शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

कुछ बातें सेहत की ..

मुझे आज ही पता चला कि अमेरिका में लोग जितना पैसा अपने खाने पर खर्च करते हैं, उस का 95फीसदी हिस्सा वे प्रोसैसड फूड पर खर्च करते हैं। यह जानना मेरे लिये एक शॉक से कम न था। साथ ही में यह लिखा हुआ देख कर यह हैरत न हुई कि इसी की वजह से वहां पर आज की पीढ़ी पिछली पीढ़ी से कम जीती है।

परसों अमेरिका की सरकार की शारीरिक कसरत करने के बारे में सिफारिशें देखने का मौका मिला। उन की सिफारिश है कि हर व्यक्ति को हफ्ते में अढ़ाई घंटे शारीरिक परिश्रम करना चाहिये - रोजाना आधा घंटे, हफ्ते में पांच दिन और बच्चों के लिये कहा गया है कि उन का रोज़ाना एक घंटे अच्छी तरह से खेलना-कूदना निहायत ही ज़रूरी है। इसलिये अब बच्चों को भी टीवी या कंप्यूटर से जबरदस्ती उठा कर बाहर खेलने के लिये कहना होगा।

आपने सुना है न कि कईं बार बिलकुल छोटे बच्चे की सोते सोते ही मौत हो जाती है --इसे Sudden Infant Death Syndrome कहते हैं । वैज्ञानिकों ने इस की स्टडी करने के बाद पाया है कि अगर बच्चा किसी हवादार कमरे में सोया हुया है और जिस में मौसम के अनुसार पंखा चल रहा है तो इन छोटे नन्हे-मुन्नों को काफी हद तक अकाल मृत्यु का ग्रास बनने से बचाया जा सकता है। और साथ में यह भी बताया गया है कि बिल्कुल छोटे बच्चों को पेट के बल या साइड पोज़ में नहीं सुलाना चाहिये ----उन्हें पीठ के बल सुलाना चाहिये अर्थात् उन का मुंह छत की तऱफ़ होना चाहिये ( supine position) ---और न ही उन के मुंह को ढांप कर रखना चाहिये। होता क्या है कि इस Sudden Infant Death syndrome में बच्चा पेट के बल सोया पड़ा है, कमरे में हवा पूरी है नहीं, वैटीलेशन है नहीं तो ऐसे में उस के मुंह के पास बहुत मात्रा में कार्बन-डाई-आक्साईड गैसे जमा हो जाती है और जिसे बच्चे द्वारा इस्तेमाल किया जाने लगता है जो ऐसे अनहोनी का सबब बन जाती है जिस से बचा जा सकता था।

बच्चों के अनीमिया के बारे में पिछली पोस्ट मैंने लिखी थी। लेकिन क्या केवल आयरन फोलिक एसिड की गोलियां खा कर ही ठीक हो जायेगा अनीमिया ---- बच्चों में अनीमिया ठीक करने के लिये हमें उस की डि-वर्मिंग ( de-worming) भी करनी होगी ---अर्थात् उसे डाक्टरी सलाह के अनुसार पेट के कीड़े मारने की दवा भी देनी होगी। चिकित्सा वैज्ञानिकों ने देखा है कि जिन बच्चों में कीड़े नहीं होते उन में वैक्टीनेशन के परिणाम दूसरे बच्चों की बजाए बेहतर होते हैं ।और यह तो हम जानते ही हैं कि पेट में कीड़े बच्चे के अनीमिया को कैसे ठीक होने देंगे !!

डि-वर्मिंग के साथ-साथ हमें बच्चे को विटामिन-ए सप्लीमैंटेशन देना भी बेहद ज़रूरी है ....बच्चों को विटामिन -ए सप्लीमैंटेशन देने का भी अपना एक शैड्यूल है । ठीक है, अगर आपने नहीं दिया तो आज ही बाल-रोग विशेषज्ञ से बात करें और उसे विटामिन-ए सप्लीमैंट्स दें। यह उस के शरीर में विटामिन ए का रिज़र्व स्टाक तैयार करने के लिये एवं उस के नार्मल विकास के लिये बेहद ज़रूरी है। देश में तो कुछ बच्चों में रतौंधी रोग ( रात में दिखाई न देना) होने का कारण ही यह विटामिन ए की घोर कमी होती है। वैसे भी बच्चे आज कल जो खा-पी रहे हैं और जो खा भी रहे हैं वह कितना शुद्ध है, कितना मिलावटी -----तो इस हालात में तो बच्चों को ये सप्लीमैंट्स देने बहुत ही ज़रूरी हैं।


अभी मैं जब कीडे़ मारने के दवा का ज़िक्र कर रहा था तो मुझे आज सुबह के पेपर में पढ़ी एक बेहद दुःखद घटना का ध्यान आ गया ....चूहे मारने की दवा तो आप को पता ही है कि कितनी आसानी से मिल जाती है । तो बंबई की एक इमारत में एक परिवार जो कि ग्राउंड फ्लोर पर रहता था वह चूहों से बेहद परेशान था। इसलिये ब्रेड पर अकसर चूहे मारने वाली दवाई लगा कर किचन में रख देते थे। एक दो पहले भी यही हुआ । लेकिन अचानक उन का प्लस दो कक्षा में पढ़ रहा बेटा बाहर से आया जिसे बहुत भूख लगी हुई थी और जिस ने तुरंत वह ब्रेड-पीस खा लिया। उसे तुरंत उल्टियां शुरू हो गईं और हस्पताल पहुंचने तक बेचारे की मौत हो गई। बेहद दुःखद समाचार।

मैंने देखा है कि अकसर लोग ऐसे काम रात को सोने से पहले करते हैं ---और घर में सब को थोड़ा पहले से बता कर रखते हैं। लेकिन लगता है कि वो जो पहले रैट-ट्रैप हुया करते थे ....वे भी ठीक ही थे ....वो बात अलग है कि चूहा अब आप की रसोई में ना रह कर चार बिल्डिंग दूर किसी दूसरे के सिर का दर्द बनेगा। लेकिन मुझे याद है कि जब हम छोटे थे तो किसी रैट-ट्रैप में पकड़े चूहे को साईकिल पर सवार हो कर किसी दूर जगह छोड़ने जाने का काम भी अच्छा खासा रोमांचक हुआ करता था। साथ में कुछ यार-दोस्त मिल कर इस काम को और भी रोमांचक बना दिया करते थे। और उस रैट-ट्रैप की यही खासियत हुआ करती थी कि उस में चूहा मरता नहीं था, केवल उस के अंदर बंद हो जाया करता था जिसे इस मौह्लले वाले उस मौहल्ले में और उस मौह्लले वाले इस मौह्लले की नाली या थोडी़ खाली पड़ी जगह में छोड़ कर बिना वजह निश्चिंत से हो लिया करते थे ....चाहे आज सोचूं तो इस निश्चिंता की कोई खास वजह तो जान पड़ती नहीं ...क्यों कि चूहों की गिनती तो उतनी की उतनी ही रही। वैसे एक बात है कि अगर गल्ती से (?) या जान-बूझ कर चूहा उस रैट-ट्रैप से रिहा कर अपने ही गली-मोह्लले के किसी घर में घुस जाता था तो लड़ने-लड़ाने की नौबत आती भी देखी है।

उस के बाद आये ऐसे रैट-ट्रैप जिस जो देखने में तो छोटे थे ....लेकिन थे बहुत नृशंस ....यानि कि चूहा उन के अंदर कैद तो हो ही जाता था और साथ में एक कील उस के शरीर में घुस जाया करता था जिस की वजह से उस की मौत हो जाया करती थी और लोग किसी तरह का चांस न लेने की मंशा से आटे की गोली के साथ रैट-प्वाईज़न तो लगा ही देते थे । और फिर उस मृत प्राणी को घर के बाहर की नाली में फैंक दिया जाता था। सोच रहा हूं कि समय के साथ साथ हम लोग भी कितने क्रूर हो गये हैं।

लेकिन जो भी हो, जब बंबई जैसा हादसा ,जैसा उस 17 साल के लड़के के साथ हुआ, कभी कभार हो जाता है तो इतना दुःख होता है कि ब्यां नहीं किया जा सकता। लेकिन ये हादसे ........पंजाब में तीन-चार पहले हुये एक हादसे की याद हरी हो गई। एक मजदूर के पांच-छः छोटे छोटे बच्चे अपनी मां के साथ मस्ती करने में मशगूल थे और वह खाना बना रही थी। इतने में उसे चंद लम्हों के लिये कमरे से बाहर जाना पड़ा ---बच्चों को मस्ती सूझी, बड़ा ट्रंक साथ ही खुला पड़ा हुया था...वे सारे के सारे --एक को छोड़ कर जो इतना छोटा था कि अंदर नहीं जा सकता था ...उस ट्रंक के अंदर घुस गये और तभी अचानक ट्रंक का दरवाजा हो गया बंद और उन के वह खुल नहीं पाया। मां अंदर आई..बच्चों को ढूंढने लगी ...लेकिन जब तक वह कुछ समझ पाई बहुत देर हो चुकी थी और सभी बच्चों का दम घुट चुका था ।

ऐसे दर्दनाक हादसे हमें चीख-चीख कर, छाती पीट पीट कर कुछ सोचने के लिये मजबूर करते हैं ।