शनिवार, 25 जुलाई 2015

बेबसी के आलम में आशा कि एक किरण...

परसों रात हम लोगों ने काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस से लखनऊ से दिल्ली जाना था..यह गाड़ी रात पौन बजे लखनऊ स्टेशन से छूटती है।

लगभग १५-२० मिनट पहले हम लोग स्टेशन पर पहुंच गये थे...मैंने अपनी श्रीमति जी और बेटे को बोलो कि वे आगे चलें और आराम से गाड़ी में जा कर बैठे...तब तक गाड़ी प्लेटफार्म पर पहुंच चुकी थी...उद्घोषणा हो रही थी।

मैं मां के साथ धीरे धीरे चल रहा था...हम लोग किसी दूसरे प्लेटफार्म तक पहुंचने वाले पुल पर चले गये...फिर वहां से दूसरे पुल के लिए सीढियां चढ़ना...बुज़ुर्ग शरीर के लिए मुश्किल सा था...फिर भी धीरे धीरे चलते रहे।

लेकिन अभी प्लेटफार्म नं ६ तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां उतर ही रहे थे ..बस पांच छः सीढ़ियां ही उतरनी बाकी थीं कि गाड़ी चल दी।

मन में बहुत अफसोस तो हुआ चंद मिनट....कि काश १०-१५ सैकेंड के लिए ट्रेन थम जाती तो हम लोग किसी भी डिब्बे में चढ़ ही जाते ...उसी समय मैंने बेटे को फोन लगाया कि मम्मी को कहो कि गाड़ी रोकने के लिए चेन खींच दें। मैं भी यही उम्मीद के साथ वहां खड़ा था कि अगर गार्ड मुझे देख लेगा और मेरे कहने पर शायद गाड़ी रोक देगा..मुझे हल्की सी बस यही उम्मीद थी।

मैं और मेरी मां स्टेशन पर खड़े थे...गाड़ी आगे निकल रही थी...भाग कर पकड़ने का सवाल ही नहीं होता था...लखनऊ वाले घर की चाभीआं श्रीमति जी के  पास थीं...मन को थोड़ा बुरा तो लगा।

लेकिन तभी गाड़ी धीमी हुई और थम गईं....सामने जनरल डिब्बा आया...उस में घुसना नामुमकिन था...साथ वाला डिब्बा पेन्ट्री कार वाला था...उस में हम जल्दी जल्दी चढ़े और ट्रेन चल दी...आप यह जानिए की ट्रेन १०-१२ सैकेंड के लिए ही थमी थी।

हम लोग धीरे धीरे अपने रिज़र्वेशन वाले कोच तक पहुंच गए। वहां जाकर पता चला कि श्रीमति जी ने ट्रेन की ज़ंज़ीर खींचने की कोशिश तो की ...लेकिन वह जंज़ीर टस से मस न हुई। तो फिर सोचने वाली बात यही है कि आखिर ट्रेन १० सैकेंड के लिए कैसे रूक गई.....मैं इन बातों को ज़्यादा समझने की कोशिश नहीं करता......बस ईश्वरीय अनुकंपा समझ कर इस ईश्वर का शुकराना करना नहीं भूलता।

यह स्टोरी क्यों लिखी, आप को बोर करने के लिए?.... नहीं, ऐसा कोई उद्देश्य नहीं था......बस, जब उस दिन गाड़ी में चढ़े तो यही ध्यान बार बार आ रहा था कि हम लोग भी अकसर बहुत से लोगों को मिलते ही हैं जो बड़े बेबस, लाचार होते हैं.....अपनी परिस्थितयों की वजह से.....लेकिन वे इतनी दयनीय स्थिति में होते हैं कि वे अपनी बात भी ठीक से हमारे समक्ष नहीं रख पाते, हमारा कुछ भी बिगाड़ने की स्थिति में होते नहीं, हमें भविष्य में उन से कोई काम निकालने की अपेक्षा होती नहीं......मैं तो बस इतना जानता हूं कि इस तरह के लोगों की उन की बेबसी के इन क्षणों में हमारा व्यवहार उन के साथ कैसा होता है, बस यही ज़िंदगी का फ़लसफ़ा है.......जो मैं समझ पाया हूं.......बाकी तो भाई सब लेन देन के सौदे हैं, उस से मुझे यह काम है, उसे मुझ से यह काम है....वह मेरे कितने काम है....बस, हमारा व्यवहार इसी तरह की बातों पर निर्भर करता है..अधिकतर, लेकिन यह तो बिजनेस है, है कि नहीं?

मैं अपने आप से अकसर यह प्रश्न करता रहता हूं कि किसी अनजान, बेबस, लाचार इंसान की मदद करने के लिए आखिरी बार मैंने कब कुछ किया था?.....दिल की बातें दिल ही जाने!! चलिए, दिल की बात से एक गीत याद आ गया, इसलिये लिखने को यही विराम लगाता हूं...



मंगलवार, 21 जुलाई 2015

मांवां ठंडीयां छावां....

अभी खाना खाने के बाद टीवी के सामने बैठा ही था कि अपने एक मित्र प्यारे का व्हाट्सएप पर एक स्टेट्स दिखा...आप से शेयर कर रहा हूं...

वृद्ध आश्रम के दरवाजे पर मां को छोड़ कर बेटा जब वापिस जाने लगा तो मैं ने पीछे से आवाज़ लगा कर उसे रोक लिया..फिर रूआंसी हो कर कांपती हुई आवाज़ में कहा...बेटा, तू अपने मन पर कोई बोझ मत रखना...पांच बेटियों को अपने गर्भ में कत्ल करने के बाद बेटा पैदा करने के गुनाह की सजा तो मुझे मिलनी ही थी..

मैंने उस पर यही टिप्पणी की ...बेबे ने बहुत बढ़िया थप्पड़ जड़ दिया...और अपनी तरफ से मैंने जोड़ दिया कि इस तरह के कमबख्त की तो छित्तर परेड़ होनी चाहिए..हर बार ९९ पर आकर गिनती भूल जानी चाहिए...ताकि उसे फिर से शुरू किया जा सके।

सच्चाई तो यही है कि समाज में जो कुछ हम लोग आज आस पास देख रहे हैं वह बेहद शर्मनाक है, दुःखद है। चूंकि हमारा प्रोफैशन ऐसा है कि हमें बहुत से लोगों से अकेले में मिलने का अवसर मिलता है...इसलिए दुःखी बंदा अपना दुःख फरोलने में समय नहीं लगाता....जितना बुज़ुर्गों की हालत मैंने पिछले बीस पच्चीस सालों में बुरी देखी है...उस को शायद कलमबद्ध भी नहीं किया जा सकता। बूढ़े लाचार मां बाप को या मां को उसी के बेटे द्वारा पीटे जाना....बागबां फिल्म बनाने वाले ने बना ली, अमिताभ ने कमाई कर ली....लेकिन यहां तो घर घर में बागवां बना हुआ है।

मैं बहुत बार सोचता हूं कि हम लोग जितने सफेदपोश बनते हैं, उतने है नहीं....और किसी भी बुज़ुर्ग का उत्पीड़न शारीरिक ही नहीं होता, उसे उत्पीड़ित करने के सैंकड़ों तरीके हैं....जो अकसर हम देखते-सुनते रहते हैं....अहसास करते रहते हैं। कभी लिखेंगे इन पर डिटेल में....

मेरे पास एक बहुत ही पढ़ी लिखी मरीज आती है....यही कोई ६०-६२ के करीब की होगी....बहुत अच्छा परिवार है...एक दिन वह बात करने लगी कि हम तो अभी से कुछ पचता नहीं, और हमारी सासू जी हैं जो ८० के ऊपर हैं, लेकिन खूब खाती हैं और सब कुछ पचा भी लेती हैं। मुझे उस की इस बात से इतना दुःख हुआ कि मैं ब्यां नहीं कर सकता...अब जिस बहू के अपनी सास के बारे में इतने नेक विचार हैं, बाकी बातों की हम कल्पना कर सकते हैं। मुझे इस तरह की किसी की भी पर्सनल बातें सुनने में रती भर भी रूचि नहीं होती..लेकिन उसने दो तीन और बातें भी शेयर करीं, जिसे मैं यहां लिखना समय की बरबादी समझता हूं......जहां तक इस मोहतरमा के विचार हैं, उन से आप वाकिफ़ हो ही गये हैं।

अभी इस विषय पर चर्चा चल ही रही थी कि एक दूसरे साथी मनोज ने यह फोटो शेयर कर दी...

दोस्त ने फिर स्टेट्स डाला कि अगर बेटे अपने मां-बाप की स्वयं इज्जत करेंगे तो ही बाकी परिवार भी उन की इज्जत करेगा। बिल्कुल दुरूस्त बात करी उसने.....यह पढ़ते ही मुझे अपनी नानी मां की याद आ गई....मेरा एक मामा मेरी नानी को कभी कभी कुछ पैसे दिया करता था....लेिकन मेरी नानी को यह बहुत बुरा लगता था कि वह पैसे स्वयं उसे देने की बजाए अपनी बीवी के हाथों उन्हें दिलवाता था.....अब इसमें नहीं पड़ते कि इस में बुराई क्या है, लेकिन मैं समझता हूं अगर बुज़ुर्ग मां को इस तरह के बहू से पैसे लेने में कुछ अलग अहसास होता है तो फिर क्यों न उन्हें स्वयं ही सम्मान पूर्वक भेंट दी जाए...

अनेकों तरह के उत्पीड़न बुज़ुर्गों का हो रहा है, होता रहा है, और होता रहेगा ....दामाद और बहू के हाथों तो यह सब होता ही रहा है....अब तो अपने बेटे भी यह सब करने से नहीं चूकते।

कहां से बात शुरू हुई ...कहां निकल गई......बस, बात इतनी सी है कि हमें अपने बुज़ुर्गों का सत्कार करना चाहिए....यह किसी के कहने से नहीं होता, जैसे जैसे हम लोगों के संस्कार होते हैं, हमारा बर्ताव, बोल वाणी वैसी ही होती है.

मेरा आग्रह है कि आप इस लेख को भी ज़रूर देखिएगा.... जनगणना करने वाले की आपबीती 

अब इस तरह की पोस्ट को बंद करने का एक तरीका यही है कि कुलदीप मानक साहब का एक सुंदर सा गीत बजा दिया जाए........इसे पूरा सुनिएगा......मां कसम इतना सुंदर गीत मां के ऊपर कभी किसी ने नहीं कहा....



रविवार, 19 जुलाई 2015

गुम होता बचपन...

जब तारक मेहता का उल्टा चश्मा देख रहे होते हैं तो दिन में उस के कईं कईं ऐपीसोड आ जाते हैं ...कुछ तो बरसों पहले के होते हैं जिन में अब जवान हो चुके बच्चे बिल्कुल छोटे छोटे दिखाई पड़ते हैं....बहुत बार ऐसे विचार भी आते हैं कि इन लोगों ने तो अपना बचपन, अपनी मासूमियत ऐसे फिल्मी वातावरण में रह कर खो ही दिया होगा.

टीवी में जब कोई लिटिल मास्टर का प्रोग्राम आता है तो भी यही महसूस होता है कि इतने छोटे छोटे कंधों पर इतना बड़ा बोझ और वह भी किस कीमत पर!

आज से बीस बरस पहले जावेद खान के बूगी-वूगी कंपीटीशन में भी यही कुछ होता था ...छोटे छोटे बच्चे इतनी बड़ी बड़ी प्रतिस्पर्धा करते दिखते थे...इतने दबाव के अंदर कि लगता था कि मां-बाप भी कैसे यह सब बच्चों से इस उम्र में करवाने से सहमत हो जाते होंगे।

फिल्मी बाल कलाकारों के बारे में भी हम लोग सुनते हैं कि किस तरह से वे लोग भी अपना बचपन जी ही नहीं पाते...मुकाबला कड़ा तो होता ही है, पहले इस फिल्मी जगत में घुसने के लिए और फिर टिके रहने के लिए...कल रात बजरंगी भाईजान के निर्देशक कबीर खान का न्यूज़-२४ पर एक इंटरव्यू सुन रहा था कि उस फिल्म में जिस बच्ची ने जो भूमिका करी है, उस किरदार को सिलेक्ट करने के लिए...उन्होंने कम से कम १००० बच्चियों का ऑडीशन किया...विभिन्न शहरों में, अफगानिस्तान तक जा कर बच्चों के ऑडीशन किये गए ...उस के बाद इस बच्ची का सिलेक्शन किया गया।

ये तो हो गये वे लोग जो अपनी मरजी से ...खुशी खुशी यह काम करते हैं...लेिकन एक श्रेणी ऐसी भी है जिन्हें अपने पेट के लिए यह काम करना पड़ता है..उड़ीसा के बुधिया को तो आपने अभी तक याद ही रखा होगा जो ४-५ साल की उम्र में किस तरह से ६० किलोमीटर की दौड़ लगा लिया करता था...फिर मीडिया में खूब हो हल्ला हुआ ...तो जाकर कहीं यह सब प्रैक्टिस बंद हुई....डाक्टर ने कहना शुरू किया कि इस तरह के अभ्यास से उस की हड्डियां पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाएंगी...उन को नुकसान पहुंचेगा।

लेकिन कुछ अभागे लोग ऐसे भी होते हैं जिन तक कोई नहीं पहुंच पाता.......छोटे छोटे बाजीगर बच्चे...दो दिन पहले मैंने इस बच्ची को देखा...मैंने इस का मुश्किल सा करतब रिकार्ड भी किया ....मुझे नहीं पता मुझे यह करना चाहिए था या नहीं....लेिकन इस से ज़ाहिर होता है कि कितने जोखिम भरे काम को यह बच्ची अंजाम दे रही है। सोच रहा हूं कि यह क्या बाल श्रम विरोधी कानून के अधीन नहीं आता..आता भी हो तो क्या फर्क पड़ता है!! वैसे भी ....



सोचने की बात है कि भविष्य कितना अंधकारमय है...मजबूरी है ......ज़्यादा से ज़्यादा आने वाले दिनों में बड़ी होने पर किसी हेमा मालिनी की डुप्लीकेट बन जायेगी किसी फिल्म में........वाहवाही हेमा की और जोखिम इस तरह के करतब करने वालों का .... और अगर कहीं इस तरह के करतब करते हुए कोई डुप्लीकेट आहट हो भी गया तो सब यही कहेंगे कि कसूर उसी का है..वह अपना काम ठीक से नहीं कर पा रही थी...कितना आसान है दोषारोपण कर के मुक्त हो जाना।

हाय ये मजबूरियां...



शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

मुंह का कैंसर एक ५२ वर्ष की महिला में...

आज देर शाम मैंने एक साईकिल रिपेयर वाले दुकानदार से किसी का पता पूछा तो मैंने नोटिस किया कि वह दांतों पर कुछ घिस रहा था...मैंने यही अनुमान लगाया कि यह तंबाकू ही होगा।

मैंने उसे इतना तो कहा ही कि यह ठीक नहीं होता मुंह में घिसना....भयंकर बीमारी हो सकती है। उसने पड़ोस के एक डाक्टर का नाम लेते हुए कहा कि मुझे तो इन्हीं डाक्टर साहब ने ही यह इस्तेमाल करने की सलाह दी है...उस ने मुझे बताया कि डा साहब तो मेरी जान बचा चुके हैं...एक दिन उन्होंने मुझे कहा कि तुम पांच रूपये बीड़ी के बंडल पर इस्तेमाल कर के धुएं में उड़ा देते हो....लेकिन यही काम तुम एक रूपये में इस मंजन से भी हासिल कर सकते हैं...बस, उस को अंदर मत लेना, थूक दिया करो। मुझे उसने दिखाया कि वह पाउच गुल मंजन का है जो एक एक रूपये में और तीन रूपये में बिकता है।

उस के बात से लग रहा था कि वह झूठ नहीं बोल रहा था.....लेकिन जिस तरह से अपने व्ययसन में डाक्टर को घसीट रहा था, लग रहा था कि बंडल मार रहा है।

मैंने उसे फिर से कहा कि यह बहुत नुकसान करता है लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि वह मेरी बात नहीं मानेगा।

उस के साथ बात करते करते मुझे एक ५०-५२ वर्ष की महिला का ध्यान आ गया...यह महिला मेरे पास कुछ सप्ताह पहले आई थी कि मुंह में कुछ ज़ख्म है १५ दिन से ..गांव में खूब दवा करी है, लेकिन कुछ आराम नहीं आ रहा..मैंने मुंह में झांकने से पहले ऐसे ही सरसरी पूछ लिया कि तंबाकू का इस्तेमाल करते हो...तो उसने बताया कि वह पिछले पांच सालों से गुटखा चबाती है ..चार पांच पैकेट और साथ में दिन में दो बार गुल मंजन का इस्तेमाल करती रही है, अब १५ दिनों से सब बंद कर दिया है...जब से यह घाव हो गया है।

घाव तो पहले से हो होगा, इस महिला ने ध्यान नहीं किया होगा...लेिकन मुझे पूरा संदेह था कि यह कैंसर का घाव ही है.....लेकिन वह अकेली आई थी...उसे कैसे बताया जाए ...मैंने उस पति के साथ आने को कहा ....अब बॉयोप्सी से ही पता चल पाएगा कि मेरा अनुमान गलत है या नहीं, लेकिन मुझे पता है कि मेरा अनुमान ठीक है।

बड़ा दुःख होता है कईं बार जब कोई हंसता खेलता मरीज आप के पास आए....एक ऐसी तकलीफ़ लेकर जिसे वह बिल्कुल छोटा मोटा समझता है ...लेकिन डाक्टर की जब उस तकलीफ़ पर निगाह पड़ती है...

उस दिन उस मरीज़ को बिल्कुल भी डराये बिना इतना तो समझा ही दिया जाता है ..इधर उधर की बातों से ...कि वह इस घाव का तुरंत उपचार करवाए....क्योंकि अगर १० मिनट इस तरह के मरीज़ के साथ नहीं बिताए जाएंगे तो बहुत बार ऐसा भी हो सकता है कि वह लौट कर ही न आए...यूं ही किसी नीम-हकीम के चक्कर में भी पड़ सकता है, जिस से रोग बढ़ जाता है।

वैसे अगर शुरूआती दौर में मुंह का कैंसर दिख जाए तो इलाज काफ़ी हद तक सफल हो सकता है।

जो भी हो, तंबाकू-गुटखा-पानमसाले, ज़र्दे, पान, तंबाकू वाले मंजन से होने वाले मुंह के कैंसर के किसी भी मरीज़ को देखना बेहद दुःखद होता है.......हर ऐसे मरीज़ को देख कर लगता है कि यह चिकित्सा क्षेत्र की नाकामयाबी है कि हम लोग उस मरीज़ तक कुछ महीने या साल पहले नहीं पहुंच पाए.....और उसे ये सब आदतें छोड़ने के लिए प्रेरित नहीं कर पाए..

अफसोसजनक......बहुत अफसोसजनक!

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

ज्योतिष परामर्श ५०० रूपये में...

५ जुलाई २०१५ (रविवार)
रात आठ बजे
बंबई-पुणे एक्सप्रेसवे
स्थान...लोणावला

परसों रात लोणावला में जैसे ही हम लोग खाना खाने के लिए एक जगह पर रूके तो मेरा ध्यान उस रेस्टरां के पीछे बैठे एक ज्योतिषि टाइप बंदे पर गया...

ज्योतिष विद्या के बारे में मैं अपने विचार आप से साझा कर लूं पहले....मैं मानता हूं कि यह विद्या बहुत महान् है...लेकिन बस भविष्य और अतीत का पता करने के लिए....होनी अटल है, उसे बदला नहीं जा सकता...केवल ईश्वर ही चाहे तो होनी को बदला जा सकता है या फिर अमर-अकबर-एंथोनी।

ज्योतिष विद्या एक बहुत वैज्ञानिक विषय है, लोगों ने इस में पीएचडी भी की हुई है..लेकिन इस विद्या को जब कुछ ऐरे-गैरे इस्तेमाल करने लग जाते हैं....लोगों के भय को भुनाने के लिए तो मुझे अजीब सा लगता है।

जहां तक मेरी बात है, मैं और सारा परिवार ...  हम होनी अटल है वाली बात पर विश्वास करते हैं....इसलिए ज्योतिषों के पास कभी नहीं गए।

हां, तो उस ज्योतिषी जैसे पुरोहित दिखने वाले बंदे को देख कर मुझे जिज्ञासा हुई और मैं अपनी टेबल से उठ कर बाहर उस की तरफ़ चलने लगा...मैं उस का बोर्ड देख रहा था...तभी एक युवक आया (जिस की तस्वीर आप इस दूसरी फोटो में देख रहे हैं) ...उसने ज्योतिषी से पूछा कि क्या यह काम फ्री में होता है।



ज्योतिषी ने तुरंत जवाब दिया.. क्या कोई भी काम फ्री होता है!. वैसे तो मेरी फीस ११०० रूपये है, चूंकि आप मेहमान हैं, आप के लिए ५०० रूपये।

यह सुन कर वह युवक थोड़ा हंसने लगा...कहने लगा...ज़्यादा है। तो ज्योतिषी ने कहा...ज्यादा तो नहीं है, लेकिन अभी आप का अपना हाल जानने का योग नहीं है, तभी तो आप को यह रकम ज़्यादा लग रही है।

यह सुन कर युवक ने लगता है प्रेसटीज इश्यू बना लिया.....कहने लगा कि नहीं, ज्यादा तो क्या है! और झट से उस के सामने कुर्सी पर बैठ गया। मुझे भी उस ने कहा कि आप भी बैठ जाइए...लेकिन मेरी भटूरे चने की प्लेट आ चुकी थी, इसलिए मुझे उसे लपेटना भी जरूरी था। वैसे भी किसी की गोपनीय बातों से अपुन को क्या लेना-देना। लेकिन वह बंद ज्योतिष को यह ज़रूर कह रहा था कि जल्दी करिए महाराज, मेरे बच्चे खाना खा लेंगे तो मुझे जल्दी बंबई निकलना है।

मैं दूर से देख रहा था ...लगभग पांच सात मिनट तक वह ज्योतिष उस से बातचीत करता रहा....उस युवक ने ५०० रूपये का नोट निकाल कर उसे थमाया, प्रणाम किया और अपने बच्चों के पास लौट आया।

मैंने देखा कि मेरे वहां बैठे बैठे दो और लोगों ने अपना भविष्य जान लिया...

मैं यही सोच रहा था कि किस जगह पर बैठ कर कोई आदमी अपना धंधा कर रहा है, यही अहम् बात है....

मुझे यही बात बार बार कचोट रही है कि शारीरिक परिश्रण करने वाला मजदूर, रिक्शा चलाने वाला या कहीं किसी फैक्ट्री में काम करने वाला इंसान सारा दिन मेहनत करता है, पसीना बहाता है ......तो कहीं जाकर उसे तीस-चार सौ रूपये नसीब होते हैं।

यह भी सोच रहा हूं कि आज का इंसान डरा हुआ है.....वह भविष्य के बारे में जानने को बेहद आतुर है.....और इसी आतुरता को कैश करने के लिए लोग तैयार बैठे हैं।

लेकिन एक बात माननी पड़ेगी, ज्योतिषी महाराज का पहनावा बिल्कुल फिल्मों में दिखाए जाने वाले ज्योतिषियों की तरह का ही था...मुझे तो वही वक्त फिल्म का ज्योतिषी याद आ जाता है....जो बलराज साहनी को कहता है कि होनी अटल है, इंसान के हाथ में कुछ भी नहीं है, कईं बार चाय की प्याली और मुंह में भी फासला तय नहीं हो पाता.....बलराज साहनी मूड में है...कहता है, क्या बात करते हो पंडित, चाय की प्याली उठाता है और कहता है ...यह रही प्याली और य.........ह..................लेिकन जैसे ही उसे उठाता है एक भयानक भूचाल आ जाता है और सब कुछ स्वाह हो जाता है......बाकी कहानी तो आप जानते ही हैं.....

शनिवार, 4 जुलाई 2015

पंजाब की जानी मानी थियेटर पर्सनेलिटि....गुरशरण भाजी

पिछले हफ्ते की बात होगी..हमारी बाई अपने साथ अपने बेटे को लाई थी...यही चार पांच साल का होगा...मैं लेपटाप पर काम कर रहा था...मेरे पास बैठ कर खुश होता रहा....शायद हैरान भी...जैसे सभी बच्चे होते हैं...दो चार मिनट में बोर हो गया....चुपचाप बैठ गया...मुझे उस की चुप्पी अच्छी नहीं लगी...मैंने रिमोट पकड़ा और कहा कि चलो, यार, तुम टीवी देखो....मैं अभी कार्टून नेकवर्क चेनल ढूंढ ही रहा था कि श्रीमति जी ने उस से पूछा...क्या देखोगे?....
तारक मेहता ...उस का जवाब सुन कर हम दंग रह गये। यह तो उस बच्चे की बात थी....मेरा बेटा भी जब टीवी लगाता है शायद पिछले कईं सालों से तो सब से पहले तो तारक मेहता का उल्टा चश्मा ही लगता है। 

मैं अकसर सोचता हूं कि हम ने बच्चों के taste कैसे कर दिए हैं...तारक मेहता देखने में कोई बुराई नहीं है, पारिवारिक सा ही सीरियल है, लेकिन उस की ओव्हरडोज़ हो रही है...सोचने वाली बात है कि बच्चों के िलए बहुत से बेहतर विकल्प हैं जिन के बारे में अकसर बच्चे तो क्या, मां-बाप तक नहीं जानते, अगर जानते भी हैं तो शायद ही उन्हें कभी देखते हों!

आज दोपहर मैं फ्री था..ऐसे ही रिमोट से खेल रहा था कि अचानक पंजाब की इस महान् शख्शियत के दर्शन हो गए. इन का नाम सरदार गुरशरण सिंह जी है...गुरशरण भाजी....जब मैंने गूगल किया तो यह पेज दिख गया.

डी डी भारती पर भी मैंने बाकी का प्रोग्राम पूरा देखा..यहां यह बताना चाहूंगा कि यह पंजाब की एक महान् शख्शियत हैं...इन्होंने विभिन्न सामाजिक विषयों पर जगह जगह जाकर नुक्कड़ नाटकों का मंचन किया। 

मुझे याद है १९८१ में जब मैं अमृतसर के सरकारी डेंटल कॉलेज में प्रथम वर्ष का छात्र था तो भी इन्होंने वहां एक नाटक का मंचन किया था...जहां तक मुझे ध्यान में आ रहा है उस का विषय भी राष्ट्रीय एकता को ही समर्पित था। 

आज अफसोस है कि मैं इन का पूरा कार्यक्रम नहीं देख सका....लेकिन जितना भी देखा बहुत अच्छा लगा, इस तरह के दिल से कुछ करने वाले विरले ही होते हैं। 

आप का मन भी यह सुन कर गदगद हो जाएगा िक यह अपने चार पांच आर्टिस्टों की टीम के साथ कार में ही निकल पड़ते थे...नाटक करने के लिए....कार के अंदर ही जाते जाते रिहर्सल हो जाया करती थी....और एक आर्टिस्ट इस प्रोग्राम में बता रही थीं कि बिना किसी तरह के मेक-अप के ही बिना ही अकसर उन के नाटक हो जाया करते थे...अगर वे किसी जगह पर जा रहे हैं और लेट हो रहे हैं तो वहां पहुंचते ही तुरंत बिना चाय-पानी की परवाह किए बिना पहले नाटक मंचन का काम संपन्न करते थे और बाकी सब बातें बाद में देखी जाती थीं। 

१९९० के आसपास की बात है....मैं अपने बड़े भाई के विशेष मित्र संजीव गौड़ को ढूंढ रहा था...चंडीगढ़ में...वे इंडियन एक्सप्रेस में स्पैशल कारसपोंडेंट थे.... पंजाब में गड़बड़ी के दिनों में उन पर जानलेवा हमला हुआ था...वह बाल बाल बचे थे...सुनील गोड़ स्टेटसमेन पेपर में भी सीनियर पद पर रहे थे....

जी हां, मिल गये...कहते हैं न ढूंढने से तो भगवान का भी साक्षात्कार हो जाता है, उस दिन संजीव गौड़ को चंड़ीगढ़ में मिल कर बहुत खुशी हुई थी...उन की मां जी से भी मिले......वे अमृतसर में हमारे घर के ही बिल्कुल पास रहते थे और हमारे पारिवारिक संबंध थे...हम बहुत बार एक दूसरे के यहां आते जाते रहते थे...मैं कईं बार संजीव गौड़ के साथ सिनेमा भी गया था....एक बार भाई कहीं बाहर था, मुझे अच्छे से याद है मैं रोटी,कपड़ा और मकान फिल्म उन्हीं के साथ ही देख कर आया था...१९७० के शुरूआती सालों की बात है। 

उस दिन संजीव गौड़ से मिल कर बहुत खुशी हुई...उन्हें मुझ से भी ज़्यादा खुशी हुई थी...आंटी भी मिली थीं...
आप सोच रहे होंगे कि गुरशरण भाजी का नाम लेते लेते मैं यह संजीव गौड़ की बात कैसे करने लग गया....हां, तो दोस्तो, उस दिन मुझे पता चला कि संजीव गौड़ की श्रीमति जी जो पेशे से डाक्टर हैं, वे गुरशरण भाजी की बेटी हैं....मुझे अच्छे से याद है २५ वर्ष पहले का वह दिन ...जब हम लोग बैठ कर उस दिन गुरशरण सिंह के महान् कामों की चर्चा करते रहे थे। 

आज भी जब मैंने टीवी पर गुरशरण भाजी को देखा तो मैंने अपने कालेज के साथियों के ग्रुप वालों को व्हाट्सएप पर मैसेज तो किया ....कि आप सभी लोग अभी डी डी भारती लगाइए...और साथ में गुरशऱण भाजी की एक फोटो भी भेजी जो टीवी पर दिख रही थी। 

१९९० के तुरंत बाद मैं बंबई चला गया सर्विस के सिलसिले में.....कोई संपर्क नहीं रहा.....अभी चार पांच साल पहले चंड़ीगढ़ में जाकर उन के बारे में पता किया लेकिन कुछ पता नहीं चला.....लेकिन एक बात मैं यहां अवश्य कहना चाहूंगा कि गुरशरण भाजी के दामाद संजीव गौड़ भी एक विलक्षण शख्शियत के मालिक थे....हर समय पढ़ने लिखने के शौकीन....खुशमिजाज और यारों के यार। 

मैं सोच रहा हूं कि अभी डी डी भारती के यू-ट्यूब चैनल पर देखूंगा.....अकसर उस चैनल पर डी डी भारती पर प्रसारित हो चुके प्रोग्राम दिख जाते हैं....पता नहीं हम लोग सरकारी चैनलों पर रोज़ाना कितने बेहतरीन कार्यक्रम मिस कर देते हैं......तारक मेहता, कामेडी सर्कस के चक्कर में......दोस्तो, जब बच्चों को इंजीनियरिंग, मैडीकल या कोई भी उच्च शिक्षा दिलाने की बात आती है तो हम सरकारी कालेजों में दाखिले के कितने आतुर दिखते हैं.....लेकिन वही बच्चे जब उन कालेजों से बिल्कुल तुच्छ फीस से कोर्स कर लेते हैं, उन्हें सात समंदर पार भागने की जल्दी होती है.....मोटी कमाई के चक्कर में......आज मुझे सुबह विचार आ रहा था कि सरकारी कालेजों को सभी छात्रों से यह बांड भरवाना चाहिए कि वे लोग १० साल तक देश नहीं छोड़ सकते.....बांड वांड तो होते होंग, कागज़ों का पेट तो टनाटन भरा ही जाता होगा, मुझे नहीं पता, लेकिन उस का कढ़ाई से पालन भी होना चाहिए....

लेिकन यह क्या, सरकारी टी वी चैनल की बात करते करते मैं कहां से कहां पहुंच गया.......विषय ही बदल दिया......कोई बात नहीं, यहीं पर पूर्ण विराम लगाता है..

मुस्कुराते आइए मुस्कुराते जाइए....

सत्संग में महात्मा जी जब प्रवचन शुरू करते हैं तो हर बार अपने आशीर्वचन इस बात से शुरू करते हैं.. आने जाने का सब से बढ़िया तरीका है यही .... मुस्कुराते आइए, मुस्कुराते जाइए....और अपनी वाणी को विराम भी यही बात कह कर देते हैं....उन्हीं के मुखारबिंद से वही शब्द बार बार सुनना बिल्कुल एक बूस्टर डोज़ सा काम करता है।

मेरी टेबल पर एक स्लोग्न रखा हुआ है....किसी विश्व-विख्यात चिकित्सक ने कहा है ....हंसना एक ऐसी चिकित्सा है जो अब तक सब से कारगार सिद्ध हुई है...और सदैव इतनी ही कारगार रहेगी।

तीन चार दिन पहले मुझे मेरा एक मरीज़ राममूर्ति आया...बात करते करते ऐसे ही कोई बात हुई कि वह ठहाके लगाने लगा....फिर उसने हंसते हंसते कहा कि डाक्टर साहब, भगवान और डाक्टर ही ऐसे लोग हैं जो किसी को हंसा सकते हैं। उसने अपनी बात फिर से दोहराई.....मैं भी उस की बात पर मुस्कुरा दिया.....लेकिन मैं उस की बात से पूर्णतयः सहमत नहीं हूं....हंसी के बहाने तो हर तरफ़ धरे पड़े हैं....आप के चेहरे पर मुस्कान की इंतज़ार कर रहे हैं.......इसलिए हमें हर पल इस सर्वव्यापी परमपिता परमात्मा से यही प्रार्थना करनी चाहिए कि यह हर बंदे के नसीब में खुश रहना, मुस्कुराना...खिलखिलाना लिख दे .....और वह भी पक्की पेन्सिल के साथ!

हम लोग हंसने-मुस्कुराने के कितने मैसेज देखते-पढ़ते रहते हैं ...तीस चालीस साल पहले हमें एक ही मैसेज का पता था...Smile..it increases your face value!

मैंने कुछ साल पहले कहीं पढ़ा था जिसे पढ़ कर मुझे हैरानी भी बहुत हुई थी कि इत्ती सी बात की तरफ़ कैसे ध्यान ही नहीं गया....यही लिखा था कि कोई भी मुस्कुराता चेहरा ऐसा नहीं दिखा जो खूबसूरत न हो!!

सत्संग में यह सुंदर वचन अकसर कानों में पड़ जाते हैं....दो बंदों को जोड़ने का सब से छोटा रास्ता भी एक मुस्कान ही है।

अभी मैं बाज़ार में गया तो मुझे एक युवा कि टी-शर्ट पर मुस्कान के बारे में कुछ दिखा....मैंने हंसते हुए कहा कि मुझे इस स्लोग्न की फोटो लेनी होगी...हंसते हंसते उसने कहा.....sure!

अभी अभी अपने कालेज के दौर के दोस्त मनोज गोयल ने भी ऐसा ही मैसेज भेजा....


 अच्छा, तो दोस्तो, सब के लिए यही प्रार्थना करते हैं कि सब को हंसते-खिलखिलाने के मौके निरंतर मिलते रहें......यह हवा पानी जितनी ही बड़ी ज़रूरत है!

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

दो पंछी दो तिनके कहो ले के चले हैं कहां!

आज मैं बंबई में था...मैंने बहुत अरसे बाद जब एक कंपनी के गेट से एक फिएट कार निकलते देखी तो मैंने झट से अपने मोबाइल कैमरे को तैयार किया कि इस के बाहर निकलते ही इस की फोटो लेता हूं...

मैंने बहुत अरसे बाद तो फिएट तो देखी थी पहली बात, दूसरी बात यह कि इतनी पुरानी फिएट को इतनी अच्छी और साफ़ सुथरी हालत में भी बहुत समय बाद देखा था..इस से पता चलता है कि जिस सेठ की यह कार है उसे इस से कितना लगाव होगा!

जब मैंने इस कार की फोटो अपने कालेज के साथियों को व्हाट्सएप पर भेजी तो एक साथी ने करनाल से लिखा कि उसने १९९५ में पहली फिएट कार खरीदी ...मैंने पूछा कि अभी भी है, तो कहने लगा कि घर के लोग नाराज़ ही रहे, लेिकन उसने भी उस फिएट को पांच बरस तक चला कर ही दम लिया।

फिएट कार की मेरी यादें १९७०-७२ के आस पास की हैं, जब मेरे चाचा अपनी फिएट पर आते थे तो मैं कितना समय उस को देखता ही रहता था....उन के एक हाथ में सिगरेट होता था और फिएट में एक एश-ट्रे भी हुआ करती थी.

होता है यार, होता है....लोगों को अपने पुराने स्कूटरों से भी कितना लगाव होता है! मैंने १९९० में एलएमए खरीदा था, अभी भी रखा हुआ है...चलता कम ही है, अब एक्टिवा ही चलता है ज़्यादा, लेिकन कभी कभी जब रोड़ पर लम्बरेटा स्कूटर दिख जाता है तो भी बहुत अच्छा लगता है.....परसों ही मैंने एक बजाज स्कूटर देखा लखनऊ में ....उस के मालिक ने भी उसे बड़ी अच्छी हालत में रखा हुआ था। 

हर पुरानी कार, स्कूटर या साईकिल के साथ हमारी बहुत सी यादें जुड़ी होती हैं, है कि नहीं, कुछ हम लोग किसी के साथ शेयर कर लेते हैं, कुछ हमारे अंदर ही रहती हैं!

मुझे कभी कभी स्कूटर पर भी चलना बहुत भाता है और लगता है लोगों से मेरी यह छोटी सी खुशी देखी नहीं जाती, मुझे अकसर ही कोई न कोई टोक देता है...डाक्टर साहब, आप स्कूटर पर...अच्छे नहीं लगते। कोई करीबी तो मुझे मेरी पोस्ट की याद दिला देता है। लेिकन यार मैंने भी इतने साल से इस मामले में किसी की नहीं सुनी .......मुझे स्कूटर पर चलने में बहुत आनंद आता है, जिधर से मरजी निकल जाइए, जिधर मरजी पार्क कर दीजिए, जहां चाहा रूक गये...आस पास की जगह देख ली, किसी से बात कर ली.....मजा आता है। किसी शहर को देखने-समझने-फील करने का मौका स्कूटर-साईकिल जैसी सवारी पर ही मिल सकता है। 

लेकिन एक बात मैं अकसर कहता हूं कि अगर मुझे इस तरह कि फिएट मिल जाए तो मैं बस उस पर ही चला करूंगा, मुझे इस तरह की फिएट इतनी पसंद है। 

हां, बंबई की बात करें तो मुझे यहां पर सब्जियां देख कर बड़ी हैरानगी होती है.....बेरंग, एक ही तरह की, एक ही साइज़ की...जैसे वे भी किसी फैक्टरी में ही तैयार हुई हों...१० साल बंबई में रहने के बाद आज से पंद्रह बरस पहले जब बंबई छोड़ा था तो उस के पीछे कुछ ऐसे ऐसे कारण भी थे कि हम लोग यहां कि सब्जी नहीं खा पाते थे....कुछ स्वाद ही नहीं आता था..

आप के िलए यहां मिलने वाली सब्जियों की तस्वीरें चस्पा किए दे रहा हूं ...आज सुबह जो दिखीं...
इन सब्जियों को देख कर लगा कि ये भी किसी फैक्ट्री की ही पैदावार हैं

इतनी लंबी२ लोबिया की फली आज पहली बार देखीं
अच्छा, आप को भी लग रहा होगा कि बाकी बातें तो ठीक हैं, लेकिन तुम ने यह पंछी और तिनके वाला शीर्षक क्यों दे दिया आज....इस का कारण जानने के लिए आप को यह गीत सुंदर गीत सुनना होगा....जिस में फिएट कार का भी एक अहम् किरदार है....