बुधवार, 29 सितंबर 2021

तुम भी चलो...हम भी चलें...चलती रहे ज़िंदगी...

प्रभादेवी लोकल स्टेशन...28 सितंबर 2021 

कल मैंने जब पश्चिम रेलवे के प्रभादेवी स्टेशन पर कुछ लोगों को एक स्टॉल पर नाश्ता करते देखा तो मेरी तबीयत ख़ुश हो गई ...वैसे तो उस ख़ुशी का कारण एक बड़े से कांच के मर्तबान में दिख रहे लड्डू भी थे ...लेकिन इतने लोगों को पाव-भाजी, रगड़ा-पेटीज़ का इत्मीनान से लुत्फ़ उठाते देख कर बहुत अच्छा लगा...

मेरा क्या है...तस्वीरों में आने से मुझे बहुत गुरेज़ है लेकिन तस्वीरें खींचना तो अपना काम है ....उसी वक्त जो तस्वीरें लीं, यहां लगा रहा हूं ...

लोकल गाड़ी में बैठा मैं यही सोच रहा था कि जैसे भुज में भुकंप आया फिर से भुज बस गया...ऐसे ही कोरोना की भी एक सुनामी आई ...इस ने महाराष्ट्र में ही 90 हज़ार लोगों की जान लील ली ...अब थोड़ा चैन आया है लोगों को ..लेकिन अभी भी ज़रूरी एहतियात तो रखनी ही होगी...

मुझे मुंबई की लोकल गाडि़यों में सफर करना ही भाता है ... अब तो घर के लोगों ने कहना ही बंद कर दिया है कि गाड़ी लेकर जाओ...चलो, यह भी अच्छा है...गाड़ी चलाना और गाड़ी में चलना मुझे बिल्कुल भी नहीं भाता... दरअसल बात यह है कि लोकल गाड़ियों में ज़िंदगी दिखती है ...ज़िंदादिली से हमारी मुलाकात होती है ...और अनेकों दुश्वारियों के बीच भी कैसे ख़ुश रहा जा सकता है ...ये सब सबक मिलते हैं...जिन्हें रो़ज़ाना अगर अपने आप को याद दिलाना है तो लोकल गाड़ी एवं अन्य पब्लिक ट्रांसपोर्ट से जुड़ कर रहना होगा ....अपने शहर के बाज़ारों और गलियों में बिना किसी ख़ास मक़सद के पैदल टहलना भी होगा ....बस, इस मशीनी से युग में ज़िंदगी से जुड़ने का यही एक बहाना मुझे समझ में आता है। मोटर-गाड़ी में चलते वक्त सारा मज़ा तो खौफ़नाक ट्रैफिक, पार्किंग की सिरदर्दी में लुप्त हो जाता है, रोड़-रैश से जूझते, बचते-बचाते 15 मिनट में सिर भारी हो जाता है ...बस इत्ता सा ही है मेरा थ्रैशहोल्ड, क्या करें। 

हां, तो बात फोटो की हो रही थी जो मैंने कल शाम को प्रभादेवी स्टेशन पर खींची...मुझे अपनी 100 खींची हुई फोटो में से 1-2 ही पसंद आती हैं...उन्हीं को शेयर करने की इच्छा होती है ...वरना गैलरी में हज़ारों तस्वीरें ठूंसी पड़ी हैं...लॉक-डाउन के दौरान भी मैं लोकल-गाडि़यों से ही चलता था ...इसलिए उन सभी लम्हों को - स्टेशनों को, खाली लोकल ट्रेनों को, मुंबई के फुटपाथों-गलियों को मेरे कैमरे ने सहेजने में मेरी बहुत मदद की ....

वैसे भी फोटो खींचने के लिए कोई बहुत ज़्यादा महंगा कैमरा खरीदने की ज़रूरत नहीं होती ...मॉस कम्यूनिकेशन पढ़ते हुए इस का ज्ञान तब हुआ जब हमारे एक प्रोफैसर ने कह दिया कि दुनिया का सब से नफ़ीस कैमरा वह होता है जो आप के हाथ में है ...बात है भी तो बिल्कुल सही ...बात तो जैसे भी उस लम्हे को कैद करने की है ....उसे आई फोन से किया जाए....तो बढ़िया है ...लेकिन अगर जेब में 600 रूपये वाला चाइनीज़ फोन ही है तो भी बढ़िया है ...यह बात हम लोगों ने अच्छे से पल्ले बांध ली। 

लिखते लिखते यह ध्यान आ रहा है कि हम लोग तो उस दौर से तालुक्क रखते हैं जब शादी की एक एल्बम बनती थी 100-150 फोटो की ...अपनी अपनी हैसियत के मुताबिक ...इस में कोई किसी से नुक्ताचीनी नहीं करता था...कज़िन की शादी हुई थी 1968 में ...यहीं पांच छः बरस का रहा हूंगा...मुझे याद है शादी के बाद जब हम लोग कुछ महीने बाद वापिस ताऊ जी के यहां गए तो उस एल्बम को देखने के लिए जो तांता लगता था ...वह तांता उस के बरसों बाद चलन में आने वाली शादी की वीडियो या रामायण-महाभारत के धारावाहिक के वक्त जैसा ही जान पड़ता था...

याद आ रहा है कि उस एल्बम को हम लोग कैसे एक दुसरे के ऊपर चढ़ कर देखा करते थे ...लेकिन जब तक सभी की समझ में सभी तस्वीरें नहीं आ जाती थीं तो मज़ाल है कि उस एल्बम के पन्ने को परता जाए। यह कौन है, वह कौन है, यह क्यों इतना चुप सा है, वह देख कितना अच्छा नाच रही है, चंचल ने ढोलकी कितनी अच्छी बजाई थी, चाचा भी कैसे दारू पी कर आउट हो कर यबलियां मारने लगा था ...सब कुछ कैद होता था ...और एक मज़े की बात उन दिनों इन्हीं एल्बम से अपने अपने मतलब की कोई एक फोटो चुपके से उतार कर रख लेने का भी रिवाज़ था ..मैं किसी को क्या कहूं ...मैने ख़ुद अपनी मौसी की शादी (1971) की एल्बम से एक फोटो उड़ाने का जुगाड़ किया था ... तो ऐसा था हम लोगों का बचपन... और ऐसी थी उस दौरान खींची तस्वीरों की अहमियत। 

और हां, वापिस बंबई आते हैं, लोकल स्टेशन पर ...मैं अभी गैलरी में देख रहा था तो पिछले साल 4 अक्टूबर की भी एक तस्वीर दिख गई ...देखिए, कैसी डरा देने वाली वीरानगी बिछी हुई है स्टाल पर ....क्योंकि इसी हालात में पड़े पड़े एक साल पहले भी 6-7 महीने हो चुके थे ...इसलिए जो टाट इस के आगे लगा हुआ है...वह भी तार-तार हो चुका है...

मुंबई का एक लोकल स्टेशन...4 अक्टूबर, 2020 (एक बरस पहले) ..सभी स्टेशनों पर ऐसा ही मंज़र था...

अच्छा तो दोस्तो, बस कल लोकल स्टेशन पर खाते-पीते लोग देख कर बहुत अच्छा लगा ....मुझे अपनी खींची हुई तस्वीरों को देखते वक्त कुछ मेरे ज़माने के फिल्मी गीत भी ज़रूर याद आ जाते हैं.....लीजिए, आप भी सुनिए...और मस्त हो जाइए...

कुछ यादें यहां भी सहेज रखी हैं.....मुंबई की लोकल ट्रेन में एक सफर