शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008

वो टैटू तो जब आयेगा, तब देखेंगे....लेकिन अभी तो....


वो टैटू तो जब आयेगा,तब देखेंगे लेकिन हमें आज ज़रूरत है मौज़ूदा टैटू बनवाने की मशीनों से बचने की।

आज समाचार-पत्रों में यह खबर दिखी है कि टैटू गुदवाने का जो चलन फैशन और स्टाइल के नाम पर ही शुरू हुआ था, अब यह जल्दी ही बीमारियों से बचाव का जरिया भी बन जाएगा। जर्मनी के शोधकर्त्ताओं ने इस बात का पता लगाया है कि टैटू गुदवाने की प्रक्रिया शरीर में दवा के प्रवेश की सबसे असरदार विधा है। खासकर डीएनए वाले टीकों के मामले में यह विधा इंट्रा मस्कुलर इंजेक्शन से कहीं बेहतर है। रिपोर्ट के अनुसार फ्लू से लेकर कैंसर जैसी बीमारियों के इलाज में भी टैटू के जरिए बेहतर टीकाकरण हो सकता है।

विशेष टिप्पणी----- मैडीकल साईंस भी बहुत जल्द आगे बढ़ रही है...दिन प्रतिदिन नये नये अनुसंधान हो रहे हैं। अभी मैं दो दिन पहले ही एक रिपोर्ट पढ़ रहा था कि अब इंजैक्शन बिना सूईं के लगाने की तैयारी हो रही है। तो आज यह पढ़ लिया कि अब टैटू के जरिये भी दवाई शरीर में पहुंचाई जाएगी। यह तो आप समझ ही गये होंगे कि यहां पर उन टैटुओं की बात नहीं हो रही जो बच्चे एवं बड़े आज कल शौंक के तौर पर अपने शरीर के विभिन्न हिस्सों में चिपका लेते हैं और जो बाद में नहाने-धोने से साफ भी हो जाते हैं। लेकिन यहां बात हो रही है उस विधि की जिस का एक बिल्कुल देशी तरीका आप ने भी मेरी तरह किसी गांव के मेले में देखा होगा।

एक ज़मीन पर बैठा हुया टैटूवाला किस तरह एक बैटरी से चल रही मशीन द्वारा बीसियों लोगों के टैटू बनाता जाता है...साथ में कोई स्याही भी इस्तेमाल करता है......किसी तरह की कोई साफ़-सफाई का कोई ध्यान नहीं....न ही ऐसे हालात में यह संभव ही हो सकता है, अब कैसे वह डिस्पोज़ेबल मशीन इस्तेमाल करे अथवा कहां जा कर उस मशीन को एक बार इस्तेमाल करने के बाद किटाणु-रहित ( स्टैरीलाइज़) करे...यह संभव ही नहीं है। ऐसे टैटू हमारे परिवार में किसी बड़े-बुज़ुर्ग के हाथ पर अथवा बाजू पर दिख ही जाते हैं। लेकिन यह टैटू गुदवाना बेहद खतरनाक है......मुझे नहीं पता कि पहले यह सब कैसे चलता था......था क्या, आज भी यह सब धड़ल्ले से चल रहा है और हैपेटाइटिस बी एवं एचआईव्ही इंफैक्शन्स को फैलाने में खूब योगदान कर रहा होगा। लोग अज्ञानतावश बहुत खुशी खुशी अपनी मन पसंद आकृतियां अपने शरीर पर इस टैटू के द्वारा गुदवाते रहते हैं। लेकिन इस प्रकार के टैटू गुदवाने से हमेशा परहेज़ करना निहायत ज़रूरी है।

यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि कि जिस टैटू की इस रिपोर्ट में बात कही गई है, उस की क्या प्रक्रिया होती है। लेकिन मेरी हमेशा यही चिंता रहती है कि जहां कहां भी यह सूईंयां –वूईंयां इस्तेमाल होती हों वहां पर पूरी एहतियात बरती जा पायेगी या नहीं.....यह बहुत बड़ा मुद्दा है, बड़े सेंटरों एवं हस्पतालों की तो मैं बात नहीं कर रहा, लेकिन गांवों में भोले-भाले लोगों को नीम-हकीम किस तरह एक ही सूईं से टीके लगा लगा कर बीमार करते रहते हैं ..यह सब आप से भी कहां छिपा है। पंजाब में भटिंडा के पास एक गांव में एक झोला-छाप डाक्टर पकड़ा गया था जो सारे गांव को एक ही नीडल से इंजैक्शन लगाया करता था ....इस का खतरनाक परिणाम यह निकला सारे का सारा गांव ही हैपेटाइटिस बी की चपेट में आ गया।

बात कहां से शुरू हुई थी, कहां पहुंच गई। लेकिन कोई कुछ भी कहे...जब भी इंजैक्शन लगवाएं यह तो शत-प्रतिशत सुनिश्चित करें कि नईं डिस्पोज़ेबल सूंईं ही इस्तेमाल की जा रही है। मैं तो मरीज़ों को इतना भी कहता हूं कि कहीं लैब में अपना ब्लड-सैंपल भी देने जाते हो तो यह सुनिश्चित किया करो कि डिस्पोज़ेबल सूईं को आप के सामने ही खोला गया है.......क्या है न, कईं जगह थोड़ा एक्स्ट्रा-काशियश ही होना अच्छा है, ऐसे ही बाद में व्यर्थ की चिंता करने से तो अच्छा ही है न कि पहले ही थोड़ी एहतियात बरत लें। सो, हमेशा इन बातों का ध्यान रखिएगा।

आधा लिटर चकुंदर का जूस पीने के लिए कितने चकुंदर चाहिए होंगे ?



आज सुबह से मुझे यह प्रश्न परेशान कर रहा है, क्योंकि आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में उस चकुंदर वाली खबर में यह जानकारी नहीं थी। एक न्यूज़ रिपोर्ट आज की टाइम्स में दिखीं कि प्रतिदिन सिर्फ़ 500 मिली.चकुंदर का जूस पीने से उच्च रक्तचाप घट सकता है ( Researchers from………have discovered that drinking just 500ml of beetroot juice a day can significantly reduce BP)…..अंग्रेज़ी में इसलिए लिख दिया है ताकि आप कहीं यह मत समझ लें कि 500मिली.से पहले मैंने सिर्फ़ अपने आप लिखा है। चौदह वलंटियरों पर यह अध्ययन विलियम हार्वे रिसर्च इंस्टीच्यूट एवं लंदन स्कूल ऑफ मैडीसन में किया गया। अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक के अनुसार बीट-रूट जूस में मौजूद डायटिरि नाइट्रेट की वजह से रक्त का बहाव खुल जाता है...( it’s the ingestion of dietary nitrate contained within beetroot juice that dilates blood flow).
इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि अपोलो हास्पीटल के एक कार्डियोलॉजिस्ट ने इस संबंध में टिप्पणी देते हुए कहा है कि एक टेबलेट ले लेना बीट-रूट(चकुंदर) के जूस निकालने एवं उसे पीने से आसान है। उस ने आगे यह भी कहा है कि इस जूस के पीने से बीपी कुछ समय के लिए कम हो जाता होगा, लेकिन क्या यह मरीज़ की क्लीनिक कंडीशन में सुधार ला सकता है ?...साथ में उन्होंने यह भी कहा है कि एक बीपी कम करने वाली टेबलेट सस्ती भी पड़ेगी।
इस बात का जवाब अध्ययन करने वाली वैज्ञानिक ने कुछ इस तरह से दिया है कि हम यह नहीं कह रहे हैं कि सभी बीपी के मरीज़ों के लिए बीट-रूट(चकुंदर) एक राम-बाण( panacea) है। उन्होंने यह भी कहा है कि उन का अध्ययन आगे भी यह देखने के लिए जारी है कि अगर नाइट्रेस को टेबलेट फार्म में लिया जाए तो क्या फिर भी वे बीपी को कम करने का काम कर सकते हैं। उस अध्ययनकर्त्ता ने यह कहा है कि हम तो कह रहे हैं कि ताजा चकुंदर का जूस भी लाभदायक सिद्ध हो सकता है...थोड़ा-बहुत अगर आप अपनी डाइट में इसे शामिल करेंगे तो इस से आप को बीपी कम करने में मदद मिलेगी।
टिप्पणी...............अच्छी बात है कि लोगों को प्राकृतिक खाने की इस रिपोर्ट से प्रेरणा मिलेगी। वैसे भी तो चकुंदर के बहुत से गुण हैं जिन का हमें लाभ पहुंच सकता है। लेकिन यह आधा लिटर चकुंदर जूस वाली बात कुछ मुश्किल जान पड़ती है...अब रिपोर्ट में यह कहीं नहीं लिखा कि इस अभियान में शामिल होने के लिए कितने चकुंदर चाहिए होंगे.....वैसे तो चकुंदर बाज़ार में कम ही दिखते हैं....ये चकुंदर जो आप इस तस्वीर में देख रहे हैं , ये भी पिछले दिनों Reliance Fresh से खरीदे गये थे......बस ये तो वहां पर ही कभी कभी दिखते हैं।
जो भी हो, लेकिन हम इन चकुंदरों का कम से कम थोड़ा बहुत प्रयोग करना तो शुरू कर ही सकते हैं। अगर आप ने अभी तक कभी इस्तेमाल नहीं किया तो स्लाद के रूप में ही इस का इस्तेमाल शुरू तो करिए.....बहुत फायदेमंद है।
मुझे लोगों से यह आपत्ति है कि एक बार किसी बात को सुन लेते हैं न तो फिर हाथ धो कर उस के पीछे पड़ जाते है....कईं बार कईं शुगर के मरीज़ जामुनों का एवं जामुन के बीजों को भी इस तरह से ही इस्तेमाल करते हैं.....कुछ लोग सब दवाईयां, सब परहेज़ छोड़-छाड़ कर शुगर कंट्रोल करने के लिए बस करेलों का जूस पीने ही में लगे हैं । ठीक है, इन खाद्य पदार्थों का बहुत महत्त्व बताया गया है ....लेकिन यह भी तो नहीं कि बस केवल वही चीज़े खाने से या उन का जूस पी लेने से ही रोग कट जायेगा...आप ऐसा कुछ भी करें तो भी अपने चिकित्सक(किसी भी चिकित्सा पद्धति से संबंधित) के नोटिस में यह बात ज़रूर लाया करें....यह तो बिल्कुल नहीं कि अब मैंने करेले का जूस पीना शुरू कर दिया है , इसलिए अब मुझे शुगर की किसी तरह की दवाईयां खाने की ज़रूरत नहीं है.....ऐसा सोचना भी आत्मघाती है....क्योंकि एक क्वालीफाइड चिकित्सक केवल आप के शुगर अथवा बीपी के स्तर को ही नहीं देखता---उन की निगाह आप के शरीर के विभिन्न अंगों की कार्य-प्रणाली पर भी बनी रहती है कि क्या सारी मशीनरी ठीक ढंग से चल रही है या नहीं। इसलिए इन सब खाने-पीने वाली चीज़ों को एक support के रूप में इस्तेमाल करें , लेकिन फिर भी अपने क्वालीफाइड चिकित्सक को तो नियमित आप को मिलते रहना ही चाहिए।
बात इतनी लंबी हो गई है कि पता नहीं मेरा प्रश्न ही कहां गुम हो गया है कि .......आधा लिटर चकुंदर का जूस पीने के लिए कितने चकुंदरों को जूसर में पिसना होगा.......अगर आप में से कोई इस एक्सपैरीमैंट को करे तो मेरे को ज़रूर बतलाइएगा ताकि किसी मरीज़ के पूछने पर मैं फिर उसे पूरी जानकारी दे सकूं। लेकिन, हां, यहां सब इतना आसान थोड़े ही है ...चकुंदर का जूस तैयार भी हो गया तो भी कईं तरह के वहम-भुलेखे...कुछ कहेंगे कि यह गर्म है , कुछ कहेंगे यह ठंडा है., कुछ कहेंगे ठंडी में नहीं लेना, कुछ कहेंगे यह......कुछ कहेंगे....वह......, लेकिन काम की बात यही है कि है यह चकुंदर बहुत काम की चीज़, जितना इसका इस्तेमाल कर सकते हो कर लिया करें।

कैंसर की आखिरी स्टेज में है तो क्या है, उस का नायक तो वह ही है !


जी हां, अगर वह कैंसर की आखिरी स्टेज या बहुत ही ज्यादा फैल चुकी टीबी रोग से या गुर्दै फेल होने की टर्मिनल स्टेज से भी ग्रस्त है तो भी एक हिंदोस्तानी नारी का नायक तो उस का पति ही है...मेरी इस बात से तो आप शत-प्रतिशत सहमत हैं ना।

तो चलिए मैं सीधे अपनी बात पर आता हूं...मैं पिछले कईं दिनों से इस के बारे में बहुत ज़्यादा सोच विचार कर रहा हूं कि आखिर कुछ डाक्टरों का इतना ज़्यादा नाम हो जाता है और कुछ डाक्टर लोग अपने फील्ड में बहुत ज़्यादा महारत हासिल किएहुए होते भी इतने पापुलर नहीं हो पाते यानि कि मरीज़ों की नज़र में उन की इमेज इतनी ज़्यादा अच्छी नहीं होती।

तो, मुझे तो सब से महत्त्वपूर्ण बात यही दिखी कि डाक्टर की कम्यूनिकेश्नस स्किल्स एवं इंटरपर्सनल स्किल्स बहुत ही ज़्यादा अच्छी होनी चाहिए...इस मे ज़रासी भी कम्प्रोमाइज़ करने की गुंजाइश नहीं है।

जब कोई मरीज़ डाक्टर के पास जाता है तो वह ही नहीं उस के साथ आने वाले उस के रिश्तेदार डाक्टर की बात का एक एक शब्द बेहद ध्यान से सुन रहे होते हैं, वे उस के शब्द के साथ साथ उस के चेहरे के भाव एवं उस की बॉडी-लैंग्वेज़ को भी पढ़ने की पूरी कोशिश करते रहते हैं। वैसे देखा जाए तो यह सब है भी तो कितना स्वाभाविक ही ....क्या हम ऐसा नहीं करते ?....करते हैं भई बिलकुल करते हैं, इस में आखिर बुराई क्या है।

जिस बात पर मैं विचार कर रहा था वह यही है कि जब कभी भी कोई डाक्टर किसी भी मरीज़ के साथ पूरे सम्मानपूर्वक ढंग से बात नहीं करता तो वह उस मरीज़ की नज़रों में तो शायद इतना न गिर जाता होगा जितना उस मरीज़ के साथ आए उस के अभिभावकों की नज़र में बहुत ही ज़्यादा ही गिर जाता है। एक उदाहरण लेते हैं ..अब बीमारी पर तो किसी का कोई बस है नहीं....अब अगर किसी को बहुत ही कोई भयानक रोग है तो अगर किसी डाक्टर ने उस के बीवी के सामने उसे पूरा सम्मान न दिया या यहां तक कि तुम ही कह दिया तो उस महिला को बहुत ही ज़्यादा चोट पहुंचती है, मेरे ख्याल में वह स्वयं बहुत अपमानित महसूस करती है....बंदा चाहे बीमार है तो क्या है, बीमारी का क्या है , उस का नायक तो वही है , उसे किसी दूसरे की अच्छी सेहत से क्या लेना देना, उस की सारी ज़िंदगी तो भई उस बंदे की सेहत की धुरी के इर्द-गिर्द ही घूमती है

यह सब मैं पता नहीं क्यों लिख रहा हूं...बस यूं ही लिखना चाह रहा हूं । इस में कोई थ्यूरी इनवाल्व नहीं है, पिछले पच्चीस सालों से मरीज़ों के एवं उन के अभिभावकों के चेहरों को पढ़ रहा हूं, जो इन से पढ़ा बस वही लिखना चाह रहा हूं।

अब बच्चा वैसे अपने पिता की कोई बात माने या ना माने लेकिन वो किसी डाक्टर द्वारा अपने पिता को तुम कहे जाने से नाराज़ हो उठता है , किसी ह्स्पताल के कर्मचारी के द्वारा उस के पिता की शान में कहे कुछ शब्द जो उसे पसंद नहीं होते, इस से वह भड़क उठता है, कईं बार अपना आपा खो बैठता है...दोस्तो, बात वही है ...किसी डाक्टर के लिए तो शायद वह कोई अन्य मरीज़ ही होगा, लेकिन उस के बेटे के लिए तो वह संसार है, जब उस के पिता को आई.सी.यू में रखा गया है तो उस के दिमाग में बचपन के वे सब सीन घूम रहे होते हैं जब उस के पिता ने उसे अंधेरे का सामना करना सिखाया था, जब उसे उस का पिता कंधे पर चढ़ा कर सारा मेला घुमा लाता था, जब उन की उंगली पकड़ कर उस ने चलना सीखा था, जब साइकिल सीखने के दिनों में बार बार गिरने पर भी उस के पिता ने उसे कभी भी निरूत्त्साहित नहीं होने दिया था। ऐसे हालात में कैसे वह किसी तरह की गुस्ताखी बर्दाश्त कर सकता है। चाहे उस का पिता एँड-स्टेज किडनी फेल्यर से आईसीयू में पड़ा हुया है लेकिन उस बच्चे के लिए तो उस का पिता ही है ...मॉय डैड..स्ट्रांगैस्ट , ये तो केवल कुछ उदाहरण हैं लेकिन इन बातों को हम कितनी ही ऐसी सिचुएशन्स में अप्लाई कर सकते हैं।

अब मैं देखता हूं कि किस तरह से बहुत बहुत बुज़ुर्ग अपनी वयोवृद्ध बीवियों को उन के छाती के कैंसर अथवा बच्चेदानी के कैंसर के इलाज के लिए बेचारे बावले से हुए फिरते हैं....निःसंदेह यह देख कर यही लगता है कि शायद दिस हैपन्स आन्ली इन इंडिया....जहां पति पत्नी का रिश्ता सचमुच आज भी एक रूहानी रिश्ता है....सैक्स वैक्स से बहुत ही ज़्यादा ऊपर की बात जो शायद वैस्टर्न वर्ल्ड की भी अब समझ मेंथोड़ी-थोड़ी आ रही हैं।

बस ,बात अपनी यही खत्म करता हूं कि डाक्टर की डिग्रीयों के साथ साथ उस की बोलचाल का ढंग भी बहुत ही बढ़िया होना बेहद लाज़मी है, क्यों कि उसे बेहद अन्य फैक्टर्ज़ का भी ध्यान रखना होगा, नहीं तो लोग क्लीनिक से बाहरनिकल कर इलाज की बात करने से पहले कईं बार यह बात करनी भी नहीं भूलते...यार, डाक्टर है तो लायक लेकिन पता नहीं इतना बदतमीज़ क्यों है।

वो टैटू तो जब आयेगा, तब देखेंगे....लेकिन अभी तो....



वो टैटू तो जब आयेगा,तब देखेंगे लेकिन हमें आज ज़रूरत है मौज़ूदा टैटू बनवाने की मशीनों से बचने की।
आज समाचार-पत्रों में यह खबर दिखी है कि टैटू गुदवाने का जो चलन फैशन और स्टाइल के नाम पर ही शुरू हुआ था, अब यह जल्दी ही बीमारियों से बचाव का जरिया भी बन जाएगा। जर्मनी के शोधकर्त्ताओं ने इस बात का पता लगाया है कि टैटू गुदवाने की प्रक्रिया शरीर में दवा के प्रवेश की सबसे असरदार विधा है। खासकर डीएनए वाले टीकों के मामले में यह विधा इंट्रा मस्कुलर इंजेक्शन से कहीं बेहतर है। रिपोर्ट के अनुसार फ्लू से लेकर कैंसर जैसी बीमारियों के इलाज में भी टैटू के जरिए बेहतर टीकाकरण हो सकता है।
विशेष टिप्पणी----- मैडीकल साईंस भी बहुत जल्द आगे बढ़ रही है...दिन प्रतिदिन नये नये अनुसंधान हो रहे हैं। अभी मैं दो दिन पहले ही एक रिपोर्ट पढ़ रहा था कि अब इंजैक्शन बिना सूईं के लगाने की तैयारी हो रही है। तो आज यह पढ़ लिया कि अब टैटू के जरिये भी दवाई शरीर में पहुंचाई जाएगी। यह तो आप समझ ही गये होंगे कि यहां पर उन टैटुओं की बात नहीं हो रही जो बच्चे एवं बड़े आज कल शौंक के तौर पर अपने शरीर के विभिन्न हिस्सों में चिपका लेते हैं और जो बाद में नहाने-धोने से साफ भी हो जाते हैं। लेकिन यहां बात हो रही है उस विधि की जिस का एक बिल्कुल देशी तरीका आप ने भी मेरी तरह किसी गांव के मेले में देखा होगा।
एक ज़मीन पर बैठा हुया टैटूवाला किस तरह एक बैटरी से चल रही मशीन द्वारा बीसियों लोगों के टैटू बनाता जाता है...साथ में कोई स्याही भी इस्तेमाल करता है......किसी तरह की कोई साफ़-सफाई का कोई ध्यान नहीं....न ही ऐसे हालात में यह संभव ही हो सकता है, अब कैसे वह डिस्पोज़ेबल मशीन इस्तेमाल करे अथवा कहां जा कर उस मशीन को एक बार इस्तेमाल करने के बाद किटाणु-रहित ( स्टैरीलाइज़) करे...यह संभव ही नहीं है। ऐसे टैटू हमारे परिवार में किसी बड़े-बुज़ुर्ग के हाथ पर अथवा बाजू पर दिख ही जाते हैं। लेकिन यह टैटू गुदवाना बेहद खतरनाक है......मुझे नहीं पता कि पहले यह सब कैसे चलता था......था क्या, आज भी यह सब धड़ल्ले से चल रहा है और हैपेटाइटिस बी एवं एचआईव्ही इंफैक्शन्स को फैलाने में खूब योगदान कर रहा होगा। लोग अज्ञानतावश बहुत खुशी खुशी अपनी मन पसंद आकृतियां अपने शरीर पर इस टैटू के द्वारा गुदवाते रहते हैं। लेकिन इस प्रकार के टैटू गुदवाने से हमेशा परहेज़ करना निहायत ज़रूरी है।
यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि कि जिस टैटू की इस रिपोर्ट में बात कही गई है, उस की क्या प्रक्रिया होती है। लेकिन मेरी हमेशा यही चिंता रहती है कि जहां कहां भी यह सूईंयां –वूईंयां इस्तेमाल होती हों वहां पर पूरी एहतियात बरती जा पायेगी या नहीं.....यह बहुत बड़ा मुद्दा है, बड़े सेंटरों एवं हस्पतालों की तो मैं बात नहीं कर रहा, लेकिन गांवों में भोले-भाले लोगों को नीम-हकीम किस तरह एक ही सूईं से टीके लगा लगा कर बीमार करते रहते हैं ..यह सब आप से भी कहां छिपा है। पंजाब में भटिंडा के पास एक गांव में एक झोला-छाप डाक्टर पकड़ा गया था जो सारे गांव को एक ही नीडल से इंजैक्शन लगाया करता था ....इस का खतरनाक परिणाम यह निकला सारे का सारा गांव ही हैपेटाइटिस बी की चपेट में आ गया।
बात कहां से शुरू हुई थी, कहां पहुंच गई। लेकिन कोई कुछ भी कहे...जब भी इंजैक्शन लगवाएं यह तो शत-प्रतिशत सुनिश्चित करें कि नईं डिस्पोज़ेबल सूंईं ही इस्तेमाल की जा रही है। मैं तो मरीज़ों को इतना भी कहता हूं कि कहीं लैब में अपना ब्लड-सैंपल भी देने जाते हो तो यह सुनिश्चित किया करो कि डिस्पोज़ेबल सूईं को आप के सामने ही खोला गया है.......क्या है न, कईं जगह थोड़ा एक्स्ट्रा-काशियश ही होना अच्छा है, ऐसे ही बाद में व्यर्थ की चिंता करने से तो अच्छा ही है न कि पहले ही थोड़ी एहतियात बरत लें। सो, हमेशा इन बातों का ध्यान रखिएगा।

1 comments:

Gyandutt Pandey said...
आप सही हैँ डाक्टर साहब। अगर सम्भव हो तो गुदना गुदाने पर प्रतिबन्ध होना चाहिये। या कम से कम व्यापक प्रचार तो होना ही चाहिये इससे सम्भावित नुक्सान पर।