बुधवार, 11 नवंबर 2015

फूलों की भी अच्छी आफ़त हो जाती है

एक दिन नहीं, दो दिन नहीं...हमेशा ही ...कोई भी मौका हो...खुशी, गमी, कोई धार्मिक, सामाजिक या आध्यात्मिक पर्व..हर जगह खूब फूल इस्तेमाल हुए होते हैं। मुझे यह देख कर अजीब सा लगता है..

फूल की जगह ही पेड़ पर है, रंग बिरंगे फूल पत्ते आने जाने वाले के मन को खुश कर देते हैं...करते हैं ना?...फिर इन्हें तोड़ने से क्या हासिल...

मैं अकसर सत्संग में एक भजन सुनता हूं जिस के शुरूआती बोल कुछ इस तरह से हैं....

क्या भेंट करूं तुम्हें भगवन..
हर चीज़ तुम्हारी है!

किसी का स्वागत समारोह हो, श्रद्धांजलि हो....कुछ भी कभी भी ....बस, ढ़ेरों फूल तो चाहिए ही होते हैं...कुछ लोग खरीद लेते हैं, वरना लोग इधर उधर से तोड़ कर काम चला लेते हैं...कभी इन लोगों ने ध्यान ही नहीं किया कि रंग बिरंगे चमकदार फूल आने जाने वालों को कितना सुकून देते हैं, किस तरह से उन की उदासी को भगा देते हैं..लेिकन इतना सोचने की फुर्सत ही किसे है..


शायद ये मेरे व्यक्तिगत विचार हों लेकिन जिस जगह पर जिस किसी पर्व पर फूलों की बरबादी होते देखता हूं, मुझे बड़ा खराब लगता है, उधर मन टिकता ही नहीं। आज भी दोपहर में देखा कि जगह जगह पर बच्चे इक्ट्ठे हो कर फूल-पत्ते धड़ाधड़ तोड़े जा रहे थे....

फूलों के जीवन-चक्र के बारे में भी सोचते हैं तो बड़ी प्रेरणा मिलती है....इतनी सहनशीलता, इतना परोपकार....हर तरफ़ खुशियां ही बिखेरनी हैं...कांटों से घिरे होते हुए भी...

एक शेयर का ध्यान आ रहा है, कुछ दिन पहले मैंने अपनी नोटबुक में लिखा था...मुझे इसे बार बार पढ़ना बहुत भाता है...

 "गुंचे तेरे अंजाम पे जी हिलता है
बस एक तबस्सुम के लिए खिलता है
गुंचे ने कहा कि इस जहां में बाबा 
ये एक तबस्सुम भी किसे मिलता है?"
--जोश मलीहाबादी 

मुझे हिंदी की कविता समझने में बड़ी दिक्कत है...बिल्कुल समझ ही नहीं आती...१०-१२ साल कोशिश की कि हिंदी या पंजाबी में कविता कह भी पाऊं...लेकिन बिल्कुल ज़ीरो.....अब समझ में आ गया कि यह मेरे से नहीं हो पायेगा...यहां बहुत से कवि सम्मेलनों में भी गया...लेकिन कुछ पल्ले नहीं पड़ा बल्कि सिर दुखा के वापिस लौट आया...लेकिन अपने स्कूल के गुरू जी की पढ़ाई वह कविता अभी भी अच्छे से याद है.... माखनलाल चतुर्वेदी जी की वह सुंदर कविता है ...

चाह नहीं, मैं सुरबाला के 
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध

प्यारी को ललचाऊँ,

चाह नहीं सम्राटों के शव पर

हे हरि डाला जाऊँ,
चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,
जिस पथ पर जावें वीर अनेक!
जिस प्यार से स्कूल के गुरू जी ने इस के शब्दार्थ एवं भावार्थ समझाए थे...वे दिल में उतर कर रह गये...

चलते चलते सोच रहा हूं कि अपने बड़े भाई का पसंदीदा गीत ही लगा दूं....उन्होंने यह अपने कालेज के दिनों में एक फेयरवेल में गाया था...यह बात १९७२-७३ के आस पास की है...


सुबह सवेरे के किस्से---ऐसे ही!

सुबह सुबह ऐसे ही टहलने के बारे में पोस्ट लिखनी हो तो शीर्षक ही समझ में नहीं आती....तभी किसी हिंदी फिल्मी गीत की ये बोल ध्यान में आ गये..आज का यह दिन कल बन जायेगा कल...पीछे मुड़ के ना देख प्यारे आगे चल..प्यारे आगे चल!...पहले यही शीर्षक लिखा...फिर उसे बदल दिया।

अभी अभी टहल कर लौटा हूं...क्या है ना हमारे बहुत से मरीज़ ही मेरे जैसों को बातों बातों में सुबह सवेरे टहलने की इंस्पिरेशन दे जाते हैं...और एक बार जब आप किसी बाग में पहुंच जाते हैं तो वहां तो प्रेरणा ही प्रेरणा पाते हैं...बहुत से लोग सुबह सुबह कितने उत्साह से टहलने लगते हैं।

वैसे भी मौसम सुबह सुबह अब टहलने-व्यायाम करने के लिए बहुत बढ़िया तो है ही।

पार्क में घुसते ही वही बिहार के चुनाव नतीज़ों के कारणों की चर्चा कानों में पड़ी...मोदी के भाषणों पर चर्चा हो रही थी ..मुझे आगे निकलते निकलते यही सुना।




कभी कभी बाग में टहलते हुए कुछ नया दिखता है...इस पेड़ पर नज़र पड़ी तो लगा कि यह कोई गोंद जैसा होगा....हाथ लगा कर के भी देखा लेकिन कुछ पता नहीं चला....पता नहीं, आप देखिए...शायद आप को मालूम हो।

ऐसे ही लगभग आधा घंटा टहलने के बाद जब बाहर निकला तो इस होर्डिंग पर नज़र पड़ गई....अपने अन्ना जी आ रहे हैं लखनऊ में ...मुद्दा है कि अब जब कि इलेक्ट्रोनिक मशीनों पर उम्मीदवारों की फोटू लगी होती है तो चुनाव चिन्हों को हटा दिये जाने की मांग कर रहे हैं......मुझे इस के पीछे जो औचित्य है उस के बारे में भी कुछ पता नहीं है। पहले अन्ना जी को मीडिया में काफ़ी कवरेज मिला करता था, यह NOTA वोटा वाली बातें वहीं से पता चलीं और समझ भी वहीं से आईं....देखते हैं इस मुद्दे को कैसे डील किया जाता है!


पार्क से लौटते समय एक अन्य भव्य पार्क पर नज़र पड़ गई...बिजली पासी किला के सामने यह पार्क है...इस में लखनऊ महोत्सव १५ दिनों के लिए आयोजित किया जाता है...इसी महीने के अंत में यह होना तय था...मेंहदी हसन साहब भी आने वाले थे....लेकिन लखनऊ में पंचायती चुनाव इस महीने के अंत में और दिसंबर के शुरू में होने निश्चित हुए हैं, इसलिए इस बार लखनऊ महोत्सव को स्थगित कर दिया गया है ..अब यह जनवरी २७, २०१६ से शुरू होगा...

इस भव्य पार्क के बारे में बात कर लेते हैं...यह बहुत ही बड़ा पार्क है...एरिया बताने के बारे में मैं बड़ा अनाड़ी हूं..अकसर हम लोग इधर भी कभी कभी टहलने निकल जाते हैं... पिछले महोत्सवों के दौरान देखने में आता था कि यहां पर पार्किंग की कोई इतनी अच्छी व्यवस्था नहीं हुआ करती थी, धूल मिट्टी बहुत ज़्यादा उड़ा करती थी, लेकिन आज कल यहां पर पार्किंग तैयार करने का ही काम ज़ोरों शोरों से चल रहा है, आप इस तस्वीर में देख सकते हैं।

ये सब पार्क एवं स्मारक मायावती के शासन काल के दौरान ४००० करोड़ रूपये की लागत पर तैयार हुए हैं और इन की देख रेख के लिए ५००० लोगों का स्टॉफ तैनात कर दिया गया है...दो दिन पहले आप ने भी अखबार में पढ़ा होगा कि अगर वे अगली बार सत्ता में आती हैं तो अब स्मारक आदि नहीं बनाए जाएंगे।

आज ही सुबह अखबार खोली तो पता चला कि इन सभी स्मारकों पर सरकार ने लाइटों की संख्या ८०-९० प्रतिशत कम कर दी है, इस के आगे मुझे इस बारे में कुछ नहीं पता।

अभी पार्कों-स्मारकों की बात चली तो ध्यान में आ रहा है लखनऊ की ही जनेश्वर मिश्रा पार्क....मैं कुछ महीने पहले उस के बारे में लिखा भी था (इस लिंक पर देखिए) ...लेकिन इस समय मुझे वह एक दुःखद कारण से याद आ गया...उस पार्क में एक झील भी है ...मुझे भी नहीं पता था कि वह कितनी गहरी है....दो दिन पहले लखनऊ के तीन दोस्त ऐसे ही उस के आस पास मस्ती कर रहे थे ..एक बीटेक तृतीय वर्ष का छात्र अचानक उस में लुड़क गया....कोशिश की गई उसे बचाने की लेकिन बेचारा दम तोड़ गया...और आज जब अखबार देखी तो पता चला कि मुख्यमंत्री के आदेश पर उस झील में बालू डाल कर गहराई को कम किया जायेगा......चलिए, यह तो बहुत अच्छी बात है...क्योंकि इस तरह की तफरीह वाली जगहों पर लोग जोश में अकसर होश कायम रख नहीं पाते।

हां, दीवाली की कुछ बातें शेयर कर ली जाए...सुबह सुबह एनडीटीवी पर देखा कि किस कद्र पटाखे छुड़वाने के चक्कर मे हम वातावरण में कितना ज़हर घोल देते हैं......मैं तो नहीं चलाता पटाखे वाखे...बस, वही कभी कभी एकाध फुलझड़ी, कभी एक चक्कर और सांप वाला खेल......बस, और कुछ नहीं...एनडीटीवी टीवी की टीम तो हाथ में प्रदूषण मापने की मशीन ले कर चल रही थी और एक फुलझड़ी...एक अनार के बाद हम वातावरण में कितने घातक तत्व छोड़ देते हैं, यह सब उस मशीन की रीडिंग से पता चल रहा था.....तो, दोस्तो, मजा इसी में है कि हम लोग इन पटाखों वाखों से दूर ही रहें.....और दूसरों को भी इस के लिए प्रेरित करें। हां, एक यह भी बता रहे थे कि बच्चे आज कल विविध रंगों की फुलझड़ियां आदि लाने लगे हैं......लेिकन ये सब विविध रंगों वाले पटाखे वटाखे इन में तरह तरह के मेट्ल्स (metals) मिले रहने की वजह से यह बहुत ज़्यादा नुकसान पहुंचाते हैं।




यही मोमबत्तियां हैं जिन की बात हो रही है
हां, जाते जाते एक बात और.....कल रात सोने से पहले मैं बाथरूम में गया तो देखा वहां पर अजीब सा कुछ जल रहा है...पता चला कि वहां पर एक प्लास्टिक के डिब्बे के ऊपर मोमबती रखी गई थी...और इस का क्या हाल बन गया, आप स्वयं देख लीजिए....आप भी सचेत रहिए....मिसिज़ ने फिर बालकनी में भी देखा जहां जहां भी मोमबत्तियां रखी गईं थी, वहां से मोम तो बिल्कुल गायब थी.....अकसर हम लोग जब भी मोमबती जलाते हैं, मोम तो नीचे इक्ट्ठा होती ही है तो फिर ये मोमबत्तियां किस पैट्रोलियम प्रोड्क्ट की तैयार की गई हैं कि इन्हें जलाने के बाद कुछ भी बचता ही नहीं....आज कल तो भाई किसी चीज़ का पता नहीं चलता ...क्या चल रहा है कुछ समझ में नहीं आता.....आप भी ध्यान रखिएगा....चलिए, यह कोई विशेष बात नहीं कि मोमबत्ती जलाई और मोम नीचे नहीं गिरी......लेकिन यह जे मोमबत्तीयां हैं ये इस तरह के बिना कुछ शेष छोड़ें हमारी सेहत के लिए कैसी हैं, यह का हमें बिल्कुल भी पता नहीं है!
चलिए, लगता है कि अब मोमबत्तियों से मोम गायब हो जाएगी....या कोई मिलावट .....क्या पता यार क्या क्या चल रहा है?...परसों गुड़ खाया अच्छा लगा तो मैंने तारीफ़ कर दी....श्रीमति जी ने बताया कि पेपरों में बहुत आ रहा है कि अब चीनी की मिलावट वाला गुड़ भी बिकने लगा है!

वापिस एनडीटीवी पर आते हैं...सुबह एक गुस्ताख चित्रहार का एपीसोड दिख गया....ये क्रिएटिव लोग भी बड़ी मेहनत करते हैं ....आप भी इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं।

दीपावली को ढ़ेरों शुभकामनाएं एवं बधाईयां....खुश रहें, तंदरूस्त रहें

मैं भी सुबह सुबह किन किस्सों में लग गया.......आप सब को दीपावली की बहुत बहुत बधाईयां एवं शुभकामनाएं....अचानक इस चकाचौंध में एक जुगनू की रोशनी का ध्यान आ गया.. मुझे अभी ध्यान आया कि इतनी धूल में, प्रदूषण में और इतने शोरगुल में क्या जुगनू का अस्तित्व बस इन्हीं गीतों में ही रह जाएगा.....आप ने पिछली बात कब किसी जुगनू को देखा था?..इस का जवाब मुझे ज़रूर लिखियेगा..