की साइट से लिया है....
एक बात और बीबीसी पर खबरें आने के समय बहुत से लोग अपने रेडियो पर इस स्टेशन को लगाने की निरंतर कोशिश करते रहते, जो खुशकिस्मत होते उन्हें इस की आवाज़ सुनाई दे जाती.....फिर वह चौड़ा हो कर आसपास वह खबर पहुंचाता फिरता कि यह खबर अभी अभी उसने बीबीसी रेडियो पर सुनी है।
मुझे अभी भी याद है अपने पड़ोस के नानक सिंह अंकल जो अपने ट्रांसिस्टर को तब तक ऊपर नीचे घुमाते रहते जब तक उन्हें बंगला देश की आज़ादी की खबरें अच्छे से न सुनाई देतीं। उन्हें भी बड़ा शौक था बीबीसी सुनने ..। तब टीवी वीवी तो हुआ नहीं करते थे..। बस, रेडियो सिलोन फिल्मी गानों के लिए और बीबीसी खबरें के लिए छाए हुए थे।
फिर अस्सी का दशक आया....पंजाब ने आतंकवाद का बुरा समय देखा...हर रोज़ कभी एक समुदाय के और कभी दूसरे समुदाय के लोग कत्ल होने लगे.....अब सरकारों की अपनी मजबूरियां रही होंगी ...गोलियों से मरने वाले लोगों की गिनती बहुत कम बताने की ......लेकिन हर दिन लोगों को यही व्याकुलता रहती कि बीबीसी ही बताएगा यही गिनती....और आतंकी वारदात की सही जानकारी भी वही देगा.....और देता भी था....बिल्कुल सटीक।
उस के बाद टीवी आ गये, वीडियो आ गये..फिर बीबीसी रेडियो हम लोगों की ज़िंदगी में कहीं दूर हो गया। लेिकन लगभग बीस पच्चीस साल के बाद जब २००८-०९ के आसपास नेट पर अच्छी स्पीड आने लगी और मैं जन संचार की पढ़ाई लिखाई से भी फारिग हो गया तो फिर रूझान हुआ ...बीबीसी की साईट का।
जी हां, जनसंचार की पढ़ाई के दौरान अच्छे से हम लोगों ने समझ लिया कि बीबीसी की साईट एक आदर्श साइट है...सभी तरह से ..कंटैंट की नज़र से, ले-आउट एवं प्रिज़ेन्टेशन की निगाह से...और मैं पिछले लगभग आठ सालों से इसे नियमितता से देख ही लेता हूं....मुझे बहुत से लेखों की प्रेरणा मिली वहां का कंटेंट देख कर, मैं स्वीकार करता हूं।
लेकिन यार मैं पिछले कुछ महीनों से यह महसूस करने लगा था कि बीबीसी की साइट पर भारत से संबंधित कंटेंट बड़ा अजीब से ढंग से ..क्या कहें...हिकारत भरे शब्दों से ... ऐसा कहें कि जैसे किसी को नीचा दिखाना हो तो उस के बारे में हम सब बुरी बातें ढूंढनें लगते हैं, करते हैं ना हम लोग ऐसा ही......कहीं न कहीं मेरे मन में यह विचार आने लगा कि यार, कहीं इन लोगों को यह मलाल तो नहीं है कि हमें क्यों भारत से खदेड़ दिया गया, हम होते तो वहां पर हालात इतने खराब न होते.......मुझे यह विचार बार बार आते रहे दोस्तो पिछले कुछ महीनों में, लेिकन मैंने अपने तक ही रखे।
लेिकन अब निर्भया की डाक्यूमेंटरी ने तो इंतहा ही कर दी......मुझे बहुत बुरा लगा.....मैं उस पाले में से हूं जिन्हें इस फिल्म के बनने पर और प्रसारित किए जाने पर घोर आपत्ति है। मुझे बहुत बुरा लगा इस के बारे में जान कर ...बहुत ही बुरा....वैसे एक बात तो है कि हर कोई कह रहा है कि ये पत्रकार अंदर उस अभियुक्त का इंटरव्यू लेने कैसे पहुंच गई ....आप देखिए नीचे इस स्क्रीन-शॉट में कि इस पत्रकार ने कितने घंटे इस अभियुक्त के साथ इंटरव्यू करते हुए बिताए...यह मैंने अभी अभी बीबीसी हिंदी की साइट से लिया है....
http://www.bbc.co.uk/hindi (इसे ठीक से पढ़ने के लिए इस फोटो पर क्लिक करिए) |
वैसे सब से चिंता करने वाली बात यही है कि यार यह पत्रकार आखिर इस तरह की हाई-सिक्योरिटी जेल में घुसी कैसे.......और यह कोई खुफिया स्टिंग आप्रेशन भी नहीं था। लेकिन सोचने वाली बात यह भी है कि इस देश में क्या मुश्किल है....कितनी खिल्ली उड़ी हम सब की ...फिल्म तैयार हो गई और बीबीसी ने दिखा भी दी....और हम गिड़गिड़ाते ही रह गये.......प्लीज़ नहीं, प्लीज़ नहीं। किसी न किसी ने तो गड़बड़ी की है......अब एन्क्वॉयरी होगी, देखते हैं क्या निकलता है...
किस तरह से पिछले दिनों देखा कि एक मंत्रालय के कर्मचारी ही वहां की खुफिया जानकारी कारोबारियों तक पहुंचाते पकड़े गये.....मुझे याद आ रहा एक बार कोई कह रहा था कि वह तो किसी ज़माने में ज़रूर पड़ने पर दस बीस रूपये खर्च कर यूपीसी (अंडर पोस्टल सर्टिफिकेट) ले लिया करता था किसी भी तारीख का....फिर कानूनी खेल में उसी बात का फायदा लिया करता था कि हमने तो चिट्ठी भेजी थी....वैसे इस मुद्दे पर तो क्या लिखें, हम सब लोग जानते ही हैं कि जुगाड़ू लोग कैसे कैसे जुगाड़ लगा कर अपना काम निकाल लेते हैं...ट्रांसफर, नौकरी, प्रवेश परीक्षा में धांधली ...आप नाम लीजिए, सेवा हाज़िर है.....पैसे का खेल हो गया है सब।
वैसे अब मेरा बीबीसी की साइट की तरफ़ जाने की ज्यादा इच्छा नहीं होती......अपने देश की निगेटिव खबरें देख कर पकने लगा हूं....चलिए अभी अभी यह तो पता चला ...यू-ट्यूब से हटाई गई निर्भया डाक्यूमेंटरी
वैसे अगर आप इस के बारे में अन्य खबरें देखना चाहें तो गूगल पर हिंदी या इंगलिश में निर्भया डाक्यूमेंटरी लिख कर सर्च करिएगा.......बीबीसी की साइट पर तो यह खबर देखने-पढ़ने-सुनने की बिल्कुल इच्छा नहीं होती, वे तो यही कहेंगे कि हम ने सब कुछ संपादकीय दायरों में रह कर किया..
किसी को क्या कहें, जब अपने ही किसी घर के भेदी ने लंका ढहा दी.....सब से बड़ा प्रश्न इस डाक्यूमेंटरी के लिए इतना कंटेंट जेनरेट आखिर हुआ तो हुआ कैसे......मुझे तो बरतानवी पोंडों की खनक सुनाई पड़ रही है, क्या आप को भी कुछ सुना?.... यह खनक बड़े बड़ों के होंठ सिल भी देती है और बड़े बड़ों के मुंह खुलवा देती है। अफसोस....बेहद अफसोसजनक।
इत्तफाक से मैं भी १६ दिसंबर २०१२ वाले दिन दिल्ली में ही था...Grassroot Comics की एक प्रशिक्षण कार्यशाला में शिरकत कर रहा था.....बहुत बुरा लगा था दोस्तो.......हंसती खेलती एक बहादुर बेटी को हरामियों के इन पिल्लों ने कैसे अपनी दरिंदगी का शिकार बना दिया। थू---थू....थू।।
अगर वही सरिया इन की .......तो इन्हें पता चलता कि उस समय कितना दर्द होता है...