शनिवार, 31 मई 2008

आज है विश्व तंबाकू निषेध दिवस....मुझे कौन बतायेगा ये आंकड़े !!


आज सुबह अखबार में एक इश्तिहार देखा है जिस का शीर्षक है....तंबाकू मुक्त युवा। इस के नीचे विभिन्न प्रकार के कानूनों की लिस्ट दी गई थी, जिन को मैं यहां बतलाना ज़रूरी समझता हूं।

तंबाकू बेचने वाली कोई भी दुकान/प्रतिष्ठान को “ अठारह साल से कम आयु वाले व्यक्ति को तंबाकू बेचना एक दंडनीय अपराध है” का चेतावनी बोर्ड अवश्य प्रदर्शित/लगाना होगा। संदेह होने की सूरत में, दुकानदार से आयु का पता लगाने के लिए आयु प्रमाण की मांग कर सकता है।यह पढ़ कर मुझे बहुत हंसी आई। मैं तो केवल इतना पूछना चाह रहा हूं कि क्या कोई मुझे इस से संबंधित आंकड़े बताने का कष्ट करेगा कि इस कानून के अंतर्गत अभी तक देश में कितने बीड़ी-सिगरेट वालों को बुक किया गया है। मुझे ये आंकड़े जानने की बेहद उत्सुकता हो रही है। क्या आप इस संबंध में मेरी मदद कर सकते हैं ? फिलहाल तो अगर किसी पनवाड़ी को भी इस कानून का उल्लंघन करने के लिये इस के अंतर्गत अभी तक नहीं लपेटा गया है तो इस का मतलब तो यही हुया ना कि सारे देश में सभी बीड़ी-सिगरेट वाले इस का सख्ती से पालन कर रहे हैं....लेकिन इस बात को पचाने के लिये मुझे आप को मुझे हाजमोला की दो डिब्बीयां पार्सल करनी होंगी।

दूसरी पंक्ति भी क्या पेट दर्द से बिलख रहे किसी रोते हुये बालक को भी को खिलखिला कर हंसाने में क्या कम है....संदेह होने पर दुकानदार आयु का प्रमाण-पत्र मांग सकता है। चलिये शुक्र है कानून में यह तो नहीं कहा गया कि यह प्रमाण-पत्र दुकानदारों को अगले पांच वर्ष तक संभाल कर रखने होंगे.....इन की कभी भी इलाके का दारोगा जांच कर सकता है। लेकिन दुकानदार को भी इस तरह की शक्तियां दी गईं हैं...शायद उसे इस बात का अभी तक आभास नहीं है, नहीं तो दुकानदार ने अभी तक इस तरह के प्रमाण के आभाव में ज़्यादा मोल लेकर बीड़ी-सिगरेट बेचनी शुरू कर दी होतीं। लेकिन यह पता नहीं कि रोज़ाना इस तरह के उत्पाद खरीदने वाले कैसे इस तरह के उम्र के प्रूफ़ को हमेशा अपने साथ ले कर चलेंगे। तो, आप ही कुछ सुझाव दे दीजिये।

दूसरा नियम कह रहा था ....शैक्षणिक संस्थानों को भी शैक्षणिक संस्थान से सौ गज की परिधि के भीतर क्षेत्र में सिगरेट और अन्य तंबाकू वस्तुओं की बिक्री करना निषेध है तथा एक अपराध है ”..लिखित चेतावनी बोर्ड अवश्य प्रदर्शित/ लगाना होगा।
इस के बारे में काश मुझे कहीं से आंकड़े मिल जायें कि इस नियम के उल्लंघन के लिये कितने लोगों को अब तक इस अपराध के अंतर्गत पकड़ा गया है।

किसी भी सार्वजनिक स्थल में सिगरेट/बीड़ी पीना अथवा किसी भी रूप में तंबाकू का प्रयोग करना अपराध है।अब इस के बारे में मैं क्या कहूं....आप मुझ से ज़्यादा इन सार्वजनिक स्थलों पर घूमते हैं....तो इन जगहों पर धूम्रपान की क्या हालत है, यह तो आप ही बता सकते हैं। मैं तो भई हास्पीटल से घर लौटने के बाद बस घर में ही टिका रहता हूं !!

सभी चेतावनी बोर्डों का न्यूनतम आकार 30X60सैं.मी. होना चाहिए। चेतावनी बोर्ड पर निर्धारित भाषा में किसी भी प्रकार का परिवर्तन करना अपराध माना जाएगा। सभी सार्वजनिक कार्यालयों/क्षेत्रों/ होटलों/ रेस्टोरेंटों को “धूम्रपान निषेध क्षेत्र –यहां पर धूम्रपान करना अपराध है ” लिखित दो बोर्ड प्रदर्शित/लगाने होंगे।इतना कुछ पढ़ने के बाद भी क्या मेरे कुछ कहने की गुंजाइश बचती है क्या !! …पता नहीं मुझे इस तरह के बोर्ड अकसर क्यों नहीं दिखते...लगता है कि आंखें फिर से टैस्ट करवा ही लूं।

कोई भी व्यक्ति किसी भी तंबाकू उत्पादन या ब्रांड का विज्ञापन अथवा किसी भी प्रत्य़क्ष या अप्रत्यक्ष विज्ञापन में भाग नहीं ले सकता है। उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को 5 वर्ष तक सजा हो सकती है।इस के बारे में तो बस इतना ही जानना चाहता हूं कि जब से यह कानून बना है इस नें कितने उल्लंघन करने वालों को अपनी चपेट में लिया है। ठीक है, अगर किसी को भी सजा नहीं हुई है तो सीधा सीधा मतलब यही हुया ना कि अभी तक किसी भी बंदे ने इस कानून का उल्लंघन नहीं किया है। वाह..भई ...वाह....यह जान कर तो बहुत ही खुशी होगी।

इतने सारे कानूनों की जानकारी के बाद सार्वजनिक स्थल/जगह की परिभाषा दी गई थी....सात-आठ वाक्यों की इस परिभाषा को सुना कर मैं आप को उलझाना नहीं चाहता हूं।
तो, आगे चलते हैं....यह उस अखबार में दिखे इश्तिहार का आखिरी पैराग्राफ है जिस का शीर्षक है....कहां पर व्यक्ति धूम्रपान कर सकता है ?.......सात-आठ पंक्तियां इस के बारे में भी लिखी गई हैं...और सब से आखिरी पंक्ति में लिखा गया है....मगर खुले क्षेत्र में सिगरेट का टुकड़ा फेंकना या तंबाकू थूकना अपराध है।
( आप भी मेरी तरह इसी सोच में पड़ गये कि अगर सिगरेट के टुकड़े फेंकना और तंबाकू थूकना अपराध है तो हर शहर में हज़ारों जेलें चाहियें जहां पर इन अपराधियों को कैदे-बा-मुशक्कत की सजा दे कर बंद किया जा सका। अगर वे भी कम पड़ जायें तो इस अपराध के लिये हाउस-अरैस्ट की व्यवस्था शुरू कर दी जाये.....)।

आज विश्व स्वास्थ्य दिवस पर एक बहुत अजीब सी बात और भी दिखी ....एक इंश्योरैंस कंपनी का इन्वैस्टमैंट फार्म भर रहा था तो नीचे एक क्लाज़ पर नज़र अटक गई.......
मैं घोषणा करता हूं कि मैंने पिछले 12 महीनों में तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन नहीं किया है.....( धूम्रपान, तंबाकू चबाना आदि के रूप में) ...और भविष्य में भी तंबाकू का इस्तेमाल करने की कोई चाह नहीं रखता हूं। मैं जानता हूं कि अगर मेरी यह तंबाकू वाली घोषणा गलत निकलती है तो मेरा कंपनी के साथ किया गया करार निरस्त हो जायेगा और मेरा इंश्योरेंस कवर खत्म कर दिया जायेगा ”

अच्छा चलिये पोस्ट समाप्त करने से पहले एक विज्ञापन की याद दिलाता हूं....आप को याद है सर्फ वगैरा की किसी एड में दो छोटे छोटे प्यारे से बच्चे दिखते हैं.....जो कीचड़ से अपने कपड़े खराब करते हुये खूब मस्ती करते हैं और बाद में हंसते हुये कहते हैं.........दाग अच्छे हैं!!
तो , उसी तर्ज़ पर मुझे भी तंबाकू के लिये विभिन्न कानूनों को याद करते हुये एक ही बात कहने की इच्छा हो रही है ......कानून अच्छे हैं, लेकिन..................??

शुक्रवार, 30 मई 2008

आज तो ठंडी आइसक्रीम हो ही जाये !


आज के लेख के इस शीर्षक का राज़ यह है कि अगर हम ठंडी आइसक्रीम की बात छेड़ते हैं तो बहुत से बंधु अपने दांतों में इस आइसक्रीम की वजह से उठी सिहरन का दुःखडा लेकर बैठ जायेंगे और मेरे को दांतों में ठंडे-गर्म वाले टॉपिक को छेड़ने का बहाना मिल जायेगा।

कल मैंने दांतों के स्वास्थ्य के बारे में एक पोस्ट लिखी थी जिस पर मुझे तो तीन-चार ऐसी टिप्पणी प्राप्त हुईं हैं, जिन पर मैं अलग से एक-एक पोस्ट लिखूंगा। एक टिप्पणी में यह चिंता जताई गई है कि क्वालीफाईड डैंटिस्ट भी असकर ग्लवज़ नहीं पहनते, मास्क नहीं लगाते इत्यादि.......इस के बारे में मैं जो पोस्ट लिखूंगा वह मेरी अपनी ही आपबीती पर आधारित होगी और रोंगटे खड़े करने वाली होगी.....शास्त्री जी से मेरा अनुरोध है कि जहां कहीं भी क्वालीफाईड डैंटिस्ट को बिना ग्लवज़ के देखें तो उन्हें मेरी उस पोस्ट की एक कापी थमा दें, वे ग्लवज़ पहनना शुरू कर देंगे। दूसरी टिप्पणी थी कि टुथपेस्ट कौन सी करें..कौन सी ना करें...बड़ी दुविधा सी रहती है, सो मैं इस का भी समाधान एक पोस्ट में करूंगा। एक टिप्पणी में यह चिंता जताई गई है कि यह जो सिल्वर दांतों में भरी जाती है उस से पारा निकलता रहता है जो हमारे शरीर के लिये क्या खतरनाक है....यह विषय भी इतना अहम् है कि इस पर एक पोस्ट लिखने के बगैर बात बनेगी नहीं।

आज तो मैंने दांतो पर ठंडा-गर्म लगने के बारे में बात करने का विचार किया है। शायद मैंने पहले भी बताया था कि एनसीईआरटी के पास मेरी एक किताब की पांडुलिपि पड़ी हुई है.....सो, पहले तो ध्यान आया कि उस में से ही दांतों के ठंडे-गर्म वाला अध्याय यहां इस पोस्ट में चेप देता हूं....लेकिन मन माना नहीं। यही सोचा कि यार वो पांडुलिपि को तो लिखे दो साल से भी ज़्यादा का समय हो गया है...और वैसे भी इधर ब्लागिंग पर तो बेहद खुलेपन से लिखना होता , लिखना क्या.....अपने बंधुओं से बातें ही करनी होती हैं, तो यहां तो सब कुछ ताज़ा तरीन ही चलता है।

तो चलिये दांतों में लगने वाले ठंडे-गर्म की बात करते हैं। यकीन मानियेगा कि यह दांतों की एक इतनी आम समस्या है कि इस की वजह से दवाईयों से युक्त टुथपेस्टों के कईं विक्रेताओं की जीविका जुड़ी हुई है।

वैसे मुझे याद आ रहा है कि बचपन में जब हम लोग इमली खाते थे ( जी हां, नमक के साथ!)…तो दांत बहुत किटकिटाने से लग जाते थे। और हां, स्कूल में जो कागज़ के टुकड़े पर पांच-दस पैसे का बेहद खट्टा चूर्ण बिकता था, उसे खाने के बाद भी तो दांतों का कुछ ऐसा ही हाल हुया करता था। लेकिन तब हमें इन सब बातों की परवाह कहां थी.....दोपहर तक घर आते आते दांत तो ठीक लगने लगते थे लेकिन गला बैठने लगता था ......लेकिन गले बैठने का भी इतना दुःख नहीं होता था जितना इस बात का डर लगता था कि एक बार फिर पापा ने हमारे चूर्ण खाने वाली चोरी पकड़ लेनी है....क्योंकि अगली सुबह तक गला बंद हो जाया करता था , बुखार हो जाया करता था और थूक निगलने में बेहद तकलीफ। पता नहीं उस चूर्ण में क्या डाला गया होता था।

लेकिन वापिस अपने टॉपिक पर ही आते हैं.....तो क्या आप को भी कईं बार आइसक्रीम खाते खाते अचानक दांतों पर बहुत ठंड़ी सी लगी है........क्या कहा....हां..............कोई बात नहीं, इस में कोई बड़ी बात नहीं है, यह तकलीफ़ अकसर सभी को कभी-कभार होती ही है ।

मुझे लग रहा है कि सब से पहले मुझे इस ठंडा-गर्म लगने के कारण की तरफ बात को लेकर जाना होगा। तो, सुनिये होता यह है कि दांतों के क्राउन ( दांत का वह भाग जो हमें मुंह में नज़र आता है ) की तीन परतें होती हैं.....( वैसे होती तो दांत की जड़ की भी तीन परते ही हैं...लेकिन यहां हम खास बात दांत के ऊपरी हिस्से की ही कर रहे हैं ).....हां, तो क्राउन का बाहर वाला हिस्सा होता है इनेमल....उस के अंदर का भाग जो संवेदनशील होता है उसे डैंटीन कहते हैं और उस के अंदर दांत की नस व रक्त की नाड़ियां होती हैं.....तो होता यूं है कि अगर किसी भी कारण वश क्राउन की बाहरी परत इनैमल क्षतिग्रस्त हो जाती है ...घिस जाती है (उसके क्या कारण हो सकते हैं, इन्हें हम अभी देखते हैं).....तो जो कुछ हम खाते हैं....ठंडा, मीठा, खट्टा आदि ......ये पदार्थ दांत की दूसरी परत के संपर्क में आने की वजह से एक सिहरन सी पैदा करते हैं....यह तो हुई बेसिक सी बात।

अब देखते हैं कि वे कारण कौन से हैं जिस की वजह से दांतों के बाहर की इतनी मजबूत परत इनैमल घिस जाती है.....कट जाती है....क्षतिग्रस्त हो जाती है.......

दांतों को ब्रुश करने में और बूट-पालिश करने में कुछ तो अंतर होगा !..........

दांतों की बाहरी परत इनैमल के क्षतिग्रस्त होने का सब से महत्वपूर्ण कारण यही है कि अकसर लोग ब्रुश एवं दातुन को गलत ढंग से दांतों पर रगड़ते हैं जिस की वजह से यह इनैमल की परत नष्ट हो जाती है और एक बार यह कट जाये और ऊपर से टुथ-ब्रशिंग की शू-शाईन वाली गलत टैक्नीक लगातार चलती रहे ..तो फिर यह इनैमल का कटाव चलता ही रहता है जब तक कि यह कटाव इतना ही न हो जाये कि अंदर से दांत की नस ही एक्सपोज़ हो जाये.....यह बहुत दर्दनाक स्थिति होती है।

तो, इस तरह की स्थिति का इलाज यही है कि अगर दांतों में ठंडा गर्म लग रहा है तो तुरंत दंत-चिकित्सक को मिलिये.......ताकि आप को सही ढँग से ब्रुश करने की बातें भी पता चलें और जो दांतों पर इनैमल का कटाव हो चुका है उस का भी उचित फिलिंग के द्वारा इलाज किया जा सके।

यहां यह बात समझनी बहुत ज़रूरी है कि केवल फिलिंग ही इस का समाधान नहीं है क्योंकि अगर ब्रुश इस्तेमाल करने का अपना ढंग न ठीक किया गया तो यह कटाव वापिस हो जाता है...फिलिंग कोई इनैमल से ज़्यादा मजबूत थोड़े ही होती है।

खुरदरे मंजन भी इनैमल को घिसा देते हैं.........

बहुत से मंजन लोग बाज़ार से लेकर दांतों पर घिसने चालू कर देते हैं जिस की वजह से इनैमल घिस जाता है क्योंकि इस में खुरदरे तत्व मिले रहते हैं और कईं पावडरों में तो गेरू-मिट्टी मिली रहती है जिस की वजह से दांतों का घिसना तय ही है।

तो अगर दांतों में ठंडा-गर्म इस खुरदरे मंजन की वजह से है तो मरीज को तुरंत उस मंजन का इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है और साथ में यह भी ज़रूर याद दिलाया जाता है कि आप ने तो उस मंजन को इस्तेमाल करना नहीं , घर के किसी परिवार को भी इस से दांत घिसने से रोकें...............इस से पहले की मेरे मरीज़ अपनी अकल के घोड़े दौड़ाने लगें कि खुद करना नहीं...घर के दूसरे सदस्यों को छूने देना नहीं....तो फिर परसों ही बस-अड्ड़े के बाहर बैठे बाबा भूतनाथ से जो पच्चीस रूपये की 250ग्राम की डिब्बी खरीद कर लाये हैं...उस का क्या करें.............मैं उन्हें तुरंत कह देता हूं कि उसे आप उस के ठीक ठिकाने पर पहुंचा दें........कहां ?.............नाली में, और कहां !!

पायरिया रोग में भी यह ठंडा-गर्म तंग करता है ......

जिन लोगों को पायरिया की वजह से यह दांतों में ठंडा-गर्म लगने की शिकायत होती है, ये लोग अकसर किसी डैंटिस्ट के पास जाने की बजाये बाज़ार से महंगी महंगी पेस्टें खरीद कर दांतों पर लगानी शुरू कर देते हैं.....लेकिन उस का रिजल्ट ज़ीरो ही निकलता है......ज़ीरो से भी आगे माइनस में ही निकलता है क्योंकि ये पेस्टें इन के इन लक्षणों को बहुत टैंपरेरी तौर पर दबा देती हैं ....और नीचे ही नीचे पायरिया की बीमारी बढ़ती ही जाती है । लेकिन अगर कोई डैंटिस्ट आप को इस तरह की दवाई-युक्त पेस्ट कुछ समय के लिये इस्तेमाल करने की सलाह देता है तो उसे आप अवश्य इस्तेमाल करें।

तो, पायरिया के रोग के लिये तो डैंटिस्ट से मिल कर इस का समाधान ढूंढना ही होगा, वरना इन महंगी ठंडे-गर्म वाली पेस्टों के चक्कर में पड़ कर अपना टाईम खराब करने वाली बात तो है ही....साथ में रोग को बढ़ावा भी मिलता है।

इस लेख में बातें तो बहुत ही विस्तार में की जा सकती हैं लेकिन इस की भी अपनी लिमिटेशन्ज़ हैं.....तो सारांश में इतना ही कहता हूं कि दांतों में ठंडे-गर्म को लगने को कभी भी इतना लाइटली न लें क्योंकि इस के परिणाम गंभीर हो सकते हैं जैसा कि हम ने अभी अभी देखा है। क्योंकि इस के बीसियों कारण हैं...जब कोई क्वालीफाईड डैंटिस्ट आप की हिस्ट्री ले रहा होता है तो वह ये सब बातें नोट करता रहता है कि यह समस्या किसी एक विशेष दांत में है या मुंह के एक तरफ ही है या मुंह के दोनों तरफ ही है या सभी दांतों में एक साथ ही होती है................और फिर वह दांतों का क्लीनिकल परीक्षण कर के और कभी कभी एक्स-रे करने के बाद ही सही डायग्नोसिस कर पाता है और उस के अनुसार ही समाधान बताता है। तो, इस तरह की समस्या अगर हो तो, अपने आप महंगी पेस्टें जो ठंडा-गर्म ठीक करने का दावा करती नहीं थकतीं.....इस्तेमाल मत करिये ....इस से कुछ नहीं होगा......केवल आप को एक सुरक्षा का गल्त सा अहसास होने के कारण आप का दुःख बढ़ जायेगा.....आप तो बस केवल डैंटिस्ट से तुरंत मिल लीजिये। वैसे उस से भी पहले अगर आप मेरे को ई-मेल करके अपनी किसी भी शंका का समाधान करना चाहें तो आप का स्वागत है।

एक बात और भी कहनी बहुत ज़रूरी है कि अकसर लोग अपने दांतों की स्केलिंग इसी डर की वजह से नहीं करवाते कि इस के बाद उन्हें दांतों पर ठंडा-गर्म लगना शुरू हो जायेगा....लेकिन यह एक गलत धारणा है ....हो सकता है कि कुछ दिनों तक बिलकुल टैंपरेरी तौर पर आप को थोड़ी असुविधा हो, लेकिन उस का भी समाधान डैंटिस्ट आप को बता ही देते हैं।

मुझे लगता है कि मैंने इतनी लंबी पोस्ट लिख कर भी इस ठंडे-गर्म की समस्या के मुख्य बिंदुओं को ही छुया है , लेकिन अगर आप किसी बिंदु पर विस्तृत बातें सुनना चाहें तो मुझे टिप्पणी में ज़रूर कहिये।

जाते जाते सोच रहा हूं कि अपनी पोस्टों में मुझे क्लीनिकल फोटो भी डालनी चाहिये....सो, फिलहाल इस का कारण यही है कि मैं फोटोग्राफी में टैक्नीकली इतना साउंड नहीं हूं......आज सुबह भी हास्पीटल में अपना डिजीटल कैमरा साथ ही ले गया ....एक मरीज़ को बिलकुल क्षतिग्रस्त दांत उखाड़ने से पहले फोटो लेने की कोशिश की ...क्लिक भी किया....लेकिन स्क्रीन पर आ गया....मैमरी फुल.....सो, चुपचाप कैमरे को कवर में यह सोच कर डाल लिया कि अब इस के बारे में जानकारी बेटे से हासिल करनी ही होगी.............लेकिन कब?..................जब उसे इस IPL के मैचों से फुर्सत मिलेगी, तब !!

गुरुवार, 29 मई 2008

दांतों का इलाज करवाते करवाते कहीं लेने के देने ही न पड़ जायें !!


इस लेख की शुरूआत तो यहीं से करना चाहूंगा कि अगर आप अपने और अपनों के दांतों की सलामती चाहते हैं ना तो कृपया आप कभी भी ये नीम-हकीम टाइप के दंत-चिकित्सकों के ज़ाल में भूल कर भी न पड़ियेगा। नीम-हकीम टाइप के दंत-चिकित्सकों का नाम सुन कर आप नाक-भौंह इसलिये तो नहीं सिकोड़ रहे कि अब हमें यह भी किसी से सीखना होगा कि नीम-हकीम टाइप के दंत-चिकित्सकों के पास नहीं जाना है....इन झोला-छाप दंत-चिकित्सकों का क्या है, इन का तो बहुत दूर से ही पता चल जाता है....क्योंकि ये अकसर बस-अड्डों एवं पुलों आदि पर ज़मीन पर अपनी दुकान लगाये हुये मिल जाते हैं या तो अजीब से खोखे से अपने हुनर की करामात दिखाते रहते हैं।

हमारे देश में समस्या यही है कि इतने सारे कानून होने के बावजूद भी बहुत से जैसे नीम-हकीम डाक्टर फल-फूल रहे हैं। नहीं, नहीं, मुझे कोई ईर्ष्या वगैरह इन से नहीं है.....और इस का कोई कारण भी तो नहीं है। अकसर आप में से कईं लोग ऐसे होंगे जो दंत-चिकित्सक की डिग्री की तरफ़ ज़्यादा गौर नहीं फरमाते.....बस, बोर्ड पर दंत-चिकित्सक लिखा होना ही काफी समझ लेते हैं। और हां, बस अपने परिवार के किसी बड़े-बुजुर्ग द्वारा की गई उस दंत-चिकित्सक की तारीफ़ उन के लिये काफी है- इन डिग्रीयों-विग्रियों की बिल्कुल भी परवाह न करने के लिये।

शायद आप में से भी कईं लोग अभी भी ऐसे होंगे जो ये सोच रहे होंगे कि देखो, डाक्टर, हम ज़्यादा बातें तो जानते नहीं ....हमें तो देख भाई इतना पता है कि अपने वाला खानदानी दंत-चिकित्सक दांत इतना बढ़िया निकालता है कि क्या कहें.....ऊपर से जुबान का इतना मीठा है कि हम तो भई उस को छोड़ कर किसी दूसरे के पास जाने की सोच भी नहीं सकते। और इस के साथ साथ महंगी महंगा दवाईयां बाज़ार से भी खरीदने का कोई झंझट ही नहीं, सब कुछ अपने पास से ही दे देता है......और इतना सब कुछ करने का लेता भी कितना है......डाक्टर चोपड़ा, तुम सुनोगे तो हंसोगे..... केवल तीस रूपये !!

आप की इतनी बात सुन कर भी मेरे को बस इतना ही कहना है कि जो भी हो, आप किसी भी डाक्टर के पास जायें तो यह ज़रूर ध्यान रखा करें कि वह क्वालीफाइड हो....उस की डिग्री-विग्री की तरफ़ ध्यान अवश्य दे दिया करें....और यह भी ज़रा उस के पैड इत्यादि पर देख लिया करें कि क्या वह भारतीय दंत परिषद के साथ अथवा किसी राज्य की दंत-परिषद के साथ रजिस्टर्ड भी है अथवा नहीं।

मेरा इतन लंबी रामायण पढ़ने के पीछे एक ही मकसद है कि मैं रोज़ाना बहुत से मरीज़ देखता हूं जिन के दांतों की दुर्गति के लिये ये नीम-हकीम दंत-चिकित्सक ही जिम्मेदार होते हैं। पता नहीं पिछले दो-तीन से इच्छा हो रही थी कि आप से इस के बारे में थोड़ी चर्चा करूं कि आखिर ये नीम-हकीम दंत-चिकित्सक कैसे आप की सेहत के साथ खिलवाड़ कर सकते हैं......

साफ़-सफाई को तो भूल ही जायें...........

इन के यहां किसी भी तरह की औज़ारों इत्यादि की सफाई का ध्यान नहीं रखा जाता। मुझे पता नहीं यह सब इतने सालों से कैसे चला आ रहा है। कम से कम आज की तारीख में तो एचआईव्ही एवं हैपेटाइटिस बी जैसी खतरनाक बीमारियों की वजह से तो इन के पास जा कर दांतों का इलाज करवाना अपने पैर पर कुल्हाडी ही नहीं, कईं कईं कुल्हाडे इक्ट्ठे मारने के समान है। पहले लोगों में इतनी अवेयरनैस थी नहीं ....बीमारियों तो तब भी इन के पास जाने से इन के दूषित औज़ारों से फैलती ही होंगी....लेकिन लोग समझते नहीं थे कि इन बीमारियों का स्रोत इन नीम-हकीम डाक्टरों की दुकाने( दुकानें ही करते हैं ये !)….ही हैं।

पता नहीं किस तरह की सूईंयों का, टीकों का , दवाईयों का इस्तेमाल ये भलेमानुष करते हैं ...कोई पता नहीं।

लिखते लिखते मुझे यह बात याद आ रही है कि कहीं आप यह तो नहीं समझ रहे कि ये झोला-छाप दंत-चिकित्सकों की समस्या कहीं और की ही होगी.....अपने शहर में तो ऐसी कोई बात नहीं है। यकीन मानिये , यह आप की खुशफहमी हो सकती है......देखिये मुझे भी यह बात हज़म सी नहीं हुई ....खट्टी डकारें आने लगी हैं।

मुझे याद है जब हम लोग अपने ननिहाल जाया करते थे तो अकसर मेरी नानी जी ऐसे ही नीम-हकीम डाक्टर बनारसी की बहुत तारीफ़ किया करती थी.....बनारसी आरएमपी भी था और दांत-वांत भी उखाड़ दिया करता था। नानी सुनाया करती थीं कि पता नहीं दांत पर क्या छिड़कता है कि दांत अपने आप तुरंत बाहर आने को हो जाता है। बाद में जब हम लोग नीम-हकीमों के इन पैंतरों को जान रहे थे तो यह जाना कि यह पावडर आरसैनिक जैसा हुया करता होगा.....जिस के परिणाम-स्वरूप मुंह में कैंसर के भी बहुत केस होते थे।

दांत को गलत तरीके से भरना---

एक करामात ये झोला-छाप डैंटिस्ट यह भी करते हैं कि जिन दांतों को नहीं भी भरना होता, उन को भी ये भर देते हैं.....इन्हें केवल अपने पचास-साठ रूपये से मतलब होता है....भाड़ में जाये मरीज़ और भाड़ में जायें उन के दांत...। वैसे इस के लिये मरीज़ स्वयं जिम्मेदार है...क्योंकि जब कोई क्वालीफाइड दंत-चिकित्सक इन को पूरी ट्रीटमैंट-प्लानिंग समझाता है तो ये कईं कारणों की वजह से दोबारा उस के क्लीनिक का मुंह नहीं करते ( वैसे इन कारणों के बारे में भी कईं पोस्टों लिखी जा सकती हैं। ).....और फंस जाते हैं इन नीम-हकीम के चक्करों में।

और दूसरी बात यह भी देखिये कि ये नीम-हकीम लांग-टर्म इलाज के बारे में तो सोचते नहीं हैं.....वैसे मरीज़ों की भी तो यादाश्त कुछ ज़्यादा बढ़िया होती नहीं....अगर इस तरह के गलत तरीके से भरे हुये दांत दो-तीन महीने भी चल जायें...तो अकसर मैंने लोगों को कहते सुना है कि क्या फर्क पड़ता है...पचास रूपये में तीन महीने निकल गये.....डाक्टर ने तो भई पूरी कोशिश की...इस के आगे वह करे भी तो क्या........। इस तरह की सोच रखने वाले मरीज़ों के लिये मेरे पास कहने को कुछ नहीं है। लेकिन इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि दो-तीन महीने तो निकल गये...लेकिन इस गलत फिलिंग ने आस-पास के स्वस्थ दांतों की सेहत पर क्या कहर बरपाया...........यह मरीज़ों को कभी पता लग ही नहीं सकता ।

मेरी मानें तो किसी झोला-छाप दंत-चिकित्सक के पास जाने से तो यही बेहतर होगा कि कोई बंदा अपना इलाज करवाये ही न....यह मैं बहुत सोच समझ कर लिख रहा हूं...क्योंकि देश में बहुत से लोग हैं जो ये कहते हैं कि इन के पास ना जायें तो करें क्या, क्वालीफाईड डाक्टरों के क्लीनिकों पर चढ़ने की हम लोगों में तो भई हिम्मत है नहीं...कहां से लायें ढेरों पैसे.............बात है तो सोचने वाली ....लेकिन फिर भी अगर क्वालीफाइड के पास जाने में किसी भी तरह से असमर्थ हैं तो कम से कम इन नीम-हकीम दांत के डाक्टरों के चक्कर में तो मत फंसिये।

ये कैसे फिक्स दांत हैं भाई...................

अकसर नीम हकीमों के लगाये हुये फिक्स दांत देखता रहता हूं.....बस, बेचारे मरीज़ों की किस्मत ही अच्छी होती होगी......कि मुंह के कैंसर से बाल-बाल बच जाते हैं । कईं बार तो मैं भी जब इन अजीबो-गरीब फिक्स दांतों को मरीज के हित में निकालता हूं तो मुझे भी नहीं पता होता कि यह आस-पास का मास इतना अजीब सा क्यों बढ़ा हुया है......इसलिये मैं इन मरीजों को एक-दो सप्ताह बाद वापिस चैक अप करवाने के लिये ज़रूर बुलाता हूं।

होता यूं है कि ये नीम-हकीम जब कोई नकली दांत फिक्स करते हैं तो इन नकली दांतों की तारों को असली दांतों से बांध कर कुछ अजीब सा मसाला इस तार के ऊपर इस तरह से लगा देते हैं कि मरीज को लगता है कि इस ने तो 200रूपये में मेरे आगे के तीन दांत फिक्स ही लगा दिये ....कहां वह दूसरा डाक्टर 1500 रूपये का खर्च बता रहा था। लेकिन जो वह क्वालीफाईड डाक्टर फिक्स दांत लगाता है और जो यह नीम-हकीम फिक्स दांत लगाता है.....इन दोनों फिक्स दांतों में कम से कम ज़मीन आसमान का तो फर्क होता ही है, इतना फर्क तो कम से कम है....इस से ज्यादा ही होता होगा। ऐसा इसलिये होता है कि क्वालीफाईड डाक्टर ने पूरे पांच साल जो ट्रेनिंग की तपस्या की होती है..उस के ज्यादातर हिस्से में उसे मरीज़ के टिशूज़ की इज़्जत करनी ही सिखाई जाती है.......उसे सिखाया जाता है कि कैसे अपने पास आये हुये मरीज़ को कोई बीमारी साथ में बिना वजह पार्सल कर के नहीं देनी है, उसे उस की सीमायों से रू-ब-रू करवाया जाता है कि इन सीमायों को लांघने पर कौन सी खतरे की घंटियां बजती हैं........वगैरह..वगैरह...वगैरह।

नीम-हकीमों के द्वारा लगाये गये फिक्स दांतो के बारे में तो इतना ही कहूंगा कि ये तो आस पास के असली स्वच्छ दांतों को भी हिला कर ही दम लेते हैं। और तरह तरह के घाव जो मुंह में उत्पन्न करते हैं , वह अलग।

लिखने को तो इतना कुछ है कि क्या कहूं...।लेकिन अब यहीं पर विराम लेता हूं.........मुंह एवं दांतों की बीमारियों के बारे में कुछ 101प्रतिशत सच सुनना चाहते हों....तो मुझे लिखिये............चाहे टिप्पणी में अथवा ई-मेल करें।

रविवार, 25 मई 2008

मिलावटी खाद्य -पदार्थों की जांच कैसे हो पायेगी सुगम !!

आप किसी भी क्षेत्र की तरफ़ नज़र दौड़ा कर देख लीजिये....तरक्की तो खूब हुई है। डेयरी इंडस्ट्री को ही देख लें.....बड़े बड़े संस्थान खुल गये, बहुत से लोग पीएचडी कर के आस्ट्रेलिया में डालरों से खेल रहे हैं, लेकिन जितनी भी रिसर्च हुई है क्या आप को लगता है कि उस का लाभ एक आम भारतीय को भी हुया है। पहले तो वह गवाले की दूध में पानी मिलाने की आदत से ही परेशान था....अब तो उसे पता ही नहीं है कि दूध के रूप में उसे क्या क्या पिलाया जा रहा है।

अभी अभी मैं सिंथैटिक दूध के बारे में नेट पर ही कुछ पढ़ रहा था, तो यकीन मानिये इस का वर्णन पढ़ कर कोई भी कांप उठे। इसीलिये मैं सोच रहा था कि देश में विभिन्न क्षेत्रों में तरक्की तो खूब हुई लेकिन आम आदमी की तो पतली हालत की तरफ ध्यान कीजिये कि उसे यह भी नहीं पता कि वह जिस खाद्य पदार्थ का सेवन कर रहा है वह असली है या नकली ....अगर नकली भी है या मिलावटी भी है तो इस के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले ऐसे पदार्थ तो नहीं हैं जिन से उस की जान पर ही बन आये।

अभी मैं जब सिंथैटिक दूध का विवरण पढ़ रहा था तो मुझे उस का वर्णन पढ़ कर यही लगा कि यार हम लोग भी बंबई में ज्यादातर सिंथेटिक दूध ही पीते रहे होंगे...क्योंकि जिस तरह के बड़े बड़े टैंकरों में हमारे दूध वाले के यहां दूध आया करता था और 24घटे दूध उपलब्ध होता था, उस से यही शक पैदा होता है कि इतना खालिस दूध बंबई में अकसर आता कहां से था। लेकिन क्या करें......हम लोगों की बदकिस्मती देखिये कि हम लोग इतना पढ़ लिख कर भी असली और नकली में पहचान ही नहीं कर पाते।

मेरा तो यहां डेयरी वैज्ञानिकों से एवं अन्य विशेषज्ञों से केवल एक ही प्रश्न है कि आप क्यों कुछ ऐसे टैस्ट पब्लिक में पापुलर नहीं करते जिस से वे झट से घर पर ही पता कर सकें कि दूध असली है या सिंथेटिक है....क्योंकि सिंथेटिक दूध पीना तो अपने पैर पर अपने आप कुल्हाडी मारने के बराबर है।

ऐसे ही और भी तरह तरह की वस्तुओं के लिये टैस्ट होने चाहियें जो कि आम पब्लिक को पता होने चाहिये....इस से मिलावट करने वालों के दिमाग में डर बैठेगा.......मैंने कुछ साल पहले इस पर बहुत कुछ पढ़ा लेकिन जो मुझे याद है वह इतना विषम कि उपभोक्ता यही सोच ले कि कौन ये सब टैस्ट करने का झंझट करे....सारी दुनिया खा रही है ना ये सब कुछ....चलो, हम भी खा लें...जो दुनिया के साथ होगा , हमारे साथ भी हो जायेगा। बस, यही कुछ हो रहा है आज हमारे यहां भी।

लोगों में जागरूकता की कमी तो है ही, लेकिन उसे सीधे सादे ढंग से जागरूक करने वाले बुद्धिजीवी तो चले जाते हैं अमेरिका में ......यकीनन बहुत विषम स्थिति है।

छोटे छोटे सवाल हैं जो हमें परेशान करते हैं लेकिन उन का जवाब कभी मिलता नहीं......यह जो आज कल सॉफ्टी पांच-सात रूपये में बिकने लग गई है...इस में कौन सी आइस-क्रीम डाल दी गई है जो इतनी सस्ती बिकने लग गई, इसी तरह से मिलावटी मिठाईयों, नकली मावे का बाज़ार गर्म है। यकीन मानिये दोस्तो पिछले कुछ वर्षों में इतना कुछ देख लिया है, इतना कुछ पढ़ लिया है कि बाज़ार की किसी भी दूध से बनी चीज़ को मुंह लगाने तक की हिम्मत नहीं होती।

अभी यमुनानगर के पास ही एक कसबे में यहां के अधिकारियों ने हलवाईयों की कईं दुकानों पर छापे मारे हैं जो बहुत से शहरों में मिल्क-केक सप्लाई किया करते थे.....लेकिन उन को वहां पर बहुत मात्रा में एक्पायरी डेट का मिल्क-पावडर मिला और साथ ही कंचों की बोरियां भी मिलीं.......पेपर में ऐसा लिखा गया था कि शायद इन कंचों को पीस कर मिल्क केक में डाल कर उस में चमक पैदा की जाती थी। मिल्क में चमक तो पैदा हो गई लेकिन उसे खाने वाले के गुर्दे फेल नहीं होंगे तो क्या होगा, दोस्तो।

स्थिति इतनी विषम है कि बाज़ार में बिक रही किसी भी चीज़ की क्वालिटि के बारे में आप आश्वस्त हो ही नहीं सकते। ऐसे में मेरा अनुरोध सभी विशेषज्ञों से केवल इतना ही है कि अपनी सामाजिक, नैतिक जिम्मेदारी समझते हुये कुछ इस तरह से जनता को सचेत करें कि उन्हे नकली और असली में पता लग जाये, उन्हें पता लग जाये कि यह खाद्य़ पदार्थ खाने योग्य है या नाली में फैंकने योग्य ।

यह सब बहुत ही ज़रूरी है.....हर तरफ़ मिलावट का बोलबाला है, कुछ साधारण से टैस्ट तो होंगे ही हर चीज़ के लिये जिन से यह पता चले कि हम लोग आखिर खा क्या रहे हैं। मेरे विचार में इस तरह की जागरूकता हमारे समाज को मिलावटी वस्तुओं से निजात दिलाने के लिये पहला कदम होगी....क्योंकि जब पब्लिक सवाल पूछने लगती है तो बड़ों बड़ों की छुट्टी हो जाती है।

बाज़ारी दही का भी कोई भरोसा नहीं है, पनीर पता नहीं किस तरह के दूध का बन रहा है.....सीधी सी बात है कि दूध एवं दूध से बने खाध्य पदार्थों की गुणवत्ता की तरफ़ खास ध्यान दिया जाना ज़रूरी है। वैसे तो अब मिलावट से कौन सी चीज़ें बची हैं !!

मैंने एक डेयरी संस्थान के प्रोफैसरों को बहुत पत्र लिखे हैं कि कुछ छोटे छोटे साधारण से टैस्ट जनमानस में लोकप्रिय करिये जिस से उन्हें पता तो लगे कि आखिर वे क्या खा रहे हैं, क्या पी रहे हैं। मुझे याद आ रहा है कि बंबई के वर्ल्ड-ट्रेड सेंट्रल में अकसर कईं तरह की प्रदर्शनियां लगा करती थीं ...वहां पर अकसर एक-दो स्टाल इस तरह के उपभोक्ता जागरूकता मंच की तरफ से भी हुया करते थे......लेकिन अब तो उस तरह के स्टाल भी कहीं दिखते नहीं।

ऐसे में क्या सुबह सुबह घर की चौखट पर जो दूध आता है क्या वही पीते रहें ?....यही सवाल तो मैं आप से पूछ रहा हूं .....तो, अगली बार जब अपने घर में आये हुये दूध को देखें तो उस के बारे में कम से कम यह ज़रूर सोचें कि आखिर इस की क्वालिटी की जांच के लिये आप क्या कर सकते हैं.....नहीं, नहीं, मैं फैट-वैट कंटैंट की बात नहीं कर रहा हूं.....मैं तो बात कर रहा हूं सिंथैटिक दूध में इस्तेमाल की जाने वाले खतरनाक कैमिकल्ज़ की ....जो किसी भी आदमी को बीमार बना कर ही दम लें।

वैसे हम लोग भी कितनी खुशफहमी पाले रखते हैं कि हो न हो, मेरा दूध वाला तो ऐसा वैसा नहीं है.......पिछले बीस सालों से आ रहा है.......लेकिन फिर भी ...प्लीज़ ..एक बार टैस्टिंग वैस्टिंग के बारे में तो सोचियेगा। बहुत ज़रूरी है......मैं नहीं कह रहा है, आये दिन मीडिया की रिपोर्टें ये सब बताती रहती हैं।

वो फुल मस्ती वाले दिन !!

अभी अभी बारिश थमी है...मई के महीने के इन दिनों में बारिश.....सुहाना मौसम....हां,हां, मौसम ने करवट ली है...आज से नहीं पिछले तीन हफ्तों से यह मौसम बेहद हसीन सा बना हुया है। आज अखबार में तो आया है कि इस तरह की करवट के परिणाम कितने भयानक हो सकते हैं, लेकिन इस समय तो बस यूं ही लग रहा है कि चलो, यारो, कल जो होगा, देखा जायेगा, अभी तो इस मौसम का लुत्फ उठा लो। बस, इस समय बगीचे में झूले पर बैठे बैठे अपने बचपन की बरसातों वालों दिन याद आ गये.....

एक बात तो यह याद आई कि हम लोग बरसात के मौसम में इन झूलों के साथ कितनी मस्ती किया करते थे। सोच कर के इतनी हंसी आती है कि क्या कहूं। हमारे घर के बाहर एक बहुत बड़ा पेड़ हुया करता था जिस पर एक मोटी सी रस्सी के साथ पींघ ( झूला ) बनाया जाता था। मजबूत पेड़ और बहुत ही मजबूत रस्सी की वजह से कोई टेंशन नहीं होती थी......बस, जितनी हिम्मत हो, जितना ज़ोर हो, खींच लो उतनी ही ऊंचाईंयों तक..............कितना मज़ा आता था जब हमारे साथ कोई झूलने वाला डर रहा होता था। झूला झूलने वालों के साथ साथ आस पास खड़े बीसियों लोगों का भी अच्छा खासा मनोरंजन हो जाया करता था। फट्टा हम उस झूले को झूलते समय एक लकड़ी का मजबूत सा भी अकसर उस पर टिका लिया करते थे। सचमुच वो दिन बेहद मज़े वाले थे......लेकिन इतने सालों के बाद भी पता नहीं ऐसा लग रहा है कि ये सब बातें कल की ही हैं। पता नहीं इस समय को भी कौन से पंख लगे हुये हैं......ऐसा फुर्र से उड़ जाता है।

दूसरी याद जो आज सता रही है ...वह है सूआ खेलना। अब सूआ मैं आप को कैसे समझाऊं.....अच्छा तो सुनिए कि हम किसी बोरे वगैरा को सिलने के लिये सूईं की जगह एक बड़ी सी सूईं इस्तेमाल करते हैं ना ...जिसे सूआ कहते हैं। लेकिन जिस सूये के खेल की मैं बात कर रहा हूं यह लगभग डेढ़-दो फुट का नुकीला सा हुया करता था।

यह सूये वाली गेम केवल तब ही खेली जा सकती थी जब ताजी ताजी बरसात बंद हुई होती थी। हम लोग सीधे पास ही एक ग्राउंड की तरफ़ लपक पड़ते थे ...अभी बरसात पूरी तरह से रुकी भी नहीं होती थी। वहां जाकर उस सूये से ही गीली जमीन पर एक गोल सा आकार बनाया जाता था। टॉस करने के बाद, हमारा खेल शुरू हुया करता था.....जो टॉस जीत जाया करता था( टॉस भी तो सिक्के विक्के से थोड़े ही किया जाता था...अगर इतने सिक्के ही होते तो वहां हम सूया खेलने की बजाये कहीं बाज़ार ना भाग गये होते......सो टॉस के लिये भी पास ही पड़ी कोई ठीकरी वीकरी से काम चला लिया जाता था। ).....

तो टॉस जीतने वाला उस गोलाकार में खड़ा होकर ज़ोर से जमीन पर सूआ मारता था, अच्छा, वाह, यह सूआ तो धंस गया ज़मीन में........फिर उसे वहां से निकाल कर आगे मारता और फिर आगे से आगे चला जाता .....इस सारी यात्रा में दूसरा लड़का भी साथ ही होता । यह सिलसिला बहुत रोचक होता था....अभी याद आ रहा है कि किसी जगह पर एक-आध मिनट के लिये रूक भी जाते थे कि सूआ कहां मारें कि ज़मीन में धंस जाये.....ऐसा ना हो कि यह बिना धंसे ही ज़मीन पर गिर जाये.......वैसे तो यह खेल में अकसर चार-पांच सौ मीटर तक निकल जाना कोई बड़ी बात नहीं हुया करती थी.....लेकिन जैसे ही सूया ज़मीन में धंसने की बजाये गिर जाता, वहां से लेकर उस गोलाकार आकृति तक ( जो हमनें गेम के शुरू में बनाई होती थी).....दूसरे लड़के को हमें अपनी पीठ पर लाद कर लाना होता था. अगर तो वह सही सलामत बिना गिराये हमें उस गोलकार आकृति तक ले आता तो हमारी पारी खत्म और फिर उस की पारी शुरु.....वरना जहां पर वह हमें गिरा देता था या उस का सांस इतना फूल जाता था कि वह हमें उतरने को कह देता था, वहीं से फिर हमारा सूया जमीन में धंसना शुरू हो जाया करता था....( भगवान का शुक्र है तब इतना वज़न नहीं हुया करता था...हमारा ही नहीं, सभी बच्चों का ....वरना सभी की रीढ़ की हड्डियां हिल विल जाया करतीं। आज सोच रहा हूं कि पता नहीं हम यह सूया भी बरसात होते ही हम कहां से झटपट निकाल लिया करते थे......तुरंत हाजिर हो जाया करता था। तो, आप को भी हमारी इस बचपन की गेम में शामिल हो कर मज़ा आया कि नहीं !!

आप भी क्यों अपने बचपन के दिनों की कुछ गेम्स हम सब के साथ शेयर क्यों नहीं कर रहे ?......हम सब इंतज़ार कर रहे हैं.......कुछ समय तक तो इन राष्ट्रीय-अंतरर्राष्ट्रीय मुद्दों के बारे में सोचना बंद करिये और लौट चलिये अपने बचपन की ओर !!

गुरुवार, 22 मई 2008

अगर अपनी दो ब्लागस को इक्ट्ठा करना हो...

सभी हिंदी चिट्ठाकारों के नाम......
कृपया इन दो बातों का उत्तर देने की कृपा करें..

पहली बात तो यह कि अगर कोई ब्लागर अपनी दो ब्लाग्स को इक्ट्ठा कर के एक करना चाहे तो उस के लिये उसे क्या करना होगा.....मुझे तो यही रास्ता लगता है कि एक-एक पोस्ट को नईं ब्लाग पर दोबारा पब्लिश करना होगा। चलिये यह भी मान लिया जाये...लेकिन इस में दिक्कत यह लगती है कि बार बार फिर आप की इन पहले से पब्लिश पोस्टों को ब्लागवाणी पर दिखाया जायेगा, इस का क्या समाधान है, कृपया उत्तर दीजिये। एक बात और भी है कि अगर हम इस तरह से दोबारा अपनी पोस्टें अपने एक ब्लाग से दूसरे ब्लाग पर शिफ्ट करते हैं तो कमैंट्स भी डिलीट हो जायेंगे....इन सब का क्या सोलूशन है। मुझे आप के सुझावों का इंतज़ार रहेगा।

दूसरी बात यह है कि हम लोग जो इतना ब्लागस पर लिख रहे हैं या लिख चुके हैं , उस का हमारे पास रिकार्ड रखने का कोई तरीका भी तो होगा। बहुत समय पहले इन सभी पोस्टों का बैक-अप रखने के बारे में कुछ पढ़ा तो था, लेकिन वह बिलकुल याद नहीं है, तो कृपया इस के बारे भी बताइये की यह बैक-अप रखना कैसे संभव होगा।

बुधवार, 21 मई 2008

सफल डाक्टर का फंडा....

दो-चार दिन से सोच रहा हूं कि क्या केवल निजी हस्पतालों में ही मरीज़ से अच्छे ढंग से बात करने की ज़रूरत है, क्या सरकारी हस्पतालों में यह कोई इतना ज़रूरी नहीं है....क्या सरकारी हस्पतालों में इस बारे में रिलैक्शेसन हो सकती है। .....नहीं ,नहीं, किसी तरह की रिलैक्शेसन की बात सोची भी नहीं जा सकती ।

बात यह है ना कि अगर तो हम मरीज से अपने इंटरएक्शन को भी उस के इलाज का एक हिस्सा ही मानते हैं तो जिस ढंग से हम मरीज़ से बात कर रहे हैं..............इस ढंग का भी उस के इलाज पर , उस के तंदरूस्त होने की संभावनाओं पर, या यूं कह लें कि मरीज़ का नहीं, उस के परिवार जनों का विश्वास जीतने के लिये यह बेहद लाज़मी है कि किसी भी डाक्टर का मरीज़ के साथ बातचीत करने का ढंग इतना नफ़ीस हो कि मरीज़ को तो एक बात यही लगे कि वह तो डाक्टर के पास पहुंच कर आधा ठीक वैसे ही हो गया है.....और बाकी आधा भी उसे तुरंत ठीक कर ही दिया जायेगा।
तो, यह तो पत्थर पर लिखी बात है कि हम जो बात मरीज़ से बात करते हैं...वो बात ही नहीं , उसे कहने का ढंग भी उस के इलाज का ही एक अभिन्न हिस्सा है....क्योंकि कितनी सारी बातें हैं जिन का उस के इलाज से सीधा संबंध है...जो केवल एक इस बात पर आधारित होती हैं कि मरीज़ हमें कितना अपना मानता है, उस के परिजन हमें कैसे देखते हैं, हमारी छवि कैसी है ?

बातें शायद ये सारी कहने में जितनी आसान हैं, उतनी व्यवहार में उतनी आसान हैं नहीं................और एक बात और भी तो है, इस में नकलीपन चल नहीं सकता, सवाल ही पैदा नहीं होता, वो कहते हैं ना कि आंखें भी होती हैं दिल की जुबां......बिल्कुल ठीक ही कहते हैं। वो बात अलग है कि कभी कभार इस तरह के बर्ताव का थोड़ा ढोंग भी करना होता है.....ऐसा करने के बहुत से कारण हैं......उस एरिया में फिर कभी घुसेंगे.....लेकिन एक आम सा कारण जो मुझे दिखा है, जो मैंने अनुभव किया है वह यही है कि किसी कारण वश डाक्टर का स्वयं का मूड भी तो थोड़ा ऑफ हो ही सकता है........क्या वह इंसान नहीं है !! ….मन ठीक होते हुये भी वह उस दिन उस वक्त अगर मरीज़ की सलामती के लिये उसे अच्छा फील करवाने के लिये वह अपने मन का भारीपन अपने रूम के बाहर ही कहीं रखकर मरीज से , उस के परिजनों से अच्छे से बतिया रहा है तो भई मैं तो इसे उस डाक्टर की बहुत बड़ी उपलब्धि ही मानूंगा क्योंकि मैं जानता हूं कि ऐसा करना कितना मुश्किल है। ( हां, वो बात अलग है जब कोई डाक्टर किसी मरीज से इतने अच्छे से इंटरएक्ट करने की कोशिश कर रहा होता है, चाहे कभी कभार रियर्ली उस में इतनी जैनूयननैस ना भी हो, लेकिन वह बिल्कुल थोड़ा थोड़ा ड्रामा सा कर रहा है क्योंकि उस का स्वयं का मन ठीक नहीं है, तो ऐसे करते करते कब उस के मन का भारीपन हल्केपन में बदल जाता है....यह तो भई चिकित्सक को भी पता नहीं चलता) ।

एक बात और अहम् यह भी तो है कि कईं सरकारी हस्पतालों में मरीज़ की प्राइवेसी का इतना ध्यान रखा नहीं जाता, मुझे आज तक यह पता नहीं लगा कि आखिर हम क्यों समझ लेते हैं कि जिस के पास बाहर प्राइवेट में किसी डाक्टर के पास जाने के पैसे नहीं हैं, या जो कोई भी सरकारी हस्पतालों में आ रहा है, उस की कोई प्राइवेसी नहीं है। मैं तो भई इस से घटिया सोच मान ही नहीं सकता।

इसी प्राइवेसी वाली बात पर एक बात याद आ रही है.....मैं रोहतक मैडीकल कॉलेज में उन दिनों रजिस्ट्रार था....एक दिन राउंड चल रहा था , एक सीनियर डाक्टर एक ही कमरे में बहुत सारे डाक्टरों के बैठने की व्यवस्था के लाभ गिनाये जा रहे थे....गिनाये जा रहे थे ......कुछ समय तक तो सुना ...लेकिन एक हद के बाद मेरे से रहा नहीं गया.....मुझे यही लगा कि यार, होना-हवाना तो मेरे कहने से क्या है, लेकिन मन में अपनी बात आखिर क्यों दबी रहने दूं......तो मैंने कह ही दिया ....सर, ऐसा है ना कि इस तरह की व्यवस्था से हम मरीज़ की प्राइवेसी तो खत्म ही कर देते हैं। मैंने फिर आगे कहा कि सर, अब मुझे अगर किसी डाक्टर के पास कुछ परामर्श लेने जाना होगा, अगर कुछ उस से कोई बात करनी होगी तो मैं तो भई कोई ऐसा डाक्टर ही ढूंढूंगा जो अलग से बैठा हुया है ताकि मैं अपनी बात उसे अकेले में कह सकूं। तो, उस वरिष्ठ अधिकारी का जवाब सुन कर मैं झेंप कर रह गया.....उस ने मुझे यह कह कर चुप करा दिया कि डाक्टर साहब, आप तो बड़े आदमी हो गये ना। इतना सुनने पर मैंने भी अपनी बीन तुरंत नीचे ज़मीन पर पटकने में ही समझदारी समझी ( समझ गये न आप !)।

एक बात जो मुझे बेहद अखरती है कि कुछ सरकारी हस्पतालों में मरीज़ से उस के स्टेट्स के हिसाब से ही बात होती है। अब यह मेरा अनुभव है, मैं इस के बारे में किसी तरह की भी सफाई सुनने के मूड में कम से कम इस समय तो हूं नहीं.........तो, चलिये, यह तो मान भी लिया कि मरीज़ तो बेचारा बीमार है तो शायद इस मजबूरी की वजह से उसे डाक्टर का किसी तरह का भी लहज़ा आपत्तिजनक नहीं लगता, लेकिन उस के साथ अकसर उस के जो परिजन होते हैं उन्हें तो यह बिलकुल नहीं पचता कि उन के मरीज़ के साथ किसी तरह से भी बात करने के लहज़े में कुछ भी कमी रहे।
बात कोरी मनोविज्ञान की है........बच्चा है , उस के लिये तो भई उस का बाप किसी हीरो नंबर वन से कम नहीं है, वैसे देखा जाये तो हो भी क्यों, बच्चे के इस सोच के पीछे आखिर बुराई क्या है और जहां तक मरीज़ की पत्नी की बात है, उस के लिये तो उस का संसार ही वह स्टूल पर बैठा उस का बीमार बंदा है, उस का तो फरिश्ता ही वही है, तो फिर अगर कोई डाक्टर इन समीकरणों को नहीं समझता, केवल किताबों के आसरे ही मरीज़ को ठीक करने में लगे हुये उस से ठीक ढंग से व्यवहार नहीं कर पाता तो समझो उस की तो शामत आ ही गई .....उस का तो तवा पचास लोगों में लगेगा ही।
बदकिस्मती यही है कि इस तरह की बातें मैडीकल कालेजों में नहीं सिखाते ....यह तो हर बंदे को जिंदगी की किताब के पन्नों से ही सीखनी पड़ती हैं। तो इन्हें जितनी जल्दी सीख लिया जाये उतना ही ठीक है।

हम बहुत ही मज़ाकिया ढंग से कह तो देते हैं कि यार, ये नीम-हकीम तो भई क्वालीफाईड डाक्टरों से भी ज्यादा सफल हो रहे हैं। तो इस का कारण भी यही है कि उन्होंने इस मरीज़ के इस ह्यूमन कंपोनैंट को बहुत ऊंचा रखना सीख लिया है.........मैं इन नीम-हकीमों को किसी तरह से डिफैंड करने की कोई कोशिश नहीं कर रहा हूं.....वैसे मरीज़ के इलाज के दौरान क्या क्या गुल खिला कर मरीज़ की जिंदगी से किस तरह से खिलवाड़ करते हैं, वो बात तो है ही ...आप सब जानते ही हैं....लेकिन यहां बात हो रही थी केवल उन के व्यवहार की , मरीज़ के मन में उन के प्रति विश्वास की।
तो संक्षेप में इतना ही कहना चाहूंगा कि डाक्टरी विज्ञान की जानकारी के साथ ही साथ डाक्टर में ढ़ेरों सॉफ्ट स्किलस का डिवेल्प होना भी बेहद ज़रूरी है......क्योंकि इन सब को भी इस्तेमाल करना मरीज के इलाज का हिस्सा ही है। और रही बात डाक्टर की, कईं बार उसे इन को व्यवहार में लाने के लिये किस तरह से शमा की भांति जलना पड़ता है, इस की चर्चा फिर कभी । लेकिन इतना ध्यान रहे कि यह काम इतना आसान भी नहीं है, खास कर तब जब कोई सहानुभूति करने का , जैनूइयन बनने का ढोंग कर रहा है..............क्योंकि कागज़ के फूल...कागज़ के फूल....खुशबू कहां से लायोगे !!

शिक्षण संस्थानों का यह धंधा बढिया है !

मुझे बहुत ही ज्यादा आपत्ति है उन सारे शिक्षण संस्थानों से जो अपने प्रोस्पैक्ट्स महंगे महंगे मोलों पर बेचते हैं कि कईं बार डिसर्विंग छात्र इसलिये ही इन प्रोस्पैक्ट्स को खरीद ही नहीं पाते। इन का मोल जो अकसर दिखता है...पांच सौ रूपये, हज़ार रूपये..........यह इन संस्थानों की डकैती है, लूट है, सरे-आर धांधली है। और जब उस प्रोस्पैक्ट्स को देखो तो इतना अजीब सा लगता है कि यार इन चार पन्नों की कीमत पांच सौ रूपये। दरअसल होता ऐसा है कि इन संस्थानों ने अप्लाई करने की फीस भी इस में शामिल की होती है। एक बार जब प्रोस्पैक्ट्स लोग खरीद लें,तो कालेज, यूनिवर्सिटी एवं संस्थानों की बला से........अप्लाई करें या न करें, इलिजिबल हैं कि नहीं ....उन से इस से क्या लेना-देना.....उन का तो सीधा सा काम है रूपये इक्ट्ठा करने .....सो वे पहले ही से कर चुके हैं।
एक बार इतने महंगे महंगे प्रोस्पैक्ट्स खरीदने के बाद छात्रों के पास इन कोर्सों के लिये अप्लाई करने के सिवाय कोई विकल्प रहता ही नहीं। बस, यह सब धांधली देख कर बहुत दुख होता है। अकसर इस समय मैं यही सोच रहा होता हूं कि लोग डाक्टरो का तो कईं बार रोना रोते हैं लेकिन इस तरह के रोने राते किसी को देखा नहीं......न तो कभी प्रिट मीडिया में ही इस तरह से आवाजें उठती देखीं, न ही शायद इलैक्ट्रोनिक मीडिया में ही इस के बारे में कभी कुछ सुना.......................पता नहीं लोग अपनी बात कहने के लिये किस बात का इंतजार कर रहे हैं।
मैं मानता हूं कि किसी मैकडोनाल्ड में जाकर पांच सौ रूपये के बर्गर -फिंगर चिप्स खाने वाले लोगों पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन आम आदमी किसे अपना दुखडा सुनाये।
मुझे ही बतलाईये की इस के लिये किस को अपनी बात लिख कर भेजनी होगी.......मैं ही करूं थोड़ी शुरूआत। मेरे विचार में यह बहुत गंभीर मसला है। आप क्या सोचते हैं इस के बारे में।

सोमवार, 19 मई 2008

ये लोग क्यों नहीं आते आतंकवादियों की श्रेणी में ?

क्या आप ने किसी कैमिस्ट शॉप पर खड़े किसी आम आदमी के चेहरे पर उस समय हवाईयां उड़ती देखी हैं जिस समय कैमिस्ट बड़ी रकम का बिल्कुल छोटा सा बिल उस की ओर सरका देता है ?.....मैं यह सब बहुत बार देखता हूं और फिर यह भी देखता हूं कि उस परिवार के जितने लोग वे दवायें खरीदने आये होते हैं वे आपस में सलाह-मशविरा करने लग पड़ते हैं कि ऐसा करो, अभी एक हफ्ते की बजाय आप तीन-चार दिन की ही दवायें दे दें। ऐसे मौकों पर मैं चुपचाप खड़ा केवल उन के बीमार मरीज़ के लिये खूब सारी दुआये ज़रूर मांग लेता हूं कि यार, इन बंदों को हमेशा फिट रखा कर।

यह तो तय ही है कि दवायें बहुत महंगी है और दावे चाहे जितने जो भी हों, आंकड़े कुछ भी कहें( आंकड़ों की ऐसी की तैसी !)…लेकिन दवाईयां आम आदमी की पहुंच से दूर हो गई हैं। लेकिन अब आप सोचिये कि महंगी दवाईयां खरीद कर जब कोई आम बंदा अपने किसी परिजन को उन्हें देने के लिये भागा हुया जाता है तो अगर उसे पता हो कि वे तो नकली दवाईयां हैं, मिलावटी दवाईयां हैं, तो उस पर क्या बीतेगी ?......

अकसर लोग एक दूसरे ट्रैप में भी फंस जाते हैं.......कईं नीम-हकीम टाइप के डाक्टर अपनी टेबल पर ही बिल्कुल सस्ती सी, लोकल टाईप की दवाईयां सजा लेते हैं और उन्हें मरीजों को डायरैक्ट्ली बेचने लगते हैं। मुझे याद है मेरा एक सहपाठी कालेज के दिनों में अपने एक पड़ोसी नीम-हकीम के बारे में बताया करता था कि उस के बच्चे सारा दिन कैप्सूल भरते रहते थे.....जब हम लोग जिज्ञासा जताते थे तो उस ने एक दिन बताया कि खाली कैप्सूल बाजारा में 10-15 रूपये के एक हज़ार मिल जाते हैं और वे लोग उस में चीनी और मीठा –सोडा भरते रहते थे.....हमारा सहपाठी बताया करता था कि जब भी कभी उन के घर में खेलने-वेलने जाते थे तो हमें भी कुछ समय के लिये तो इस काम में लगा ही दिया जाता था। तो, चलिये इस बात को इधर ही छोड़ता हूं ॥वरना मेरी पोस्ट इतनी लंबी हो जाती है कि आप लोग चाहे कुछ मुझे कहें या ना कहें ...लेकिन मुझे इस का अहसास हो जाता है।

अच्छी तो आज यह लिखने के पीछे क्या कारण ?......केवल इतना ही कारण है कि मैंने परसों ( 17मई 2008) की टाइम्स ऑफ इंडिया में नकली दवाईयों के ऊपर एक बहुत ही बढ़िया संपादकीय लेख पढ़ा है। उस संपादकीय में यह भी दिया गया था कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार सारे विश्व में जितनी भी नकली दवाईयां पैदा होती हैं उन का 35 प्रतिशत भारत ही में बनता है। और यू।पी, पंजाब एवं हरियाणा में तो इस के गढ़ हैं। एक अन्य संस्था के अनुसार तो सारे विश्व की में जितनी भी नकली दवाईयां सरकुलेट होती हैं उन में से 75 फीसदी तो भारत से ही चलती हैं। आप भी कांप गये होंगे ये आंकड़े देख कर !!

संपादकीय में कुछ यह भी लिखा था कि अब भारत के ड्रग-कंट्रोलर जनरल द्वारा विभिन्न तरह की दवाईयों की क्वालिटी की जांच हेतु लगभग 31000सैंपलों का परीक्षण किया जाना है।

आप यह सुन कर कुछ ज़्यादा मत चौंकियेगा कि ऐसी रिपोर्ट हैं जिन से पता चला है कि नकली इंसुलिन के टीके लगने से शूगर के रोगियों की मौत हो गई और टीबी के मरीज नकली दवाईयां खाने की वजह से पहले से भी ज़्यादा बीमार हो गये।

उस संपादकीय में एक प्रश्न यह भी उठाया गया कि दवाईयों के दामों को तो बहुत अच्छे ढंग से नियमित किया जाता है लेकिन जहां तक दवाईयों की गुणवत्ता का संबंध है वहां यह वाली टाइटनैस नहीं दिखती । क्या इस का कारण यह है कि भारत में इतनी ज़्यादा दवाईयों की टैस्टिंग के लिये मूलभूत ढांचे की ही कमी है ?...इसलिये संपादक ने इस तरफ इशारा दिया है कि भारत के ड्रग-कंट्रोलर जनरल द्वारा जो स्टडी की जानी है उसे ड्रग-टैस्टिंग, ड्रग-क्वालिटी मॉनीट्रिंग के बारे में भी पूरी जांच-पड़ताल करनी होगी और इस एरिया में सुधार लाने के प्रयास करने होंगे।

मीडिया डाक्टर की टिप्पणी ---- मैं तो बस यही सोच सोच कर परेशान हो जाता हूं कि जो निर्दोष लोगों को बिना वजह मारते हैं उन्हें हम आतंकवादी कहते हैं ना, तो फिर ये नकली दवाईयां बनाने वाले , उन्हें पास करने वाले, उन्हें बेचने वाले क्या आतंकवादी नहीं हैं......मैं तो इन सब को भी आतंकवादियों का ही दर्जा देता हूं। कागज़ के टुकड़ों के लिये बिल्कुल निर्दोष जनता की ज़िंदगीयों से खिलवाड़। दो-तीन साल पहले एक बार खबरों में आया तो था कि नकली दवाईयों बनाने वालों और बेचने वालों के लिये मौत की सजा मुकर्रर हुई है ,लेकिन इस पर सही प्रकाश तो अपने चिट्ठाजगत के बड़े वकील साहब दिनेशराय द्विवेदी जी या अदालत ब्लाग वाले काकेश ही डाल सकते हैं कि ऐसा क्या कोई कानून बना हुया है और अगर है तो हमें यह भी तो ज़रा बता दें कि आज तक कितने लोगों को इस कानून के अंतर्गत सज़ा हो चुकी है।

अब आते हैं एक –दो पते की बातों पर......दोस्तो, क्या आप को लगता है कि आंकड़ों से किसी का पेट भरा है, क्या बड़े बड़े दावों से सब कुछ ठीक हुया है ....लेकिन जिस परिवार के एक आदमी की भी जान ये नकली दवाईयां ले लेती हैं ना , केवल वह परिवार ही जानता है कि इन नकली , मिलावटी दवायों की त्रासदी क्या है !

एक बात और भी तो है ना कि ज्यादातर लोगों के पास बाजार से खरीदी दवायों का कोई बिल ही नहीं होता.......मैं बस में चड़े किसी काले बैग वाले चुस्त चालाक सेल्स-मैन से खरीदी दर्द-निवारक दवाईयां की या आंख में डालने वाली बूंदों की बातें नहीं कर रहा हूं.....इन में क्या होता है अब तक तो हमारी समझ में आ ही जाना चाहिये.....वैसे मैं बात कर रहा हूं कैमिस्ट के यहां से खरीदी दवाईयों से जिन का बिल अकसर लोग लेते नहीं हैं।

तो एक पते की बात यह है कि आप कभी भी कैमिस्ट से दवाई लें तो उस से बिल लेने में किस तरह से झिझक महसूस न करें......आखिर यह आप की सेहत का मामला है। हर आदमी यही सोच रहा है कि उसे थोड़ा नकली दवाईयां थमाई जायेंगी....लेकिन क्या पता आप ही नकली दवा खाये जा रहे हों !!

अगर आप कैमिस्ट से खरीदी दवाईयों का बिल ले रहे हैं तो आप दवाईयों की क्वालिटी के बारे में आश्वस्त हो सकते हैं क्योंकि उस बिल में उसे दवाई के बाबत सारा ब्योरा देना होता है....बैच नंबर, ब्रैंड-नेम, एक्पायरी डेट आदि.......और अगर कोई दवा का अनयुज़ूअल प्रभाव होता है तो आप अपना दुःखड़ा किसी तो बता सकते हैं ....वरना कौन करेगा यकीन आप की बात का ?

एक पते की बात मैंने अभी और भी करनी है ...वह यह कि आप लोग शायद महंगी बड़ी रकम की दवाईयां खरीदते समय तो बिल विल ले लेते होंगे लेकिन आमतौर पर मैंने लोगों में छोटी मोटी दवाईयों के लिये बिल मांगने में इतनी झिझक देखी है कि क्या बताऊं। लेकिन यह तो हमें याद रखना ही होगा कि जैसे एक चींटी हाथी को नाच नचा सकती है उसी तरह से केवल एक नकली या मिलावटी टेबलेट ही काफी है हमारी जिंदगी में ज़हर घोलने के लिये।

एक बात जो मैंने नोटिस की है कि हम लोग अकसर अपने पड़ोस वाले कैमिस्ट से तो बिल मांगने में कुछ ज़्यादा ही झिझकते हैं क्योंकि वो कुछ ज़्यादा ही फ्रैंडली सा दिखने लगता है.....लेकिन यह बात हमारे लिये ठीक नहीं है। जगह जगह कैमिस्ट की दुकानें खुली पड़ी हैं.....तो किसी और जगह से यह दवाईयां खरीदने में क्या हर्ज हैं ....जहां आप बेझिझक हो कर बिल मांग सकें। यकीन मानिये यह आप ही के हित में है.....भले ही बुखार के लिये टेबलेट्स का एक पत्ता ही खरीद रहे हों, बिल जरूर लें, जरूर लें......जरूर लें...............अगर अभी तक ऐसी आदत नहीं है, तो प्लीज़ डाल लीजिये.....अगर किसी फैमिलियर से कैमिस्ट से यह बिल मांगना दुश्वार लगता है तो अपनी और अपनों की सेहत की खातिर किसी दूसरे कैमिस्ट के यहां से दवाईयां आदि खरीदना शुरू कर दीजिये.......................यह निहायत ज़रूरी है........बेहद महत्त्वपूर्ण है..........क्योंकि केवल एक यही काम है जो आप लोग इन नकली दवाईयों से बचने के लिये कर सकते हैं........वरना अगर आप अगर सोचें कि आप असली-नकली में फर्क को ढूंढ सकते हैं, खेद है कि यह आप न कर पायेंगे............हम लोग तो इतने सालों में यह काम नहीं कर पाये।

वैसे मेरा प्रश्न तो वहीं का वहीं रह गया............क्या नकली दवाईयों से किसी तरह से संबंधित लोग...बनाने वाले, पास करने वाले, बेचने वाले हैं खूंखार आतंकवादी नहीं हैं..................अगर हैं तो चीख कर, खुल कर कहिये अपनी टिप्पणी में।

रविवार, 18 मई 2008

शीघ्र-पतन......अब इस का फैसला भी होगा घड़ी की टिक-टिक से !!

पोस्ट लिखने से पहले ही यह बता दूं कि मैं कोई सैक्स-रोग विशेषज्ञ नहीं हूं.....लेकिन एक आम पढ़े-लिखे सजग नागरिक होने के नाते मैं अपनी व्यक्तिगत परसैप्शन एवं सैंसिटिविटि के आधार पर यह पोस्ट लिख रहा हूं। मुझे कुछ पता नहीं कि मैं अपने इन विचारों को लिख कर ठीक कर रहा हूं या नहीं , लेकिन आज सुबह से ही मेरे मन की आवाज़ थी कि इस विषय पर लिखना होगा, सो लिख रहा हूं।

एक दूसरी बात यह भी यहां लिखना ज़रूरी है कि हिंदी चिट्ठाकारी का संसार अंग्रेज़ी चिट्ठाकारी से बहुत ज़्यादा अलग है। वहां पर ना किसी का ठीक से नाम पता, ना ही आईडैंटिटि ही पता........इसलिये आदमी कुछ भी लिख कर...कंधे झटका कर...हैल विद एवरीबॉडी कह कर पतली गली से निकल ले.....यह यहां पर संभव नहीं है क्योंकि हिंदी चिट्ठाकारी में सब अपने से ही लगते हैं...दरअसल लगते ही नहीं हैं, हैं भी अपने ही ....हिंदी चिट्ठाकारी तो भई एक परिवार सा ही दिखता है.....यहां पर जितनी भी महिलायें भी लिखती हैं वे भी एक तरह से अपने चिट्ठाकारी परिवार के साथ ही साथ अपने परिवार का एक अहम् हिस्सा ही लगती हैं...इस लिये इन की उपस्थिति में कुछ भी बहुत सोच समझ कर ही लिखना होता है।

मैं यहां पर इस तरह की कहानी सी क्यों डाल रहा हूं ...इस का कारण केवल यही है कि डाक्टर होते हुये मैं पिछले कईं महीनों से दुविधा में हूं कि क्या मुझे व्यक्तिगत अथवा सैक्स संबंधी खबरों पर अपनी टिप्पणी देनी चाहिये क्योंकि कईं बार इतनी महत्वपूर्ण खबरें मैं यहां-वहां खास कर अंग्रेज़ी के अखबारों में देखता हूं कि मेरे लिये तुरंत उन के ऊपर कुछ कहना बेहद ज़रूरी हो जाता है। अब मैं इतने महीने तक तो इस तरह के विषयों पर लिखने से गुरेज सा ही करता रहा हूं ......लेकिन यह सोच रहा हूं कि ऐसा करना हिंदी पाठकों के साथ अन्याय ही होगा। इसलिये अब से निर्णय ले लिया है कि खबर कैसी भी हो.....शरीर के किसी भी सिस्टम से संबंधित...अब मैं उस पर अपनी टिप्पणी देने से, अपना मन खोलने से नहीं हटूंगा।
कल के अंग्रेजी के अखबार में एक न्यूज़-रिपोर्ट दिखी .....
Ejaculating under 60 sec ‘premature’
Experts hope quantification of time will put many out of their misery.
अब मेरा विचार तो यही है कि इस से बहुतों की मिज़री (परेशानी) मुझे तो नहीं लगता कि किसी तरीके से कम होगी।
खबर में कहा गया है कि इस बात की अब आधिकारिक पुष्टि हो गई है कि इंटरकोर्स शुरू होने से 60सैकंड के भीतर ही अगर किसी पुरूष का वीर्य-स्खलन हो जाता है तो इसे शीघ्र-पतन ( premature ejaculation) कहा जायेगा। इंटरनेशनल सोसाइटी ऑफ सैक्सुयल मैडीकल के विशेषज्ञों ने पहली बार इस शीघ्र-पतन की पारिभाषित किया है....रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि विश्व भर में 30 फीसदी पुरूष इस यौन-व्याधि (Sexual disorder) से परेशान हैं।

रिपोर्ट में एक अमेरिकन यूरोलॉजिस्ट ने यह भी कहा है कि शीघ्र पतन की इस से पहले वाली परिभाषायें वीर्य-स्खलन (ejaculation) की समय सीमा के बारे में कुछ कहती ही नहीं......इस लिये जो पुरूष भी शीघ्र डिस्चार्ज हो जाते थे वे यही समझते लगने लगते थे कि उन्हें तो शीघ्र-पतन की तकलीफ़ है जिस के परिणाम स्वरूप उन के वैवाहिक संबंध में दिक्कतें आनी शुरू हो जाती हैं, उन पुरूषों को बेहद मानसिक तनाव हो जाता है और यह स्थिति उन्हें अवसाद की खाई में धकेल देती है।

उस विशेषज्ञ ने तो यह भी कहा है कि इस शीघ्र-पतन को पारिभाषित किये जाने का यह प्रभाव होगा कि जो पुरूष एक मिनट में स्खलित हो जाते हैं ....वे अब जान जायेंगे कि ऐसा होना एक मैडीकल अवस्था है तो चुपचाप खामोशी में इसे सहना से बेहतर है चिकित्सक से मिल कर इस का निवारण कर लिया जाये। और एक बार जब प्री-मैच्योर इजैकुलेशन ( शीघ्र-पतन) का डायग्नोसिस हो जाये तो उस की मनोवैज्ञानिक चिकित्सा एवं दवाईयां शुरू कर दी जाती हैं।

रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख है कि अब चूंकि शीघ्र-पतन को पारिभाषित कर ही दिया गया है...इस से दवा-कंपनियों को भी शीघ्र-पतन के मरीज़ों को भविष्य में किये जाने वाले क्लीनिकल ट्रॉयल्ज़ हेतु चिंहिंत करने में आसानी हो जायेगी.......( क्योंकि मापदंड जो फिक्स हो गया है......60सैकंड से कम वाला शीघ्र-पतनीया और 61सैकंड वाला धुरंधर खिलाड़............आप ने नोट कर लिया न कि मैंने कहा खिलाड़ न कि लिक्खाड़) ...यह कोष्ठक वाली लाइन मीडिया डाक्टर की अपनी है............

अच्छा खबर की बात तो होती रहेगी...पहले उस कार्टून के बारे में तो दो बातें कर लें जिसे इस न्यूज़-रिपोर्ट के साथ दिया गया है। इस कार्टून में यह दर्शाया गया है कि एक दंपति अपने शयन-कक्ष में अलग-अलग पड़े हुये हैं....चद्दर ओड़ के....पुरूष की हालत का ज्ञान इस बात से लगाया जा सकता है कि उस की जीभ बाहर निकली हुई है और चेहरे से पसीना टपक रहा है.....और महिला हैरान-परेशान सी यही सोचे जा रही है कि आज इस ने इतनी तेज़-रफ्तार गाड़ी क्यों चलाई !!....और इस के साथ-साथ उन की चादर पर एक स्टॉप-वॉच भी पड़ी हुई है जिस पर 55 सैकंड की रीडिंग है.....यह स्टॉप-वाच और उस पर यह 55 सैकंड वाली रीडिंग देख कर सोच रहा हूं कि ये अखबार वालों के कार्टून भी बहुत नटखट होते हैं........अब दोस्तो हिंदी और अंग्रेज़ी माध्यम में अंतर ही देख लीजिए......उस इंगलिश के पेपर में तो कार्टून छप भी गया....कार्टून के माध्यम से काफी कुछ कह भी दिया और इधर मुझ बेचारे को कार्टून का सही वर्णन करते हेतु सही शब्दों को ढूंढते ढूंढते ही मेरी डियर नानी मां याद आ गई।....सचमुच याद आ गई दोस्तो क्योंकि दोस्तो जब हम भी हम उस के यहां दो-तीन दिन रहने को जाते थे तो वह देवी हम से बेहद प्यार करती थी, बहुत ही बेहतरीन खाना खिलाती थी, पसीने से लथपथ होते हुये भी हमें रोज़ाना तंदूर की कड़क रोटियां खिलाती थीं और हम सब के लिये हैंड-पंप चला चला कर पानी की गागरें भर कर सुबह सुबह रख लेती थीं ...वरना जिस समय भी घर के बाहर गली में लगे कमेटी के नल से पानी आता था, पीतल की बड़ी बड़ी भारी गागरों में पानी ला कर इन पानी के मटकों को भर कर रखती थीं...........उस की केवल और केवल एक शिकायत थी कि तुम लोग इतने खुराफाती हो कि गागर में पूरा हाथ डाल कर पानी निकालते हो.....इस से पानी खराब हो जाता है, ऐसा वह समझती थी .....इस समय सोच रहा हूं कि क्या वह गलत कहती थी........बिल्कुल नहीं, मैंने भी तो चंद यही बातें ही सीखीं....लेकिन इतने सारे साल कठिन पढ़ाई करने के बाद !!!....अच्छा प्यारी सी स्वर्गीय नानी की बाकी बातें फिर कभी , अभी तो मैंने बस यह प्रूफ मुहैया करवाना था कि कार्टून को ब्यां करते करते मेरी तो असल में ही नानी की प्यारी यादें हरी हो गईं

भारत में किये गये सर्वे बतलाते हैं कि इस देश में सभी व्यस्क पुरुषों में से 10 फीसदी पुरूष ऐसे हैं जो किसी न किसी तरह के सैक्सुयल-डिस्फंक्शन से जूझ रहे हैं .....जिन में से 7 फीसदी पुरूष ऐसे हैं जो इस शीघ्र-पतन की वजह से परेशान हैं। मैक्स हास्पीटल के एक यूरोल़ाजिस्ट के अनुसार....... “Premature ejaculation most commonly affects Indian men aged 19-26years and decreases by nearly 50% after they reach 30.”
यानि कि 19-26 वर्ष के भारतीय युवक आम तौर पर इस शीघ्र-पतन से परेशान रहते हैं जो तकलीफ़ इन के तीस वर्ष के होते होते आधी हो जाती है। अब आप देखिये कि कितनी महत्वपूर्ण स्टेटमैंट हैं....इस पर चर्चा अभी थोड़ी ही देर में करते हैं।
…..इसी यूरोलॉजिस्ट ने आगे इस न्यूज़-रिपोर्ट में कहा है....... “Till now, whenever patients complained of Premature ejaculation or reaching climax before five minutes of intercourse, we first put them on counseling sessions. However, now we know that in patients who ejaculate within a minute, it is a pathological disorder that would need immediate medical intervention. In absence of any standardization earlier, doctors failed to diagnose serious premature ejaculation cases thereby prolonging mental and physical trauma for the patient”. .......यानि रिपोर्ट में कहा गया है कि अब तक तो जब भी मरीज़ शीघ्र-पतन की शिकायत करते थे या यह कहते थे कि इंटर-कोर्स के पांच मिनट के अंदर ही उन का वीर्य-स्खलन हो गया ( यानि काम हो गया या छूट गया !)…..तो हम लोग सब से पहले उन की काउंस्लिंग शुरू कर दिया करते थे। यह डाक्टर आगे कहते हैं कि अब हमें पता चल गया है कि जो पुरूष एक मिनट के अंदर ही स्खलित हो जाते हैं.....ऐसा होना एक पैथॉलाजिक डिस्आर्डर है.....यानि की बीमारी है यह....जिस के लिये तुंरत मैडीकल मदद ली जानी चाहिये। यह डाक्टर आगे यह फरमाते हैं कि इस से पूर्व चूंकि कोई मानक तय नहीं थे .......डाक्टर गंभीर तरह के शीघ्र-पतन रोगियों के डॉयग्नोज़िज़ में असमर्थ रहते थे जिस के कारण मरीज बेचारा लंबे समय तक फिजीकल एवं मानसिक यातना सहता चला जाता था।

मीडिया डाक्टर की टिप्पणी ................
रिपोर्ट आपने भी पढ़ ही ली....और उस में दिये गये कार्टून के बारे में भी आपने जान ही लिया, अब आप का इस के बारे में वैसे ख्याल है क्या ?........ठीक है, चलिये , मैं अपना ख्याल ही पहले आप के समक्ष रखता हूं।
सब से पहले तो मैं यह मानता हूं कि जिन लोगों ने भी यह परिभाषा दी है...वे मेरे से बहुत ज़्यादा समझदार हैं, अपने फील्ड के धुरंधर एक्सपर्ट हैं....इसलिये यह सब कुछ बहुत गहन रिसर्च का ही नतीजा होगा, लेकिन एक ले-मैन की तरह तो मुझे टिप्पणी देने से कोई रोक तो नहीं सकता, है कि नहीं ?...

तो मेरी सुनिये......मुझे तो यह खबर पढ़ कर हंसी सी ही आई.........नहीं, नहीं, मैं किसी तरह से किसी रोगी का मज़ाक नहीं उड़ा रहा हूं.....लेकिन जो दशा एवं दिशा आज रिसर्च की है उस के बारे में सोच कर बेहद अजीब सा लगता है। यही सोचता रहा कि अब कोई मरीज जब अपने डाक्टर के पास इस तरह की तकलीफ के साथ जायेगा तो पहले तो डाक्टर उसे कहेगा कि पास वाली दुकान से एक स्टॉप-वाच लेकर घर जा और कल आ कर बतला कि तुम 60 सैकंड की समय सीमा के अंदर ही थे कि उसे एक-दो सैकंड के लिये पार कर पाये थे.....तुम्हारी तो भई आगे की मैनेजमैंट इस टाइम पर ही निर्भर करेगी।

फिर ध्यान आया कि एक बार यह 60 सैकंड वाली बात पूरी तरह पब्लिक हो जाये.....मुझे पूरा विश्वास है कि विकसित देशों की कंपनियां ऐसे ऐसे गैजेट्स कर लेंगी जिन का नारा ही यही होगा कि इन क्रूशीयल क्षणों का मज़ा आप इस स्टॉप-वाच को शुरू और बंद करने में क्यों बर्बाद किये जा रहे ...हम ने बना दिया है यह गेजेट जिसे बस आपने मैदाने-जंग में उतरने से पहले पहनना है, इस पर सारी रीडिंग्ज़ अपने आप आ जायेंगी......आप को तो बस इस के सिवा कुछ करना ही है ही नहीं ( really ?)…।

मेरा विचार यह है कि अब इस रिसर्च का, शीघ्र-पतन की इस नईं परिभाषा का इतना प्रचार-प्रसार कर दिया जायेगा कि जिन लोगों के वैवाहिक संबंध जीवन रूपी सीधी सादी पटड़ी पर सरपट दौड़े जा रहे हैं ...उन को ख्वाहख्मां से एक तरह की हीन भावना का शिकार बना कर , उन के दांपत्य जीवन में भी इस तरह की परिभाषायें जहर ही घोलेंगी, उन के दांपत्य जीवन की रेल को ये मानक पटड़ी से नीचे गिरा कर ही दम लेंगी।

यही सोच रहा हूं कि जिस देश में काम-सूत्र की रचना हुई ...क्या अब इस तरह के टुच्चे-टुच्चे सर्वे यह तय करेंगे कि कौन शीघ्र-पतनी है और कौन तीसमारखां.....। मुझे तो पता नहीं क्यों ये सब सर्वे-वर्वे बिलकुल बेकार से ही लगते हैं......जैसा कि आप ने ऊपर रिपोर्ट में पढ़ा कि पहले जो मरीज पांच मिनट तक नहीं चल (!!) पाते थे ….उन्हें ही काउंसिल किया जाता था ,लेकिन अब ऐसा कौन सा कर्फ्यू लग गया कि आप विशेषज्ञ लोग सीधे ही पांच मिनट से एक मिनट पर उतर आये।

मेरे विचार में इस तरह की रिसर्च-वर्च सब दवा कंपनियां ही करवाती होंगी.....अब वे ढेरों दवाईयां बना रही हैं....वे अपने गोदाम भरने के लिये ही तो बना नहीं रही हैं.....अब उन्हें हर कीमत पर ग्राहक चाहिये......शीघ्र-छुट्टिये( प्री-मेच्योर इजैक्युलेटरस) नहीं मिल रहे तो मीडिया में इस तरह कि रिपोर्टें बारम्बार छाप कर इस सीधी-सादी जनता का दिमाग इतनी हद तक खराब कर दो, इन में इतनी ज़्यादा हीन भावना पैदा कर दो कि दिहाड़ीदार मज़दूर भी शाम को दिहाड़ी कर के लौटते समय तेल, हल्दी, घी के साथ साथ पास वाली दुकान से इस के लिये भी एक टेबलेट लेना न भूले........बच्चे के लिये कोई छोटा मोटा फल खरीदना तो पीछे कहीं रह गया ....उस मजदूर की ऐसी की तैसी...कैसे न खरीदे वो इस गोली को जो उसे इस हीन-भावना से उठा तो पाये।

विचार मेरा यह भी है कि इस तरह की न्यूज़-रिपोर्टों में सैक्स को एक मकैनिकल-प्रक्रिया का ही दर्जा दे दिया जाता है.......यानि कि 2 जमा 2 चार.....लेकिन सैक्स एक बिल्कुल ही व्यक्तिगत सी , बेहद व्यक्तिगत सी बात है..जो कोई भी दिमागी तौर पर तंदरूस्त बंदा हर किसी के साथ डिस्कस नहीं करता फिरता.........और फिर इस देश में.....तौबा..तौबा....इस देश में तो सैक्स के विभिन्न पहलू हैं.........इतने कहने पर भी मजबूर हूं कि यहां पर तो सैक्स के पूजा है......एक आराधना है, अर्चना है......केवल किसी अबला का शोषण नहीं है, बाहर के मुल्कों की तरह स्लीपिंग पिल नहीं है, वासना नहीं है.......................ऐसा क्यों लिख रहा हूं.......क्योंकि ज़िंदगी की किताब के जो पन्ने रोज़ाना पढ़ता हूं उन के आधार पर ही सब कुछ कह रहा हूं ...कोई अपनी तरफ से मिर्च-मसाला नहीं लगा रहा......कईं ऐसे ऐसे मरीज़ देखता हूं जिन की हालत कईं कईं बरसों से कुछ इस तरह की है कि वे तो अपनी दिन-चर्या भी नहीं कर पाते..........और मेरे महान देश की ये पूजनीय महान देवियां इन की सेवा-सुश्रुषा में बिल्कुल मां की तरह से सारा जीवन एक बिता डालती हैं.........अब इन दंपतियों को यह एक मिनट का पाठ कोई भी पढायेगा तो क्या बच पायेगा, अगर ज़ुर्रत भी करेगा तो तमाचा ही खायेगा !! मैंने यह भी सुन रखा है कि अमीर मुल्कों की औरतें तो अच्छे भले मर्दों को अपनी नाइट-गाउन की तरह बदल कर , उन के GPL लगा कर किसी दूसरे की हो जाती हैं......( क्या ......अब आप यह पूछ रहे हैं कि यह GPL तो बता कि क्या होता है.....आप सब सुधि पाठक हो, आप को यह ज्ञान तो होना ही चाहिये....नहीं है तो आपस में पूछ कर काम चला लो,भाई। फिर भी कहीं पता ना लग पाये तो इस नाचीज़ को ई-मेल कर के पूछ लीजियेगा......कोई बात नहीं....अभी तो बस इतना समझ लीजिये कि यह है कोई सीरियस सी बात !!) …..हां, इन के लिये तो बहुत ज़रूरी है इस तरह की शीघ्र-पतन की डैफीनीशन्ज़.....क्योंकि 55 सैकंड तक ही चल पाने वाले निकम्मे पति से कानूनी तौर पर छुटकारा लेने से लिये उसे कोई तो ग्राउंड चाहिये कि नहीं !!

एक बात आपने भी नोटिस की होगी इस रिपोर्ट में कि विशेषज्ञ कह रहे हं कि भारत में शीघ्र पतन के बहुत से केस 19-26 वर्ष के दरमियान पाये जाते हैं ....और 30वर्ष की आयु तक पहुंचते पहुंचते इन केसों की संख्या आधी रह जाती है। इस के बारे में थोड़ी चर्चा करते हैं......इस का कारण जो मैं समझ पाया हूं कि इस उम्र के दौरान इन नीम-हकीमों ने इन छोरों का दिमाग इतना ज़्यादा खराब कर दिया होता है कि वे अपने आप को असक्षम सा समझने लगते हैं। तरह तरह के पैम्फलेट ये सो-काल्ड सैक्स –स्पैशलिस्ट छपवा कर सार्वजनिक स्थानों पर बांटते फिरते हैं जिन में सब कुछ इतने ज्यादा नैगेटिव एवं डरावने से ढंग से कहा गया है कि इस उम्र के नौजवान अपने इतने ज़्यादा प्रोडक्टिव वर्षों में तरह तरह की हीन भावनाओं से ग्रस्त हो जाते हैं। इन में अकसर कुछ इस तरह से बातें की गई होती हैं कि बचपन की गलतियों से बरबाद हुये जीवन को ठीक कर लो, हस्त-मैथुन से , स्वप्न-दोष से जो लिंग टेढ़ा हो चुका है, बिल्कुल क्षीण हो चुका है, उस को ठीक कर भई , खानदानी हकीम जी आप लोगों के शुभचिंतक हैं जो बादशाही इलाज से सब कुछ ठीक ठाक कर देंगे........................अरे, बेवकूफों, ठीक तो उसे करोगे जो ठीक नहीं होगा......इन युवकों को बस यही तकलीफ है कि इन का दिमाग आप नीम-हकीमों ने ही तो खराब कर रखा है..they have literally mentally tortured some of our youth in believing that they are capable of doing nothing…..that they are impotent. Unfortunately once such a feeling takes roots in tender minds, then these .....इन्हें ना तो कुछ है , ना ही होगा......अगर कोई व्याधि थोड़ी बहुत है भी , तो क्वालीफाईड चिकित्सक किस लिये मैडीकल कालेजों से हर साल इतनी संख्या में निकल रहे हैं………….वे आखिर किस मर्ज की दवा हैं।

बात सोचने की यह भी तो है कि अगर इन युवकों में शीघ्र-पतन की समस्या इतनी ही ज़्यादा गहरी है तो फिर तीस साल के बाद इस शीघ्र-पतन के लोग आधे क्यों रह जाते हैं .....क्या ये सारे डाक्टर के पास जा कर इलाज करवा लेते हैं.......नहीं, नहीं, मुझे तो नहीं लगता कि चंद लोगों ( आटे में नमक के बराबर!)…के इलावा लोग इस तकलीफ़ के कारण किसी डाक्टर के पास कभी जाते भी हैं !!.....सीधी सी बात है कि इतने धक्के खा के इधर उधर वे इस उम्र में थोड़े मैच्योर होने लगते हैं और इस तरह की काल्पनिक (ज्यादातर काल्पनिक ही !!!!!!!!!!!!!......कोरी काल्पनिक.......!!!!!!) व्याधियों से वे ऊपर उठने लगते हैं। अरे भई इस देश के युवक अच्छी तरह से जानते हैं कि उन के वंशज क्या थे.....वे सैक्स को किस स्तर पर रखते थे.........उन्हें कुछ समय तक तो ये पैंफलेट गुमराह ( सैक्स शिक्षा के दुर्भाग्यपूर्ण अभाव के कारण ) कर सकते हैं लेकिन उन के पुरातन संस्कारों की जड़े इतनी पुख्ता हैं कि ये उन्हें डगमगाने नहीं देतीं।

हां, युवक की बात तो हो गई. लेकिन इतना तो हम मानते ही हैं कि कुछ दवाईयों के प्रयोग से इस तरह की समस्या टैंपरेरी तौर पर आ सकती है जिसे डाक्टर के परामर्श से दवा चेंज करने पर बिलकुल ठीक किया जा सकता है। और हां, कुछ शारीरिक तकलीफें भी हैं जिन में इस तरह की समस्यायें कभी कभी किसी को हो सकती हैं........जिन का समाधान चिकित्सक मरीज को बताते ही रहते है

हां, अगर किसी को कोई रियल बीमारी की वजह से ही यह सब हो रहा है तो फैमली फिजीशियन उसे किसी सर्जन अथवा यूरोलॉजिस्ट के पास चैक-अप क लिये रैफर कर ही देता है जिधर उस का आसानी से इलाज हो जाता है । लेकिन जाते जाते एक बात कहनी बहुत जरूरी समझता हूं कि इस तरह की तकलीफ़ें का केंद्र-बिंदु हम मन ही होता है.....और इन का समाधान भी हमारी पुरातन योगिक क्रियायों में धरा-पड़ा है....प्राणायाम्, ध्यान........और सब से ज़रूरी कि सभी व्यस्नों से कोसों दूर रहा जाये........।सादा, पौष्टिक भोजन लें। और क्या , बाकी सब राम भरोसे छोड़ दें.........सैकस कोई मैराथान रेस नहीं है...........किसी को दिखावा थोडे ही करना है..............इस देश में सैक्स को बहुत ऊंचा स्थान हासिल है.......पूजा के समान है यह......क्या आप यह नहीं मानते ??.......वैसे भी मियां-बीवी राज़ी तो क्या करेगा काज़ी ...........क्या पता कोई 30सैकंड वाले दंपति इतने खुश हों और बीस मिनट सरपट दौड़ने वाला धुरंदर धावक अंदर से बीवी की गालियों का ही पात्र बनता हो।

यह सब इतना पर्सनल है.....इतना पर्सनल है कि मेरी मीडिया से यही गुजारिश है कि कम से कम इस देश के बंदों को चैन से सोने तो दो यारो, पैसा कमाने के , सैंसेशन क्रियेट करने के और मौके कम हैं कि आपने उस की पलंग की चादर पर एक स्टॉप-वाच रख कर उस की नींद ही हराम कर दी। कुछ तो सोचो, यारो, कुछ तो सोचो.............बस, और क्या कहूं !!
जाते जाते बस इतना आप सब ब्लागर-बंधुओं से पूछ रहा हूं कि अगर आप इजाजत दें तो इस न्यूज़-रिपोर्ट के साथ जो कार्टून पेपर में छपा है उसे भी स्कैन कर के इस पोस्ट में डाल दूं.........लेकिन आप की आज्ञा के बिना नहीं......उसे देख कर आप बहुत हंसेंगे !!
ps……अगर किसी को यह पोस्ट पढ़ कर थोडा बहुत अटपटा लगा हो कि अब हिंदी चिट्ठों में भी लोग दिल खोलने लगे हैं तो उन से मैं कर-बद्ध क्षमा-याचक हूं.......लेकिन इतना तो आप को अब तक का मेरा ट्रैक-रिकार्ड देख कर यकीन हो ही गया होगा कि I am not interested in getting cheap thrills by writing such pieces……और इस का छोटा सा प्रूफ यह ही है कि मुझे पता है कि मेरा टीन-एज बेटा मेरी सारी पोस्टें पढ़ता है, और फिर भी मैंने इस तरह के सेंसेटिव से विषय पर लिखने का फैसला लिया क्योंकि I feel strongly about this sensitive issue because it involves millions of simple, naive, innocent people worldwide !!

बस, अब तो लिखना बंद करूं ....कहीं ऐसा न हो कि आप सब लोग अपनी टिप्पणीयों के माध्यम से मेरी धुनाई ही कर दो।

शुक्रवार, 16 मई 2008

आखिर डाक्टर ही अकेला कौन सा भाड़ फोड लेगा !!

चिकित्सा के क्षेत्र को बहुत ही नज़दीक से पिछले २५ सालों से देख रहा हूं....बस इसी बेसिस पर इतना तो ज़रूर कह सकता हूं कि ज़्यादातर बातें जो मरीज को परेशान कर रही होती हैं वे वास्तव में डाक्टर के कंट्रोल के बाहर ही की होती हैं। इस में तो कोई शक है ही नहीं कि एमरजैंसी केसों में तुरंत चिकित्सा के नज़रिये से तो चिकित्सा विज्ञान ने जिन आयामों को छुआ है उन्हें देख कर तो बस दांतों तले अंगुली दबाने की ही इच्छा होती है। लेकिन जहां तक जीवनशैली से संबंधित पुरानी बीमारियों की बात है, हम लोग ....हम लोग ही क्यों, सारा संसार जितना भी ढोल पीट ले, इतना कहना तो तय ही है कि इन बीमारियों के लोग लिटरली दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं । जो सरकारी कर्मी हैं या ईएसआई के अंतर्गत कवर हैं उन की हालत तो थोड़ी बेहतर है ....वो भी केवल इस लिये कि उन्हें दवाईयां फ्री मिल तो रही हैं , अब वे लोग कितनी हद तक डाक्टरी सलाह के अनुसार इन का सेवन करते होंगे, यह सोचने की बात है। लेकिन प्राईवेट सैक्टर के बारे में क्या कहूं......मरीज़ों के पास वहां तक जा कर दिखाने के अकसर पैसे ही नहीं होते, अगर कंसल्टेशन के पैसों का जुगा़ड़ हो भी जाता है तो दवाई कहां से आये...दो-तीन दिन की दवा करने पर ही आदमी को अपनी बीमारी की चिंता कम और आटे के खाली कनस्तर की चिंता ज़्यादा सताने लगती है।
लगभग ४०-५० लोगों से रोज़ मिलता हूं......कुछ बीमारियों उम्र के साथ जैसे कि हड्डीयों व जोड़ों की तकलीफें, यहां दर्द -वहां दर्द , गैस का गोला इधर भी और उधर भी, पिंडलीयों में दर्द, भूख न लगना , कमजोरी हो जाना, दिल एवं दिमाग की बीमारियां ( आप क्या कहते हैं कि बीमारियां लिखूं या परेशानियां। ).......नित प्रतिदिन मैं अपनी ओपीडी में बैठा इन चेहरों को पढ़ता हूं.......और फिर बातों बातों में बता भी देता हूं कि हमारी ज़्यादातर तकलीफें हमारी अपनी ही बुलाई हुई हैं। तो मैं कुछ बातें स्वस्थ जीवन के लिये उन को गिना देता हूं...
-- सादा, पौष्टिक खाना खायें......( वो मुझे भी पता है कि आज कल यह कहां हर एक के बस में है।
---तंबाकू सेवन, अल्कोहल से हमेशा दूर रहें। जंक फूड न लें।
---शारीरिक कसरत किया करें.....टहलने जाया करें.....और सब से सब से सब से ज़रूरी है कि प्राणायाम किया करें। और ध्यान की विधि की किसी ग्रेट मास्टर से सीख कर उस का भी अभ्यास किया करें।

पता नहीं कितने लोग बातें मानते होंगे, कितने एक कान से घुसा कर दूसरे से निकाल बाहर करते होंगे...मैं कुछ नहीं कह सकता। लेकिन अपना फर्ज है कि ये बातें चीख-चीख कर कहना ----वही काम किये जा रहे हैं और क्या ।।

मुझे इन पार्टीयों वगैरह में जाने से चिढ़ है

क्योंकि इन में मन में कुछ चल रहा होता है, बंदा सोच रहा होता है, कह कुछ रहा होता है और उस का मतलब कुछ और ही होता है.....नकली प्लास्टिक मुस्कुराहटों से नफरत करता हूं मैं.......अभी दो मिनट पहले किसी के साथ मिला कर अगले पांच मिनटों में जैसे ही वह आंखों से ओझल होता है, आप उस बेचारे की कमजोरियां गिनाना शुरू कर देते हो...........यह सब बेहद चीप हरकतें हैं....मेरा इन में कोई इंटरस्ट नहीं है इसलिये मैं ज़्यादातर इन पार्टीयों वगैरा से दूर ही रहना चाहता हूं। मैंने बहुत नज़दीक से छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी पार्टीयों को देखा है लेकिन यही देखा है कि जिन्हें हम छोटी मोटी पार्टीयां कहते हैं वहां पर लोग जी रहे होते हैं .....बड़ी बड़ी पार्टियों और जश्नों में हम लोग केवल गोसिपिंग करते हैं , केवल चुगलखोरियां, केवल पर-छिद्रानवेषण ..............लेकिन ना भी करें तो क्यों ना करें......हमें मजा आता है....हमें इस की आदत लग चुकी है। क्या फायदा इस तरह की पार्टियों में जाने का ...इस से घर पर बैठ कर एफएम पर गाने ही सुन लो।
देखो, दोस्तो, अब हो चुके हैं छः महीने ब्लागरी में पैर धरे हुये थे.....बहुत हो गईं अच्छी अच्छी बातें......सोच रहा हूं अब तो शुरू करूं अपने मन की बात कहना । तो, दोस्तों, शुरू करूंगा आज से यह जो नया काम करने जा रहा हूं उस में शत-प्रतिशत इमानदारी ही हो, और कुछ नहीं.......।

मुझे सत्संग में जाकर अच्छा क्यों नहीं लगता !!

मैं अपने आप से कईं बार पूछ चुका हूं कि मुझे सत्संग में जाकर भी ज़्यादा अच्छा क्यों नहीं लगता......सोच रहा हूं कि शायद वह इस लिये होगा कि जो भी मैं वहां सुनता हूं उस को अपनी लाइफ में उतार तो पाता नहीं हूं.....इसीलिये मुझे ऐसी जगहों पर जाकर आलस सा ही आता रहता है.....ऐसा लगता है कि किसी थ्योरी की क्लास अटैंड करने जा रहा हूं...बड़े बोझ से जाताहूं ज़्यादातर मौकों पर......भार लगता है इन जगहों पर जाना। मैं तो बस केवल यही समझता हूं कि हमें उस परमात्मा, गाड, अल्ला , यीशू के सभी बंदों के साथ प्यार करना आ जाये तो बस समझो कि हमें मंजिल मिल ही गई। मैं कबीर जी की इस बात का बेहद कायल हूं कि .......पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया ना कोय....ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय। बस, बात यही पते की जान पड़ती है..........पंजाबी में भी कहते हैं...मन होवे चंगा॥कठोती विच गंगा....। मुझे तो लगता नहीं कि मेरा मन किसी सत्संग में कभी ठहर पायेगा। लेकिन पता नहीं जब मुझे कुछ चाहिये होता है, मेरे पर कोई मुश्किल आन पड़ती है, मेरे को दिन में तारे नज़र आने शुरू हो जाते हैं तो मैं ज्यादा भागता हूं इन सत्संगों की तरफ....लेकिन किसी अनजान डर की वजह से, किसी अनजान खौफ की वजह से, किसी भी अनहोनी से अपनी और अपनों की रक्षा के लिये....पर पता नहीं मेरा मन क्यों नहीं लगता इन सत्संगों में......मैं यही समझता हूं कि अगरी मेरी सोच, मेरी कथनी, मेरी करनी में अंतर है तो क्या फायदा होगा मुझे इन सत्संगों में जाने का .........पता नहीं मुझे ये विचार बारबार तंग करते हैं और खास कर ऐसे सत्संगों में जहां पर यह कहते हैं कि आप लोग अज्ञानी हो, बुरे हो, अच्छे बनो, वरना मानव जीवन व्यर्थ चला जायेगा......इस तरह की बातें.....मैं तो उस समय यही सोच रहा होता हूं कि अगर व्यर्थ चला भी गया यह जीवन तो क्या ....हम ने कौन सा मोल खरीदा है.............और यह भी सोचता हूं कि यह मुक्ति वुक्ति का क्या चक्कर है....किन ने देखी कि किसे मिली मुक्ति और किसे नहीं..........बस, ये बातें मुझे बोर कर देती हैं। लेकिन एक जगह पर जाकर मैं कभी बोर नहीं होता....जहां मैं बार बार गया और मुझे कभी नहीं लगा कि आयेहुये लोगों की नुक्ताचीनी कर रहे हैं....इन के यहां कोई दिखावा भी नहीं होता। इसलिये मैं इस संस्था से जुड़ा रहना चाहता हूं लेकिन मेरी मजबूरी है कि मेरे शहर में इस की कोई ब्रांच नहीं है......तो फिर मैं क्या करूं ...वैसे मुझे तो इसी संस्था में जाकर ही जीने का थोड़ा बहुत सलीका आया है, मेरा चंचल मन ठहर सा गया है, लेकिन मैं इस के साथ लगातार जुड़े रहना चाहता हूं।

बुधवार, 14 मई 2008

काश ! थोड़ा-बहुत गुज़ारे लायक ही इतिहास-भूगोल पढ़ लिया होता...

स्वयं एक क्वालीफाईड जर्नलिस्ट होते हुये भी आज आप को बता ही देता हूं कि मेरा हिस्ट्री-ज्योग्राफी का ज्ञान शून्य के बराबर है। अगर मुझे कोई पूछे ना कि बताओ कि हिंदोस्तान के नक्शे में यह अंडमान-निकोबार द्वीप-समूह किधर है तो मेरी आँखें दस मिनट तक नक्शे के इधर उधर ही घूमती रहेंगी और उस के बाद भी मारूंगा तुक्का ही .....हां, हां, बिलकुल मैट्रिक के हिस्ट्री-ज्योग्राफी के पेपर की ही तरह।

मैट्रिक का पेपर देने के बाद मुझे पता है कि रिजल्ट आने तक मेरा डेढ़-दो महीना कैसा गुज़रा था.....क्योंकि मुझे ही पता था कि मैं इतिहास-भूगोल के पेपर में क्या गंद डाल के आया था। बस, इतना सुन रखा था कि हिस्ट्री वाले पेपर जांचने वाले पेपर पढ़ते नहीं है, लंबाई नापते हैं......बस, इसी बात का ही सहारा था। वैसे मैं इतनी गप्पे हांक कर आया था कि क्या कहूं...मुझे अच्छी तरह से याद है कि मुझे अगर किसी प्रश्न के बारे में दो-चार लाइनें भी पता थीं ना तो मुझे पता है कि मैंने कैसे उन्हें चालीस बना कर दम लिया था और वह भी खुला खुला लिख कर ताकि चैक करने वाले मास्टर को 5-6 नंबर देने में कोई आपत्ति तो ना हो....वह बस तरस कर ले कि यार, लड़के ने लिखा तो है ही ना........बस, पता नहीं चैक करने वाले को ही रहम आ गया होगा कि मेरे 150 में से 94 अंक आ गये.....वैसे तो मैं मैरिट सूची में था। बस, सचमुच रिजल्ट आने पर राहत की सांस ही ली थी......क्योंकि मुझे इस तरह के नाइट-मेयर्स होते थे उन दिनों कि बच्चू तू बाकी विषयों में ते लेगा 85-90प्रतिशत लेकिन हिस्ट्री-ज्योग्राफी खोलेगी तेरी पोल।

यह जो ऊपर मैंने चार लाइनों को चालीस तक खींचने की बात की है.....अब लग रहा है कि ब्लॉगर बनने के गुण शायद इस नाचीज़ में बचपन ही से मौज़ूद थे। हां, एक बात ज़रूर कहना चाहूंगा कि जब भी मैं इस पेपर का पहला प्रश्न लिखना शुरू करता था तो यह सुनिश्चित किया करता था कि पहला सवाल एकदम धांसू सा पकड़ूं........हम लोग आपस में बातें तो किया ही करते थे कि यार, बस अग्ज़ामीनर पर एक बार इंप्रैशन पड़ गया ना तो समझो कि उस ने बाकी फिर कुछ नहीं देखना। बस, इस बात को अपनी सारी पढ़ाई में फॉलो किया। पंजाबी में हमारे दोस्त कहा करते थे कि यार, हिस्ट्री विच तक गिट्ठां मिन के नंबर मिलदे ने.......यानि की हिस्ट्री में तो पेपर को हाथ से नाप-नाप के ही नंबर मिलते हैं.....बस, इसी बात का ही आसरा लग रहा था। भूगोल का भी वो हाल कि नक्शे में कुछ भी भऱना आता ना था .....बस, तुक्के पे तुक्के.....फिर रबड़ से मिटा मिटा के बार-बार तुक्के ताकि पेपर जांचने वाले को दूर से पता चल जाये कि इस को आता जाता तो कुछ है नहीं, बेवकूफ बनाने के चक्कर में ही है।

डीएवी स्कूल अमृतसर में पढ़ा हूं.....लेकिन वहां पर मुझे यह ध्यान नहीं है कि कोई भी टीचर ऐसा होता कि जो मेरे को हिस्ट्री-भूगोल में मेरी ऱूचि पैदा कर पाता। वैसे है तो यह बात अपना दोष किसी ओर के ऊपर मढ़ने की.......लेकिन फिर भी कर रहा हूं। क्योंकि अपना दोष किसी और के सिर मढ़ने में अच्छा लगता है....है कि नहीं, सच-सच बताईये। अच्छा , तो इतिहास-भूगोल का इतना ही याद है कि पांचवी-छठी कक्षा तक तो शिखर -दोपहरी में कच्छे-बनियान में बैठ कर बेहद चाव से इस के सवाल-जवाब अपनी कापी पर लिखा करते थे । लेकिन उस के बाद पता नहीं कब यह इंटरैस्ट कहीं दूर हवा हो गया.....मुझे पता नहीं ।

जहां तक मुझे अपने इतिहास-भूगोल के मास्टरों का याद है ....उन्हें तो बस यही होता था कि बस सत्र के शुरू ही में कैसे गाइड़े वगैरा बस लगवा देनी हैं। बस क्लास से क्लास छलांग लगाते तो गये लेकिन इस हिस्ट्री -भूगोल में बिल्कुल कोरे।

चलिये, आप से कैसी शर्म ....अपना इतिहास-भूगोल का ज्ञान आप के साथ एक पैराग्राफ में ही बांट लेतता हूं....पता नहीं वैसे तो मैं बेहद रिज़र्व किस्म का इंसान हूं लेकिन आप से कुछ भी बांटने में कभी भी लज्जा महसूस नहीं हुई .....पता है क्यों......क्योंकि आप सब मुझे अपने सखा -बंधु ही लगते हो......आप भी तो अपने दुःख -सुख कैसे बिना किसी झिझक के सांझे कर लेते हो। हिस्ट्री में तो दोस्तो हम यही पढ़ते रहे कि पानीपत का यूद्ध कब हुया, किस किस के बीच हुया....हां, कुछ कुछ प्लासी का युद्ध भी पढ़ा। जैन और बुद्ध धर्म के नियम भी पढ़े.....धन्यवाद हो, गौत्तम बुद्ध जी का और उस से भी ज़्यादा महावीर जैन प्रभु का ..............क्योंकि ये सिद्धांत बेहद आसान लगते थे। इस्ट इंडिया कंपनी के बारे में भी पढते थे। मोहंमद तुगलक के बारे में पढ़ते तो थे कुछ कुछ.....अब ध्यान नहीं आ रहा कि क्या ...शायद उस ने मेरे पुरखों पर बहुत हमले-वमले किये थे.....शेर शाह सूरी के बारे में पढ़ते थे कि उस ने जीटी रोड बनवाई थी.....अच्छा लगता था.....और हां, मोहम्मद गौरी और महमूद गजनवी ने यारो बहुत डराया है इन छोटी कक्षाओं में ........उन के बार-बार हमलों के बारे में जानकर और मंदिर वगैरह में की गई लूट-पाट जानकर कुछ इस तरह से सहम जाया करता था कि जैसे हमारे घऱ में ही डाका पड़ गया है। यह तो था मेरा हिस्ट्री ज्ञान......हां, हां, था मैंने बिलकुल ठीक लिखा है....अब इन में से कुछ भी नहीं याद।

अब अपने भूगोल ज्ञान के बारे में भी लिख दूं......आज तक मुझे कुछ पता नहीं दुनिया कितने हिस्सों में बंटी हुई है.....कौन सा देश कहां है...बस मेरे लिये जो तस्वीर मन में पांचवी कक्षा से चली आ रही है उसे कोई भी हिला--डुला नहीं पाया ....तस्वीर यही कि हिंदोस्तोन की हदों के बाहर समुंदर है और फिर आता है इंग्लैंड और अमेरिका ........फिर जब पंजाब से बहुत से लोग कैनेडा जाने शुरू हो गये तो मुझे पता चला कि कैनेडा भी कोई जगह है।

जो हमारे मास्टर थे उन में से एक थे ...बहुत डरावने से...बडी-बड़ी मूंछे.......मुझे उन की मानसिक स्थिति एवं आव-भाव देख कर पता नहीं क्यूं लगता था कि उन की पर्सनल लाइफ कुछ ठीक नहीं थी.....दूसरे लड़के तो उन से नफरत सी ही करते थे लेकिन मुझे पता नहीं क्यों उन से सहानुभूति सी लगती थी। वे अपने छोटे से बेटे को अपने साथ कईं बार क्लास में लाते थे......और मुझ उस पर भी बहुत रहम ही आता था........उस को भी वे अजीब से ढंग से डरा-धमका के ही रखते थे। अब सोचता हूं कि क्या मास्टर लोग ह्यूमन नहीं होते क्या .....उन की भी अपनी कुंठायें हैं, अपने मसले हैं , अपने दबी भावनायें हैं......सो, दोस्तो, मुझे अपने इस मास्टर से भी कोई गिला-शिकवा ही नहीं है लेकिन दो बातें याद हैं कि मुझे एक बार तो उन्होंने वर्दी न डालने के कारण एक जबरदस्त करारा सा थप्पड़ मारा था ( नौवीं कक्षा में) और दूसरा जब मैंने किसी कारणवश एक दिन दंदासा इस्तेमाल किया हुया था ....( पंजाब में हम लोग रंगीन दातुन को --अखरोट छाल --- दंदासा कहते हैं).......जिस की वजह से मेरे होंठों पर थोडा उस दातुन का रंग लगा हुया था तो उन्होंने मुझे सारी क्लास के सामने कहा था कि तू सैक्स ही चेंज करवा ले, आज कल हो रहे हैं...............ऐसा उन्होंने इस लिये कहा था कि पंजाब में रंगीन दातुन ज्यादातर महिलायें ही इस्तेमाल करती थीं लेकिन उस दिन शाय़द घर में पेस्ट खत्म थी , या कुछ और कारण था...बस, कुछ तो लफड़ा था, इसलिये मैंने उसे इस्तेमाल किया था।

बस, उस मास्टर की यह बात मैं बहुत दिनों तक सोचता रहा था लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि पहले कईं मास्टर लोग भी शायद इतने सेंसेटिव किस्म के नहीं थे.....कोई कोई, ऑफ कोर्स-----कुछ भी कह देते थे और सब के सामने और फिर उस अबोध मन पर क्या बीतता था , उन इस से कोई खास सरोकार नहीं होता था। चलो, यारो, छोड़ो ....मैं भी क्यों उस बेचारे मास्टर के पीछे ही हाथ धो कर पड़ गया हूं। जहां भी हों, वे खुश रहें।

अब जल्दी जल्दी से एक बात लिखनी यह भी है कि मेरे इस हिस्ट्री-भूगोल के बिलकुल शून्य के बराबर ज्ञान का मेरे ऊपर क्या प्रभाव पड़ा......बिल्कुल पड़ा, सज्जनो, क्योंकि मैं इस अल्प-ज्ञान की वजह से ना तो अखबारों की खबरें ही समझ पाता हूं....ना ही ज़्यादातर खबरों से रिलेट ही कर पाता हूं......और हमारे प्रोफैसर साहब कहा करते थे कि अंग्रेजी का सीएनएन एवं बीबीसी न्यूज़ चैनल रोज़ाना ज़रूर देखा करो ....लेकिन कोशिश तो की ....लेकिन जब भी वे किसी जगह का नाम लेते हैं, मैं कहीं गुम हो जाता हूं और झट से दौड़ कर उस चैनल पर वापिस आ जाता हूं जहां निंबूडा-निंबूडा वाला गाना चल रहा होता है या लाफ्टर चैनल पर पांच मिनट बिता कर अपने इतिहास-भूगोल ना जानने का दुःख भूल सा जाता हूं।

एक बात यह भी करनी चाह रहा हूं कि डाक्टरी की पढ़ाई करने के बाद भी मैंने अपने इतिहास-भूगोल के ज्ञान को सुधारना तो चाहा, कभी बच्चों की किताबें पढ़ के, कभी एनसीईआरटी की बहुत ही बेहतरीन किताबें खरीद कर ....लेकिन मैं भई नहीं जान पाया कि यह हिस्ट्री-ज्योग्राफी क्या बला है।

एक बात और यह भी कह रहा हूं कि एक तरफ मेरे को तो मलाल है कि मैंने हिसट्री-ज्योग्राफी ढंग से नहीं पढ़ी और उधर मेरी माताश्री इस बात से परेशान हैं कि उन्होंने ने काहे अंग्रेज़ी की तरफ़ स्कूल में ध्यान नहीं दिया.......अकसर कहती हैं कि उन की फलां-फलां सखी अंग्रजी में अच्छी थी और वह जम्मू से डिप्टी -डायरैक्टर के पद से रिटायर हुई हैं। और अब सुनाता हूं ...बीवी की .....श्रीमति जी से इस पोस्ट लिखते समय इतना ही पूछा कि ज्योत्स्ना, क्या वह राजा तुगलक ही था ना जो बहुत खाता था....तो उन्होंने भी झट से जवाब दे डाला.......मुझे नहीं पता नहीं इन चीजों के बारे में .....आप ही हो इतनी पुरानी बातों को याद किये रखते हो......हम तो याद करते थे और फिर भूल-भाल के छुट्टी किया करते थे................बस , बीवी का यह जवाब सुन कर मुझे राहत महसूस हुई कि मैं अकेला ही नहीं हूं....यहां तो सारी फैमिली ही अज्ञानी है, तो फिर दिल पे क्या लेना यारो।

हां, अब जाते जाते मुझे कुछ सीरियस से सुझाव दीजिये कि मैं अपने हिसट्री-भूगोल के ज्ञान को थोडा बहुत आगे धक्का देने के लिये आखिर करूं भी तो क्या !!

रविवार, 11 मई 2008

तुझे सब है पता, है न मां !!


आज सुबह अखबार देख के पता चला कि कुछ भारतीयों को कल पद्म-श्री, पद्म-विभूषण जैसे अवार्डों से नवाज़ा गया है....कुछ की फोटो भी छपी थी....लेकिन आज मां-दिवस होने की वजह से मैं समाचार-पत्र में ढूंढ रहा था कि शायद कहीं किसी मां को भी कोई छोटा-मोटा इनाम मिल गया हो। लेकिन फिर सोचा कि मैं भी क्या बचकानी बातें सोचने लगता हूं कभी कभी ....अब यह सर्वोत्तम मां, अद्वितीय मां......अब इस तरह के अवार्ड भी क्या सरकार घोषित करेगी क्या!! क्योंकि मां तो हम सब की लाइफ में वो शख्स है जिस के जिम्मे तो बस सब तरह के काम ही आते हैं और हमारा फर्ज़ सिर्फ़ इतना ही है कि हम ने इस को हमेशा टेकन-फॉर-ग्रांटड ही लेना है।

तो, चलिये आप को अपनी मां ( हम इन्हें बीजी) से मिलवाता हूं....ये हमारी बीजी हैं...श्रीमति संतोष चोपड़ा जी....इस देश की करोड़ों माताओं की तरह की ही एक मां। पता नहीं मुझे इस देश की सारी मातायें हमेशा एक जैसी ही क्यों दिखती हैं....इन की सोच एक जैसी होती है ....बस जिस में सब का भला हो ये जगह जगह बारम्बार यही दुआयें करती रहती हैं।

जब से होश संभाला है मैंने तो बीजी को बार-बार पाठ-पूजा करते पाया है, बार-बार रामायण पढ़ते देखा है। कुछ विचार आज मां-दिवस पर मन में आ रहे हैं जो लिख रहा हूं। सब से बहुत बढ़िया विचार तो यही आ रहा है कि मेरी मां ने मेरी एक बार भी पिटाई नहीं की है........बीजी कहती हैं कि तुम थे ही इतने अच्छे कि इस की कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। लेकिन यह बिल्कुल सच्चाई है कि अपनी मां के हाथों पिटे हों, इस की कोई धुंधली याद भी नहीं है।

एक बार और कहना चाह रहा हूं कि जब भी मैं अपनी बीजी के साथ बचपन में सब्जी या राशन लेने जाया करता था तो कभी अपनी मां के पर्स की फिकर किये बिना कोई न कोई फरमाईश रख दिया करता था...लेकिन आज तक याद नहीं कि कभी भी मां ने उस फरमाईश को तुरंत पूरा न किया हो। एक बात और भी है ना कि स्कूल-कालेज के दिनों में जब भी मां से 10-15 रूपये मांगे मुझे पता नहीं अपनी अलमारी के किस कौने से एमरजैंसी के लिये रखे पैसे निकाल कर तुरंत हाज़िर कर देती थीं............जैसे जैसे मैं बड़ा हुया तो मुझे अहसास हुया कि यार ,इस से मां के बजट को झटका तो ज़रूर लगता होगा...........लेकिन इस मां ने कभी भी इस बात को मुझे महसूस नहीं होने दिया। लेकिन इतना तो तय ही था कि मांगने पर पैसा तो मिलना ही है।

एक बात और याद आ रही है कि मेरे दो मामे बिल्कुल यौवनावस्था में चल बसे...एक मामे की उम्र तो मात्र 28 साल की थी और जब वे गुज़रे तो मैं 10-12 साल का था, दूसरे मामा के इंतकाल का 30 साल की आयु में ही हो गया था। मैं यह सब इसलिये यहां लिख रहा हूं कि इन मौकों पर मुझे अपनी मां के मजबूत होने का एक नमूना दिखा.....इतने युवा भाईयों के अचानक चले जाने के सदमे में मां पता नहीं कितना विर्लाप, क्रंदन करती होगी....लेकिन यकीन मानिये, जब हम भाई-बहन सामने होती तो बीजी बिल्कुल नार्मल-सा ही बिहेव करतीं ......मां चाहे कुछ कहे या न कहे लेकिन वे बच्चे भी क्या जो मां के चेहरे की खुली किताब को ही न पढ़ पायें......मुझे तब से ही यही लगता रहा मां बिल्कुल नार्मल-सा दिखने की कोशिश केवल हम बच्चों की सलामती के लिये करती हैं....वे सोच रही हैं कि कहीं उसे रोते देख बच्चों को कुछ न हो जाये। तो, देखिये इस देश की मातायें जो अपनों के चले जाने पर बच्चों की सलामती के लिये खुल कर रोती भी नहीं हैं। मेरे पिता जी के स्वर्गवास होने पर भी मैंने अपनी मां का यही रूप देखा......अंदर से दुःख, बाहर से काफी हद तक नार्मल सा दिखने की कोशिश।

और हर एक पर इतनी जल्दी विश्वास करने वाली कि क्या बताऊं....मुझे याद है कि मैं तब तीसरी-चौथी कक्षा में पढ़ता होऊंगा जब मैं और मेरी मां अमृतसर से अंबाला( जहां मेरे नानी-नाना रहते थे).... जा रहे थे तो जब ट्रेन लुधियाना स्टेशन पर पहुंची तो मैं लगा पानी के लिये मचलने । हमारे सामने की सीट पर बैठे एक व्यक्ति ने कहा कि मैं भी पानी पीने जा रहा हूं तो मेरी मां ने मुझे भी उस के साथ प्लेटफार्म पर पानी पीने भेज दिया था......( नल हमारे डिब्बे से काफी दूर था...)...और मुझे याद है उस बंदे ने मुझे बुक से ( बहते नल से अपनी हथेलियों को जोड़ कर पानी पिलवाया था। और गाड़ी छूटने से पहले हम लोग वापिस सीट पर पहुंच भी गये थे।

लिखने को तो दोस्तो इतना कुछ है कि मां-बच्चों के संबंधों पर पोथियां लिखी जा सकती हैं.....हमारी सब की मातायें एक जैसी ही हैं.....कोई फर्क नहीं है.....पहरावे का फर्क हो सकता है , बोली थोड़ी भिन्न हो सकती हैं लेकिन दिल इन सब का एक जैसा ही है। आज मां-दिवस पर मैं अपने आप से कुछ सवाल पूछ रहा हूं.....

जब हम लोग बचपन में पहला कदम चलते हैं तो हमारे मां-बाप की खुशी का कोई ठिकाना नहीं होता...ऐसा लगता है कि मानो खुशी के मारे उन की सांसे ही थम गई हैं। और फिर उन की तपस्या शुरू होती है बच्चे की अंगुली थाम कर छोटे छोटे कदमों से उसे चलना सिखाने की। लेकिन,दोस्तो, मैं जब किसी नौजवान को अपनी मां-बाप का हाथ थामे देखता हूं तो मुझे वह अपनापन, वह स्नेह नज़र नहीं आता......अकसर ऐसा लगता है कि भीड़ भाड़ वाले एरिये से अपनी मां को सेफ्ली निकाल कर या सेफ्ली सड़क क्रास करवा कर उस पर कोई एहसान सा किया जा रहा है। मैं भी कौन सा कम हूं......सोचता हूं कि मां के साथ घर के बाहर रोज़ थोड़ा टहलूं .....लेकिन तब विचार आता है कि यार, बीजी तो बहुत धीमा चलती हैं और मैं इतनी तेज़। ध्यान फिर यही आता है कि अगर बचपन में मां-बाप भी कुछ ऐसी ही सोच रखते तो तेरा क्या होता कालिया !!

दूसरी बात यह कि जब बच्चा बिल्कुल ही छोटा होता है तो झट से उस के कानों के सामने चुटकी बजा कर चैक किया जाता है कि वह ठीक तरह से सुन भी पाता है कि नहीं। यही नहीं , मां-बाप तरह तरह की छोटी छोटी बातें उस से करते नहीं थकते.......वह कोई जवाब थोड़े ही देता है....लेकिन बस मां-बाप के इसी मेहनत का रिज़ल्ट यह निकलता है कि वह धीरे धीरे बोलना शुरू कर देता है......मां......मां.........पा...पा....., पा.....पा। लेकिन आज मां –दिवस के दिन अपने आप से यह पूछने की इच्छा हो रही है कि यार, मां को अगर अब थोड़ा ऊंचा सुनाई देता है और कईं बार कोई बात दूसरी बार दोहराने में मुझे कभी कभी थोड़ी तकलीफ़ सी क्यों होती है.............मां को तो बचपन में अपने नन्हों मुन्नों के साथ तोतली भाषा में घंटों बतियाते न तो कोई तकलीफ ही होती है और ना ही झुंझलाहट।

दोस्तो, आप सब बहुत पढ़े-लिखे ज्ञानी लोग हो, आप सब कुछ समझते हो...कुछ उदाहरणें ही यहां मैंने दी हैं। लेकिन एक बात तो तय है कि दोस्तो हमारी मातायें वे यूनिवर्सिटियां हैं जिन से हम हर रोज़ सीखते हैं..........दुनियावी यूनिवर्सिटी तो चुस्त-चलाकी सिखाती हैं, अपनी उल्लू कैसे सीधा करना है सिखाती हैं.................लेकिन यूनिवर्सिटी जो हमारे घर में बसती हैं यह हमें जीने का सलीका सिखाती हैं, हमें सिखाती हैं कि सब इंसान एक जैसे हैं, जात-पात कुछ नहीं होती, गिरे को कैसे उठाया जाता है यह सिखाती हैं, रोते हुये के आंसू पोंछने का आर्ट भी तो यही सिखाती है, चोरी से बचने के लिये वह मां के कान कुतरने वाली बात भी सब से पहले यही सुनाती है, रामायण-महाभारत की कहानियां सुनाती भी ये नहीं थकतीं....................और क्या क्या लिखूं......सीधी सी बात है कि मां-दिवस पर अगर हम लोग मां की महानताओं का बखान करना चाहते हैं तो फिर समुंदर जितनी तो दवात चाहिये और दुनिया के सभी सरकंड़ों से तैयार की गई कलम भी छोटी पड़ जायेगी।

हां, लिखते लिखते ध्यान आया कि जब हम लोग स्कूल से लौटकर अपनी मां के साथ छोटी छोटी बातें करते थे तो उस ने तो अपने सारे काम रोक-राक कर हमारी बातें सुनीं......और हम ने इन बातों को एक ही बार थोड़े ही सुनाया, जब तक हम लोग इन बातों को बार बार सुनाते थक नहीं जाते थे , वह भी कहां हां में हां मिलाते हुये थकती थी। लेकिन अपने आप से पूछ रहा हूं कि आज जब मेरी मां किसी धार्मिक पुस्तक से कोई प्रसंग सुनाना शुरू करती है तो मुझे क्यों यह लगता है कि यार, बीजी ने तो बहुत लंबा प्रंसग चुन लिया है....................सीधा सा मतलब है दोस्तो कि मेरे मन में ही कुछ गड़बड़ है, और कुछ नहीं। बेचारी मां का क्या है, उसे लगता है कि बच्चे ध्यान नहीं दे रहे.....या टीवी में ज्यादा इंटरैस्ट ले रहे हैं तो वह अपने किसी दूसरे काम में लग जाती हैं।

पोस्ट लंबी ही हो गई है...लेकिन एक दो बातें करनी अभी बाकी हैं.......एक तो यह कि ये जो वृद्ध आश्रम हैं .....क्या आप को लगता है कि वहां लोग खुशी से रहते हैं....नहीं ना, तो फिर केवल यही प्रार्थना है कि जिन मां –बाप के भी बच्चे जिंदा हैं अगर इस देश में भी ऐसे मां-बाप को इन ओल्ड-एज होम्ज़ में रहना पड़ रहा है.......तो मैं समझता हूं कि अपने मां-बाप को इस से बड़ी गाली हम दे ही नहीं सकते, इस से ज़्यादा अपमानित हम उन्हें कर ही नहीं सकते। मां-दिवस है आज.....एक बात का और ध्यान आया है कि यह जो वूमैन रिज़र्वेशन बिल आने वाला है..........इस को पास करने वालों को काश आज ही मातृ-शक्ति के ऊपर लिखी विभिन्न पोस्टों के बारे में भी पता लगे ताकि इस बिल का किसी तरह का भी विरोध करने से पहले ये मातृ-शक्तियों की कुरबानियों की तरफ तो थोड़ा ध्यान कर लें। इस देश की अधिकांश माताओं का दिन तो सुबह मुंह-अंधेरे ही रोटियां सेंकने और बार-बार चाय के पतीले आंच पर रखने से ही शुरू हो जाता है.......लेकिन यह आज की बात थोड़े ही है......आज तो गैस के बटन का कान मरोड़ा और हो गये शुरू......लेकिन बात तो उन दिनों की थी दोस्तो जब सुबह सुबह ठिठुरती ठंडी में जब मैं और आप रजाई में दुबके पड़े होते थे और हमारी मातायें हमारे स्कूल का डिब्बा बनाने में लगी होती थीं..............जिस के परिणामस्वरूप आज मैं और आप सब अचानक इतने महान हो गये कि ब्लॉगर ही बन बैठे।

एक बात और करनी है कि ठीक है यार अंग्रेज़ों ने हमें एक दिन दिया तो अपनी मां की भूमिका को याद करने के लिये। लेकिन हमारे देश की तो दोस्तो संस्कृति ही कुछ ऐसी है कि हम सब के लिये तो शायद रोज़ ही मां-दिवस होता है। ये हमारे पुरातन संस्कार हैं..............। रोज़ाना ही मां –दिवस वाली बात कुछ ज़्यादा ही नहीं लग रही.....यह कैसे संभव होगा..............उस का सीधा सादा फार्मूला यही है जो कि मैं समझा हूं कि हमें अपनी मां को अपने सब से छोटे बच्चे की तरह ही समझना होगा और उस से वैसा ही व्यवहार भी करना होगा.....कहीं भी गड़बड़ हो रही हो तो हम यही मानक तय कर लें...........तो आप भी मेरी तरह इस से सहमत हैं तो दें ताली............वरना कैसा मां-दिवस और कैसा मदर्स-डे !!

पुनश्चः --- अब पोस्ट लंबी है, खफ़ा न हों....अब मुझे इस देश की सारी मातायों की महानता बखान करने की चाह हुई थी तो इतनी लंबाई की तो छूट दे ही दीजिये। और हां, देखिये, इस समय भी मेरी मां ने ही मुझे ( या आपको ?) बचा लिया क्योंकि बेटे ने आकर बुलावा दे दिया है कि बीजी बुला रही हैं , खाना खा लो, वरना मेरा क्या है.............मैं तो पता नहीं कहां कहां की गप्पें हांकता रहता !