गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

3 दिसंबर 1971 का दिन याद आ रहा है आज ..

कुछ दिन पहले हम लोग झांसी की रानी लक्ष्मी बाई पर बनी एक फ़िल्म देखने का प्रोग्राम बना रहे थे ..उसी दौरान वाट्सएप पर एक वीडियो दिख गई जिस में उस फिल्म में लक्ष्मी बाई का किरदार अदा करने वाली नायिका एक नकली घोड़े पर सवारी करते हुए दिखी ...अजीब तो लगा ही ... लेकिन उस फिल्म को कभी न देखने का फ़ैसला भी कर लिया। इस से बेहतर होगा कि उस साहस और वीरता की बेमिसाल रानी - लक्ष्मी बाई की किताब पढूंगा ...और सोच रहा हूं कि किसी रोज़ झांसी हो कर आया जाए और वहां का किला देखा जाए...

और यह जो हम सुपरहीरो लोगों की फिल्में देखते हैं ...इन सब के ऊपर आज एक हीरो भारी पड़ता लग रहा है ...भारी ही नहीं बहुत भारी ...या यूं कहूं कि कोई तुलना ही नहीं ...हमारे सुपर हीरो लोगों का सब कुछ फ़ेक --लेकिन विंग कमांडर को आज पाकिस्तान की कस्टडी में देखा ...एक वाट्सएप वीडियो में...उस समय से ध्यान उधर ही लगा हुआ है .. लेकिन उस जांबाज का खड़े होने का अंदाज़, बात करने का सलीका...उस परिस्थिति में भी मैं क्या, कोई भी दंग रह जाए....इतनी मानसिक शक्ति, इतना रफ-टफ होना ....यह भारतीय सेना का कमाल तो है ही, उस शेरनीयों का भी कमाल है जो ऐसे वीर-बांकुरों को जन्म देती हैं...इन देवियों को कोटि-कोटि नमन ..

पहले वीडियो आई जिसमें दिखाया गया कि उस की पूछताछ चल रही है ...फिर दो चार घंटे में आई जब उसे पकड़ा गया, जीप में बिठाया गया....और फिर कुछ समय पहले एक क्लिप वाट्सएप पर आई जिस में वह भारतीय वायु सेना का पॉयलेट चाय पी रहा दिखाया जा रहा है ...

आज तो उसी वक्त से ही ३ दिसंबर १९७१ का दिन याद आ रहा है ...उस दिन शाम को पांच बजे मैं अपने घर के आंगन के एक किनारे पर बने टायलेट की तरफ़ जा रहा था कि हवाईजहाज़ों की ऐसी तेज़ हवाई सुनाई दी जैसी पहले कभी नहीं सुनी थी ...चंद लम्हों के बाद ही पता चल गया कि हिंदोस्तान और पाकिस्तान का युद्ध छिड़ गया है ...

अभी हम लोग अपने स्कूल वाले ग्रुप में यही बात कर रहे थे तो कुछ दूसरे दोस्तों को भी लगभग पचास साल पहले वो दिन याद आ गये ..उन दिनों हम लोग ८-९ साल के थे ...एक दोस्त राकेश बताने लगा कि वह भी हमारे घर के पास ही स्थित एक ग्राउंड में क्रिकेट खेल रहा था ...और उड़ते हुए जहाज़ों का इतना शोर और उन को इतना नीचे उड़ते देख, इतनी स्पीड से ...वह और उस के दूसरे साथी रोते रोते घर की तरफ़ भाग गये।

१६ दिन चला था यह युद्ध- कुछ यादें बिल्कुल दिल पर छपी हुई हैं....हमारी कॉलोनी में ( जो अमृतसर के गोबिंद गढ़ किले के बिल्कुल पास ही थी ....उसके साथ ही लगती थी) अगले ही दिन से खाईयां खोदी जाने लगीं ... शायद दो तीन दिन में खाईयों को खोद भी दिया गया ...ये  L (ऐल) शेप में अधिकतर होती थीं ...कुछ U (यू) की शेप में भी तैयार की गई थीं.. एक साइड की लंबाई ६-८ फीट रही होगी ..३-४ फीट गहरी और लगभग दो -अढ़ाई फीट चौड़ी...

मुझे कभी समझ में नहीं आया उन दिनों में भी यह खोदी क्यों गई हैं....उन के ऊपर कुछ नहीं होता था, बस उस के ऊपर कुछ सूखे पत्ते और टहनियां रख दी जाती थीं...और शाम के वक्त कुछ लोग या बच्चे उस में घुस जाते थे ...

अब अपने उस दौर के साथी राकेश गु्प्ता से बात हो रही थी तो उसने याद दिलाया कि कैसे उन दिनों बीच बीच में 'घुग्गू' बजने लगते थे (सायरन को पंजाबी में घुग्गू कहते हैं) ...हां, अब मुझे भी याद आ गया और उस ने भी बताया कि हवाई-हमले के दौरान या शायद उस से पहले घुग्गू बजता था ...लोगों को आने वाले ख़तरे से आगाह करने के लिए...और फ़ौरन बंकर (खाईयों) के अंदर घुस जाने की हिदायत होती थी यह ...

जहां तक मुझे याद है कि कम ही लोग उस बात को मानते थे ...बस बच्चे और कुछ बड़े ही उस में घुस जाते थे कभी कभी ...शायद मैंने महिलाओं को तो उन बंकरों के अंदर जाते कभी देखा ही नहीं ...एक औरत थी मुसद्दी की बीवी ...शायद वह कभी जा कर बैठ जाती थी ....अरे हां, याद आ गया....वह बहुत बीड़ी पिया करती थीं...और उस बंकर के अंदर जा कर बीड़ी पीते होंगे मियां -बीबी दोनों ....पीते क्या होंगे, मैंने भी उन दोनों को पीते देखा था ....ख़ैर, कोई बात नहीं ...बंकर बच्चों के लिए तो जैसे खेलने की एक जगह बन गई थी...जंग ख़्त्म होने के बहुत वक्त बाद भी ये ऐसे ही रहे ...फिर पता नहीं कब और कैसे इन्हें मिट्टी से भर दिया गया ...

उन सोलह दिनों के बारे में एक बात और याद है कि अंधेरा पड़ते ही ब्लैक-आउट हो जाती थी ...और बाकायदा इस को चैक किया जाता था ..ब्लैक-आउट का मतलब की बिजली तो गुल हो ही जाती थी ...और आप को आग या टार्च ....कुछ भी जलाने की मनाही थी ...जो कि हवाई हमले के दौरान बड़ा जोखिम होता होगा! मुझे याद है यहां तक कि अगर कोई सिगरेट बीड़ी भी सुलगाता था तो उस को लोगों से और शायद सिविल डिफैंस वालों से बड़ी फटकार पड़ती थी ...

अभी मैं लिखते हुए यह याद करने की कोशिश कर रहा था उन दिनों स्कूल चलते रहे थे या छुट्टियां हो गईं थीं...लेकिन याद नहीं आया...देखता हूं अपने स्कूल के जमाने के साथी ही कुछ बताएंगे ...उन सब की यादाश्त बहुत अच्छी है ....

सोचने वाली बात यह है कि यह मार-धाड़, लड़ाई झगड़े कब ख़त्म होंगे ...हमारे से पहले वाली पीढ़ी ने यह सब देखा ...इस से भी ज़्यादा ...सरेआम ट्रेनों, बसों, रास्तों में मार काट देखी ...हमारे जन्म के समय भी जंग (१९६२) ...फिर थोडे़ बड़े हुए तो जंग (१९७१), जब हमारे बच्चे स्कूल जाने लगे तो भी जंग (१९९९) ....अब हम पचपन पार हो चुके हैं तो फिर से ऐसा माहौल ....काश! अब अमन हो जाए ....

साहिर लुधियानवी साहब ने जो बात कह दी है ,उस के बाद कहने को कुछ बचता ही नहीं है ...