सोमवार, 4 अप्रैल 2016

जुबान और गाल के जल्दी ठीक होने वाले अल्सर

कुछ घाव जुबान और गाल के अंदरूनी हिस्सों में बहुत जल्दी ठीक हो जाते हैं...अगर मरीज़ तुरंत किसी डेंटिस्ट को दिखा दे..

संयोग से परसों दो मरीज़ ऐसे ही आये कि इस विषय पर कुछ लिखा जाए...अकसर हर दिन ओपीडी में एक मरीज़ तो ऐसा आ ही जाता है।

ऐसे अधिकतर मरीज़ इतने खौफज़दा होते हैं कि उन्हें लगता है कि जैसे मुंह में कैंसर हो गया है.. केवल डेंटिस्ट के देख लेने से ही इन्हें बहुत ज़्यादा राहत महसूस होती है।

किताबों में भी लिखा है...हमारे प्रोफैसर भी कहा करते थे कि दांतों की इस तरह की लंबे समय तक चलने वाली रगड़ की वजह से कैंसर हो जाने का अंदेशा रहता है .. जी हां, होता तो है..लेकिन जब इस तरह की रगड़ बरसों पुरानी हो, मुंह के ज़ख्म को बिल्कुल नज़रअंदाज़ किया गया हो... साथ में पान या तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन से भी रिस्क तो बढ़ ही जाता है।

अकसर मैंने देखा है कि मुंह में इस तरह का ज़ख्म होने पर मरीज़ या तो अपने आप कुछ न कुछ लगा कर ठीक करने की कोशिश करता है, कैमिस्ट से कुछ भी ले लेता है लगाने के लिए, कुछ "सुखाने वाले कैप्सूल" ले लेता है, बिना वजह बी-कम्पलैक्स खाता रहता है, किसी दूसरे विशेषज्ञ को दिखाता रहता है .....सब कुछ ट्राई करने के बाद फिर वह किसी के कहने पर दंत चिकित्सक के पास जाता है ...जहां से उसे इस तकलीफ़ की जड़ का पता चलता है।

यह जो ऊपर तस्वीर लगाई है मैंने यह किसी ५०-५५ साल की महिला की तस्वीर है ...आप देख सकते हैं कि जुबान के घाव के सामने ही एक निचली जाड़ का किनारा टूटा हुआ है ...और इस नुकीले कोने की वजह से यह ज़ख्म हो गया है ... कुछ खास करना होता नहीं, एमरजैंसी के तौर पर बस उस कोने को तो उसी समय खत्म करना होता है ...और बहुत बार तो इस ज़ख्म पर कुछ भी न तो लगाने की ही ज़रूरत होती है और न ही कोई दवा खाने की ...बहुत ही जल्दी दो तीन दिन में ही यह सब कुछ बिल्कुल ठीक हो जाता है ...

वैसे उन नुकीले कोने को गोल करते ही मरीज़ को बहुत राहत महसूस होने लगती है... और बस कुछ दिन मिर्च-मसाले-तीखे से थोड़ा सा परहेज बहुत ज़रूरी है ..ज़ख्म भरने में मदद मिलती है।

कुछ दिन बाद पूरा इलाज तो करवाना ही होता है ...अगर दांत भरने लायक है तो उसे भरा जाता है, उखाड़ने लायक तो उखाड़ा जाता है ...और अगर उस पर कैप लगवाने की ज़रूरत हो तो मरीज़ को बताया जाता है...जैसे भी वह निर्णय ले सब कुछ समझ कर।

यह जो दूसरी तस्वीर है यह भी एक निचली जाड़ के टूटे हुए नुकीले कोने की वजह से है...लेकिन इस तरह से गाल में इस तरह का ज़ख्म कुछ कम ही दिखता है ...मैंने ऐसा नोटिस किया है...इस मरीज़ को इस ज़ख्म के आसपास सूजन भी थी... इन्होंने कभी तंबाकू, गुटखे, पान का सेवन नहीं किया....इन के भी टूटे हुए दांत के नुकीलेपन को दूर किया तो इन्हें तुरंत बहुत राहत महसूस हुई ... पूछने लगे कि मुझे मधुमेह है ...ज़ख्म का क्या होगा, मैंने कहा कुछ नहीं करना, बस दो चार दिन बाद दिखाने आ जाईयेगा...और नीचे वाला हिलता हुई टूटा दांत उखाड़ना ही पड़ेगा...

हां, इन के साथ ही एक बुज़ुर्ग भी थे...७५-८० साल के ...बस, यही तकलीफ कि दांत के कोने नुकीले होने की वजह से ज़ख्म हो गये हैं....बड़े फ्रैंक हैं वे...कहने लगे कुछ दिन घर में कुछ जुगाड़ किया इस के लिए...नहीं हुआ तो सोचा चलिए अपने अस्पताल में ही चलते हैं....प्राईव्हेट में तो हाथ लगाने के तीन चार सौ लग जाएंगे....

मैंने यही सोचने लगा कि जो कोई भी प्राईवेट क्लीनिक खोल के बैठा है ... उस ने भी अपने सारे खर्च वहीं से निकालने हैं....३००-४०० रूपये कुछ ज़्यादा भी नहीं है...उसे इस तरह की तकलीफ़ का सटीक निदान एवं उपचार करने के लिए तैयार होने के लिए कितना अपने आप को घिसाना पड़ा होगा....और किसी मरीज़ की किसी बड़ी चिंता को दूर करने के लिए, उसे ठीक करने के लिए तीन चार सौ रूपये कुछ ज़्यादा नहीं है ....शायद एक पिज़्जा या गार्लिक ब्रेड ५००-६०० की है, और ये जो फेशियल-वेशियल के भी तो इतने लग जाते हैं....फिर अनुभवी चिकित्सकों की फीस ही क्यों चुभती है....हम लोग कभी प्राईव्हेट में किसी चिकित्सक के पास जाते हैं तो मैं वहां बताता ही नहीं कि मैं भी डाक्टर हूं...जहां तक संभव हो...उन की जो भी फीस है ४००-५०० चुपचाप चुकता करनी चाहिए....अगर उन्हें पता चलता है और वे फीस लौटा देते हैं तो मुझे बहुत बुरा लगता है ....इस तरह की मुफ्तखोरी बहुत बुरी बात है! और ये महान् चिकित्सक हैं उन्हें किसी मरीज़ के साथ दो मिनट से ज़्यादा बात करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती ....मैं ऐसे लोगों के फन को सलाम करता हूं..

अच्छा अब चित्रहार की बारी है... यह गीत ..पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है... ब्यूटीफुल .... यह सुबह से ही बार बार याद आ रहा है ...पता नहीं क्यों! अभी इसे सुन ही लूं... तो चैन पड़े...


कपूर एंड संस के भी दर्शन कर ही आइए...


क्रिकेट में रूचि बिल्कुल भी नहीं है ...जिस दिन क्वार्टर-फाइनल मैच था.....उस दिन हम लोग कपूर एंड संस देख आए...जिस तरह से हम लोग स्कूल-कालेज के दिनों में कोई फिल्म देखना नहीं छोड़ा करते थे, उसी तरह से अपनी सुविधा अनुसार कभी कभी फिल्में देख लेनी चाहिए...मेरा कहने का मतलब है थियेटर में जा कर ...क्योंकि फिल्म देखना वहीं अच्छा लगता है।

और फिल्म लगने के बाद जितनी जल्दी हो सके, अगर थियेटर में जा पाएं तो हो आइए... क्योंकि आज कल सब पैसे का खेल ...इतने करोड़, उतने करोड़ का धंधा हो गया...बस, तुरंत अधिकतर फिल्में कुछ ही दिनों में उतर जाती हैं...हम लोगों के ज़माने में सिल्वर जुबली फिल्में हुआ करती थीं...२५ सप्ताह तक फिल्में चल आना एक आम बात थी।
इस से पहले कि मैं भटक जाऊं..वापिस कपूर एंड संस पर लौट आते हैं!

किसी भी फिल्म या साहित्य के बारे में एक बात तो हमें अच्छे से याद रखनी चाहिएं कि फिल्में और साहित्य किसी भी दौर में उस समय के समाज का आईना होता है ...फिल्में वही दिखाती हैं जो उस समय के समाज में घट रहा होता है।
कपूर एंड संस फिल्म अच्छी थी....एक मध्यमवर्गीय घर घर की कहानी सी लगी...उन की मजबूरियों, आडंबरों, दिखावा, डबल-स्टैंडर्ड्स, तनाव, चिंता, कशमकश, हंसी के लम्हों, पारस्परिक संबंधों, विवाहेतर संबंधों- extra-marital relationships की कहानी है यह कपूर एंड संस...

मैं इस फिल्म की कहानी आप को बिल्कुल भी नहीं बताना चाहता.... लेकिन इतना ज़रूर कहूंगा कि फिल्म है तो देखने लायक ..ज़रूर देख कर आईए.....जैसे कि अकसर में होता है हम इन सामाजिक फिल्मों से कुछ भी ग्रहण करना चाहें कर सकते हैं।

यार, वैसे फिल्म में खपखाना बड़ा है, सारा समय सारा परिवार ..कोई न कोई किसी ने किसी से उलझता दिखता है ...टैं, टैं, टैं....हम जब फिल्म देख कर वापिस लौट रहे थे तो हमारा इस बात पर एकमत था कि इतने खपखाने फिल्म तो थियेटर में ही देखना संभव है..क्योंकि वहां पर टिकट खरीदी होती है ..घर में तो पंद्रह मिनट के बाद बंदा उठ जाए..शायद यह पटकथा की विवशता है ...होगी!


फिल्म के सभी किरदारों ने ..😄 ..Rishi Kapoor, रजत कपूर, रतना पाठक शाह, फवाद खां, सिद्धार्थ कपूर, आलिया भट्ट ने अच्छा काम किया है ...

हम लोग यही सोच रहे थे कि रिशी कपूर की फिल्म में उम्र तो इन्होंने ९० साल की कर दी ..मेकअप भी वैसा कर दिया..लेिकन उस की हरकतें उस के मेकअप और उम्र के साथ मैच नहीं कर रही थीं...वैसे खुशमिजाज बंदा है फिल्म में भी ..लेकिन उसे देखते ही मुझे तो उस के सभी सत्तर-अस्सी के दशक के गाने और मैंने इन्हें मई १९७५ में सन एंड सैंड होटल में अपनी कज़िन की शादी के दौरान देखा था...वह उधर टेबल-टेनिस खेल रहा था...और इस फिल्म में वह उस दिन मड-पैक लगाते हुए दिखा...समय मुट्टी में बंद रेत की तरह से झट से खिसक जाता है..

मुझे तो Rishi kapoor के राजकपूर साहब के गीत ही याद आये जा रहे थे...  ...

ओव्हरहाल अच्छी फिल्म है ...जैसा कि मैंने कहा कि कोई भी अच्छी फिल्म समाज का आईना ही होता है ...यह भी है..जिस तरह से यंगस्टर्ज़ की पार्टीयां, उन का रहन सहन, लाइफ-स्टाईल बहुत चेंज हो गया है..सब कुछ इस फिल्म में देखा जा सकता है ...

मुझे दुःख इस बात का हुआ कि ९० साल के Rishi kapoor की यह इच्छा पूरी न हो सकी कि एक पूरे परिवार की फैमली फोटो होनी चाहिए उस के बेड के सामने... नहीं, नहीं, उन्हें कुछ नहीं हुआ लेिकन फिर भी इच्छा अधूरी रह गई....यही जानने के लिए कह रहा हूं आज ही देख कर आइए.........Kapoor & Sons since 1921..

PS.... Didn't you notice that i wrote Rishi Kapoor in English only...'coz i don't know how to write it in Hindi ..मुझ से हर बार रिषि ही लिखा जाता है..