बुधवार, 30 जनवरी 2008

अब इन बेकरी वालों को समझाने की बारी आप की है!



मैं तो दोस्तो इन बेकरी वालों को यह छोटी सी बात समझाते समझाते थक सा गया हूं...लेकिन मुझे आप से बहुत उम्मीदें हैं। शायद आप की ही बात उन के मन को लग जाए।

चलिए मैं अपनी बात रखने से पहले एक बेकरी की अच्छी बात भी आप के सामने रख रहा हूं। कुछ दिन पहले पास ही के एक शहर की किसी मशहूर बेकरी पर पेस्ट्री खाने का मौका मिला। साफ़-सफ़ाई बहुत बढ़िया थी। और मज़े की बात तो यह थी कि पेस्ट्री को भी एक पेस्ट्री से थोडसे बड़े साइज़ के एक कप मेपरोसा जा रहा था। इस कप को आप इस तसवीर में देख रहे हैं। ये छोटी छोटी बातें ही होती हैं जो कुछ जगहों का नाम काफी ऊपर उठा देती हैं।


हां, तो अब मैं अपनी बात पर आता हूं। मैंने देखा है कि अच्छी अच्छी बेकरियां भी जो केक बना कर बेचती हैं , वे जिस डिब्बे में केक डाल कर ग्राहक के हाथ में देती हैं वे तो बहुत बढ़िया होते हैं, लेकिन कभी आप ने ध्यान किया है कि जिस वस्तु के ऊपर यह केक पड़ा होता है, वह एक थर्ड-क्लास किस्म का गत्ता (cardboard) ही होता है, जो सरे-आम बीमारियों को खुला निमंत्रण दे रहा होता है। हां, कुछ चालाक किस्म के दुकानदारों ने इसे एक बिलकुल पतले से कागज़ से ( वही कागज जो गिफ्ट रैपिंग के लिए इस्तेमाल होता है) कवर रखा होता है, कुछ तो इस काम के लिए किसी अखबार का ही इस्तेमाल कर लेते हैं। क्या हम यह नहीं जानते कि ये सब हमारी सेहत के लिए कितना हानिकारक हैं....शायद आप ने भी नोटिस किया होगा कि घर तक लाते-लाते यह कागज़ गल चुका होता है और केक के साथ शायद आप के शरीर में ज़रूर जाता होगा।

मैंने कईं बार इन बेकरी वालों को टोका है कि क्या एक-दो रूपये बचाने के पीछे लोगों को बीमार कर रहे हो। इस गत्ते के ऊपर कम से कम ढंग का एल्यूमीनियम फॉयल तो लगाया करो(जिस में हम लोग आज कल चपातियां रैप करते हैं)। लेकिन आप को भी यह तो पता ही है कि दुकानदार के पास हर बात का जवाब पहले से तैयार होता है कि क्या करें...ग्राहक इतने पैसे कहां खर्च करता है। लेकिन मैं उन के इस तर्क से कभी भी न तो सहमत हुआ हूं और न ही कभी होऊंगा। अब जो ग्राहक किसी केक के लिए 165 रूपये खर्च रहा है तो उसे मेरे ख्याल में एक साफ़-सुथरी पैकिंग में दिए गये केक के लिए 170रूपये खर्च करने में भी कहां चुभन होती है।

लेकिन मैं देखता हूं कि मेरे बार बार कहने पर भी इन बेकरी वालों के सिर पर जूं तक नहीं रेंगी...अब उम्मीद की डोर आप के हाथ में थमा रहा हूं कि आप भी अपने अपने शहर में एवं अपने परिवारजनों में इस छोटी सी ( लेकिन स्वस्थ रहने के लिए बहुत बड़ी) बात की अवेयरनैसे बढायेंगे। और मैं कर भी क्या सकता हूं?

मंगलवार, 29 जनवरी 2008

जब मैंने पहली बार बीड़ी पी...


इस से पहले कि आप इस पोस्ट का शीर्षक पढ़ कर ही मेरी डाक्टरी के ऊपर शक करने लगें, प्लीज़ मेरी पूरी बात सुनिए। हुआ यूं कि नई दिल्ली के प्रगति मैदान में हुई एक कांफ्रैंस में शिरकत करने का अवसर मिला। रजिस्ट्रेशन के दौरान जो कांफ्रैंस बैग मिला उस में एक पैकेट बीड़ी का भी था और साथ में एक सी.डी भी थी। मेरा माथा ठनका- यही सोचने लगा कि आयोजकों से जरूर कोई भूल ही हो गई होगी- आप में से जो लोग प्रगति मैदान घूम आए हैं, वे जानते होंगे कि वहां बने विभिन्न हालों में तरह -तरह की प्रदर्शनियां चलती रहती हैं। इसलिए मझे भी यही लगा कि हो न हो,पास ही के किसी हाल में ज़रूर किसी तंबाकू कंपनी का कोई सैमीनार चल रहा होगा, तभी तो यह सौगात गलती से हमारे बैगों में आ पड़ी है। खैर, वहां चार दिन कांफ्रैंस में इतने व्यस्त रहे कि दोबारा उस पैकेट को देखने का अवसर ही न मिला।


घर आने के बाद जब उस बैग को खोल कर उस सी.डी को देखा तो सारा माजरा समझ में गया -- यह थी तो बीड़ी ही , लेकिन तंबाकू एवं निकोटीन रहितउस बीड़ी में केवल पौधों की सूखी पत्तियां ही थींकहने का भाव यह कि जोश वही पर दोष नहीं।।

वैसे तो मैं बचपन से ही हमेशा फर्स्ट हैंड तजुर्बे का कायल रहा हूं , इसलिए मैंने उस दिन एक बीड़ी पीने का फैसला कर ही लिया। दोनों बेटों को अपने आसपास बैठा लिया। वे अपनी जगह परेशान कि पापा को आज हुया क्या है, खैर वे तो तब तक इसे एक मज़ाक ही समझते रहे जब तक कि मैंने एक बीड़ी का सुलगा कर मुंह पर लगा ही न लिया। उन्होंने ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें लगा कर अपनी मम्मी को बुला लिया। श्रीमति जी भी परेशान...खैर, सब के देखते ही देखते मैंने कश पे कश खींचने शुरू कर दिए--- और हर कश एक अलग स्टाईल में....बचपन में दिखते विलेन के.एन .सिंह , जयंत, देवानंद, मेरे नाना जी, ताऊजी, शाहरूख खां , प्रेम चोपडा़.....इन सब के कश खींचने के स्टाईल मेरे को कॉपी करते देख बच्चे तो लोटपोट हुए जा रहे थे।

मुझे यह अहसास तो था ही कि मेरी तो पहली भी और आखिरी भी बीड़ी यही है, इसलिए इस का भरपूर मज़ा लूटने से मैं ज़रा भी चूकना नहीं चाहता था। बस मैं केवल अपने नाक से धुआं निकालने की ही अपनी हसरत पूरी न कर पाया, जैसा कि मैं अपने पापा जी को अकसर कभी कभी करते देखा करता था। वे मुझे कहा करते थे कि बीड़ी पीना कम नुकसानदायक है, इसलिए इसे पीता हूं। मुझे नहीं पता कि वे सच कहते थे या झूठ, लेकिन आज मुझे यह ज़रूर लगता है कि सिगरेट उन के बजट में कभी बैठा ही नहीं होगा। आज जब मैं उन्हें 555ब्रांडपिलाने के काबिल हूं , तो अफसोस वह नहीं हैं। लेकिन आप सुनिए तो, यह डाक्टर का मशविरा कतई नहीं है, बाप-बेटे की मौन बात है.....इस डाक्टरी-वाक्टरी से बहुत परे की बात।

तो चलिए , एक बात चिकित्सा विज्ञान की भी करें....हम सब जानते हैं कि बीड़ी भी कम से कम सिगरेट के जितनी हानिकारक तो है हीइस को सिगरेट की तुलना में चार से पांच गुणा ज्यादालोग पीते हैंएक ग्राम तंबाकू से औसतन एक सिगरेट तैयार होती है, लेकिन तीन या चार बीड़ीयों के लिए यह तम्बाकू पर्याप्त होता हैइतनी कम मात्रा में तम्बाकू होते हुए भी और अपना छोटा आकार होते हुए भी एक बीडी़ कम से कम भारत में बने एक सिगरेट जितनी टॉर तथा निकोटीन उगल देती है, जब कि कार्बनमोनोआक्साईड तथा अन्य विषैले रसायनों की मात्रा तो बीड़ी में सिगरेट की अपेक्षा काफी ज्यादा होती है

अच्छा तो मैं कहां था....हां, मैंने तंबाकू रहित बीडी़ पी ली और बीडी़ पीने के बाद सब को बता दिया कि यह तो वास्तव में तंबाकू रहित बीड़ी थी।

अब प्रश्न यही उठता है कि अगर यह तंबाकू रहित बीड़ी है तो क्या सारा हिंदोस्तान ही इसे पीना शुरू कर दे। बिल्कुल नहीं....यह तो केवल उन लोगों के लिए है जो बहुत ही इमानदारी से बीड़ी की आदत छोड़ना चाहते हैं लेकिन छोड़ नही पा रहे हैं, वे इसे थोडा़ समय इस्तेमाल कर अपनी आदत से निजात पाने की कोशिश कर सकते हैं। जो लोग कहते हैं कि बीड़ी की लत छोड़ने को तो आज छोड़ दें, लेकिन सुबह सुबह कश खींचे बिना तो यह कमबख्त हाजत ही नहीं होती, प्रैशर ही नहीं पड़ता-- उन के लिए भी इस तंबाकू रहित बीड़ी का सेक मेरी दुआ से वांछित फल ले कर आए।

कॉलेज के छात्र जो यह कहते हैं कि फ्रैंड-सर्कल की वजह से स्मोकिंग करनी पड़ती है, वे भी इस नकली बीड़ी का ही दामन क्यों नहीं थाम लेते?... हिंदी फिल्म के निर्देशकों को भी एक मशविरा भेजना चाहता हूं कि जो कलाकार रियल लाइफ में नान-स्मोकर हैं , रील लाईफ में शूटिंग के दौरान भी यह काम इस तंबाकू रहित बीड़ी से ही ले लिया करें। कहीं मेरा यह सुझाव सुन कर निर्देशक भड़क ही न जाएं कि क्या कह रहे हो डाक्टर, तुम अपनी डाक्टरी रखो अपने पास, मेरी फिल्म के हीरो के हाथ में बीडी़। मैंने फिल्म बेचनी है---विदेश के फिल्म समारोहों में नहीं भेजनी” - चलिए , फिर तो यही दुआ करनी पड़ेगी कि तम्बाकू रहित सिगरेट भी जल्द से जल्द मार्कीट में आएं, इतना ही क्यों...दुआ मांगने में भी भला काहे की कंजूसी ....कुछ ऐसा करिश्मा हो जाए अल्कोहल रहित दारू भी बाज़ार में आ जाए जिस में केवल नारियल पानी भरा हो, और लगे हाथनशे रहित नशे की गोलियां भी मार्कीट में आ ही जाएं जिन में बूरा चीनी के इलावा कुछ न हो।

तंबाकू रहित बीड़ी आए या सिगरेट, जो लोग अभी तक तंबाकू के किसी भी रूप के व्यसन से दूर हैं, वे इन से हमेशा दूरी बनाये ही रखें--किसे पता आप कब इस नकली तंबाकूरहित बीडी़ का साथ छोड़ कर खालिस तंबाकू वाली बीड़ी का दामन थाम लेंप्रकृति के नियमों के विरूद्ध आखिर जाया ही क्यों जाए, बिना वजह मुंह और फेफड़ों की सिंकाई करने का प्रावधान हमारी पुरातन संस्कृति में भी तो कहीं पर भी है ही नहीं!!!

बीमार बंदे की जगह अगर डाक्टर खुद को खड़ा कर के देख ले.....


कुछ महीने पहले किसी स्त्री-रोग विशेषज्ञ के हास्पीटल में जाने का मौका मिला- लेकिन यह क्या, उस का रिसेप्शनएरिया स्वागत करने की बजाए लोगों को डराने का काम कहीं ज्यादा कर रहा थाआप भी सोच रहे होंगे कि आखिरऐसा क्या था उस की रिसेप्शन लॉबी में......तो सुनिए, दोस्तो, उस की लॉबी में खूब बड़े बड़े शीशे के पारदर्शी मर्तबानरखे हुए थे....अब आप यही सोच रहे हैं कि आखिर उस महिला-रोग विशेषज्ञ को सारे आचार, मुरब्बे वहीं रख करधाक जमाने की क्या पड़ी थीलेकिन, दोस्तो, उन बड़े बड़े मर्तबानों में तो महिलाओं का आप्रेशन कर के निकालीगईं रसोलियां, टयूमर पड़े हुए थे......चूंकि ऐसे नमूनों को सुरक्षित रखने के लिए किसी फार्मलिन जैसे द्वव्य में डालकर रखना होता है इसलिए उस सारी जगह में एक अजीब सी गंध फैली हुई थीयह सब देख कर मुझे अजीब सालग रहा थामैं तो यही सोच कर परेशान हो रहा था कि कईं लोग तो हम डाक्टरों के पास हास्पीटल में इस लिए हीनहीं आते कि उन्हें हास्पीटल की गंध पसंद नहीं है, उन्हें पट्टीयों के लिए इस्तेमाल की जाने दवाईयों की गंध नहींभाती, या उन्हें वार्ड में मरीज़ों को देख कर अजीब सा लगता हैहोता है, होता है, दोस्तो, नईं जगह पर ...किसी कोभी , अब अगर मेरे जैसे पढ़ेलिखे बंदे को अपने घर में हुई चोरी की रिपोर्ट किसी थाने में जाकर लिखवाने मेंइसलिए थोड़ी( थोड़ी नहीं यार...बहुत ज्यादा) झिझक है कि मुझे लगता है कि यार, पता नहीं वहां क्या हो जाए, रिपोर्ट लिखेगा कोई लिखेगा.....लेकिन दोस्त किसी ने मेरी रिपोर्ट लिखी थी.....तरह तरह कीबहानेबाजी......इसीलिए मैं हमेशा ही आम बंदे की बात करता हूं और करता रहूंगा...क्योंकि मैं समझ सकता हूं किअगर मेरे जैसा पढ़ा-लिखा बंदे अपने घर में हुई चोरी की एफआईआर करवाने में नाकामयाब रहा, तो आम बंदे कीक्या हालत होती होगी........मैं तो कई महीने यही बातें कर के परेशान रहाचलो, इसी बात को इधर छोड़ते हैं, नहींतो पता नहीं कहां के कहां निकल जाएंगे) .... मेरा यह अपने घर में हुई चोरी का किस्सा थोड़ा बताने का उद्देश्यकेवल इतना था कि हम थोड़ा यह देखें कि किसी भी नई, अपरिचित जगह पर हमें कैसे कोई अनजान-सा भय घेरेरहता हैऔर ऊपर से मरीज जब किसी हस्पताल में गया हो तो उस को कम्फर्टेबल करने की बजाए उसे इनबड़ी-बड़ी रसोलियों, ट्यूमरों से डराया जायेगा तो क्या होगाबस , दोस्तो, क्या बताऊं वह नज़ारा अजीब ही था

वह महिला डाक्टर सुशिक्षित है , अनुभवी है मरीज़ों से बहुत ढंग से बात भी करती हैऔर हां, उसी रिसेप्शनएरिया में उस ने अपने काफी सारे ( कम से कम बीस तो होंगे ही) सर्टिफिकेट फ्रेम कर के टांग रखे थे.....सभीअंग्रेज़ी में ही थेइस के बारे में दोस्तो मेरा विचार यह है कि जो भी मरीज़ किसी डाक्टर के पास जा रहा है तो वहकहीं कहीं उस की चर्चा सुन कर ही गया है.....अब इन सर्टिफिकेटों में क्या लिखा है, मैंने देखा है कि 2-4फीसदीलोगों से ज्यादा इस में किसी को कोई रूचि होती नहीं, और जिन को होती भी है, वे इन्हें पढ़ नहीं पाते क्योंकि येअकसर इतनी ऊंचाई पर लगाए होते हैं या इतनी बारीक फांट्स में होते हैं कि अब इन्हें पढ़ने के भी झंझट में कौनपड़े !! और इन सब के साथ-साथ काफी ऊंचाई पर लगे टीवी पर मार-धाड़ वाली कोई एक्शन फिल्म चल रही थी

इस के विपरित मुझे मुंबई के एक पुरूष गायनोकॉलोजिस्ट के यहां जाने का मौका जब मिला था, तो उस ने अपनेकक्ष के बाहर कुछ बढ़िया से पोस्टर लगवा रखे थे ...उन में से एक पर यह पंक्तियां भी लिखी हुईं थीं..... Seek the will of God .....Nothing more, nothing less, nothing else…. अर्थात्.....भगवान की रज़ा मे ही राज़ी रहनासीख ले बंदे, उस से तो कुछ ज्यादा, ही कुछ कम एवं ही उस से कुछ इलावा की ख्वाहिश करयह पढ़ करहमें बहुत अच्छा लगा....ये छोटी छोटी बातें हमें कुछ नाज़ुक लम्हों में बड़ा हौंसला सा दे जाती हैं, आपको क्यालगता हैजब मरीज़ हस्पताल में पहुंचता है या डाक्टर से मिलने से पहले जब अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा हैतो उस समय हमें उसे ऐसा वातावरण उपलब्ध करवाना चाहिए जिस से वह सहज अनुभव करे, उसे कुछ तोअपनापन लगेअब कोई अपनी मां को दिखाने गया हुया ,अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए क्या उस समय इसगाने में किसी तरह से भी उस का मन लगता होगा......मेरी मम्मी ने तुम्हें चाय पे बुलाया है !!! ही उस समयरेडियो की आवाज़ ही अच्छी लगती हैवह भी मरीज़ एवं उन के अभिभावकों को चुभती हैंउस समय ज़रूरत होतीहै .....म्यूज़िक फॉर हीलिंग की.....ढ़ेरों सी.डीयां एवं कैसेट्स इस तरह की बाज़ार में उपलब्ध हैं.....साथ ही अच्छीअच्छी प्राकृतिक नज़ारों की तस्वीरें लगी हों, कोई प्रेरक-प्रसंग दिख जाएं तो मन को अच्छा सा लगता है

अच्छा तो दोस्तो,यह रसोलियों एवं टयूमरों की डाक्टर के वेटिंग हाल में पड़े होने की चर्चा तो हम ने कर ली, लेकिनक्या इस से पहले ये हमें समाचार-पत्रों में दिखते होंगे.......क्यों नहीं, अब किसी ने 16किलो का ट्यूमर किसी केपेट से निकाला है तो यह हिंदी अखबार वाले या क्षेत्रीय भाषा की अखबार वाले ना छापे.....यह कभी हो सकता हैक्यामरीज की गोपनीयता को मारो गोली.....मरीज की लाचारी गई तेल लेने----हमें तो बस अपनी पब्लिसिटी सेमतलब है, जब तक दो-तीन अखबारों के स्थानीय संस्करणों में आप्रेशन-थियेटर के कपड़े पहन कर किसी ऐसी हीपीड़ित महिला के बिस्तर के सिर पर खड़े होकर अच्छी सी रंगीन फोटो लगेगी तो आसपीस के चालीस-पचासगांवों के लोगों पर अपनी धाक आखिर कैसे जमेगी( गब्बर सिंह का वह डॉयलाग पता नहीं क्यों बार-बार याद रहा है...यहां से पचास पचास कोस दूर जब बच्चा रोता है, तो मां कहती है.......) । वह मरीज़ लाचार दिख रही है तोदिखा करे....उस से हमें इतना सरोकार नहीं, वैसे भी तो हम ने उस पर पहले कम एहसान किया है वह 16किलो काट्यूमर निकाल करबस, दोस्तो, यही बात आज डाक्टरों को एवं प्रिंट मीडिया को गहराई से सोचने की ज़रूरत हैकि क्या उस जगह हमारे ही घर की कोई महिला हो तो हम उस की उस हालत में तस्वीर किसी समाचार-पत्र केस्थानीय संस्करण में देखना पसंद करेंगे....................तो फिर उस सीधी सादी, लगभग बेजुबान( कम से कम इसमामले में) सी बीमार महिला से हमने इतनी लिबर्टी लेने की आखिर सोच ही कैसे ली।...और वह भी केवल इस लिएकि हमें एवं हमारे हास्पीटल को इस से पब्लिसिटी मिल जाएगीवैसे भी मेरा तो यह दृढ़ विश्वास है कि वर्नैकुलरप्रेस में तो मरीज़ की प्राइवेसी का कुछ ज्यादा ख्याल नहीं रखा जाता....कहा है , उन्हें तो केवल गर्मा-गर्म खबरपरोसने में ही मज़ा आता है

दोस्तो, आपने भी कितनी बार देखा होगा कि किसी नशा-मुक्ति केन्द्र पर जब कोई बड़ा आदमी (काहे का , यह मतपूछिए ???) जाता है तो उस की वह इलाज करवा रहे रोगियों के साथ तस्वीरें भी मीडिया में सुर्खियों के साथ छपजाती हैंअब अगर किसी ऐसी तस्वीर की वजह से किसी मरीज़ के बच्चे को अथवा बीवी को किसी प्रकार के तानेसहने पड़ें भी तो उस से अखबार छापने वालों को क्या मतलब......क्योंकि वह तो कोई खबर है ही नहीं--- इस कीन्यूज़-वैल्यू खाक है

बस, अब विराम लेना चाह रहा हूं...कल रात को किसी पार्टी में स्वाद स्वाद के चक्कर में मूंग की दाल का हलवाकुछ( कुछ नहीं, बहुत ही कहूं तो ठीक है) ज्यादा ही खा-फूट लेने से अभी तक एसिडिटी से परेशान हो रहाहूं...लेकिन क्या करूं....बिल्कुल आप ही की तरह आदत से मज़बूर हूं कि बस जो चीज़ पसंद हो, बस उसे खाते हुएफिर कोई डाक्टरी-वाक्टरी का ध्यान नहीं रहताठीक है, ठीक है , दोस्तो, कभी कभी चलता है

बस, एक मिनट में अपनी बात समाप्त कर रहा हूं.....हैल्थ बीट कवर करने वाले पत्रकार बंधुओं से भी यह अनुरोध हैकि हैल्थ-रिपोर्टिंग करते समय थोड़ा इन बातों का ध्यान रखना ही होगाक्या है , सिने तारिकाओं के द्वारा अपनीकाया को छरहरी रखने के लिए करवाये जा रहे लाईपोसक्शन( शरीर में जमी चर्बी को निकलवाने का आप्रेशन), उन के द्वारा बोटॉक्स इंजैक्शन लगवाने अथवा हालीवुड की लेटेस्ट हार्ट-थ्रोब्स के द्वारा अपनी छाती को और भीज्यादा सुडौल बनाए रखने के उन के प्रयासों के ब्यौरे देने से कहीं ज्यादा ज़रूरी है कि हम इस देश की उस आममहिला की सेहत के बारे में भी लिखें कि वह बच्चेदानी के कैंसर से अथवा स्तन-कैंसर से कैसे बच सकती है...क्योंउस का स्त्री-रोग विशेषज्ञ से किसी छोटी सी छोटी दिखने वाली महिला-शिकायत के लिए मिलना ज़रूरी है

दोस्तो, शायद बात हास्पीटलों के सुकून देने वाले वातावरण के बारे में शुरू हुई थी.......वैसे मेरा तो एक सुखदअनुभव है, जब दो साल पहले मेरा जयपुर के एक हास्पीटल में आप्रेशन में होना था, तो एनसथीसिया देने से पहलेमैं भी बहुत खौफ़ज़दा था.....लेकिन तभी मुझे .टी के अंदर ही एफ-एम पर चल रहे मेरे उस फेवरिट गाने के बोलसुनाई दिए........आंखें भी.. होती हैं दिल की ज़ुबां, पल भर में कर देती हैं हालत ये दिल की ब्यां....!! बस, कुछ लाइनेंही सुनीं थीं कि मुझे पता नहीं कब एनसथिसीया के लिए दिए गये उस टीके ने मेरी आंखें चंद क्षणों में ही बंद करदीं......फिर मुझे कुछ पता नहीं........लेकिन उस आप्रेशन थिय़ेटर के स्टाफ का मैं आज भी ऋणी हूं क्योंकि वे भीमेरी तरह के ही बिगड़े हुए रेडियो-फैन रहे होंगे क्योंकि उन के एफ-एम के सैट से बज रहे उस गीत के खूबसूरतशब्दों ने उन बेहद डरावने से दिखने वाले लम्हों में भी मेरा हाथ थामे रखा

सोमवार, 28 जनवरी 2008

हिंदी फिल्मअवार्ड समारोहों में अंग्रेज़ी का बोलबाला....


मैं कल रात को टीवी पर एक काफी मशहूर फिल्म अवार्ड समारोहों को देख रहा था। पूरे तो देखे नहीं- उसे के कईं कारण थे----सब से पहले तो यह कि इन बार-बार विज्ञापनों की वजह से मेरा तो दोस्तो सिर दुःखने ही लग जाता है ,अब कौन बार बार इतना सब झेल पाए। और वह भी जब ये समारोह कुछ दिन पहले हो चुके होते हैं , तो इन के परिणामों का भी कुछ ज्यादा क्रेज़ होता नहीं है। मैं यह शायद सोच रहा था कि यह प्रोग्राम डैफर्ड लाइव ही चल रहा है, लेकिन इन बच्चों को तो हम से भी ज्यादा पता होता है न, सो उन से पता चला कि यह प्रोग्राम तो दो-सप्ताह पहले हो चुका है।दूसरी बात यह थी कि उस प्रोग्राम के दौरान हमारे स्थानीय केबल-आप्रेटर के द्वारा दिए गये विज्ञापन भी बेहद परेशान कर रहे थे, जिन्होंनेस्क्रीन का लगभग एक चौथाई भाग कवर कर रखा था।
हां, जिस विशेष कारण के लिए मैंने यह पोस्ट लिखी है --वह यह है कि मुझे इस समारके दौरान कुछ इस तरह का आभास हो रहा था कि जैसे कुछ लोग प्रोग्राम के दौरान जब स्टेज पर आते थे तो कुछ इस तरह के नखरे कर रहे थे मानो कि देश के करोड़ों लोगों के ऊपर हिंदी के दो शब्द बोल कर कोई अहसान कर रहे थे।कुछ लोग तो हिंदी का नाम आने पर इतना ज्यादा स्टाईल मार रहे थे( या यूं कहूं कि मारते हैं) कि उन पर हंसी ही आ रही थी। मुझे तो यही समझ यही नहीं आता कि क्या किसी को मस्ती की खुजली इतना भी परेशान कर सकती है कि वह अपने लोगों से अपनी ही भाषा में मुखातिब न हो सके। अंग्रेज़ी की इतनी भरमार देख कर बहुत दुःख होता है, मन खराब होता है कि जिन करोड़ों लोगों ने सिनेमा हाल की टिक्टें खरीद-खरीद कर आप को ऐसे सम्मान लेने एवं देने के काबिल बनाया, आप उन को ही भूलने की कैसे ज़ुर्रत करने की सोच भी सकते हो। ज़रा सोचिए कि देश की कितनी जनता इंगलिश समझ सकती है,तो फिर बीच बीच में यह इंगलिश बोल कर स्टाईल क्यों मारे जाते हैं।
इन की स्टाईल मार मार कर बोली गई हिंदी सुन कर तो यही लगने लग जाता है कि ये लोग हिंदी फिल्मों में ही काम करते हैं यां हालीवुड से आये हैं। बस, दोस्तो,कल तो कुछ अजीब सा ही दिखा। कम्पीयर करने वालेने भी बीच में बहुत ही ज्यादा शुद्ध हिंदी बोलनी शुरु कर दी जिस से मुझे तो हिंदी भाषा का मज़ाक उड़ाने की बास आ रही थी। समझ में नहीं आ रहा कि इन को अब कौन समझाए। हिंदी ब्लोग तो ये लोग कहां पड़ते होंगे, लेकिन अपने मन की लिख कर अपना बोझ हल्का करने से तो मुझे कोई रोक नहीं सकता...सो वही कर रहा हूं।
एक बार और याद आई है कि अपने शास्त्री जी की ब्लोग पर पिछले कुछ दिनों पहले एक पोस्ट थी कि अपने ब्लोग को कैसे पापुलर बनाएं....उन में मेरे ख्याल में एक बात और जुड़ जानी चाहिए कि जितना भी हो सके, हम सहज हो कर लिखें...बोल चाल की भाषा लिखेंगे तो लगता है कि हम अपने लोगों से बातें ही कर रहे हैं, अन्यथा मेरे जैसा बंदोंको जिस ने हिंदी केवल मैट्रिक तक ही दूसरी भाषा के रूप में पढ़ी है, कुछ कुछ बातें समझने में दिक्कत हो जाती है। और मैंने देखा है जहां बंदा कुछ शब्दों पर अटका बस वही उस का मन भी भटका। इसलिए आप सब बलोगर बंधुओं से भी निवेदन है कि भाषा जितनी सीधी सादी रख सकें उतना ही बेहतर होगा। वैसे भी हम
लोग यह सब आपस में एक दूसरे को पढ़वाने के लिए तो लिख नहीं रहे, अगर हमने देश के आमजन को आते समय में इस चिट्ठाकारी के रास्ते हिंदी भाषा से और इंटरनेट से जोड़ना है तो हमें भाषा तो बिल्कुल सादी और बोलचाल की ही लिखनी होगी......नहीं तो लोग इस से भी दूर ही भागेंगे। हमें ज़रूरत है यह देखने कि आज कल हिंदी के समाचार चैनल इतने लोकप्रिय क्यों हैं, हमारे रेडियो-जॉकी हमें इतने अपने-से क्यों लगते हैं कि क्योंकि वे हमारी आम बोलचाल की ही भाषा बोलते हैं, हमें अपनी बातों से खुश रखते हैं....यही उन की सफलता का रहस्य है। चलो, अभी से मैं भी यह प्रण करता हूं कि कभी कभी अपनी पोस्टों पर जो एक-दो वाक्य अंग्रेजी के झाड़ कर खुश हो लेता हूं...मैं भी यह आदत छोड़ने की पूरी कोशिश करूंगा.....आर्शीवाद दें कि मैं इस में सफल हो सकूं।
वैसे जाते जाते यह तो कह दूं कि मनोज कुमार जी का जो सम्मान इस समारोह में किया गया वह बहुत अच्छा लगा और इस से ठीक पहले एवं इससे संबंधित ही उर्मिला मटोंडकर की प्रस्तुति भी बहुत अच्छी लगी। विशेषकर उर्मिला का स्टेज से नीचे उतर कर मनोज जी को अपने साथ उन का हाथ पकड़ कर स्टेज पर लाना हमारे भी मन को छू गया।

रविवार, 27 जनवरी 2008

जब जीना दूभर सा कर देती है यह खारिश-खुजली....


हमारे यहां खुजली मिटाने वाली दवाईयों की बिक्री बहुत होती है क्योंकि अकसर लोग बिना किसी डाक्टरी सलाह के अपने आप ही कोई भी ट्यूब बाज़ार से ला कर लगानी शुरू कर देते हैं। बहुत बार तो देखने में आया है कि स्टीरॉयड युक्त ट्यूबें भी खुजली के लिए बिना किसी डाक्टर से परामर्श किए हुए खूब इस्तेमाल की जाती हैं। ऐसे में अकसर रोग को बढ़ावा मिल जाता है। हां,अगर को क्वालीफाईड चिकित्सक अथवा चमड़ी रोग विशेषज्ञ की देख रेख में—उस की सलाह अनुसार- आप इन ट्यूबों का इस्तेमाल कर रहे हैं तो बात और है।

किसी भी तरह के चर्म-रोग होने पर तुरंत अपने चिकित्सक से मिलें----कईं बार कुछ दिन दवाई लगाने पर उपेक्षित आराम नहीं मिलता । ऐसे में आप का फैमिली डाक्टर आप को स्वयं ही किसी चर्म-रोग विशेषज्ञ के पास रैफर कर देगा, अन्यथा आप स्वयं भी किसी प्रशिक्षित चर्म रोग विशेषज्ञ से मिल सकते हैं।

मेरे एक मित्र की माता जी की एक आंख के आस-पास चेहरे की चमड़ी में अचानक दर्द रहने लगा......दर्द बहुत तेज़ था.....साथ में छोटे छोटे दाने से निकल आये। उस ने किसी दूसरे शहर में रह रहे हमारे किसी मित्र से बात की जो चर्म-रोग विशेषज्ञ हैं....उस ने सारी बात सुनते ही उस मित्र को कहा कि अपने शहर के किसी चर्म-रोग विशेषज्ञ के पास माता जी को तुरंत ले कर जाओ क्योंकि देख कर ही पूरा पत लग पायेगा (शायद वो पूरी डिसक्रिपश्न सुन कर डॉयग्नोसिस कर चुके थे) । जब चर्म –रोग विशेषज्ञ के पास माता जी को लेकर जाया गया, तो उस ने देखते ही कह दिया की यह तो इन को हर्पिज़ यॉस्टर हुया है। खूब सारी दवाईंयां तुरंत शुरू की गईं...और नेत्र विशेषज्ञ से मिलने को भी कहा गया। नेत्र विशेषज्ञ ने भी यही कहा कि टाइम पर आ गए हो, नहीं तो आँख ही बेकार हो सकती थी। यह बात बताने का उद्देश्य केवल इतना ही है कि हम किसी भी चमड़ी की तकलीफ को इतना लाइटली न लें।

तो , आज कुछ बातें स्केबीज़ चर्म रोग के बारे में करते हैं जिस से लोग बहुत परेशान भी होते हैं और डर भी बहुत जाते हैं।

स्केबीज़ चर्म रोग सारकॉपटिस स्केबी नामक एक छोटे से कीड़े के द्वारा फैलता है। यह छूत की बीमारी तो है लेकिन यह हवा, पानी अथवा सांस के द्वारा नहीं फैलती, बल्कि यह रोगी के साथ निकट संपर्क से फैलती है। इसलिए परिवार में एक व्यक्ति से यह सारे परिवार में ही अकसर फैल जाती है। इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति को छूने मात्र ही से यह रोग नहीं हो जाता बल्कि नज़दीकी एवं काफी लंबे अरसे तक रोग-ग्रस्त व्यक्ति के संपर्क में रहने से यह फैलता है।

इस के बारे में विशेष ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि इस का संक्रमण होने पर लगभग एक महीने या उस से भी ज्यादा समय तक मरीज को बिल्कुल खुजली नहीं होती और इस दौरान तो उसे यह भी पता नहीं होता कि उसे कोई चर्म रोग है। लेकिन इस दौरान भी उस के द्वारा यह रोग आगे दूसरे लोगों को तो अवश्य फैल सकता है।

आम तौर पर बच्चों में यह रोग बहुत आम है। इस में सारे शरीर पर छोटे-छोटे दाने हो सकते हैं जिन में बेहद खुजली ( खास कर रात के समय) होती है, लेकिन आम तौर पर ये दाने उंगलियों के बीच, कलाई पर, पेट पर एवं प्रजनन अंगों पर ही होते हैं।

इन दानों पर खुजली करने से संक्रमण बढ़ता है, पस वाले फोड़े बन जाते हैं जिस की वजह से शरीर के विभिन्न भागों में गांठें ( लिम्फ नॉड्स) सूज जाती हैं और बुखार हो जाता है।

साधारणतयः स्कबीज़ चर्म रोग से मृत्यु हो जाना सुनने में नहीं आता, लेकिन अगर छोटे बच्चों को यह त्वचा रोग हो तो उन का विशेष ध्यान रखने की ज़रूरत है। इन में रोग –प्रतिरोधक क्षमता( इम्यूनिटि) तो वैसे ही कम होती है—अगर पस पड़ने से, बुखार होने से , संक्रमण रक्त में चला जाए ( सैप्टीसीमिया) तो यह जान लेवा सिद्ध हो सकता है।

इस स्केबीज़ चर्म रोग के इलाज के लिए कुछ ध्यान देने योग्य बातें ये भी हैं....

· घर में एक भी सदस्य को स्केबीज़ होने पर पूरे परिवार का एक साथ इलाज होना लाज़मी है।

· इस बीमारी के पूर्ण इलाज के लिए बहुत ही प्रभावशाली लगाने वाली दवाईयां उपलब्ध हैं। इन का प्रयोग आप अपने चिकित्सक से मिलने के पश्चात् कर सकते हैं। गले के नीचे-नीचे शरीर के सभी भागों में इसे ब्रुश से लगाया जाता है। सारे शरीर की चमड़ी पर इसे लगाना बहुत ज़रूरी है। अगर मरीज इस केवल उन जगहों पर ही लगाएंगे जहां पर ये दाने हैं तो बीमारी का नाश नहीं हो पाएगा। 24घंटे के अंतराल पर यह दवाई ऐसे ही शरीर पर दो बार लगाई जाती है। और उस के बाद नहा लिया जाता है। इस दवाई का शरीर पर 48 घंटे लगे रहना बहुत ज़रूरी है।

· विश्व विख्यात पुस्तक जहां कोई डाक्टर न होके लेखक डेविड वर्नर इस पुस्तक में स्केबीज़ पर एक पेस्ट लगाने की सलाह देते हैं। इसे तैयार करने की विधि इस प्रकार है—थोड़े से पानी में नीम के कुछ पत्ते उबाल लें। इस हल्दी के पावडर के साथ मिला कर एक गाढ़ी पेस्ट बना लें। सारे शरीर को अच्छी तरह से साबुन लगा कर धोने के पश्चात् इस पेस्ट का सारे शरीर विशेषकर उंगलियों के बीच के हिस्सों, टांगों के अंदरूनी हिस्सों( inside portion of thighs) एवं पैरों की उंगलियों के बीच लेप कर दें। उस के बाद सूर्य की रोशनी में कुछ समय खड़े हो जायें। अगले तीन दिनों तक रोज़ाना यह लेप करें, लेकिन नहाएं नहीं। चौथे दिन मरीज़ नहाने के बाद साफ़ सुथरे, सूखे कपड़े पहने। चमड़ी रोग विशेषज्ञ से मिलने से पहले आप इस घरेलु पेस्ट का उपयोग तो अवश्य कर ही सकते हैं , लेकिन प्रोपर डायग्नोसिस एवं यह पता करने के लिए कि रोग जड़ से खत्म हो गया है या नहीं...इस के लिए चर्म-रोग विशेषज्ञ से मिलना तो ज़रूरी है ही।

· स्केबीज़ से डरिए नहीं, इस का इलाज तो बहुत आसान है ही, रोकथाम भी बड़ी आसान है। साफ़-स्वच्छ जीवन-शैली, रोज़ाना नहा धो-कर कपड़े बदलने से इससे बचा जा सकता है। कपड़े और बिस्तर की सफाई का ध्यान रखें और सूर्य की रोशनी में इन्हें अच्छी तरह सुखाएं। और हां, छोटे बच्चों को भी यह रोग होने पर तुरंत चिकित्सक से मिलें।

जब जीना दूभर सा कर देती है यह खारिश-खुजली....



हमारे यहां खुजली मिटाने वाली दवाईयों की बिक्री बहुत होती है क्योंकि अकसर लोग बिना किसी डाक्टरी सलाह के अपने आप ही कोई भी ट्यूब बाज़ार से ला कर लगानी शुरू कर देते हैं। बहुत बार तो देखने में आया है कि स्टीरॉयड युक्त ट्यूबें भी खुजली के लिए बिना किसी डाक्टर से परामर्श किए हुए खूब इस्तेमाल की जाती हैं। ऐसे में अकसर रोग को बढ़ावा मिल जाता है। हां,अगर को क्वालीफाईड चिकित्सक अथवा चमड़ी रोग विशेषज्ञ की देख रेख में—उस की सलाह अनुसार- आप इन ट्यूबों का इस्तेमाल कर रहे हैं तो बात और है।
किसी भी तरह के चर्म-रोग होने पर तुरंत अपने चिकित्सक से मिलें----कईं बार कुछ दिन दवाई लगाने पर उपेक्षित आराम नहीं मिलता । ऐसे में आप का फैमिली डाक्टर आप को स्वयं ही किसी चर्म-रोग विशेषज्ञ के पास रैफर कर देगा, अन्यथा आप स्वयं भी किसी प्रशिक्षित चर्म रोग विशेषज्ञ से मिल सकते हैं।
मेरे एक मित्र की माता जी की एक आंख के आस-पास चेहरे की चमड़ी में अचानक दर्द रहने लगा......दर्द बहुत तेज़ था.....साथ में छोटे छोटे दाने से निकल आये। उस ने किसी दूसरे शहर में रह रहे हमारे किसी मित्र से बात की जो चर्म-रोग विशेषज्ञ हैं....उस ने सारी बात सुनते ही उस मित्र को कहा कि अपने शहर के किसी चर्म-रोग विशेषज्ञ के पास माता जी को तुरंत ले कर जाओ क्योंकि देख कर ही पूरा पत लग पायेगा (शायद वो पूरी डिसक्रिपश्न सुन कर डॉयग्नोसिस कर चुके थे) । जब चर्म –रोग विशेषज्ञ के पास माता जी को लेकर जाया गया, तो उस ने देखते ही कह दिया की यह तो इन को हर्पिज़ यॉस्टर हुया है। खूब सारी दवाईंयां तुरंत शुरू की गईं...और नेत्र विशेषज्ञ से मिलने को भी कहा गया। नेत्र विशेषज्ञ ने भी यही कहा कि टाइम पर आ गए हो, नहीं तो आँख ही बेकार हो सकती थी। यह बात बताने का उद्देश्य केवल इतना ही है कि हम किसी भी चमड़ी की तकलीफ को इतना लाइटली न लें।
तो , आज कुछ बातें स्केबीज़ चर्म रोग के बारे में करते हैं जिस से लोग बहुत परेशान भी होते हैं और डर भी बहुत जाते हैं।
स्केबीज़ चर्म रोग सारकॉपटिस स्केबी नामक एक छोटे से कीड़े के द्वारा फैलता है। यह छूत की बीमारी तो है लेकिन यह हवा, पानी अथवा सांस के द्वारा नहीं फैलती, बल्कि यह रोगी के साथ निकट संपर्क से फैलती है। इसलिए परिवार में एक व्यक्ति से यह सारे परिवार में ही अकसर फैल जाती है। इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति को छूने मात्र ही से यह रोग नहीं हो जाता बल्कि नज़दीकी एवं काफी लंबे अरसे तक रोग-ग्रस्त व्यक्ति के संपर्क में रहने से यह फैलता है।
इस के बारे में विशेष ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि इस का संक्रमण होने पर लगभग एक महीने या उस से भी ज्यादा समय तक मरीज को बिल्कुल खुजली नहीं होती और इस दौरान तो उसे यह भी पता नहीं होता कि उसे कोई चर्म रोग है। लेकिन इस दौरान भी उस के द्वारा यह रोग आगे दूसरे लोगों को तो अवश्य फैल सकता है।
आम तौर पर बच्चों में यह रोग बहुत आम है। इस में सारे शरीर पर छोटे-छोटे दाने हो सकते हैं जिन में बेहद खुजली ( खास कर रात के समय) होती है, लेकिन आम तौर पर ये दाने उंगलियों के बीच, कलाई पर, पेट पर एवं प्रजनन अंगों पर ही होते हैं।
इन दानों पर खुजली करने से संक्रमण बढ़ता है, पस वाले फोड़े बन जाते हैं जिस की वजह से शरीर के विभिन्न भागों में गांठें ( लिम्फ नॉड्स) सूज जाती हैं और बुखार हो जाता है।
साधारणतयः स्कबीज़ चर्म रोग से मृत्यु हो जाना सुनने में नहीं आता, लेकिन अगर छोटे बच्चों को यह त्वचा रोग हो तो उन का विशेष ध्यान रखने की ज़रूरत है। इन में रोग –प्रतिरोधक क्षमता( इम्यूनिटि) तो वैसे ही कम होती है—अगर पस पड़ने से, बुखार होने से , संक्रमण रक्त में चला जाए ( सैप्टीसीमिया) तो यह जान लेवा सिद्ध हो सकता है।
इस स्केबीज़ चर्म रोग के इलाज के लिए कुछ ध्यान देने योग्य बातें ये भी हैं....
· घर में एक भी सदस्य को स्केबीज़ होने पर पूरे परिवार का एक साथ इलाज होना लाज़मी है।
· इस बीमारी के पूर्ण इलाज के लिए बहुत ही प्रभावशाली लगाने वाली दवाईयां उपलब्ध हैं। इन का प्रयोग आप अपने चिकित्सक से मिलने के पश्चात् कर सकते हैं। गले के नीचे-नीचे शरीर के सभी भागों में इसे ब्रुश से लगाया जाता है। सारे शरीर की चमड़ी पर इसे लगाना बहुत ज़रूरी है। अगर मरीज इस केवल उन जगहों पर ही लगाएंगे जहां पर ये दाने हैं तो बीमारी का नाश नहीं हो पाएगा। 24घंटे के अंतराल पर यह दवाई ऐसे ही शरीर पर दो बार लगाई जाती है। और उस के बाद नहा लिया जाता है। इस दवाई का शरीर पर 48 घंटे लगे रहना बहुत ज़रूरी है।
· विश्व विख्यात पुस्तक “ जहां कोई डाक्टर न हो”के लेखक डेविड वर्नर इस पुस्तक में स्केबीज़ पर एक पेस्ट लगाने की सलाह देते हैं। इसे तैयार करने की विधि इस प्रकार है—थोड़े से पानी में नीम के कुछ पत्ते उबाल लें। इस हल्दी के पावडर के साथ मिला कर एक गाढ़ी पेस्ट बना लें। सारे शरीर को अच्छी तरह से साबुन लगा कर धोने के पश्चात् इस पेस्ट का सारे शरीर विशेषकर उंगलियों के बीच के हिस्सों, टांगों के अंदरूनी हिस्सों( inside portion of thighs) एवं पैरों की उंगलियों के बीच लेप कर दें। उस के बाद सूर्य की रोशनी में कुछ समय खड़े हो जायें। अगले तीन दिनों तक रोज़ाना यह लेप करें, लेकिन नहाएं नहीं। चौथे दिन मरीज़ नहाने के बाद साफ़ सुथरे, सूखे कपड़े पहने। चमड़ी रोग विशेषज्ञ से मिलने से पहले आप इस घरेलु पेस्ट का उपयोग तो अवश्य कर ही सकते हैं , लेकिन प्रोपर डायग्नोसिस एवं यह पता करने के लिए कि रोग जड़ से खत्म हो गया है या नहीं...इस के लिए चर्म-रोग विशेषज्ञ से मिलना तो ज़रूरी है ही।
· स्केबीज़ से डरिए नहीं, इस का इलाज तो बहुत आसान है ही, रोकथाम भी बड़ी आसान है। साफ़-स्वच्छ जीवन-शैली, रोज़ाना नहा धो-कर कपड़े बदलने से इससे बचा जा सकता है। कपड़े और बिस्तर की सफाई का ध्यान रखें और सूर्य की रोशनी में इन्हें अच्छी तरह सुखाएं। और हां, छोटे बच्चों को भी यह रोग होने पर तुरंत चिकित्सक से मिलें।

1 comments:

Gyandutt Pandey said...
आप सही कह रहे हैं डाक्टर साहब। स्किन एलमेण्ट के मामलों में हमने सेल्फ मेडीकेशन का प्रयोग भी किया है और डाक्टर की सलाह पर भी। लगभग सभी मामलों में अंतत डाक्टर की सलाह से ही काम बना है। और डाक्टर की सलाह पर इतनी तेजी से आराम हुआ कि लगता था सेल्फ मेडिकेशन की क्या बेवकूफी कर रहे थे।
कई बार तो इस शर्म से डाक्टर के पास नहीं जाते थे कि यह न लगे कि हम सामान्य हाइजीन का भी प्रयोग नहीं करते। :-)

शनिवार, 26 जनवरी 2008

“नहीं, डाक्टर, मैं किसी ऐसी वैसी जगह नहीं जाता.....


बस, यूं ही तीन-चार जगह जहां मेरा प्यार बना हुया है, बस वहां ही.....। आप शायद गलत समझ रहे हैं,मैं उन वेश्याओं वगैरह के चक्कर में नहीं हूं।

दोस्तो, हम डाक्टर लोगों को भी नित-प्रतिदिन नये नये अनुभव होते रहते हैं जिन्हें हमें फिर दूसरों के साथ बांटना ही पड़ता है क्योंकि उन अनुभवों में कुछ इस तरह की बातें होती हैं जिन से दूसरों का भी कल्याण हो जाता है...उन में भी स्वास्थ्य के प्रति चेतनता बढ़ती है। लेकिन यकीन मानिए हम जब ऐसी बातों को किसी से साझी करते हैं तो हम उस किसी मरीज़ की गोपनीयता का 101फीसदी ध्यान रखते हैं क्योंकि उस मरीज़ ने भी कितना भरोसा कर के वह बात डाक्टर के साथ शेयर की होती है। अब जो मैं बात आप को बताने जा रहा हूं, उस मरीज़ का नाम अथवा किसी तरह की डिटेल्स मैं किसी के साथ शेयर करने की सोच ही नहीं सकता। लेकिन यह जो बात बता रहा हूं –इस का मतलब किसी तरह से भी यह नहीं है कि डाक्टर मरीज़ों के बारे में किसी तरह के जजमैंटल होते हैं......बिल्कुल नहीं, सो इस बात को केवल कुछ सबक ग्रहण करने के लिए ही सुनिएगा। लेकिन है यह शत-प्रतिशत सच।

कुछ दिन पहले, दोस्तो, मेरे पास लगभग 40वर्ष का युवक आया ( अब युवक ही कहूंगा...क्योंकि 35-40 की उम्र तक तो युवक अब कुंवारे ही रहने लगे हैं).....लेकिन यह युवक शादी-शुदा था। वह जिस तकलीफ़ के लिए आया था, जब मैं उस का निरीक्षण कर ही रहा था तो उस के मुंह में झांकने पर मुझे कुछ इस तरह के इंडीकेटर्स दिखे जो कि स्वस्थ व्यक्ति में नहीं होते, और जो कम इम्यूनिटि( रोग-प्रतिरोधकता क्षमता) की तरफ भी इशारा कर रहे होते हैं। इन इंडीकेटर्स की चर्चा विस्तार से फिर किसी पोस्ट में करेंगे। एक अवस्था जो आजकल के परिपेक्ष्य में संभावित सी जान पड़ रही थी, वह है एच-आई-व्ही इंफैक्शन।

तो, उस की तकलीफ़ के लिए प्रेसक्रिप्शन लिखते हुए मैंने उसे बहुत ही एक कैज़ुएल-वे में यह पूछ लिया कि बाहर किसी से शारीरिक संबंध तो नहीं रखते हो। लेकिन यह क्या, उस ने भी उतने ही कैज़ुएल वे में कह दिया----हां, हां, बिल्कुल !!

मुझे लगा कि उस ने मेरा प्रश्न ठीक से कैच नहीं किया, क्योंकि इतनी जल्दी और इतनी फ्रैंकनैस से हमें इन बातों के जवाब कम ही मिलते हैं। पहले थोड़ा मरीज़ से बातचीत में खुलना पड़ता है ....we have to make the person comfortable before discussing personal issues….otherwise why the hell he would talk with his doctor what he is doing behind closed doors!!

इसलिए मैंने अपना प्रश्न कुछ दूसरे ढंग से पूछा.....नहीं, मैं तो केवल यही पूछना चाह रहा था कि आप ने पिछली बार बाहर किसी के साथ शारीरिक संबंध कितने साल पहले बनाए थे। एक बार फिर मैं उस का जवाब सुन कर दंग रह गया....डाक्टर साहब, कितने साल पहले क्या, मैं तो आज भी यह सब खूब करता हूं।

मैंने उस से आगे कहा कि तुम्हें पता है न कि आज कल कितनी बीमारियां ऐसे असुरक्षित यौन संबंधों से फैलती हैं। खैर, दो-तीन बातें करने के बाद मैंने उसे एच-आई-व्ही टैस्ट करवाने पर राज़ी करवा लिया। लेकिन मैंने उसे इतना भी कह दिया कि इतनी कोई जल्दी भी नहीं है, तुम्हारी 2-4 दिन में जब तबीयत ठीक हो जाएगी, तब यह एच-आई-व्ही के लिए अपने रक्त की जांच भी ज़रूर करवा लेना। वह कुछ चिंतित सा लगा, सो मैंने उसे कहा कि इस में चिंता की तो कोई बात है ही नहीं, बिल्कुल मत सोचो इस के बारे में ज्यादा, लेकिन तुम चूंकि हाई-रिस्क सैक्सुयल बिहेवियर में लिप्त हो , इसलिए यह टैस्ट करवा लेना ही तुम्हारे हित में होगा। और तब मैंने उस मरीज़ को भेज दिया।

दोस्तो, आप सोच रहे होंगे कि उस का टैस्ट उसी समय ही क्यों नहीं करवा लिया गया, नहीं, दोस्तो, अकसर ऐसा नहीं किया जाता,क्योंकि मरीज़ को थोडा मानसिक तौर पर तैयार होने में टाइम तो लगता ही है ..उस में उस की सहमति (informed consent) भी बहुत ज़रूरी है …अब अगर किसी व्यक्ति को जो आप के पास थूक निगलने में दर्द की शिकायत लेकर आया है , उसे आप एचआईव्ही टैस्ट करवाने के लिए कह रहे हैं.....उस का तो सिर ही एकदम से घूम जाता है,और विशेषकर जब वह कोई भी हाई-रिस्क सैक्सुयल एक्टिविटि में लिप्त होने की बात स्वयं स्वीकार रहा हो......That’s why it is very important to make him/her feel relaxed !!.

दोस्तो, मैंने तो तीन –चार दिन के बाद आने की कही थी लेकिन वह तो अगले ही दिन मेरे पास आ गया। बहुत खुश लग रहा था, बताने लगा कि डाक्टर साहब, आप से कल जब मैं मिल कर गया, मेरे तो पैरों के तले से ज़मीन ही खिसक गई, मेरे से तो रहा ही नहीं गया, मैं सीधा पैथोलाजी लैब में गया और जा कर अपना खून HIV जांच के लिए दे दिया। उस ने आगे बताया कि शाम को मुझे जब ठीक ठाक होने की रिपोर्ट मिली तो मुझे चैन आया, मैं तो डाक्टर बहुत घबरा गया था।

अब हमारी अगली बात ज़रा ध्यान से सुनिएगा....पोस्ट लंबी होने की चिंता मेरी पोस्ट में ज्यादा न किया करें...आप को पता ही है कि डाक्टर लोग तो वैसे कितना कम बोलते हैं, और देखिए मैं आपसे बतियाता ही जा रहा हूं।

अच्छा , तो दोस्तो, मैंने उस की ठीक ठाक रिपोर्ट देख कर उसे बधाई दी और कहा यह तो ठीक है , लेकिन जो आप कल बाहर जा कर संबंध (extra-marital relations) बनाने की बात कह रहे थे, उस पर टोटल रोक लगा दें, ताकि हमेशा के लिए आप इस बीमारी से अपना बचाव कर सकें।

अब उस की बोलने की बारी थी----नहीं, डाक्टर साहब, आप गल्त समझ बैठे हैं, मैं इधर-उधर कहीं नहीं जाता...मेरे कहने का मतलब है कि वैश्याओं के पास नहीं जाता, बस कुछ पर्सनल 3-4 जुगाड़ हैं , जो अब विवाहित हैं ,जहां बस प्यार का ही मामला है, एक दम पर्सनल...और कुछ नहीं।

अब मैं उस को यह कैसे कहता कि जिन “जुगाड़ों” को तुम इतना पर्सनल कह कर इतरा रहे हो, उनकी इतनी गारंटी कैसे ले सकते हो। क्या पता यह क्लेम करने वाले और भी कितने हों !!(विचार तो, दोस्तो, एक दो और भी आए लेकिन वे यहां लिखने लायक भी नहीं हैं....क्या है न , डाक्टरों को गुस्सा पीना भी बखूबी आता है...) .....चूंकि डाक्टरों को मरीज़ पर सीधी कोई भी चोट करने से बचना होता है या यूं कहूं कि डैकोरम मेनटेन करना होता है, सो मैंने भी उस दिन उसे समझाने के लिए थोड़ा घुमावदार तरीका ही अपनाया।

मैंने उस बंदे को यह कह कर समझाने की कोशिश की कि देखो, मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं कि ये सब तुम्हारी पर्सनल हैं, लेकिन सोचो, उन के जो पति हैं वे कहां कहां जाते होंगे, तुम इस की क्या गारंटी ले सकते हो ? ….दोस्तो, यकीन मानिए बात उस के मन को लग गई। और, अंत में वह कहने लगा कि अब मेरी तो तौबा, डाक्टर साब, ऐसे संबंधों से। लेकिन अभी भी उस के अंदर का कीड़ा काट रहा था.......जाने से पहले, एक सवाल उस ने यह कर ही दिया कि डाक्टर साब, सैक्स की बात तो मैं मान गया, लेकिन क्या चुंबन करने से भी कोई खतरा होता है। मैंने उसे समझाया कि हां, हां, मुंह से मुंह (mouth-to-mouth kissing) लगा कर किए जाने से भी एचआईव्ही इंफैक्शन का खतरा संक्रमित व्यक्ति से स्वस्थ व्यक्ति में होता ही है क्योंकि मुंह में अगर कट्स हैं, छाले हैं, कोई घाव है, खरोंच हैं तो बस हो गया एचआईव्ही वायरस के फैलने का प्रबंध। लग तो रहा था कि अब उसे पूरी समझ लग चुकी है कि यह खेल तो आग का खेल है।

जाते जाते मैंने उसे यह भी समझाया कि अब अपना ध्यान इस घर के बाहर जा कर संबंध स्थापित करने से हटाओ....सैर किया करो, प्राणायाम एवं योग किया करो....सात्विक भोजन खाया करो......हां,हां, वही सब घिसी पिटी बातें जो मेरे जैसे सारे डाक्टर सारा दिन गला फाड़-फाड़ कर कहते रहते हैं।

लेकिन इस घटना ने मेरे उस विश्वास को और भी पक्का कर दिया कि अच्छे पढ़े लिखे लोगों में भी एचआईव्ही संक्रमण एवं इन पर्सनल जुगाड़ों के प्रति कितनी गलतफहमी है। इसलिए हम डाक्टरों पर भी यह अवैयरनैस लाने की अभी कितनी बड़ी जिम्मेदारी है।

पोस्ट लंबी है, मैं इस के बारे में कुछ नहीं कर सका---क्योंकि, दोस्तो, मुझे अपनी बात तो पूरी आप के सामने रखनी ही थी।

Wishing you pink of health and lots of lots of happiness..

बचपन के दिन भुला न देना.......!!




दोस्तो, अगर आप को कहीं पीछे छूट चुके बचपन की एक हल्की सी झलक देखने की तड़फ है, तो ही इस बलोग को देखिए.....वरना, आप जो काम कर रहे हैं, प्लीज़ कैरी ऑन।

हुया यों कि दोस्तो, आज अभी कुछ समय पहले जब गणतंत्र दिवस की गतिविधियों से फारिग हो कर रिफ्रैशमैंट ले रहे थे तो मेरा बेटा वहां हाथ में एक गुलेल ले कर अंदर आया जो उस ने बाहर खड़े किसे खिलौने वाले से अभी अभी खरीदी थी। आप को भी याद आ गया न----कुछ कुछ अपना इस गुलेल से रिश्ता। दोस्तो, वह गुलेल क्या अंदर लाया, यार, मैं तो सीधे 30साल पुराने ज़माने में पहुंच गया। वो भी क्या दिन थे......इतनी अच्छी रैडीमेड गुलेलें भी तब कहां मिलती थीं। मेरे साथ बैठे एक साथी भी गुज़रे ज़माने में पहुंच गए.....वो भी याद करने लगे कि हम तो भई किसी साइकिल के टायर की फटी हुई टयूब से ही इसे बना लिया करते थे...और फिर उसी ट्यूब के टुकड़े से ही उस को उस विशेष किस्म की लकड़ी से कस से बांधना भी होता था........और हां, मैंने कहा कि वह Y – शेप की लकड़ी ढूंढना भी कौन सा आसान काम था। साथ में बैठे एक अन्य सज्जन ने भी यह कह कर अपनी सारी यादें ताज़ा कर लीं कि बस इस के साथ साथ कुछ छोटे-छोटे पत्थरों से लैस होकर फिर होती थी अपनी आधे कच्चे-आधे पक्के आम पेड़ों से गिरा कर नमक के साथ खाने वाले अभियान की तैयारी। मुझे तो याद आया कि मैं तो भई इस के साथ इमली के बीजों को ही इस्तेमाल करता था। लेकिन इस गुलेल को हाथ में उठाने का मतलब होता था कि बस घर के हर बंदे से झिड़कियां खाने का सिलसिला शुरू हो जाना।

बात यह भी सोलह आने सच है कि तब इस शेप की लकड़ीयां इतनी तादाद में कहां मिलती थीं...इसलिए अमृतसर में एक जंगली पौधा होता है जिसे हम पंजाबी में अक कहते हैं ( I am very sorry, friends, I don’t know what they say this in Hindi….I am awfully sorry for this !!)…..वह पौधा तो क्या उस की छोटी छोटी झाडियां टाइप ही हुया करतीं थीं जिन के ऊपर कुछ इस तरह के फल भी आते थे जिन से सफेद दूध टाइप का कुछ द्रव्य निकलता था, उस के पत्तों को लोग किसी फोड़े( abcess) को पकाने के लिए भी इस्तेमाल किया करते थे.......मुझे याद है मेरे से दस साल बड़ी बहन की छाती पर भी एक बार कुछ ऐसा ही हुया होगा ...वह दो-तीन दिन रोती रही थी, फिर मेरी मां ने इस पौधे का पत्ता ही गर्म कर के उस पर लगाया था, उस के आगे का कुछ याद नहीं....मैं तब 4-5 साल का रहा हूंगा।

और हां, दोस्तो, मैं भी किधर का किधर निकल गया। अच्छी भली गुलेल की बात हो रही थी। और तो और दोस्तो, जब कभी निशाना साधते हुए उस गुलेल की लकड़ी टूट जाती थी , तो मन बड़ा बेहद दुःखी होता था। कईं शरारती किस्म के लड़के तो छोटे-छोटे बच्चों को उलटी गुलेल सिखाने की हिदायत ही दे डालते थे।

दोस्तो, यह गुलेल तो एक बहाना ही साबित हुई हमें अपने कहीं दूर खो चुके बचपन की एक झलक देखने क्या। क्या यार वो भी क्या दिन थे.....कहां हो बचपन तुम......तुम यार बहुत जल्दी बीत जाते हो......एक तो समस्या यह है कि हमें अब समझ भी जल्दी ही आने लगी है। और मां-बाप को भी जल्दी पड़ी होती है कि जल्दी से जल्दी बच्चे को किसी बड़े से स्कूल में डाल कर अपना एक और स्टेटस सिंबल ऐड कर लें। पहले ऐसी जल्दी भी नहीं हुया करती थी.....बंदा घर में ही अपनी मां, चाची , ताई, दादी ,नानी, .....और ढेर सारा प्यार देने वाली पड़ोस की अपनी मां-जैसी ही लाडली दिखने वाली आंटियों से भी बहुत कुछ सीखता रहता था। अब किस के पास टाइम है......

और हां, बेटे ने गुलेल तो ले ली है, लेकिन अब चलानी कहां है, क्योंकि अपने सारे पेड़ पौधे काट काट कर तो हम अपने बेवकूफ होने के सारे सबूत बरसों से जुटा ही रहे हैं. अब गुलेल अगर महानगरों में इस्तेमाल होगी तो इमली की बजाए झगडे ही तो हाथ लगेंगे। और हां, इमली की बात से याद आ गया कि दो दिन पहले नीरज जी द्वारा अपनी प्यारी पोती मिष्टी के जन्मदिन के उपलक्ष्य में लिखी पोस्ट बेहतरीन थी....शायद ही किसी दादू ने अपनी पोती को इतना बेहतरीन तोहफा पहले दिया हो...पोस्ट का नाम था.....हसरतों की इमलियां.........अगर अभी तक नहीं पढ़ी है तो जरूर पढ़ना, दोस्तो।

दोस्तो, मैं कुछ ज्यादा ही अपनी बात खींच तो नहीं गया ....कोई बात नहीं दोस्तो बचपन में घूमते हुए कहां हम लोग अपने आप को शब्दों अथवा टाईम के बंधन में बाँध पाते हैं। लेकिन मैंने आप को अगर इस पोस्ट की तरफ बुला कर डिस्टर्ब किया है तो दोस्तो मैं हाथ जोड़ कर आप से माफी मांगता हूं। वैसे दोस्तो मैंने तो इस ब्लाग—मेरी स्लेट—के उदघाटन समारोह में ही यह घोषणा कर दी थी कि इस ब्लोग पर... अपनी स्लेट... पर मैं जम कर मस्ती करूंगा....क्योंकि मुझे कैसे भी किसी भी कीमत पर अपना बचपन दोबारा जीना है......आप क्या सोच रहे हैं, आप भी कुछ सुनाइए.........देखना, आपस में बात करेंगे तो कितना मज़ा आएगा।

बचपन के दिन भूला न देना,.....एक गाना है न ऐसा ही कुछ, अच्छा लगता है।