सोमवार, 18 अगस्त 2014

मुन्ना भाई फसाई..

मुन्ना भाई फसाई...... मुझे भी आज की टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकीय पन्ने पर यह शीर्षक देख कर थोड़ी हैरानी तो हुई। साथ में ही यह भी लिखा था........मुन्ना भाई फसाई-- जिसे बिरयानी में पंक्षियों की बीट तो पसंद है लेकिन स्विस चाकलेट नापसंद है।
Munna Bhai FaSSAI (Times of India, 18Aug 2014)

दो मिनट उस कॉलम को पढ़ने के बाद बात समझ में आने लगी कि यहां तो भारतीय खाध्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (Food Safety and Standards Authority of India) ...FSSAI....नामक संस्था की बात की जा रही है।
पढ़ते पढ़ते मुझे ध्यान आया कि पंद्रह दिन पहले मैंने भी तो इस संस्था के बारे में कुछ लिखा था......खाद्य पदार्थों में मिलावट की जांच के लिए। 

लिखा तो था मैंने कईं बार इस के बारे में लेकिन मुझे यह बिल्कुल ध्यान नहीं रहता कि लिखा क्या था, अच्छा लिखा था, कहने का मतलब उस के बारे में अच्छा अच्छा लिखा था कि नहीं, यह नहीं याद अब। इसीलिए लिंक ऊपर दे दिया है। वैसे भी जैसे हलवाई अपनी तैयार की हुई मिठाई खाने से परहेज करता है, मैं भी वैसा ही हूं अपने लेख पढ़ने से कतराता ही हूं। कारण आप को बताने की ज़रूरत नहीं।

बहरहाल, जिस तरह से हिंदोस्तान के हर बाज़ार में रेहड़ी, छाबों, फुटपाथों पर खाने पीने की चीज़ें बिकती हैं, कईं बार यही लगता है कि यार इन को आखिर कौन कंट्रोल कर रहा है। बस, इतना ज़रूर सुनते हैं कि जब ज़्यााद गर्मी पड़ती है तो गन्ने का रस बेचने वालों की ऐसी की तैसी हो जाती है, दीवाली या अन्य बड़े त्योहारों के आसपास हलवाईयों की ......या कभी कभी पके फल बेचने वालों पर सेहत विभाग का नजला गिर जाता है। इस के अलावा कभी कभी इधर उधर से घी, मावा, तेल, बेसन आदि के सैंपल तो भरे जाते हैं लेकिन उन में से कितनों को कैद हुई, यह मेरे बताने की ज़रूरत नहीं, आप सभी आंकड़ों से परिचित हैं।

कईं बार होता है मैं बाज़ार में किसी समोसा-कचौड़ी-जलेबी की दुकान पर रूकता हूं........फिर जब हर पीस पर बीसियों मक्खियां भिनभिनाते देखता हूं तो बिना कुछ खरीदे ही वहां से निकल लेता हूं। यह पिछले कुछ महीनों में कईं बार हो चुका है।

यह क्या यह तो मैं अपनी ही रिपोर्ट तैयार करने लग गया। नहीं, नहीं, ऐसी बात नहीं है ...टाइम्स आफ इंडिया के इस कॉलम में भी यही बताया गया है कि देश में हर जगह स्ट्रीट फूड बिक रहा है, हम जितनी मरजी ढींगे मार लें, लेकिन इन विक्रेताओं की क्वालिटी कंट्रोल पर कितना नियंत्रण है, यह भी जगजाहिर है। फिर भी यह सब धड़ल्ले से बिकता रहता है, लोग बार बार बीमार, बहुत बीमार होते रहते है।

टाइम्स आफ इंडिया का यह कॉलम मैंने पढ़ा तो है, लेकिन मेरी इंगलिश इतनी अच्छी नहीं है कि मैं सब कुछ अच्छे से समझ लूं। पर जो मैं बात अच्छे से समझ गया हूं यह जो संस्था है फसाई इसे देश की इस तरह के खुले में, धूल मिट्टी में तर-बतर खाद्य पदार्थों की तरफ़ तो देखने की इतनी फुर्सत नहीं है लेकिन बाहर से जो आयात की गई खाने-पीने की वस्तुएं आती हैं .... करोड़ों-अरबों का माल विभिन्न बंदरगाहों पर रूका रहता है क्योंकि इस फसाई संस्था द्वारा कोई न कोई आपत्ति लगी होती है।

"FSSAI was given the mandate to make eating safer. But it is for a reason that trade calls it FaSSAI, HIndi for 'trapped'! "... (from the column) 
और फसाई के साथ मुन्ना भाई लगने का अभिप्राय तो आप जानते ही हैं।

कॉलम में लिखा है किस तरह से इस कार्यालय के अंदर आयात किये जाने वाले खाद्य पदार्थों पर नियंत्रण पर मंथन होता है और उसी दफ्तर के बाहर कुलचे-छोले बेचने वाले से उसी दफ्तर में काम करने वाला बाबू लंच के समय वहीं पर यह सब खाता है और बार बार साथ में हरी मिर्च की फरमाईश करता है।

अच्छा लगा यह कॉलम देख कर, बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता दिखता है।

लगता है आप का ज़ायका तो खराब हो गया यह पढ़ कर......यह बात तो ठीक नहीं है, आज कृष्ण जन्माष्टमी है......शुभ दिन है, ज़ायका अभी ठीक किए देते हैं...... अभी अभी अनूप जलोटा जी के एक कार्यक्रम से लौटा हूं.....एक घंटे से भी ज़्यादा उन्हें लाइव सुनने का सौभाग्य मिला आज .......एक बहुत ही अच्छा अनुभव रहा.....उन के सभी सुप्रसिद्ध भजन सुन कर मज़ा आ गया..........कभी कभी भगवन को भी भक्तों से काम पड़े......

कछुओं की तस्करी......लखनऊ टू मुंबई

लखनऊ में सब्जियां अच्छी मिलती हैं, आम भी अच्छे मिलते हैं, जून-जुलाई के महीने में तो भरमार होती है आमों की..... हर तरफ़ ये आम ही आम दिखते हैं बाज़ारों में।

मैं अकसर कईं बार सोचा करता हूं जिस तरह की सब्जियां या आम यहां दिखते हैं अगर ये बंबई जैसे शहरों में भेजे जाएं तो किसानों या व्यापारियों को काफ़ी मुनाफ़ा हो सकता है।

पता नहीं लखनऊ के कितने आम बंबई पहुंचते हैं या नहीं, लेकिन आज दैनिक जागरण से यह पता तो चल ही गया कि किस तरह से लखनऊ से बंबई दिल्ली जाने वाली पुष्पक एक्सप्रेस में कछुओं की तस्करी रूकने का नाम ही नहीं ले रही।

दो साल में एक हज़ार से ज्यादा कछुए लखनऊ जंक्शन पर पकड़े जा चुके हैं। सोचने वाली बात यह है कि अगर हज़ार पकड़े गये हैं तो कितने हज़ार (या फिर लाख..) तो मुंबई पहुंच चुके होंगे।

परसों इसी गाड़ी के जनरल कोच में २८६ कछुए लावारिस हालत में एक बोरे में बरामद किये गये। इन्हें बाद में चिड़ियाघर में छोड़ दिया गया।

लावारिस तो कहने को हुआ......जिस का होगा, अब वह कैसे कहे कि यह उस का है। वह पट्ठा भाग खड़ा हुआ होगा। सूत्रों का कहना है कि छोटे कछुओं को होटलों में सप्लाई करने के लिए मुंबई ले जाया जाता है।

पता नहीं ये तस्कर क्या करते होंगे इन कछुओं का, लेकिन यह इतना आसान सा षड़यंत्र भी नहीं लगता कि यहां से गये और वहां होटलों में बिक गये। ज़रूर कुछ न कुछ काला रहस्य तो होगा इस कारोबार के पीछे।

मुझे अच्छे से ध्यान में नहीं आ रहा....याद भी बिल्कुल नहीं आ रहा ...लेकिन धुंधला सा याद है कि कहीं पढ़ा था कि ये कछुए विदेशों में बहुत ज़्यादा दामों में बिकते हैं........इन्हें कुछ अनाप-शनाप दवाईयां भी बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है,  मुझे ऐसा ध्यान आ रहा है।

इन जीवों का बंबई जाने पर क्या हश्र होता है ..क्या नहीं होता, लेकिन एक बात तो बहुत अहम् है कि इतने सारे कछुओं को जब उन को प्राकृतिक आवास (natural habitat) से उठा लिया जाता है तो यह पर्यावरण के संतुलन (ecological balance)  को गड़बड़ाने का एक अन्य साधन ही है।

इस तरह से चुराये गये कछुओं का क्या होता है, कुछ आप ने भी कहीं पढ़ा-सुना हो तो कमैंट में लिखियेगा। 

नकली पान मसाले का गोरखधंधा ज़ोरों पर

आज की दैनिक जागरण के लखनऊ संस्करण में एक मुख्य खबर दिखी..... जिस का शीर्षक था... बिक गया तो असली पकड़ा गया तो नकली। और यह खबर नकली पान मसाले के बारे में थी।

पान मसाला कारोबारियों के लिए असली-नकली का खेल मुनाफा कमाने का धंधा बन गया है। जब तक बाजारों में बिना किसी रोक टोक पान मसाला बिकता रहता है, किसी कंपनी को इसकी फिक्र नहीं रहती है लेकिन जैसे ही माल पकड़ा जाता है, उसे नकली करार देने की होड़ शुरू हो जाती है।

इस खबर में इस तरह के अन्य केसों का भी उल्लेख किया गया है, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की जाती।

आप को यह खबर पढ़ कर कैसा लगा। मुझे तो कुछ ज़्यादा अजीब नहीं लगा। जब कारोबारी किसी भी अन्य चीज़ को नहीं बख्शते.......ऐसे में वे पान मसाले जैसी धड़ा-धड़ बिकने वाली वस्तु को कैसे अपने लालच से अछूता रख सकते हैं।
इस तरह की खबरें मैं पहले भी कईं बार देख चुका हूं।

सोच कर भी लगता है कि जो हानिकारक पदार्थ पहले ही से खाने-चबाने वाले की सेहत को बुरी तरह से खराब कर देने की क्षमता रखती हो, उस में भी मिलावट।

इस मिलावट से तो बस वह ध्यान आ गया कि किसी ने नकली ज़हर खा लिया और उस की जान बच गई।

पान मसाला जैसे पदार्थ इसे इस्तेमाल करने वाली की सेहत को जितना बिगाड़ देते हैं ..अब सोचिए कि अगर उस में भी मिलावट हो तो फिर इसे खाने वाले का क्या होगा।

बहरहाल, यह खबर मैंने आप तक ऐसे ही पहुंचा दी --मन किया.....लेकिन यह मेरे को कोई विशेष खबर लगती नहीं है क्योंकि हर पान मसाला खाने-चबाने वाला अच्छे से जानता है कि वह आग से खेल रहा है, फिर भी खेलता है ...और उस आग में मिलावट है या नहीं, इस तरफ़ देखने की फुर्सत ही किसे है। बस गुटखे-पान मसाले की एक हवस है, वह पूरी होनी चाहिए।