बुधवार, 31 अगस्त 2016

कहानी लिखना कभी तो सीख ही लूंगा..

पिछले १५-१६ वर्षों से बेकार में कलम घिसते घिसते अभी तक एक कहानी लिखना सीख नहीं पाया...

शायद २००१ या २००२ की बात होगी, एक नवलेखक शिविर लगा था जोरहाट में १५ दिन के लिए...वहां पर बस एक कहानी लिखी थी, उस के बाद कभी यह काम नहीं हो पाया...

बहुत बार अपने ब्लाग के द्वारा भी लेखक मित्रों से पूछा...लेेकिन संतोषजनक जवाब नहीं मिला...किसी ने कहा कि जो आप लिख रहे हो, उसे कहानी ही समझो....किसी ने कहा कि महान् कथाकारों की ५००-६०० कहानियां पढ़ो...अपने आप रास्ता मिल जायेगा...मुझे यह सुझाव बहुत अच्छा लगा था..

मैं निरंतर पढ़ता रहता हूं...पुराने नये लेखकों को जिसे भी पढ़ने का मौका मिल जाता है, पढ़ लेता हूं...शायद सैंकड़ों कहानियां हिंदी-पंजाबी की पढ़ भी चुका हूंगा..लेकिन मेरी मोटी बुद्धि में कुछ नहीं पड़ता...मुझे तो कभी डैंटिस्ट्री पढ़नी मुश्किल नहीं लगी जितनी मुश्किल यह कहानी लिखनी जान पड़ती है ....

कल दोपहर १ बजे अचानक लखनऊ के मिजाज कुछ ऐसे खुशगवार दिखे थे...
सारी कोशिशें कर चुका हूं....दर्जनों या सैंकड़ों लेखकों को सुन भी चुका हूं...यहां लखनऊ में रहते हुए तो यह सिलसिला पिछले साढ़े तीन सालों से कुछ ज़्यादा ही रहा ... मैंने हमेशा साहित्यिक समारोहों में ही शिरकत करने को तरजीह दी हमेशा... पुस्तक मेले, लिटचेर फेस्टिवल, सेमीनार ...कुछ नहीं छोड़ा....लेकिन इतने सारे महान लेखकों की ज़िंदगी के बारे में और उन की कालजयी कृतियों के बारे में पढ़ कर मुझे इन हस्तियों के संघर्ष का, उन की तंगहाली का ...उन के द्वारा झेली गयी चुनौतियों का तो अच्छे से पता चल गया ...लेकिन मैं कहानी नहीं लिख पाया...

शायद आप के मन में भी यह प्रश्न आ ही गया हो कि यार, तुम कहानी लिखना ही चाहते क्यों हो, चुपचाप डैंटिस्ट्री करो और साथ में ब्लागिंग करते रहो ....इन कहानी-वहानी के चक्कर में पढ़ते ही क्यों हो! ....हां, ठीक है, वह तो मैं अपनी क्षमता अनुसार कर ही रहा हूं... लेकिन कहानी लिखने की भी मेरी जिद्द है ....

कहानी मैं इसलिए भी लिखना चाहता हूं क्यों कि इस में कोई भी लेखक अपने मन को अच्छे से खोल सकता है ...कोई चूं-चड़ाक नहीं करता ...अपनी ज़माने भर की बातें कह भी लेते हो और कहानी के रूप में कहने की वजह से यह सब बहुत आसान जान पड़ता है ...

हां, इग्नू ने १५ साल पहले हिंदी में सर्जनात्मक लेखन नाम का एक डिप्लोमा शुरू किया था...मैंने भी उसे ज्वाईन किया ...पहले कंटेक्ट प्रोग्राम में गया चार पांच दिन का था...फिरोज़ुपर से चंडीगढ़ गया छुट्टी लेकर ...लेकिन वहां पढ़ाने वाली विद्वान महिला इतनी ज्यादा अच्छी थीं कि उस मोहतरमा ने पहले ही दिन कह दिया....कोर्स के दौरान जितने भी कंटेक्ट प्रोग्राम होने हैं, उन में अटैंडैंस की चिंता न करिए आप लोग....वह सब की लग जाती है। साथ में उस की पढ़ाने में भी बिल्कुल रूचि नहीं थी....मैंने उसी रात फिरोज़पुर की वापिसी की गाड़ी पकड़ी और फिर से उस कोर्स की कोई किताब नहीं खोली....

एक तो उस कोर्स की किताबें थीं भी बड़ी मुश्किल ..कलिष्ठ हिंदी ...अब मेरे जैसे पंजाबी-भाषी लोगों को जिन का पाला हिंदी से मैट्रिक तक ही पड़ा हो, उन्हें कहां ये सब समझ में आए....कईं बार लगता है कि कुछ लोगों की जिद्द हमें लखनऊ ले आई .(एक कहानी तो वक्त आने पर इस पर भी लिखेंगे)...यह मेरी हिंदी के लिए भी अच्छा रहा ...मैं यहां के अखबारों, जन-मानस, अपने मरीज़ों से हिंदी को अच्छे से जाना ...भाषा की शैली के बारे में यहां के लोगों के उमदा संवाद से बहुत कुछ समझा...यही कुछ किया लखनऊ में रहते हुए...मुझे लगता कि जैसे मैं लखनऊ में अपनी हिंदी सुधारने ही आया हूं..

सोच रहा हूं कि यह कहानी ही तो नहीं लिख रहा मैं...हां, इग्नू के उस हिंदी लेखन वाली कुछ किताबें मेरे पास अभी भी बची पड़ी हैं, उन में से एक किताब है ...कहानी लेखन के आधारभूत नियम....पिछले कुछ दिनों से इसे पढ़ रहा हूं...अब यह समझ आ रही है क्योंकि लखनऊ प्रवास ने मेरी हिंदी को इन पुस्तकों को पढ़ने लायक तो कर ही दिया है ...निःसंदेह ...Thank you, Lucknow!

नावल, उपन्यास तो कभी नहीं, मैं उपन्यास लिखने की तो कभी कल्पना भी नहीं कर सकता ...लेकिन कहानी तो मैं सीख कर रहूंगा.... मुझे बहुत सी बातें कहनी हैं....मेरे मन में बहुत कुछ भरा है ...ब्लॉग पर वह लिखा नहीं जा सकता ...कहानियों में ही अपनी बातें कहा करेंगे.....कहानी सीखने के लिए अगर मुझे अपनी सर्विस भी छोड़नी पड़ी तो मैं वह भी कर जाऊंगा किसी दिन ....किसी उस्ताद की शागिर्दी भी करनी पड़ी तो भी मैं तैयार हूं....जब तक दिल की सभी बातें कहानियों में नहीं पिरो दूंगा, चैन नहीं आयेगा...

लेकिन हर कला के लिए मैं समझता हूं सतत प्रयास और अभ्यास की ज़रूरत है जो मैं नहीं कर पाता हूं ....बस, बक बक ज्यादा करता हूं, इस तरह का सर्जनात्मक काम कम....शायदी ख्याली पुलाव या हवाई किले अच्छे बना लेता हूं..

आज कल मैं प्रेम-चंद के रचना संचयन का अध्ययन कर रहा हूं...इस में एक कहानी मैंने आज शाम पढ़ी....इस का नाम था..दूध का दाम ....मुझे आखिर तक नहीं पता चला कि इस का अंत क्या होने वाला है, यह कहानी प्रेमचंद जी ने १९३४ में लिखी थी, उस समय हमारे देश में कितना छुआछूत था, इसे मैंने इसे पढ़ कर जाना ....बिल्कुल सही कहते हैं कि साहित्य किसी भी समाज का आईना होता है ... जो भी किसी समय में घटित होता है, साहित्यकार लोग उसे आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेजते रहते हैं...प्रेमचंद की साहित्य रचना को कोटि-कोटि नमन...

हां, मैं अकसर लिखता रहता हूं कि अगर आप के पास किताबें-वाबें नहीं हैं या आसानी से उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं तो आप वर्धा  हिंदी विश्वविद्यालय की इस साइट पर जा कर हज़ारों कहानियां, नावल, नाटक, कविताएं .....कुछ भी पढ़ सकते हैं .... www.hindisamay.com  ...इस का वेबलिंक यह रहा ... हिंदीसमय.... इस में सैंकड़ों लेखकों के नामों और कृतियों को क्रमवार रखा गया है ...उदाहरण के तौर पर आप मुंशी प्रेमचंद जी के लिंक पर क्लिक करेंगे तो इस पेज पर पहुंच जाएंगे...

दो साल पहले मुझे इस विश्वविद्यालय ने एक संगोष्ठी में वक्ता के तौर पर बुलाया था ....ब्लॉगिंग से जुड़ा कुछ विषय था... मुझे तब इस साइट का पता चला था...उस अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में हिंदी पर बहुत काम हो रहा है...बहुत भव्य एवं सुंदर कैंपस है ....

 कुछ कुछ बोरिंग सा लग रहा है यह सब लिखना ... सामने टीवी पर मेरे स्कूल के समय का एक सुपर-डुपर गीत चल रहा है..(one of my all time favourites!) .... बहुत बार पहले भी शेयर कर चुका हूं...एक बार फिर से ...बोरियत को भगाने के लिए ही सही .... आप भी सुनिए...