शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

मर्ज और दवा भी बताने वाला मोबाइल एप

हम लोग तकनीक में बहुत फन्ने-खां हो गये हैं.....हम किसी को कुछ नहीं समझते, हम कईं यही मुगालता पालने की हिमाकत करने लगते हैं कि सारी दुनिया मेरी मुट्ठी में है.......मेरे पास सब से बढ़िया स्मार्टफोन है....और इस में मैं किसी भी एप को डाउनलोड कर के ज़िंदगी को आसान बना सकता हूं।

लेकिन ऐसा होता नहीं दोस्त......ठीक है ज़िंदगी में टैक्नोलॉजी की अपनी जगह है, लेकिन एक लिमिट तक। हम लोगों ने हर चीज़ की अति देख ली है... इसलिए बेहतर होगा कि ऊंचा ऊंचा उड़ने की बजाए कभी कभी पांव ज़मीन पर भी रख लिया करें।

कुछ साल पहले जब मैं साईंक्लिंग करने जाने लगता तो मेरा बेटा मेरे को एक मोबाइल जेब में रखना की सलाह दिया करता था कि इसे अगर आप जेब में रख लेंगे तो आप को पता चलेगा कि आपने कितने किलोमीटर साईक्लिंग की, कितनी कैलरीज़ खपत हुई........मैं यह काम एक दिन से ज़्यादा नहीं कर सका, क्योंकि मेरी नज़र में ये सब झंझट हैं, बिना वजह हमारी ज़िंदगी को जटिल करते रहते हैं।

इसी जटिलता से याद आया ...तीन दिन पहले की हिन्दुस्तान अखबार में छपा एक फीचर.......एप मर्ज भी बताएगा और उसकी दवा भी। बड़ा अजीब सा लगता है इस तरह के फीचर देख कर।


मैं समझता हूं कि इस तरह के एप्स का इस्तेमाल करना किसी भी व्यक्ति की व्यक्तिगत च्वाईस है, लेकिन फिर भी अपने मन की बात कर लूं तो चलूं।

एक एप है जो यह आप को अापके हार्ट-रेट के बारे में बताएगा......दूसरा बीमारी पता कर दवा बताएगा, एक ऐसा भी है जो आप को डाक्टर को ढूंढने में आप की मदद करेगा और बहुत रोचक बात एक ऐसा भी एप जो आपको अच्छी नींद भी देगा।

इस एप के बारे में लिखा है....

सेहत से लिए पर्याप्त नींद बेहद जरूरी है। कुछ एप ऐसे भी हैं जो आपको सुलाने में मदद करेंगे। इनमें से कुछ एप बारिश का आवाज निकालकर सोने का माहौल बनाएगा। कुछ एप मधुर संगीत निकालते हैं जिससे अच्छी नींद आ सकती है। स्लीपमेकर रेन एप बारिश का माहौल बनाकर सुलाएगा तो रिलेक्स मेलोडी मधुर संगीत बनाकर सुलाएगा। वहीं स्लीपबोट एप यह बताएगा कि आप रात में कितनी देर ठीक से सोए और कितनी देर करवटें बदलते रहे। इन एप को गूगल प्ले से फ्री डाउनलोड कर सकते हैं। 

ओ हो.....क्या पहले ही से हमने लाइफ को कम तनावपूर्ण बना रखा है जो इस तरह के अलग अलग एप्स भी चाहिए।
मेरी सलाह तो यह है कि इस तरह के प्रोडक्टस से जितना दूर रहा जाए उतना ही ठीक है दोस्तो। ये एप तो हमारी ज़िंदगी में पहले ही से बहुत ज़्यादा दखलंदाजी करने ही लगे हैं, लेकिन हम इन्हें ऐसा करना दे रहे हैं तभी तो।

जिस तरह से हम लोग हर पांच-दस मिनट में व्हाट्सएप और फेसबुक, ट्विटर स्टेट्स चैक करते फिरते हैं, ऐसे ही अगर दिन में बीसियों बार दिल की धड़कन को मापने बैठेंगे तो हो चुके हम सेहतमंद।

ज़िंदगी बड़ी सुगम है दरअसल इसी को हम ही ज़्यादा से ज़्यादा जटिल बनाए जा रहे हैं......एक रेस सी लगी हुई है ....तेरी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफेद कैसे, बात वहीं तक ही रहती तो ठीक थी, लेकिन हम तो हर कदम पर, ज़िंदगी के हर पहलू पर एक गला-काट प्रतिस्पर्धा में धंसते जा रहे हैं.....कहां रूकेगी यह दौड़?....और इंसानियत जितनी आज बच पाई है उस का काला चेहरा सारी दुनिया ने दो दिन पहले अफगानिस्तान के स्कूल में बच्चों की निर्मम हत्या से देख ही लिया।

वैसे आप जो भी एप उपयोगी समझें उन्हें अपनी ज़रूरत के हिसाब से डालें और यूज़ करें.......वैसे एक घिसा-पिटा पुराने ज़माने का नुस्खा मेरे पास भी है......अगर रात में करवटें गिनने वाले एप को यूज़ करने की बजाए सोने से पहले यह गीत ही सुन कर सो जाया जाए तो कैसा रहेगा.....वैसे हम तो यही कुछ सुन कर जब अपने ज़माने में घोड़े बेच कर सोते थे तो एक भी करवट की ऐसी की तैसी...सपनों की दुनिया में पूरे बॉलीवुड का भ्रमण कर सुबह ही लौटते थे...



पुष्पक एक्सप्रेस में यात्रा की हसरत में...

उस दिन मैंने सपनों की सौदागरनी पुष्पक एक्सप्रेस के बारे में आपसे कुछ शेयर किया था.....सपनों की सौदागरनी...पुष्पक एक्सप्रेस। 

उस दिन मैं गाड़ी के प्रस्थान के समय गया था...गाड़ी रात में पौने आठ बजे लखनऊ जंक्शन से छूटती है...मैं अपनी बीवी को सी-ऑफ करने गया था ...वह बंबई जा रही थीं।

कल उन्होंने वापिस लौटना था....मैं उन्हें लेने गया था....यह गाड़ी सुबह पौने नौ बजे के आसपास लखनऊ जंक्शन पर आती है..कल थोड़ा लेट थी।

पुष्पक एक्सप्रेस छः नंबर प्लेटफार्म पर ही आती है और चलती भी यहीं से है.......दिल्ली वाली शताब्दी एक्सप्रेस भी इसी प्लेटफार्म पर आती है और यहीं से जाती है। इन दो गाड़ियों का तो मेरे को पता है, बाकी भी और होंगी।

हां, तो प्लेटफार्म नंबर छः की खासियत यह है कि आप सीधा प्लेटफार्म के किनारे अपनी कार आदि लेकर जा सकते हैं......केवल प्राईव्हेट वेहिकल.....और इस के लिए आप को शायद पचास रूपये चुकाने पड़ते हैं......ठेकेदार के पास ठेका है.....हमारे लिए फ्री है।


दो दो दिन गाड़ी में बैठने की इंतज़ार में झुझारू लोग 
हां, तो कल जब मैं वहां पहुंचा तो देखा कि लगभग उस दिन जितनी लंबी लाइन ही फिर से लगी हुई थी...मुझे लगा कि एक आध घंटे में कोई गाड़ी यहां से छूटने वाली होगी। लेकिन नहीं, मैं गलत सोच रहा था।

मैं भी एक कुली की ट्राली के एक किनारे पर धूप सेंकने के लिए बैठ गया...पास में और भी लोग थे। मैंने उत्सुकतावश पूछ ही लिया कि यार, यह लाइन किस गाड़ी के लिए है।

मैं जवाब सुन कर चौंक गया कि यह लाइन पुष्पक एक्सप्रेस के लिए थी......जो शाम को बंबई के लिए पौने आठ बजे छूटती है। मैंने पूछा कि यह लाइन सुबह ही लग जाती है क्या, तो पास बैठे बंदे ने बताया कि सुबह नहीं, जब रात में यह गाड़ी छूटती है तो बाकी बचे लोग उसी लाइन में लगे रहते हैं......ताकि अगले दिन की पुष्पक में उन्हें मिल सके।
मैं बड़ा हैरान हुआ......कि पुष्पक में बैठने की इतनी लंबी इतज़ार.......मुझे हैरानगी हुई कि इतनी ठंडी में इतनी कठोर तपस्या......लेकिन फिर ध्यान आ गया उस कहावत का.....मजबूरी का नाम.........।

पास ही बैठे एक युवक ने बताया......उसने यू पी के एक जिले का नाम भी लिया था, मुझे याद नहीं आ रहा.....

"हम लोग कल सुबह आठ बजे घर से चले थे और सांय काल चार बजे यहां पहुंच गये थे......तब से लाइन में लगे हुए हैं, आज रात में गाड़ी में जगह मिल जाएगी. जर्नल के तीन डिब्बे पीछे होते हैं और एक आगे। इस ठंडी में रात में ऐसे इंतज़ार करना बड़ा मुश्किल होता है। स्टेशन से बाहर से २२० रूपये का कंबल लेकर आए, बिल्कुल पतला, ठंड भी नहीं रूकी।"

मैंने कुछ और भी तस्वीरें खींची जो यहां शेयर कर रहा हूं.....लोग खाना खा रहे थे, कुछ सो रहे थे, कुछ अपने बैग-झोलों को लाइन में लगा कर किसी को कह कर कहीं गये हुए थे......

थोड़ी धूप सेंक कर शरीर तो खोल लें.....प्लेटफार्म के छोर पर





जब बंबई से आने वाली पुष्पक प्लेटफार्म पर पहुंची तो ये इंतज़ार करने वाले बड़ी हसरत बड़ी निगाहों से इसे निहारते लगे ......आज हम भी बैठेंगे इसी गाड़ी में
मजबूरी तो है ही ......दो महीने पहले वाला रिजर्वेशन पहले ही दिन खुलने के बाद फुल हो जाता है, तत्काल का टिकिट काफ़ी महंगा होता है, हर कोई ले नहीं पाता......ऐसे में बिना आरक्षण के ही चलने को मजबूर होती है जनता। लेकिन एक बात है, मजबूरी वाली बात तो है, लेकिन फिर भी यार इन लोगों के मन में चाहे कुछ भी चल रहा है, इन के सब्र की इंतहा, इन की सहनशीलता, सह-अस्तित्व की भावना को शत-शत बार नमन........किसी को किसी के कोई शिकवा नहीं, दो दो दिन गाड़ी में बैठने के लिए चुपचाप बैठे हैं.........बस इसी आस में कि कोई इन्हें इन के नाज़ुक सपनों के साथ बस एक बार बंबई पहुंचा दे......बाकी हम देख लेंगे।

लखनऊ का दूसरा बड़ा रेलवे स्टेशन...लखनऊ जंक्शन

हमारे सामान्य ज्ञान की दाद दीजिए कि हमें लखनऊ में आने के बाद पता चला कि लखनऊ में दो बड़े रेलवे स्टेशन हैं। जिस तरह से बंबई में दो अलग अलग रेलवे के अलग अलग टर्मिनल स्टेशन हैं ...बम्बई वी टी और बम्बई सेंट्रल....सेंट्रल रेलवे और पश्चिम रेलवे के क्रमशः ...ये दोनों स्टेशन लगभग ५-६ किलोमीटर की दूरी पर हैं और यहां से विभिन्न गन्तव्य स्थलों के लिए गाड़ियां चलती हैं।

यह तो पता ही था कि लखनऊ में दो रेलवे हैं......उत्तर रेलवे और पूर्वोत्तर रेलवे.......लेकिन बंबई की भांति इन देनों में किसी भी रेल का मुख्यालय यहां नहीं है.. उत्तर रेलवे का दिल्ली और पूर्वोत्तर रेलवे का मुख्यालय गोरखपुर में है.....लेकिन इन दोनों रेलवों की डिवीज़नल इकाईयों के मुख्यालय लखनऊ में हैं......लखनऊ मंडल। इन के डिवीज़नल मुख्यालय ..जिन्हें आम तौर पर आप डी आर एम ऑफिस के नाम से जानते हैं..भी हज़रतगंज एरिया में हैं और दोनों लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं।

लखनऊ जंक्शन स्टेशन का एक दृश्य 
कल मेरा लखनऊ जंक्शन स्टेशन पर जाना हुआ...लखनऊ वालों की भाषा में इसे छोटी लाइन भी कह दिया जाता है.....पहले यहां से छोटी लाइन की गाड़ी चला करती थी। यह पूर्वोत्तर रेलवे के लखनऊ मंडल का स्टेशन है।
इधर जाने से मुझे बहुत बार ऐसा लगता है कि जैसे मैं किसी पहाड़ के स्टेशन पर आ गया हूं......बहुत पुराना और बिल्कुल साफ़-सुथरा है ..वैसे अगर आप नैनीताल गाड़ी से जाना चाहें तो काठगोदाम के लिए आप को ट्रेन यहीं से मिलती हैं.

गाड़ियों की सूचना देता यह बोर्ड
आप देखिए कि यह कितने सुंदर ढंग से गाडियां के आगमन और प्रस्थान की सूचना इस प्राचीन से दिखने वाले बोर्ड पर दर्शाई गई है। ऐसे बोर्ड मैंने बहुत से बड़े स्टेशनों पर इतने ही प्राचीन अंदाज में लगे देखे हैं.....बंबई वीटी, लखनऊ के मेन स्टेशन पर, मद्रास जैसे स्टेशनों पर। बहुत सी जगहों पर होंगे लेकिन मुझे ध्यान नहीं होगा।




साफ़ सफाई के साथ साथ मुझे स्टेशन परिसर में बहुत से पोस्टर भी लगे दिखे.......अच्छी बात है, क्या पता किस के मन को  कौन सी बात छू जाए....अगर कोई सफ़ाई की एक भी बात पल्ले बांध ले और इस तरह के सार्वजनिक स्थानों की काया ही पलट जाए.....वैसे यह स्टेशन तो बहुत साफ़-सुथरा है ही... जितनी जगह पर मैं टहला मुझे पान के दाग कहीं भी तो नहीं दिखे...लखनऊ में किसी जगह पर यह सब न दिखना ही अपने आप में एक सुखद अहसास है।

कोई भी ऐसा वैसा क्रियाकलाप करने से पहले इस तरफ़ भी नज़र दौड़ा लीजिए
हां, एक भारी भरकम पोस्टर ज़रूर दिख गया......बिल्कुल सरकारी हिंदी जैसा......आप स्वयं ही पढ़ लें.......इसे देख कर मुझे लगा कि बाप, पहले तो इसे समझने के लिए किसी को बी.ए करनी होगी और फिर बाहर से आने वाले लोगों को (जिन की हिंदी मातृभाषा नहीं है) पहले तो कहीं से क्रियाकलाप समझने की ज़हमत उठानी होगी......कि आखिर ये कौन कौन से क्रियाकलाप हैं जिन के लिए ५०० रूपल्ली का अर्थदंड भुगतना होगा......ज़ाहिर सी बात है कि इस में पान-गुटखा थूकना तो शामिल ही होगा.........ओ हो, तो क्या यही राज़ है इस स्टेशन परिसर की साफ़-स्वच्छता का।

एक बात तो बताना भूल ही गया.....ये दोनों स्टेशन - उत्तर रेलवे का जिसे चारबाग स्टेशन भी कह देते हैं और यह वाला लखनऊ जंक्शन ..ये दोनों ही चारबाग में स्थित हैं, बिल्कुल आपस में सटे हुए......जैसे बंबई में नहीं होता कि यह लोकल स्टेशन हैं और यह बाहर गांव का स्टेशन है बंबई सेंट्रल का, दादर का, वी.टी का...........और हां जैसे दिल्ली में यह रहा नई दिल्ली या पुरानी दिल्ली स्टेशन और साथ ही में सटा इन का मेट्रो स्टेशन.

यह बालीवुड भी हमारे खून में इस कद्र मिला हुआ है कि स्टेशन-वेशन का नाम लेते ही डिस्को स्टेशन का ही ध्यान आता है......जिसे सुनना हमारे ज़माने में लगभग दूरदर्शन के हर चित्रहार में एक अनिवार्य प्रश्न जैसा होता था......बिल्कुल रट गया था १९८० के दशक में यह गीत......अब हंसी आती है, लेकिन तब ..........वह दौर कुछ और था।