मंगलवार, 31 मार्च 2015

31 मार्च का दिन और वे गुलाब के फूल..

अभी मैं घर से बाहर निकला तो ये गुलाब के फूल मेरा स्वागत करते दिखे...फिर अचानक ३१ मार्च का दिन याद आ गया...मेरे िलेए विशेष महत्व का दिन..बचपन में हम लोगों का रिजल्ट इस दिन आता था...और हम लोग उस दिन फूलों की माला घर में तैयार की हुई अवश्य लेकर जाया करते थे।

मुझे इस दिन मेरी वह पोस्ट भी याद आती है जो मैंने आठ साल पहले इसी दिन लिखी थी ...आप इस लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं...३१ मार्च का दिन ..मेरी बड़ी बहन और ढेर सारे गुलाब।

जितनी उमंग, लगन और चाव से मैं ३१ मार्च के दिन अपनी बड़ी बहन को वह गुलाब के फूलों की माला अपने हाथों से सूईं धागे से तैयार करते देखा करता ...वह शिद्दत मैंने फिर अनुभव नहीं की... अब वह स्वयं विश्वविद्यालय में प्रोफैसर हैं और एक आदर्श टीचर हैं।

बात दोस्तो फूलों की माला की नहीं है...बात भावनाओं की है...अब हम लोग बड़े मौकापरस्त से हो गये हैं... है कि नहीं ?...पहले लोग बड़े मासूम से थे, बिल्कुल मासूम ...अब हमने चालाकियां सीख लीं....पैसा फैंक तमाशा देख वाली बात हो गई है....जैसी सामने वाली औकात है उसी के हिसाब से बुके तैयार करवाए जाते हैं...मुझे बुके पर एक रूपया भी खर्च करना बेवकूफी लगती है......उस की बजाए मंदिर के बाहर बैठे लोगों का कुछ भी जश्न करवा देना चाहिए।

अपने टीचर के गले में फूलों का वह हार डालते हुए जो झनझनाहट महसूस की उन दिनों ...वह फिर कभी महसूस न हुई....बाकी सब जगह रस्म अदायगी ही दिखती है। 

यह फूल भी अभी दिखा...
एक तरह से ये जो बुके वुके हैं ...इन में फूल तो होते हैं ...सुंदर से सुंदर...बाज़ार है...लेिकन शायद खुशबू इन में बहुत पहले से गायब हो चुकी है.......वह मासूमियत की, स्नेह की , कृतज्ञ भाव की ...अपनेपन की .......अब तो जो बुके वुके दिये और लिये जाते हैं उन के बारे में चुप ही रहूं तो ज़्यादा ठीक रहेगा...

जाते जाते आज की पीढ़ी को एक छोटी सी सीख.....अपने गुरूओं का सारी उम्र सम्मान करते रहिए....कृपा आती रहेगी ....यह किसी बाबा का टुच्चा नुस्खा नहीं है जो कहता है कि  गुलाब जामुन खाने से भी रूकी हुई कृपा फिर से बरसने लगेगी.........यह गुरू वाली कृपा हमें सारी उम्र मिलती रहेगी अगर हमारे मन में उन का आदर-सत्कार सदैव बना रहेगा।

अच्छा, आप बताएं क्या आप ने इस दौरान अपने प्राइमरी के टीचर को याद किया?

फूलों से ध्यान आया....कुदरत तो यार हर तरफ़ हर पल संभावनाओं से भरी पड़ी है और हम फिर कैसे निराशात्मक रवैया कभी कभी अपना लेते हैं...

सोमवार, 30 मार्च 2015

भट्ठी वाली माई की मीठी यादें...

दोस्तो, व्हाट्सएप भी वैसे है अद्भुत...आज सुबह किसी ग्रुप ने यह फोटो शेयर की ...एक दम से मुझे सत्तर का दशक याद आ गया जब रब जैसी इन बीबीयों के पास अपना लगभग रोज़ जाना हुआ करता था।

मुझे नहीं पता कि पंजाब के अलावा इस तरह का काम करने वालों को किस नाम से मुखातिब किया जाता है..लेकिन पंजाब में तो हम इन्हें भट्ठी वाली माई कहा करते थे।

रोज़ाना बाद दोपहर चार पांच बजे के करीब बच्चों की यह ड्यूटी लगा करती थी कि दाने भुनवा के आओ। दाने भुनवाने का मतलब... मक्का, चना या चावल जा कर भुनवा कर ले आओ।

अधिकतर तो मक्का ही हुआ करता था... मक्का तो अब हम कहने लगे हैं, पंजाब में मक्की बोलते हैं... कल की ही बात लगती है कपड़े के थैले में मक्की लेकर जाना ...और उस भट्ठी वाली माई ने उन्हें भून कर फुल्ले (पॉप-कार्न) तैयार कर देने...और पता है इस का क्या लिया करती थी...मात्र पांच पैसे ...या कभी कभी दस पैसे....अच्छे से याद है मुझे।

और उन फुल्लों को खाने का ..भट्ठी पर ताजे भुने हुए...क्या लुत्फ होता है, यह ब्यां करना भी आसान नहीं है।

कभी कभी हम लोग काले चने भी लेकर जाया करते ...भुनवाने के लिए। और हां, जब कभी थोड़ा बहुत जुकाम होता तो याद है फिर तो काले चने भुनवा कर लाने बिल्कुल लाजमी हुआ करते थे...एक रूमाल में गर्मागर्म चने डाल कर नाक के ऊपर रख लिया करते ...साथ साथ गुड़ के साथ खाते भी जाते.. खांसी-जुकाम के लिए पता ही नहीं था कोई दवाईयां भी होती हैं, बस इस तरह के जुगाड़ और मुलैठी चूसने से ही काम चल जाया करता था।

वैसे मक्की के फुल्ले भी गुड़ के साथ ही खाया करते थे...और याद है जब कभी घर में काले चने न हुआ करते या थोड़ा स्वाद बदलने का ध्यान आता तो कभी कभी चावल ही लेकर चले जाते और भुनवा लाते।

बढ़िया दिन थे....कुछ ज़्यादा जंक-फंक चला नहीं था, यही हम लोगों की खाने की चीज़ें हुआ करती थीं।

आज सुबह यह तस्वीर देखी तो बस वह भट्ठी वाली की याद आ गई।

ऐसा नहीं कि दाने तुरंत ही भून दिये जाते थे....यार, वहां भी इंतज़ार करना पड़ता था, तीन चार लोग होते थे .. लेकिन इंतज़ार बस पांच दस मिनट ही करना पड़ता था...घर से भट्ठी की दूरी पैदल पांच सात मिनट की थी...फिर साईकिल चलाना सीखा तो साईकिल पर चले जाना।

और वहां पर कोई बैंच स्टूल थोड़े ही ना पड़े रहते थे...वहां भट्ठी के इर्द-गिर्द किसी ईंट या पत्थर-वत्थर पर जा कर बैठ जाना...और बड़े ही कोतहूल से उस को अपना काम करते देखते रहना। अच्छा लगता था वहां बैठना भी...कईं बार तो लगता था कि बारी जल्दी ही आ गई...अभी तो और बैठने का मन कर रहा होता...

दोस्तो, आप को पढ़ कर यही लगता होगा कि हमारे ज़माने में भी हम ने वेलापंती के अपने जुगाड़ कर रखे थे।

एक बात और...मैंने आप को बताया ना कि वह दाने भुनने के लिए पांच या दस पैसे लेती थी...दोस्तो, वह ज़माना भी अद्भुत था..कुछ लोग पांच दस पैसे भी नहीं लेकर जाते थे ... उन से वह मक्के का ही भाड़ा ले लिया करती थी, मतलब यह कि उन के दाने भुनने से पहले वह कच्चे दाने निकाल कर अपनी वसूली कर लिया करती थी। इसे भाड़ा लेना कहा जाता था।

अपने अतीत में झांकना और फिर सब कुछ ईमानदारी से शेयर करना ...अब आसान लगने लगा है....क्या अच्छा था, क्या बुरा ...किस बात को लिखने से असहज महसूस होता है ....जब इन बातों का ध्यान नहीं रहता ना, तो सच में लिखने से बड़ा सुकून मिलता है। सच में.......हल्कापन बहुत अच्छा लगता है। लेकिन जैसे ही कोई बात दबाने की कोशिश की ..तो उस पर कोई झूठ वूठ का लेप लगाने की कोशिश करते हैं तो फिर मत पूछो यार कि सिर कैसे भारी होता है। जैसे हैं ..जैसे थे...वैसा ही ब्यां करने में मज़ा है।

आज तो मुझे मेरे मोहल्ले की भट्ठी वाली याद आ गई थी... कुछ अरसा पहले मुझे सांझा चूल्हा याद आ गया था....सच में दोस्तो उस दिन भी वे यादें शेयर करने में भी बहुत ही मज़ा आया था... अगर आप पढ़ना चाहें तो इस लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं.......शुक्र है रब्बा सांझा चुल्हा बलेया....

अच्छा अभी बातें चल रही थीं भट्ठी की, तंदूर की .....तो अंगारें ज़हन में होंगे और अगर ऐसा हो तो मुझे मेरा ऑल-टाइम फेवरेट हिना फिल्म का वह गीत कैसे न ध्यान में आए.......पल्ले विच अग्ग दे अंगारे नहीं लुकदे...इश्क ते मुश्क छुपाए नहीं छुपते......(पल्ला पंजाबी का शब्द है, मतलब ..दामन ..और मुश्क का मतलब है महक, खुशबू)..

आप भी चंद लम्हों के लिए इस गीत के सुंदर बोलों, बेहतरीन संगीत, कश्मीर की हसीं वादियों और ज़ेबा बख्तियार के किरदार में खो जाइए...



शनिवार, 28 मार्च 2015

अटल जी की विलक्षण शख्शियत...

कल बहुत खुशी हुई...अटल जी को भारत रत्न सम्मान से नवाज़ा गया।

आज सुबह अखबार खोली तो उन के निजी सहायक शिव कुमार की लिखी दो बातें दिख गईं...आप से शेयर करना चाहता हूं...

शिव कुमार ने लिखा है...

"अटल जी सरिता की तरह सरल हैं। उनसे अगर कोई छोटी-सी भी गलती हो जाती है तो उसका मलाल उन्हें उस समय तक सालता रहता है, जब तक उस गलती को सुधार नहीं लेते। ये १९८०-८१ की बात है।  
तब मारूति कार बाज़ार मे नई-नई आई थी। हम और अटल जी उसी कार से आगरा जा रहे थे। रास्ते में फरा गांव के पास भैंसों का झुंड मिल गया। हमारे ड्राइवर ने किसी तरह भैंसों के झुंड से बचने की कोशिश की तो एक भैंस कार से टकरा गई और हमारी कार पलट गई।  
कार के नीचे आई भैंस ने पलटा मारा तो कार दूसरी तरफ जा पलटी। उसके बाद उस भैंस ने फिर पलटा मारा तो कार सीधी खड़ी हो गई। कार की विंड स्क्रीन टूट गई, लेकिन मुझे, ड्राइवर और अटल जी को खरोंच तक नहीं आई, पर भैंस मर गई।  
उधर से गुजर रहे एक टैक्सी ड्राइवर ने भैंस को मरा देखा तो हल्ला मचाने लगा। आसपास के गांव वाले लाठी-डंडे के साथ वहां इकट्ठे होने लगे। मैंने अटल जी से कहा कि आप गाड़ी के अंदर रहिए। गांव वाले गुस्से में हैं। अटल जी गाड़ी में बैठने को तैयार नहीं थे। किसी तरह उन्हें समझा-बुझा कर गाड़ी के अंदर किया गया।  
मैंने अपनी लाइसेंसी पिस्तौल निकाल कर उससे हवाई फायर किया, तब जाकर भीड़ तितर-बितर हुई। मैंने ड्राइवर से गाड़ी जल्दी आगे बढ़ाने के लिए कहा। इसी बीच टैक्सी ड्राइवर ने सिकन्दरा थाने पर भैंस मरने की सूचना दे दी थी।  
मैं जब अटल जी के साथ सिकन्दरा थाने पर पहुंचा और थानेदार को गाड़ी से भैंस के मरने की जानकारी दी तो थानेदार को पहले से ही इस बारे में जानकारी थी।  
अटल जी ने थानेदार से कहा कि भई, भैंस के मालिक को बुलाओ, जो मुआवजा होगा, दे देंगे। थानेदार अटल जी को अच्छी तरह से जानता था। उसने कहा कि अरे साहब, आप जाइए। हम गांव वालों को समझा लेंगे और जो मुआवजा होगा, दे देंगे। अटल जी मान नहीं रहे थे , पर थानेदार के आश्वस्त करने पर मैं और वे आगरा चले गए।  
इस घटना के दो साल बाद एक नेत्रहीन कवि राम खिलाड़ी दिल्ली आए और उन्होंने २३ जनवरी को लाल किले में होने वाले कवि सम्मेलन में अपनी कविता पढ़ने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने अटल जी से कहा कि आप आयोजकों से मेरी सिफारिश कर देंगे तो हमें भी वहां कविता पढ़ने का मौका मिल जाएगा।  
अटल जी ने पूछा, कहां से आए हो?..उन्होंने कहा कि उसी गांव से, जहां आपकी कार से भैंस मर गई थी। यह सुन कर अटल जी ने कवि के सामने शर्त रख दी कि उन्हें कविता पढ़ने का मौका तभी मिलेगा, जब वे भैंस के मालिक को लेकर आएंगे। खैर, यह कवि भैंस मालिक को लेकर आ गए। अटल जी ने भैंस मालिक को भैंस मरने के मुआवजे के तौर पर १० हजार रूपये दिए।  
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अटल जी किसी भी कार्यकर्ता को निराश नहीं करते। उनके पास जो भी कार्यकर्ता अपनी दरख्वास्त लेकर आता, उस पर अपनी सिफारिश ज़रूर लिख देते। यूपी में एक जगह गए तो एक कार्यकर्ता अपनी एप्लिकेशन लेकर आ गया कि फलां साब से मेरी सिफारिश कर दीजिए। अटल जी ने उससे पूछा, वह साहब हमें जानते होंगे?..उसने कहा कि बस आप लिख दीजिए।  
अटल जी ने लिखा कि प्रिय महोदय, मैं आपसे परिचित तो नहीं हूं, लेकिन यह आवेदनकर्ता की इच्छा है कि मेरे लिखने से उसका काम हो जाएगा, इसलिए मैं इसकी सिफारिश कर रहा हूं। यकीन मानिए, उसका काम हो गया।  
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अटल जी को पशु-पक्षियों से बहुत प्रेम है। एक बार उन्होंने अपने आवास पर खरगोश पाला। उस खरगोश ने बच्चे को जन्म दिया। बच्चे को देख कर अटल जी बड़े खुश हुए। उन्होंने उसे रुई से दूध पिलाया और संसद चले गए। इसी बीच बच्चा धूप में निकल आया। उसे लू लग गई और वह मर गया। अटल जी दोपहर में आए तो बच्चे को मरा देख कर उनकी आंख में आंसू आ गए। फिर उन्होंने अपने लॉन में स्वयं गड्ढा खोदा और उसे दफनाया। फिर उसके ऊपर एक पौधा लगा दिया।  
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अटल जी को लोगों से मिलने और उनके बीच बैठ कर बात करने में बड़ा आनंद आता था। प्रधानमंत्री बनने के बाद अटल जी का एसपीजी का घेरा इस आनंद को छीनने की कोशिश करता था तो वह एसपीजी वालों को झिड़क देते।"
दोस्तो, जब हम लोग स्कूल में आठवीं दसवीं कक्षा में पढ़ते थे तो कोई भी कहानी जब हमें पढ़ाई जाती ...नमक का दारोगा, गोदान या कोई भी ...तो फिर हमारे मास्साब किसी किरदार का चरित्र-चित्रण करने को कहते। क्या अटल जी का चरित्र-चित्रण ऊपर वर्णित घटनाओं से नहीं होता!

निःसंदेह अटल जी एक ऐसी विलक्षण शख्शियत हैं कि उन की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। वे १२५ करोड़ लोगों के दिलों पर आज भी राज करते हैं....मैं आप से जल्द ही शेयर करूंगा कि इस महान नेता ने १९८४ के सिख दंगों, बाबरी मस्जिद के विध्वंस के समय और २००२ के गुज़रात दंगों पर क्या कहा था ..इन के जन्मदिन वाले दिन २५ दिसंबर को मैं लखनऊ से बाहर था...लैपटाप था नही...और मोबाइल पर मैं ज़्यादा लिखने के झंझट में पड़ता नहीं, सिर भारी हो जाता है... इसलिए मैंने हाथ से लिख कर इन घटनाओं पर अटल जी की प्रतिक्रिया को मीडिया डाक्टर के गूगल-प्लस पेज पर शेयर किया था... लेकिन यह अच्छे से पढ़ा नहीं जाता...मैं जल्द ही इस पर पोस्ट करता हूं...



एक अजीब लत चुकी है...पोस्ट को खत्म करते समय ...पब्लिश करते समय जो फिल्मी या गैर फिल्मी मेरे ज़हन में आता है, उसे मैं आपसे शेयर कर देता हूं..

आज अटल जी की बातें करते करते एक और महान् शख्शियत अशोक कुमार दी ग्रेट का ध्यान आ गया और उन पर फिल्माया गया यह गीत...याद होगा, टीवी सीरियल वाले हम लोग वाले दिन...हर एपिसोड के बाद दो मिनट के लिए उन की बेशकीमती नसीहत की घुट्टी पीने का किसे इंतज़ार नहीं रहता था!

तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो, 
तुम को अपने आप ही सहारा मिल जायेगा..
कश्ती कोई डूबती पहुंचा दो किनारे पे..
तुम को अपने आप ही किनारा मिल जाएगा.....

वाह ...वाह.....लिखने वाले ने क्या गजब लिख दिया! इस के एक एक शब्द की तरफ़ ध्यान देने की ज़रूरत है। यह गीत भी मेरा फेवरेट है...मैं इसे हज़ारों नहीं तो सैंकड़ों बार तो देख सुन चुका ही हूं...और हर बार उतना ही आनंद आता है।

कितना प्लास्टिक अंदर लेंगे और कितना फैलाऐंगे !

हर जगह पर खाने पीने के अपने तौर तरीके होते हैं...इन पर वैसे तो कोई टिप्पणी करते नहीं बनती और न ही करनी चाहिए शायद। आम आदमी की बिल्कुल मासूम सी छोटी छोटी खुशियां हैं, जैसे वह लूटना चाहे....लूट ले।

लेकिन अगर कुछ दिख जाए जो सेहत के लिए या पर्यावरण के लिए खराब हो तो बात कहने में हिचकिचाहट कैसी!

चाय से बात शुरू करते हैं...मैंने बात दरअसल करनी है लखनऊ की चाय की...लेकिन मुझे पहले थोड़ा इधर उधर की हांकनी पड़ेगी। सीधा ही लखनऊ की चाय का तवा लगाने लगूंगा तो पक्षपात लगेगा। 

शुरू से अमृतसर रहे, वहीं पढ़े-लिखे....वहां पर चाय पीने का अंदाज़ अपना अलग ही था, होता है हर जगह की अपनी खाने पीने की आदते हैं...मुझे अच्छे से याद है कि वहां पर दो तीन जुमले चाय वालों को ज़रूर सुनने पड़ते हैं....यार, पत्ती रोक के ते मिट्ठा ठोक के (यानि पत्ती कम और चीनी दिल खोल के डालना)...जी हां, उस दौर में लोग शर्बत जैसी चाय पीना पसंद किया करते थे... और एक बात.... एक जुमला यह भी...मलाई मार के ... मुझे अच्छे से याद है, चाय वाला चाय की प्याली या गिलास से ऊपर एक चम्मच मलाई का छोड़ दिया करता था...हां, उस दौर में चॉकलेट पावडर भी फ्लेवर के लिए चाय तैयार करते समय डाला जाने लगा था...शायद हम लोग घरों में भी इसे इस्तेमाल करने लगे थे। ओह माई गॉड... काम की बात मैं फिर भूल गया... बेसन के लड्डू...गर्मागर्म चाय के साथ दो एक बेसन के लड्डू होने पर रूह खुश हो जाया करती थी। 


बंगलोर में चाय-काफी परोसने का अंदाज़
मुझे याद है मैं पहली बार १९८७ जनवरी में बंगलौर गया....वह पर हर जगह चाय काफी (अधिकतर काफी) पीने का बेहद साफ़ सुथरा एवं सुंदर अंदाज़ देखा जो मुझे बहुत अच्छा लगा....मैंने वहां से आकर बहुत से लोगों के साथ वह एक्सपिरिएंस शेयर किया..

दिल्ली में तो सारा खाना-पीना पंजाब जैसा ही है...उसे रहने देते हैं.....कुछ साल हरियाणा में मास्टरी की, वहां भी सब कुछ ऐसे ही चलता है.. लेिकन अकसर तीन चार दोस्तों को एक साथ चाय पीते जब देखते थे तो एक स्टील की प्लेट में एक किलो जलेबी या एक किलो लड्डू पड़े देख कर कुछ लगता तो था.... क्या, वह नहीं बताऊंगा!

अब आते हैं लखनऊ शहर में ... मुझे यहां आए दो साल हो गये हैं...मैंने क्या देखा अपने अस्पताल में कि कॉरोडोर में लोग पतली सी प्लास्टिक की पन्नियों में से चाय उंडेल उंडेल कर प्लास्टिक के छोटे छोटे ग्लासों में डाल कर पिया करते।

पहले पहले मुझे लगा कि शायद आज ही यह हो रहा होगा क्योंकि गिलास-प्याली नहीं मिले होंगे..लेकिन नहीं, मैं गलत था, अस्पताल में ही क्या, लखनऊ में अकसर मैंने बहुत जगहों पर यही सिलसिला देखा। बेशक इस से लखनऊ की नफ़ासत और नज़ाकत पे कोई आंच नहीं आती..


मुझे भी यह लोग चाय पीने के िलेए कहते ..लेकिन मुझे कभी नाश्ते और लंच के दरमियान चाय पीने की तलब होती ही नहीं.... लेिकन मैं अपने अटेंडेंट को भी अकसर देखता, जब देखो आधे घंटे के बाद प्लास्टिक का छोटा सा कप मुंह पे लगाए दिखता.....फिर मैंने इन्हें समझाना शुरू किया .. धीरे धीरे अब ये लोग अपनी चाय एक थर्मस में लाते हैं और फिर कांच के गिलास में पीने की आदत डाल रहे हैं। 

दोस्तो, यह जो प्लास्टिक की पन्नियों में चाय पीने-पिलाने का सिलसिला है, यह सेहत के लिए बहुत खराब है...मुझे याद है जब आज से बीस तीस साल पहले इन प्लास्टिक की थैलियों में दही मिलने लगा तो हम नाक-मुंह सिकोड़ लिया करते थे..लेिकन फिर हमें इस की आदत पड़ गई...फिर हम ने देखा ..बंबई में जिस भी डेयरी से दूध लेते थे...वह भी इन्हीं पन्नियों में ही डाल कर दिया करता .... इस की भी लत लग गई...

लेिकन हम रूकने वाले नहीं....फिर धीरे धीरे देखा कि ढाबे वाबे वालों ने दाल-सब्जी भी इन्हीं घटिया किस्म की प्लास्टिक की थैलियों में ही पार्सल करनी शुरू कर दीं। 

सोचने वाले बात यह है कि अगर हम लोग फ्रिज में पानी रखने के लिए प्लास्टिक की बोतलों के बारे में इतने ज़्यादा सज है तो फिर यह कैसे हो गया कि इन सब चीज़ों की तरफ़ ध्यान ही नहीं देते। 

हां, वह पत्तों के दोनों की जगह वह चमकीले से प्लास्टिक जैसी लाइनिंग वाले दोने आ गये....एक बार आठ साल पहले जब मैं ब्लॉग लिखना सीख रहा था तो एक बार इमरती खाते हुए इस तरफ़ ध्यान गया था... यहां लिंक दे रहा हूं...

यह समस्या प्लास्टिक की छोटी छोटी ग्लासियों में चाय पीने की यह भी है कि मुझे पूरा यकीन है कि ये सब रिसाईक्लड प्लॉसिक से ही बनती हैं...बेशक, लेकिन इन का डिस्पोज़ल भी कहां ढंग से हो पाता है...सब इधर उधर फैंक कर छुट्टी कर लेते हैं..

और तो और जिस सतसंग में हम लोग जाते हैं वहां पर सुबह सुबह चाय भी सभी श्रद्धालुओं को ५०-६०प्लास्टिक के ग्लासों में ही परोसी जाती है.. अब तो प्रसाद भी वही प्लास्टिक की लाइनिंग वाले दोनों में ही मिलता है हर जगह... और लंगर भी वहीं डिस्पोज़ेबल प्लेटों में......गुज़रे जमाने की बातें याद करें तो मुझे अच्छे से याद है कि १९७० के दशक में अकसर लंगर को हाथों में ही लिया जाता था....परशादे (रोटी) के ऊपर ही दाल डाल दी जाती थी..और हम सब ऐसे ही उस का लुत्फ़ उठा िलया करते थे....और स्वर्ण मंदिर में प्रसाद की बेहद सुंदर व्यवस्था तो है ही...गर्मागर्म हलवा आप को हाथ ही में दिया जाता था... और दोने भी वही पुराने दौर वाले ... पत्तल के। 

आज सुबह सुबह ये बातें करने की इच्छा हो गई......इन सब बातों के प्रति थोड़ा सा भी हम सब सजग और सचेत रहेंगे तो अपनी सेहत के साथ साथ पर्यावरण की सेहत की भी थोड़ी संभाल कर लेंगे।

लिखते लिखते बंबई की कटिंग चाय का ध्यान आ गया....

और मेरी मां की बात भी याद आ गई कि जब वे विभाजन से पहले गाड़ी में यात्रा किया करती थीं तो स्टेशन आने पर चाय की आवाज़ें इस तरह से लगा करती थीं.....हिंदु चाय...हिंदु चाय.......मुस्लिम चाय... मुस्लिम चाय.........और मां के स्कूल में भी ...पानी के मटके भी हिंदु बच्चों के लिए अलग और मुस्लिम बच्चों के िलेए अलग!! उस दौर की कल्पना कर के तो लगता है कि हम लोग सच में बहुत सुधर गये हैं...वैसे एक बात जो मां बड़ी शिद्दत से दोहराती हैं कि बस यह पानी और चाय के अलावा, कभी उन्हें हिंदु-मुस्लिम अलग अलग होने का अहसास दिलाया ही नहीं गया, सब का आपस में घुल मिल कर रहना भी उस दौर की एक पहचान थी।

सब से बढ़िया वही दौर था जब लोग चाय मिट्टी के कुल्हड़ों में पिया करते थे... गाड़ी में भी ऐसे चाय पीने में अच्छा लगता था...तब यह नियम नहीं था, लोगों ने वैसे ही ऐसे चाय पीना स्वीकार किया हुआ था...कुछ साल पहले रेल मंत्री लालू यादव के जमाने में एक दौर वह भी आया...जब एक नियम भी बन गया कि रेलों में चाय ऐसे ही कुल्हड़ों में बिका करेगी...लेकिन अकसर देखने में आता कि स्टाल वाले अपना सारा धंधा कांच, प्लास्टिक एवं थर्मोकोल वाले गिलासों में ही किया करते ...बस, बीस तीस कुल्हड़ वे लोग अपने स्टाल पर सजाए रखते कि कहीं कोई अधिकारी अपने औचक निरीक्षण में पूछ ले तो!!

                                                वैसे मुझे चाय पीना ऐसे ही अच्छा लगता है....

आज पता नहीं सुबह से मेरे को यह गीत बार बार याद आ रहा है ....आप भी सुनिए...सत्तर अस्सी के दशक में इसे रेडियो पर बहुत सुना....मोहम्मद रफी साहब और सुलक्षणा पंडित की मधुर आवाज़ में...


गुरुवार, 26 मार्च 2015

नहीं जी, मैं तो बस हाउस-वाईफ...

जब कभी मैं ओपीडी में आई किसी महिला से पूछ लेता हूं कि आप क्या करती हैं?..क्या आप सर्विस करती हैं?...और बहुत बार मुझे जब यह जवाब मिलता कि नहीं जी, बस घर में ही, बस हाउस-वाईफ ...मुझे यह सुन कर बहुत बुरा लगता है।

अब आप सोच रहे होंगे कि जो महिला होम-मेकर है, उसने तुम्हें बता दिया कि वह हाउस-वाईफ है तो इसमें मुझे इतना बुरा लगने वाला है क्या!

है, दोस्तो, यह हाउस-वाईफ या बस घर ही में ...शब्द बोलते जो अधिकतर महिलाओं के चेहरे के भाव मैंने पढ़े हैं ...वह देख कर अच्छा नहीं लगता। सीधे सीधे बात करूं तो मुझे यही अनुभव होता है कि इन्हें यह कहते हुए अपने आप में किसी कमी का अहसास हो रहा है।

लेिकन सच्चाई इस से बिल्कुल अलग है...हम सब जानते हैं कि एक गृहिणी का एक घर में कितना अहम् योगदान है...सारे घर की क्या, पूरे संयुक्त परिवार की धुरी होती है एक गृहिणी। कोई शक?

हां, आज गृहिणी की बात कैसे चल पड़ी.... आज सुबह वाट्सएप पर एक फारवर्डेड मैसेज दिखा....चेतन भगत ने कामकाजी पत्नी की बहुत प्रशंसा की थी..उसने लिखा था कि उस की मां भी ४० वर्ष तक सर्विस में रही हैं। ठीक है, अच्छा लगा उस के विचार पढ़ कर...

यकीनन् दोस्तो इस में दो राय हो ही नहीं सकती कि कामकाजी महिलाएं दोहरी भूमिका निभाती हैं...हम लोग चाहे जितनी भी जेंडर सेंसेटाईज़ेशन की बातें हांकते रहें, लेकिन ज़मीनी हकीकत से हम सब वाकिफ़ हैं कि किस तरह से अधिकतर कामकाजी महिलाएं घर और काम के चक्कर में पिसती रहती हैं। सभी कामकाजी महिलाओं के इस जज्बे को हम सब का सलाम..

यह तो थी बात कामकाजी महिलाओं की लेकिन जब कामकाजी महिलाओं की बात चलती है और उस के साथ ही गृहिणियों की बात न की जाए तो बिल्कुल अधूरी सी लगती है बात, दोस्तो, कामकाजी महिलाएं की संख्या तो आज भी शायद आटे में नमक जैसे अनुपात में होगी...शायद इस से थोड़ी ज़्यादा, लेकिन दोस्तो देश की करोड़ों गृहिणियों का दिन भी तो सुबह काम से शुरू होता है और रात में सोने तक यही सिलसिला चलता रहता है।

मुझे ऐसा लगता है कि जब भी कामकाजी महिलाओं की दोहरी भूमिका के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाए तो गैर-कामकाजी (वैसे तो मुझे इस शब्द से ही आपत्ति है, क्या सुबह से रात तक घर को संभालना कामकाज नहीं है!) ..महिलाओं के कामकाज के लिए भी प्रशंसा के दो शब्द कहे जाएं।

और सब से बड़ी बात...मुझे आज लगा कि चेतन भगत ने कामकाजी महिलाओं की तारीफ़ के पुल बांध दिए...लेकिन अगर इसी बहाने हम ने अगर उन सैंकड़ों गैर-कामकाजी (!!)महिलाओं को आज याद न किया जिन्हें हम बचपन से देखते रहें....हमारी नानी, दादी, फूफी, मौसी, मामी, चाची, ताई, भाभी, मां, बहन.....और हां, जहां जहां भी हम लोग रहे उस के अड़ोस-पड़ोस की महिलाओं के संघर्षमय जीवन को देखा, लहरों के विपरीत उन के चलने की हिम्मत देखी..

और बहुत सी बहुत कम पढ़ी लिखी महिलाएं भी देखीं ...कुछ अनपढ़ भी देखीं....(पंजाबी में एक कहावत है, वह पढ़ा नहीं है गुढ़ा है)...लेिकन जीवन की परीक्षा में अच्छे से सफल.....हर तरह से.....हर तरह से घर की आर्थिक, सामाजिक प्रतिष्ठा बनाए रखने में पूरी तरह से सक्षम...

टॉिपक आज गलत चुन लिया गया है.......लिखते कुछ बन नहीं रहा......समाज में गैरकामकाजी महिलाओं के योगदान पर ग्रंथ िलखे जा सकते हैं...अपनी अधिकतर इच्छाओं और ज़रूरतों को दबाते हुए अपने घर-परिवार की मर्यादा के लिए इन के त्याग की गाथाएं लिखने लगेंगे तो ग्रंथ तैयार हो जाएंगे। हर घर में इन पर कईं कईं नावल लिखे जा सकते हैं।

डर लगता है आज की गैरकामकाजी महिलाओं की भूमिका को इतना ग्लोरीफाई करते हुए....डर लगता है कि यह भी हम पुरूषों की मानसिकता तो नहीं बन गई...ताकि लकीर की फकीरी ज्यों की त्यों बनी रहे।

नहीं दोस्तो ऐसा नहीं है, बदलाव की हवाएं चल निकली हैं....खुशामदीद, स्वागत है, हरेक को खुले में सांस लेने का, प्रश्न पूछने का, कम से कम अपने फैसले स्वयं करने का हक तो है ही!

इन्हीं बदलती हवाएं को हवा देती हुई जब कोई फिल्म आती है ना तो बहुत सुखद अनुभव होता है.....आज भी दोपहर में एक चैनल पर बेटे ने हिंदी फिल्म डोर लगाई हुई थी.....कह रहा था कि अब यह बहुत बार रिपीट हो रही है....मुझे इस फिल्म को बार बार देखना अच्छा लगता है, यह एक दबी हुई महिला के सिर उठाने की दास्तां है, सड़ी गली कुछ पुरानी दकियानूसी प्रथाओं की जंजीरों को तोड़ने की संभावनाएं टटोलते हुए... .... अगर आपने अभी तक नहीं देखी, तो ज़रूर देखिएगा... मुझे इस का यह गीत बेहद पसंद है...मैं कईं बार सुबह सुबह किसी भक्ति-वक्ति गीत की जगह इस तरह के गीत ही सुनना पसंद करता हूं....

बुधवार, 25 मार्च 2015

एक ७५ वर्षीय युवा की सेहत का राज़- प्राणायाम्

हमारा पेशा ही ऐसा है कि हमें बहुत से लोगों से मिलना होता है....कुछ जो लीक से हट कर दिखते हैं उन के बारे में जानने की उस्तुकता तो होती ही है।

कल भी जब एक सज्जन मेरे पास आए तो मैंने उन के पर्चे पर उम्र देखी ...७५ वर्ष..मुझे ताजुब्ब इसलिए हुआ कि वे जितने सक्रिय थे उस से उन की इतनी उम्र लग नहीं रही थी।

मैंने ऐसे ही पूछ लिया कि तिवारी जी, इस उम्र में भी आप टिप-टाप रहते हैं, देख कर खुशी हुई..लेकिन इस ज़िंदादिली का कोई राज़ हो तो शेयर करिए...अच्छा लगा उन की बात सुन कर। मेरे मुंह से टिप-टाप शब्द सुन कर खुश हो गये और कहने लगे कि इस का मुझे शौक है।

दोस्तो, तिवारी जी को रिटायर हुए १८ साल हो चुके हैं...ये सादा जीवन उच्च विचार वाली जीवन शैली में विश्वास रखते हैं. किसी भी तरह के व्ययसन को छुआ तक नहीं..बस सादी दाल, रोटी, साग सब्जी में ही आनंद आता है। बच्चे अच्छे से सेटल हैं...संयुक्त परिवार है।


जो अहम् बातें इन्होंने शेयर की हैं तीन चार...वही मैं आप से शेयर करने वाला हूं।

यह टहलते रोजाना हैं...पहले पांच छः किलोमीटर चलते थे ...अब कहते हैं तीन चार किलोमीटर ही चलता हूं और जाड़े के दिनों में तो बंद कर देता हूं।

लेकिन एक बात इन्होंने १९९९ से गांठ बांध रखी है...ये नित्य-प्रतिदिन प्राणायाम् करते हैं। मैंने पूछा बाबा रामदेव से सीखा होगा टीवी पर.....नहीं, कहने लगे कि उन के सेंटर में जाकर उन के शिक्षकों से सीखा।

कहने लगे कि पहले मैं बीमार ही रहता था लेकिन अब एक दम फिट रहता हूं...इन से मिल कर बहुत खुशी हुई... कहने लगे साईकिल चलाता हूं...लेकिन आज आप के पास अपने पुराने चेतक पर आया हूं...बीवी कह रही थी कि मत जाओ स्कूटर पर, अब उम्र हो गई है... कहने लगे कि मैंने उसे कहा कि तुम चिंता मत करो, यह देखो, मेरे पास मोबाइल है, जब चाहो मेरे से बात कर लेना।

हां, एक बात और ... कहते हैं मैं सुबह एक लिटर पानी पीता हूं...पहले सवा लिटर पी लिया करता था...बता रहे थे कि उस से मुझे अच्छा लगता है।

इस के बारे में मैं फिर कभी चर्चा करूंगा कि कितना पानी पीना चाहिए ... लेकिन मेरा व्यक्तिगत विचार है कि सुबह एक दो गिलास पानी पीना ठीक है, अपनी क्षमता अनुसार। लेकिन मैंने इस बात को अकसर अनुभव किया है कि हम लोग सुबह सुबह पानी पीने में इतनी रूचि लेते नहीं हैं.....अब देखिए,मेरे जैसे लोग थोड़ा बहुत जानते ही हैं, मैं भी इस के बारे में ज़्यादा सचेत नहीं था....पिछले दिनों अखबार में एक विशेषज्ञ का लेख देखा था, इसलिए अब सुबह उठ कर एक दो गिलास पानी पीने की आदत डाल रहा हूं।

हां तो दोस्तो, मैंने इस ७५ साल के जवान की बातें आप से इसलिए शेयर की ताकि हम लोग जहां से भी प्रेरणा मिले ले लिया करें.....मैं भी १९९० के दशक में कईं वर्ष तक नियमित प्राणायाम् किया करता था ...फिर जब से बंबई छूटा तो यह प्राणायाम् भी दूर छूट गया।

मैंने तिवारी जी को कहा कि आप की बातों से मुझे इतनी प्रेरणा मिली है कि मैंने भी निश्चय किया है कि आज ही से मैं भी प्राणायाम् फिर से शुरू कर करूंगा...मैंने इसकी बाकायदा सिखलाई ली हुई है..लेकिन मैं अपनी सेहत के बारे में ज़्यादा जागरूक नहीं हूं....कोई चिराग भी नहीं हूं ..कि वह वाली कहावत ही कह लूं......चिराग तले अंधेरा।

लेकिन इतना पक्का है कि मुझे जहां से भी कुछ अच्छी बातें मिलती हैं, मैं ग्रहण करने का एक अदना सा प्रयास ज़रूर कर लेता हूं...

तिवारी जी को मैंने भी दो हिदायतों की घुट्टी पिला ही दी.....एक तो इन का नाश्ता मुझे कमजोर दिखा...मैंने बताया कि नाश्ता डट कर किया करिए...सूखी रोटी साग सब्जी... दलिया आदि का सेवन अच्छा रहता है और शाम के समय या कभी भी पिसे हुए भुने चने ज़रूर लिया करें...कह गये कि आप की बात ज़रूर मानूंगा।

आप सोच रहे होंगे कि तिवारी जी की सेहत अगर इतनी ही बढ़िया है तो फिर अस्पताल में करने क्या आए थे...हां, तो दोस्तो, तिवारी जी के दांत में कुछ कष्ट था, उस के निवारण के लिए आए थे, वह ठीक हो गया है।

आप ने तिवारी जी की जीवनशैली से क्या सीखा...........अच्छा मुझे यह भी बताइए कि यह जो मैने इन की तस्वीर यहां लगाई है, इस में इन की उम्र कितनी दिखती है?... यह फोटू मैंने इन की आज्ञा से खींची है ....मैंने इन्हें बताया कि मैंने आप की सेहत का राज़ बहुत से लोगों से शेयर करना है। मेरी बात सुन कर खिलखिला कर हंस दिए।

रविवार, 22 मार्च 2015

मरीज की प्राइव्हेसी एक बड़ा मुद्दा तो है ही..

दोस्तो, अगर मुझे किसी चिकित्सक से अपने बारे में बात करनी होती है तो मैं चाहता हूं कि वह अकेले में मेरे से बात करे...दरवाजा मुड़ा हुआ हो...बेहतर हो कि उस का अटेंडेंट या नर्स पास नहीं हों।

सामान्यतयः डाक्टर के पास जाते समय हर कोई इस तरह के वातावरण की चाह रखता है। हर एक को लगता है कि यार, जो बात मैंने अपने चिकित्सक से शेयर करनी है, वह दूसरा कोई क्यों सुने!

मुझे सरकारी अस्पतालों की यह बात बहुत ही ज़्यादा अखरती है कि वहां की ओपीडी में आम तौर पर लोगों की प्राईव्हेसी की तरफ़ ध्यान नहीं दिया जाता..

किसी किसी ओपीडी के कमरे में चार डाक्टर बैठे होते हैं और हर डाक्टर को चार छः मरीज़ों ने घेर रखा होता है...यह बड़ी गलत व्यवस्था है। अधिकतर मैंने यही देखा है...अब अगर कोई यह समझे कि कम पढ़े लिखे लोगों को या आर्थिक तौर पर कमज़ोर तबके को इस बात से कोई खास फर्क पड़ता नहीं कि उन की प्राइव्हेसी का ध्यान रखा गया कि नहीं, उन्हें तो दवाई से मतलब है। नहीं, ऐसा नहीं है, हर आदमी चाहता है कि उसे अकेले में सुना जाए।

एक बात मैंने और नोटिस की है...चलो यह तो हो गई ओपीडी की बात...अगर चिकित्सकों के चेंबर भी हैं तो उन में जो चिकित्सक बैठा है, उन के सामने भी उन को मिलने आने वाले कुर्सीयों पर डटे रहते हैं जब कोई मरीज़ चिकित्सक से बात करने आया है।

कईं बार तो देखने में आता है कि उस चेंबर में दो तीन डाक्टर आपस में बातचीत में मशगूल होते हैं..अब अगर कामकाज के संबंध में यह मेलजोल हो रहा है तो कोई बात नहीं...लेकिन अकसर कभी कभी ऐसे ही चाय-काफी के लिए यह मीटिंग शुरू होती है और कुछ ज़्यादा ही लंबी खिंच जाती है...थोड़ा अजीब सा लगता है, विशेषकर जो जनता बाहर इंतज़ार कर रही होती है, उन के लिए एक एक मिनट बिताना पहाड़ जैसा होता है।

मैं हर एक मरीज़ की निजता की पूरी कद्र करने की कोशिश करता हूं...फिर भी १० प्रतिशत केसों में यह पूरी तरह से हो नहीं पाता.....आप किसी मरीज़ से बात कर रहे हैं और किसी भी कारणवश कोई आपके चेंबर के दरवाजे को धक्का देकर अंदर घुसे तो कैसा लगता है......मुझे बहुत बुरा लगता है। मेरे लिए जो मरीज़ मेरे सामने स्टूल पर बैठा है वही व्ही-आई.पी है...

मैंने ऐसे धक्के से आने वालों के लिए एक उपाय का आविष्कार किया है... मैं पहले वाले मरीज़ से बातचीत बीच में ही छोड़ कर, पहले उनसे बात करने लगता हूं...एक दिन मिनट में बात खत्म कर के उन्हें सलाह देकर भेज देता हूं...इन में से कुछ ऐसे भी होते हैं कि जो इस तरह की हिदायत भी देने की अकलमंदी करते हैं ..कोई बात नहीं, डाक्टर साहब, आप इन से (पहले वाले मरीज से) फारिग हो लें, हम बैठे हैं।

इस का भी मैंने इलाज ढूंढ लिया है... मैं उन्हें कह देता हूं कि इन्हें तो टाइम लगेगा, आप को जल्दी है, आप पहले दिखा लें......कुछ तो समझ जाते हैं, अगली बार इत्मीनान से अपने नंबर से ही आते हैं।

मेरा यह मानना है कि डाक्टर मरीज़ का रिश्ता बिल्कुल मां-बाप और बच्चों जैसा है....वह कोई भी हो...महिला हो, बच्चा हो, बच्ची हो, बुजुर्ग हो, युवा हो......यकीन मानिए दोस्तो हमारे सामने बैठने के दौरान वह हमें अपने बच्चे जैसा ही दिखता है......अब मां-बाप और बच्चे की बातें चल रही हों, बच्चे को अपना दिल खोल कर बातें शेयर करनी हैं तो उसे उस तरह का वातावरण देना किस की जिम्मेदारी है?

मुझे पता है कि यहां पर ऐसी व्यवस्था कभी बन ही नहीं सकती कि मरीज़ ही चिकित्सक को कहें कि हमें अकेले में आप से बात करनी है, कभी नहीं होगा, मरीज़ों को लगता है यह कहने से अगर डाक्टर भड़क गया तो बेकार में एक नया लफड़ा..

जो भी हो, जो भी मरीज़ हमारे पास ५-१०-१५ मिनट है, उस की हर बात को अच्छे से सुनना.....और उसे अपने तक ही रखना...क्या यह कोई बड़ी बात है, विश्वास की बात है... और वे बातें हमारे अंदर दफन हो जाती हैं, हम किसी से उन्हंें शेयर करने की सोच ही नहीं सकते।

किसी भी मैडीकल समस्या के केवल सेहत से संबंधित पहलू ही तो होते नहीं, उस के सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक पहलू भी तो उस में गुंथे रहते हैं.....वह क्यों किसी तीसरे के सामने अपनी निजी समस्याओं का पिटारा खोलने बैठेगा!

यह टॉपिक तो बहुत बड़ा है, ऐसे ही लिखने लग गया ........इस पर तो जितना लिखते जाऊं कम है। बात केवल इतनी है मरीज अपने दिल की बात तभी शेयर करता है अगर उसे उस तरह का माहौल भी दिया जाए...वरना आधी दिल में, आधी बाहर ...ऐसे में इलाज में भी कमी रह सकती है...।

ऐसे हालात में मरीज की हालत तो वही बात ब्यां करती है......क्या कहूं कुछ कहा नहीं जाए, बिन कहे भी रहा नहीं जाए..


बुधवार, 18 मार्च 2015

जीवन चलने का नाम...

मैं अभी अपनी कॉलोनी में ही थोड़ा टहल कर लौटा हूं...ऐसे ही १५-२० मिनट...धूप तेज लगी तौ लौट आया।

मैंने टहलते हुए एक बुज़ुर्ग को देखा...इन की उम्र ८० के थोड़ा इधर उधर होगी...मैं पिछले दो सालों से देख रहा हूं कि इन का नौकर इन को हाथ पकड़ कर सैर करवाता है।

ये बेहद नियमितता से टहलने आते हैं...मौसम कैसा भी हो, इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। अच्छा लगता है इन्हें सैर करते देखना...पहले तो अपने नौकर का हाथ थामे हुए भी बहुत ही लड़खड़ाते चला करते थे ..एक हाथ में इन के छड़ी हुया करती थी...आज मैंने देखा कि इन्होंने छड़ी बस ऐसे ही एक हाथ में थामी हुई थी...इस का इस्तेमाल नहीं कर रहे थे।

बहुत अच्छा लगता है जब कोई इस तरह की दृढ़ इच्छा-शक्ति वाला शख्स मिलता है। बीमारी की ऐसी की तैसी....ये सब तो ८० प्रतिशत हमारे मन की ही उपज हैं....जब शऱीर चलता रहेगा तो मन भी ठीक ही रहेगा।

मैं अकसर इस ब्लॉग पर बहुत से ऐसे लोगों की कहानियां शेयर करता रहता हूं जिनसे कोई भी प्रेरणा ले सकता है। दरअसल इन में से कोई भी कहानी नहीं होती, हर बात सच होती है।

अभी दो तीन पहले ही एक ८४ साल के बुज़ुर्ग आए... पहले फौज में थे, फिर दूसरे विभाग में नौकरी कर ली..दो जगह से पेन्शन पा रहे हैं...बीवी चल बसी है..बच्चे हैं नहीं... घर में अकेले रहते हैं......तो उस दिन अपने आप ही बताने लगे कि डाक्टर साहब, I am completing 84....पच्चीस साल हो गये रिटायर हुए...सारा काम अपना खुद करता हूं...बिल्कुल अपने आप...और इस से मैं बहुत चुस्त दुरूस्त महसूस करता हूं...मुझे याद है वे दो तीन बार आये हैं....हर बार साफ़ स्वच्छ कपड़े पहने रहते हैं....सफेद सूती कमीज़....बिना इस्तरी की हुई...वे इस में भी इतने फिट एवं एक्टिव दिखते हैं...कहते हैं अपने कपड़े रोज़ के रोज़ धो लेता हूं....चाय ऐसी बनाता हूं कि मजा आ जाए...मुझे कहने लगे कि इस बार उन के संत आएंगे तो आप को ज़रूर ले कर जाना है......उसी दिन की बात है कि जब मैं अस्पताल से बाहर निकल रहा था तो मैंने उन्हें साईकिल का ताला खोलते देखा.....वे अभी भी एकदम फिट हैं तो साईकिल से ही अपना ज़्यादातर सफऱ तय करते हैं...मुझे बहुत खुशी हुई। मेरे ख्याल में आपने इन की उम्र ध्यान से पढ़ ही ली होगी....इन्हें अभी ८५ वां साल लगने वाला है। ईश्वर करे ये शतायु हों।

दोस्तो, कल शाम को मेरा सिर थोड़ा भारी था...अकसर हो जाता है, दोपहर खाने के बाद जितनी सुस्ती मुझ पर छा जाती है, मुझे ही पता है.....मैं पिछले लगभग २०-२५ सालों से इस तकलीफ़ से ग्रस्त हूं....लेकिन मेरी बीवी कहती है कि ऐसा सब के साथ ही होता है।

हां, तो कल शाम को मेरा सिर भारी था और हम लोग पास ही के एक बाग जिसे बिजली पासी किला कहते हैं....यह मायावती के कार्यकाल के दौरान बनाया हुआ एक सुदंर स्थल है...मैं वहां पर २०-२५ मिनट टहला, बढिया हवा चल रही थी और हो गई अपनी तबीयत बिल्कुल टनाटन।


मैं क्यों यह सब लिख रहा हूं .. ..आप सब को भी और अपने आप को भी याद दिलाने के लिए कि जहां पर भी मौका मिले अपने शरीर से काम ले लेना चाहिए...इस के बेशुमार फायदे ही हैं....टहलने का बहाना ढूंढे, साईकिल चलाने की वजह ढूंढे.....यह मुश्किल नहीं है बिल्कुल अगर हम ठान लें...

मैं हर शख्स को पैदल चलने के लिए प्रेरित करता रहता हूं... क्योंिक मैं यह भलीभांति जानता हूं कि पैदल चलने से आदमी पहली बात तो यह कि अनेकों मन और शरीर की बीमारियों से बचा रह सकता है और अगर कोई इन सब व्याधियों से ग्रस्त है तो ये भी अपने आप ठीक होने लगती हैं........क्या आप को पता है कि डिप्रेशन (अवसाद) जैसे रोग के लिए भी टहलना अचूक उपाय है!

दोस्तो, जब तक टांगों में दम है, दिल में टहलने की क्षमता है और जीने की उमंग है.......बस टहलते रहिए... पता नहीं कब घुटने की वजह से या अन्य किन्हीं कारणों से किसी से चाहते हुए भी टहला ही नहीं जाए या किसी को डाक्टर ही चलने के लिए मना कर दें।

बस आखिर में एक बात लिख कर नहाने के लिए उठने लगा हूं....यकीन मानिए अगर कोई व्यक्ति पैदल चल रहा है, टहल रहा है तो यह प्रकृति का एक वरदान है.....बिल्कुल वरदान है....आप को मेरी इस बात पर यकीन करना ही होगा कि हमारे पूरे शरीर में ..दिल और दिमाग में भी......अरबों खरबों कोशिकाओं में खरबों या अनगिनत क्रियाएं चल रही हैं... और इन सब शारीरिक प्रक्रियाओं का एक सुंदर परिणाम यह भी है कि आप और मैं चल लेते हैं....अगर कभी किसी में ये प्रक्रियाएं थोड़ी सी भी पटड़ी से नीचे उतरने लगती हैं तो आदमी चाह कर भी एक पैर जमीन पर खड़ा होना तो दूर सीधा खड़ा तक नहीं हो पाता। 

हां, कल एक आदमी की बात सुन कर मूड बड़ा खराब हुआ... वह रिटायर होने वाला है...उस का बेटा बेड पर है...१७ साल की उम्र थी तब जब किसी के स्कूटर के पीछे बैठा था.. स्कूटर किसी से भिड़ गया और उस के बेटे के सिर के पिछले हिस्से पर ऐसा झटका लगा कि वह कभी बेड से उठा नहीं....बड़े से बड़े विशेषज्ञ को दिखा लिया है...वैसे स्वस्थ है, खाता पीता है...२५ साल का हो गया है..लेकिन बिस्तर से उठ ही नहीं पाता......मल त्याग और पेशाब तक भी बिस्तर पर लेटे लेटे ही......गर्दन के दो मनकों को कुछ गड़बड़ हो गई है जिस का कोई इलाज नहीं है।

ईश्वर सब को सेहतमंद रखे। मुझे याद है मैंने लगभग १०-१५ साल पहले एक िकताब पढ़ी थी ..वाकिंग के ऊपर...बहुत ही बेहतरीन किताब थी ...अगर कहीं दिखी तो उस के कुछ अंश आप से शेयर करूंगा.......और आप भी आज ही से टहलने के बहाने ढूंढते रहिए...अच्छा लगता है....जैसे बचपन में रेडियो पर इस गीत को बार बार सुनता अच्छा लगता था.....




रविवार, 15 मार्च 2015

डाक्टर के पहनावे का मरीज़ के इलाज से क्या संबंध हुआ!

दोस्तो, हम लोग जिस सत्संग में जाते हैं वहां पर हमें सभी तरह के कर्म-कांडों से दूर रहने की प्रेरणा मिलती है, उस में एक बात यह भी है कि ज़रूरी नहीं कि आप सुबह सवेरे नहा धो कर ही सत्संग में जाइए। लेकिन अकसर स्टेज से प्रवचन में यह बात दोहराई जाती है कि हमें कपड़ों का चुनाव अवसर के अनुसार करना चाहिए। फिर कहा जाने लगा कि बहनें सतसंग में रीवीलिंग कपड़ें न पहनें तो अच्छा हो...

बात है भी सही कि सतसंग के वातावरण के अनुकूल ही हमारी वेशभूषा हो तो हम सब शांति से सतसंग की बातों को ग्रहण कर सकते हैं। कल बात चल रही थी कि पुरूष लोग अब लोअर पहन कर ही आने लगे हैं....ऐसा न लगे उधर से गुज़रने वाले लोगों को कि ये लोग तो बस नींद से उठ कर आ कर बैठ गये हैं।

दोस्तो, यह बात भी आई कि ज़रूरी नहीं कि हम लोगों के पास आठ-दस-बीस जोड़ें हों तो ही हम लोग साफ़-स्वच्छ दिख सकते हैं... अगर दो ही कपड़ें हों तो भी उन्हें साफ़-स्वच्छ पहन कर रहने से हमारा मन तो खुश रहता ही है, देखने वाले पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।

अच्छा, दोस्तो, सतसंग की बात को तो यहीं पर विराम देता हूं...एक विषय पर आप से विचार साझा करना चाहता हूं...पिछले कईं दिनों से इच्छा हो रही थी, आज ध्यान आ गया।

दोस्तो, हम लोग किसी सरकारी अस्पताल में अगर जाते हैं और अगर एक ही ओपीडी के एक कमरे में बहुत से चिकित्सक बैठ कर मरीज़ों की जांच कर रहे हैं तो आप किस चिकित्सक की पंक्ति में लगना चाहेंगे?....ज़ाहिर सी बात है अन्य बातों के साथ साथ कहीं न कहीं हमारे मन में यह भी रहता है कि किस डाक्टर ने कपड़े अच्छे डाले हुए हैं, कौन अप-टु-डेट सा दिख रहा है, हम लोग अकसर उसे ही घेर कर खड़े होना पसंद करते हैं, अगर वह बातचीत भी हर एक से ठीक ठाक कर रहा है, हंसमुख है........ये सब चीज़ें भांपने के लिए किसी आईआईएम की डिग्री नहीं चाहिए, एक देहाती अनपढ़ भी ये सब बातें तुरंत ताड़ जाता है।

एक बात तो पक्की है कि हमारे कपड़े अच्छे होने का मतलब यह तो बिल्कुल भी नहीं कि कपड़े ब्रांडेड हों, महंगे हों, लेकिन यह ज़रूरी है कि वे साफ़-सुथरे हों, मौसम के अनुकूल हों और इस्त्री किए हुए हों।

डाक्टरों के नाखून अच्छे से कटे हुए होने चाहिए, मुंह में गुटखा, पानमसाला नहीं होना चाहिए, अपनी कुर्सी पर बैठ कर सिगरेट तो बिल्कुल नहीं....(यह सब देखा है इसलिए लिख रहा हूं)....

मैं अकसर देखता हूं कि आज के युवा डाक्टर चप्पलों में ही अस्पताल आने लगे हैं, होता क्या है इस हालात में मरीज़ के मन में डाक्टर की काबिलियत के प्रति संदेह पैदा हो जाता है, कुछ बातें केवल हमें मरीज़ के भरोसे के लिए करनी होती हैं, सच में मरीज़ के मन में इन सब छोटी छोटी बातों का बहुत प्रभाव पड़ता है, वह डाक्टर की बात भी तभी मानता है जब उसे उस पर भरोसा सा हो जाता है .....और कुछ बातें ऐसी भी होती हैं जो हमें इसलिए ध्यान में रखनी होती हैं क्योंकि उन से हमें अच्छा लगता है।

दोस्तो, हर प्रोफैशन के पहनावे के कुछ नियम-कायदे हैं, जो अगर हम नहीं भी फॉलो करते तो कोई हमें नौकरी से बाहर नहीं कर देगा...खास कर सरकारी में....अगर शूज़ अच्छे से पॉलिश नहीं हैं, सफेद डाक्टरी कोट नहीं भी पहना तो हमें कईं बार लगता है कि क्या फर्क पड़ता है, लेकिन मरीज़ के मन को बहुत फर्क पड़ता है......अगर दाढ़ी नहीं बनाई किसी दिन तो दोस्तो हमें अपने आप से बात करने की ही इच्छा नहीं होती तो दूसरे से हम क्या वार्तालाप करेंगें।

दोस्तो, यह सब मेरी आपबीती है ...यह कोई किताबी बातें नहीं हैं.....यह सब मैं एक मरीज़ एवं एक डाक्टर के रूप में अनुभव कर चुका हूं। दोस्तो, मुझे याद है अगर कभी बहुत ज़्यादा कड़ाके की ठंड होनी तो मैंने नहाने की बजाए ड्राई-क्लीन हो कर चले जाना, पैरों में अच्छे शूज़ की अलावा भी सब कुछ पहन कर देख चुका हूं, दाढ़ी न बना कर जाने का हश्र भी देख चुका हूं... सर्दी के दिनों में सिर पर मंकी कैप को फोल्ड कर के भी ओपीडी में बैठ चुका हूं...

लेकिन आज जब आत्मावलोकन करता हूं तो यही पाता हूं कि हमें अस्पताल में हर काम विश्वास को जीतने के लिए करना होता है.....ऐसा तो बिल्कुल नहीं है कि सरकारी अस्पताल में बैठे हैं तो क्या पड़ना इस सब झंझट में......नहीं, हमें अपने प्रोफैशन के अनुसार तो दिखना और फील करना ही चाहिए......इस में कोई दो राय नहीं .... यकीनन मरीज़ का भरोसा जीतने के लिए भी यह सब बहुत ज़रूरी होता है....यार, मरीज़ को लगे तो सही कि यह ठीक ठाक लगता है, यह मुझे भी ठीक कर देगा।

जब हम लोग कालेज में डाक्टरी पढ़ते हैं और जब नये नये डिग्री पाते हैं तो इन सब चीज़ों के प्रति बेहद सजग होते हैं......लेकिन पता नहीं कईं बार धीरे धीरे क्यों ये सब चीज़ें हम थोड़ी सी ध्यान में रखना बंद कर देते हैं......अब आप देखिए कि एक डाक्टर अपने कमरे में बैठा हुआ है, उस की कमीज़ के ऊपर के दो बटने खुले हुए हैं....और उस की मोटी सी सोने की चेन दिख रही है, अब आप भी बताइए कि मरीज़ को क्यों नहीं लगेगा कि कहीं वह पहाड़गंज के किसी प्रापर्टी डीलर के पास तो नहीं आ गया!

एक बात का और ध्यान आ गया.......बिल्कुल सच...दोस्तो, बार बार यह लिखना कि मैं झूठ बिल्कुल नहीं कहता इस ब्लॉग पर, ठीक नहीं लगता....हां, एक डाक्टर को किसी जमाने में जानता हूं जो हर अंगुली में सोने की अंगुठी भिन्न भिन्न पत्थरों और मोतियों से जड़ी हुईं पहने रहता था...और उस के कमरे और कमरे के बाहर बीसियों देवी देवताओं की तस्वीरें टंगी रहती थीं....मुझे यह सब बहुत अजीब लगता था.......अच्छा, एक बात और.....धंधे उस के पूरे के पूरे गोरख ही थे.........ऐसे में क्या नहीं लगता कि हम लोग चीटिंग कर रहे हैं और वह भी मरीज़ से...

क्या ज़रूरत है मरीज़ के सामने ईश्वर से डरने का नाटक करने की .......अगर ईश्वर हम लोगों के मन में बसा हुआ है तो हमारे सामने बैठा हर बंदा ही स्वयं ईश्वर है.....और यह सत्य भी है... फिर बेवजह की नौटंकी करने की ज़रूरत नहीं पड़ती .... किसी भी धर्म-जाति-वर्ण के मरीज़ के सामने डाक्टर की धार्मिक एवं आध्यात्मिक प्रेफरेंसेज़ प्रगट ही क्यों हों, इस की ज़रूरत ही क्या है। हम धार्मिक आस्थाएं कुछ भी हों, इस से मरीज़ को क्या फर्क पड़ता है!

दोस्तो, ये सब बातें शायद आप को बेतुकी लगें लेकिन मेरे लिए यह एक रिमाइंडर था कि मुझे कल से ही इन सब बातों को पूरा पूरा ध्यान रखना होगा, मरीज़ के भरोसे के लिए तो है ही , अपना मन भी अच्छा रहता है, किसी से ढंग से बात करने की इच्छा ही तभी होती है.....आपने नोिटस किया कि मैंने कहीं भी अपने आप को मरीज़ से श्रेष्ठ फील करने की बात नहीं की......और यह भी बहुत ज़रूरी है.....बिल्कुल उस की सतह पर आकर बात करने से बात में अलग ही तासीर पैदा होती है....यह इस खाकसार का तजुर्बा उसे लिखने के लिए उकसा रहा है।



शुक्रवार, 13 मार्च 2015

स्टिंग करने जैसी बेवकूफी मेरे विचार में कोई नहीं....

अच्छा ही है यार मैेंने पिछले कुछ महीनों से टीवी देखना बंद कर रखा है..वही पुरानी समस्या...खबरिया चैनलों पर खबरें पढ़ने वालों को बेहद उत्तेजित होकर खबरें पढ़ते देख कर मेरा सिर भारी होने लगता था..बार बार जब ऐसा होने लगा तो मैंने सोचा कि छोड़ो यार, टीवी ही छोड़ो...मैं ठीक किया या नहीं, मुझे नहीं पता......लेकिन अब मुझे टीवी के बिना अच्छा लगने लगा है।

यह जो स्टिंग विंग की खबरें हैं न, ये अब बड़ी बात नहीं लगती। कोई बच्चा भी कर ले। हर टुच्चे से टुच्चे फोन में बातचीत को टेप करने की सुविधा तो होती है, बस फोन को जेब में डालना है, और किसी का भी कच्चा चिट्ठा खोल कर उस का जूलूस निकाल दीजिए...

दो दिन से  लोग केजरीवाल के स्टिंग आप्रेशन की बातें किये जा रहे हैं...उसने ऐसा कहा , उसने वैसा कहा....मेरा दृढ़ विचार है कि कहा तो कहा, मैं पार्टीबाजी में नहीं हूं...लेकिन केवल अपने दिल की बात कर रहा हूं कि केजरीवाल ने जो भी कहा क्या कोई और बंदा इस तरह की बातें नहीं करता! अकेले में हम लोग भरोसे के लोगों के साथ पता नहीं क्या क्या बकते रहते हैं......सच में वह बकने की ही श्रेणी में ही आता है। मुझे आप को नहीं पता, लेकिन मैं अपने बारे में तो ऐसा कह ही सकता हूं।

ऐसे में अगर किसी ने बिल्कुल दिल की बातें बिना किसी तकल्लुफ़ के किसी के साथ कर दी और उस ने उस का स्टिंग आप्रेशन कर दिया....इस से बड़ी मूर्खता वाली बात क्या हो सकती है!....मेरा अनुभव यही बताता है कि जिन लोगों का स्टिंग आप्रेशन होता है, उन को कोई कुछ भी तो नहीं उखाड़ पाता.......अगर अस्थायी तौर पर कुछ उखड़ने जैसा लगता भी है तो पब्लिक उस सनसनी को चार दिन में भूल भाल जाती है ....जैसा ही कुछ उस से भी ज़्यादा चटपटा पढ़ने-देखने-सुनने को मिलता है, पुरानी बातें ठंड़े बस्ते में पहुंच जाती हैं।

लेिकन सब से ज़्यादा नुकसान पता है किस को होता है...जो आदमी स्टिंग कर रहा होता है...उस की विश्वसनीयता अगर मानइस में न भी कहें तो सीधे सीधे शून्य तो हो ही जाती है।

एक आदमी को जानता था...पांच छः साल पहले की बात है..वह अपने अधिकारी के साथ जब बात करने जाता तो टेप कर लिया करता.....फिर उसे दूसरों पर धाक जमाने के लिए इस्तेमाल किया करता ... बिल्कुल सच्ची घटना है...मजबूरी है कि मैं उस का नाम नहीं ले सकता.....उस का नतीजा यह निकला कि उस बंदे की अपनी विश्वसनीयता जीरो हो गई...जब वह किसी को भी फोन करे तो लोग उस से बिलकुल काम की ही बात करते, हरेक को लगता वह उस की बातें टेप कर रहा है।

हम लोग बहुत अविश्वास के दौर में जी रहे हैं...हैं कि नहीं?... आज व्हाट्सएप पर सुबह सुबह मैसेज आया ...डाक्टर मित्रों ने आपस में एक दूसरे को चेताया था एक सच्ची घटना का हवाला दे कर....एक मैडीकल रिप्रेज़ेंटेटिव डाक्टर के पास आया..जब वह बाहर गया तो गलती से मोबाइल वहीं भूल गया... डाक्टर ने निगाह डाली तो उसे पता चला कि सारा वार्तालाप उसने फोन में रिकार्ड किया हुआ था....साथ में बताया गया था कि कोई इंदौर में डाक्टर का स्टिंग भी इसी ढंग से ही हुआ था।

आज कल तो वही दौर है कि मैं सोचता हूं कि जिस से भी वार्तालाप कर रहे हैं ...सीधे सीधे या फोन पर...तो उस के पास आपकी हर बात रिकार्ड करने की सुविधा है....इस के लिए कोई बड़ी तकनीक सीखने की ज़रूरत नहीं है... ऐसे में आज के दौर में दिल खोल कोई क्या बात करेगा। हर तरफ खौफ ...कहीं बात का गलत इस्तेमाल न कर लिया जाए।

दोस्तो, मैं कुछ स्टिंग आप्रेशन को छोड़ कर .......शायद जो बहुत ही बड़े स्तर के हों, जहां कोई बहुत बड़ा भ्रष्टाचार हो रहा है, राष्ट्र की सुरक्षा खतरे में हो .....जो पत्रकार लोग सुनियोजित ढंग से यह सब करते हैं, उन को तो छूट दी जा सकती है.......अपना काम कर रहे हैं..........लेकिन यह जो जना-खना एक दूसरे की बातें टेप कर के, वीडियो फिल्म बना कर या तो ब्लेकमेल करने लगते हैं या फिर किसी मीडिया हाउस को यह तथाकथित स्टिंग सौंप देते हैं, यह सरासर पीठ में छुरा घोंपने जैसा है.......शायद सोये हुए बंदे की पीठ में छुरा घोंपने जैसा। थर्ड क्लास काम तो है ही, विचार उस से भी नीच स्तर का।

दोस्तो, आप अपने दिल पर हाथ कर के देखिए हम सारे दिन में जो जो बोलते हैं, जो जो कहते हैं, अगर उन का भी स्टिंग आप्रेशन होने लगे तो कमबख्त हम सब को चुल्लू भर पानी भी मुहैया न हो.....लेकिन एक बात है कि जब हम लोग अपने पुराने दोस्तो...स्कूल, कालेज एवं अपने परम मित्रों से, रिश्तेदारों से बातें करते हैं तो कितने खुलेपन से करते हैं......क्योंकि हम लोग इन पर अपने से भी ज़्यादा भरोसा करते हैं।

वैसे दोस्तो मैंने तो यह बात मन में बिठा रखी है और यह मैं हर वार्तालाप के समय मन में रखता हूं कि हो सकता है कि इस बंदे ने मोबाइल की रिकार्डिंग ऑन की हो..की हो तो की हो, उखाड़ लो यार जो उखाड़ना हो।

लेकिन मैंने भी २००९ में एक बार फोन रिकार्ड किया था......ऐसे ही २-३ मिनट के लिए.......शाम को सुनते ही इतनी आत्मग्लानि हुई कि तुरंत उसे डिलीट कर के पश्चाताप कर लिया.......मेरे विचार में यह भद्र पुरूषों के शौक नहीं है, यह सब धंधे करने वाली की विश्वसनीयता तो ज़ीरो हो ही जाती है, उसे बेहद टेंशन में भी रहना पड़ता है निरंतर........तो फिर इस खुराफात से पाया क्या.......सिवाए इस के कि पब्लिक को मुफ्त में दो दिन का ऐंटरटेन मिल गया।

आज दोपहर एक खबर दिखी की एक नेता कह रहा है कि केजरीवाल का एक और स्टिंग उस के पास है... उस ने घड़ी के द्वारा किया....और पेनड्राइव में वह स्टिंग बंद है....तू भी ले ले यार, तू भी ले ले बहादुरी पुरस्कार। ऐसे लोगों को तो पत्रकार होना चाहिए.......अब अगर पत्रकारों के काम ये लोग करने लगेंगे तो वे क्या काम करेंगे।  वैसे हो सकता है कि मैं भूल रहा होऊं.........दोस्तो, अगर आप को याद हो कि पिछले दस पंद्रह बरसों में किन किन स्टिंग आप्रेशनों की वजह से किस का क्या क्या उखड़ गया, तो कृपया टिप्पणी के रूप में दर्ज़ कर दीजिएगा।



गुरुवार, 12 मार्च 2015

अधिकतर हिंदोस्तानियों को दूध पचता ही नहीं...

दोस्तो, यह कोई मिलावटी, सिंथेटिक या किसी ऐसे वैसे दूध की बात नहीं हो रही...पीजीआई मैडीकल संस्थान के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन किया है जिस के परिणाम में यह पता चला है कि तीन चौथाई हिंदोस्तानी दूध पचा ही नहीं पाते।

यह खबर आज टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर प्रकाशित हुई है। इस तरह की खबरें पहले भी आती रही हैं लेकिन अकसर उन पर तब तक भरोसा नहीं किया जा सकता जब तक कि कोई विश्वसनीय संस्थान इस तरह की बात की पुष्टि न करे।

बीस बरस हो गये एक लेख पढ़ा था...किसी पेपर में ...मानव के पांच ऐसे दुश्मन हैं जो सफेद हैं... Sugar, milk, rice, maida, salt -- चीनी, दूध, चावल, मैदा, और नमक। यहां यह बताना चाहूंगा कि यहां पर जिस चावल की बात हो रही थी वह पॉलिश्ड एवं एकदम चमकदार चावल है जो हम खाते हैं...बिना पॉिलश वाला हल्के से भूरे रंग के चावल (brown rice) इस श्रेणी में नहीं आते हैें, वे सेहत के लिए बहुत लाभदायक होते हैं।

हां, तो दोस्तो, बीस साल पहले भी यह चर्चा चली थी कि दूध पचाने के लिए केवल शिशु के पास एन्ज़ाईम होता है ...बड़ों के पास ऐसा कुछ होता नहीं, इसलिए दूध नहीं पचता नहीं। पचता नहीं से आप यह मतलब भी निकाल सकते हैं कि दूध उन के शरीर को लगता नहीं।

चलिए, आज वाली न्यूज़ रिपोर्ट की भी कुछ बातें कर लेते हैं...दूध न पचा पाने की बात इस लिए होती है क्योंकि इसे पचाने के लिए हमारी आंतड़ियों में लेक्टेज़ नामक ऐन्ज़ाइम की कमी है....इसी ऐन्ज़ाइम की वजह से ही लेक्टोज़ दो छोटे हिस्सों में बंट पाता है जिन्हें ग्लूकोज़ एवं ग्लेक्टोज़ कहते हैं...जो बड़ी आसानी से हमारी रक्त प्रणाली में प्रवेश कर जाते हेैं।

दूध को पचाने की शक्ति बढ़ती उम्र के साथ घटती जली जाती है...और आदमी के तीसरे दशक तक पहुंचते पहुंचते यह तकलीफ़ पेट की बीमारियों जैसे कि बार बार टॉयलेट जाना और खट्टी डकारें आना..ऐसा लगना जैसे मुंह के रास्ते पेट में पड़ा हुआ खाया पिया बाहर आना चाह रहा है..

लेक्टोज़ इन्टालरेंस तो है ...भारतीयों में अन्य नसलों की बजाए समस्या बहुत बड़ी है... और एक बात कि यह जो हम लोगों ने जैसे अब निरंतर तनाव में रहना शुरू कर दिया है...और हमारी जंक-फूड से मोहब्बत इस समस्या को और भी जटिल किए जा रही है।

दूध न पचाने वालों की जब स्टडी हुई तो पाया गया कि दक्षिणी भारतीय मूल के लोगों में तो यह समस्या ८२ प्रतिशत तक है जब कि उत्तर भारतीयों में ६६प्रतिशत...

सब से अहम् बात यह है कि इस लेक्टोज़ इन्टालरेंस की वजह से शरीर में कैल्शियम की कमी हो जाती है, हड्डियों कमज़ोर हो जाती हैं...और कुछ कुछ लोगों में जिन में विटामिन डी की भी कमी रहती है उन में तो हड्डी की तकलीफ़ और भी बढ़ जाती है।

इन तकलीफ़ों पर लगाम लग सकती है अगर हम लोग कैल्शियम एवं विटामिन डी सप्लीमेंट्स लेना शुरू करें। पीजीआई मैडीकल संस्थान के वैज्ञानिक भी यही बात करते हैं कि जिन लोगों को दूध नहीं पचता, वे इसे लेना तो बंद कर देते हैं लेिकन वे यह नहीं समझते कि इस के लिए उन्हें किसी अन्य पूरक की ज़रूरत तो है हीं........हिंदी में पूरक कुछ ज़्यादा ही कठिन सा लगता है न, तो इन्हें सप्लीमेंट्स कह देते हैं।

कृपया इस पोस्ट को पढ़ते ही कहीं आप भी किसी मॉल-वॉल में सप्लीमेंट्स ढूंढने न निकल पड़िए, कृपया इत्मीनान करिए....इन वैज्ञानिकों से ही पूछते हैं कि कौन से सप्लीमेंट्स हैं जिन की यह सिफारिश करते हैं ...इस बात का ध्यान करते हुए कि भारत में बहुत सी जनसंख्या शाकाहारी ही है। अभी इन्हें मेल भेजता हूं......जो जवाब आयेगा आप से  साझा करूंगा।

Source :   Three out of four Indians have no milk tolerance 

मैं अगर अपनी पोस्ट के नीचे कोई गीत नहीं लगाऊं तो मेरे दोस्त खफ़ा हो जाते हैं...मैं अकसर कहता हूं कि सब कुछ यू-ट्यूब पर पड़ा तो हैं, फिर मुझे सुनना पड़ता है कि वे पोस्ट के बाद मेरी पसंद का गीत सुनने के आदि हो चुके हैं.....ओह माई गॉड, अच्छा तो इस की भी लत लग जाती है... सुबह का समय है, दातुन का ध्यान आ रहा है...

मंगलवार, 10 मार्च 2015

मौत से ज़िंदगी की बात करो....

जब मैंने सन् २००० के आस पास सेहत संबंधी विषयों पर अखबारों के लिए लिखना शुरू किया तो मैं अकसर लिखने वाले विषयों को अपनी अंगुलियों पर गिन लिया करता था....फिर धीरे धीरे जैसे जैसे आंखों से परदा हटता गया तो पता चला कि हर लम्हा एक विषय लेकर आपके सामने खड़ा है।

सब कुछ अनुभव किया ....लेकिन अब पंद्रह बरस बाद यही लगने लगा है कि क्या यार, वही घिसी पिटी बातें...डेंगू के ये लक्षण, स्वाईन फ्लू की दवाई, मधुमेह की दवाईयां, दिल की बीमारी के इलाज .....सब पर लिखता चला गया लेकिन मन में अब आने लगा है कि यह सब बेकार था......किसी बीमार से उस के सेहतमंद होने की बात करो तो बात बने, शब्दों में किसी गिरते हुए को थाम लेने की तासीर पैदा हो तो बात बने....वरना क्या फायदा बात बात पे लोगों को डराने धमकाने का कि यह मत खाओ, यह मत करो, वो मत करो....जो पहले ही से खौफ़ज़दा हैं, उन के साथ मस्ती की बात करो, उन को हंसाओ.....मैं तो दोस्तो यही समझा हूं ...और पूरी शिद्दत से इसे महसूस करने लगा हूं।

जब मैं किसी के हालात बदल ही नहीं सकता, बिल्कुल भी नहीं, कल्पना भी नहीं कर सकता तो क्यों हम उस के मौजूदा हालात की बात कर कर के बार बार उस की दुःखती रग पर हाथ रखने की हिमाकत करूं...


कुछ कुछ पंक्तियां मन में बस जाती हैं...वे आप की राह ही बदल देती हैं....मैंने भी दोस्तो कुछ महीने पहले बशीर बद्र जी की ये पंक्तियां कहीं देखीं......देखीं क्या, दोस्तो, वे मेरे मन में उतर गईं...मैंने डायरी में नोट भी कर रखी हैं....आप भी सुनिए...
  "शमा से रोशनी की बात करो..
चांद से चांदनी की बात करो। 
जीने वाले तुम्हें खुदा की कसम, 
मौत से ज़िंदगी की बात करो, 
न जी भर के देखा न कुछ बात की, 
बड़ी आरज़ू थी मुलाकात की। 
कईं साल से कुछ खबर नहीं,
कहां दिन गुज़ारा कहां रात की। 
मैं चुप था तो हवा रूक गई, 
कि जुबां सब समझते हैं ज़ज्बात की।।"
दोस्तो, इस की एक एक पंक्ति में जीवन का सारा सार छिपा है ...मुझे तो मेरे मतलब की दो बातें याद आती रहती हैं.... जीने वाले तुम्हें खुदा की कसम, मौत से ज़िंदगी की बात करो।

इसलिए मुझे लगता है कि मेरे लेखन में भी एक नया मोड़ आया है......जब तक बहुत ही ज़रूरी न हो, मैं अपने ब्लॉग पर बीमारियों की बात नहीं करता...बस मैं भी उम्मीद बांटने की, खुश रहने की, जीवन के उत्सव को मना लेने की ही बातें करना चाहता हूं.....भयंकर बीमारियां और उन के इलाज के बारे में ....जहां पर भी अकसर आम आदमी का बहुत बार घोर शोषण ही शोषण है, बहुत कुछ पढ़ते-सुनते रहते हैं, ऐसे में क्या बात करें....जो किसे को थामने की बजाए.....

सच में ये जो महान् शायर हैं इन के शब्दों में हकीमों के नुस्खों से भी कहीं ज़्यादा असर होता है.......हो भी क्यों नहीं, दोस्तो, इन के ये जादुई शब्द ही हैं जो मुरझाए चेहरों पर एक बड़ी से मुस्कुराहट बिखेर देते हैं.......इन के फन को कोटि कोटि प्रणाम् और ऐसी सभी महान् हस्तियों को दंडवत् प्रणाम्.......क्या कोई टेबलेट यह काम कर सकती है?

सुबह सुबह आज आप को एक इस विषय से मिलता जुलता गीत सुनाते हैं........आ बता दें कि तुझे कैसे जिया जाता है... मोहम्मद रफी साहब हम सब आप से बहुत मोहब्बत करते हैं.......

दोस्तो, कहीं भी कुछ अच्छी बात पढ़ो तो उसे लिख लिया करें, अपने दिल में.....वरना कम से कम डायरी में तो ज़रूर ही, क्या पता किसी के कौन से शब्द हमारे जीने की राह ही बदल दें। आजमा कर देखिएगा.......मैं आजमा चुका हूं और यह प्रक्रिया निरंतर जारी है....



शुक्रवार, 6 मार्च 2015

पुराने कपड़े दो और नये बर्तन लो...

यह खेल भी आज से ३०-३५ वर्ष पहले बहुत हुआ करता था...बहुत मजा आता है जिस जगह भी यह खेल चल रहा होता तो मोहल्ले के बच्चे उसी जगह पर इक्ट्ठा हो जाते और उन के टाइम पास का अच्छा जुगाड़ हो जाया करता।

मैं सोच रहा था कि हम लोगों के बचपन में टाइमपास के जुगाड़ बड़े हुआ करते थे....इस खेल के बारे में तो अभी बात करूंगा ...एक और टाइमपास...उस जमाने में जब स्टील चला नहीं था, पीतल के बरतन हुआ करते थे ...तो अकसर उन की कलई उतरने लगती थी जो कि कलई करने वाला आकर कर फिर से चढ़ा जाया करता था।

हमें तो देख कर ही इतना मजा आया करता था .. हमें कलई शब्द ही अभी पता चला...हम तो पंजाबी में इसे भांडे कली करवाने के नाम ही से जाना करते थे.....हम किसी जादू से कम नहीं लगता था जब वह भट्ठी पर बर्तन गर्म कर के, उस के अंदर एक कैमीकल रगड़ता और झट से पानी में झोंकता.......लो जी, हो गई कली। हम लोग उसे ऐसे घेरे रहते थे ...तब तक जब तक वह अपना सामान बंद कर के रफा-दफा नहीं हो जाता था। उस के साथ पहले मोल-तोल देखना भी अच्छा लगता था।


हां, तो ऊपर कपड़े वाले खेल की बात करें.......अभी वाट्सएप पर एक मैसेज दिखा कि मोदी का सूट तो करोड़ों में बिक गया लेकिन एक बंदे को मलाल है कि उस की बीवी ने तो उस की तीन जीन पैंट्स एक पतीली लेने के चक्कर में दे डाली।

दोस्तो, हम बचपन में अकसर देखा करते थे जब नये नये स्टील के बर्तन चले तो एक टोकड़ी में कुछ बर्तन रख के अकसर महिलाएं (हां, पुरूष ही हुआ करते थे) मोहल्ले मोहल्ले में आवाज़ें लगाती रहती थीं...कि पुराने कपड़े दो और नये बर्तन ले लो।

वाह यार वाह.....मोहल्ले में किसी के भी घर के सामने या दरवाजे पर जैसे ही वह बैठती तो तुरंत बच्चे उसे घेर लेते......उस घर की गृहिणी की यह तमन्ना होती कि उसे लूट ले और उस बर्तनों वाली की इच्छा तो आप समझ ही सकते हो, गृहिणी कितने भी कपड़े िनकाल निकाल कर लाती, उस बर्तन वाली का पेट नहीं भरता......वह फिर कहती ..यह साड़ी तो पुरानी है, यह पैंट तो घिसी हुई है , यह कमीज का कॉलर चला गया है........दो साड़ियां लाओ और एक बढ़िया पतलून दो ...और यह बड़ा स्टील का पतीला ले लो........सच में यार यह सब देख कर बड़ा मज़ा आता था...कभी न खत्म होने वाली सौदेबाजी........हमें इस से कोई मतलब नहीं होता था कि किस की जीत हुई, हमें तो बस इसी में मजा आता था कि समय बढ़िया पास हो रहा है...और जिज्ञासा तो स्वाभाविक है बनी रहती थी कि कौन लूटेगा, कौन लुटेगा........लेिकन चंद मिनटों में जैसे ही डील पक्की हुआ करती तो दोनों के चेहरों पर संतोष का भाव झलकने लगता...और यही नहीं, फिर वह स्टील का बर्तन मोहल्ले की औरतें में अगले दो दिन तक चर्चा का विषय बना रहता .....कि यार, सोढ़न (सोढ़ी की बीवी ने) ने पुराने कपड़ों से एक बहुत बड़ा पतीला ले लिया, और कपूरनी (कपूर की बीवी) ने छः गिलास ले लिए...पुराने कपड़े दे कर।

मुझे ध्यान आ रहा है िक ये लोग एल्यूमीनियम और कांच के बर्तन भी इस तरह से एक्सचेंज में देने के लिए ऱखा करते थे।

बस, यही ध्यान आया तो आप से शेयर कर दिया........ऐसी यादें भी अब चंद लोगों के पास ही बची होंगी......फिर धीरे धीरे यह काम बंद तो नहीं हुआ.....बहुत कम हो गया। हां, एक बात का और ध्यान आ गया कि अकसर ये लोग पुराने प्लास्टिक से तैयार सामान भी लेकर आया करते थे। अकसर लोग इन लोगों को यह भी कह दिया करते कि हमें फलां फलां स्टील का बर्तन चाहिए.....तो वे कुछ दिनों बाद फिर से हाजिर हो जाते .....और पहले ही बता कर जाते कि इस के लिए इतने कपड़े देने होंगे......बस, यार, वह मंजर भी देखने वाला हुआ करता था।


 एक बात और, एक रिसाईक्लिंग की और उदाहरण याद आ गई..साईकिल पर एक आदमी करता था जो पुराना, टूटा फूटा प्लास्टिक लेकर जाता और उस के बदले कांच के गिलास, कांच की प्यालियां, प्लेटें कुछ भी दे जाता.......ऑन डिमांड...

बस, यार बंद करता हूं.......होली है, होली मनाओ......यादें तो यादें हैं.....आती ही रहती हैं.....

जाते जाते भांडे कली करवाने (बर्तन कलई करवाने) वाला पंजाबी फिल्म का एक गीत आप से शेयर करना है.....


गुरुवार, 5 मार्च 2015

बीबीसी से मेरा तारूफ़ १९७१से है तो लेिकन...

१९७१ में जब पाकिस्तान और हिंदोस्तान का युद्ध शुरू हुआ तो हम लोग अमृतसर में रहते थे...मुझे बिल्कुल अच्छे से याद है कि हमें (हमें तो क्या, हमारे घर वालों को) कोई भी युद्ध से खबर सुननी होती थी तो मोहल्ले के सभी लोग अपने अपने रेडवो के साथ जुड़े पतली तार रूपी ऐंटीने इधर उधर घुमाने लगते कि कहीं से बीबीसी स्टेशन कैच हो जाए...और होता भी था, कभी दो मिनट, कभी एक मिनट...कभी पांच मिनट...बीच बीच में रूकावट के साथ लेकिन इस की खबर पक्की मानी जाती थी।

एक बात और बीबीसी पर खबरें आने के समय बहुत से लोग अपने रेडियो पर इस स्टेशन को लगाने की निरंतर कोशिश करते रहते, जो खुशकिस्मत होते उन्हें इस की आवाज़ सुनाई दे जाती.....फिर वह चौड़ा हो कर आसपास वह खबर पहुंचाता फिरता कि यह खबर अभी अभी उसने बीबीसी रेडियो पर सुनी है।

मुझे अभी भी याद है अपने पड़ोस के नानक सिंह अंकल जो अपने ट्रांसिस्टर को तब तक ऊपर नीचे घुमाते रहते जब तक उन्हें बंगला देश की आज़ादी की खबरें अच्छे से न सुनाई देतीं। उन्हें भी बड़ा शौक था बीबीसी सुनने ..। तब टीवी वीवी तो हुआ नहीं करते थे..। बस, रेडियो सिलोन फिल्मी गानों के लिए और बीबीसी खबरें के लिए छाए हुए थे।

फिर अस्सी का दशक आया....पंजाब ने आतंकवाद का बुरा समय देखा...हर रोज़ कभी एक समुदाय के और कभी दूसरे समुदाय के लोग कत्ल होने लगे.....अब सरकारों की अपनी मजबूरियां रही होंगी ...गोलियों से मरने वाले लोगों की गिनती बहुत कम बताने की ......लेकिन हर दिन लोगों को यही व्याकुलता रहती कि बीबीसी ही बताएगा यही गिनती....और आतंकी वारदात की सही जानकारी भी वही देगा.....और देता भी था....बिल्कुल सटीक।

उस के बाद टीवी आ गये, वीडियो आ गये..फिर बीबीसी रेडियो हम लोगों की ज़िंदगी में कहीं दूर हो गया। लेिकन लगभग बीस पच्चीस साल के बाद जब २००८-०९ के आसपास नेट पर अच्छी स्पीड आने लगी और मैं जन संचार की पढ़ाई लिखाई से भी फारिग हो गया तो फिर रूझान हुआ ...बीबीसी की साईट का।

जी हां, जनसंचार की पढ़ाई के दौरान अच्छे से हम लोगों ने समझ लिया कि बीबीसी की साईट एक आदर्श साइट है...सभी तरह से ..कंटैंट की नज़र से, ले-आउट एवं प्रिज़ेन्टेशन की निगाह से...और मैं पिछले लगभग आठ सालों से इसे नियमितता से देख ही लेता हूं....मुझे बहुत से लेखों की प्रेरणा मिली वहां का कंटेंट देख कर, मैं स्वीकार करता हूं।

लेकिन यार मैं पिछले कुछ महीनों से यह महसूस करने लगा था कि बीबीसी की साइट पर भारत से संबंधित कंटेंट बड़ा अजीब से ढंग से ..क्या कहें...हिकारत भरे शब्दों से ... ऐसा कहें कि जैसे किसी को नीचा दिखाना हो तो उस के बारे में हम सब बुरी बातें ढूंढनें लगते हैं, करते हैं ना हम लोग ऐसा ही......कहीं न कहीं मेरे मन में यह विचार आने लगा कि यार, कहीं इन लोगों को यह मलाल तो नहीं है कि हमें क्यों भारत से खदेड़ दिया गया, हम होते तो वहां पर हालात इतने खराब न होते.......मुझे यह विचार बार बार आते रहे दोस्तो पिछले कुछ महीनों में, लेिकन मैंने अपने तक ही रखे।

लेिकन अब निर्भया की डाक्यूमेंटरी ने तो इंतहा ही कर दी......मुझे बहुत बुरा लगा.....मैं उस पाले में से हूं जिन्हें इस फिल्म के बनने पर और प्रसारित किए जाने पर घोर आपत्ति है। मुझे बहुत बुरा लगा इस के बारे में जान कर ...बहुत ही बुरा....वैसे एक बात तो है कि हर कोई कह रहा है कि ये पत्रकार अंदर उस अभियुक्त का इंटरव्यू लेने कैसे पहुंच गई ....आप देखिए नीचे इस स्क्रीन-शॉट में कि इस पत्रकार ने कितने घंटे इस अभियुक्त के साथ इंटरव्यू करते हुए बिताए...यह मैंने अभी अभी बीबीसी हिंदी की साइट से लिया है....
http://www.bbc.co.uk/hindi
(इसे ठीक से पढ़ने के लिए इस फोटो पर क्लिक करिए) 

वैसे सब से चिंता करने वाली बात यही है कि यार यह पत्रकार आखिर इस तरह की हाई-सिक्योरिटी जेल में घुसी कैसे.......और यह कोई खुफिया स्टिंग आप्रेशन भी नहीं था। लेकिन सोचने वाली बात यह भी है कि इस देश में क्या मुश्किल है....कितनी खिल्ली उड़ी हम सब की ...फिल्म तैयार हो गई और बीबीसी ने दिखा भी दी....और हम गिड़गिड़ाते ही रह गये.......प्लीज़ नहीं, प्लीज़ नहीं। किसी न किसी ने तो गड़बड़ी की है......अब एन्क्वॉयरी होगी, देखते हैं क्या निकलता है...

किस तरह से पिछले दिनों देखा कि एक मंत्रालय के कर्मचारी ही वहां की खुफिया जानकारी कारोबारियों तक पहुंचाते पकड़े गये.....मुझे याद आ रहा एक बार कोई कह रहा था कि वह तो किसी ज़माने में ज़रूर पड़ने पर दस बीस रूपये खर्च कर यूपीसी (अंडर पोस्टल सर्टिफिकेट) ले लिया करता था किसी भी तारीख का....फिर कानूनी खेल में उसी बात का फायदा लिया करता था कि हमने तो चिट्ठी भेजी थी....वैसे इस मुद्दे पर तो क्या लिखें, हम सब लोग जानते ही हैं कि जुगाड़ू लोग कैसे कैसे जुगाड़ लगा कर अपना काम निकाल लेते हैं...ट्रांसफर, नौकरी, प्रवेश परीक्षा में धांधली ...आप नाम लीजिए, सेवा हाज़िर है.....पैसे का खेल हो गया है सब।

वैसे अब मेरा बीबीसी की साइट की तरफ़ जाने की ज्यादा इच्छा नहीं होती......अपने देश की निगेटिव खबरें देख कर पकने लगा हूं....चलिए अभी अभी यह तो पता चला ...यू-ट्यूब से हटाई गई निर्भया डाक्यूमेंटरी

वैसे अगर आप इस के बारे में अन्य खबरें देखना चाहें तो गूगल पर हिंदी या इंगलिश में निर्भया डाक्यूमेंटरी लिख कर सर्च करिएगा.......बीबीसी की साइट पर तो यह खबर देखने-पढ़ने-सुनने की बिल्कुल इच्छा नहीं होती, वे तो यही कहेंगे कि हम ने सब कुछ संपादकीय दायरों में रह कर किया..

किसी को क्या कहें, जब अपने ही किसी घर के भेदी ने लंका ढहा दी.....सब से बड़ा प्रश्न इस डाक्यूमेंटरी के लिए इतना कंटेंट जेनरेट आखिर हुआ तो हुआ कैसे......मुझे तो बरतानवी पोंडों की खनक सुनाई पड़ रही है, क्या आप को भी कुछ सुना?....  यह खनक बड़े बड़ों के होंठ सिल भी देती है और बड़े बड़ों के मुंह खुलवा देती है। अफसोस....बेहद अफसोसजनक। 

इत्तफाक से मैं भी १६ दिसंबर २०१२ वाले दिन दिल्ली में ही था...Grassroot Comics की एक प्रशिक्षण कार्यशाला में शिरकत कर रहा था.....बहुत बुरा लगा था दोस्तो.......हंसती खेलती एक बहादुर बेटी को हरामियों के इन पिल्लों ने कैसे अपनी दरिंदगी का शिकार बना दिया। थू---थू....थू।। 

अगर वही सरिया इन की .......तो इन्हें पता चलता कि उस समय कितना दर्द होता है...

आते जाते खूबसूरत आवारा सड़कों पे...

मैं अभी लखनऊ छावनी की उस सड़क से आ रहा था जो बेस अस्पताल के सामने से निकल कर आगे रायबरेली रोड़ पर मिल जाती है...काफ़ी लंबी सड़क है, और इस का कुछ हिस्सा अकसर सुनसान ही दिखता है।

आज भी मैंने देखा कि मेरे आगे एक बंदा जा रहा था साईकिल पर...लेकिन उस ने एक झंडा पकड़ा हुआ था...और अपनी मस्ती से साईकिल चलाता चला जा रहा था।

मुझे उत्सुकता हुई, मैंने एक फोटो तो खींच ही ली......लेकिन इतने में कहां मेरी खुजली शांत होने वाली थी...मुझे लगा कि यह बंदा किसी िमशन के तौर पर शायद साईकिल यात्रा पर निकला हुआ है...होता है ना, अकसर हम लोग देखते हैं लोग साईकिल पर भारत भ्रमण करते हुए किसी मुहिम को आगे बढ़ाते हैं।

मुझे वह मिशन जानने की तीव्र उत्सुकता तो थी ही। मैंने चलते चलते इन से वार्तालाप शुरू किया...बात मैंने शुरू कि आप कहां से आ रहे हैं...तब तक मैं देख चुका था कि उस बंदे के हाथ में एक राजनीतिक दल का झंडा था। उस ने बताया कि आज होली है, मुलायम सिंह के यहां से हो कर आ रहा हूं।

मुझे उत्सुकता हुई ...मैंने पूछा आप मुलायम सिंह के साथ होली खेल कर आ रहे हैं..तो उस ने हां में जवाब दिया...मैंने कहा ..कालिदास मार्ग पर?...हां, हां, जितने उत्साह से उसने कहा...मेरा भी उत्साह ऐसा बढ़ा कि मैंने कहा कि मैंने आप की तस्वीर खींचनी है।

वह बंदा तुरंत राजी हो गया...और उसने अपनी कमीज की ऊपरी जेब में रखी हुई लाल टोपी निकाल कर पहन ली...और फोटोशूट के लिए झट से तैयार हो गया। आप इसे भले-मानुस की तस्वीर यहां देख ही रहे हैं।
वह बताने लगे कि हर त्योहार पर वह नेता जी के यहां जाते हैं...(मुलायम सिंह यादव को नेता जी भी कहते हैं) ..दीवाली, होली ...और वहां से हम कुछ मांगते नहीं हैं लेकिन फिर भी सब कुछ मिलता है। साईकिल भी मिलता है। आगे उस ने दो तीन पंक्तियां राजनीतिक व्यक्तव्य के रूप में कहीं...मुझे ऐसे लगा जैसे यह कोई रटी-रटाई बात दोहरा रहे हैं।

खैर, दो मिनट मैं भी वहीं खड़ा हो गया... मैंने कहा कि यह झंडा साईकिल के साथ बांध ही क्यों नहीं लेते, तो कहने लगे कि नहीं, यह लंबा है, बंधेगा नहीं, ऐसा ही हाथ में ठीक है। यह मोहनलाल गंज के पास किसी गांव से आये हैं...अर्था्त् १५ किलोमीटर आना और जाना.....लेिकन उन्हें नेता जी से मिलने की बहुत खुशी थी।

मैंने पूछा कि क्या आप की नेता जी से आज कुछ बात हुई...कहने लगे कि आज कुछ बात तो नहीं हुई..लेकिन मुझे अखिलेश, राम गोपाल यादव, शिवपाल यादव सब पहचानते हैं।

मैंने कहा कि मैं आप की तस्वीर अपने सभी दोस्तों को दिखाऊंगा.......उन्हें शायद इस में कोई रुचि नहीं थी, पता नहीं उन्होंने मुझे कोई पत्रकार ही समझ लिया होगा....जो जाते जाते कह गये ....इसे नेता जी को ज़रूर दिखाईएगा।

तो एक तो थी यह मुलाकात...दो मिनट की .......दोस्तो, मैं अकसर यह बात लोगों से ज़रूर शेयर करता हूं कि हम जिन लोगों को ऐसे मिलते हैं ...आगे कि ज़िंदगी में कितनी संभावना है कि हम उसे फिर से मिलेंगे ...या देखेंगे.......ईश्वर करे वह भी शतायु हों और मैं भी ...लेकिन आप देखिए संभावना लगभग नगन्य है कि हम ऐसे फिर से एक दूसरे में टकराएंगे।आप को क्या लगता है?....अगर हम हर जगह मिलने वाले के बारे में ऐसे ही सोचने लगें कि यह हमारी आखिरी मुलाकात है तो हम कैसे किसी से ढंग से पेश नहीं आएंगे!!

एक मुलाकात और भी रही....एक नन्ही परी ..अपने मां बाप के साथ आई हुई थी ..मेरी ओपीडी के बाहर मुझे कानों में आवाज़ पड़ी उस की मां उसे खूब बुरा भला कह रही थी..बच्चे के रोने की आवाज़ आ रही थी, मां कह रही थी कि तुम जहां भी जाती हो, मुझे परेशान ही करती हो, हमें अब इतना अनुभव हो गया है कि हमारी ओपीडी के बाहर चल क्या रहा है, हमें अकसर इस की पूरी खबर रहती है, आवाज़ों से फीडबैक मिलता रहता है।

मैंने अपने अटेंडेंट को कहा कि जिस औरत की यह छोटी बच्ची है उसे पहले बुला लो, अदंर आते ही चुप हो गई...मैं उस की मां का इलाज कर रहा था तो मैंने अचानक पीछे देखा कि वह चुपचाप अपनी मां के ब्रुश के साथ अपने दांत मांजने की कोशिश कर रही थी। तो यह तो थी इस नन्ही परी से छोटी सी मुलाकात..

और अब इस पोस्ट को लिखते लिखते राजेश खन्ना पर फिल्माए गये उस सुपर डुपर गीत का ध्यान आ गया ....ठीक है, राजेश खन्ना जिन अनजान लोगों से मिलने की बात कर रहे हैं वह अऩजान ग्रामीण भी हो सकता है और नन्ही परी ......हमारे हर तरफ़ उत्सव का वातावरण है, अगर हम इस महसूस करने की परवाह करें तो..

दोस्तो, यह गीत मैंने किसी ज़माने में बहुत सुना है...कहीं भी बज रहा हो, तो मैं सब काम छोड़छाड़ कर इसे सुनने बैठ जाता हूं...

बुधवार, 4 मार्च 2015

ये हरे-भरे पेड़ शहरों के फेफड़े हैं...

कल रात को मुझे मेरे मित्र डा अनूप ने करनाल के एक पार्क की कुछ तस्वीरें वॉट्सएप पर भेजीं और उस ने बड़े दुःख से बताया कि उस पार्क से ७०पेड़ काट दिए गये हैं...उन की बातों से बेहद अफसोस महसूस हो रहा था।

हो भी क्यों नहीं, हमारे आस पास जो भी पेड़ होते हैं उन से हमारा भावनात्मक जुड़ाव हो जाता है..वे सब हमारे दुःख सुख के मूक साथी होते हैं, हमें अपने अस्तित्व मात्र से ही बहुत कुछ सिखाते रहते हैं।










उस ने लिखा कि वे तस्वीरें उस ने काफ़ी दूरी से ली हैं....मेरे विचार में ऐसा कर के उसने बड़ी समझदारी का परिचय दिया। क्योंकि जब पेड़ों की इस तरह की अंधाधुंध कटाई हो रही हो तो उस के रास्ते में आने वाले के साथ भी कुछ भी हो सकता है, हम अकसर मीडिया में देखते हैं।

मुझे एक वाक्या याद आ गया ..हम लोग यमुनानगर में जिस सरकारी आवास में रहते थे ..उस के पास बड़े बड़े पेड़ थे, एक दिन मेरी मिसिज़ ने देखा कि कुछ लोग एक पेड़ को कुल्हाड़ी से काट रहे हैं...तो उसने उन से पूछा कि किस के आदेश से इसे काट रहे हो...उन्होंने जवाब दिया कि आदेश हैं...तुरंत घर आकर मिसिज़ ने एक मुख्य अधिकारी को फोन किया....अब अगर इस तरह का फोन जाता है तो ये लोग चुप नहीं बैठते...उसने आगे अपने जूनियर अफसरों को हड़काया और चंद मिनटों में वह कटना बंद हो गया..लेकिन उस कुल्हाड़ी के प्रहार उस पेड़ के तने पर उस पर होने वाले अत्याचार की दास्तां ब्यां कर रहे हैं।

यह मैंने इसलिए लिखा कि हम लोग कोई पहल करते हैं तो अकसर हमें सफलता मिल ही जाती है..अकसर अनाधिकृत्त पेड़ काटने वाले एक माफिया का हिस्सा होते हैं....अगर ये बिना आदेश के काट रहे हैं तो वही बात है कि झूठ के पांव नहीं होते.....ये बहुत बार तुरंत तितर-बितर हो जाते हैं...लेकिन अकसर इन लोगों का ऐसे काम करने का टाइम ऐसा होता है जिस से आसपास के लोगों को पता ही नहीं चल पाता।

दोस्तो, वैसे ही अब शहरों में घने हरे-भरे छायादार पेड़ बचे ही कहां है, और जो बचे हैं अगर इन पर ही कुल्हाड़ी चल जाएगी तो लोग सुबह सुबह उठ कर अपने फेफड़ों को जो ताज़ी हवा दिलाने जाते हैं, वे कहां जाएंगे.....इतना तो हमें याद रखना चाहिए कि हर कटने वाले पेड़ के साथ हम भी थोड़ा सा मरते हैं...।

मैंने अपने दोस्त अनूप से पूछा कि क्या ये सफेदे के पेड़ थे....आप भी देखेंगे कि ये सफेदे के पेड़ नहीं लग रहे ...क्योंकि सरकारें अकसर सफेदे के पेड़ लगाती है, फिर उन्हें तैयार होने पर कटवाने का ठेका दे देती है।

अनूप बता रहा था कि उस ने एरिया के एक्सईएन से भी बात की तो उस का जवाब था कि हम छानबीन करेंगे.....सोचने वाले बात है कि क्या छानबीन से एक भी टहनी लौट आएगी।

वह बता रहा था कि वहां पर अखबार वाले भी पहुंचे हुए थे ...और सुबह अखबार में भी छप जाएगा। लेकिन कहने वाली बात यही है कि इस से आखिर होगा क्या...सच में बहुत दुःख हुआ...बेहद अफसोसजनक वाक्या हो गया यह ....आज सुबह जब लोग उस पार्क में टहलने जाएंगे तो इस तरह से अपने दोस्त पेड़ों का कत्ल हुआ देखेंगे तो उन के दिल पर क्या बीतेगी.....

मैं बंबई में दस साल रहा हूं और जानता हूं कि बड़े शहरों में तो लोगों ने पेड़ प्रेमियों के समूह बनाए हुए हैं....जैसे Friends of trees... अगर आप को कहीं पर भी पेड़ कटता दिख रहा है तो आप इस संस्था को फोन करिए ...उनके कार्यकर्त्ता तुरंत पहुंच जाते हैं और पुलिस को बुला लेते हैं....लोग इतनी हिम्मत ही नहीं करते।

लेकिन अकसर जैसे सड़क पर किसी को हादसे का शिकार हुए देख कर हम लोगों के हाथ-पांव वैसे ही फूल जाते हैं....और कुछ करने की बजाए हम लोग तमाशबीन की भूमिका निभाने लगते हैं......ऐसे ही आम आदमी को शायद पता ही नहीं है कि अनाधिकृत्त तौर से किसी भी पेड़ को कांटना एक संगीन अपराध है..मेरे िवचार में जहां पर भी पेड़ लगे हों, उन के आसपास इस तरह की सूचना भी एक बोर्ड पर लिखी होनी चाहिए कि अगर किसी पेड़ को कटते देखें तो इस की सूचना इस इस मोबाईल नंबर पर दें, वॉटसएप पर इस नंबर पर इस की सूचना दीजिए...आज के संदर्भ के यह बहुत ही ज़रूरी हो गया है।

अभी अभी दोस्त ने पेपर की कतरन भी भेजी है...आप भी देखिए ...कितना अजीब लगता है इस खबर में पढ़ना कि ये पेड़ इसलिए काट दिए गये क्योंकि ये पुराने हो गये थे। क्या हमारी दरिंदगी अब इतनी बढ़ गयी है कि बड़े-बुज़ुर्गों पर अत्याचार करने के बाद अब हमने बड़े-बुज़ुर्ग पेड़ों का रूख कर लिया है... बेहद शर्मनाक।


जिस पार्क की डा अनूप ने बात की है कि वहां से ७० पेड़ कटे हैं, मुझे ऐसा लगता है कि यह बिना किसी उच्चाधिकारी के आदेश के नहीं हो सकता......अब क्या कारण रहा होगा, इस का पता तो थोड़ी छानबीन से ही चल पाएगा। वैसे एक ढंग तो है सारी जानकारी हासिल करने का ... सूचना का अधिकार......पूरी खबर देख कर मैं अनूप को भी प्रेरित करूंगा कि आरटीआई अधिनियम के अंतर्गत कुछ प्रश्न पूछे.....कितने पेड़ कटे, क्या कारण था, किस के आदेश से ये पेड़ कटे, जिस फाइल में इस तरह का आदेश दिया गया उस की फाइल नोटिंग्स की फोटोकापी, कितनी रकम ठेकेदारों से वसूली गई....और भी कुछ प्वाईंटेड से प्रश्न............ये पेड़ तो लौट कर नहीं आएंगे लेकिन शायद सवाल पूछने से पता नहीं कितने पेड़ भविष्य में कुल्हाड़ी से वार से बच जाएंगे.........जैसे वह एक अभियान चला हुआ है ना....घंटी बजाओ.....जहां कहीं भी आप को औरते के साथ जुल्म होने की आवाज़ है, प्रताड़ित होने की आवाज़ें किसी घर से आएं....बस, आप घंटी बजा दो.....जी हां, इस तरह से पेड़ों की कटाई-छंटाई होने पर या बेहतर होगा उसी समय ही प्रश्न पूछने की एक आदत बना लें......देखिए, क्या होता है.......अगर तो किसी आदेश से यह सब हो रहा है, तो भी पता चलेगा कि क्या कारण है, और अगर पेड़ माफिया के चोर ये सब काम कर रहे हेैं तो वे वैसे भी भाग खड़े होंगे।

ये जो बातें मैंने ऊपर लिखी हैं ये सब बेकार हैं अगर हमें पेड़ों से प्यार ही नहीं है, उस की एक उदाहरण जो हमें हमारे बॉटनी(वनस्पति विज्ञान) के प्रोफेसर साहब (डीएवी कालेज अमृतसर) ने १९७८ में सुनाई थी वह थी उस महान शख्शियत सुंदर लाल बहुगुणा की.....पहाड़ों में उस संत ने एक ऐसी मुिहम चला दी कि जब भी लालची लोग पेड़ों को काटने आते तो गांव वाले पेड़ के तनों से लिपट जाते और उस माफिया को ललकारते कि पहले हमें काटते.....इस मुहिम को चिपको मूवमेंट का नाम दिया गया...ज़ाहिर सी बात है, ऐसे में कौन पेड़ काटे, पेड़ काटने वाले भाग खड़े होते। अब सोचने वाली बात यह है कि आज की तारीख में कहां हैं वे लोग जो पेड़ के तनों के इर्द-गिर्द एक सुरक्ष कवच बना कर अपने बच्चों की तरह इन की हिफ़ाजत करें। उन पहाड़ के लोगों की जान की कीमत कुछ सस्ती तो नहीं थी!!

 जब प्रोफैसर कंवल ने हमें क्लास में यह बात सुनाई तो सुन कर हमें बहुत अच्छा लगा...उन का वनस्पति प्रेम भी उन की आंखों से झलक जाया करता था.....एक बार उन्होंने क्लास लेते हुए एक छात्र को सामने वाले पेड़ से एक पत्ता उतार कर लाने को कहा ....उस दिन वे पत्ते के बारे में पढ़ा रहे थे....और उस लड़के ने क्या किया कि जा कर बडी निर्ममता से एक टहनी को मरोड़ा और खेंच कर ले आया........यह सब कंवल साहब दूर से देख रहे थे, तो फिर क्लास में वापिस लौटने पर उस की क्या शामत आई....प्रोफेसर कंवल साहब की नज़रों ने ही उस को तमाचे जड़ दिए...और उसी दिन हमने  भी पेड़ों के साथ पेश आने की तहज़ीब का एक अहम् पाठ पढ़ लिया।

इतनी बातें.....इतनी बातें........पेड़ों के बारे में तो जितना लिखें कम है, लेकिन कुछ करें भी तो बात बने......अब वे ७० पेड़ लौट कर नहीं आएंगे......हमारे प्यारे दोस्त, हमें सुकून देने वाले, ठंडी छाया देने वाले, धूप-बरसात से बचाने वाले....पक्षियों का आशियाना....शुद्ध हवा के अथाह भंडार और इस सब के भी ऊपर सैंकड़ों चेहरों पर सुबह सुबह मुस्कान लाने का एक ज़रिया ........अाज हमारे बीच नहीं हैं, अफसोस..............मैं ही बहुत आहत् हुआ हूं।

गौरी देवी को मेरा कोटि कोटि नमन.......आप भी इस देवी के जज्बे को देखिए...



मंगलवार, 3 मार्च 2015

चंद तस्वीरें जो आप को दिखानी हैं...

दोस्तो, मैं अकसर यहां वहां आते जाते रास्ते में तस्वीरें खींचता रहता हूं...पिछले कुछ दिनों में भी मैंने कुछ तस्वीरें खींचीं...सभी लखनऊ की ही हैं...मैं अभी डिलीट करने लगा तो सोचा, इतनी भी क्या जल्दी है, अब खेंच ही रखी हैं तो आप सब से दो दो लाइन लिख कर शेयर भी कर लेता हूं...


अपनी कॉलोनी के एक घर के बाहर इस तरह का पुराने ज़माने का लेटर-बॉक्स देख कर हैरानगी हुई...वैसे तो आजकल इस तरह के ये बॉक्स कहां बनते हैं...शायद इन लोगों ने कह कर बनवाया होगा।

यह हमारी कॉलोनी के मेनगेट की शोभा बढ़ाता है...
कुछ हाउसिंग सोसाइटीयों को बेल-बूटों की संभाल करने का हुनर होता है..यह एक नमूना है...आप ने शायद किसी गांव में ही पेड़ों की इस तरह की अच्छी हिफ़ाज़त होती देखी होगी...कितना सुंदर लगता है मिट्टी का प्लेटफार्म...और ये लोग इसे अकसर गमलों वाले रंग से सजाते रहते हैं....अच्छा लगता है। अकसर जिन जगहों पर इन पेड़ों के इर्दगिर्द सीमेंट का प्लेटफार्म बना दिया जाता है...ऐसे नहीं लगता जैसे पेड़ों का गला ही दबा दिया हो!...मुझे यह मिट्टी वाला आइडिया बहुत बढ़िया लगता है।




यह जो आप ऊपर तीन तस्वीरें देख रहें हैं , ये कल की हैं। मैंने कल पहली बार ऐसा देखा था कि इस तरह के बेड में एक बड़ा ट्रंक ही फिट करवा दिया। वैसे तो इस तरह की जुगाड़बाजी के अपने फायदे भी हैं और नुकसान भी हैं..लेकिन जो भी हो, ज़रूरत आविष्कार की जननी है। मैंने इस भद्रपुरूष को जाते जाते पूछा कि ये कहां पर बनते हैं तो उसने बताया कि कह नहीं सकता...मैं तो मोहनलालगंज से लेकर आ रहा हूं....यह लखनऊ से लगभग १५ किलोमीटर की दूरी पर है।




इस कॉलोनी में रहते दो बरस हो गये हैं....और माली अकसर नीचे काम करते दिख जाता था..इन तीनों में से सब से पहली तस्वीर जो आप देख रहे हैं, वह उस दिन की है जब मैंने एक जैसे दो बंदे देखे। मैं इन के पास गया और मैंने हैरानगी प्रकट की कि यार, आप दोनों अलग अलग हो, मुझे तो यह कभी पता ही नहीं चला....वे बताने लगे कि हम दोनों जुड़वा हैं ..दस मिनट का अंतर है....मैंने कहा..तस्वीर ले लूं ...तो वे झट से पोज़ देने के लिए खड़े हो गये।


रास्ते में जाते हुए यह पत्ते अच्छा लगा था कुछ दिन पहले.... यह इस तरह से मेरे कैमरे में आ गया।

आज शाम एक बाज़ार की नुक्कड़ पर ये सब तैयारियां होते देख ध्यान आया कि होलिका दहन की तैयारियां ज़ोरों पर हैं...तो मैंने इस मंज़र को कैमरे में कैद कर लिया.....पता नहीं यह भाई जी क्यों इतने गुस्से में लग रहे हैं, यह मेरा प्रश्न नहीं है, मेरे बेटे ने मेरे से पूछा!


तीन दिन पहले पीडब्ल्यूडी अफसरों की कॉलोनी के बाहर इस तरह का विज्ञापन पहली बार देखा.... मुझे नहीं पता था कि गाड़ी को धुलवाना भी इतना महंगा सौदा है......और ऊपर से आपने देख ही लिया...बिजली..पानी आपका...हा हा हा हा ...


आज कल हर तरफ़ लोगों को सेहतमद बनाने पर जोर है.....आए दिन  फिटनेस वर्कशाप लगती रहती हैं।


हमारे अस्पताल से मरीज़ों को माउथवाश भी मिलता है...दो दिन पहले एक पढ़ी लिखी लेडी बोतल लेकर मेरे को दिखाने आ गई कि क्या यह भी औरतों मर्दों के लिए अलग अलग होता है। मैंने कहा कि ऐसा कुछ भी नहीं है, यह कंपनी ने बिना कारण टिका दिया होगा, आप भी इसे बिना झिझक इस्तेमाल कर सकती हैं।


हमारे घर के पास ही किसी मकान के बाहर सड़क के किनारे उन्होंने यह शो-पीस रखा हुआ है...अच्छा लगता है ...रात के समय इस पर लाइट पड़ती है, इस का भी इंतजाम है.....अपने अपने शौंक की बात है!!

बस, आज के लिए इतना ही......लेिकन जाते जाते ध्यान आ गया कि पिछले बरस इन्हीं दिनों जब पड़ोस में होलिका दहन हो रहा था तो एक भोजपुरी गाने की खूब धूम मची हुई थी....मैंने अपने सहायक से आज पूछा कि वह कौन सा गीत है ....राजा जी...राजा जी.....उसने मुझे उस गीत का पूरा पता बता दिया....आप भी सुनिए...यह यहां का सुपर-डुपर गीत है....जैसे पंजाब का दिलेर मेंहदी का गीत है ना ...........गड्डे ते न चड़दी... गडीरे ते न चड़दी.....