मुझे अकसर आस पास के लोग पूछते हैं कि तुम्हें लिखने के आइडिया कैसे आते हैं....उन को मैं सिर्फ एक ही जवाब देता हूं कि यह कोई राकेट साईंस नहीं है...मेरा लिखना तो क्या है, कुछ भी नहीं, लिखने वाले ८-८ मिनट में सुपरहिट गीत लिख गए जो ५० साल बाद भी सुपरहिट हैं...इसलिए यह लिखने विखने का कोई सिलेबस नहीं है, न ही कोई सिखा सकता है...बस इशारा कर सकता है ...मैं तो पिछले ३० बरसों से यही सीखा हूं....१९८८ से २००० तक मुझे यही लगता रहा कि बंदा अपने प्रोफैशन से जुड़ें विषयों पर ही लिख सकता है ...ज्ञान बांट सकता है ...लेकिन २०-२२ बरस पहले मुझे यह पता चला कि लिखने के मौज़ू और भी हैं...दो तीन कोर्सों पर उन दिनों बीस-तीस हज़ार खर्च भी किया...लेकिन कुछ बात समझ में आई नहीं ..
बीस बरस पहले यही लगता था कि मेडीकल विषय पर तो लिखने के लिए २५-३० लेख ही तो हैं, उस के बाद क्या करूंगा....लेकिन आहिस्ता आहिस्ता पांच सात बरस में यह समझ आ गया कि लिखने के बहाने तो अनेकों हैं...विषय भी अपने आस पास बिखरे पड़े हैं, जितने चाहिए उठा लीजिए....बस, उस के लिए एक दो शर्तें हैं...लोगों से जुड़ कर रहना और ज़मीन पर रहना। समझने वाले समझ रहे हैं..। बस, वही आप को लिखने की मौका देते हैं....कईं बार स्टेशनों पर, फुटपाथ पर आते जाते कोई ऐसा शख्स दिख जाता है कि लगता है जैसे यादों की आंधी आ गई हो उसे देखते ही ...
दादर स्टेशन का पुल ... २८ दिसंबर २०२२ |
कल सुबह भी ऐसा ही हुआ...दादर स्टेशन के पुल पर यह शख्स दिखे ...हाथ में कोई ब्रेंडैड अटैची उठाई हुई जिस पर कवर चढ़ा हुआ था, साथ में एक दो थैले ..हां, थैलों का रूप ज़रूर बदल गया है इधर कुछ बरसों से ...सब से पापुलर ये पानमसाले वाले थैले हैं ...एक थैला ८०-१०० रूपये का आ जाता है...जब हमारी बदली होती है तो हमें भी अपनी किताबों-कापियों-रसालों को ढोने के लिए ये चाहिए होते हैं ..एक बार तो ४०-५० के करीब ये थैले हो गए हमारे सामान के साथ ...और हम लोगों ने पैकर-मूवर के आने से पहले इन्हें अपनी बैठक में रख दिया....मुझे उस दिन इतनी हंसी आई और मैंने इन के साथ फोटू भी खिंचवाई ....मुझे यह मज़ाक सूझ रहा था कि ४० बरस हो गए पान मसाले-गुटखे का इस्तेमाल करने वालों को डांटते हुए, उन का इलाज करते हुए..लेकिन कोई पानमसाले के इतने थैले हमारे घर में देख ले तो उसे यही लगे जैसे कि मैं इन कंपनियों का ब्रॉंड अम्बेसेडर हूं......
डेंटल सर्जन के घर में पान मसाले के इतने थैले (२०२० -लॉक डाउन से पहले) ...यह घोर कलयुग नहीं तो और क्या है ...😂 |
खैर, उस शख्स की बात हो रही थी जिन को मैंने कल सुबह दादर स्टेशन पर देखा और झट से मोबाइल में सहेज लिया...कहां दिखती हैं अब इस तरह की कवर के साथ अटैचियां ....यह तो कंकरीट के इस जंगल का और पब्लिक के समंदर की वजह से मुकद्दर से कभी कुछ ऐसा दिख जाता है जो हमें यादों की दुनिया में ले जाता है ..हां, मैंने इन अटैचियों पर और यहां तक कि होल्डाल (बैड-रोल) और सुराही लेकर सफ़र करने के दौर पर अपने पंजाबी के ब्लाग में कुछ पोस्टें भी लिखी थीं कुछ बरस पहले ....उन के लिंक लगाता हूं यहां, अगर कोई पढ़ना चाहे तो ...
ਓਏ ਰਬ ਤੁਹਾਡਾ ਭਲਾ ਕਰੇ - ਓਹ ਅਟੈਚੀਆਂ ਸੀ ਕਿ ਵੱਡੇ-ਵੱਡੇ ਅਟੈਚੇ!
जैसा कि उस शख्स की इस तस्वीर में आप देख रहे हैं वह अपने साथ कुछ बेल-बूटे भी लेकर आए हैं या ले कर जा रहे हैं ....किसी सगे-संबंधी के पास आए होंगे ...खैर, यह भी एक चीज़ होती थी जो अकसर हम लोग अपने रिश्तेदारों के पास लेकर जाते थे या वे जब आते थे तो दो चार ऐसी टहनियों हमारे बाग में ज़रूर लेकर आते थे ...अब यह जो महंगे महंगे पौधे हम लोग भेंट में देते हैं, पहले यह सब कुछ नहीं दिखता था, ज़िंदगी बड़ी सीधी-सरल थी ...
कल मैं कुछ लोगों को यह तस्वीर दिखा कर उन से पूछ रहा था कि बताइए इस तस्वीर में किस चीज़ की कमी है ....वे तो बता नहीं पाए, आखिर मुझे ही बताना पड़ा कि पुराने दौर में सामान के साथ जब तक एक पानी की सुराही न होती तो सामान पूरा नहीं होता था...सुराही इसलिए कि गिलास मे पानी आराम से डाला जा सकता है और ट्रेन में अपनी जगह पर टिके रहती थी ...मटके को कोई कहां टिकाए, अपनी गोद में ...नहीं, ऐसा संभव नहीं था, मटका तो नहीं, छोटी सी मटकी लोगों को अपनी गोद में रख कर जाते देखा भी है और खुद हम भी लेकर गये हैं...मटकी में अपनी पापा की अस्थियां जिस पर लाल कपड़ा बंधा हुआ था और हरिद्वार ले जाते समय उस का टिकट भी कटवाया है ...
चलिए, इधर उधर भटकना बंद करें.....वापिस उस अटैची पर आते हैं...इस तरह की अटैचीयों लोग अकसर मिलेट्री कैंटीन से लेने का जुगाड़ कर लेते थे ...कैंटीन की दारू की तरह ...कैंटीन में बहुत सस्ते में मिल जाती थी ...और जुगाड़ भी देखिए कैसे कैसे ...कुछ पैसे बचाने के लिए इतनी मेहनत...खास कर दहेज में बेटियों को इस तरह का सामान देने के लिए लोग मिलेट्री कैंटीन से ही यह सब खरीदने का जुगाड़ कर लेते थे ....हमने भी जुगाड़ से ही ऐसी एक छोटी अटैची वी-आई-पी की खरीदी थी ...हमारे मौसा जी अंबाला में एक बैंक में कुछ मैनेजर टाइप थे ...उन की मिलेट्री कैंटीन में पहचान थी, उन्होंने ही हमें यह खरीदवा कर दी थी ..कम मोल पर ...आम आदमी की खुशियां भी कितनी छोटी छोटी होती हैं...यह १९८० के दशक के शुरूआती बरसों की बात है ...उन्हें बढ़िया बढ़िया दारू भी कैंटीन से लाने का बड़ा क्रेज़ था ...इसलिए रिश्तेदारी में उन्हें लोग बाग मानते थे ...बीस साल की उम्र में परफ्यूम और आफ्टर शेव लगाने का क्रेज़ नया नया होता है ...मुझे भी ओल्ड-स्पाईस की बोतल वहीं से मिली थी ...
हां, यह वह दौर था जब इस तरह के अटैची खरीदने के बाद उन्हें सब से पहले कवर करने का जुगाड़ किया जाता था ...कवर कुछ लोग सिलवाते थे मोटे कपड़े के चैन-वैन लगी होती थी ...और बाद में तो ये कवर जगह जगह अलग अलग क्वालिटी के बिकने भी लगे थे। नहीं, यार, हम लोगों ने कभी खुद को इतना गरीब भी नहीं समझा कि इन अटैचियों पर कवर डालने की नौबत आ गई हो ...हमें तब भी यही लगता और अब भी लगता है कि इन को अगर कवर ही करना है तो इन को खरीदना ही क्यों, वही पहले वाले लोहे के ट्रंक ही चलाते रहिए.......खैर, यह तो एक खामखां की बात है ..हरेक की अपने मन की मौज है ...पता नहीं कोई कितनी तंगहाली या खुशहाली में इस तरह की अटैची का जुगाड़ कर पाता है ..खैर, मुझे स्टेशनों पर और गाड़ी पर किसी को इस तरह की अटैची से कुछ निकालते डालते देख कर बड़ी हंसी सूझती ...कवर की चैन पर लगा हुआ ताला खोल, फिर अटैची का लॉक खोलना, फिर उसमें से बाबू की ऊनी टोपी निकालनी या मुन्ने के बापू का मफलर या मौजे, या बबलू के पापा की चप्पलें या वह फांटावाला पायजामा जो उन्हें सफर में लगेगा ही लगेगा, वरना नींद ही नहीं आएगी .....कितनी मेहनत का काम लगता था यह सब देखना भी ....
मेरे मामा अजमेर से जब हमारे पास पंजाब मे ंआते तो उन्हें दिल्ली में गाड़ी बदलनी होती थी ...पुल पुल थे सीढ़ियों वाले...उन्होंने पास एक ऐसा भारी भरकम अटैची होता था..उम्र हो चली थी उन की भी ...वह हमें हंसते हंसते जब सफ़र के किस्से सुनाते तो हर बार कहते उस अटैची को एक भारी भरकम गाली निकाल कर कि जब इसे लेकर सीढ़ियां चढ़ जाता हूं जैसे तैसे तो पहुंच कर इच्छा होती है कि इसे ज़ोर से ठोकर मार दूं (ठुड्ढा मारां ऐहनूं उत्तों ही ते थल्ले सुट दिआं) ...और वहीं से इसे नीचे गिरा दूं....हम उन की इस बात पर बहुत हंसा करते ...
हां, गाड़ी में उन दिनों इस तरह की महंगी अटैचीयां कईं बार चोरी भी हो जाती थीं...इसलिए लोगों ने इसे सीट के नीचे चैन से बांध कर रखना शुरू कर दिया...मुझे तो उस चैन और ताले से यह बड़ा डर लगता है कि अगर स्टेशन आ जाए और हम लोग उस चेन की चाबी गंवा बैठें तो....खैर, लोगों को गाड़ी के अंदर आकर इस तरह की अटैची को ताले से बांध कर उस की चोरी से निश्चिंत होते देखना भी कम रोचक न था...हम भी कईं बार यह सब करते थे, हम भी तो इसी हिंदोस्तानी मिट्टी में पले-बढ़े हैं... हा हा हा हा हा ...
फिर धीरे धीरे पहियों वाले अटैची आने लगे ....लेकिन अब भी देखता हूं कि चाहे पहियों वाले अटैची बैग आने लगे हैं लेकिन लोग ....लोग क्या, हम सब लोग उन को ऐसे ठूंस देते हैं सामान के साथ कि उन को पहिये के साथ लेकर चलना भी मुश्किल होने लगता है ...और खास कर के अगर सीढ़ीयां चढ़नी पड़ जाएं तो नानी तो क्या, उस की नानी भी याद आ जाए...
मैं गोपाल दास नीरज जी के गीतों का बहुत बड़ा फैन हूं .....वही, शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब ..गीत के रचयिता ...अभी मैं कुछ देख रहा था तो उन की एक वीडियो दिख गई ..लखनऊ रहते हुए उन को कईं बार पास से देखने का मौका मिला...एक बार बात भी हुई ...वह अकसर कहा करते थे ...
उतना सफर आसान रहेगा...