अब तो ऐसा लगता है त्योहार फिल्मी गीतों तक ही सिमट कर रह गये हों जैसे ...इस बार ही क्या, हर बार ही ऐसा ही होने लगा है ...13 जनवरी को लोहड़ी थी, उत्तर भारत का ख़ास त्योहार ..उस दिन भी किसी के वाट्सएप मैसेज आ गये ...वही ...सुंदर मुंदरीए...तेरा कौन ग्वाचा...., एक गीत जो बच्चे समूह में गाते हैं किसी के घर में जाकर और लोहड़ी लेकर आते हैं ...लोहड़ी मिलने का मतलब आज से 40 साल पहले ही खाने की अच्छी अच्छी चीज़ें मिलना खत्म हो गया था..बच्चे भी मूंगफली, रेवड़ी, भुना हुआ मक्का मिलने पर नाक मुंह बनाने लगे थे ...बस, तब से ही लोहड़ी का मतलब पैेसे देना-लेना हो गया...वक्त वक्त की बात है, वे भी क्या करें..हर कोई अपनी जगह पर ठीक है ...
मुझे याद है हम लोग स्कूल में भी थे तो भी लोहड़ी के दिन अकसर छुट्टी तो नहीं होती थी ..लेकिन मास्टर साहब मूंगफली-रेवड़ीयां मंगवा लेते थे जिन्हें हम सब मिल कर खाते थे...फिर कालेज में भी यही होता था ...बड़े हो गये थे तो बड़ी बड़ी लकड़ियों को आग भी लगाई जाती थी ...जिसे लोहड़ी जलाना कहते हैं...साथ में वही गाना बजाना और उछल कूद नाच चलता था पंजाबी गीतों पर ...उसी दौर का एक गीत मुझे बडे अच्छे से याद आ रहा है, अभी ढूंढता हूं और आप तक पहुंचाता हूं ...😄
इस में एक मुटियार अपने चाहने वाले गभरू को कह रही है कि मेरे पीछे आते वक्त मेरा लौंग ढूंढते हुए आना...जो गुम हो गया है ..(महिलाएं नाक में जो छोटा सा चमकने वाला नोज़-पिन पहनती हैं उसे पंजाबी में लौंग कहते हैं...😎)
घरों में भी वैसे ही लकड़ीयों और उपलों का ढेर लगा कर उन में आग लगाई जाती, मूंगफली रेवड़ी उस आग में भी डाली जातीं ...और बस हो गई पूजा...फिर मोहल्ले में जिन घरों में नई बहू आई होती या जिस घर में किसी शिशु की किलकारीयां पिछली लोहड़ी के बाद गूंजी होतीं...उन के घर विशेष रूप से यह लोहड़ी का जश्न मनाया जाता ...प्रीति भोज भी होता..और वही खाना-बजाना...लिखते लिखते मुझे लोहड़ी के मौसम की एक खास सौगात याद आ गई ...वह अमृतसर में कईं दिनों तक बिकती रहती है सर्दी के मौसम में ...खोये से बनी हुई बेहतरीन मिठाई उस में किशमिश पड़ी रहती थी ...हमें भी अच्छी लगती थी लेकिन मेरी बड़ी बहन तो भुग्गे की दीवानी हैं ...इसलिए मेरे पिता जी उन दिनों खास तौर पर भुग्गे को लाना कभी न भूलते ....यादें भी क्या हैं ..कहां से कहां ले जाती हैं....
हां जी, अगर लोहडी का पर्व मुकम्मल हो गया हो तो आगे बसंत की तरफ़ चलें...उसे भी मना कर छुट्टी करें ....
बचपन में बसंत ऋतु से जुड़ी यादें भी कम हैं क्या, पीले कपड़े पहनो जहां तक हो सके, पीले रंग के मीठे चाव खाते थे ...पतंगबाजी देखते थे क्योंकि मुझे मेरी तमाम कोशिशों के बाद पतंग उड़ाना आया ही नहीं, मैं बताने लगूंगा तो गिनते गिनते थक जाएंगे...मैं बहुत से मामलों में बहुत फिसड्डी रहा हूं और आज भी हूं ...यह तो वही बात है कि पढ़ने में बहुत अच्छा रहा ...इसलिए नौकरी मिल गई ...बहुत सी बातें ढंक गई उस से ..ताश मुझे नहीं आती पत्ते पर पत्ते वाली गेम के सिवाए....देखिए, अब मैं गिनाने लगा तो मुझे कुछ भी लिखने के लिए समझ ही नहीं आ रहा .... समझ गए न आप!!
कोई कोई बात जैसे हम लोगों की यादें के शिलालेख पर खुद ही जाती हैं ...लोहड़ी पर कड़ाके की ठंड होती थी, ठिठुरते ठिठुरते जब उस अलाव के आस पास बैठे होते तो मां यह बात ज़रूर छेड देती ...बस, हुन तो ठंड थोडेयां दिनां दी ए...बस लोहड़ी गई ते बसंत आई ...बस, आई बसंत ते पाला हडंत .... (बस, अब सर्दी के दिन गिने-चुने ही हैं, लोहड़ी गई तो बसंत भी आई समझो ...और बस, बसंत आई तो समझो सर्दीयां चली गईं...) हमें सुनते सुनते लगता था कि अपनी बीजी कोई जादूगरनी तो नहीं, कितनी आसानी से मौसम खुशनुमा होने की आस बंधा देती हैं...हमारे बालमन को उस वक्त लगता जैसे ठंडी उसी वक्त कम हो गई है ...शायद मां की गर्म बातों का असर होगा ...पसीना सा आने लगता ...बहुत दिलेर थी मां, पाज़िटिविटी की चट्टान, ऐसे ही हरेक को ढाढस बंधाए रहतीं..
खैर, फिर मैं कहीं भटक गया ...त्योहार के मौसम में ...हां जी, एक फिल्म आई थी ..Earth 1947 ...उस का एक गीत पतंगबाजी करते वक्त फिल्माया गया है, मुझे सारी फिल्म से कहीं ज़्यादा वह गीत और उस का म्यूजिक पसंद है ....पतंगबाजी हम देखते ज़रूर ...आई बो ...आई बो ....(मतलब पेचा लगाते लगाते किसी कूी पतंग कट गई ) की आवाजें ....शोरगुल, ह्ल्ला-गुल्ला, सब छत पर चडे हुए ,.छत के बन्ने हैं या नहीं, बच्चों को कोई परवाह नहीं, इसलिए बहुत बार बच्चे छत से गिर भी जाते ...फिर कुछ हादसे चाईनीज़ डोर की वजह से भी होने लगे ....किसी का मुंह कट रहा है, और किसी का गला ...पर अभी भी इस पर कोई रोक नहीं है, लोग घायल होते रहते हैं लेकिन जो इस्तेमाल करते हैं वो ही नहीं, राह चलते दो पहिया वाहनों वाले भी जिन के मुंह के साथ कटी हुई पतंग की डोर उलझ गई और काट दिया चेहरा .....इलाज करवाते रहो, रंग में डल गया भंग...
लिखते लिखते कछ ख्याल आ जाते हैं बहुत अरसे के बाद ...अभी मैंने डोर लिखा तो मुझे डोर फिल्म का एक बेहद सुंदर गीत याद आ गया जिसे मैं किसी ज़माने में बार बार सुना करता था...आज भी बसंत पंचमी के दिन ज़रूर सुनना चाहिए...
बड़ी बहन के आशीर्वाद की पाती ... |
चलिए जी, हो गई अब बसंत भी ...एक और बसंत गुज़र गया ढींग मारने के लिए, अपनी बात का सिक्का मनवाने के लिए ...कि हम ने तो भई इतने बसंत देखे हैं ,...तुम ने तो अभी देखा ही क्या है । असल बात यह है कि मुझे तो इस बात का पता ही न चलता कि आज बसंत है अगर मेरी बहन का मुझे यह संदेश न पुहंचा होता ...बहुत बहुत शुक्रिया विनोद दीदी आप का...वैसे मेरे जैसे बंदे के लिए जो बंबई में रह रहा हो उस के लिए बसंत का इतना ही मतलब है कि आप सब के साथ पुरानी यादें हरी भरी कर लीं फिर से ...और अभी जो बसंत रूत का जो गीत सुनाऊंगा वह सुन कर आप भी मस्त हो जाएंगे ... एक बात और, आज हमारे एक साथी ने, डा पाल साहब (निहायत नेक इंसान हैं ...) ने बसंती रंग की बहुत अच्छी लिनिन की कमीज़ पहनी हुई थी ...उन की कमीज़ देख कर भी मेरी ट्यबलाईट की बत्ती न जली तो अपने आप को क्या कहूं ...