रविवार, 23 नवंबर 2008

मुझे नेट पर हिंदी लिखना किसने सिखाया ?-हिंदी ब्लागिंग में एक साल --थैंक्स गिविंग !!



ब्लागिंग करते करते एक साल हो गया .....सोच रहा हूं कि बढ़िया टाइम-पास है...जो भी मन में है लिख कर हल्कापन महसूस होने लगता है। पहले अखबारों के लिये लिखा करता था लेकिन जब से नेट पर लिखना शुरू किया पता नहीं कभी भी अखबार में कभी भी कोई लेख भेजा ही नहीं ----पता है इस का क्या कारण है ?---न ही टका वहां मिलता था और न ही यहां मिलता है , लेकिन यहां यह संतुष्टि है कि हम लोग अपनी मर्जी के मालिक हैं ---जो चाहा, लिख लिया, और बंदा खुश।

अखबारों के लिये पहले लेख लिखो---फिर फैक्स करो, उस के बाद दो-तीन बार फोन कर के कंफर्म करो कि ठीक तरह से रिसीव हो गया है कि नहीं--- यह सब बहुत किया ---कईं साल किया ---खीझ खीझ कर किया ---लेकिन इस के इलावा अपनी बात जनमानस तक पहुंचाने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। और उस समय तो बहुतत ही चिढ़ हुआ करती थी जब अखबार के दफ्तर में काम कर रहा कोई बारहवीं पास या अंडर-ग्रेजुएट छोरा लेखों को इवैल्यूएट किया करता था - बस, जैसे तैसे समय पास हो रहा था ----पिछले साल नवंबर के महीने की 15-20 तारीख के आसपास एक संपादक ने मुझे हिंदी लेख ई-मेल के माध्यम से भेजने के लिये कहा था।

मेरी बेटे से बात हुई ----उस ने दो-चार दिन में बड़ी मेहनत करने के बाद पता नहीं कहां से यह पता कर के मुझे बता दिया कि Alt +Shift दबाने से हिंदी लिखी जा सकती है, ऐसे ही हिंदी में ई-मेल भेजी जा सकती है यह भी उसने ही मुझे बतलाया और फिर पता नहीं कहां से रविरतलामी जी के हिंदी ब्लाग का पता उस ने ही ढूंढ निकाला ---उन के ब्लाग से पहली बार जाना कि हिंदी में भी ब्लागरी हो रही है ......बस, दो चार दिन हैरान होने के बाद 21 नवंबर 2007 को ब्लाग पर पहली पोस्ट ठेल ही दी। चूंकि मुझे इन्स्क्रिप्ट टाईपिंग का पिछले कईं सालों से अभ्यास था तो नेट पर हिंदी लिखने में कोई दिक्कत नहीं हुई । ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत जैसे हिंदी ब्लाग ऐगरीगेटरों के बारे में भी मुझे बताने वाला विशाल ही है।

तो मेरे इस हिंदी ब्लागिंग में घुसने का पूरा श्रेष्य मैं अपने बेटे विशाल को देता हूं ---तब वह +2 में पढ़ रहा था लेकिन फिर भी मेरे हर प्रश्न का जवाब देने के लिये सदैव तत्पर रहता था ---कईं बार तो अपनी पढ़ाई छोड़ कर मेरे पास बैठ जाता था ---आज कल वह कंप्यूटर इंजीनियरिंग कर रहा है -----( नहीं, नही, डाक्टरी नहीं, उस की कभी इस में रूचि ही नहीं थी ) ----मुझे कुछ पता नहीं था कि इमेज़ कैसे डालना है ब्लाग में, यू-टयूब से लिंक कैसे डालने है और इस के साथ साथ और भी बहुत सी बातें जो उस ने मुझे बतलाई। इस दौरान कईं बार तो इरीटेट भी हुआ खास कर उस समय जब मैं उस के इंटरनैट टाइम पर एनक्रोच कर जाता था ----- गर्मी खा कर बहुत बार यह भी कह देता है कि पापा, देख लेना मैं किसी दिन आप का गूगल एकाऊंट ही उड़ा दूंगा ----और यह बात तो बहुत बार कह चुका है कि पापा, मैं तो पछता रहा हूं उस दिन को जिस दिन मैं आप को यह बता बैठा कि हिंदी ब्लागिंग नाम की भी कोई चीज़ है। खैर, एक दो मिनट के बाद अपनी कही हुई बात भूल जाता है।

थैंक-यू विशाल

कुछ बातें जो मैंने नेट पर आ कर सीखी है वह यह है कि ब्लागिंग करने से मन हल्का हो जाता है -----यह एक बढ़िया स्ट्रैस-मैनेजमैंट है -----और जब ब्लाग लिखना शुरू किया था तो कोई एजैंडा था नहीं ----बस अपने आप ही एक बात से दूसरी बात निकलती गई। यहां तक कि एक पोस्ट लिखते वक्त भी कुछ खास मन में होता नहीं ----बस लिखते लिखते कलम अपने आप चल निकलती है।

ब्लॉग का असर ------ आज कल अखबारों में कईं बार आप एक कॉलम देखते हैं ना ----खबर का असर। ठीक उसी प्रकार आज मैं ब्लाग का असर बता रहा हूं -----मैंने कुछ महीने पहले एक पोस्ट लिखी थी कि मोटापा कम करने का सुपरहिट फार्मूला ------इस में मैंने अपने खान-पान के बारे में विस्तार से लिखा ----इस पोस्ट पर कुछ कमैंट्स मिले और वैसे भी पोस्ट लिखते लिखते ही मैं अपने खाने पीने के तौर-तरीके देख कर डर सा गया और उसी दिन से पूरा परहेज़ करना शुरू कर दिया और इसी चक्कर में चार-महीनों में लगभग आठ किलो वज़न कम हो गया---इसलिये हल्कापन महसूस होने लगा है।

मुझे याद है हमारे गुरू जी ब्रह्मषि श्री ऋषि प्रभाकर जी अकसर यही कहते हैं कि किसी विद्या को जीवित रखने के लिये या उसे जीने के लिये सब से बढ़िया है कि तुम उस को दूसरों को सिखाना शुरू कर दो -----दूसरों को पढ़ाना शुरू कर दो ----वे कहते हैं कि इस ज्ञान को दूसरों के साथ बे-धड़क हो कर बांटने का मतलब है कि तुम जितनी बार भी कोई बात किसी से कह रहे हो उतनी ही बार अपने आप से भी तो कह रहे हो ---इसलिये वह बात तुम्हें भी पक्की हो जाती है। इसी चक्कर में मेरे खान-पान में सुधार हुआ है और मैंने प्रातःकाल का भ्रमण शुरू कर दिया है -----अब तो मुझे केवल यह जानने की उत्सुकता हो रही है कि क्या आपने यह सब करना शुरू किया है कि नहीं ----कम से कम नमक का इस्तेमाल तो कम कर ही दिया होगा। चलिये, अच्छा है , खुश रहें, स्वस्थ रहें ----यूं ही लगे रहिये।

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

क्या आप जो दूध पी रहे हैं उस की क्वालिटी के बारे में आश्वस्त हैं ?

हो ही नहीं सकता कि आप ने कभी मेरी तरह इसे टैस्ट करवाने की या इस की उत्तमता जानने की रत्ती भर कोशिश भी की हो। बस, यहां वहां नकली सिंथैटिक दूध, मिलावटी दूध की खबरें देख-पढ़ कर थोड़ा सा डर लिये, सहम गये ( और हर बार यही सोच कर बेफिक्र हो गये कि अपना रामू काका तो पिछले 35 सालों से आ रहा है , इस के दद्दू के ज़माने से ) ----बस हो गई अपनी ड्यूटी पूरी .... क्योंकि तभी अपने मोटर-साइकल ब्रांड दूध वाले ने घंटी दे दी । और साथ में ही पड़ा है आज का अखबार जिस से हम ने न्यूक्लियर समझौते के बारे में और भी गहराई से जानना है-----दूध के बारे में सोचने की अभी किसे फुर्सत है !!

इस पोस्ट में लिखे जाने वाले दूध के बारे में मेरा विचार एकदम पर्सनल हैं ---इसलिये कृपया इन्हें इसी ढंग से लें। बचपन से देख रहे हैं कि दूध की उत्तमता जानने का एक तरीका जो हिंदोस्तानी घरों में बहुत इस्तेमाल होता है वह यही है कि अंगुली को दूध में डुबो के देखा जाता है जैसे कि यह कोई गोल्ड-स्टैंडर्ड टैस्ट हो।

दूसरा, हमारे यहां दूध को उबालने के बाद कितनी मलाई आती है ---यह भी देश की करोड़ों महिलायों के लिये सत्संग के पंडाल में पीछे बैठ कर विचार-विमर्श करने लायक एक बहुत हॉट टॉपिक होता रहा है और आज भी है। ये भोली महिलायें आज तक यह नहीं जानतीं कि मलाई की मात्रा किसी दूध की उत्तमता की कोई गारंटी नहीं है-----कम से कम मैं तो ऐसा ही सोचता हूं क्योंकि सिंथैटिक दूध में और मिलावटी दूध भी मलाई तो अच्छी खासी आ जाती है।

इस मिलावटी दूध की वजह से शायद आप लोग इतना परेशान नहीं होंगे क्योंकि आप ने तो अपने परिवार के लिये ही यह निर्णय लेना होता है लेकिन मुझे एक आठ-दस के बच्चे का हाथ थामे उस सीधी-सादी मां को यह कहना बहुत अजीब सा लगने लगा है कि इस को दूध पिलाया करो। और विशेषकर के बिना दूध के स्रोत को जाने तो यह काम और भी मुश्किल लगता है। पिछले कुछ हफ्तों से तो मीडिया में दूध के बारे में जो कुछ पढ़ा है, उस ने तो और भी डरा दिया है।

इस पोस्ट के ज़रिये किसी तरह का पैनिक क्रियेट करना मेरी मंशा नहीं है----लेकिन जब कभी मन को हिला देने वाली खबरें दिख जाती हैं तो आम पब्लिक के स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिये मन बहुत कुछ सोचने तो लगता है लेकिन लाख सोचने के बाद भी इस लंबी सी पोस्ट के इलावा आज तक तो कुछ हाथ लगा नहीं।

अभी अभी मैं यह सोच रहा था कि हमारे विज्ञानिक इतने चोटी के हैं कि उन्होंने हमें चन्द्रमा तो दिला दिया लेकिन अफ़सोस इस बात का बहुत ही ज़्यादा है कि हम लोग एक आम-आदमी को आज तक यह नहीं बता पाये कि यह जो दूध तुम बच्चे को पिला रहे हो......क्या यह शुद्ध है, मिलावटी है, मिलावट किस चीज़ की है, या फिर है ही सिंथैटिक !

कुछ दिन पहले मेरी मुलाकात एक बुजुर्ग महिला से हुई जो पिछले पचास सालों तक भैंसों-गायों का दूध बेचने का काम करती रही हैं। और उस की एक बात मेरे को हमेशा याद रहेगी कि गाय-भैंस का दूध तो जब उस के स्तन से निकल रहा है तब ही शुद्ध है।

मेरा बहुत दृढ़ विश्वास है कि हम लोग जिस दूध को इस्तेमाल कर रहे हैं उस के बारे में कुछ भी नहीं जानते----शायद हम भी कहीं दूध में मैलामाइन की मिलावट की दो-चार रिपोर्टों की इंतज़ार ही तो नहीं कर रहे।
हां, तो मिलावट से याद आया कि चार पांच दिन पहले REUTERS की साइट पर एक खबर दिखी कि झारखंड के एक स्कूल में मिलावटी दूध पिये जाने से छः बच्चों की मौत हो गई और साठ के करीब हास्पीटल में इलाज करवा रहे हैं। मुझे यह खबर अपने समाचार-पत्र में तो कहीं दिखी नहीं----शायद इसलिये कि ये सभी बच्चे आदिवासी थे ---शायद मीडिया के लिये इन आदिवासी बच्चों की मौत की खबर से कहीं ज़्यादा यह खबर थी कि इस दुनिया में सब से हसीं नितंब किस महिला के हैं ----जी हां, चार पांच दिन पहले एक न्यूज़ यह भी थी और तस्वीर के साथ ---Most beautiful bottom of the world!! अगर यह खबर ना भी होती तो उस की जगह पर दिल्ली के किसी बड़े स्कूल के एमएमएस कांड की फोटो की छोंक उसी पेज पर लगी होती। अब आदिवासी बच्चों की मिलावटी दूध की वजह से हुई मौत से रीडरशिप पर खाक असर पड़ना था ?

चीन से आने वाला पावडर दूध बहुत ज़्यादा मात्रा में आज कल नष्ट किया जा रहा है –अमेरिका में तो वे उन डेयरी उत्पादनों को नष्ट करते जा रहे हैं जिन में भी मैलामाइन की मिलावट का अंदेशा है । ज्ञात रहे कि पिछले दिनों चीन में मैलामाइन ( एक इंडस्ट्रियल कैमीकल) की पावडर-दूध में मिलावट की वजह से चीन में कुछ बच्चों की दुःखद मौत हो गई थी और बहुत से बच्चे गुर्दे की पथरी से होने वाली बीमारी से जूझ रहे हैं।

क्या आप को लगता है कि हमारे यहां बिकने वाला मिल्क पावडर एकदम शुद्ध होगा ---- इस का जवाब टटोल कर अपने पास ही रखिये, प्लीज़। वैसे इस पावडर दूध की खपत हमारे देश में बहुत ही ज़्यादा है---दरअसल इस की भी बहुत सी किस्में बाज़ार में उपलब्ध हैं और मुझे बताया गया है कि दूध की मिलावट के लिये उस पावडर-दूध का इस्तेमाल किया जाता है जो 80 रूपये किलो बिकता है। और इस एक किलो पावडर दूध से दस किलो दूध तैयार किया जाता है। और मैं समझता हूं कि इन ब्याह-शादियों में और बड़े बड़े समारोहों में सब कुछ इसी तरह के पावडर दूध से ही बना हुआ खाने के बाद ही हम इतना अजीब सा अनुभव करते हैं।

पहले कहा करते थे कि शादी-ब्याह में ज़्यादा खाना ठीक नहीं होता---बस दही-चावल लेकर ही बस कर लेनी चाहिये। लेकिन अब तो दही का एक चम्मच भी इन जगहों पर खाने की इच्छा ही नहीं होती -------केवल मन में इतना विचार ही आता है कि और कुछ भी हो यह शुद्ध दूध से बना हुआ नहीं हो सकता।

थोड़ी सी अपनी बात कहता हूं ----- बिल्कुल पर्सनली स्पीकिंग ----मैं घर से बाहर जब भी होता हूं तो ऐसी किसी भी चीज़ से बिल्कुल परहेज़ ही करता हूं जिस में दूध का इस्तेमाल हुआ हो। मेरी ऐसी सोच है ---बस वो पिछले तीन-चार में तरह तरह की अजीबो-गरीब रिपोर्टें देख कर बन चुकी है कि जब तो सिद्ध न हो, जो भी दूध बिक रहा है उस में गड़बड़ी है। कृपया नोट करें कि ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं और आप इन से कतई प्रभावित न हों----आप सच्चाई को अपने ढंग से खोजने की कोशिश कीजिये।

हां, तो मैं परहेज़ की बात कर रहा था ---वैसे तो मैं चाय का ही इतनी कोई ज़्यादा शौकीन हूं नहीं लेकिन मैं बाहर कहीं भी चाय पीने से गुरेज़ ही करता हूं क्योंकि उस चाय बेचने वाले से आप उम्मीद ही कैसे कर सकते हैं कि उसे अपने दूध की क्वालिटी का कुछ भी ज्ञान होगा या वह भी कुछ गोरख-धंधा नहीं करता होगा।

आगे आते हैं ---मिल्क प्राड्क्टस-----ये आइस-क्रीम, मिठाईयां, बाज़ारी पनीर, खोआ----- इन सब से एकदम नफ़रत सी ही हो चुकी है और इस के पीछे भी इस विषय पर दिखी अनगिनत रिपोर्टों का ही हाथ है।

बच्चे अकसर खुश होते हैं कि फलां-फलां ज्वाईंट पर सात रूपये में सॉफटी मिलती है-------मैं अकसर कहता हूं कि सात रूपये का दूध तो हम लोग जानते ही हैं कि कितना होता है तो फिर यह बड़ी सी साफ्टी आखिर जो सात रूपये में बिक रही है इस की शुद्धा कितनी होगी, कितनी नहीं राम जाने। मिठाईयां इसी चक्कर में मैं कभी नहीं खाता ----- बिल्कुल भी नहीं -----कुछ सालों से ही नहीं खाता था लेकिन जब से यह चीनी दूध की बातें सुनी हैं तो इन्हें बिल्कुल चखने का भी दुःसाहस नहीं कर पाता। मेरा पर्सनल अनुभव यही रहा है कि अगर हमें या अपने बच्चे को बीमारी की छुट्टी दिलानी हो तो किसी ब्याह-शादी में जाकर शाही पनीर का आनंद ले कर लौट आयें-----अगले दिन की छुट्टी लगभग पक्की !!

सात रूपये वाली साफ्टी का तो रोना रो लिया ---लेकिन उस का क्या करें जो दूध की कुल्फियां दो-दो रूपये में मैले-कुचैले थर्मोकोल में जगह जगह बिकती दिखती हैं। यह भी दूध तो नहीं हो सकता ----और क्या क्या है , इस की तो रिसर्च करनी होगी ----परसों मैं दिल्ली में भी देख रहा था कि ऐसे बीसियों कुल्फी-वाले लोगों को अपना माल बेधड़क, सरे-आम परोस रहे थे -----विचार तब भी यह आ रहा था कि क्या पब्लिक को गर्मी में गन्ने के रस के बारे में जागरूक करने के इलावा हमारे पास कोई विषय नहीं है !!

जो लोग किसी जगह पर एकदम शुद्ध बर्फी के मिलने की बात करते हैं उन्हें मैं हमेशा यही याद दिलाना चाहता हूं कि जितने में बर्फी का एक डिब्बा मिल रहा है, आप उतने पैसे में दूध,चीनी स्वयं उबाल कर देख लीजेये कि कितना वज़न आप के हाथ में आता है ----सो , यह शुद्ध बर्फी वाली बातें कोरी ढकोसलेबाजी ही हैं----शुद्ध बर्फी और वह भी आज के दौर में ---मैं तो यही सोचता हूं कि शुद्ध एवं नरम-नरम बर्फी वही थी जो हम लोग बचपन में पचास-सौ ग्राम किसी ऐसे हलवाई से लेकर खाया करते थे जो बेचारा सुबह से दूध की कडाही में कड़छी घुमा घुमा कर शाम तक पसीने से लथ-पथ हुआ करता था----और यह दो-तीन किलो बर्फी बनाने की सारी प्रक्रिया सब के सामने ही किया करता था और इतनी मेहनत करने का उसे बहुत गर्व हुआ करता था ------सच में बतलाइये कि अपने बचपन के दौर के किसी मशहूर हलवाई की याद आ गई ना ?----तो बढ़िया है उस की मिठाईयों का स्वाद हम सब से भी बांटिये।

मैं यह चाहता हूं कि देश का हर बंदा दूध एवं दूध उत्पादों की गुणवत्ता के बारे में सजग हो और सवाल पूछने शुरू करे। यही एक आशा है----वरना कोई बात नहीं, चलता है ,हम अकेले थोड़े ही हैं, करोड़ों लोग यही सब खा-पी रहे हैं.....ऐसी सोच नहीं चलेगी, दोस्तो। आप का आज पूछा हुआ सवाल आने वाले कईं वर्षों तक आप की और अगली पीढ़ी की सेहत का फैसला करेगा !!

इस विषय पर मैं भी बार बार इंटरनैट खंगाल लेता हूं और 3-4 वर्षों में इस विषय के बारे में पढ़ पढ़ कर जितना समझ पाया, जो इस विषय के बारे में अपना ओपिनियन बना पाया, उसे आप तक रख दिया ----सिर्फ़ एक राइडर के साथ ( शायद एक ज़रूरी फारमैलिटि के लिये ही !!) कि यह मेरे व्यक्तिगत विचार हैं -----आप अपने विचारों से हम सब को रू-ब-रू करवाइये।

जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है कि हम डाक्टरों की समस्या और भी विकट इसलिये है क्योंकि हम लोगों को इस बात का ध्यान तो रखना ही होता है कि लोग जिस चीज़ का भी सेवन कर रहे हैं उस से उन्हें अवश्य स्वास्थ्य लाभ होना ही चाहिये ---और यह तो कतई बरदाश्त ही नहीं हो सकता कि फायदा-वायदा तो कुछ हुआ नहीं ---लेकिन बीमारियां ज़रूर मोल ले लीं। इसलिये कुछ मरीज़ों को जवाब देना बेहद मुश्किल हो जाता है कि क्या बच्चे को दूध पिलाने से उस की सेहत ठीक हो जायेगी !! हमें खुद ही नहीं पता कि दूध में आखिर कौन-कौन सी मिलावट है तो हम क्या जवाब दें ----इसलिये केवल इतना ज़रूर कह देता हूं कि दूध की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दें ---मात्रा पर नहीं।

पावडर से बने हुये दूध के बारे में आप भी सोचिये कि क्या उस को बनाने के लिये भी श्रेष्ठ दूध का ही इस्तेमाल हुआ होगा-----वैसे आप इस समय यही सोच रहे हैं ना कि अब तू बस कर, हमारी खटिया-चाय का समय हो रहा है , पहले ही से तूने इतना लिख दिया है कि हो न हो आज तो उस का स्वाद कड़वा ही लगेगा और उस कड़वाहट को झेलने के बाद तो हमें अपने दूध-वाले को शक की निगाहों से देखने पर मजबूर होना ही पड़ेगा।

बस, कुछ भी खायें, कुछ भी पियें, लेकिन अपना ध्यान रखियेगा। पिछले बड़े अरसे से ये सारी बातें, अपने विचार आप सब के साथ साझे करने के लिये व्याकुल हो रहा था, आज सुबह जल्दी जाग आ गई ( क्योंकि ठंडी लगने से ,छींकों से परेशान हूं !!) तो सोचा यही काम कर लेता हूं -----इतना लिखने के बाद हल्कापन सा महसूस हो रहा है---जुकाम में भी राहत लगने लगी है। सोचता हूं अब दो-एक घंटे के लिये सो ही जाता हूं, उस के बाद टहलने का समय हो जायेगा।

अच्छा तो दोस्तो, सुप्रभात !!....a very good morning to all of you !!
PS....मैंने यह पोस्ट लिखी तो कल 19नवंबर की सुबह सुबह लिखी थी ...लेकिन पोस्ट नहीं कर पाया ---कल से ब्राड-बैंड में कुछ तकनीकी खराबी थी ।

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

साढ़े तीन लाख लोगों की कमर नापने के बाद ....

यूरोप में साढ़े तीन लाख लोगों पर एक स्टडी की गई है जिस से पता चला है कि अगर किसी व्यक्ति का बॉडी मॉस इंडैक्स ( body mass index) नार्मल रेंज में भी हो लेकिन उस की कमर का साईज बड़ा है तो भी उस का समय से पहले ही इस दुनिया से विदा लेने का रिस्क दोगुना हो जाता है। यह अध्ययन अमेरिकी मैगज़ीन न्यू इंगलैड जर्नल ऑफ मैडीसन में प्रकाशित हुआ है।

इस अध्ययन में इसी बात को रेखांकित किया गया है कि जिन लोगों का वज़न तो वैसे ज़्यादा है ( not overweight) और ही वे मोटापे (obesity) से ग्रस्त हैं, अगर इन में भी कमर के इर्द-गिर्द ज़्यादा चर्बी डेरा जमाये हुये है तो यह भी इन की सेहत के लिये एक अच्छा खास खतरा है। इस अध्ययन के शोधकर्त्ताओं ने यह सिफारिश की है कि लोगों का सामान्य चैक-अप करते समय डाक्टरों को उन का बॉडी मॉस इंडैक्स पता करने के साथ साथ उन की कमर एवं हिप्स का भी माप लेना चाहिये।

बहुत ही ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब एक जैसे बॉडी मॉस इंडैक्स वाले लोगों की तुलना की गई तो पाया गया कि जैसे ही उन के कमर का घेरा बढ़ा, उन का समय से पहले इस जहां से उठने का रिस्क भी काफ़ी बढ़ गया। अध्ययन में बताया गया है कि छोटी कमर ( 80सैटीमीटर से कम पुरूषों में और 65 सैंटीमीटर से कम महिलाओं में) वाले लोगों की तुलना में बड़ी कमर ( 120 सैंटीमीटर से ज़्यादा पुरूषों में और 100 सैटीमीटर से ज़्यादा स्त्रीयों में) वालों में प्री-मैच्योर संसार से अलविदे करने का रिस्क दोगुना हो जाता है। बॉडी मॉस इंडैक्स से आम तौर पर हम लोग यह देखते हैं कि क्या आदमी का वज़न नार्मल है।

अध्ययन के अनुसार कमर के घेरे में प्रत्येक 5 सैंटीमीटर का बढ़ोत्तरी मृत्यु के रिस्क को पुरूषों में 17 फीसदी और महिलाओं में 13 फीसदी बढ़ा देती है।

और मृत्यु के इस बढ़े हुये रिस्क की वजह यह बताई जा रही है कि इस कमर के इर्द-गिर्द जमा हुई पड़ी चर्बी कुछ इस तरह के साइटोकाइन्स, हारमोन्स एवं मैटाबॉलिक तौर पर सक्रिय पदार्थ उत्पन्न करती है जिन की क्रॉनिक बीमारियां पैदा करने में बहुत भूमिका है और इन बीमारियों में खास कर हार्ट से संबंधित बीमारियां एवं कैंसर जैसे रोग विशेष रूप से शामिल हैं।

स्टडी का विशेष निष्कर्ष यह भी निकलता है कि किसी बंदे में प्री-मैच्योर मृत्यु के रिस्क को बढ़े हुये वजन के साथ साथ यह बात भी बेहद प्रभावित करती है कि आखिर यह चर्बी जमा शरीर के किस भाग में है।

सुबह सुबह मैं भी कितना फीका सा टॉपिक पकड़ कर बैठ गया ---आप तो बस फिक्र-नॉट की एक टैबलेट ले लें और इस के लिये ठीक इसी वक्त ब्लागिंग को केवल आधे घंटे के लिये विराम देते हुये अपने वाकिंग-शूज़ पहन कर टहलने निकल पड़िये । बाहर मौसम बहुत अच्छा है.....तो अभी भी आप कुछ सोच रहे हैं .......प्लीज़ उठिये और घर के बाहर आइए -----देखिये, मैं भी उठ रहा हूं !!

सोमवार, 17 नवंबर 2008

आंखो-देखी ---- मिलावटी खान-पान के कुछ रूप ये भी !!

मेरे ही तरह आप ने भी शायद सपने में भी यह नहीं सोचा होगा कि बाज़ार में बिकने वाले अनानास( पाइन-एप्पल) में भी मिलावट हो सकती है। मैंने कल दिल्ली में देखा कि तीन-चार रेहड़ीयों पर बहुत से लोग जमा हैं ----वहां पर लोग अनानास के पीस कटवा कर उन का लुत्फ़ उठा रहे थे।

अनानास के उन टुकड़ों का कुछ अजीब सा रंग---बिलकुल गहरा पीला सा- देख कर मेरे से रहा नहीं गया। मैंने रेहड़ीवाले से पूछ ही लिया कि अनानास का रंग कुछ अजीब सा लग रहा है। तब उस ने कहा कि इन फलों से मक्खी को दूर रखने के लिये इन पर रंग लगा हुआ है। एक बार तो यही सोचा कि जिस खाने पर मक्खीयां भी बैठना अपनी तौहीन समझती हों, उन्हें पब्लिक को परोसा जा रहा है।

मेरी खोजी पत्रकार वाली उत्सुकता यूं ही भला कैसे शांत हो जाती !—उस ने आगे बताया कि यह खाने वाला मीठा रंग है ---क्या आप लड्डू में, अमरती में, जलेबी में नहीं देखते कि यही रंग पड़ा होता है ?—कहने लगा कि एक शीशी को पानी की एक बाल्टी में घोल कर अनानास के स्लाईसिज़ को इस बाल्टी में बस डाल कर निकाल लिया जाता है ----बस, उन पर रंग चढ़ जाता है और मक्खीयां फिर इस के पास नहीं फटकती । पता नहीं मैं यह कैसे उस से पूछना ठीक नहीं समझा कि जलेबियों और अमरती से तो मक्खीयां भिनभिनाने से हटती नहीं, तो फिर यह माजरा क्या है !!

अपनी एक पोस्ट में मैंने लिखा था कि एक डाक्टर मित्र के छोटे बेटे के जब गुर्दे फेल हो गये तो सारी जांच की गई ---कुछ पता ही नहीं चल रहा था ---आखिरकार आल इंडिया इस्टीच्यूट ऑफ मैडीकल साईंसज़ के डाक्टरों को पता चला कि बच्चा तरबूज़ बहुत खाया करता था और उस में एक लाल-रंग ( red dye) का टीका लगा होने की वजह से उसे इन सारी तकलीफ़ों से दोचार होना पड़ा था। यह भी दिल्ली की ही बात है ।

मेरे दिल्ली लिखने का यह मतलब तो नहीं कि बाकी जगहें किसी तरह से इन से बची हुई हैं। कुछ दिन पहले हम लोग पानी-पूड़ी ( गोलगप्पे) खा रहे थे ---बहुत मशहूर दुकान है----अचानक एक हरे रंग का गोलगप्पा देख कर बहुत हैरानी हुई, हमने खाया तो नहीं , लेकिन दुकानदार ने बताया कि इस तरह के रंगीन गोल-गप्पे बनाने का हम एक्सपैरीमेंट कर रहे हैं।

जिस तरह का इन कृत्तिम रंगों का चलन चल निकला है ---यह बहुत ही चिंता का विषय है। कुछ हद तो इस से बचा जा सकता है अगर हम लोग इस के बारे में अपनी जानकारी बढ़ायें। बात गोल-गप्पों की हो रही तो अब उन में डलने वाला पानी भी कहां पहले जैसा रह गया है !

एक दिन अपनी श्रीमति जी से पूछ बैठा कि यह बाज़ार में बिकने वाला गोल-गप्पों का पानी कुछ अजीब सा स्वाद देने लगा है। चूंकि मैं इमली का भाव नहीं जानता था और न ही अभी भी जानता हूं तो श्रीमति ने सचेत किया कि अब ये लोग इस पानी को तैयार करने के लिये इमली-विमली कहां इस्तेमाल करते हैं ---इस के लिये ये टाटरी( ?tartaric acid----क्या टाटरी को ही टारटैरिक एसिड कहते हैं, मेरे ध्यान में नहीं है), और फ्लेवर्ज़, क्लर्ज़ और इसेंस (flavours , colours and essence) का ही इस्तेमाल करते हैं।

बंबई के उपनगरीय स्टेशनों के बाहर बड़े बडे टबों में बिकने वाली फलों के रसों का तो मैंने पहले एक बार खुलासा किया था लेकिन कल भी नोटिस किया कि जलजीरा भी कुछ इस तरह का ही बिक रहा था। लेकिन धूप से त्रस्त लोगों को खींचने के लिये इस धंधे के खिलाड़ी उस बड़े से मटके के बाहर एक गीला लाल कपड़ा लपेटने के साथ साथ पुदीने की कुछ टहनियां उस पर लगानी कभी नहीं भूलते ---ताकि हम सब को गुमराह किया जा सके। मैं समझता हूं कि जलजीरे का रैडीमेड पावडर बाज़ार में बिकता है ---अगर वे उस का ही इस्तेमाल कर रहे होते तो सुकून हो जाता, लेकिन मुझे यकीन है कि जितने गहरे रंग का ये रेहड़ीवाले यह जलजीरा बेचते हैं उस में हरा रंग तो अवश्य ही पड़ा रहता होगा ---बिल्कुल गोल-गप्पे के हरे पानी की तरह।

हां, तो बात शुरू हुई थी अजीब से पीले रंग के अनानास से---सोचने की बात यही है कि आखिर इन खोमचे वालों ने अब खाने-पीने की इतनी कोमल सी वस्तुओं को भी क्यों नहीं बख्शा----- यह बात तो उस की ठीक नहीं लगती कि केवल मक्खियों को दूर रखने के लिये ही इस रंग का इस्तेमाल किया जाता है। और उस की बात सच भी है तो यह बात गले से नीचे नहीं उतरती कि सभी खोमचे वाले इतने जागरूक हो गये कि हम सब की सेहत के लिये रोज़ाना 10-15 रुपये का रंग ही इस्तेमाल करने लग जायें। इसलिये इस बात की तो और भी बहुत संभावना है कि पीला रंग जो इस्तेमाल भी किया जाता हो वह बेहद चीप, सस्ता, चालू किस्म का , बिना किसी कंपनी की पैकिंग वाला, घटिया और सेहत के लिये और भी नुकसानदायक टाइप का होता हो।

मक्खियों की ये खोमचे-वाले इतनी परवाह करते कहां हैं----बस थोड़ी धूप-बत्ती जला कर काम चला लिया करते हैं, वरना एक बारीक सा जालीदार कपड़ा डाल देते हैं -----तो फिर क्यों रंग इस्तेमाल किया जा रहा है ----इस का कारण जो मुझे लगता है वह यही है कि एक तो ग्राहकों को अपनी माल की तरफ़ आकर्षित करने के लिये और दूसरा यह कि उस के इस गहरे पीले रंग के चड़ते उस के माल में छोटी मोटी खराबी किसी की नज़र में आये ही नहीं।

मैं आज कल इन कृत्तिम रंगों, फ्लेवर्ज़ आदि पर शोध कर रहा हूं ---- बाहर के देशों में तो इन के इस्तेमाल के बारे में लोग बहुत ही ज़्यादा सजग हैं और इन से संबंधित कानून भी बहुत कड़े हैं क्योंकि इन के अनियंत्रित इस्तेमाल से खतरनाक बीमारियां ---यहां तक कि कैंसर भी – दस्तक दे सकती हैं। इसलिये आमजन का यह सोचना कि ये तो मीठे कलर हैं ----अर्थात् खाने में इस्तेमाल किये जा रहे हैं, इसलिये बिना सोचे-समझे इन का जितना मन चाहे सेवन कर लिया जाए ----यह सोचना खतरे से खाली नहीं है।

लेकिन अफसोस इसी बात का है कि आम आदमी इस के बारे में ज़रा भी सचेत नहीं है। बंबई में रहते हुये हमारा एक संबंधी बम्बई-सैट्रल की एक दुकान से पिस्ते की बर्फी ले कर आया----अब पिस्ता इतना महंगा कि एक हज़ार के पिस्ते पिसने के बाद भी उतना बढ़िया रंग न दे पायें जितना उस पिस्ते की बर्फी का लग रहा था ---लेकिन स्वाद उस का इतना बेकार कि क्या लिखूं ----बिल्कुल बक-बका सा, पिस्ते के स्वाद जैसी कोई खास बात ही नहीं ----आज समझ आ रही है कि उस बर्फी में भी चंद पिस्तों के साथ साथ पिस्ते के रंग से मिलता जुलता हल्का हरा रंग ही पिसा होगा।

बस, भई अब किस किस चीज़ की पोल खोलें ---अपने यहां तो बस सबकुछ गोलमाल ही है---मुझे तो लगता है कि हम सब लोगों को बहुत जल्दी ही घर में बनी दो चपातियों, दाल-साग-सब्जी के इलावा इधर-उधर देखना भी खौफ़नाक लगेगा---इस में मेरा क्या दोष है ?--- जो देखा आप के सामने रख दिया ।

वैसे पता नहीं मेरा छोटा बेटे की हिंदी फिल्म गोलमाल रिटर्ऩज़ में इतनी रूचि क्यों है ---गोलमाल रिटर्नज़ ----अर्थात् गोलमाल लौट कर आ गया ----यहां तो दोस्तो दशकों से सब कुछ गोलमाल ही है , आज भी है और कल भी रहेगा, लौटता तो वही है जो कहीं चला गया हो ।

PS -- कल भी मैंने नोटिस किया कि लोग पाईन-एपल के स्लाईसिज़ पर भी खूब नमक लगवा कर खा रहे थे। केले को काट कर, शकरकंदी काट कर---इन सब खाध्य पदार्थों पर इतना इतना नमक लगवा के खाना हाई-ब्लडप्रैशर को एकदम खुला निमंत्रण है। इसलिये यह आदत जितनी जल्दी छोड़ सकें, उतनी ही बेहतर होगा।

मैडीकल तप्सरा ------------1.

समाचार है कि नाईज़ीरिया की मिलेटरी में पिछले पांच वर्षों में एच.आई.व्ही एवं एड्स के 94000 केस मिले हैं जिन में से सात हज़ार फौजी इस के दवाईयां भी ले रहे हैं।

क्या आप जानते हैं कि नीदरलैंड में मैजिक मशरूम भी मिलती हैं- चलिये कोई बात नहीं, क्योंकि वैसे भी नीदरलैंड ने इन पर एक दिसंबर से प्रतिबंध लगाने का फैसला किया है। वहां की स्वास्थ्य मिनिस्ट्री ने कहा है कि इन मैजिक मशरूम की वजह से इसे खाने वाले लोगों में अजीबोगरीब तरह के काल्पनिक ख्याल आने लगते हैं ( hallucinogenic effects) जिस से उस बंदे का बिहेवियर अटपटा सा और रिस्की हो सकता है। सूखी हुई मैजिक मशरूम को बेचना और अपने यहां रखना तो पहले ही से कानूनी तौर पर मना है। पिछले साल वहां पर एक 17साल की फ्रैंच टूरिस्ट ने इन्हीं मैजिक मशरूम को खाने के बाद एमसटर्डम के एक पुल से कूद कर जान दे दी थी--- वैसे अपने यहां भी तो हम लोग कभी कभी मीडिया में देख-सुन ही लेते हैं कि फलां फलां जगह पर जहरीली मशरूम खाने से इतने लोग अपनी जान गंवा बैठे ----इसलिये मशरूम तो ज़रूर खाइये, लेकिन इस बात का भी ध्यान रखिये।

महिलायें ज़रा ध्यान करें ---देश में जो महिलायें गर्भावस्था के दौरान उचित पोषण लेती हैं उन का प्रतिशत तो बेहद कम है, लेकिन अधिकतर महिलायें जो पर्याप्त मात्रा में उच्च स्तर का पोषण नहीं ले पाती हैं उन की संख्या बहुत ही ज़्यादा है और कुछ महिलायें हैं या उन के सगे-संबंधी हैं जो समझते हैं कि इस दौरान उसे खूब सारा मक्खन, देसी घी देना चाहिये । अच्छा तो खबर यह है कि न्यू-यार्क सिटी में चूहों पर किये गये एक अध्ययन में पाया गया है कि गर्भावस्था के दौरान ज़्यादा फैट्स लेने से गर्भ में विकसित हो रहे शिशु के दिमाग में कुछ इस तरह के स्थायी बदलाव हो जाते हैं जिन के कारण ज़िंदगी के शुरूआती दौर में उसे ज़रूरत से ज़्यादा खाने की लत लग जाती है जिस की वजह से इस शुरूआती दौर में ही उस का मोटापा बढ़ जाता है। इस अध्ययन को जर्नल ऑफ न्यूरोसाईंस में प्रकाशित किया गया है।

अमेरिका के सब से सेहतमंद शहर का नाम बतलाईये ----यह है बर्लिंगटन। वहां के लोग एक्सरसाईज़ भी खूब करते हैं, वहां पर मोटापा, डायबिटिज़ और खराब सेहत के अन्य इंडीकेटर्ज़ का प्रतिशत भी काफी कम है। वहां पर लोग साईकिल खूब चलाते हैं, हाईकिंग, स्कियिंग ( hiking and skiing) करते हैं और अधिकतर सेहतमंद खाना खाते हैं।

हलकाये हुये कुत्ते का डर क्यों लगता है ?---क्योंकि उस के काटने से या कुछ अन्य जानवरों के काटने से रेबीज़ नाम की बीमारी हो सकती है जो जानलेवा होती है। लेकिन एक बड़ी खबर यह है कि ब्राज़ील में एक 15 साल का लड़का जिसका रेबीज़ की बीमारी( जिस में दिमाग में सूजन आ जाती है) के लिये इलाज हुआ है , उस में सफलता हाथ लगी है। यह सारी दुनिया में रेबीज बीमारी के ठीक होने वाला दूसरा केस है -----बहुत अच्छी खबर है, हम लोगों में आस बंध गई कि हां, कुछ तो हो रेबीज़ का भी निकट भविष्य में हो ही सकता है। ध्यान रहे कि इस लड़के में रेबीज़ की बीमारी चमगादड़ के द्वारा काट लेने से हो गई थी और इसे एक महीने हास्पीटल में रहना पड़ा। पिछले 20 सालों में ब्राज़ील में रेबीज़ के 629 केस पाये गये।

बस एक माज़ा की दूरी है ---थोड़ी पागल पंथी भी ज़रूरी है ----इस विज्ञापन से याद आया ज़ोहरा सहगल जी का वह सुपरहिस्ट जबरदस्त विज्ञापन ---मैं तो जितनी बार भी यह विज्ञापन देखता हूं बहुत खुश हो जाता हूं क्योंकि मेरी निगाह में ज़ोहरा सहगल जी इस देश की सब से ज़हीन बुज़ुर्ग हैं। इस वक्त मुझे उन का ध्यान इस लिये आ गया कि क्योंकि आज कल यह रिसर्च चल रही है कि जो लोग 80 साल की उम्र के बाद भी बहुत ज़िंदादिल, खुशमिज़ाज और ज़हीन रहते हैं उन में और उन बुजुर्गों में आखिर क्या फर्क़ होता है जो बढ़ती उम्र के साथ अपनी यादाश्त खो बैठते हैं और इस रिसर्च से पता चला है कि जिन बुजुर्गों की यादाश्त एकदम अच्छी बनी रहती है उन में एक टाऊ (tau) नामक प्रोटीन के फाईबर-टाइप के उलझाव( fiber-like tangles of a protein linked with Alzheimer’s Disease)- कम होते हैं।

यूनाईटेड अरब एमेरिरेट्स (UAE) की सरकार ने यह फैसला किया है कि बच्चों को स्कूल में दाखिल करने पहले उन के रक्त एवं यूरिन की जांच की जायेगी। यह इसलिये किया जा रहा है ताकि छोटी उम्र में ही कुछ बीमारियों से बचने के उपाय कर लिये जायें। छोटे छोटे बच्चों में एनीमिया( खून की कमी), डायबिटिज़ और थैलेसिमिया रोग कईं वर्षों तक बिना किसी जांच के अपनी जड़े पक्की होने तक बढ़ता ही रहता है । प्रस्ताव के अनुसार ये टैस्ट पहले तो के.जी क्लास में दाखिले के समय, उस के बाद जब बच्चा पांचवी कक्षा में आयेगा और उस के बाद नवीं कक्षा में आने के बाद उस की यह जांच हुआ करेगी।

शनिवार, 15 नवंबर 2008

ट्रांस-फैट्स के इस्तेमाल से क्या हो जायेगा ?

समोसे, कचौड़ी, जलेबी, मठरी, बेकरी की वस्तुएं, बाजारी भटूरे, पूड़ियां......ये सब पदार्थ ट्रांस-फैट्स से लैस होते हैं – ये हमारे स्वास्थ्य के विलेन आखिर हैं क्या ? – ट्रांस-फैट्स का मतलब है हाइड्रोजिनेटेड फैट्स अर्थात् जिन वनस्पति तेलों में हाइड्रोजिनेशन प्रक्रिया के द्वारा हाइड्रोजन डाली जाती है। आप को याद होगा कि बहुत पहले ऐसे ही घी को घरों में भी अधिकतर इस्तेमाल किया जाता था और ये टिन के या प्लास्टिक के डिब्बों में आया करते थे ----अभी भी ध्यान नहीं आ रहा तो याद करिये जब बचपन में ऐसे ही एक डिब्बे के ढक्कन को खोलते हुये आप का हाथ कट गया था।

इस हाइड्रोजिनेशन प्रक्रिया के द्वारा तरल लिक्विड ऑयल मक्खन जैसा ठोस सा हो जाता है और इस प्रक्रिया के बाद इस के “खराब ” होने के चांस बहुत कम हो जाते हैं---लेकिन सब से महत्वपूर्ण बात जानने लायक यह है कि इस हाइड्रोजिनेशन प्रक्रिया के फलस्वरूप यह घी हमारी धमनियों ( रक्त की नाड़ी) के लिये मक्खन अथवा चर्बी जितना ही खतरनाक हो जाता है।

विज्ञानिकों ने बहुत पहले ही यह सिद्ध किया हुआ है कि इन ट्रांस-फैट्स की वजह से एल.डी.एल ( LDL – low density lipoprotein.... जिसे बुरा कोलैस्ट्रोल कहा जाता है)- का स्तर तो बढ़ जाता है लेकिन एच.डी.एल ( HDL- high density lipoprotein- जिसे अच्छा कोलैस्ट्रोल कहा जाता है) का स्तर घट जाता है जिस की वजह से हृदय रोग होने का अंदेशा काफ़ी बढ़ जाता है।

कुछ देशों में तो रैस्टरां में और बेकरी आदि में इन ट्रांस-फैट्स के इस्तेमाल पर प्रतिबंध ही लगा दिया गया है। अमेरिकन मैडीकल एसोसिएशन में मैडीकल डाक्टर और मैडीकल स्टूडैंट्स की संख्या दो लाख चालीस हज़ार है जिन्होंने ने यह फैसला किया है कि पहले तो वे लोगों को कहते थे कि उन्हें ट्रांस-फैट्स का इस्तेमाल कम करना चाहिये लेकिन अब तो वे इन के इस्तेमाल को बिलकुल न करने की सिफारिश कर रहे हैं। और इस ग्रुप का यह मानना है कि केवल ट्रांस-फैट्स का इस्तेमाल न करने से ही अमेरिका में लगभग एक लाख लोग अकाल मृत्यु का ग्रास बनने से बच जायेंगे।

अगर अमेरिका में यह हालात हैं तो जिस तरह से हमारे यहां पब्लिक बाज़ार में खोमचों पर पकौड़ों, जलेबियों, समोसों पर सुबह शाम टूट पड़ती है---उस से तो यही लगता है कि अगर हम लोग इन खाध्य पदार्थों को बनाते समय इन ट्रांस-फैट्स का इस्तेमाल बंद करवा पायें तो हमारे यहां तो करोड़ों जिंदगीयां ही बच जायेंगी। और जिस तरह से हमारे पड़ोस वाला सुबह से लेकर रात तक उस कड़ाही के गंदे से घी में पकौड़े बनाता है और समोसे निकालता है , उस से तो इस घी के गुण ट्रांस-फैट्स से भी बीसियों गुणा नुकसानदायक हो जाते हैं। लेकिन अपनी सुनता कौन है !!

कुछ साल पहले तक तो मैं कभी कभी समोसे, जलेबी अथवा बेकरी में बनी वस्तुयें खा लिया करता था लेकिन पिछले काफी अरसे से मैंने इस तरह के खान-पान पर पूरा प्रतिबंध लगा रखा है। आप क्या सोच रहे हैं, आप भी छोड़ क्यों नहीं देते, पहले से ही बहुत खा लिया।

कृपया टिप्पणी में यह मत लिखियेगा कि इन चीज़ों को अगर खाया ही नहीं तो जीने का क्या लुत्फ़ ----क्योंकि जब शरीर में कोई तकलीफ़ लग जाती है ना तो बहुत मुसीबत हो जाती है। जितने हम से बन पाये उतना तो बच कर ही रहें, बाकी तो उस ऊपर-वाले पर छोड़ना ही पड़ता है।

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

वेसे है तो आज विश्व-डायबिटिज़ दिवस लेकिन..........

जी हां, आज विश्व मधुमेह दिवस है तो क्या आज के दिन इस बीमारी के बारे में शुभ-शुभ बातें ही करनी होंगी ?--- लेकिन मेरा मन कुछ और ही कह रहा है। मैं जितना इस बीमारी के इलाज की धज्जियां उड़ती देख रहा हूं, वह मैं ही जानता हूं। दोषारोपण? –क्या वह यहां भी करना ही होगा ? –वैसे मैं तो अभी तक इस का फैसला ही नहीं कर पाया कि इस के बीमारी के बुरे प्रबंधन का दोष किस के सिर पर मढूं---मरीज़ों पर, चिकित्सा व्यवस्था पर, मरीज़ों एवं मैडीकल ढांचे की परिस्थितियों पर !!

सब से अफसोसजनक बात यही है कि जो लोग इस बीमारी से जूझ रहे होते हैं उन की ठीक तरह से मॉनीटरिंग हो ही नहीं पाती है। इस के विभिन्न कारणों की तरफ़ देखना होगा। किसी मरीज़ को पता है कि उसे मधुमेह है ----और किसी डाक्टर ने उसे एक टेबलेट पर डाल दिया है। अब बहुत बार देखने में आया है कि वह सालों-साल बिना अपनी ब्लड-शूगर की जांच करवाये या तो उसी टेबलेट को उतनी ही मात्रा में लेता रहेगा वरना कुछ समय बाद जब उसे “ ठीक सा लगने लगेगा” तो उस टेबलेट को बिना किसी डाक्टरी सलाह के बंद कर देगा । शूगर के लिये ही नहीं बहुत सी तकलीफ़ों के लिये मरीज़ों के दवा बंद करने के कारण हमारे देश में कुछ इस तरह के होते हैं----- गोली खाने की आदत पड़ जायेगी, गोली गर्म होती है, लगातार गोली खाने से इस की खुराक बढ़ानी पड़ जायेगी, साथ वाली किसी पड़ोसन की शूगर तो बिना दवाई के ही गायब हो गई थी, देसी दवाई शुरू करनी है इसलिये अंग्रेज़ी दवाई तो बंद करनी ही होगी-------और भी इसी तरह के बहुत से कारण हैं डायबिटिज़ की दवाई अपने आप बंद करने के।

और एक ध्यान आ रहा है ---बहुत से मरीज़ आ कर बतलाते हैं कि डाक्टर ने तो मुझे इंसुलिन के टीके रोज़ाना लेने के लिये कहा हुआ है लेकिन मैं नहीं पड़ता इस चक्कर में ----कौन इस मुसीबत को मोल ले---एक बार लेने शुरू कर दिये तो हमेशा के लिये लेने ही पड़ेंगे। इसलिये मैं तो परहेज से ही काम चला रहा हूं और साथ में फलां दवाई की आधी गली कभी-कभी ले लेता हूं -----अब इन मरीज़ों को यह समझना भी बहुत ही ज़रूरी है कि अगर ये वह वाली आधी गोली भी नहीं लेंगे तो भी होगा कुछ नहीं ---बस वे शूगर-रोग से संबंधित तरह तरह की जटिलताओं की गिरफ्त में आ जायेंगे --- या तो दृष्टि किसी दिन जवाब दे जायेगी, गुर्दे पक्के तरह पर हड़ताल पर चले जायेंगे, हार्ट प्राब्लम हो जायेगी, वरना डॉयबिटिक पैर जैसी किसी समस्या का पंगा पड़ जायेगा और पैर या पैर का पंजा काटना पड़ सकता है ---मैं परसों रेडियो पर पीजीआई,चंडीगढ़ के एक विशेषज्ञ की एक इंटरव्यू सुन रहा था कि उन के संस्थान में चालीस में से उनचालीस पैर या पैर के पंजे आप्रेशन से काटने का कारण भी डायबिटिज़ ही होता है।

पिछले पैराग्राफ में ज़िक्र हुआ है देसी दवा का ----इस देसी दवा से मतलब है कि कुछ लोग किसी नीम-हकीम से कुछ पुड़ियां सी ले आते हैं जो बिल्कुल झूठा सा वायदा साथ में कर देता है कि इन के सेवन से शूगर-रोग जड़ से ही खत्म हो जायेगा। लेकिन वह सरासर फरेब कर रहा है ---ऐसी कोई पुड़िया, कोई तिलस्माई पुड़िया बनी ही नहीं है जिस से यह तकलीफ़ हमेशा के लिये पुड़िया घोल कर पी लेने से नष्ट हो जाये। जितनी भी आप कल्पना कर सकते हैं उतना ही नुकसान ये देसी दवाईंयां मरीज़ का करती हैं और उसे पता ही नहीं चलता। बहुत बार तो इन पुड़ियों में इन नीम-हकीमों ने बहुत से नुकसान-दायक कैमिकल डाले होते हैं जो शरीर में तरह तरह की व्याधियां पैदा करते हैं । और अगर खुशकिस्मती से कहूं या गलती से आप इन व्याधियों से बच भी गये तो भी ये देसी दवाईयां किसी के शक्कर रोग को इनडायरैक्टली बढ़ावा तो दे ही रही हैं ----किसी तरह का कोई टैस्ट हो नहीं रहा, टॉरगेट-आर्गनज़ को क्या हो रहा है उन की किसे फिक्र है नहीं ----सो, बहुत से मरीज़ इन्हीं देसी दवाईयों की वजह से शूगर रोग से संबंधित बहुत सी मुश्किलें मोल ले डालते हैं। कृपया इस तरफ़ ध्यान दें कि देसी दवा से मेरा मतलब है कि नीम-हकीम डाक्टरों द्वारा दी गई थर्ड-क्लास दवाईयां (अगर इन्हें हम दवाईयां कह सकें तो !!)

लेकिन अगर कोई आयुर्वैदिक पद्धति से या किसी अन्य भारतीय चिकित्सा पद्दति के द्वारा ही अपना इलाज करवाना चाहता है तो उसे उस पद्धति के किसी विशेषज्ञ के पास जाना ही होगा और उन के कहे अनुसार दवा एवं जीवन-शैली में बदलाव करने ही होंगे।

कुछ बातें लोग आ कर बताते हैं कि वे कहीं से पढ़ कर, किसी की सलाह से जामुन की गुठली को पीस कर ले रहे हैं, करेले का जूस ले रहे हैं, और डोडिया-पनीर रात को भिगो कर सुबह वह पानी पे रहे हैं-----अगर आप इस तरह का कोई काम भी कर रहे हैं या करने का विचार बना रहे हैं तो किसी आयुर्वैदिक डाक्टर के परामर्श से, उनकी अनुमति से करेंगे तो ही उचित है क्योंकि वह साथ ही साथ आप के ब्लड-शूगर के स्तर का भी ध्यान रखेंगे।

यह तो हो गई बात दवाईयों की, अब आते हैं ---मधुमेह की नियमित मॉनीटरिंग की । विभिन्न कारणों की वजह से यह भी ठीक तरह से हो नहीं पा रहा है। इस में काफी हद तक मरीज़ों की अज्ञानता का भी दोष है-----वास्तव में, काफी नहीं कुछ हद तक ही। बिना मॉनीटरिंग के कैसे दवा को बढ़ाया, घटाया जायेगा, रोग के कंट्रोल के लिये कैसे और निर्देश दिये जायेंगे ।

पिछले महीनों में शूगर रोग पर किस तरह का कंट्रोल रहा- इस की जांच के लिये ग्लाईकेटेड-हीमोग्लोबिन (glycated haemoglobin) नाम से एक टैस्ट तो है लेकिन इस के बारे में बहुत ही कम लोग, बहुत ही ज़्यादा कम लोग जानते हैं और जो जानते भी हैं वे इसे करवाने की ज़रूरत नहीं समझते हैं। वैसे यह टैस्ट लगभग 200 रूपये के आसपास हो जाता है। इस ब्लाग पर इस विषय पर इस नाम से एक पोस्ट है---अब हो पायेगी डायबिटिज़ की और भी बढ़िया स्क्रीनिंग।

यह ग्लाईकेटेड-हिमोग्लोबिन की बात दूर, अकसर कुछ लोगों में अगर खाली पेट और खाने के बाद ब्लड-शूगर चैक करवाने को कहा जाता है तो कईं लोग इस को भी नहीं मानते, या तो खाली पेट वाला टैस्ट ही करवा लेते हैं ---यह कहते हुये कि अब कौन दूसरे टैस्ट के लिये इंतज़ार करे, वरना कईं बार खाये-पिये ही टैस्ट करवा लेते हैं –यह कहते हुये कि हम से भूख सहन नहीं हो पाती। इन्हीं कारणों की वजह से ही इन मरीज़ों की सही मॉनीटरिंग हो ही नहीं पाती।

अच्छा बात बार बार हो रही है मॉनिटरिंग की ----हमें यह ध्यान रहे कि ब्लड-शूगर के स्तर की नियमित मॉनिटरिंग के साथ साथ शूगर के मरीज के टार्गट अंगों की भी नियमित जांच होनी चाहिये ----अपने चिकित्सक की सलाह अनुसार टार्गट अंगों की कार्य-प्रणाली का आकलन करने हेतु ये टैस्ट होते हैं। पहले ज़रा इस के बारे में बात करें कि यह जो शब्द टार्गट अंग है, इस का क्या मतलब है---इस का मतलब है कि जिन अंगों पर शूगर रोग के बुरे प्रभाव सब से ज़्यादा पड़ते हैं ---जैसे कि किडनी( गुर्दे), हार्ट, आंखें, नसें आदि -----इन की नियमित जांच के साथ साथ इन के लिये कुछ टैस्ट जैसे कि किडनी फंक्शन टैस्ट, ईसीजी, ब्लड-प्रैशर की नियमित जांच, लिपिड-प्रोफाइल टैस्ट, आंखों का नियमित परीक्षण, किसी न्यूरोलॉजिस्ट के द्वारा चैक-अप शामिल हैं----- किसी अमेरिकन वैब-साइट मैं पढ़ रहा कि शूगर के रोगियों में आंखों का चैक-अप तो एक साल की बजाये हर छः महीने के बाद ही होना चाहिये ताकि आंखों की समस्याओं का प्रारंभिक अवस्था में ही पता चल सके और उन की मैनेजमैंट की जा सके।

बातें तो बहुत हो गईं ----लेकिन अब असलियत के फर्श पर उतर ही आता हूं। क्या आप को लगता है कि इस तरह की नियमित मॉनीटरिंग किसी बिल्कुल आम आदमी के बस की बात है ---सरकारी हस्पताल मरीज़ों के लोड के कारण ठसा-ठस भरे हुये हैं----काम धंधा छोड़ कर कितने लोग इन लंबी कतारों में लग सकते हैं, कितने लोग महंगी महंगी दवाईयां खरीद पाते हैं, महंगे टैस्ट करवा पाते हैं, ये चाय में नकली मीठे की गोलियां इस्तेमाल कर सकते हैं ------ये सब सोचने की बाते हैं । और अगर आप सोच रहे हैं कि इस डायबिटिज़ में एक आम आदमी कैसे घुस आया ----तो यह अब हो चुका है। वह भी इस की चपेट में आ चुका है।

कोई समाधान ?--- सब से महत्वपूर्ण बात वही है कि कैसे भी हो अपने वजन को कंट्रोल करने की पूरी कोशिश की जाये----बिना जिह्वा के स्वाद पर पर कंट्रोल किये यह संभव है ही नहीं, जंक-फूड का नामो-निशां अपनी लाइफ से मिटाना होगा---और इन सब के साथ साथ रोज़ाना सैर तो करनी ही होगी ----चाहे मन करे या न करे----एक बार पैदल भ्रमण करने की आदत पड़ जाये तो फिर अच्छा भी लगने लगेगा। बहुत से लोग अपनी विवशता प्रगट करते हैं कि वे चल ही नहीं पाते, क्या करें !!--- उन्हे सलाह है कि अपने चिकित्सक से पूछ कर खड़े खड़े ही किसी एक्सर-साईकिल को ही चला लिया करें-----बहुत ही , बहुत ही ,बहुत ही, ..........मेरे इस तीन बार लिखे को तीस लाख बार जानिये कि वैसे तो सब के लिये ही लेकिन शूगर के रोगी के लिये भ्रमण निहायत ही ज़रूरी है।

चलिये,अब विश्राम लेते हैं क्योंकि मेरा भी भ्रमण के लिये जाने का समय हो गया है – रोज़ाना आधा घंटा भ्रमण करने की आदत डाल रहा हूं ---और इस विश्व डायबिटिज़ दिवस पर सारे विश्व के लिये यही मंगलकामना करता हूं कि शूगर के सब रोगियों की शूगर पूरी तरह से कंट्रोल में रहे, और उन के टार्गेट अंग पूरी तरह से फिट रहें और वे भरपूर ज़िंदगी का लुत्फ़ उठाएं और जो बंधु प्री-डायबिटिक्ट हैं वे अपनी जीवन-शैली में उचित परिवर्तन समय रहते कर लें ताकि उन्हें आगे चल कर किसी तरह की परेशानी न हो -----और सारे विश्व के लिये शुभकामनायें कि उन का वज़न कंट्रोल में रहे, वे जंक-फूड से मुक्त हो जायें, अपने नमक की खपत पर पूरा कंट्रोल कर लें और सारे विश्व-बंधुओं को रोज़ाना एक-आध घंटा टहलने का चस्का पड़ जाये।

जाते जाते यही लिखना चाह रहा हूं कि मैं इतनी बातें लिखते लिखते उस महान योगी ---बाबा रामदेव को कैसे भूल गया ---उन की बातें अनुकरणीय हैं -----अगर कोई बंधु हर तरह से परेशान हैं तो बाबा रामदेव की कही बातें अपने जीवन में उतारनी शुरू कर दें-----अवश्य कल्याण होगा। मैं क्या सारा संसार उन से बहुत प्रभावित है ----वे बिल्कुल निराश, हताश लोगों की ज़िंदगी में आशा का दीप जला रहे हैं , आखिर इस से बड़ी बात क्या हो सकती है !!

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

दांत में लवंग-तेल (clove oil) लगाने से मुंह में होने वाले घाव ?

सुनने में तो यह बहुत छोटी सी ही बात लगती है लेकिन अकसर दंत चिकित्सकों के पास ऐसे मरीज़ आते ही रहते हैं जो आकर बतलाते हैं कि दुखते दांत की कैविटी के अंदर लवंग-तेल ( clove oil) लगाने से सारे मुंह में छाले हो गये।

जब ये डैंटिस्ट के पास आते हैं तो अकसर दांत के दर्द से ज्यादा मुंह में मौजूद घावों से ज़्यादा परेशान होते हैं। और उन घावों का ट्रीटमैंट भी साथ साथ करना पड़ता है।

इस का कारण ? – अधिकांश लोगों का दुखते दांत में लवंग-तेल लगाने का तरीका यह है कि छोटा सा रूई का टुकड़ा लिया और उसे लवंग तेल में भिगो कर तुरंत दांत की कैविटि में ठूंस दिया ---यही सारी गड़बड़ हो जाती है---यह लवंग-तेल एक कैमिकल ही है और इस तरह से इस्तेमाल करने से यह आस-पास के मसूड़ों, मुंह के अंदर की चमड़ी (oral mucous membrane) पर लीक कर जाता है और इन जगहों पर दर्दनाक घाव पैदा कर देता है।

तो, हमारे लिये यह बहुत ज़रूरी है कि हम सब लोग अच्छी तरह से लवंग तेल के इस्तेमाल को सीख लें----बात बिल्कुल छोटी सी है ---जिस रूईं को आपने लवंग-तेल में भिगो लिया है, उसे मुंह में लगाने से पहले किसी दूसरे सूखे हुये रूईं के टुकड़े पर दो-तीन बार टच करें, डैब करें ----ताकि लवंग तेल वाली रूईँ में मौजूद ज़्यादा लवंग-तेल सूखी हुई रूईं द्वारा सोख लिया जाये और यह लवंग तेल से भीगी हुई रूईं भी आप को देखने में सूखी सी ही लगने लगेगी। इसे आप अपनी कैविटि में लगा सकते हैं ----आप को तुरंत दर्द में राहत मिलेगा और आसपास की किसी जगह पर घाव भी नहीं होंगे।

यह तो हो गई लवंग-तेल की बात ---एक दूसरी बात भी करनी ज़रूरी है ---एसप्रिन बर्न--- अर्थात् एसप्रिन की गोली से मुंह का जलना और घाव हो जाना। होता यूं है कि कुछ लोग अज्ञानता-वश दांत के दर्द के लिये एसप्रिन की टीकिया पीस कर दुखते दांत की जगह पर मल लेते हैं ---मल क्या लेते हैं, आफत ही मोल ले लेते हैं ----एसप्रिन को टैबलेट भी एक कैमिकल ही है ---एसीटाइलसैलीस्लिक एसिड ( acetylsalicylic acid) ---और अगर इसे खाने की बजाये मुंह में पीस कर रगड़ लिया जाता है तो परिणाम आपने सुन ही लिये हैं ----यह मुंह को जला देती है !!

कुछ लोग दांत के दर्द से निजात पाने के लिये उस जगह पर तंबाकू, नसवार ( creamy snuff) रगड़ लेते हैं ----इस से तो बस नशा ही होता है लेकिन कुछ ही समय बाद लोग इस नशे के इतने आदि हो जाते हैं कि इस व्यसन का चस्का उन्हें लग जाता है। दांत के दर्द से राहत की रैसिपी तो यह तंबाकू कतई है नहीं , लेकिन मुंह के कैंसर को तो खुला न्यौता है ही है। एक बात ध्यान आई कि बहुत से मंजन और पेस्ट बाज़ार में इस तरह के हैं जिन में तंबाकू पीस कर मिला हुआ है ---इस से बच कर रहियेगा------ यह केवल आग है जो सब कुछ जला देगी !!

जो लोग तंबाकू के इस्तेमाल के आदि हो जाते हैं उन में से ऐसे लोगों का प्रतिशत भी अच्छा खासा ज़्यादा है जिन्होंने की तंबाकू से पहले मुलाकात ही दांत के दर्द के बहाने हुई ----किसी दोस्त अथवा सगे-संबंधी के कहने पर दांतों अथवा मसूड़ों की तकलीफ़ के लिये एक बार इस तंबाकू का इस्तेमाल क्या शुरू किया कि बस फिर इस लत को लात मार ही न पाये और बहुत से लोग मुंह के कैंसर की आफत को मोल ले बैठे !!

रोज़ाना मरीज़ अपने अनुभव बतलाते हैं ----कुछ लोगों से पता चला कि वे दांत के दर्द के लिये उस के ऊपर नेल-पालिश लगा लेते हैं । यह काम भी करना ठीक नहीं है। कुछ कहते हैं कि वे झाड़-फूंक करवा लेते हैं ----यह बात भी गले से नीचे ही नहीं उतरती।

बात जो भी है – दांत का दर्द परेशानी और जहां तक हो सके इस से बचा जाये और उस का एक उपाय है कि हर छः महीने बाद अपने क्वालीफाईड डैंटिस्ट से अपने दांतों का चैक-अप ज़रूर करवा लिया करें।

बुधवार, 12 नवंबर 2008

आज टुथब्रुश के बारे में बात करें !!

यह टापिक मैंने आज इसलिये चुना है क्योंकि आज मेरे पास एक लगभग 18-20 वर्ष की युवती आई मुंह की किसी तकलीफ़ के कारण ----अभी मैं उस को एक्ज़ामिन कर ही रहा था तो उस का पिता बीच में ही बोल पड़ा---इन को मैंने बहुत बार मना किया है कि घर में एक दूसरे का ब्रुश न इस्तेमाल किया करो। मेरा माथा ठनका---क्योंकि ऐसी बात मैं कैरियर में पहली बार सुन रहा था।

इस से पहले कईं साल पहले मुझे मेरे ही एक मरीज़ ने बताया था कि उस के घर के सारे सदस्य एक ही ब्रुश का इस्तेमाल करते हैं---उस बात से भी मुझे शॉक लगा था।

यह जो आज युवती से बात पता चली कि वे घर में एक दूसरे का टुथब्रुश इस्तेमाल करने से हिचकते नहीं हैं- जो भी जल्दी जल्दी में हाथ लगता है, उसी से ही दांत मांज लेते हैं। वह युवती बतला रही थी कि यह सब कॉलेज जाने की जल्दबाजी में होता है और इस के लिये वह सारा दोष अपने भाई के सिर पर मढ़ रही थी।

खैर, इन दोनों केसों के बारे में आप को बतलाना ज़रूरी समझा इसलिये बतला दिया। लेकिन यह जो बात युवती ने बताई, क्या आप को नहीं लगता कि यह बात तो हमारे घर में भी कभी कभार हो चुकी है---जब हमें किसी बच्चे से पता चलता है कि आज तो उस ने बड़े भैया का ब्रुश इस्तेमाल कर लिया।

अच्छा तो क्या करें ? ---इस तरह के बिहेवियर के लिये कौन दोषी है? ---मुझे लगता है कि इस के लिये सब से ज़्यादा दोषी है ---लोगों की इस के बारे में अज्ञानता कि टुथब्रुश के ऊपर जो कीटाणु होते हैं वे एक दूसरे का ब्रुश इस्तेमाल करने से एक से दूसरे में ट्रांसफर हो जाते हैं-----ठीक है, बहुत से लोग अभी भी टुथब्रुश को शू-ब्रुश जैसे ही इस्तेमाल करते हैं लेकिन इस से टुथब्रुश शू-ब्रुश तो नहीं बन गया !!

अच्छा आप एक बात की तरफ़ ध्यान दें----अधिकांश लोगों के पास छोटे छोटे से गुसलखाने ( नाम ही कितना हिंदोस्तानी और ग्रैंड लगता है--- नाम सुनते ही नहाने की इच्छा एक बार फिर से हो जाये) होते हैं ---पांच-सात मैंबर तो हर घर में होते ही हैं ---अब एक प्लास्टिक के किसी डिब्बे जैसे जुगाड़ में सात ब्रुश पड़े हुये हैं और जो तीन-चार ज़्यादा ही हैल्थ-कांशियस टाइप के बशिंदे हैं उन की जुबान साफ़ करने वाली पत्तियां भी उसी में पड़ी हुई हैं तो भला कभी कभार गलती लगनी क्या बहुत बड़ी बात है ? --- हमारे ज़माने में तो किसी रिश्तेदार के यहां जाने पर या किसी ब्याह-शादी में जाने पर अपना( ( ब्रुश, अपनी शेविंग किट भी मेजबान के गुसलखाने में ही टिका दी जाती थी। हां, तो मैं बार बार गुसलखाना इसलिये लिख रहा हूं कि पहले गुसलखाने ही हुआ करते थे और इन्हें बुलाया भी इसी नाम से ही जाता था और अच्छा भी यही नाम लगता था ----शायद नाम में कुछ इस तरह की बात है कि लगता है कि जैसे किसी बादशाह के नहाने का स्थान है...गुसल..खाना !! लेकिन होता तो अकसर यह बिलकुल बुनियादी किस्म का एक जुगाड़ ही था---एक टब, एक लोहे की प्राचीन बाल्टी और एक एल्यूमीनियम का बिना हैंडल वाली डिब्बा----और साथ में एक बहुत हवादार खिड़की ----हां, तो खिड़की में एक सरसों के तेल की शीशी ज़रूर पड़ी रहती थी और फर्श पर एक टूटी हुई एतिहासिक साबुनदानी में एक देसी साबुन की और एक अंग्रेज़ी साबुन की चाकी भी ज़रूर हुआ करती थी ( पंजाबी में साबुन की टिकिया को चाकी कहते हैं) -----लेकिन पता नहीं कब ये गुसलखाने बाथ-रूम में बदल गये ----हर बशिंदे के कमरे के साथ ही सटक गये.....साथ ही क्या, उस के अंदर ही सटक गये और साथ में ले आये ---तरह के शैंपू की शीशियां, पाउच, पीठ साफ करने वाला जुगाड़, एडी साफ करने वाला कुछ खास जुगाड़ और ......सारी, मैं अपने टापिक से भटक गया था।

हां, तो बात हो रही थी कि आज कल के छोटे-छोटे बाथरूमों की ---एक दूसरे का ब्रुश इस्तेमाल करने की इस तरह की गल्तियां यदा कदा होनी स्वाभाविक ही हैं । डैंटिस्ट हूं ----इसलिये इस विषय पर बहुत सोच विचार के इसी निष्कर्ष पर ही पुहंचा हूं कि इस से बचने का केवल एक ही उपाय है कि हम लोग अपने टुथब्रुश को और अपनी जीभी (जुबान साफ़ करने वाली पत्ती ) को एक बिल्कुल छोटे से गिलास में अलग से ही रखें। और जहां तक कोशिश हो, अगर बाथ-रूम छोटा है तो इस गिलास को उधर न ही छोड़े। इस के पीछे की एक वजह मैं अभी थोड़े समय में आप को सुनाऊंगा।

अतिथि देवो भवः -----मेहमान भगवान का रूप होता है लेकिन अगर यही भगवान आप से टावल, कंघी, या रेज़र की मांग कर बैठता है तो इतनी कोफ्त आती है कि क्या करें, पायजामे का जिक्र जानबूझ कर नहीं किया क्योंकि आज कल मेजबान से इसे मांगने का पता नहीं इतना रिवाज रहा नहीं है। एक बिलकुल सच्चा किस्सा सुना रहा हूं कि एक बंदे के यहां कईं बार मेहमान आ कर टुथब्रुश की मांग कर बैठते थे ----उस ने एक युक्ति लगाई ---उस ने एक टुथब्रुश खरीद लिया और उस के कवर को भी संभाल कर रख लिया ---जो भी मेहमान आये वह वही ब्रुश उस के आगे कर देता था ----मेहमान खुश हो जाता था --- और इस महानुभाव ने उस ब्रुश का नाम ही पंचायती ब्रुश डाल दिया । किस्सा तो यह बिल्कुल सच्चा है लेकिन मैं विभिन्न कारणों की वजह से इस की बेहद निंदा करता हूं।

हां, तो बात हो रही थी अपने टुथब्रुश एवं रेज़र आदि को अलग से ही रखने की। एक और किस्सा सुनाता हूं ---10-12 साल पुरानी बात है –एक लेडी ऑफीसर के कमरे में जाने का मौका मिला---वह अपने बंगला-चपरासी को फटकार लगा रही थी कि उस ने ही उस के मिस्टर की शेविंग किट यूज़ की है----पता नहीं उन का क्या फैसला हुआ लेकिन पता नहीं मेरे सबकोंशियस में एक बात ज़रूर बैठ गई और पता नहीं कब मैंने अपने टुथब्रुश और शेविंग किट को बाथरूम से बाहर किसी सेफ़ सी जगह रखना शुरू कर दिया---मेरे विचार में इस तरह इन को अलग रखने के कुछ फायदे तो हैं ही ----बाथरूम में किसी को गलती लगने का कोई स्कोप ही नहीं, और आप को किसी पर शक करने की कोई ज़रूरत ही नहीं कि उस ने कहीं आप की किट विट इस्तेमाल न कर ली हो, बात तो चाहे छोटी सी लगती है लेकिन इस से सुकून बहुत ज़्यादा मिलता है।

मेरे पास कईं मरीज़ आते हैं जब मैं उन से पूछता है कि आप लोग अपने अपने टंग-क्लीनर का कैसे ख्याल रखते हो----तो मुझे इस का कुछ संतोषजनक जवाब मिलता नहीं। कुछ लोग कह तो देते हैं कि हम लोग ब्रुश और टंग-क्लीनर को बांध कर ऱखते हैं लेकिन मुझे यकीन है कि यह कोई प्रैक्टीकल हल नहीं है। तो, मेरे विचार में तो एक छोटे से गिलास में अपनी यह एसैसरीज़ अलग ही रखने की आदत डाल लेनी चाहिये।

बस, दो बातें टुथब्रुश के बारे में कर के पोस्ट खत्म करता हूं । एक तो यह कि एक दूसरे का ब्रुश इस्तेमाल करने से कुछ तरह की इंफैक्शनज़ ट्रांसमिट होने का डर बना रहता है। विकसित देशों में तो इस बात की बहुत चर्चा है कि ब्रुश करने से पहले फलां सोल्यूशन में और फलां लिक्विड में भिगो लिया जाये---कीटाणुरहित किया जाये ----चूंकि ये चौंचलेबाजीयां हम लोगों ने ही आज तक नहीं कीं, इसलिये किसी को भी इन की सिफारिश भी नहीं की -----अपने यहां तो ब्रुश करने के लिये साफ पानी मिल जाये उसे ही एक वरदान समझ लेना काफ़ी है---- इसलिये ब्रुश को एंटीसैप्टिक से वॉश करने वाली बात हमारे लिये तो एक शोशा ही है -----शोशा इसलिये कह रहा हूं कि वैज्ञानिक होते हुये भी हम लोगों के लिये प्रैक्टीकल बिलकुल नहीं है।

जाते जाते नन्हे-मुन्नों के लिये जो ब्रुश इस्तेमाल किया जा रहा है उस के बारे में एक बात कर के की-पैड से अगुंलियां उठाता हूं । बात यह है कि जिस बेबी ब्रुश से मातायें अपने नन्हे-मुन्नों के दांत साफ करती हैं....वह झट से उन्हें छीन लेता है और हफ्ते दस दिन में ही चबा चबा कर उस ब्रुश का हाल बेहाल कर देता है ---उस का हल यही है कि आप दो ब्रुश रखें----एक से तो उस के दांत साफ कर के सुरक्षित रख दें और जब वह उसे छीनने की कोशिश करे तो उसे दूसरे वाला ब्रुश पकड़ा दें---जिस से साथ वह दो-मिनट खेल कर वापिस लौटा देगा-------वह भी खुश और आप भी !!

सोच रहा हूं कि आज सुबह उस युवती की बात ने भी मुझे क्या क्या लिखने के लिये उकसा दिया ----यकीनन हमारे मरीज़ ही हमें कुछ लिखने के लिये, अपने पुराने से पुराने अनुभव बांटने के लिये उकसाते हैं।

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

बच्चों की डायबिटिज़ को लेकर आजकल क्यों है इतना हो-हल्ला ?

जब भी बच्चों की बीमारियों की चर्चा होती है तो अकसर डायबिटिज़ का जिक्र कम ही होता है क्योंकि अकसर हम लोग आज भी यही सोचते हैं कि डायबिटिज़ का रोग तो भारी-भरकम शरीर वाले अधेड़ उम्र के रइसों में ही होता है लेकिन अब इस सोच को बदलने का समय आ गया है। डायबिटिज़ के प्रकोप से अब कोई भी उम्र बची हुई नहीं है और मध्यम वर्ग एवं निम्न-वेतन वर्ग के नौजवान लोगों में भी यह बहुत तेज़ी से फैल रही है।

जहां तक बच्चों की डायबिटिज़ की बात है, बच्चों की डायबिटिज़ के बारे में तो हम लोग बरसों से सुनते आ रहे हैं ----इसे टाइप-1 अथवा इंसूलिन-डिपैंडैंट डायबिटिज़ कहते हैं। अच्छा तो पहले इस टाइप-1 और टाइप-2 डायबिटिज़ की बिलकुल थोड़ी सी चर्चा कर लेते हैं।

टाइप-1 डायबिटिज़ अथवा इंसूलिन-डिपैंडैंट डायबिटिज़ में पैनक्रियाज़ ग्लैंड ( pancreas) की इंसूलिन-पैदा करने वाली कोशिकायें नष्ट हो जाती हैं जिस की वजह से वह उपर्युक्त मात्रा में इंसूलिन पैदा नहीं कर पाता जिस की वजह से उस के शरीर में ब्लड-शूगर का सामान्य स्तर कायम नहीं रखा जा सकता। अगर इस अवस्था का इलाज नहीं किया जाता तो यह जानलेवा हो सकती है। अगर ठीक तरह से इस का इलाज न किया जाये तो इस बीमारी से ग्रस्त बच्चों में आंखों की बीमारी, हार्ट-डिसीज़ तथा गुर्दे रोग जैसी जटिलतायें पैदा हो जाती हैं। इस बीमारी के इलाज के लिये सारी उम्र खाने-पीने में परहेज़ और जीवन-शैली में बदलाव ज़रूरी होते हैं जिनकी बदौलत ही मरीज़ लगभग सामान्य जीवन जी पा सकते हैं और कंप्लीकेशन्ज़ से बच सकते हैं।

सौभाग्यवश यह टाइप-1 डायबिटिज़ की बीमारी बहुत रेयर है ---बहुत ही कम लोगों को होती है और पिछले कईं दशकों से यह रेयर ही चल रही है।

लेकिन चिंता का विषय यह है कि एक दूसरी तरह की डायबिटिज़ – टाइप 2 डायबिटिज़ बहुत भयानक तरीके से फैल रही है। और इस के सब से ज़्यादा मरीज़ हमारे देश में ही हैं जिस की वजह से ही हमें विश्व की डायबिटिज़ राजधानी का कुख्यात खिताब हासिल है।

इस टाइप -2 डायबिटिज़ की सब से परेशान करने वाली बात यही है कि इस बीमारी ने अब कम उम्र के लोगों को अपने चपेट में लेना शुरु कर दिया है ----अब क्या कहूं ----कहना तो यह चाहिये की कम उम्र के ज़्यादा ज़्यादा लोग इस की गिरफ्त में रहे हैं। आज से लगभग 10 साल पहले किसी 20 वर्ष के नवयुवक को यह टाइप-2 डायबिटिज़ होना एक रेयर सी बात हुआ करती थी लेकिन अब चिंता की बात यह है कि अब तो लोगों को किशोरावस्था में ही यह तकलीफ़ होने लगी है। यही कारण है कि आज कल बच्चों की डायबिटिज़ ने इतना हो-हल्ला मचाया हुआ है।

ठीक है , बच्चों में इतनी कम उम्र में होने वाली तकलीफ़ के लिये कुछ हद तक हैरेडेटी ( heredity) का रोल हो सकता है ---लेकिन इस का सब से महत्वपूर्ण कारण यही है कि बच्चों की जीवन-शैली में बहुत बदलाव आये हैं ----घर से बाहर खेलने के निकलते नहीं, सारा दिन कंप्यूटर या टीवी के साथ चिपके रहते हैं ---और सोफे पर लेटे लेटे जंक-फूड खाते रहते हैं --- इन सब कारणों की वजह से ही बच्चों में टाइप-टू डायबिटिज़ अपने पैर पसार रही है। और यह बेहद खौफ़नाक और विचलित करने वाली बात है। मद्रास के एक हास्पीटल में पिछले बीस सालों में बच्चों में टाइप-2 डायबिटिज़ के केसों में 10गुणा वृद्धि हुई है।

लेकिन खुशखबरी यह है कि टाइप-2 डायबिटिज़ से रोकथाम संभव है---अगर जीवन-शैली में उचित बदलाव कर लिये जायें, खान-पान ठीक कर लिया जाये तो इस टाइप-2 से अव्वल तो बचा ही जा सकता है वरना इस को काफी सालों तक टाला तो जा ही सकता है। तो, बच्चों शुरू हो जाओ आज से ही रोज़ाना एक घंटे घर से बाहर जा कर खेलना-कूदना और अब तक जितना जंक फूड खा लिया, उसे भूल जाओ---अब समय है उस से छुटकारा लेने का ----जंक फूड में क्या क्य़ा शामिल है ?----उस के बारे में आप पहले से सब कुछ जानते हैं