शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

चिकन का लैग पीस या रैड-वाइन का एक अदद पैग !

चिकन की टांग को लैग पीस ही कहते हैं न, तो जापान में हुई एक रिसर्च का रिजल्ट निकला है कि लैग-पीस से ब्लड-प्रैशर कंट्रोल होता है – चूहों पर हुई रिसर्च से पता चला है। यह स्टडी किसी मीट-पैकर्स संगठन द्वारा की गई थी।

अमेरिका में हुई एक और स्टडी बता रही है कि जो लोग रैड वाइन पीते हैं उन में फेफड़े के कैंसर होने का खतरा कम हो जाता है। और साथ में यह भी बताया गया है कि यह फेफड़े कम होने का रिस्क उन लोगों में भी कम होता है जो स्मोकिंग कर रहे हैं और उन में भी जो पहले स्मोकिंग किया करते थे।

तो क्या अब समय आने वाला है कि डाक्टर लोग मरीजों को ब्लड-प्रैशर को काबू करने के लिये लैग-पीस के साथ साथ फेफड़ों के कैंसर के लिये रैड-वाइन पीने की हिदायत देने लगेंगे।

मुझे अफसोस है कि मुझे इस वाइन के बारे में कुछ भी पता वता नहीं है, यह रैड क्या है और व्हाइट वाइन क्या है, मुझे इस का बिल्कुल भी पता नहीं है।

लेकिन इन दोनों न्यूज़ को आप के साथ शेयर करने का केवल एक ही कारण था कि हम लोग इस बात का आभास कर सकें कि मैडीकल-राइटर का काम भी कितना चुनौतीपूर्ण है। अब इस तरह के चिकन के लैग-पीस या रैड-वाइन जैसी रिसर्चेज़ के रिजल्ट रोज़ाना एक मैडीकल-राइटर को दिखते रहते हैं। लेकिन किस तरह की रिसर्च के बारे में लिखा जाये और किस के बारे में चुप्पी साधी जाये, यह किसी मैडीकल-राइटर के सामने कोई बड़ा काम नहीं होता --- पहली बात तो यह है कि स्टडी किस स्टेज पर है , इस का ध्यान रखना भी ज़रूरी है। अब अगर चिकन के लैग-पीस ने चूहों का ब्लड-प्रैशर कम कर भी दिया है तो क्या हुआ। जब ह्यूमन-ट्रायल्स होंगे तो देखा जायेगा.....वैसे भी ब्लड-प्रैशर जैसी लाइफ-स्टाइल बीमारी के लिये केवल यह लैग-पीस वाली बात गले से नीचे नहीं उतरती ।

अब फेफड़े के कैंसर से बचने के लिये कैसे लोग रैड-वाइन रोजाना पीनी शुरू कर दें......और वह भी बीड़ी-सिगरटे छोड़े बिना -----हमारा मसला तो है कि हम लोग इस देश में कैसे तंबाकू से अपना पीछा छुड़ा सकें।

इन उदाहरणों से यह तो हमने देख ही लिया कि इंटरनैशनल मीडिया में मैडीकल रिसर्च का क्या रूख है ----हमारे अपने देश में हमारे लोगों की स्वास्थ्य समस्यायें अलग हैं, हमारी परिस्थितियां, हमारा परिवेश तो बिल्कुल अलग है.....हमारी ही क्यों, सभी देशों की अपनी समस्यायें हैं, संसाधन सीमित हैं, सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियां बेहद जटिल हैं जिन्हें दो जमा दो चार के साधारण जोड़ के जैसे सुलटाया नहीं जा सकता।

कुछ इस तरह की मैडीकल रिसर्च हमारे सामने आती है जिस से किसी स्पोंसरशिप अथवा किसी घिनौने संकीण स्वार्थ की सड़ी बास आती है। तो मैडीकल राइटर को इस से भी बच कर रहना होता है।

विश्वसनीयता --- credibility – एक बहुत बड़ी बात है, इसलिये मैडीकल राइटर को इस के बारे में बेहद अलर्ट रहना होता है क्योंकि बहुत से लोग आप के लिखे अनुसार चलना भी शुरू कर देते हैं।

देश में हिंदी में मैडीकल-राइटिंग करने के लिये ज्यादा से ज़्यादा डाक्टरों को आगे आना चाहिये ताकि हम लोगों तक उन की ही भाषा में ही बिल्कुल सादे, सटीक ढंग से जानकारी उपलब्ध करवा सकें। और लिखते समय हमें बस इतना ध्यान रखना होगा कि कैसे हम लोग कुछ इस तरह के जमीन से जुड़े विषयों पर लिखें जिसे पढ़ कर लोगों में प्रचलित भ्रांतियों का भांडा फूटे, लोग बस थोड़ा सा अपनी जीवन-शैली के बारे में सोचने लगें, कुछ भी खाने से पहले उस के बारे में सोच लें, व्यसनों से होने वाले खतरनाक परिणामों से लोगों को कुछ इस तरह से रू-ब-रू करवायें कि हमारे लोग तरह तरह के व्यसनों से डरने लगें।

बस और क्या है, इस लिये इस देश में मैडीकल-राइटर्ज़ का अपना एक एजैंडा है जैसा कि बच्चों के बारे में लिखें तो उन की आम तकलीफों के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा लिखें-----औरतों की आम शारीरिक समस्याओं के बारे में लिखे, कैंसर से रोकथाम की बातें करें.....लेकिन बातें सीधी-सीधी करें......ताकि लोग आसानी से हमारी कही हुई बात को अपने जीवन में उतारने का प्रयास तो कर सकें। लोगों की आम समस्याओं के बारे में लिखने को इतना कुछ है कि लगने लगा है कि यह काम तो पहाड़ जैसा है और हिंदी में मैडीकल-राइटिंग तो अभी शुरू ही नहीं हुई है। शायद उस चीनी कहावत का ध्यान कर ही मन को सांत्वना देनी होगी----तीन हज़ार किलोमीटर के सफर के शुरूआत पहले कदम से ही होती है।