आज दोपहर मैं लंच के लिए घर आया तो कॉलोनी के नोटिस बोर्ड पर इस फिल्म का पोस्टर लगा देखा...मुझे एक दम से लगा कि आज कल तो पता ही नहीं चलता कि नईं फिल्में कब आईं और कब उतर गईं।
फिल्में देखने का जो मज़ा हम लोगों ने बचपन और युवावस्था में ले लिया... वह सोच कर ही मजा आ जाता है।
पहले फिल्में देखने के लिए कितने कितने दिन पहले मंसूबे बनते थे....फिर कहीं जा कर प्रोग्राम बनता था..अधिकतर यह छुट्टी का दिन ही हुआ करता था।
कौन सी फिल्म देखनी है यह दोस्तो, पड़ोसियों और रिश्तेदारों की फीडबैक पर निर्भर किया करता था अकसर।
मुझे अच्छे से याद है मेरी मौसी जब भी कोई फिल्म देखती थी तो अपने पोस्टकार्ड में उस का छोटा मोटा रिव्यू ज़रूर लिखा करती थी..उन के रिव्यू के आधार पर हमने घरौंदा, गोलमाल और मासूम जैसी फिल्में देखीं......और फिर जब हम लोग मिला करते तो उस पर चर्चा हुआ करती।
याद आ रहा है कि मेरी बड़ी बहन मेरे चाचा के यहां छुट्टियों के दिनों में रहने गई थी..वहां से जो उनका अंतर्देशीय पत्र आया उस में लिखा था कि हम सब लोगों ने अमिताभ बच्चन की ज़मीर फिल्म देखी है, बहुत अच्छी है, आप भी देख लेना।
एक बात और...जब कोई रिश्तेदार किसी के यहां आता था तो उसे फिल्म दिखाने लेकर जाना उस की इटिनरी में शामिल हुआ करता था। इसी चक्कर में मैंने बहुत फिल्में देखीं...मेरी मौसी शादी के बाद जब हमारे यहां आई तो हम उन्हें जुगनू फिल्म दिखाने ले गये थे...आज भी अच्छे से याद है....मैं उन दिनों सात-आठ साल का था...लेकिन यही इतंज़ार रहता था कि कब कोई रिश्तेदार रहने आए और हम लोग फिल्मों के मजे लें।
बड़ी बहन शादी के बाद जब भी आती मैं भी लपक कर रिक्शे में उन के बीच बैठ जाता और इसी सिलसिले में फकीरा, मां, नूरी देख डालीं। बहुत मज़ा आता था दोस्तो। वह रोमांच ही अलग हुआ करता था।
हम देखते थे कि कोई पारिवारिक फिल्म होती थी तो मोहल्ले की पांच सात औरतें एक साथ चल पड़ती थीं...और हम बच्चों के फिर से मजे....नानक नाम जहाज है, दो कलियां आदि फिल्मे इसी क्रम में देखने को मिल गईं।
ये दीवारी पोस्टर मुझे लखनऊ में चार दिन पहले दिखे थे... |
एक बात तो पक्की है कि कोई भी फिल्म देख कर उस का नशा कम से कम एक हफ्ता तो रहा ही करता था। बिल्कुल सच कह रहा हूं। और फिर जब कभी रेडियो पर देखी हुई फिल्म का गीत बज जाता तो सारी स्टोरी फ्लैशबैक की तरह मन ही मन घूम जाती।
अब क्या क्या लिखें दोस्तो.....फिल्मों की दुनिया से जुड़ी यादों पर तो किताब लिखी जा सकती है।
वह फिल्म शुरू होने से कम से कम आधा घंटा पहले पहुंच जाने का क्रेज़-- कहीं न्यूज़-रील ही न मिस हो जाए, और इंटरवल के समय भाग कर सब से पहले वाशरूम से फारिग होने की जल्दी ...ताकि बाहर से ब्रेड-पकौड़ा, तली हुई मूंगफली या फिर समोसा और फैंटा- गोल्ड-स्पाट पहले ले लिया जाए.....यार, एक भी सीन मिस नहीं होना चाहिए....और अगली कोई दो मिनट का टाइम बच गया तो हाल के बाहर लगे ट्रेलर देख देख कर ही खुश हो जाना कि अच्छा, यह सीन हो गया, यह अभी आएगा.......सच में बहुत मजे के दिन थे।
जब हम सब कज़िन इक्ट्ठे हुआ करते तो फिल्म ज़रूर देखने जाते ....एक बार तो हमारे पास पैसे सिर्फ इतने ही थे कि हम लोग दो की बजाए एक ही रिक्शा पर लद गये....वह दिन याद आता है तो हम सब बड़े हंसते हैं, उस दिन अगर उस रिक्शा वाले की जान न भी जाती तो उस का रिक्शा तो टूट ही जाता...यह अंबाला छावनी की बात है जिस दिनों अर्पण फिल्म लगी हुई थी। पता नहीं कैसे हम में से कुछ को रहम आ गया और उस टोली के दो तीन सदस्य रिक्शा के साथ हंसी ठिठोली करते पैदल ही हो लिए और साथ में रिक्शा को पीछे से धक्का लगाते रहे....और थियेटर भी झटपट आ गया था।
अब सब कुछ है, क्रेडिट कार्ड है, जेब में भी पैसे रहते हैं, लेिकन पता नहीं इन पीवीआर आदि में फिल्म देखने का मजा नहीं आता... पुराने थियेटर अलग ही माहौल बना दिया करते थे...हर कोई अंदर ही खा पी रहा है... बेचने वाले अंदर ही घूमते रहते थे.......लेकिन अब तो पीवीआर में फिल्म देखना एक आमजन के बस की बात रही भी नहीं, पहले महंगी महंगी टिकटें ...फिर तीन चार सौ रूपये के पापकार्न और कोल्ड-ड्रिंक्स.......ऐसा लगता है कि पैसा फैंक रहे हैं ।
इस के आगे क्या लिखूं...पुराने और नये की याद में हमेशा पुराने दिन ही अच्छे लगते हैं, मैं ऐसा सोचता हूं..कुछ विचार मन में आए थे आज...आप सब से शेयर कर के अच्छा लगा।