रविवार, 18 सितंबर 2016

शायद आज पहली बार रेडियो पर स्वपनदोष शब्द सुना ...

रेडियो-ट्रांजिस्टरों के संग्रह में हमारे यहां नेशनल पैनॉसॉनिक का एक टू-इन-वन भी है ...कभी भी इसे लगा लेते हैं...इस की साउंड-क्वालिटी बहुत बढ़िया है .. लेकिन इस में अब कैसेट चलती नहीं..जो कैसेट्स दो चार रखी हुई हैं शायद इतनी पुरानी हो चली हैं कि लगाते ही अंदर फंस जाती है ...जैसा कि आज सुबह यह कांड हुआ जिस की फोटू मैंने अपने मित्रों से शेयर भी करी
 आज सुबह के इस कांड ने तो ३६ साल पुराने ज़ख्म हरे कर दिए...
चलिए यह भी बता देते हैं कि मैंने काफी समय तक रेडियो धमाल नाम से एक ब्लाग भी बनाया ..उस पर रेडियो के जमाने की अपनी यादों को सहेजने की कोशिश भी करी ..अभी भी कायम-दायम है वह भी ...लेकिन यहां यह भी बताना ज़रूरी होगा आज के जेनरेशन के लिए कि एफएम के अलावा भी रेडियो की दुनिया है .. एफएम तो शायद १९९४ में आया...इस से पहले केवल मीडियम वेव फ्रिक्वेंसी पर आल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस और विविध भारती जैसे प्रोग्राम ही हम लोग अकसर सुना करते थे ..विविध भारती भी तो बहुत बाद में ही आया था..कुछ कुछ शहरों में ही कैच हुआ करता था..

शार्ट वेव की बात करें तो मुझे अपने पड़ोस के नानक सिंह अंकल जी की याद आती है कि किस तरह से वह १९७१ के हिंदु-पाक युद्ध और शायद १९७२ में बंगला देश बनने की खबरें सुनने के लिेए अपने बरामदे में अपना ट्रांजिस्टर पकड़ कर उसे इधर उधर घुमा कर बीबीसी की खबरें या रेडियो सिलोन कैच करने की कोशिश करते ..और अगर पांच दस मिनट बीबीसी कैच हो जाता तो हम भी उन के साथ वे खबरें सुन लेते ..इस के अलावा शॉट वेव से अपना कोई नाता दरअसल रहा नहीं..

भूमिका कुछ ज़्यादा होती दिख रही है ... मेरे में यही बुरी बात है कि मैं बात को खींचता बहुत ज़्यादा हूं ..कोई बात नहीं, सुधर जाऊंगा धीरे धीरे...

हां, तो मैं अपने नेशनल पैनासानिक वाले सेट की बात कर रहा था ...एक टेप कटवाने के बाद मुझे लगा कि चलिए आज इस पर रेडियो ही सुनते है ं...खुशी हुई कि उस समय आकाशवाणी लखनऊ के कार्यक्रम चल रहे थे ...

पाठकों की सुविधा के लिए बताना चाहूंगा कि ये जो एफएम की सुविधा है यह हर जगह नहीं है ..अभी भी अधिकतर हिंदोस्तान अपनी रेडियो की ज़रूरतें मीडियम वेव के द्वारा ही पूरी करता है ..और सरकार के अब इस सर्विस को चलाए रखना ज़्यादा से ज्यादा खर्चीला होता जा रहा है ..लेकिन चिंता न करिए...प्रधानमंत्री की मन की बातें भी अधिकतर इस मीडियम वेव से ही देश के जनमानस तक पहुंचती है ...

हां, तो जैसे ही मैंने रेडियो लगाया तो स्वपनदोष पर कुछ प्रोग्राम चल रहा था ...मेरे लिए यह एक सुखद आश्चर्य था ...आल इंडिया रेडियो पर स्वपनदोष के बारे में बातें हो रही हैं....

मैंने भी कुछ नौ-दस साल पहले इस विषय पर एक लेख लिखा था अपने एक दूसरे ब्लॉग हैल्थ-टिप्स पर ....जिस का शीर्षक था...स्वपनदोष जब कोई दोष है ही नहीं तो!  बस, ऐसे ही एक दिन मन किया कि आज इस विषय पर लिखते हैं ...तरूण एवं युवा बड़े परेशान रहते हैं ...लिख दिया...इस के बाद तो मेरे पास थैंक्स की ईमेल्स का तांता लगने लगा .. मुझे भी अच्छा लगा..शुक्रिये की ईमेल आती हैं...अभी भी। मैंने क्या किया, जो मेरी परेशानी रही मेरे स्कूल-कालेज के दिनों में उसे ईमानदारी से यंगस्टर्ज़ के सामने रख दिया और उस से जुड़ी भ्रांतियों का ध्वस्त करने का प्रयास किया ...जिस की वजह से मैं लगभग सात आठ साल परेशान रहा ...बस, मैंने इतना ही किया . अभी मेरी इस लेख के आंकड़ों पर नज़र पड़ी तो मैंने पाया कि इसे साठ हजा़र लोग पढ़ चुके हैं...

हां, तो आज जो आकाशवाणी लखनऊ पर कार्यक्रम चल रहा था जिस में स्वपनदोष पर चर्चा हो रही थी ...मुझे वे बातें मेरे लेख से बिल्कुल मेल खाती दिखीं... कुछ प्रश्न किये जा रहे थे ..एक प्रश्न आया कि क्या स्वपनदोष उन लड़कों में ही होता है जो लड़कियों के बारे में गलत सोचते हैं ....उस का जवाब उस प्रोग्राम में यह दिया गया कि नहीं, यह हर युवक में होता है ...यह कोई बीमारी नहीं है, बात केवल इतनी सी है कि जब आप के शुक्राणु परिपक्व हो जाते हैं तो वे स्वपनदोष के जरिये आप के शरीर से बाहर निकल जाते हैं...

मुझे उस प्रोग्राम को सुनते यही लग रहा था कि जितनी जानकारी तरूणावस्था एवं नवयुवकों एक आकाशवाणी जैसे मीडियम के द्वारा उपलब्ध करवाई जानी मुनासिब है, वे उसे बढ़िया से पहुंचा ही रहे थे ..हां, कार्यक्रम का नाम था..."मैं कुछ भी कर सकती हूं!"

प्रोग्राम में यह भी बताया गया कि इस से कमजोरी नहीं होती ...यह भी समझाया गया कि इस स्वपनदोष की वजह से बहुत से बच्चों का अपनी पढ़ाई में मन नहीं लगता ...वे समझते हैं कि यह एक बीमारी हो गई है उन्हें .. जी हां, यही होता है ..मेरे साथ भी तो ऐसा ही हुआ ...नवीं कक्षा से लेकर १९७७ से अगले लगभग पांच साल तक मैं भी इसी काल्पनिक परेशानी से ग्रस्त रहा ..पढ़ाई में मन नहीं लगता था...यही सोच कर कि पता नहीं यह कौन सा लफड़ा है... किताब सामने होती लेकिन अकसर ध्यान इस तरफ ही रहता कि क्या यह मेरे साथ ही हो रहा है...यहां तक कि क्लास में दोस्तों के साथ भी इस तरह की तकलीफ़ के बारे में कभी चर्चा नहीं की ...वे मेरे पढ़ाई लिखाई के सब से महत्वपूर्ण दिन थे..लेेकिन मैं अपने पोटेंशियल से बहुत कम पढ़ाई-लिखाई करता .. मन ही नही ंलगता थी, क्या करता! 

जब मैंने वह रेडियो लगाया उस के बाद वह प्रोग्राम बस पांच दस मिनट ही चला ..लेेकिन मुझे यह कल्पना ही इतनी सुखद लगी कि बहुत बढ़िया, इस तरह की सटीक जानकारी यंगस्टर्ज़ तक इतने बड़े मीडिया के द्वारा पहुंचाई गई ....आकाशवाणी लखनऊ को बहुत बहुत साधुवाद...कल निदेशक को या तो चिट्ठी लिखूंगा, वरना उन से मुलाकात ही करने चला जाऊंगा..

अच्छा लगता है जब लोग इस तरह के मुद्दों के बारे में बोलने लगते हैं...गंदी बात, गंदी बात वाले घिसे पिटे दिन नहीं रहे...अगर युवाओं में मन में कोई उलझन है तो उसे दूर करना ही होगा....मैंने अपने २००८ में लिखे लेख में भी यह गुज़ारिश की थी कि सभी पिता अपने तरूण बेटों को इस तरह के मुद्दों के बारे में समय तरह बताते रहा करें.. यह निहायत ज़रूरी है।

कुछ सप्ताह पहले यहां लखनऊ में यूनीसेफ की तरफ़ से एक बहुत बड़ा कार्यक्रम था स्कूली छात्राओं के लिए जिस में उन्हें सैनिटरी नैप्किन के महत्व आदि के बारे में बताया गया था ... मीडिया में इस मुद्दे को प्रमुखता से कवर किया गया था कि लड़कियों की पर्सनल हाइजिन (menstrual hygiene) ठीक न होने की वजह से उन में आगे चल कर महिलाओं से संबंधित कुछ रोग होने की संभावना ज्यादा होती है ...यूनिसेफ को बहुत बहुत बधाई ..अगर एक बार इस तरह की अलख जगी है तो इस की रोशनी देश के हर स्कूल की उस उम्र की बच्चियों तक भी पहुंचनी चाहिए..

ये सब ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें पुराने दिनों की तरह चटाई के नीचे नहीं सरकाया जा सकता .... हर छात्र-छात्रा को उऩ के मन में उथल-पुथल पैदा करने वाली बातों का उचित समाधान तलाशने का पूरा अधिकार है!

आप इस मुद्दे के बारे में क्या सोचते हैं? ...लिखिएगा...

मेरा नौ-दस साल पुराना लेख... मैंने इसमें कभी भी कुछ बदलाव नहीं किया .. यह रहा उस का लिंक .. स्वपनदोष जब कोई दोष है ही नहीं तो!