गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

ज़िंदगी ज़िंदाबाद....

मुझे कईं बार यह ख्याल आता है कि आदमी का क़द जितना बड़ा हो जाता है, उतना ही वह दुनिया से कटना शुरू हो जाता है...कद़ से मतलब यहां है रुतबा...इतने इतने नामचीन लोग हैं, कभी आप को फुटपाथ पर थोड़े न दिखेंगे ..हां, एक्टिंग करते वक्त आप उन्हें कभी फुटपाथ पर देख लें तो बात और है ...लेकिन एक्टिंग तो ठहरी एक्टिंग ...और असल ज़िंदगी की तो बात ही क्या है...

मेरी ख़्याल में किसी की शहर की ज़िंदगी उस के गली, कूचे, बाज़ारों, फुटपाथों पर देखी जा सकती है ...और बंबई जैसी जगह हो तो आप इस के रास्तों पर, फुटपाथों पर, लोकल स्टेशनों पर पूरे हिंदोस्तान के दीदार कर सकते हैं ..और सच में ऐसा ही है ...सब कुछ रास्तों पर ही दिखता है ...बहुत से सबक वहीं से सीखते हैं, इन्हीं रास्तों पर चलते हुए हमारी सोई हुए संवेदनाएं जब उठने लगती हैं पता ही नहीं चलता... वह ठीक है कि हम इतने बड़े समाज के हाशिया पर जी रहे लोगों के लिए कर कुछ ख़ास नहीं पाते ...लेकिन दुआ तो कर ही सकते हैं कि सब के दिन पलट जाएं...बदल जाएं, खुशनुमा हो जाएं...

मुझे अभी लिखते लिखते ख्याल आ रहा है कि वैसे लिखने-विखने को मेरे पास है कुछ खास नहीं ...मुझे तो सच में लगता है कि मैं एक फ्रॉडिया किस्म का ही लेखक हूं, अगर अपने आप को लेखक कहूं भी तो .....क्योंकि मेरे पास बातें कुछ खास है नहीं कहने को, बस वही बातें इधर उधर से पकड़ कर जब लिख देता हूं मन हल्का हो जाता है ...हां, अभी मैं जिस विषय पर लिख रहा हूं तो मुझे याद आ गया कि इस पर तो मैं शायद एक डेढ़ साल पहले कल्याण में रहते हुए भी कुछ तो लिख चुका था...ब्लॉग में सर्च किया तो मिल गया...लेकिन मुझे बिल्कुल एक हल्का सा अंदाज़ा ही होता है कि मैंने उसमें क्या लिखा होगाा....लेकिन मेरी कोशिश यही रहती है कि मैं उसे लिख कर कभी पढ़ूं नहीं....और खास कर के अगर मुझे अपने किसी पुराने आलेख का लिंक नए आलेख में साझा करना हो...उस हालत में तो बिल्कुल नहीं। क्योंकि मैं लिखते वक्त ज़्यादा सोचता नहीं ...कुछ तो सोचता ही हूं ..क्या करूं बंदे की जात ही ऐसी होती है ..वरना लिखने को तो इतना कुछ है कि ...खैर, मैं पुराने लेख के लिंक शेयर करते वक्त इसलिए भी उन्हें नहीं पढ़ता क्योंकि मुझे सच में पता नहीं होता कि बरसों पहले मनोस्थिति कैसी रही होगी, किस घड़ी में क्या लिखा गया...बहुत सी व्यक्तिगत बातें भी लिख देता हूं, इसलिए कभी बाद में पढऩे के बाद मुझे थोड़ा असहज भी महसूस हो सकता है, इसलिए फिर से पढ़ने के लटंके में ही नहीं पड़ता......बस, इतना इत्मीनान तो होता है कि जितना लिखा होगा सच ही लिखा होगा...शायद कहीं कुछ कड़वा सच छुपा लिया हो, हो सकता ही नहीं, होता भी है.....क्या करें, कुछ भी परोसते वक्त स्वाद का भी तो ख्याल रखना पड़ता है ...

दरअसल बात यह है कि मैं अकसर फुटपाथों पर बैठे जब छोटे छोटे दुकानदार देखता हूं तो मैं बहुत हैरान होता हूं ....मैं अकसर यही सोचने लगता हूं कि यार, ये कितना कमा लेते होंगे, फिर भी सामान्य ढंग से रह रहे हैं, एक दूसरे के साथ प्यार-मोहब्बत से पेश आते हैं ...इन लोगों के साथ मोल-भाव कोई क्या करेगा, बड़े बड़े स्टोर्ज़ ने, बड़ी बड़ी ऐप्स ने तो सच में इन की पीठ पर ऐसी चोट मारी है कि वे किस के आगे फरियाद करें...

इसे भी ज़रुर पढ़िएगा कभी ...आम, खरबूज़ा, तरबूज फीका है, अंगूर खट्टे हैं..

जब कभी किसी फुटपाथ पर आप किसी बहुत ही बुज़ुर्ग औरत को सब्जी बेचते देखते हो और उस के अच्छे बर्ताव को देखते हो तो अच्छा लगता है...फिर किसी दिन वह अपनी सब्जियों के बीच में थकी-मांदी सी लेटी हुई दिखती है तो चिंता होती है ...दिल से उसकी सलामती की दुआ निकलती है ...अगले दिन वह अपने टिफिन से इत्मीनान से रोटी-दाल, सब्जी खाती दिखती है तो थोड़ा इत्मीनान होता है ..जब हम कुछ फुटपाथों से आए दिन गुज़रते हैं तो हम वहां पर काम कर रहे लोगों को पहचानने लगते हैं ...

मुुझे नहीं पता कि कितने लोग मेरी इस बात से रिलेट कर पाएंगे ...क्योंकि यह एक दिन का काम नहीं है कि हम फुटपाथ पर हो कर आ गए, बाज़ार टहल आए....सोचता हूं कि शायद ये आदतें जवानी से ही नहीं, बचपन से ही पड़ जाती होगी....रोज़ बहुत से लोगों को देखना, उनसे बतियाना, उन को समझना....होता क्या है, यह करते करते एक वक्त ऐसा आ जाता है कि आप को कोई भी बंदा बुरा या गलत लगता ही नहीं ...सब कुछ चंगा ही चंगा लगने लगता है ...किसी की ज़िंदगी में क्या चल रहा है, हम आसानी से उस की कल्पना कर सकते हैं ...

दादर स्टेशन के बाहर सैंकड़ों दुकानदार फुटपाथ पर अपनी दाल-रोटी कमाने का जुगा़ड़ करते हैं...मैं यह ढंके की चोट पर कह सकता हूं कि ये जो लोग दिन में हर चीज़ की शिकायत ही करते हैं ...अगर वे कुछ दिन इन को आते जाते देख लें न तो ये शिकायत करना तो दूर, मुंह खोलने से पहले कईं बार सोचने लगेंगे। इतनी मुफ़लसी, छोटे छोटे बच्चे...औरतें बेचारी कुपोषित ही नहीं, अनपोषित ही समझिए...मां ही नहीं कुछ खा रही तो गोद उठाए शिशु को कहां से कुछ मिलेगा...पसीने से लथपथ कपड़े...किसी का मर्द उस के सामान के पीछे ही लेटा पड़ा है ...ज़रूरी नहीं कि इस तरह से सोया हुआ हर बंदा बेवड़ा ही हो ..वह बीमार भी हो सकता है, काम धंधा न होने की वजह से परेशान भी हो सकता है ..कुछ भी ....पैसे की कमी भी तो सब से बड़ी बीमारी है ...

एक बुज़ुर्ग 70-75 साल की औरत को अकसर देखता हूं ...उस के पास ताड़गोला रहता है, मुझे यहां मुंबई में रहते हुए अच्छा लगने लगा है...जब भी उस के पास ताड़गोला दिखता है, ज़रूर लेता हूं ...उस के पास ही उस का 10-12 साल का पोता भी बैठा होता है जो या तो मोबाइल पर लगा रहता है ..और या फिर दादी को कुछ दिलाने के लिए तंग करता दिखता है ...यह कोई बड़ी बात नहीं है, वह फुटपाथ पर बैठा है तो मैं उस के बारे में लिखने की गुस्ताखी कर रहा हूं ...लेकिन घरों में आज कल कुछ अलग नहीं हो रहा...खैर, उस बुज़ुर्ग औरत की भी दरियादिली मैं देखता हूं ...कभी उस को पाव-भाजी, कभी पिज़्जा, कभी मैक्केन जैसे पैकेट दिलाती है ...कभी उसे मोबाइल न देखने के लिए कहती है तो वह चिल्लाने लगता है ...सुबह से शाम तक ऐसे ही बैठे रहना, कितना सब्र रखना पड़ता होगा..

अच्छे ऐसे ही बिना किसी मक़सद के कभी कभी अनजान राहों पर, अनजान बाज़ारों में थोड़ा टहल लेने के फायदे तो अनेकों हैं ही ..कोई भी किताब ही लिख दे इस मौज़ू पर ... लेकिन मुझे यह फायदा हुआ कि मैंने इसी आदत की वजह से कम से कम तीन फल चख लिए और अब मुझे जहां भी दिख जाते हैं, ले लेता हूं ...फनस, ताड़गोला, और अंजीर....इससे पहले मैंने कभी ये सब नहीं खाया था ...अगर आप फनस के बारे में मेरी बात पढ़ना चाहते हैं तो मेरा यह एक पुराना लेख पढ़िए...

फनस...  लाजवाब स्वाद!! 




ताड़गोले बेचने वाला...

ताड़गोला तो मैं तीस साल पहले भी मुंबई के बड़े बड़े स्टेशनों पर बिकते देखता तो था..लेकिन पता नहीं था कि यह कमबख्त है ..लेकिन एक दो साल पहले जब किसी ताड़गोले वाले के पास खड़े हो कर उस का कमाल देखा तो बात समझ में आई तो तब से उसे खाना भी भाता है ... 

ताज़ी अंजीर भी खा ली ....😂...अब बचा क्या!!

अंजीर तो मैंने कुछ शायद पहली बार दो चार दिन पहली ही खाई ...हमें तो यही लगता था कि अंजीर सूखी ही होती है ...जो कभी कभी सुबह स्मूदी में पड़ी हमें नसीब हो जाती थी ...लेकिन कभी नहीं सोचा था कि यह ताज़ी भी मिलती है ....बस, वह भी ऐसे बाज़ार में आते जाते ही देखा ....अब खरीद तो ली, लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा था कि इसे छिलके के साथ खाना है या छिलका उतार कर ..परसों अपने एक डाक्टर साथी से पूछा कि इस का छिलका भी खा लेते हैं तो उन्होंने कहा कि हां, खाते हैं ...

हर इंसान के कुछ सपने होते हैं ...मेरे भी हैं.........एक तो यह .......लेकिन फिर कभी तबीयत से शेयर करेंगे आपसे वह सपना...क्योंकि दिल से सदा आ रही है कि बस कर, अब चुप भी कर ..हो गया आज के लिए तेरा मन हल्का ..और कितना हल्का करेगा...इसलिए अब जाते जाते एक बहुत अच्छा गीत याद आ रहा है ...जो मेरे लिए दुनिया में सब से बड़ा भजन है ...अरदास है ..क्या नहीं है ...इस में कही एक एक बात से मैं इत्तेफ़ाक रखता हूं ...
 
अच्छा, अब इस पोस्ट का लिफाफा बंद करते करते माहौल बड़ा अजीब सा हो गया है ...इस का इलाज यही है कि किशोर कुमार का एक गीत सुन लिया जाए ...जिसे मुझे हमारे एक साथी ने दो चार दिन पहले याद दिलाया...वाह...क्या बात है!! ज़िंदगी ज़िंदाबाद...ज़िंदगी ज़िंदाबाद......सहज बने रहिए....😎

और हां, जो बातें मैंने कल्याण में रहते हुए लिखी थीं इस लेख में ..वह भी लगे हाथ पढ़ कर छुट्टी कीजिए..

आज यह सब लिखने में ही अपने तो तीन-चार घंटे ..... 😂लग गए .. जी हां, इतना वक्त लग गया, नेटफ्लिक्स की भाषा में फिल-इन-दा-ब्लैंक्स भरने की कोशिश मत कीजिएगा... ऐसे ही जगह खाली जगह छूट गई थी....

मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

दो रंग दुनिया के ...और जीने के दो रास्ते

श्री लाल शुक्ल का एक मशहूर नावल राग दरबारी पढ़ रहा था ..कुछ कुछ रचनाएं जब पढ़ते हैं तो कुछ बातें जैसे दिल में बस जाती हैं...उस नावल में एक वाक्या है पुलिस अधिकारी और उन के चपरासी किसी सड़क पर नाके बंदी किए हुए हैं...ट्रक रोक रहे हैं..और ड्राईवरों के साथ पूछताछ के सिलसिले में श्रीलाल शुक्ल लिखते हैं ...अफसरनुमा चपरासी, और चपरासी नुमा अफसर....बड़ा मज़ा आया उसे पढ़ कर ...मैं उस को इतने अच्छे से लिख कर ब्यां नही ंकर पाया...देखता हूं अगर यह नावल कहीं सामने ही रखा होगा तो उस पेज की एक फोटो शेयर करूंगा...चपरासी जिस रूआब से बात कर रहे थे, अफसरान उतनी ही दबी आवाज़ में पूछताछ कर रहे थे ...खैर, यह बात मैंने इसलिए कही कि हम कुछ हैं, कोई भी तीसमार खां हैं या नहीं हैं, यह सब पता भी तो लगना चाहिए...लेकिन बहुत बार पता लग ही नहीं पाता...

जिस तरह से पढ़े-लिखे और अनपढ़ में भी कईं बार फ़र्क करना भारी गिरता है.....आप को किस ने कहा कि जाहिल लगने के लिए अनपढ़ होना भी ज़रुरी है ..हम बिना किसी मेहनत-मशक्कत के पढ़े लिखे होते हुए भी अपने जाहिल होने का प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हैं ...बस, कुछ खास करना नहीं है, बस खांसते और छींकते वक्त पास खड़े और बैठे किसी बंदे का ख्याल नहीं करना है, जितनी ज़ोर से छींक या खांस सकते हैं उस से भी ज़्यादा ज़ोर लगाइए ताकि फेफड़ों की गहराई तक बिल्कुल अंदर तक कुछ बचा न रह जाए....बस, इतना भर कर लेने से ही हमारे आसपास के लोग हमारे बारे में बिना कुछ कहे ही जान लेते हैं....और अगर कहीं नाक में अंगुली घुसा तो फिर तो कहने ही क्या....जाहिलता का पक्का ठोस प्रमाण, आधार कार्ड से भी ज़्यादा पुख्ता, आस पास खड़े-बैठे लोगों में बंट गया...


दुविधा अब यह है मेरे लिए कि सार्वजनिक जगहों पर मैं मॉस्क पहनूं या न पहनूं....क्योंकि मेरे साथ लगभग हर बार ऐसा होता ही है कि जब भी मैंने मॉस्क नहीं पहना होता तो सामने से कोई न कोई मेरे मुंह के ऊपर छींक देता है या खांस देता है ...सच बताऊं, इस कोरोना वरोना ने इतना डरा दिया है कि उस की छींक या खांसी की बौछार किसी ए.के-47 से निकली बौछार से कम नहीं लगती। एक बात और भी तो है कि हर खांसी या छींक की बौछार जो हमारे मुंह तक पहुंच रही है वह हरेक तो कोरोना या टीबी के कीटाणुओं से लैस नहीं है, लेकिन फिर भी डर तो लगता ही है ...मैडीकल साईंटिस्ट कहां सब कुछ जान गए हैं ...कितने रहस्य तो अभी तो प्रकृति ने अभी भी छिपा कर ही रखे हुए हैं ...नहीं तो क्या आप को लगता है हम चुप बैठे रहते, हम कुदरत से और पंग करने लगते ....रब से छेड़खानी करने लगते ...सिर्फ छेड़खानी ही होती तो भी रब सब्र कर लेता लेकिन हम तो रब के साथ वह करने लगते जैसे पंजाबी में लोग एक बात कहते हैं जो लिखने लायक है नहीं ..अगर तो आप ख़ालिस पंजाबी हैं तो समझ जाएंगे, वरना आप को इसे समझने की ज़रूरत ही क्या है, क्यों बेकार के पचड़े में पढ़ रहे है...

हां, आज कल इतनी उमस है कि अगर मॉस्क पहने रहते हैं तो दम घुटने लगता है ..सच में, पसीना, घुटन और पता नहीं क्या क्या। और बिना मॉस्क पहन कर निकलने का हाल तो मैंने ऊपर लिख ही दिया है ... जब पास ही कोई छींक-खांस देता है तो मेरा तो सिर फटने लगता है ...यह तो है अपने सब्र का थैशहोल्ड 😎....इसलिए अभी तक यही असमंजस में हूं कि बाहर निकलते वक्त मॉस्क पहन लिया करूं या अब इसे दूर कहीं फैंक के छुट्टी करूं...

वैसे भी मैं सोच रहा था कि हमारी ज़िंदगी दुविधाओ से भरी होती है ..हर दिन हम कितनी बार दुविधा में होते है, हमें एक रास्ता चुनना होता है ...दुविधा लफ़्ज़ से अच्छा शब्द है दो रास्ते ...हमें दिन में कईं बार एक रास्ता चुनना ही होता है ...अब वह रास्ता हमने सही चुना या गलत...घटिया या बढ़िया...ये सब अपनी अपनी राय है ...लेकिन यह हकीकत तो है कि दिन भर के ये छोटे छोटे फैसले ही हमारी तकदीर बनाते हैं या बिगाड़ते हैं....वैसे यह बात इतनी सीरियस्ली भी लेने वाली है नहीं ..कभी ऐसा नहीं देखा कि अच्छे, बडे़ तर्कसंगत फैसले लेने वाला 150 साल तक जी लिया और घटिया फ़ैसले लेने वाले जवानी ही में लुढक गया...बस, इसे आप तक़दीर कहिए या तदबीर ...लेकिन दिन में हमें रास्ते तो दो दिखते ही हैं हर मोड़ पर ...यही है ज़िंदगी। 

कल मैं हजामत करवाने निकला...रात का वक्त था...जिस भी शहर में रहते हैं वहां एक नाई चुन लेते हैं और उस का भी कोई एक कारीगर ...हजामत करवानी है तो उसी से ..अगर वह नहीं होता तो वापिस लौट आते हैं ...कल भी ऐसा ही हुआ, नाई की दुकान बंद ...ये जो मैं लिख रहा हूं न हजामत, नाई, नाई की दुकान ...इन सब अल्फ़ाज़ में बाल कटवाने की पूरी रस्म है ....इन्हें पढ़ने ही से लग रहा है कि हां, हजामत करवाना भी कुछ अच्छी बात है ...बचपन में हम हजामत ही कहते थे, फिर थोड़ा पढ़ गए और अंग्रेज़ी सीख गए तो कटिंग कहने लगे ..फिर हेयर-ड्रेसर के पास जा रहे हैं, यह कह कर निकलने लगे ....

अच्छा, नाई की दुकान बंद थी...तो मैंने सोचा इतनी दूर आया हं यहां पर एक सर्कुलेटिंग लाईब्रेरी है ...बहुत पुरानी दुकान है, चलिए वहां ही जाया जाए। पूछता, ढूंढता मैं पहुंच गया जी उस दुकान पर...बहुत ही अच्छा लगा...जो बंदा वहां बैठा हुआ था, यह उन के पिता जी के वक्त की दुकान है ...65 साल पुरानी ...बता रहे थे कि दुकान अपनी है, इसलिए बैठे हुए हैं ...वरना तो घर का खर्च निकालना ही मुश्किल हो जाए...हज़ारों किताबें ठूंसी पड़ी हैं, और हज़ारों ही सीडी, डीवीडी ...किताबों से इतनी ठसाठस भरी दुकान देख कर मेरा तो सिर भारी हो गया...लेकिन मेरा वहां से बाहर आने का मन ही नहीं कर रहा था ..दस-पंद्रह मिनट वहां बिताए...और आते वक्त बिना किसी ज़रूरत के भी 200 रूपये की किताबें खरीद लीं...वह बंदा बता रहा था कि उन की मैंबरशिप है ..300 रूपये महीना ...जितनी मर्ज़ी किताबें कोई ले जाए रोज़ और महीने में जितनी चाहे किताबें पढ़ ले...हिंदी की किताबें तो सौ-पचास ही थीं, मराठी और गुजराती की किताबें तो फिर भी थीं ....और अधिकतर 90 फीसदी किताबें इंगलिश की थीं...मैं उस से 50-60साल पुुराना इल्सट्रेटेड वीकली, धर्मयुग और फिल्मफेयर मांग रहा था, उसने नंबर ले लिया है, फोन करेगा...वैसे इन की एक एक कापी तो मैंने खरीदी हुई है ...


हां, इस बंदे के सामने भी दो रास्ते हैं...कह रहा था कि सोच रहे हैं कि उसे थोड़ी मॉड लुक दे कर ..अब सी.डी निकाल दें, और यहां पर स्नेक्स के साथ किताबें पढ़ने के लिए जगह बना दें...जैसा कि आज कल ट्रेंड चल रहा है ..फिर कहने लगा कि वहां पर भी खाने-पीने पर ज़्यादा फोकस रहता है ...उस के मन में भी दुविधा ही चल रही है, ऐसा मुझे लगा ..इस काम को कैसे आगे ले जाएं....वैसे बंदा कुछ इमोशनल सा ही था जिसे पिता जी धरोहर से भी मोहब्बत तो बहुत थी लेकिन आगे ज़माने के साथ चलने की मजबूरी थी ...बता रहा था कि दूसरे शहरों से भी लोग, बडे़ बड़े अधिकारी उन के बच्चे, दूसरे देशों के भी लोग आते हैं ..उन के लिए लाइब्रेरी के नियम अलग हैं, वे एक महीने तक भी किताबें रख सकते हैं....

वहां खड़े खड़े मुझे अच्छा तो लग रहा था ...लेकिन किताबों की इतनी भीड़ में मेरा सिर दुख गया...जो घर पहुंचने के बाद भी...सोने तक दुखता ही रहा ...हर इंसान के सामने दो रास्ते हैं ...उसे अपनी समझ, अपनी तजुर्बे, अपनी ज़रूरत, अपनी तकदीर के मुताबिक एक रास्ता तो सुनना ही होता है...


आज सुबह मैं सैर करने निकला तो मुझे दो रास्ते फिल्म याद आ गई...स्टोरी तो पुरी याद नहीं लेकिन फि्लम बहुत अच्छी थी...अभी मैं मोबाईल पर इस फिल्म का गीत सुन ही रहा था कि सामने वह जगह दिख गई जहां इस फिल्म के हीरो राजेन खन्ना का बंगला आर्शीवाद हुआ करता था ...अब तो वहां पर आलीशान बिल्डींग बन चुकी है ...



यह दिल है मेरा या है इक यादों की अल्मारी ....😎


रविवार, 24 अप्रैल 2022

पिंजरे होने ही नहीं चाहिए....

सच में पिंजरे होने ही नहीं चाहिए...जिस का काम ही किसी की उड़ान में खलल डालने का हो, उस का वजूद भी किस काम का। मुझे पिंजरों से सख्त नफ़रत है...आप मन ही मन सोच रहे होंगे कि फिर क्या करें, चिड़िया घर के पिंजरों में कैद खतरनाक जानवरों का क्या करें, खुल्ला छोड़ दें, यह तू सुबह सुबह क्या बात कर रहा है....यही सोच रहे हैं न ...एक बात तो है कि अगर चिडि़या घर के अंदर बंद पिंजरों में कैद जानवरों की बात करें तो मुद्दे बहुत से हैं...इन जानवरों को भी बंद कर के रखना कितना मुनासिब है या नहीं, वह एक बड़ा मुद्दा है ...लेकिन इस वक्त तो मैं इन छोटे पक्षियों को छोटे पिंजरों में बद करने की बात करना चाह रहा हूं...

पिंजरों में बंद तोते बचपन से ही किसी न किसी के घर में देखते रहे हैं...उन के बोल सुन कर हैरानी होती थी, कभी यह सोचने की फुर्सत ही हमें कहां थी कि इस तोते को कैसे लगता होगा...बिना उड़ान के उस का भी तो दम घुटता होगा। बंद कमरों में कैसे हमारी जान पर भी बन आती है ...अभी ख्याल आ रहा है पंजाबी कॉमेडी की कुछ वीडियो का, पंजाबी के कुछ चुटकुलों का जिस में तोता को कुछ पंजाबी की गालियां सिखा दी जाती हैं...और फिर वह जब वह गालियां देता है तो सुनने वालों का पेट हंस हंस कर दुखने लगता है ...यह भी क्या बात हुई, इस वक्त मुझे एक भी ऐसा चुटकुला याद नही ंआ रहा, लेकिन मुझे ऐसे चुटकुलों ने बहुत हंसाया है..

लखनऊ में रहते थे तो वहां एक एरिया है नक्खास ...वहां पर कुछ दुकाने हैं, जहां पर सैंकड़ों रंग बिरंगे पिंजरे और सैंकड़ों रंग-बिरंगे छोेटे, छोटे प्यारे प्यारे परिंदे बिकते देखा करते थे ...मन खराब ही होता था जब लोग ये सब खरीद कर अपनी साईकिल या स्कूटर पर ले कर जाते थे...लखनऊ ही क्यों, अब तो जगह जगह ये सब कुछ बिकता ही है क्योंकि रंग बिरंगे परिंदे लोगों को खुश करते हैं ..

लेकिन यह तो कोई बात न हुई कि अपनी खुशी के लिए हम परिंदों को कैद कर दें...दाना-पानी कितना भी उम्दा हो, क्या फ़र्क पड़ता है, उड़ान भरने से तो उन्हें हमने वंचित कर दिया...कल किसी के ड्राईंग रूम में दो पिंजरे पड़े देखे..छोटे छोटे प्यारे प्यारे परिंदे उन में दिख रहे थे ..चुपचाप उदास से ही दिखे मुझे तो लेकिन उस के घर के बच्चे खुश थे...

रहम करो यार इन नन्हे परिंदों पर ...आज़ाद करो इन्हें 🙏

एक नौटंकी का ख्याल आ रहा है ...पहले तो खूब होती थी , आजकल भी होती होगी पता नहीं..क्योंकि मैं इस तरह की चोंचलेबाज़ी से कोसों दूर रहना पसंद करता हूं ...हम क्या देखते थे कि किसी त्योहार पर, किसी बड़े आयोजन के दौरान या उस से ठीक पहले कोई मुख्य अतिथि विथि टाइप का बंदा सैंकड़ों परिंदों को हवा में रिहा करता दिखता....मुझे यह सब बकवास बात लगती है...पहले इतने पक्षियों को तुम ने कहीं न कहीं से तो पकड़ कर कैद किया ही होगा कि यह बड़ा आदमी उन्हें आयोजन के वक्त रिहा करेगा...हां, बड़े बड़े राष्ट्रीय पर्वों के दौरान जब कैदियों के रिहा होने की बात सुनते हैें तो दिल खुश हो जाता है ...लेकिन ये सैंकड़ों परिंदों को आज़ाद करने वाली हरकत एक दम घटिया सी हरकत लगती है ..उन्हें वैसे ही चुपके से छोड़ दो, जिस जीव की फ़ितरत ही है उड़ान भरना, उसे भला क्या तुम आज़ाद करोगे, पहले तुम अपने पिंजरों से तो बाहर निकलो...

लेकिन हां, जब किसी परिंदे की जान पर बन आती है तो कोई नेक बंदा इन की सहायता कर के उ्न्हें उड़ान भरने में मदद करता है तो मन को जो सुख मिलता है वह ब्यां करना भी मुश्किल है, इन को उस वक्त उड़ान भरते देख कर मन खुशी से झूम उठता है ...पिछले रविवार अपने एक साथी ने गाज़ियाबाद से वॉटसएप पर एक वीडियो भेजी ...आप भी देखिए किस तरह से उसने एक परिंदे को आज़ाद किया जो किसी स्टेडियम में पड़े हुए किसी नेट में फंसा हुआ था...बहुत खुशी हुई उस की परवाज़ देख कर ....आप भी देखिए वह वीडियो ....



और हां, आज लिखते लिखते मुझे मेरे ब्लॉग की एक पांच साल पुरानी पोस्ट का ख्याल आ गया....यह लखनऊ की बात है...मेरी ओपीडी के बाहर लटक रही किसी तार में एक परिंदा उलझ गया...मेरे अटैंडेंट सुरेश ने कैसे उस की मदद की, यह आप ज़रूर पढ़िए...मैं अकसर सुरेश को यह याद दिलाया करता था ...अभी अपनी पोस्टों की लिस्ट में उस पोस्ट को ढूंढने लगा तो मुश्किल हो रही थी, फिर लिखा परिंदा परवाज़ और झट से वह पोस्ट दिख गई ...लेकिन पता नहीं ुकछ तस्वीरें, कुछ वीडियो उस में से गायब हैं...चलिए कोई बात नहीं, आप को तो उसे पढ़ने से मतलब है ...और मुझे तो वह भी नहीं क्योंकि मैं अपना लिखा कुछ भी दूसरी बार पढ़ने से बहुत गुरेज़ ही करता हूं ...क्योंकि हलवाई भी अपनी मिठाई नहीं खाता क्योंकि उसे ही पता रहता है उस की मिठाई में कितनी ख़ामियां हैं ....आप इसे पढ़िए ज़रूर ....

परवाज़ सलामत रहे तेरी ए दोस्त 

काश, जब परिंदों के रिहा होने की बात आती है तो मुझे ट्रकों में ठूंसे हुए मुर्गे-मुर्गियों का भी बहुत ख्याल आता है ..काश, इन ट्रकों के दरवाज़े अपने आप खुल जाया करें बीच बाज़ार में ...और ये परिंदे रिहा हो जाया करें.......लेकिन रिहा होने के बाद भी क्या, ये तो किसी का भी निवाला ही बनेंगे...आज कर वाट्सएप पर एक स्टेटस दिख रहा है कि दुनिया में सब से ज़्यादा मारा जाने वाला प्राणि मुर्गा ही है ..साथ में लिखा है जिसने भी दुनिया को जगाने की कोशिश की है, उसे मौत के घाट पर उतारा ही गया...। स्टेटस विचारोत्तेजक है बेशक। 

अभी मैं इस पोस्ट के लिए परिंदों से जुड़ा कोई गीत ढूंढ रहा था तो एक बहुत ही खूबसूरत गज़ल दिख गई ....मैं हवा हूं कहां वतन मेरा ...दश्त मेरा न यह चमन मेरा ... (इसे भी सुनिए)...दश्त का मतलब का जंगल....

सच में परिंदों का कहां कोई मुल्क है, कहां कोई मज़हब ...वह गीत भी तो है ..पंछी नदिया पवन के झोंके...कोई सरहद इन्हें न रोके ...गीत तो हमें इसी तरह से सुनने भाते हैं लेकिन परिंदे उड़ान भरें भी तो कैसे, उन्हें तो हम ने कैद कर दिया....और शेरो-शायरी भी ऐसी सुनते हैं कि ..इन परिंदो को भी मिलेगी मंज़िल एक दिन, ये हवा में खुले इन के पंख बोलते हैं.......लेकिन उन के पंख बंद कफ़स में खुलें तो कैसे खुलें...(क़फ़स - पिंजरा) ...परिंदों के मज़हब से जुड़ी एक दो बातें लखनऊ रहने के दौरान एक सत्संग में सुनी थी ...जो थोड़ी थोडी़ याद आ रही है, पूरी तो नहीं ...

परिंदे कभी मस्जिद पर जा बैठते हैं, कभी मंदिर पर ...कभी गुरूद्वारे पर ...उन के लिए सब एक ही है...

हम से तो अच्छी है परिंदों की ज़ात....कभी इधर जा बैठे, कभी उधर जा बैठे....

और एक बात ...

मस्जिद की मीनारें बोलीं, मंदिर के कंगूरों से ... 

हो सके तो देश बचा लो इन मज़हब के लंगूरों से ...

बचपन में मेरे जो साथी हाथों में गुलेल लेकर कबूतर या घुग्गी पर निशाना लगा कर पत्थर से वार करते थे, मुझे बहुत बुरे लगते थे ....मुझे यही लगता कि अभी तो ये पेढ़ों पर खुशी खुशी चहक रहे होते हैं और अगले ही पल ये कमबख्त दोस्त इन्हें मार कर नीचे गिरा देते हैं और सुना है कि कुछ तो बाद में घुग्गियों को पका कर खाते भी थे ...एक बात याद आई, हमें मां बताया करती थीं कि जब वह बहुत छोटी सी थीं तो नाना जी को यरकान (टायफाड) हो गया..तब कोई इलाज वाज तो था नहीं, कईं दिन तक रोज़ एक बटेर की ज़ख़्नी पीते रहे और ठीक हो गए....(ज़ख़्नी का मतलब सूप).....अब पता नहीं उन को क्या था, क्या न था, क्या बटेर किसी बीमारी का इलाज हो सकता है, लेकिन मां-नानी सुनाती थीं तो बड़े होने पर भी चुपचाप सुन लेते थे ...हमें तो नाना जी हमेशा ज़माने से आगे चलने वाले ही दिखे ....आज से पचास साल पहले रीडर-जाइजेस्ट पढ़ना, उर्दू में दूसरों के लिए कहानियां लिखना...जिन्हें हिंदी में अनुवाद कर के लोग कहां के कहां पहुंच गए...और नाना जी 82 साल की उम्र में भी मैथ और इंगलिश की ट्यूशन पढ़ा कर अपने खर्चे-पानी का जुगाड़ करते दिखे, अंबाला के नामचीन मास्टर जी ...उन की पुण्य याद को सादर नमन...कोई कोई बात जैसे दिल में बैठ जाती है...जब भी बचपन में ननिहाल गए...रात में सोते वक्त उन को एक रेडियो के बटनो ं के साथ जद्दोजहद ही करते देखा...कमबख्त वह रेडियो कभी चलते नहीं देखा....पता नहीं दिक्कत सिग्नल में थी या अपने नाना की जेब में ...उस वक्त यह पता नहीं था, आज पता है......लेकिन कहीं न कहीं मन तो दुःखी होता ही था... 

कट टू टॉपिक .... 👇

हां तो जिस पिंजरे वाले घर में हम गए थे ...उस बिल्डिंग से बाहर आने पर मैंने ऐसे ही एक शेयर दाग दिया...कुछ क़फ़स पर ही था कि सोने का हो या लोहे का ..क़फ़स तो आखिर क़फ़स ही है ....इतना सुन कर बेटे ने हमें भी कुछ याद दिला दिया - डैड, यह जो सुबह बस्ता डाल कर काम पर निकल जाते हो और शाम को थके-मांदे घर लौट आते हो ...यह भी तो एक क़फ़स ही है ...कोई ज़रूरत नहीं है न अब इस क़फ़स में बंद रहने की ....और सब हंसने लगे.......उसे लगा कि शायद मुझे कुछ अजीब सा लगा होगा, फिर कहने लगा कि मैं भी जो काम कर रहा हूं ..एक क़फ़स ही में रहने के मानिंद है ...फिर कहने लगा कि हर कोई ख़ुद के क़फ़स में कैद है डैड....लेकिन पहली बात उस की जो उसने मेरे बस्ते और थके-मांदे घर लौटने पर कही थी, वह बिल्कुल सही ठिकाने पर जा लगी थी ...इसलिए सोच रहा हूं ......क्या, .........सोच कर बताऊंगा ...

तोते पर गीत ढूंढने लगा तो कुछ बहुत आम गीत दिखे ...तोता राम कुंवारा रह गया जैसे गीत...फिर अपने बचपन के दिनों का एक बहुत खूबसूरत गीत याद आ गया...बोल रे मेरे तोते .......लेकिन मैं वहां गल्ती कर गया...बोल तो हैं...बोल रे मेरे गुड्डे ...चलिए, उसे ही सुनिए आज....मुझे यह गीत भी बहुत पसंद है ...अपने स्कूल में देखे हुए कठपुतलियों के खेल याद आ जाते हैं ...और ऊपर से इस का संगीत इतना मधुर - कानों में शहद घोलता हुआ...

शनिवार, 23 अप्रैल 2022

बाग-बगीचों की सब से ज़्यादा ज़रूरत किसे?

सुबह सुबह निदा फ़ाज़ली साहब की बहुत सी अच्छी बातों में से एक इस वक्त याद आ रही है ...लगता है आज का दिन अच्छा बीतने वाला है ...

"बाग़ में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं..

किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए..."

बचपन में जहां रहते थे पास ही एक अस्पताल था...जिस के बगीचे में हम लोग अकसर शाम के वक्त कुछ न कुछ खेलने या यूं ही मस्ती करने जा पहुंचते, कुछ और नहीं करने को होता तो तितलियों के ही पीछे भागते रहते, अंधेरा होने पर जुगनूओं का इंतजा़र रहता  ...मज़ा आता होगा तभी तो वहां जाते थे, वरना कौन कहीं जाता है। बस, वहां एक नियम था जो लिखा भी रहता था कि फूल तोड़ना मना है। शायद तब से ही पहले तो डर की वजह से फिर धीरे धीरे जब फूलों-पेड़-पत्तों से मोहब्बत सी हो गई फिर तो तोड़ने का सवाल ही न था...मंदिर जाने से पहले कहींं से फूल तोड़ कर ले जाना या घर में पूजा करते वक्त फूल तोड़ कर प्रभु के सामने रखना, यह कभी हम से हुआ ही नहीं...बस यही अहसास रहा कि प्रभु की नेमत को पेड़ से तोड़ कर उसी के सामने रख देने से क्या हासिल... 



हम 31 मार्च के दिन ही फूल तोड़ते थे ...हमारे घर में फूलों के बहुत से पेड़ थे ...सैंकड़ों फूल लगते थे...किसी फूल को तोड़ने वक्त हमारी जान निकलती थी ...हां, ्र31 मार्च वाले दिन हमारी बड़ी बहन पचास या उस से ज़्यादा फूल तोड़ कर एक चारपाई पर सूई धागा ले कर बैठ जाती हमें साथ बिठा लेती...और हमें गुलाब के फूलों का एक हार गूंथ देती ...और किसी कागज़ में लपेट कर हमें थमा देती कि जब हेडमास्टर साहब तुम्हारा रिज़ल्ट सुनाएं तो उन के पास जा कर उन के गले में इसे डाल देना...और हम चौथी जमात तक यह करते रहे ...उसके बाद तो फूल तोड़ कर या खरीद कर हार बनाना तो बहुत दूर, हम ने तो अभी तक की ज़िंदगी में कभी किसी के लिए एक बुके तक भी नहीं खरीदा और न ही कभी खरीदने की तमन्ना ही है ...

बस, मैं जब लिखने बैठता हूं तो पता नहीं कहीं का कहीं निकल जाता हूं....ये सब बातें भई फिर कभी लिख लेना ...पहले जिस बात को लिखने की इतने अर्से से सोच रहे हो उसे लिख कर बात खत्म करो....बस, यूं ही घुमा फिरा कर बात क्याें करते हो, मेरे दिल से आवाज़ आ रही है...

हां, तो हुआ यूं कि मैं जिस अस्पताल में काम करता हूं वहां का गार्डन बहुत सुंदर है लेकिन वह खुलता साल में दो दिन ही है ...झंडे को जब फहराना होता है। मुझे इस बात का इल्म न था...जब मैं नया नया उस अस्पताल में आया तो एक दिन मैं उस का खुला गेट देख कर अंदर चला गया...लेकिन यह क्या, अभी तो मैंने सुंदर घास से नज़र ही न उठाई थी कि पीछे पीछे कोई सिक्योरिटी वाला आ गया ...आप अंदर नहीं जा सकते, बाहर आ जाइए। ठीक है, उस वक्त मैंने डाक्टरी सफेद चोला नहीं पहना था ...लेकिन इतनी बेरुखी सहने के बाद उस बदतमीज़ से सिक्योरिटी वाले से यह भी कहने की इच्छा नहीं हुई कि मैं वहीं पर काम करता हूं ..वैसे भी मुझे लगता है कि उस से भी वह टस से मस न होता ...और मुझे बाहर आना ही पड़ता...। उस बगीचे पर ताला ही लगा देखा है हमेशा। 

और जब अस्पताल के अंदर घुसते हैं तो मरीज़ और उन के तीमारदारों को यहां वहां बैंचों पर बैठे हुए या किसी कॉरीडोर में लगे बैंच पर लेट कर पीठ सीधी करते वक्त देखते हैं...इतने उदास चेहरे, इतने मायूस बच्चे, इतनी बुझी बुझी सी उम्मीद से बोझिल आंखें एक साथ देख कर कईं बार दिल हिल जाता है ...एक एक उदास चेहरे के लिए दुआएं ही निकलती हैं ...और यही लगता है कि बगीचे की उन को ही सब से ज़्यादा ज़रूरत है ..वे वहां पर लेटें, बैठें, आस का दामन पकड़े रहें ...जो भी दिल करें, वहीं बाग में करें ..क्योंकि रंग-बिरंगे फूल-पत्ते देख कर तनाव तो कम होता ही है बेशक, किसी भी शख्स का अक़ीदा भी पक्का होता है कि कुदरत साथ है तो कुछ भी मुमकिन है, यह अगर इतने अनेकों रंग-बिरंगे फूल पत्ते पैदा कर सकती है तो मरीज़ को टना-टन भी कर सकती है...और अगर मरीज़ भी कुछ वक्त वहां बिताए तो यह यकीनन उस के इलाज के लिए सोने पर सुहागे का काम करती है ...मेडीकल की किताबों में चाहे यह लिखा है या नहीं, मुझे नहीं पता ..लेकिन मैं तो आंखों-देखी और आप बीती ही लिख रहा हूं ...

जितने भी अस्पताल हैं उन के बाग मरीज़ों और तीमारदारों के लिए हर वक्त खुले होने चाहिए....मैं ऐसा सपना देखता हूं ...जब वहां कुदरत की गोद में बैठे बैठे थक जाएं तो उठ कर अपने बिस्तर पर जा कर लेट जाएं...यह भी अच्छा है ख़्वाब देखने में अभी कोई रोक-टोक नहीं है, नहीं तो मेरे जैसे बंदे को तो बहुत दिक्कत हो जाती ...

हम लोगों की उम्र इतनी हो गई है लेकिन जब भी बाग में जाते हैं कुछ न कुछ नया दिखता है, कोई नया फूल या नई बेल देखते ही मन झूम सा उठता है ...बिल्कुल सच बात रहा हूं ....उस दिन हम बाग में टहल रहे थे तो सुंदर सी बोगनविलिया की हैज देख कर बहुत खुसी हुई क्योंकि अकसर हम ने इस के पेड़ ही देखे हैं ...

इस के साथ एक फोटो लेने के लिए इसे राज़ी कर रहा हूं ...

जॉगर्स पार्क का एक नज़ारा 

पेड़-पौधे, पत्ते हरियाली ....यह टॉपिक मेरे लिए ऐसा है कि मैं इस पर हमेशा लिखता रह सकता हूं जैसे वे हमें खुशियां देते नहीं थकते, मैं इन के बारे में लिखते नहीं थकता....साफ साफ कहूं तो यह डैंटिस्ट्री विस्ट्री मुझे कभी करनी ही न थी, मुझे बॉटनी ही पढ़नी थी और अच्छे से पढ़नी थी क्योंकि मुझे फूल-पेड़ शुरू ही से अच्छे लगते थे ..लेकिन वही थ्री -इडिएट्स वाली कहानी की स्क्रिप्ट 40-42 बरस पहले हमारे घर में भी तैयार हो रही थी ..पिता जी को दफ्तर में खन्ना साहब ने बता दिया कि उन का बेटा बीडीएस कर रहा है, और यह कोर्स करने पर नौकरी मिल जाती है ....बस, फिर क्या था, हम भी चुपचाप भर्ती हो गए...

राजेश खन्ना गार्डन, खार (वेस्ट) 

बहुत से बाग बगीचों में प्रवेश शुल्क है ... यह नहीं होना चाहिए, सरकार को कहीं और से टैक्स वगैरा बढ़ा कर यह काम कर लेना चाहिए..बाग बगीचों के अंदर दाखिला तो खुल्लम-खुल्ला होना चाहिए...जब किसी का दिल करे, कोई बोझ महसूस हो...तो इन कुदरती सेहत केन्द्रों पर पहुंच कर उलझे हुए दिल के तार सुलझा ले, ताज़गी महसूस करे, फूल-पत्तियों को देख कर कुदरत की कभी न समझ आने वाली संभावनाओं पर हैरान हो ले, जीने की तमन्ना अच्छे से जगा ले ...और परेशान रूहें वहां जाकर सुकून पा सकें....ये सब किताबी बातें नहीं हैं....ऐसा होता है ..हमें बस लगता ही है कि बड़े बड़े अस्पताल, वहां पर रखे करोड़ों के औज़ार और बड़ी बड़ी डिग्रीयों वाले डाक्टर ही हमें सेहतमंद रख सकते हैं.....कुछ हद तक ही यह ठीक है...वे हमें रास्ता दिखा सकते हैं....उस पर चलना या न चलना तो अपने हाथ ही में है ...


इस लेख के साथ मिलता जुलता एक लेख यह भी रहा ... 

गुरुवार, 21 अप्रैल 2022

महीनों बाद हुई आज साईकिल की सवारी

सुबह 5 बजे के करीब उठ तो गया...चाय भी पी ली..लेकिन वही भारी सिर ...क्या करे कोई ऐसे सिर का ...वैसे भी ड्यूटी से आने के बाद ऐसे लगता है जैसे बस लेटे ही रहें...पीठ अकड़ी हुई, घुटने टस टस करते ...एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते ऐसे लगता है जैसे 90 बरस तक जी चुके हैं...बिल्कुल ऐसा ही है, और यह हाल तब है जब कि कोई मेहनत का काम नहीं है, खुद को ए.सी कमरों में ठूंसे रखना है ...हां, तो आज सुबह सोचा कि साईकिल पर ही गेड़ी लगाई जाए...लिखे भी कोई कितना लिखे, वैसे भी कौन सा लिख लिख कर पद्म-विभूषण मिल जाना है, अगर मिल भी जाए तो भी क्या!!😎

मैंने किसी राहगीर को कहा कि एक तस्वीर ही खींच दे...पीछे बोर्ड में दिख भी रहा है जुहू तारा रोड़ 

मैंने शायद अपनी किसी पोस्ट में लिखा था कि मैं एक डेढ़ बरस पहले साईकिल रोज़ाना चलाने लगा था ...फिर एक दिन कॉलोनी के और फिर एक दिन वार्डन रोड के कुत्ते पीछे पड़ गए...बस, उस दिन के बाद सुबह सुबह साईकिल पर निकलना बंद सा ही हो गया...और बंबई जगह ऐसी है कि यहां पर इस तरह के शौक साईकिल पर टहलना वहलना अगर मुंह अंधेरे हो जाए तो ठीक, वरना दिन चढ़ते ही जैसे ही बंबई नगरी जाग जाती है तो फिर ये सब काम बेहद जोखिम के लगते हैं...उस के बाद तो सड़कों से डर लगने लगता है ...इसलिए मैं उस के बाद फुटपाथों का रुख कर लेता हूं ..😁

कुत्तों के डर से अपने साथ एक छोटी सी स्टिक रख ली आज...और कोई भी काम इतने दिनों बाद करो तो उसे शुरू करने से पहले ही बोरियत सी तो होती है ...इसलिए जेब में मोबाइल पर रविंद्र जैन के गीत लगा लिए ...उन के गीत सुनना बहुत अच्छा लगता है ...लेकिन एक बात तो है, जैसे वो कहते हैं न कि घर से बाहर निकलने की ही देरी होती है ..तबीयत एक दम हरी होने लगती है ...

इसीलिए मैं हरेक को कहता हूं कि घर से बाहर निकलना बहुत ज़रुरी है ..पैदल, साईकिल पर ...कैसे भी ...बस, बहाना ढूंढिए घर से बाहर जा कर दुनिया का मेला देखिए...मुझे कोई कहता है कि इतना चल नही ंपाते, मैं उन्हें कहता हूं कि जितना चल पाते हैं, उतना चलिए...कोई रेस थोड़े न लगा रहे हैं, बस थोड़ी सी खुशी बटोरने निकले हैं...हंसते-मुस्कुराते चेहरे, रंग बिरंगे फूल, कुछ नेक रूहें जो सुबह सुबह राह पर इंतज़ार करते छोटे जानवरों के खाने के लिए कुछ ले कर आते हैं उन्हें देख कर तो दिल में जो अहसास उमड़ते हैं उन्हें कोई कैसे ब्यां करे...सच में ये जानवर उन का ऐसे इंतज़ार कर रहे होते हैं जैसे बच्चे अपनी मां की रसोई में पक रहे खाने का करते हैं...अभी याद आया कुछ दिन पहले एक ऐसे ही लम्हे को अपने मोबाइल में कैद किया था ...

जो लोग चल ही नहीं पाते, मै उन को लाठी से ही नहीं, वाकर से भी चलते देखा है ...लेकिन वे लोग निकलते ज़रूर हैं घर से ..अगर बिल्कुल ही कुछ नहीं हो सकता, तो दो पहिया चार पहिया पर सवार हो कर जाइए और किसी पार्क में ही जा कर बैठिए...आते जाते दुनिया का तमाशा देखिए...ताज़गी मिल जाएगी...हां, एक बात याद आई कि घूमने से ख्याल आया कि ये जो रेलवे स्टेशन हैं न ये भी एक ऐसी जगह हैं जहां पर सारे हिंदोस्तान के दर्शन आप कर सकते हैं....हर प्र्रांत का बंदा, हर मिज़ाज का शख्स, शरीफ़ से शरीफ़, खुराफाती से खुराफाती,  जेबकतरे, फांदेबाज़, चेन-स्नेचर, फेरी वाले, रईस, फकीर, गायक ......शायद ही कोई तबक हो जो यहां पर हमें नहीं दिखता। मैं तो बहुत बार मज़ाक में कहता हूं कि रेेलवे प्लेटफार्म आना, ट्रेन में सफर करना भी एक फिल्म देखने जैसा ही है, ज़िंदगी की एक किताब पढ़ने जैसा ही है ... 

किशोर कुमार का घर दिख गया, गौरी कुंज ....बस, अपना दिन बन गया...😀😀
सुबह के वक्त की छटा ही निराली होती है ...साईकिल पर चलते चलते मुझे बीस पच्चीस मिनट हो गए तो मैने देखा कि बंबई की सड़कें जाग गई हैं...बस, वहीं से लौटने का मन बना लिया...सामने देखा तो के.के.गांगुली मार्ग लिखा था ....और उस के ठीक सामने किशोर कुमार का बंगला था ..हां, एक बात का ख्याल आ रहा था कि लोग सुबह सुबह धार्मिक जगहों पर जाते हैं, बड़े बड़े ग्रंथ पढ़ते हैं...जो भी कोई करता है मुबारक है ...लेकिन मुझे तो कुछ पुराने गीत ही भजनों जैसे लगते हैं, और अगर मन लगा कर सुनते हैं तो धर्म जो हमें सीख देते हैं ...वही सीख ही इन में भरी होती है बहुत बार ..इसीलिए भई मुझे तो इन महान फ़नकारों के घरों के सामने से जब गुज़रने का मौका भी मिल जाता है ...मैं अकसर कहता हूं कि मुझे यह किसी तीर्थ स्थान से कम नहीं लगता ..

लगता है यह बोर्ड ताज़ा ताज़ा ही लगा है ...साधु वासवानी को सादर नमन🙏

ये लोग कोई आम लोग नहीं थे, सब के सब रब्बी लोग थे ...ये जो कर गए, ये उन्हीं के बस का काम था...जहां रहता हूं, और जहां ड्यूटी के लिए जाता हूं, उन दोनों जगहों में काफी दूरी है ...लगभग दो -ढाई घंटे तो आने जाने में लगते हैं ...लेकिन आते जाते जब कभी नौशाद साहब का घर, गुलजार साहब का घऱ, आनंद बख्रशी के घर की तरफ़ जाती सड़क, रविंद्र जैन चौक, मोहम्मद रफी चौक, आरडीबर्मन चौक, महेन्द्र कपूर चौक जैसी हस्तियों के नाम ही दिख जाते हैं तो आने जाने की परेशानी कितनी तुच्छ लगती है ...ऐसे लगता है कि वे लोग अभी यहीं कहीं है ..किसी दरवाज़े से बाहर निकलते हुए दिख जाएंगे...

निदा फ़ाज़ली साहब फरमाते हैं ...

सब की पूजा एक सी...अलग अलग हर रीत...

मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाए गीत ..


मैं आज कल यह किताब पढ़ रहा हूं ..इस के कुछ पन्ने पढ़ कर ही मुझे साईकिल चलाने के लिए बाहर निकलना पड़ा....देखता हूं कितनी दिन इस किताब में लिखी बातों को मान पाता हूं ...एक दम का आलसी बंदा हूं मैं भी ...लेकिन हां, आप यह देख रहे होंगे मैंने इस किताब को उस स्टैंड पर रखा है जिस पर धार्मिक पोथी रखते हैं क्योंकि इस के बारे में मेरा स्टैंड यह है कि जो भी किताब हमें जीने की राह दिखाए, अच्छी ज़िंदगी की तरफ़ इशारा करे ...वे सभी किताबें हमारे लिए धार्मिक ही हैं...जो लोग भी रचनाकार है, सृजन कर रहे हैं ...वे खुद नहीं ये सब कर सकते, ईश्वर ही इन के घट में बैठ कर यह सब लिखवाता है, पेंट करवाता है, सुरों में ढलवाता है ...

मुझे आज सुबह एक ख्याल आया, कैसे आया , यह फिर कभी लिखूंगा ...ख्याल यही आया कि दुनिया में सब से भयंकर क्या चीज़ हैं...तो मुझे लगा कि इस सारी कायनात में सब से डरावनी चीज़ है किसी लाचार, बेसहारा की आंखें....बिना उस के मुंह से कुछ बोले वे सब कुछ ब्यां कर देती हैं..और अगर हमें इन बेबस आंखों से भी डर नहीं लगता तो इस का मतलब साफ है। और ये वही बेसहारा आंखें होती हैं जो किसी तिनके के सहारे की तलाश में होती हैं...बात तो मैं बहुत बड़ी कह गया, लेकिन है यह बिल्कुल प्रामाणिक। कभी फुर्सत में इस के बारे में चर्चा करेंगे। बस, यही इल्तिजा है कि और किसी चीज़ से डरिए या न डरिए, इस तरह की सहमी हुई बेबस आंखों से ज़रूर डरिए...

प्रामाणिक तो और भी बहुत कुछ है...यह होर्डिंग ही देख लीजिए, हमारे घर के पास ही एक बिल्डींग बन रही है, और बिल्डर इतनी ठोस प्रामाणिकता से कह रहा है कि इतने महीने, इतने घंटे और इतने मिनट तक उसे आक्यूपेशन सर्टिफिकेट (ओ.सी) मिल जाएगा...

अब मेैने कंकरीट के जंगल की बातें शुरू कर दीं ..इस का मतलब है अब इस पोस्ट को यहीं पर समेट देने का वक्त है...आइए, जाते जाते रविंद्र जैन के ज्यूक-बॉक्स से एक गीत सुनते हैं .. हिट्स आफ रविंद्र जैन ...ज्यूक-बॉक्स .... हां, मेरा सिर का भारी पन पता ही नहीं कहां चला गया है...ईश्वर की अपार कृपा है, शुक्र है...सब ख़ैरियत से, प्यार-मोहब्बत से रहें....🙏

सोमवार, 18 अप्रैल 2022

षणमुखानंदा हाल में ...इंटर्वल के बाद - 16 अप्रैल 2022

इस पोस्ट में मुझे आप के साथ बहुत सी बातें साझा करनी हैं...और कुछ सुरेश वाडेकर की गीत गाते हुए उस हाल की कुछ लाइव रिकार्डिंग भी शेयर करनी है ..इस से पहले हाल के बारे में कुछ बातें करते हैं....मैंने पिछली पोस्ट में लिख दिया कि मेरे पास वहां की तस्वीरें तो दर्जनों हैं लेकिन मैं उन्हें पोस्ट में लगा इसलिए नहीं रहा ताकि पढ़ने वालों की वहां जाने की उत्सुकता बनी रहे ..वे भी वहां जा कर किसी प्रोग्राम का आनंद लें...


लेकिन कुछ वक्त बाद मुझे यही लगा कि यह बात तो मुझे ही नहीं जंची ..कोई न कोई पढ़ने वाला इस पर सवाल तो उठा ही देगा। कुछ ही वक्त बाद एक कमैंट आया कि सुस्पेंस मत रखिए...सब कुछ पोस्ट कर दीजिए...मैं भी यही सोच रहा था कि मुंबई में रहने वालों के लिए तो चलिए, यह बात मुनासिब भी लगती है कि वे कभी न कभी वहां जाकर उस हाल के दीदार कर लेंगे ..लेकिन मुंबई से बाहर वालों का क्या..उन तक तो हाल का ज़ायका मुझे पूरा पहुंचाना ही होगा....या तो मैं इस के बारे में कुछ लिखता ही न, अगर लिखा है तो उसे बीच में कैसे छोड़ सकता हूं...





जी हां, वह एक हाल नहीं है..मुझे तो म्यूज़िक और आर्ट की कोई यूनिवर्सिटी जैसा लग रहा था वहां जा कर ..मैंने पिछली पोस्ट में भी लिखा कि वहां पर जिस तरह के आर्ट हैं, जिन महान् विभूतियों की तस्वीरें, उन से जुड़ी यादें हैं....सच में यह लगता है जैसे हम किसी म्यूज़िक के म्यूज़ियम में आए हैं...और किसी आलीशान म्यूज़ियम में...हां, अभी सारी तस्वीरें आप को दिखाते हैं...उस से पहले कुछ ज़रूरी बातें.... 




आप जब भी वहां जाइए तो यह सोच समझ कर जाइए कि वहां अंदर कोई पार्किंंग की जगह नहीं है ....यह बताना भी ज़रूरी नहीं ..वरना, वहां पहुंच कर मुझे आप बुरा-भला कहेंगे...बाहर सड़क पर कितनी गाड़ीयां लोग लगा पाते हैं, कैसे जुगाड़ करते हैं, यह मैंं कुछ नहीं जानता ...लेकिन वह एरिया वैसे ही इतना भीड़-भड़क्के वाले मिनी पंजाब (सायन कोलीवाड़ा) से इतना सटा हुआ है कि मुझे नहीं लगता कि आसपास कहीं गाड़ी पार्क करने की जगह होगी....अगर कहीं जगह का जुगाड़ हो भी गया तो किच किच ही होगी ..पार्क करते वक्त या निकालते वक्त ...नहीं तो उस रोड़ से लौटते वक्त...इसलिए या तो टैक्सी में जाइए...नहीं तो लोकल ट्रेन से....हार्बर लाइन के किंग सर्कल स्टेशन से तो 5-7 मिनट का ही रास्ता है ....और पनवेल वाली हार्बर लाइन के जीटीबी नगर से भी कुछ ज़्यादा दूर नहीं है यह जगह ...वहां से भी पैदल का ही रास्ता है ...गूगल करें तो कंफ्यूज़ हो जाते हैं कईं बार ..










और हां, हाल में वाश रूम वगैरा की अच्छी सुविधाएं हैं...लेकिन आप हाल के अंदर कोई बैग-वैग नहीं लेकर जा सकते...पानी की बोटल भी नहीं..अंदर कैंटीन में पानी मिल जाता है ...पानी ही क्यों, इंटर्वल में समोसे, चाय-काफी, वड़ा-पाव सब कुछ मिल रहा था..लेकिन उन काउंटरों पर भीड़ इतनी ज़्यादा थी कि मैं वहां तक पहुंचने की हिम्मत न जुटा पाया...एक डेयरी-मिल्क चाकलेट से ही काम चलाना पड़ा। समोसा-चाय लेने की इच्छा तो बहुत हो रही थी लेकिन मुमकिन नहीं लगा...शायद अब लाइनों में लगने का इतना सब्र ही नहीं रहा...
















चलिए, इंटर्वल खत्म हो गया...अंदर जाने पर सब से पहले बांसुरी पर मोहित शास्त्री ने रंगीला रे गीत बजाया...वाह..क़ाबिलेतारीफ़... दूसरे कलाकारों ने जो गीत सुनाए वे भी बहुत सुंदर थे ... ए दिले नादां....माए नी माए मुंडेर पे तेरी बोल रहा है कागा.....ये गलियां ये चौबारा, यहां आना न दोबारा...हिना फि्ल्म का अनारदाना ...अनारदाना.....










इस बार जब सुरेश वाडेकर जब स्टेज पर आए तो उन्होंने कुछ यादें शेयर कीं कि किस तरह से जब वह छः साल के थे तो उन्होंने सरस्वती मां लता मंगेश्कर के दर्शन किए ..बता रहे थे कि महाराष्ट्र शासन का क्रास मैदान में कोई अवार्ड प्रोग्राम चल रहा था ...अंदर जाने का कोई टिकट विकट तो था नहीं उन के पास...वे उन पतरों के पास खड़े हो गए जहां से गाड़ीयां बाहर निकलती हैं..बता रहे थे कि उन के पास उस कार्यक्रम का एक सोविनियर था...उस पर उन्होंंने लता जी के ऑटोग्राफ ले लिए ... 






आगे बता रहे थे कि कुछ बरसों बाद वह जयदेव जी के साथ एक सहायक के तौर पर काम कर रहे थे ..जिस दिन लता जी ने वह गीत गाना था ...तुम्हें देखती हूं लगता है ऐसे ... उस दिन जयदेव जी ने उन्हें कहा कि वह भी कोरस में खड़े हो जाएं...लेकिन सुऱेश ने साफ मना कर दिया ..क्योंकि उन्होंने ठान रखा था कि प्लेबैक ही करना है और कुछ नहीं ...फिर उसी गाने के दौरान जयदेव ने उन्हें रिधम देने के लिए खड़ा कर दिया...बता रहे थे कि उन्हें लगा कि उन्हें हाथ हिलाते देख कर जयदेव जी और लता जी हंस रहे हैं....इसी बात पर उन्होंने हाथ हिलाना ही बंद कर दिया...










सुरेश ने बताया कि दादू (रविंद्र जैन) मेरा रक्षक में लता जी के गीत रिकार्ड करने वाले थे ..उन्होंने सुरेश को ऐसे ही बुला लिया ...वहां पर लता जी को कहने लगे कि यह सुरेश है ...अच्छा गाता है, दो तीन फिल्मों में गीत गा चुका है ...आप भी इसे सुनिए, यह भी कोल्हापुर से है। लता जी ने सुरेश से उस के बारे में उस के आई-बाबा के बारे में सब कुछ पूछा, कहां रह रहे हैं, सब कुछ पूछा ...सुरेश ने बताया कि उन की पूरी जन्म-पत्री लता जी ने पूछ ली और कहा कि जो गीत गा चुके हो उन्हें लेकर आओ। 

सुरेश ने जिन फिल्मों के लिए गीत गाए थे, वह सभी लेकर लता जी के यहां पहुंच गए... उन्हें सुनने के बाद, लता जी ने फ़ौरन उसी वक्त लगभग सभी म्यूज़िक डायरेक्टर को फोन किया कि एक लड़का सुरेश वाडेकर आया है, अच्छा गाता है, आप भी उसे मौका दें। सुरेश ने बताया कि इस के बाद उन्हें 2-3 महीने में ही लता जी के साथ गाने का मौका मिल गया...और लता दीदी के साथ जो पहला गीत उन्होंने गाया उसे याद कर रहे थे, फिल्म क्रोधी का वह गीत....चल चमेली बाग में मेवा खिलाऊंगा..(इस लिंक कर आप इसे सुन सकते हैं..) ..और जिस तरह से यह गीत सुपरहिट हुआ वह तो हम सब ने देखा...

इस के बाद सुरेश ने ये गीत सुनाए.... आ जा रे मैं तो कब से खड़ी .....,, ये आंखें देख कर हम सारी दुनिया भूल जाते हैं......., लिखने वाले ने लिख डाले मिलने के साथ विछोड़े....। 


इस के बाद, वही सोलह बरस की बाली उमर को सलाम ... और उस के बाद ब्लैक एंड वाइट ज़माने के लता जी के सुपरहिट गीतों में से तीसरी कसम का वह गीत ...आ, आ भी जा...रात ढलने लगी , चांद छुपने लगा... और गाइड फिल्म का गीत ..पिया तोसे नयना लागे रे .. पेश किया गया। 

इस के बाद फिर से वाडेकर ने यारा ओ यारा  तुझ से मिला मुझे जिने का सहारा .. और मेघा रे मेघा रे ...मत परदेस जा रे ..सुनाया..


इस के बाद भी सुरेश ने अपनी आवाज़ में लता जी के गाए गीतों के मुखड़े सुनाए ....सब ने बहुत तालियां बजाईं... तुम्हे ंऔर क्या दूं मैं दिल के सिवा..., माई रे मैं काहे से करूं रे अपने पिया की..., तु्म्हें याद करते करते जाएगी रैन सारी..., तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है.., रहें या न रहें हम ..महका करेंगे बन के कली. बन के सबा बागे वफ़ा में ... 


बस वहां बैठे बैठे पता ही नहीं चला कब 10.30 बज गए और हाल के बंद होने का वक्त आ गया....लेकिन वहां जा कर बहुत अच्छा लगा...आप भी जब मौका मिले ज़रूर हो कर आइए...बालकनी में ..पहली मंज़िल, दूसरी मंज़िल जाने के लिए लिफ्ट भी हैं और हाल के अंदर प्रवेश करने के लिए रैंप भी हैं...इतने इतने बुज़ुर्ग लोग वहां वॉकिंग स्टिक लेकर पहुंचे हुए थे जिसे देख कर तो और भी खुशी हुई ...अपने अपने शौक की, अपनी अपनी लगन की बात है ....

मेरे जैसे सुपरफिशियल लोगों के लिए तो यह पोस्ट गीतों का एक पिटारा है या कुछ फोटो की एल्बम है ..लेकिन मुझे लगता है कि अगर म्यूज़िक सीखने सिखाने वाले के हाथ में अगर यह पोस्ट कभी पड़ गई तो वह इसे चबा जाएगा...क्योंकि एक एक फोटो में कला का, म्यूज़िक का, फ़नकारों की ऐसी जानकारी भरी पड़ी है कि कुछ लोग तो इसे देख कर वहां जाने पर मजबूर हो ही जाएंगे....आप का क्या ख्याल है लिखिएगा...

बस, यही फोटो थीं मेरे पास ...यह भी एक दोस्त के कमैंट की वजह से लगा दीं ...मुझे लग रहा था कि कहीं आप लोग इतनी तस्वीरें देख देख कर ऊब गए तो फिर क्या! लेकिन इसी बहाने मुझे भी अपनी यादें एक पोस्ट में सहेजने का मौका मिल गया...आप भी एक एक तस्वीर का आनंद लीजिए...ज़ूम कर के उसे समझने की कोशिश करिए...लुत्फ़अंदोज़ हो जाइए....

और हां, इस लेख की पहली किश्त पढ़ने के लिए यह लिंक देखिए.... लता जी की यादें...षणमुखानंदा हाल से ..16 अप्रैल, 2022