गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

दांतों का अपनी जगह से सरक जाना भी है पायरिया का लक्षण

यह ५०- ५५ वर्ष की महिला के दांतों की तस्वीर है.....आई तो थी ये दांत दिखाने नीचे वाले दांत....लेकिन उस ने पहले ही यह रिक्वेस्ट कर दी कि डाक्टर साहब, दांत छुईएगा मत। उसे डर था कि दांतों को चैक करने से दांत और भी हिल जाएंगे। ठीक है, जैसा वह चाहें। लेकिन देख तो सकते ही हैं।

आप इस महिला के नीचे वाले दांत इस तस्वीर में देख रहे हैं......इस ने यह भी बताया कि ये जो नीचे के दांत हैं इन सब में पहले थोड़ी थोड़ी जगह थी लेकिन अब दो दांत को बिल्कुल आपस में सट गये हैं......ऊपर वाले अगले दांतों में जैसा कि आप भी देख सकते हैं, गैप है......यह महिला बता रही थीं कि यह गैप बढ़ गया है...और एक दांत थोड़ा सा नीचे सरका दिख रहा है।

एक अहम् बात जो मैं इस पोस्ट के माध्यम से आप से शेयर करना चाहता हूं ... वह यह है कि अगर आप को लगे कि आप के दांतों में गैप बढ़ रहा है, या जहां पर पहले गैप नहीं था, अब बनने लगा है....और या फिर दो दांतों की आपस में घनिष्ठता ऐसी बढ़ने लगी है कि वे पहले से ज़्यादा पास पास आने लगे हैं या फिर कोई दांत अपनी जगह से उठा हुआ या लटका हुआ महसूस हो रहा तो .....यह सब पायरिया रोग के लक्षण हो सकते हैं......आप अपने दंत चिकित्सक से अवश्य मिल लें।

दरअसल होता यह है कि पायरिया में पहले तो मसूड़ों की सूजन होती है.....आम तौर पर लोग इसे अपने ही ढंग से.. कुछ मंजन वंजन लगा कर ठीक करने की नाकामयाब कोशिश करते रहते हैं...या फिर ब्रुश ही करना छोड़ देते हैं......इस का परिणाम यही होता है कि मसूड़ों की यह सूजन नीचे जबड़े की हड़्डी की तरफ़ बढ़ कर उसे नष्ट करना शुरू कर देती है....जिस के परिणामस्वरूप दांतों का यह हिलना-डुलना और अपनी जगह बदलना शुरू हो जाता है.....इसे डैंटल भाषा में हम कहते हैं......Pathological Migration of Teeth.

रही बात इस महिला की .....आज इस की पहली विज़िट थी.....आएंगी यह दो दिन बाद अपने पेस्ट और ब्रुश के साथ.....इलाज तो करेंगे ही ...चांद दिलाने का वायदा तो नहीं किया जा सकता लेकिन जो स्थिति है उसे तो बदतर होने से हर समय हम रोक ही सकते हैं.......यही बात जब मैंने उस से कही तो उस की समझ में आ गई। थैंक गॉड!!

खुरदरे मंजन की बरबादी की इंतहा

खुरदरे मंजन इस देश की एक विषम समस्या है.. कुछ भी फुटपाथ, बस स्टैंड आदि पर बिकता रहता है.. मंजन के नाम पर.. ब्रेंडेड मंजन-पेस्टें भी कहां कम है, कल मैंने एक मरीज़ के दांतों का उदाहरण लेकर कुछ लिखा था... खुरदरे मंजन दांत काट देते हैं।

डैंटल एबसेस ..घिसे हुए दांत की वजह से
और कल शाम को ही वह सूजे हुए मुंह के साथ आ गया.....अंदर देखने पर जो दिखा यह वह तस्वीर है। यह उसी दिन वाला ही मरीज़ है जिस का लिंक मैंने ऊपर दिया है।

बड़ी परेशानी में था, दांत चैक करने पर भी उसे परेशानी हो रही थी.....वैसे तो चैक करने लायक कुछ खास था भी नहीं...यह जो आप सूजन देख रहे हैं....यह भी खुरदरे मंजन का ही प्रकोप है......होता क्या है ना कि खुरदरे मंजन दांतों को घिसते रहते हैं.....और यह तब तक चलता ही रहता है जब तक दांत की नस नंगी नहीं हो जाती (उस के बाद भी चलता ही है यह सिलसिला)... छोटी मोटी दर्द होती है, मरीज़ बाज़ार से लेकर कोई टेबलेट खा लेते हैं......यह फिर दांत के फोड़े (dental abscess) का रूप धारण कर लेता है.... जैसा कि आप इस मरीज़ में देख रहे हैं......आप देखिए कि इस का किनारे का एक दांत पूरी तरह से घिसा हुआ है.....जिस की वजह से यह सब पस जैसा आप देख रहे हैं...

मैंने इस में से पस निकालनी चाहिए लेकिन उस ने मना कर दिया......कोई बात नहीं, दवाई दे दी है.....एक दो दिन में यह फोड़ा अपने आप ही फूट जाएगा......वरना उसे फिर से दो दिन बाद बुलाया है.....फूटे या ना फूटे तो भी.......बाद में उस दांत की रूट कनाल ट्रीटमैंट (RCT) की जायेगी और यह ठीक हो जाएगा।

तो आपने देखा कि ये खुरदरे मंजन कितने खतरनाक हैं हमारी सेहत के लिए......बच के रहिएगा। 

नुकीले दांत जुबान काट देते हैं

चार वर्ष पहले एक मरीज़ मेरे पास आया था जिस के टूटे-फूटे दांत की वजह से उस की जुबान पर एक भयंकर सा दिखने वाला ज़ख्म बन गया था। जिस दिन वह मेरे पास आया था बड़ा डरा हुआ था, मैंने उसे समझाया कि इस टूटे दांत को पहले उखाड़ देते हैं.....वही किया, और बिना कुछ किए ही वह ज़ख्म एक हफ्ते में अच्छा होने लगा था। इस की रिपोर्ट आप मेरे इस इंगलिश ब्लॉग पर देख सकते हैं... Broken Teeth Damage Tongue. 

उस से भी पहले.... लगभग पांच वर्ष पहले एक ऐसा ही मरीज़ था जिस के नुकीले दांतों ने जुबान पर चोट कर कर के कैंसर की बीमारी उत्पन्न कर दी थी, उस के बारे में जान कर बड़ी परेशानी हुई थी......वह आदमी ज़्यादा दिन निकाल नहीं पाया था...

आज भी यह जो महिला आई....यह भी कैंसर के खौफ़ से ही ग्रस्त थी......आप देख सकते हैं इस तस्वीर में किस तरह से इस की जुबान पर भी यह ज़ख्म बना हुआ था। यह पिछले लगभग छः महीनों से है.....बता रही थी कि पता नहीं कैसे हो गया, लेकिन अभी कुछ दिनों से खाना खाने में दिक्कत है, अपनी लार भी नहीं निगल पाती और नीचे जबाड़े के नीचे भी सूजन और दर्द होने लगा है।

नुकीले दांत ने बना दिया जुबान पर ज़ख्म 
आप यहां यह भी देख सकते हैं कि किस तरह से एक टूटा हुआ नुकीला दांत इस ज़ख्म के सामने ही पड़ा है जिस के बार बार घर्षण करने से यह ज़ख्म हो गया है। उसे बताया तो उसे इत्मीनान हुआ....उस की परेशानी देखते हुए अभी तो उस टूटे हुए दांत की नोक ही खत्म कीं और ज़ख्म पर लगाने वाली कुछ दवाई दे दी है.......उम्मीद है कि तीन चार रोज़ में यह ज़ख्म ठीक होने लगेगा...देखने में तो यह कैंसर नहीं लग रहा....बाकी, कुछ दिन बाद ही पता चल पाएगा.....जब यह घटने लगेगा। चार दिन बाद यह वापिस दिखाने आएगी।

नुकीले दांत जुबान में और मुंह में तरह तरह की परेशानी पैदा करते हैं, इन का इलाज करवा लेना चाहिए ...विशेषकर अगर आप को लगे कि इन की वजह से मुंह में कहीं न कहीं ज़ख्म बन रहा है।

अपना ध्यान रखिएगा, एक बात याद आ गई ....
खुदा को भी नहीं पसंद सख्ती जुबान में
इसीलिए नहीं दी हड्डी जुबान में।।

बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

काश, तहज़ीब भी एक विषय होता...

मुझे कईं बार उन बाप बेटे की याद आ जाती है.. अरसा बीत गया इस बात को.....२० वर्ष का वह लड़का था और उस के पिता की उम्र ४५-५०के बीच ही थी....पिता को एडवांस कैंसर था। जिस दिन वे मेरे से बात कर रहे थे.. वे इलाज की बात तो कम कर रहे थे...बार बार एक डाक्टर की बात याद कर रहा था वह लड़का.....याद करते करते रूआंसा हो गया था....दरअसल वे जिस डाक्टर के पास गये थे, उसने बस उन्हें एक विशेष अस्पताल में रेफर करना है....औपचारिकता होती हैं कईं सरकारी विभागों की....तो उस डाक्टर ने इन्हें देख कर कह दिया....."एक तो आप बहुत जल्दी आ गये हो।"

मैं उस दिन उस लड़के के मुंह से यह बात सुन कर बहुत दुःखी हुआ था। एक तो वे लोग पहले ही से परेशान...किस तरह से जूझ रहे होंगे वे इस सच्चाई से....ऊपर से एक पढ़ा लिखा डाक्टर इस तरह का भद्दा कटाक्ष कर दे....क्या यह किसी अपराध से कम है?

सोचने वाली बात यह है कि क्या उन्हें नहीं पता मरीज की हालत देखते हुए कि देर हो गई.....फिर उसे यह याद दिला कर और इस तरह के बेहूदा तरीके से तकलीफ़ पहुंचाने से क्या हासिल।

ऐसे भी एक डाक्टर को जानता हूं जिस के बारे में बुज़ुर्ग औरतें कहा करती थीं कि हर उम्रदराज़ इंसान को मजाक के अंदाज़ में यही कहता है कि बाबा, माता, हुन गोड़ेयां च ग्रीस खत्म हो गई ऐ.. (बाबा, माता, अब घुटनों में ग्रीस खत्म हो गई है)...क्या यह बताने के लिए तुम बैठे हो। ग्रीस खत्म है, कम है, अब ग्रीस वापिस नहीं लगने वाली, ये सब बातें बुज़ुर्ग लोग हम से कहीं बेहतर जानते हैं। तुम्हारा काम था... उन को हौंसला देना, उम्मीद की चिंगारी लगा देना......अगर यह भी नहीं कर सकते, तो काश, तुम डाक्टर ही न बने होते।

कुछ अरसा पहले शायर मुनव्वर राना साब को सुनने गया था, उन की बात याद आ गई....
हम फ़कीरों से जो चाहे दुआ ले जाए..
खुदा जाने कब हम को हवा ले जाए...
हम तो राह बैठे हैं ले कर चिंगारी, 
जिस का दिल चाहे चिरागों को जला ले जाए।।

ये तो चंद उदाहरणें हैं दोस्तो, यह सच है कि हमें बात करने की तहजीब ही नहीं है। हम बोलने से पहले सोचते नहीं है, शब्दों को तोलते नहीं हैं......

लेकिन मेरी एक आब्ज़र्वेशन यह भी है कि जितने ज़्यादा पढ़े लिखे और अनुभवी चिकित्सक होते हैं उन में उसी अनुपात में विनम्रता भी बढ़ जाती है। एक नाम याद आ गया .....टाटा अस्पताल के डा एस ए प्रधान का, जब मैं TISS में १९९२ में पढ़ाई कर रहा था तो वे हमें एक विषय पढ़ाते थे ...मैं दंग रह जाता था उन की विनम्रता को देख कर, बातचीत का ढंग, इतनी शांतिपूर्ण स्वभाव......क्या कहने !! वैसे तो मैं ऐसी बहुत सी शख्शियतों को जानता हूं और इन से निरंतर इंस्पीरेशन लेता हूं।



हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन का कोर्स था ... एक विषय हमें मैडीकल एंड साईकैट्रिक सोशल वर्क भी पढ़ाया जाता था.....आंखें उस दौरान भी खुली कि चिकित्सीय समस्याओं का सामाजिक, मनोवैज्ञानिक पहलू भी इतना नाज़ुक होता है। काश, मैडीकल कालेजों में यह विषय चिकित्सा शिक्षा में भी सम्मिलित कर लिया जाए तो बात ही बन जाए।

चिकित्सा प्रणाली में काम कर रहे हर व्यक्ति को मानवीय पहलुओं को समुचित ज्ञान होना नितांत आवश्यक है, बिना इस के तो सब कुछ एक धंधा है, जितनी मरजी बदतमीजी करो, जितना मरजी शोषण करो, कोई पूछने वाला नहीं, जितनी मरजी कमाई करो.........क्योंकि अब शिकार फंसा हुआ है। धिक्कार ही तो है इस तरह के रवैये पर।

अब मैं अपनी तहज़ीब की बात भी कर लूं.......मेरे मन में विचार आया और मैंने इस विषय पर अपने भाव प्रकट कर दिए.....इस का यह मतलब तो नहीं कि मैं बहुत तहज़ीब वाला इंसान हूं.......ऐसा नहीं मानता मैं, जैसे मैं किसी की बात यहां लिख रहा हूं, कोई मेरी बदतमीजीयों के किस्से कहीं और साझे करता होगा........ज़रूर।

यह पोस्ट केवल यह याद दिलाने के लिए......अपने आप को सब से पहले......कि मरीज़ से ढंग से बात करना... सब से ज़रूरी बात है.....चिकित्सा जितना ही महत्व रखती है यह बात कभी कभी......अकसर यह भी सोचता हूं कि वह डाक्टर ही क्या, जिस से केवल बात कर के ही मरीज़ अपने आप को आधा ठीक ना महसूस कर पाए........दवाईयां तो बाद में काम करेंगी ही।

नोट.......सारी बातें सच हैं, कुछ भी गढ़ने की आदत नहीं है...गढ़ूं भी तो आखिर क्यों, क्या हासिल!!

बीड़ी अगर मुंह जला सकती है.....

 दाईं तरफ़ के गाल के अंदर की तस्वीर 
जिस आदमी के मुंह की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं इस की उम्र ५९ वर्ष है .....मेरे पास दांत के इलाज के लिये आया था दो दिन पहले।

यह व्यक्ति बीड़ी पीता है, लेकिन इसे इस तरह के गाल के ज़ख्मों की वजह से कोई परेशानी नहीं है, इन्हें बस कभी कभी मिर्ची लगती है मुंह में। इन्हें यह भी नहीं पता कि मुंह में ऐसे कुछ ज़ख्म भी हैं।

जब मैंने इन्हें कहा कि आप ओपीडी में लगे आइने में देख कर आएं तो इन्हें कुछ नहीं दिखा.......जब मैंने ये तस्वीरें इन्हें दिखाईं तो यह मेरी बात को समझने की कोशिश करते हुए नज़र आए।

यह जो आप इन के दाएं और बाएं गाल में लाल से जख़्म देख रहे हैं.....इसे एरिथ्रोप्लेकिया के नाम से जाना जाता है......ये बीड़ी-सिगरेट के पीने से होते हैं.....यह भी कैंसर की एक पूर्वावस्था ही है.......we call it Precancerous Oral Lesion.

बाईं तरफ़ के गाल का अंदरूनी हिस्सा ..बीड़ी का प्रकोप
इन्हें समझाया तो है बहुत, प्रेरित किया है कि छोड़ दें अभी भी ये सब तंबाकू-वाकू की आदतें। उम्मीद है मान जाएंगे। इस तरह के ज़ख्मों का इलाज ही यही है कि पहले तो तंबाकू को त्याग दिया जाए, फिर कुछ दिनों के बाद इस ज़ख्म का इलाज किया जाए......कोई भी क्रीम या जैल आदि इस तरह के ज़ख्म पर लगाने से यह ज़ख्म ठीक होने वाला नहीं है। इस का पूरा इलाज होना चाहिए ... और सही टैस्टिंग भी ज़रूरी है।

धूम्रपान करने वाले लोगों में इस तरह के ज़ख्म मुंह में बहुत ज़्यादा संख्या में पाए जाते हैं......ज़रूरत है उन्हें अवेयर करने की कम से कम इस अवस्था में तो इस ज़हर के सेवन को बंद कर दें.........भाग्यवान होते हैं जो बात मान लेते हैं ....वरना कुछ भी हो सकता है........इस तरह के ज़ख्म मुंह के कैंसर को भी जन्म दे सकते हैं। फिर कोई कह नहीं पाता कि पहले किसी ने सचेत नहीं किया था।

मैं अकसर इन मरीज़ों को कहता हूं कि देखो भाई अगर बीड़ी-सिगरेट मुंह में इस तरह से उत्पात मचा कर इस तरह के जख्म पैदा कर सकती है....तो शरीर के अंदरूनी सभी हिस्सों में यह क्या क्या नहीं करती होगी?..आप फेफड़ों की कल्पना कीजिए, शरीर की खून की नाडियों का सोचें, उन्हें तो हम इतनी आसानी से नहीं देख पाते जितना मुंह में  झट से झांक लेते हैं........इसलिए ये बातें मेरे मरीज़ों पर बहुत असर करती हैं........और यह बिल्कुल सच बातें हैं।

बीड़ी के बारे में लिखते ही, बीड़ी-सिगरेट का घोर विरोधी होते हुए भी मुझे गुलज़ार साहब का वह गीत याद आ ही जाता है........काश, बीड़ी सिगरेट का ध्यान आते ही पब्लिक वह गीत सुन कर ही काम चला लिया करे.........



खुरदरे मंजन दांत काट देते हैं.....पेश है प्रूफ़

खुरदरे मंजन की मार खाए ये आगे के दो दांत 
यह पुरूष जिस के अगले दो दांतों की तस्वीर आप देख रहे हैं, इस की उम्र ५०-५५ के करीब की है, इसे इस तरह के आगे के दो दांत घिसे होने की वजह से कोई शिकायत नहीं है, इन दांतों का तो इसने मेरे से कोई ज़िक्र ही नहीं किया.....यह दूसरे किसी दांत के इलाज के लिए मेरे पास आया था।

सरकारी अस्पताल में दंत चिकित्सक होने की वजह से बहुत सा समय लोगों का तंबाकू-ज़र्दा छुड़वाने में या फिर खुरदरे मंजनों के बुरे प्रभावों पर प्रवचन देने में निकल जाता है। मुझे ऐसा लगता है कि शायद निजी प्रैक्टिस कर रहे दंत चिकित्सकों के पास ना ही तो इस तरह की बातों के लिए इतना समय ही होता है और शायद न ही मरीज़ ये तंबाकू-वाकू की बातें उन के मुंह से सुनने में रूचि ही रखते होंगे.....यह सोच कर कि फीस भर के यह सब तो थोड़े ना सुनने आए हैं। यह इसलिए भी कह रहा हूं कि इस तरह की चीज़ों की इतनी ज़्यादा पब्लिक एक्सेप्टेंस हो चुकी है कि मेरे पास कईं बार मरीज़ जब दांत दिखाने आते हैं.....तो मुंह में पान दबाया होता है। आज से बीस वर्ष पहले मैं भड़क जाया करता था, लेकिन अब समझ चुका हूं कि इस तरह से ओवर-रिएक्ट करने से कुछ भी तो हासिल नहीं होता। शांति से कह देता हूं कि ज़रा मुंह ही साफ़ कर के आते तो दांत तो दिख जाते।

हां, तो जिस तस्वीर को आपने देखा .. वह आदमी अपने दांतों पर एक पापुलर ब्रांड का मंजन पिछले छः वर्षों से कस के रगड़ रहा था, रिजल्ट आप के सामने है। मैंने पूछा कि वह मंजन तो आप सभी दांतों पर ही घिसते होंगे तो कहने लगा कि करता तो हूं, चूंकि ये अगले दो दांत कुछ ज़्यादा ही पीले से थे, इन पर विशेष ध्यान दिया करता था।

आपने देखा कि किस तरह से ये खुरदरे मंजन दांतों को नष्ट कर देते हैं। बीसियों बार इस तरह के विषय पर लिख चुका हूं.....बार बार लिखता हूं क्योंकि मुझे लगता है कि विषय को दोहराना भी ज़रूरी है, वरना हम भूल जाते हैं।
ये कटे-फटे दांत तो मैं इस के ठीक कर ही दूंगा......आराम से हो जाएगा.......पता भी नहीं चलेगा कि इन पर कुछ काम हुआ है।

कल मैं एक माल में गया था.....वहां पर बीसियों तरह की पेस्टें मंजन देख कर, उन के चमकीले, खूबसूरत कवर देख कर अच्छा लग रहा था.....यह भी अरबों-खरबों का एक व्यवसाय है -- किसी को भी भ्रमित किया जा सकता है.....मैंने जब उस पापुलर ब्रैंड की पेस्ट को उठाया तो उस पर साफ़ लिखा था कि उस में गेरू मिट्टी भी मिली हुई है......ठीक है, इंगलिश में लिखा हुआ था, लोग समझ ही नहीं पाएंगे.......लिखा था ... Gairic powder..... यह गेरू मिट्टी ही होती है...इस मिट्टी की वजह से जब इस तरह के मंजन को दांतों पर घिसा जाता है तो दांत पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं, मैंने अपनी फ्लिक्र फोटोस्ट्रीम पर भी इस तरह की कईं तस्वीरें डाली हुई हैं, लेकिन पब्लिक को बार बार सचेत करना ज़रूरी जान पड़ता है।

लगे हाथ यह भी बता ही दिया जाए कि यह गेरू मिट्टी का लफड़ा है क्या, यह कौन सी मिट्टी है,  तो सुनिए जनाब यह वह मिट्टी है जो बाज़ार में बिकती है जिसे हमारा माली पानी में घोल कर गमलों को लाल रंग देने के लिए इस्तेमाल करता है।

भूलने वूलने की बात से मुझे यह सुंदर सा गीत याद आ गया.....सुनिए आप भी.....

तालू की हड्डी भी बढ़ सकती है...

तालू के बीचो बीच बढ़ी हुई हड्डी 
यह जो तस्वीर आप देख रहे हैं एक ३५-४० वर्ष की महिला की है, इस के तालू में आप नोटिस कर रहे हैं कि बीच में हड्डी बढ़ी सी हुई है......उठी सी हुई है।

यह मेरे से अपने दांतों का इलाज करवा रही है.....मैंने पूछा कि क्या उसे पता है कि उस के तालू में कुछ है। उसने कहा...नहीं। जब मैंने उसे यह तस्वीर दिखाई तो वह थोड़ी परेशान हो गई, मैंने कहा ....नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है जिस के िलए परेशान हुआ जाए।

आखिर यह है क्या, इस तरह से जो इस के तालू के बीचो बीच उठा हुआ है.......यह जो उठी हुई हड्‍डी आप देख रहे हैं इसे मैडीकल भाषा में टोरस प्लैटिनस (torus palatinus) कहा जाता है। इस का कोई भी नुकसान नहीं है, न ही अकसर इस का कोई इलाज चाहिए होता है।

मैंने उसे कहा कि दांतों की साफ़-सफाई की तरफ़ पूरा ध्यान दिया करे,  जब बुढ़ापे में नकली दांतों का सैट लगेगा (अगर ज़रूरत पड़ी तो) तो इस तरह की हड्‍डी कईं बार परेशानी पैदा करती है.....उसे वहां से काटना पड़ता है। यह सुन कर वह हंसने लगी।

जी हां, यह महिला का सौभाग्य ही है कि उसे पता ही नहीं था कि उस के तालू में ऐसा कुछ है, वरना इस torus palatinus की वजह से कुछ मरीज़ों के दिल में यह भम्र हो जाता है कि यह कैंसर जैसा कुछ है .......जब वे किसी दंत चिकित्सक के पास जाते हैं तो उन का भ्रम का निवारण हो जाता है। 

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

आमिर खान के नाम एक ख़त

हैलो आमिर,

कैसे हो ?...वैसे आज सुबह तक मेरी कोई ऐसी प्लॉनिंग नहीं थी तुम्हें ख़त लिखने की। आज सुबह जब हिन्दुस्तान अखबार देखा तो बहुत ज़्यादा दुःख हुआ... इसलिए सोचा कि आज तो एक ख़त लिख ही देता हूं। 

विषय पर आने से पहले मैं यह बताना चाहता हूं कि मेरा तुम से तारूफ़ अस्सी के दशक में हुआ, जब उस दशक के अंत में मैं होस्टल में रहता था तो तुम्हारी वह फिल्म जो जीता वही सिकंदर का वह गीत हमारी फ्लोर के कमरे में खूब बजा करता था... पापा कहते हैं बड़ा काम करेगा। वह उम्र का कसूर था। 

फिर कुछ वर्षों बाद जब "अकेले तुम अकेले हम" आई....तो वह फिल्म अच्छी लगी। फिर राजा हिंदोस्तानी के गीत सुनते सुनते मेरा बेटा जवान हो गया.....और अभी भी जब उस के गाने कहीं बजते दिखते हैं तो कहता है कि पापा, मैं ये गीत कितनी बार सुन चुका हूं.....फिर हंसता है। 

उस के बाद रंग दे बसंती आई.....लोगों को बहुत पसंद आई.....पता नहीं मुझे कुछ खास नहीं लगी। हां, उस के बाद तारे ज़मीं पर .....जितनी तारीफ़ की जाए कम है। उस के बाद जब थ्री-इडिएट्स आई ...तो बहुत मज़ा आया। 

फिर टीवी पर सत्यमेव जयते शुरू हुआ....दो तीन एपिसोड देखे, फिर जब पता चला कि एक एपीसोड का तुम्हें चार करोड़ रूपया मिलता है......(पता नहीं उस में कितनी सच्चाई है, मैं नहीं जानता) ...लेकिन फिर पता नहीं क्या हुआ जब से यह पता चला तब से वह प्रोग्राम फिर देखने की कभी इच्छा ही नहीं हुई। आज तक फिर से इच्छा हुई ही नहीं।

अब बात पर आता हूं....... हां, तो आज की अखबार की जो खबर थी उस का शीर्षक था..... पीके बनने के लिए आमिर ने खाए १०,००० पान। 
आज की अखबार की खबर.. 
यह खबर पढ़ कर बहुत अजीब लगा.....अजीब क्या, बहुत बुरा लगा.......क्योंकि बहुत से युवाओं के लिए तुम शायद रोल-माडल हो, इसलिए जब उन्हें पता लगेगा कि तुम ने एक दिन में कम से कम ५० से ज्यादा पान खाए और कुल मिला कर इस फिल्म की शूटिंग के लिए १०,००० पान तो खाए ही होंगे, वे कहीं इस से इंस्पायर ही न हो जाएं।

तुम ने इतने पान असल में खाए कि नहीं......मैं नहीं जानता लेकिन मैं इतना जानता हूं कि पान खाना एक जानलेवा शौक साबित हो सकता है। पिछले ३० वर्षों से दांतों का एक साधारण सा डाक्टर हूं......१९९२ में पहली बार मुंह के कैंसर का मरीज देखा था, पान रखता था होठों के अंदर...और मुंह के कैंसर की चपेट में आ गया। 

उस के बाद इन २२ वर्षों से निरंतर गुटखे, पानमसाले, पान, तंबाकू की विनाश लीला देख रहा हूं..... इसी ब्लॉग पर बीसियों ऐसे ही मरीज़ों के दर्द की कहानियां दर्ज हैं, कभी फुर्सत में देख लेना। 

जिस तरह से मुंह के कैंसर के मरीज़ तिल तिल मरते हैं, यह देखना बड़ा दुःखद लगता है। 

मैंने डैंस्टिस्ट्री कम की है, लोगों को तंबाकू के बारे में सचेत ज़्यादा किया है, इस काम को मैंने एक मिशन की तरह करने की ठान रखी है, सुबह से शाम तक लोगों के दिलों में इन सब चीज़ों के बारे में नफ़रत पैदा करता रहता हूं। 

क्या लिखूं यार, अब, लिख दिया जितना लिखना था, तुम भी समझदार हो, आशा है कि इस बात को ज़्यादा पब्लीसाइज़ नहीं करोगे कि तुम ने कितने पान खाए......और यह जो हिंदुस्तान अखबार वालों ने कर दी है, इस का भी कुछ करोगे.......ताकि तुम्हारे रोल माडल कहीं इसी राह पर ही न चल पड़ें, मुझे ऐसा डर लगता है.......... आज के बहुत से युवा पहले ही से इन सब चीज़ों में लिप्त हैं। 

अगर तुम यह कहना चाहते हो कि पान ही तो है, क्या फ़र्क पड़ता है,..........नहीं, बहुत फर्क पड़ता है, तंबाकू वाला पान तो मुंह में सब तरह के लफड़े करता ही है, यह बिन तंबाकू वाला पान भी सुपारी की वजह से मुंह में बहुत उत्पात मचाता है.......मैंने कहा ना कि मैंने पिछले सात-आठ वर्षों से अपने ब्लॉगों में इन सब लोगों को व्यथा को दर्ज कर रखा है। 

कुछ दिन पहले मेरे पास एक आदमी आया है..जिस का मुंह खुलना बंद हो गया था.......लेकिन उस ने गुटखा-पानमसाला नहीं छोड़ा, मुंह का कैंसर इतना बढ़ गया था कि वह कितना फैल चुका है, पता ही नहीं चल रहा था, मैं उसे देख कर बहुत विचलित हुआ.....ऐसी ही एक ५०-५५ वर्ष की महिला भी कुछ दिन पहले आई.....मुंह में पान रखने की वजह से मुंह के कैंसर की वजह से नीचे वाले जबड़े की सारी हड्डी गल चुकी थी.........कुछ भी हो, इन मरीज़ों के साथ बहुत प्रेम से पेश आना होता है, इन की हर बात मान लेने की इच्छा होती है, मान भी लेता हूं, कारण लिखने की ज़रूरत नहीं है। 

बस, यार, तुम ज़रा इस पीके की पब्लिसिटी के दौरान भी पान को ग्लोरीफाई मत कर देना.......प्लीज़......बहुत कृपा होगी........पता नहीं खाई के पान बनारस वाले अमिताभ को देख कर कितनों ने यह शौक पाल लिया होगा.......नहीं जानता।

एक सलाह और.......चूंकि तुम १०००० पान थोड़े से अरसे में खा चुके हो, तो बेहतर होगा अपने मुंह का निरीक्षण भी करवा लेना.......ठीक रहेगा.......वैसे तो तुम जैसे लोगों के लिए यह कोई समस्या नहीं है...जितनी बार भी चैक-अप करवा लो, लेकिन सोचना उस आदमी के बारे में है जो मुंह का एडवांस कैंसर होने पर ही डाक्टर के पास पहुंच पाता है। 

आशा है कि तुम मेरी लिखी किसी बात को अन्यथा नहीं लोगो.......अगर तुम्हें मैं यह ख़त न लिखता तो मेरे मन में बोझ रहता। अब यह ख़त तुम्हारे तक पहुंचने की बात है तो १५ वर्ष पहले एक लेखक ने एक किस्सा सुनाया था कि एक ख़त को किसी ने बोतल में बंद कर के समुंदर में छोड़ दिया इस उम्मीद के साथ यह सही हाथों में पहुंच ही जाएगा, मैं भी ऐसी ही उम्मीद कर रहा हूं। 

पीके की सफलता के लिए शुभकामनाएं........
डा प्रवीण चोपड़ा...

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

भूल सुधार करनी मुश्किल तो है..फिर भी..

सच में भूल सुधार करना बड़ा मुश्किल काम है, लेकिन फिर भी कईं बार करना पड़ता है। अब मैं भी यही काम कर रहा हूं।

आज सुबह मैंने एक पोस्ट लिखी थी कि मुझे लगा कि मेरे फ्लैट के आसपास की बिल्डिंग से कहीं से १५-२० मिनट तक किसी महिला के रोने की आवाज़ आती रही, बीच बीच में किसी बच्चे के रोने की आवाज़ भी आ रही थी। मुझे लगा कि कोई महिला पिट रही है। लंबी-चौड़ी पोस्ट मैंने उस पर लिख डाली। मैंने अपना मन भी बना लिया कि और तो कुछ मेरे से होगा नहीं, लेकिन मैं हाउसिंग सोसायटी के सैक्रेटरी के नोटिस में तो यह सब लेकर आऊंगा ही कि वह कुछ तो करे इस तरह की घृणित हरकतों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए।

लेकिन आज मुझे एक प्रैक्टीकल सबक मिल गया कि जब तक अपनी आंखों से ना देखो, किसी बात पर यकीन मत करो, किसी बात पर विश्वास न करो।

तो हुआ यूं ......आज शाम को अभी दो एक घंटे पहले ही जब मैं ग्राउंड फ्लोर पर गया.....जैसे ही मैं बेसमैंट पार्किंग में जाने लगा तो मुझे सुबह जैसी आवाज़ें फिर से सुनाई देने लगीं....मैं ठिठक कर रूक गया कि देखूं तो सही कि ये आवाज़ें आ कहां से रही हैं।

अरे यह क्या, मैं हैरान रह गया यह देख कर कि ये आवाज़ें जो मैंनें सुबह भी लगभग आधा घंटा सुनी थीं, ये तो दरअसल लगभग १० वर्ष के एक लड़के की थीं जो एक स्पैशल, डिफरेन्टली एबल्ड लड़का था... वह ज़ोर ज़ोर से दहाड़ रहा था, और उसका बड़ा भाई या उन के घर का कोई वर्कर उसे काबू करने की कोशिश कर रहा था। बिल्कुल वही आवाज़ें जो मैं कभी कभी सुना करता था। सारी बात समझ में आ गई।

राहत मुझे इस बात की तो हुई कि सुबह की आवाज़ें किसी पिट रही महिला की नहीं थीं.........लेकिन इस स्पैशल बच्चे की मनोस्थिति मन कचोट गई। ईश्वर उसे भी सेहत प्रदान करे।

आज फिर किसी नामर्द ने बीवी पर हाथ उठाया...

दीवाली के दिन हम सब देवी की पूजा करते हैं....लेकिन घर की लक्ष्मी को कुछ लोग पीट भी लेते हैं।

लखनऊ की जिस प्राईव्हेट हाउसिंग सोसायटी में रहता हूं इस में या तो रिटायर्ड या सेवारत सरकारी मुलाजिम रहते हैं...कुछ पैसे वाले प्राईव्हेट बिजनेस वाले भी इस में रहने लगे हैं। कहने का मतलब कि कह सकते हैं कि पढ़ा लिखा तबका रहता है।

लेकिन कभी कभी किसी न किसी टॉवर से रोने चीखने की आवाज़ें आ जाती हैं......ये आवाज़ें वे नहीं होतीं जो बच्चों की आपस में मस्ती के दौरान एक दूसरे से पिट कर निकलती हैं, या मां बाप से थोड़ी बहुत चंपी होने पर निकलने वाली भी आवाज़ें नहीं होती ये, जिस घर में किसी की मौत हो उस घर से निकलने वाली आवाज़ें भी नहीं थी ये....अलग किस्म की आवाज़ें होती है ये... यह साफ़ पता चलता है।

अभी अभी मैं नाश्ता कर रहा था कि कुछ ऐसी ही अलग सी रोने चिल्लाने की आवाज़ें सुनीं........एक दो मिनट तो यही लगा कि ये किसी बच्चे की आवाज़ होगी.....लेकिन एक गैलरी, फिर दूसरी गैलरी में जाकर पता करने की कोशिश की.....लेकिन पता नहीं चल पाया कि आखिर आवाज़ कहां से आ रही है...किस बिल्डिंग से आ रही है......दोनों बॉलकनी में खड़े होकर यही लगा कि आवाज़ यहीं कहीं आसपास ही से आ रही है।

समय के साथ साथ आवाज़ तेज़ होती गई....साफ़ लग रहा था कि पिट रही कई औरत की ही आवाज़ थी, बीच बीच में किसी बच्चे की भी आवाज़ आने लगती थी...

बहुत अफसोस होता है जब कभी पता चलता है कि कोई नामर्द अपनी बीवी पर हाथ उठा रहा है.....सोचने वाली बात है कि क्या इस से ज़्यादा कोई निंदनीय काम हो सकता है?...

बेहद शर्मनाक.....आज के दौर में भी इस तरह के दरिंदे ये काम करते हैं, सोच कर भी घिन्न आती है।

कहने को कानून हैं बढ़िया बढ़िया.....लेकिन विभिन्न सामाजिक, पारिवारिक एवं आर्थिक कारणों की वजह से कितनी महिलाएं इन को इस्तेमाल कर पाती हैं......निरंतर शोषण का शिकार होती रहती हैं, रोज़ाना पिट कर पल्लू में मुंह दबा कर रोती रहती हैं।

एक टीवी में विज्ञापन भी तो आता था जिस में एक तरह से सोशल मैसेज था कि जब भी आप किसी महिला को घर में प्रताड़ित होते देखें तो कम से कम उस घर की एक बार घंटी ही बजा दें, ताकि उस नामर्द को एक अहसास हो जाए कि उस की करतूत को कोई देख-सुन रहा है।

लेकिन सोचने की बात है कि हम लोगों ने अभी तक ऐसे कितने घरों की घंटी बजाई.......कभी भी नहीं, शायद कभी बजाएंगे भी नहीं, क्योंकि हम अपने कंफर्ट ज़ोन से बाहर आना ही नहीं चाहते। मैंने भी देखिए कितनी सफाई से लिख दिया कि पता ही नहीं चला कि किस घर से आवाज़ें आ रही थीं, लेकिन मैं अपने मन से पूछता हूं कि क्या इस बात का पता लगा पाना सच में इतना ही मुश्किल था..या फिर मैं बस किसी पंगे में पड़ने से बचना चाह रहा था। सच है कि मैं पंगे से ही बचना चाह रहा था। सोच कर हैरान हूं कि कितना खोखलापन है।

मुझे ढोंगी लोगों से बड़ी ही चिढ़ है......दूसरों के सामने अपना सब से उजला पक्ष रखना....पूजापाठ का दिखावा भी करना और घर में साथ रहने वाले लोगों के जीवन को नरक बना के रखना.......यह सब क्या है। धिक्कार है ...इस से वह नास्तिक कईं गुणा भला जो रहता तो सब से प्रेम-प्यार से है।

मार-पिटाई किसी भी बात का समाधान नहीं है........किसी भी बात का........लेकिन यह बीवी-बच्चों को पीटने वाली सामाजिक समस्या भी एक घृणित अपराध के घेरे में ही आती है। लेकिन आवाज़ जब कोई उठाए तब ना..........

इसीलिए सरकारें, मां बाप बार बार चीखते रहते हैं कि लड़कियों को भी खूब पढ़ लिख कर अपने पांव पर खड़े होने की ज़रूरत है.......शायद इसी से यह अपराध बहुत हद तक कम हो सकता है........वरना उन निम्न तबके वाला फार्मूला तो है कि जैसे ही ऐसे ही किसी दारू पिए मर्द ने जोरू पर हाथ उठाने की कोशिश की.....तो उस ने भी आगे से जूती उतार कर उसे धुन डाला............सुबह फिर से सब नार्मल......जैसे कुछ हुआ ही ना हो...।

वह तो नामर्द था ही जिसने आज अपनी बीवी पर हाथ उठाया.......लेिकन ऐसे मौकों पर आसपास के दूसरे मर्दों ने क्या किया.......कुछ भी तो नहीं, ज़्यादा से ज़्यादा मेरे जैसे किसी फुकरे बुद्धिजीवि को लिखने का एक टॉपिक मिल गया.....सब के सब दोगले हैं हम....शायद तोगले.........सोचते कुछ हैं, लिखते कुछ और ......और करने के बारे में तो पूछो ही मत।

अपनी तो दीवाली हो गई आज। आप को शुभकामनाएं।

दादू दुनिया बावरी ...पत्थर पूजन जाए...
घर की चक्की कोई न पूजे...जिस का पीसा खाए।।

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

दीवाली की मिठाई का हाल

अभी अभी पेपर देख रहा था तो आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में इस खबर पर नज़र पड़ गई कि किस तरह से शुद्ध घी में जानवरों के फैट को मिला कर बेचा जा रहा है.....लिखा है सब कुछ, आप स्वयं भी पढ़ सकते हैं.
इसे अच्छे से पढ़ने के लिए इस पर क्लिक करिए.. 
और यह लखनऊ का रोना ही नहीं है, देश के हर कोने में इस तरह के मिलावटी खाद्य पदार्थ बेचने वाले आतंकवादी फैले हुए हैं, ये भी सरहद पार से आने वाले आतंकवादियों से कम खतरनाक थोड़े ही ना हैं।

त्योहारों के महीनों में इस तरह की रिपोर्टें आती हैं, सैंपल भरे जाते हैं, कार्यवाही कितनी होती है कितनी नहीं, आप सब समझदार लोग हैं, सब कुछ जानते हैं, इस रिपोर्ट में भी लिखा है कि कितनी भारी संख्या में मिलावट होने की पुष्टि हो जाती है।

मुझे बेकरी के बिस्कुट पसंद हैं, मेरे एक मित्र ने मुझे दो वर्ष पहले चेता दिया कि यह शौक बड़ा खराब है क्योंकि बहुत सी बेकरियों में ये घी में जानवरों का फैट मिला कर ये सब तैयार कर रहे हैं। फिर भी हम लोग कहां सुधरते हैं, कभी कभी खा ही लेता हूं.....लेकिन खाते हुए भी यही ध्यान रहता है कि मैं मिलावटी सामान ही खा रहा हूं।

इसी खबर में यह भी लिखा है कि किस किस खाद्य पदार्थ में किस चीज़ की मिलावट हो सकती है... और उस के क्या क्या बुरे परिणाम हैं, ये समाचार पत्र ये सब सूचनाएं आम आदमी तक पहुंचा के बहुत सेवा कर रही हैं, जागरूकता पैदा कर रहे हैं, और करें भी तो क्या करें, चार रूपये में और इन की जान लेकर मानेंगे हम।

बहुत ही बुरी खबर है यह.......पता नहीं मुझे इस समय वह बात क्यों याद आ गई ..अखबार में मैंने एक तस्वीर देखी ८-१० दिन पहले...शायद हरियाणा की किसी जगह की थी जिस में एक आदमी ने एक नाबालिग लड़की से बलात्कार करने की कोशिश की तो जनता ने पकड़ कर उस का हथियार ही काट कर उस के हाथ में थमा दिया....

जनता के आक्रोश से डर लगता है, और डर लगना भी चाहिए......किसी को भी इसे कम  समझने की नादानी नहीं करनी चाहिए.....हर चुनाव के बाद मैं यही सोचता हूं कि अजब देश की गजब डेमोक्रेसी है कि बिल्कुल शांति पूर्वक जनता सत्ता-परिवर्तन कर देती है......बड़ी समझदार जनता है इस देश की।

सरकार के पास अनेकों मुद्दें हैं......कर रही है सरकार अपना काम......लेकिन क्या हम ने अपनी जिम्मेदारी से मुंह हमेशा मोड़े ही रखना है। इतना कुछ आ रहा कि विशेषकर त्योहारों के मौसम में खाने पीने के मिलावटी सामान की भरमार रहती है, फिर भी हम नहीं सुधरते। अब सरकार हर हलवाई की दुकान पर हर गली की नुक्कड़ पर तो किसी फूड इंस्पैक्टर को खड़ा करने से रही, इसलिए हमें ही बात माननी पड़ेगी। बात न मान कर हम अपनी सेहत ही से खिलवाड़ करते जा रहे हैं।

जहां, तर्क-वितर्क की कोई ज़रूरत नहीं होती, वहां हम करते हैं। आज ३५ वर्षीय आदमी आया...बीवी के इलाज के लिए आया था, उस का भी मुंह गुटखे-पान मसाले से ठसाठस ठूंसा हुआ था। मैं भी अपनी आदत से मजबूर, उसे कहा कि मत खाया करो, यह आग का खेल है, परेशानी हो जाएगी। दो-तीन मिनट मेरे प्रवचन सुन कर कहने लगा कि डाक्टर साहब, मेरी समझ में नहीं आता कि मेरा मौसा तो कुछ भी गल्त-वल्त नहीं खाता था, उस के गुर्दे क्यों फेल हो गये।

मैंने कहा कि वह तो मुझे नहीं पता, लेकिन यह जो गुटखे वुटखे तुम मुंह में ठूंसे रहते हो, इस के तो हर पैकेट पर साफ साफ लिखा है कि इस से क्या क्या हो सकता है, सरकार ने भयानक तस्वीरें भी छाप रखी हैं, फिर भी ज़हर को देख कर कैसे खा पाते हो। शायद बात उस की समझ में आ गई, कहने लगा कि आज से नहीं खाऊंगा.......इतने में उस की बीवी कहने लगी कि अल्होकल का क्या होगा जो इतनी पीते हैं। कहने लगा कि उस का मैं अभी वायदा नहीं करता, कभी कभी कंपनी में बैठ कर पीनी ही पड़ती है .....मैंने कहा कि चलो आज से गुटखे को तो लात मारो, और पंद्रह दिन में मिलने आया करो, दारू को भी देख लेंगे।

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

हेलमेट घर पे तो है ही .....

यहां लखनऊ में मैंने बहुत बार नोटिस किया है कि स्कूटर-मोटरसाईकिल चलाने वाले अपने हेल्मेट को बाजू पर लगा कर चलते हैं......अगर कहीं चालान वान का लफड़ा होता दिखेगा तो पहन लेंगे, वरना कौन गर्मी में यह सब बर्दाश्त करे।


हेल्मेट घर में तो है......

अभी दो घंटे पहले मैं लखनऊ छावनी से तेली बाग की तरफ़ अपने स्कूटर पर आ रहा था...यहां की सड़कों की एक खासियत है कि कुछ व्हीआईपी सड़कों को छोड़ कर बाकी सब सड़कों पर रात के समय रोशनी न के बराबर होती है।

दूसरी तरफ़ से आ रहे एक मोटरसाईकिल वाले को मैंने देखा कि वह अचानक बुरी तरह से गिर गया। बहुत बुरा लगा। काफी लोग इक्ट्ठे हो गये उसे देखने के लिए.......मैं भी उसे देखने गया। बहुत खुशी हुई कि वह ठीक ठाक था.....वहीं जा कर पता चला कि सड़क किनारे एक छोटे से खड्डे में उस का मोटरसाईकिल अटक गया था..लेकिन वह गिरा बुरी तरह से था।

मैंने भी उसे कहा कि चलो, ईश्वर की कृपा है कि ठीक ठाक हो, लेकिन हेल्मेट पहन कर रखना चाहिए। उसने कहा ......जी, हेल्मेट तो है, घर में है और यहीं पास ही में तो घर है।

बी पी ठीक तो मैंने दवा और परहेज छोड़ दिया..

सुबह एक ६५-७० वर्ष की महिला दांत उखड़वाने के लिए आईं... कईं बार तो मैं पूछ कर ही आश्वस्त हो जाता हूं अगर कोई कहता है कि उस का ब्लड-प्रेशऱ ठीक ही चल रहा है, विशेषकर अगर वे नियमित जांच करवाते रहते हैं। पर, मैंने इस महिला का जैसे ही ब्लड-प्रेशर देखा तो यह १९०/१०० था। बाद में उन्होंने बताया कि मैं ब्लड-प्रेशर की दवाई खाती थी, लेकिन दो महीने पहले जब मेरा ब्लड-प्रेशर ठीक रहना शुरू हो गया......तो मैंने दवाई खानी बंद कर दी।

और जब मैंने उन के द्वारा ली जाने वाली नमक की मात्रा के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि जब मेरा ब्लड-प्रेशर ठीक रहने लगा तो मैंने भी नमक का परहेज भी छोड़ दिया.....उन का ३०-४० वर्ष का बेटा भी साथ था जो कहने लगा कि इन्होंने नमक की शीशी अपने पास अलग रख छोड़ी है, हर खाद्य पदार्थ और पेय में ऊपर से नमक मिलाने की इनकी आदत तो है ही.......मैंने उन के साथ पांच मिनट तक ज्यादा नमक के खतरनाक परिणामों की चर्चा की।

बस अब तो एक ही पैकेट लेता हूं......

उस  के बाद एक २१ वर्ष का युवक आया.....बिल्कुल साफ़-सुथरा .. मां के साथ आया था जिस का मेरे पास इलाज चल रहा था...युवक का मुंह नहीं खुल रहा था....पानमसाला और गुटखा खाता था लगभग ४-५ वर्ष पहले से..रोज़ाना पांच-छः पैकेट......अब जब से मुंह पूरा खुल नहीं रहा, अब पानमसाला छोड़ दिया है........लेकिन जब मैंने और पूछा तो उसने बता ही दिया कि अब तो बस कभी कभी एक पैकेट ही खाता हूं(और वह समझता था कि इस से कोई फरक नहीं पड़ता)

दस मिनट तक उस से बात की ...आज सुबह ही मेरे पास एक मुंह के कैंसर का मरीज़ आया था....गुटखा पान मसाला मुंह में रखता था......और कैंसर बहुत फैल चुका था उसके मुंह में.........मैंने इसे उस मुंह के कैंसर वाले मरीज के मुंह की तस्वीर दिखा कर कहा कि अगर नहीं मानोगे और इस आदत को आज ही से लात नहीं मारोगे तो यह तुम्हारी ज़िंदगी को भी लात मार सकती है। रोज़ाना ऐसे केस आ रहे हैं। लगता तो है समझ गया है.......कह रहा था कि अब नहीं छुएगा। आएगा दो दिन बाद इलाज के लिए।

मैने ऊपर तीन बातें लिखी हैं, तीनों की तीनों बहुत विचारनीय हैं....



मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

टीन- प्रेगनेंसी रोकने हेतु कुछ स्थायी उपाय

किशोरियों में प्रेगनेंसी मुद्दे पर आप कुछ पढ़ने जा रहे हैं ..तो आप भी यही लगता होगा कि यह पश्चिम का ही मुद्दा होगा। क्या मैं ठीक कह रहा हूं?

कल शाम जब मैंने दो न्यूज़-स्टोरी देखीं तो मुझे यही लगा कि अमेरिका ने तो ईमानदारी से सारे आंकड़े इक्ट्ठा तो कर लिए और उन्होंने अपने नागरिकों के जो ठीक समझा उस की सिफारिश भी कर दी लेकिन बाकी विश्व क्यों चुप है?. क्या वहां पर ऐसी कोई समस्या जिसे हम टीन प्रेगनेंसी (स्कूल जाने वाली किशोरावस्था के दौरान होने वाली प्रेगनेंसी).....कहते हैं, है ही नहीं,  लेकिन आंकड़े हैं कहां?

ना ही तो मैं किसी नैतिक पुलिस ग्रुप का मेंबर हूं और न ही बनना चाहता हूं ..क्योंकि इस तरह के मुद्दों पर मंथन करने के लिए एक बड़ी स्टेज की ज़रूरत है, यह मंच बहुत ही छोटा है...फिर भी जो कल पढ़ा उसे केवल शेयर कर के और बहुत से प्रश्न हवा में उछाल कर खिसक लूंगा...

तो इस न्यूज़-रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में किशोर युवक एवं युवतियां प्रेगनेंसी से बचने के लिए कन्डोम एवं गर्भ-निरोधक गोलियां पर भरोसे करते आ रहे हैं.......(आंकड़े आप स्वयं नीचे दिए गये दो लेखों कर क्लिक कर के देख सकते हैं...)

लेिकन अब अमेरिकी बाल रोग विशेषज्ञों की संस्था ने यह सिफ़ारिश कर दी है कि किशोरियों में प्रेगनेंसी रोकने के लिए उन में अगर लंबे समय तक चलने वाले गर्भनिरोधक उपाय फिट ही कर दिये जाएं तो टीनएज प्रेगनेंसी की दर में बहुत गिरावट आ सकती है.....वे लंबे समय तक चलने वाले जिन गर्भनिरोधक उपायों की बात कर रहे हैं, वे हैं इंट्रायूटरीन डिवाईस (IUD) और गर्भनिरोधक इंपाल्ट जिन का साइज एक दियासिलाई जितना होता है जिसे बाजू की चमड़ी के नीचे रख दिया जाता है ताकि वह निरंतर गर्भनिरोधक हार्मोन रिलीज़ करता रहे.....

Pediatricians Endorse IUDs, Implants for Teen Birth Control 
Free, Long-Acting Contraceptives May Greatly Reduce Teen Pregnancy Rate

बहुत से प्रश्न छोड़ कर जा रहा हूं, मैं भी मंथन करता हूं ..हो सके तो आप भी करिएगा...... इस पोस्ट को लिखते लिखते गुड्डी फिल्म का यह सुंदर गीत याद आ गया.......काफ़ी समय हो गया इसे सुने हुए.....





कुर्बानी पर कुर्बान ..भाग२

पिछली कुछ महीनों से एक और समस्या है कि मैं घर में आने वाली दो अखबारें --टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदी की हिन्दुस्तान--ढंग से नहीं पढ़ पाता। वही पुराना बहाना स्कूल कालेज के दिनों वाला कि पढ़ते ही नींद आने लगती है। लेकिन फिर भी स्नैप डील और फ्लिपकार्ट की सभी पेशकशें बेटे के मार्फ़त शाम तक काफ़ी हद तक याद हो जाती हैं......चाहे उन से कुछ लेना देना नहीं होता, बस ऐसे ही जिसे जुबानी जमा-खर्च कहते हैं ना, एक शुगल सा।

कल जब मैंने कुर्बानी पर कुर्बान का पहला लेख लिखा तो मुझे ईद के बारे में मेरे मन में उमड़े बहुत से प्रश्नों का सवाल मिल गया था।

आज सुबह जल्दी नींद खुल गई....होता है कभी कभी ऐसा भी। अब टीवी में मेरी रूचि कम हो गई है....जब से बच्चन और आमिर द्वारा केबीसी और जागते रहो के हर एपीसोड के लिए मेहनताना लेने की रकम का पता चला है, उस दिन से बिल्कुल भी रूचि रही नहीं.....बिग-बॉस वैसे ही पहली ही देखने की हिम्मत जुटा पाया था......उसे देख कर यही डर लगता है कि यार, कहीं घर में हम सारे ही ऐसे ही चलने और बतियाने ना लगें.....नज़रिया अपना अपना.......बहरहाल,  कल की टाइम्स ऑफ इंडिया पड़ी हुई थी। सोचा कि इसे भी पलट लूं........

जैसे ही मैं संपादकीय पन्ने पर पहुंचा तो दा स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत एक लेख के शीर्षक पर नज़र पड़ गई......  Find your Ismail and Sacrifice it... ईद के विषय से संबंधित मेरे जो बचे खुचे सवाल थे, वे भी जैसे धोने के लिए ही यह सुंदर लेख मुझे आज सुबह सुबह दिख गया था....मैंने इसे पढ़ कर राहत की सांस ली, लेकिन यह मेरी राहत की सांस लेने से हुआ क्या, सोचने की बात है कुछ नहीं........वैसे भी मेरी राहत की सांस लेनी इतनी ज़रूरी कहां थी, ज़रूरी तो कुछ और था....मेरे जैसे बुद्दिजीवियों की बस इतनी कहानी..........है इतना फ़साना है इतनी कहानी.........

कल शाम को फेसबुक पर एक बहन की पोस्ट पढ़ी ......
"बकरी पाती खात है ताकी काढ़ी खाल,
जे नर बकरी खात हैं, ताको कौन हवाल" - कबीर।
सभी बकरियों व बकरों के स्वस्थ प्राकृतिक दीर्घजीवन की शुभकामनाएँ।


ताको कौन हवाल का मतलब नहीं पता था तो उन से ही पूछ लिया.... तुरंत जवाब मिल गया....
 "यानि वे किसके हवाले ? उनका क्या होगा ? उनका कौन मालिक ? वे किसके भरोसे ?"

  

सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

जुएं मारने वाली कंघीयां....

अभी मैं नेट पर कुछ सर्च कर रहा था तो एक लिंक पर पहुंच गया..कि अपने बच्चों के सिर को जुओं के लिए देखते रहें......यकायक याद आ गई पुरानी यादें जब गली-मोहल्लों में महिलाओं को एक दूसरे के सिर में जुएं खोज खोज कर मारने के मंजर अकसर दिख जाया करते थे......अब भी होता ही होगा यह सब कुछ, शायद हमें ही इस का अनुमान नहीं है क्योंिक हमारा ही पता बदल गया है।

इस काम के लिए इस्तेमाल की जाने वाली कंघी भी एक अलग किस्म की हुआ करती थी.....पंजाबी में इसे कहते थे....बारीक दंदेयां वाली कंघी......(comb with the fine teeth!)........इसे सिर पर फिराना भी हिम्मत का काम हुआ करता था, बचपन में यह कंघी मेरी मां और बड़ी बहन ने मेरे सिर पर भी कईं बार फेरी थीं......एक दो जूं मिलने पर फिर लेक्चर भी सुनना पड़ता था....

अच्छे से मैं देखा करता था अपने आस पास कि किसी के सिर पर वह जूओं वाली कंघी फिराते फिराते जब कंघी में कोई जूं दिख जाती थी तो वह लम्हा कितना रोमांचक हुआ करता था जैसे कि वीरप्पन पकड़ लिया हो. और फिर उस जूं को अपने बाएं हाथ के अंगूठे पर शिफ्ट कर के दाएं हाथ के अंगूठे से उस का वध करना, महिलाओं को यह बड़ा सुख देता था .....और जूओं के मारे सिर में भी अपने अाप ठंडक पड़ने लगती थी।

कईं बार दो एक जुएं मिलने के बाद जब और जुएं नहीं मिल पाती थीं तो ऐसे ही निकालने वाला यह घोषित कर दिया करता था कि जुआं नहीं ने, लीखां ने......लीखां तो ही जुआं बनदीयां ने.......(जुएं नहीं है और, लीखे हैं.....लीखों ही से तो जुएं बन जाती है)......

जो गली मोहल्लों में औरते के साज-श्रृंगार का सामान साईकिल पर बेचने आया करते थे, उन्होंने भी जूओं वाली कंघी अलग से रखी होती थी....बहुत बिका करती थी ये कंघीयां।

फिर देखा धीरे धीरे जुएं मारने वाली दवाईयां आ गईं......लोग जुएं मारने के लिए इन्हें इस्तेमाल करने लगे। क्या था , एक ऐसी ही दवाई का नाम........Mediker lice killer ---- मुझे अच्छे से याद तो नहीं है, लेकिन शायद यही था......पता नहीं अब यह दवा मिलती है या नहीं, कोई आइडिया नहीं....अकसर जैसे ही हम लोगों का पता बदलता है (आप समझते हैं मैं क्या कहना चाहता हूं) हम पुरानी बातों को ऐसे भूलने का नाटक करते हैं जैसे हमारा इन से कोई वास्ता ही न हो.........ठीक है, यह इंसानी फितरत है।

आप को उस लिंक के बारे में भी बता रहा हूं जिस पर जाकर मुझे यह जुओं वाले दिनों की याद आ गई.......... हा हा हा ...  Health tip:  Check your Child for Head Lice

बात जुओं की हो रही थी तो पता नहीं यह खटमल वाला गीत कहां से याद आ गया.......सही कहते हैं अंग्रेज़-----खाली दिमाग शैतान का घर.......An empty mind is a devil's workshop!

शुक्राणुओं को भी हानि पहुंचाती है दारू

अभी मैं एक विश्वसनीय मैडीकल साइट पर देख रहा था कि दारू पीने की आदत भी किस तरह से स्पर्म (शुक्राणुओं) को हानि पहुंचाती है......आप भी इसे इस लिंक पर जा कर अवश्य देखें......Too much booze may harm your sperm. 

 मैंने इस रिपोर्ट को पूरा पढ़ा और जाना कि किस तरह से ज़्यादा दारू पीने की आदत स्पर्म के साथ साथ कईं तरह के अन्य यौन रोग संक्रमण को बढ़ावा दिये जा रही हैं.......यह लेख जिस का लिंक आप ऊपर देख रहे हैं, यह पठनीय तो है ही , इस में लिखी बातें भी मानने योग्य हैं।

मुझे पता है मैंने ऊपर लिखा है.....ज़्यादा दारू.......अब हर पाठक यही सोचेगा कि यह समस्या तो उन लोगों की है, जो ज़्यादा दारू पीते हैं, हम तो कम ही पीते हैं.......लेकिन ज़्यादा और कम दारू पीने की परिभाषा को जानने के लिए भी आपको इस लेख को देखना चाहिए।

एक बात और........बहुत से लोग अकसर कहते दिखते हैं कि डाक्टर लोग ही तो कहते हैं कि थोड़ी थोड़ी पीना दिल की सेहत के लिए अच्छा होता है। इस के उत्तर में सभी डाक्टर यही कहते हैं कि हम लोग उन्हें नहीं कहते जो लोग नहीं पीते कि आप लोग दिल की ठीक रखने के लिए पीना शुरू कर दें.......बल्कि हम यही कहते हैं जो लोग अंधाधुंध पीने के आदि हो चुके हैं, अगर वे बिल्कुल कम से कम दारू पीने लगेंगे तो उन के लिए यही ठीक रहेगा। अब यह कम दारू कितनी कम है, यह जानने के लिए आप होम-वर्क स्वयं करें या अपने फैमिली डाक्टर से परामर्श कर सकते हैं.....

कुर्बानी पर कुर्बान




बकरीद के बारे में मेरे मन में बहुत प्रश्न उमड़ आते हैं ..इन्हीं दिनों में पिछले कुछ वर्षों से....फिर जिस तरह का मैं इंसान हूं ... जब दूसरे प्रश्न तैयार हो जाते हैं तो पिछलों को तो हटना ही पड़ता है।.....इस बार भी ऐसा ही हुआ कि कुछ दिनों से मैं फिर ऐसे ही प्रश्नों से घिर गया।

यह लिख रहा हूं ...इसलिए नहीं कि मैं किसी एक धर्म से संबंधित हूं...मैं किसी भी धर्म के साथ अपने आप को आइडैंटीफाई करना ही नहीं चाहता, मुझे अपना धर्म कहीं पर लिखते हुए भी बड़ा अजीब लगता है ......बस मेरा दृढ़ विश्वास यही है कि हम सब इंसान बना कर भेजे गये हैं, बस इंसानों जैसा किरदार हो जाए......इतना ही काफ़ी है। मेरा यही धर्म है, यही इबादत है।

हां,  यार, यह जो प्रश्नों की बात हो रही है इन के बारे में कोई पूछे तो पूछे कैसे। बड़ी जिज्ञासा होती है। लखनऊ की एक मस्जिद के बाहर मैंने एक इश्तहार टंगा देखा कि कुर्बानी का हिस्सा १२०० रूपये में।  मैंने सोचा इस का क्या मतलब है, किस से पूछूं। दो चार दिन पहले जब मेरे पास एक बुज़ुर्ग महिला मरीज़ आईं तो मैंने उन से पूछ ही लिया...इस हिस्से के बारे में। उस नेक रूह ने अच्छे से हिस्सों के बारे में बता दिया और कहा कि बड़े सस्ते में हो रहा है। इस के आगे कोई बात नहीं हुई।

हां, अभी अभी लेटा हुआ था...सिर थोड़ा भारी हो रहा था ..तो मैंने आज की हिन्दुस्तान उठा ली.....उस के संपादकीय पन्ने पर एक लेख पर मेरी नज़र गई.......इस समाचार पत्र के संपादकीय पन्ने पर एक स्तंभ आता है...मनसा वाचा कर्मणा........इस में आज सूर्यकांत द्विवेदी जी का लेख ....कुर्बानी पर कुर्बान....दिख गया। इसे पढ़ कर मेरे बहुत से प्रश्न --सारे नहीं........घुल गये।

मैं चाहता था कि इसे आप भी पढ़े अगर कुछ प्रश्न आप के मन में भी उमड़ रहे हैं......... इसलिए उस सारे लेख को हु-ब-हू नकल कर के इस पोस्ट में लिखने के लिए उठा ही था......कि गूगल बाबा का ध्यान आ गया.......बस कुर्बानी पर कुर्बान लिखने भर की देर थी कि सर्च रिजल्ट के पहले नंबर पर यही लेख दिख गया..... अच्छा लगा.......मेरी गुज़ारिश है कि आप भी इसे पढ़िए........मैं भी इसे फिर से दो-तीन बार तो पढूंगा ही ..........यह रहा इस का लिंक ...
कुर्बानी पर कुर्बान ....(हिन्दुस्तान... ०६अक्टूबर २०१४) 

मैं पिछले लगभग ३५ वर्षों से कुर्बानी के इस गीत को सुन रहा हूं ...कभी बोलों पर ध्यान नहीं दिया, अब इस के बोलों पर भी ध्यान देने की, किसी विद्वान के पास बैठ कर इन बातों को समझने की चाहत सी होने लगी है.......



रविवार, 5 अक्तूबर 2014

त्योहार के मौसम में मृतक भोज

मुझे अच्छे से याद है ... १९७३ के आसपास के वो दिन...मैं पांचवी या छठी कक्षा के कुछ विषयों में अव्वल आया था... स्कूल के वार्षिक पारितोषिक वितरण उत्सव में जहां तक मुझे याद है फैज़ अहमद फैज़ जी मुख्य अतिथि के तौर पर आए थे......उस जमाने में हमें नाम भी अच्छे से कहां याद रहते हैं..लेकिन फैज़ आए थे...इतना तो मुझे धुंधली याद है। यह मैं अमृतसर के डीएवी हायर सैकण्डरी स्कूल, हाथी गेट की बातें सुना रहा हूं।

हां, पहले यह भी एक बहुत अच्छा रिवाज था कि छात्रों को इनाम में बढ़िया प्रेरणात्मक किताबें दी जाती थीं। मुझे भी अन्य किताबों के साथ साथ मुंशी प्रेमचंद का गोदान नावल मिला था..  याद है मैंने उस गोदान को बहुत शौक से कईं बार पढ़ा। एक बात तो है कि पहले हम लोग किताबें पाते थे तो उन्हें पढ़ते भी थे.....किताबों के संसार में खोए रहने का अपना अलग ही मज़ा हुआ करता था। उस के बाद ढूंढ ढूंढ कर मुंशी प्रेमचंद की कहानियां पढ़ी...बूढ़ी काकी, ईदगाह जैसे नगीने तो हमारे सिलेबस में ही थे। 

बहरहाल, अब आता हूं मृतक भोज के ऊपर.......तो जैसा कि आप जानते हैं .. मृतक भोज भी मुंशी प्रेमचंद की एक मशहूर कहानी है। वैसे तो आप इस लिंक पर भी जा कर इस कहानी को मूल रूप में पढ़ सकते हैं... मृतक भोज..

कुछ दिन पहले यहां लखनऊ की संगीत नाटक अकादमी में मृतक भोज कहानी के ऊपर तैयार किए गये एक नाटक का मंचन हुआ........मैंने इस पर अपनी एक यू-ट्यूब प्रस्तुति दो-तीन दिन लगा कर तैयार की है, आशा है आप इसे देखने का कष्ट करेंगे.......नीचे एम्बेड कर रहा हूं।

सेठ रामदास जब तक जीवित रहे, किसी का अहसान नहीं लिया। उनकी मृत्यु के बाद सेठानी को खेत, जेवर, खलिहान, बर्तन, सब िबक जाते हैं। उसके बाद भी गांव के लोग और सेठ के तथाकथित शुभचिंतक सेठ का 'मृतक भोज' करवाने के लिए उन पर दबाव डालते हैं। इस बार घर भी बिक जाता है। सेठानी और उनकी बेटी पहले बेघर होती हैं फिर पहले सेठानी की फिर बेटी की मौत हो जाती है। एक 'मृतक भोज' सेठ के बाकी बचे परिवार को लील जाता है। 

मुंशी प्रेमचंद की यह मशहूर कहानी २६ सितंबर २०१४ शुक्रवार को लखनऊ की संगीत नाटक अकादमी में नाट्य रूप में दिखाई गई। इस नाटक में यही दिखाने का प्रयास किया गया कि कैसे कुरीतियां मानवता पर भारी पड़ती हैं।

जो लोग खुद को सेठ का दोस्त और शुभचिंतक कहते थे उन्हें यह चिंता नहीं हुई कि घर बिकने के बाद सेठानी और उनकी बेटी कहां जाएंगे। सेठानी जिस घर की मालकिन होती हैं वहीं किराए पर रहने को मजबूर हो जाती हैं। सेठ के दोस्त उनकी बेटी पर बुरी नजर डालते हैं। पहले मां बीमारी से मरती है फिर बेटी जिंदगी की दुश्वारियों से हारकर खुदकुशी कर लेती है लेकिन फिर भी लोगों को यही लगता है कि सेठ का 'मृतक भोज' होना जरूरी थी। 

जिस दिन शाम को लखनऊ में इस नाटक का मंचन किया जाना था उसी दिन सुबह ९ बजे इस नाटक के निर्देशक नवीन श्रीवास्तव जी को मातृशोक हो गया....उत्तर प्रदेश संगीत नाटक संस्थान के निदेशक ने उसे इस नाटक के मंचन को स्थगित करने के लिए कहा लेकिन श्रीवास्तव जी ने "Show must go on!" की भावना से इस के मंचन को अपने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार करवाने का निर्णय लिया। 

उस महान कहानीकार मुंशी प्रेम चंद और निदेशक नवीन श्रीवास्तव की तुलना में  यह एक धूल के कण के समान तुच्छतम् भेंट उन की दिवंगत माता जी की आत्मा की शांति के लिए मेरी तरफ़ से आहुति।

वापिस इस पोस्ट के शीर्षक पर लौटता हूं......त्योहार के मौसम में मृतक भोज........तो बस यही ध्यान में आ रहा है कि कुछ कर गुजरने के लिए मौसम नहीं, मन चाहिए।।

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

दुर्गा पूजा उत्सव में पहली बार...

कल पहली बार किसी दुर्गा पूजा उत्सव में जाने का अवसर मिला। अच्छा अनुभव रहा....मां दुर्गा पंडाल के पास मैंने यह वीडियो बनाई ...



जब इस भक्त ने अपनी अर्चना कर ली तो मैंने सोचा कि अब कोई भी दूसरा आ कर पूजा करेगा....दो चार मिनट तक जब कोई नहीं आया तो मैंने पास खड़े युवकों से पूछा कि आप लोग भी चले जाओ अंदर.........उन में से एक ने कहा कि अंदर ऐसे ही थोड़ा जा सकते हैं, पैसे लगते हैं........मैंने पूछा ...कितने? उन्हें यह पता नहीं था....लेकिन इतना पता था कि या तो जो इस समारोह के प्रबंधक लोग हैं, वही जा सकते हैं...जब हम लोग बाहर सांस्कृतिक कार्यक्रम में बाहर आ कर बैठे तो देखा कि यह पूजा करने वाला भक्त एक आर्गेनाइजर ही था। लोगों में इतनी श्रद्धा देख कर अच्छा लगा।

खूब रौनक थी...खाने पीने के स्टालों पर और भी ज़्यादा। एक जगह बिहार का मशहूर बाटी-चोखा भी बिक रहा था....उस का बनाने का तरीका ही इतना आकर्षित करने वाला है कि तुरंत खाने की इच्छा हो उठती है।

कमाल खान साहब प्रसिद्ध गजलें सुना कर लोगों को खुश कर रहे थे....जश्न का माहौल था। उन्होंने लोगों की फरमाईश पर बहुत ही खूबसूरती से समय बांध के रखा.....

इस तरह के विभिन्न धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर जाने से हमें देश के बारे में पता चलता है.....आपसी प्रेम-प्यार, सौहार्द, मिलवर्तन की भावनाएं प्रबल होती हैं। लोग एक दूसरे के रीति-रिवाज से वाकिफ हो पाते हैं।



वैसे वहां बैठे बैठे मुझे पता नहीं बार बार दो बातें याद आ गईं.....जब मैं छोटा बालक था तो किसी धार्मिक स्थान में जाया करता था तो पूजा की थाली हमेशा किसी आगे आगे बैठे सेठ के हाथ में देख कर मुझे बड़ी हैरानी हुया करती थी...केवल एक दो परिवार ही हमेशा थाली थाम के रखते थे.......मन में प्रश्न उठा करते थे....ये सभी प्रश्न २००७ तक उठते ही रहे जब मुझे ब्रह्मज्ञान की दात हासिल हो गई और सब परतें अपने परतें खुलती चली गईं और निरंतर खुलती चली जा रही हैं।

एक बात का और ध्यान आ रहा था .....१९८१ में मैं, मेरी मां और बड़ा भाई जो बंबई से आया था, हम लोग एक धार्मिक स्थल पर गये.......बड़े भाई के पास लगभग १२-१३०० रूपये थे......हम लोग कुछ ही घंटों में पहुंच गये जी वहां....लेकिन वहां तो इतनी भीड़-भड़क्का, भाई ने वापिस भी जाना था, वह आस पास के क्वार्टरों में जाकर सैटिंग कर के आया कि लाइन में खड़े होने की बजाए किसी दूसरी तरफ़ से किसी के घर के रास्ते से घुस कर विशेष दर्शन कर पाएंगे.....प्रति व्यक्ति दो सौ रूपये लगेंगे........मुझे याद नहीं है ठीक से लेकिन इतना तो पक्का है कि लगभग ४०० रूपये उस सुविधा के लिए उस के खीसे से निकाले गये थे.....बाकी भी वहां पर बहुत खर्च हुआ था......

वापिस लौटते लौटते यह हाल था कि डर लग रहा था कि हम लोग किसी तरह से वापिस अमृतसर लौट जाएं..... किराया तो बच ही जाना चाहिए........मुझे पक्का याद है कि जब हम लोग अमृतसर के बस अड्‍डे पर पहुंचे तो भाई की जेब में कुल १०रूपये थे जिन्हें रिक्शे वाले को थमा कर हम घर पहुंचे........ढंग से खाना खाया और राहत की सांस ली।

कईं वर्षों से मुझे यह सवाल कचोटता रहा कि भक्ति हम जैसों की ज़्यादा थी जिन्होंने पैसे फैंक कर एक तरह से जबरदस्ती दर्शन कर लिए या फिर वे भक्त जो चुपचाप धूप में अपनी बारी की इंतज़ार करते रहे.......कृपा किसके ऊपर ज़्यादा होगी......तब तो यही प्रश्न था, लेकिन २००७ में जब ब्रह्मज्ञान की दात हासिल हुई तो सभी के सभी प्रश्न ही हवा हो गये।

सिंदूरखेला.

हां, एक बात और......दु्र्गा पूजा जैसे धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सवों से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है......ये जो ऊपर वीडियो में ढोल बजा रहे हैं, इन्हें ढाकिये कहते हैं जो विशेष रूप ले कलकत्ता से आते हैं इस तरह के समारोहों के लिए।

घर लौटने पर जब गुंडे फिल्म देख रहे थे तो दुर्गा पूजा का एक सीन आया.....जिस में औरतें एक दूसरे के ऊपर सिंदूर फैंक रही थीं.....बेटे ने पूछा कि यह क्या है, तो उस की मां ने कहा ....इसे सिंदूरखेला कहते हैं......कहानी फिल्म में नहीं देखा था कि सुहागिनें दुर्गा-पूजा के विसर्जन से पहले एक दूसरे को सिंदूर लगाती हैं............वैसे देखा जाए तो हमारी फिल्में भी हमें बहुत कुछ बताती हैं, शर्त यही है कि मन में बस जिज्ञासा की आग चाहिए।

मेरे ज़हन में भी फिल्मी गीतों का इतना अपार खजाना है कि मुझे लगता है कि सब कुछ छोड़-छाड़ कर किसी एफएम रेडियो चैनल में नौकरी कर लेनी चाहिए.......लोगों को गीत सुनाने के बहाने स्वयं भी सारा दिन सुनता रहूंगा......अभी भी याद आ गया.........परवरिश फिल्म का मेरा एक बेहद पसंदीदा गीत.........गीत के बोलों की तरफ़ विशेष ध्यान दीजिए........खुली नज़र क्या खेल दिखेगा दुनिया का...बंद आंख से देख तमाशा दुनिया का.

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

आंतों की सेहत के बारे में सचेत रहें...

पिछले सप्ताह यहां लखनऊ के पीजीआई मैडीकल संस्थान में पेट एवं आंत के विशेषज्ञों की गोष्ठी हुई थी, उस दौरान इन अनुभवी विशेषज्ञों ने बहुत सी काम की बातें मीडिया के साथ शेयर की जिन्हें समाचार पत्रों में भी जगह दी गई। कुछ ऐसी बातें हैं जो मैं इस पोस्ट में शेयर करना चाहता हूं.....

३० से कम उम्र वालों में भी बड़ी आंत का कैंसर.
अब ३० साल से कम उम्र के लोगों में भी बड़ी आंत का कैंसर हो रहा है। संजय गांधी पीजीआई में बड़ी आंत के निचले हिस्से (कोलोन एंड रेक्टम) के कुल मरीजों में २० फीसदी की उम्र ३० साल से कम है। पहले माना जाता था कि बड़ी आंत के इस हिस्से में कैंसर बड़ी उम्र के लोगों में होता है।

घूमते रहते हैं पाइल्स के चक्कर में...
विशेषज्ञों ने कहा कि कोलोन और रेक्टम कैंसर से ग्रस्त कुल मरीज़ों में २० फीसदी मरीज पाइल्स के चक्कर में घूमते रहते हैं। तब काफी देर हो जाता है। मल के रास्ते खून, मल विसर्जन के दौरान दर्द की परेशानी १५ दिन से अधिक समय तक रहे तो डॉक्टर से रेक्टम का परीक्षण ज़रूर करने के लिए कहना चाहिए। इससे गांठ का अंदाजा लग जाता है।

बीमारी की जड़- कब्ज
विशेषज्ञों ने बताया कि लंबे समय तक कब्ज रहने पर बड़ी आंत के निचले हिस्से में परेशानी होने की आशंका बढ़ जाती है। कब्ज से बचने के लिए चोकर युक्त आटे वाली रोटी, सत्तू का सेवन करना चाहिए ..रोज कम से कम दो लीटर पानी पीनी चाहिए। समय से खाना खाएं और रोज मल विसर्जन के लिए जाएं।

झोलाछाप डॉक्टर बिगाड़ देते हैं पाइल्स का केस..
पाइल्स का शर्तिया इलाज करने वाले झोलाछाप डाक्टर १० से १५ फीसदी केस बिगाड़ देते हैं। मरीजों के मल द्वार के पास और अंदर घाव हो जाता है। संक्रमण के कारण सेप्टीसीमिया तक हो जाता है। ऐसे मरीज हालत गंभीर होने पर गैस्ट्रोसर्जन के पास आते हैं।

दरअसल, झोलाछाप डाक्टर जो पाइल्स का शर्तिया इलाज करते हैं वह तेजाब का इंजेक्शन पाइल्स के समीप नस में लगा देते हैं। गलत जगह इंजेक्शन लगने पर मल द्वार और अंदर की सतह जल जाती है। इससे घाव और इंफेक्शन हो जाता है। इसी वजह से पाइल्स का इलाज किसी विशेषज्ञ से ही कराना चाहिए।

पाइल्स है क्या?
 लंबे समय तक कब्ज रहने पर बड़ी आंत के निचले हिस्से में रक्त प्रवाह करने वाली नसें फूल जाती हैं। यही गांठ का रूप बना लेती हैं। इसे पाइल्स कहते हैं। मल विसर्जित करते समय जोर लगाने पर गांठ फूटती है।

इससे मल के साथ रक्त स्राव होता है। ७० प्रतिशत लोगों में कब्ज की परेशानी होती है। पेट साफ करने के लिए दवा ले रहे हैं। पेट साफ नहीं हो रहा है। मल विसर्जन के बाद भी विसर्जन की फीलिंग तीन माह से अधिक समय तक यह परेशानी है तो विशेषज्ञ से सलाह लेना चाहिए।

बिना दर्द संभव होगी कोलोन एंड रेक्टल सर्जरी ...
पाइल्स, टी १ और टी २ प्रकार के छोटे कैंसर, आंत मल द्वार से बाहर आना (कांच उतरना), रेक्टोसील सहित कईं परेशानियों की सर्जरी अब बिना दर्द संभव हो गयी है।

नान सर्जिकल ट्रीटमेंट भी कारगर....
बड़ी आंत के निचले हिस्से में नसों का गुच्छा बन जाता है जिसे फिशर कहते हैं.. मल विसर्जन के समय दर्द, विसर्जन के बाद दर्द, मल में चिपका हुआ खून आता है। ऐसा क्रानिक कब्ज के कारण होता है। कब्ज को दूर कर के इस परेशानी को कम किया जा सकता है। देखा गया है कि लाइफ स्टाइल में बदलाव लाकर, मल द्वार पर लाने वाले क्रीम, लेक्सेटिव दवाओं से ५० से ६० फीसदी केसों में परेशानी दूर हो जाती है। इस परेशानी से ग्रस्त लोगों को फाइबर युक्त आहार (सत्तू, चोकर युक्त रोटी) के साथ खूब पानी पीना चाहिए।

वैसे कितनी बातें जो विशेषज्ञ तो बार बार हमारी अच्छी सेहत के लिए दोहराते रहते हैं, सोचने वाली बात है कि क्या हम इन का कहा मानते भी हैं या बस, ऐसे ही पढ़ा और बस भूल गये। नहीं, ऐसे नहीं चलेगा, विशेषज्ञों की हर बात में राज़ होता है.......वे अपनी बीसियों वर्षों के अनुभव को आप के साथ चंद मिनटों में साझा कर लेते हैं।

अपना ध्यान रखिएगा। 

आ रही है बकरीद

मैं कभी सपने में भी नहीं सोच सकता कि एक बकरा एक-डेढ़ हज़ार रूपये से ज़्यादा का होगा......शायद अगर कोई मुझे कहे कि अब महंगाई हो गई है इसलिए अब बकरा तीन- चार हज़ार या पांच हज़ार का बिकता है, मैं यह भी मान लूंगा।

दो चार दिन पहले की बात है मैंने हिन्दुस्तान समाचार पत्र में एक शीर्षक देखा... १२ से दो लाख तक के बकरे हैं बाजार में, लोग दे रहे मुंह मांगी कीमत। मैं यह पढ़ कर दंग रह गया था।

इसी खबर से कुछ वाक्य उठा कर यहां लिख रहा हूं.....

बकरीद पर होने वाली कुर्बानी के लिए शहर की बकरा मण्डी पूरे शबाब पर है। चौक की बकरा मण्डी में रविवार को बकरा खरीदने वालों की खूब भीड़ उमड़ी। मण्डी में बकरा बारह हजार रूपये से लेकर २ लाख रूपये तक बिक रहे हैं।

खूबसूरती देख बिक रहे बकरे...
मण्डी में बकरा खरीदने आने वाले लोग खूबसूरत बकरों की मुंह मांगी कीमत अदा करने को तैयार हैं। खरीदारों को अपनी ओर आकर्षित करने वाले ऐसे ही तमाम बकरे काफी महंगे कीमत पर बिक रहे हैं।

बकरा बाजार की कीमतें...
अजमेरी बकरा.. २५ हज़ार से १.५० लाख तक
बरबरा बकरा- ३० हज़ार से ८० हज़ार तक
तोता परी बकरा- ६० हज़ार से ३लाख तक
जमुनापनी बकरा- १२ हज़ार से ६० हज़ार तक
देसी बकरा - २० हज़ार से ५० हज़ार तक
दुम्बा- ६० हज़ार से २ लाख तक
बकरा खरीदने आ रहे लोग हर तरह से कर रहे हैं जांच परख, बकरे की सुंदरता भी परख रहे हैं लोग।

ऑनलाइन बिक्री
इसके अलावा ऑनलाइन भी बकरों की खूब बिक्री लग रही है। कई लोग तो ओएलएक्स और क्विक्र (  OLX and Quickr) जैसी साइटों पर भी बकरे बेच और खरीद रहे हैं।

कीमतों का मुझे सच में बिल्कुल अंदाज़ा नहीं है, इस का प्रमाण कल रात भी मिल गया जब हम लोग टाटास्काई के शो-टाइम में हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया फिल्म देख रहे थे....तो आलिया भट्ट फिल्म में अपने बापू से जिद्द करने लगी कि वह तो शादी में ५ लाख की कीमत वाला डिजाईनर लहंगा ही पहनेगी........मैंने तुरंत अपनी श्रीमति जी की तरफ़ देखा ...क्या लहंगे इतने महंगे होते हैं ?......उन की हां ने इस कीमत की पुष्टि कर दी। मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि जो दौड़ हम हांफते हुए दौड़े जा रहे हैं, क्या उस का कोई एंड प्वाईंट भी है।

बकरे वाली बात मैं यही खत्म करता हूं......दिल में बहुत सी बातें हैं......अपने परिवार में तो बैठ कर शेयर कर ही लेता हूं लेकिन यहां इस पोस्ट में नहीं लिखना चाहता क्योंकि इस तरह के विषय पर कुछ भी लिखे हुए को अकसर धार्मिक चश्मा पहने कर पढ़ने की कोशिश की जाती है........मुझे इस काम से घोर परहेज है।

मैं तो बस एक ही धर्म को जानता हूं और इसे ही मानता हूं .........इंसानियत।

बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

बहुत ही आसानी से ठीक हो जाता है पायरिया

इस २०-२२ वर्ष की युवती में पायरिया रोग 
इस २०-२२ वर्ष की लड़की के दांत और मसूड़े जितने भयानक दिख रहे हैं, दरअसल स्थिति इतनी बुरी है नहीं।

ब्लॉग पर मुझे एकदम सच बात ही लिखनी होती है....यह मेरा संकल्प है। कोई भी नेट पर बड़ी उम्मीद के साथ कुछ ढूंढ-ढांढ कर पढ़ने के लिए आता है। एक एक शब्द सच लिखने की तमन्ना रहती है।

इस लड़की के दांतों में पायरिया तो है...लेकिन इस उम्र में इस तरह के पायरिया का इलाज करना बहुत ही आसान भी होता है, और अगर यह लड़की डैंटिस्ट के बताए अनुसार दिन में दो बार ब्रुश करे, रोज़ाना जुबान की सफ़ाई करे और कुछ भी खाने के बाद कुल्ला करने की आदत डाल ले तो इसे फिर से ऐसी तकलीफ़ होने की संभावना बहुत कम हो जायेगी...बहुत ही कम......हां, थोड़ा बहुत टॉरटर तो जम सकता है दांतों पर...वह तो किसी के भी दांतों पर जम सकता है, लेकिन ऐसे हालात फिर से नहीं होंगे अगर यह अब दांतों की साफ़-सफ़ाई का पूरा ध्यान रखेगी।

ऐसे पायरिया के केसों में इलाज के साथ साथ इस बात का भी बहुत ही ज़्यादा महत्व है कि मरीज़ अपने दांतों की स्वच्छता की तरफ़ पूरा ध्यान देना शुरू करे। इसलिए मैं तो हमेशा इस तरह के मरीज़ का इलाज ही तभी शुरू करता हूं जो वे पांच-सात दिन में अच्छे से ब्रुश करना शुरू कर देते हैं......पहले तो मैं उन्हें सिखाता हूं, फिर जब आश्वस्त हो जाता हूं कि अब इसे अच्छे से समझ आ गई है तभी इलाज शुरू करता हूं। वरना तो इलाज करने का कोई फायदा होता ही नहीं, क्योंकि कुछ ही महीनों में पायरिया फिर से लौट आता है।
इसी युवती के नीचे के दांतों के अंदर की तरफ़ जमा कचरा (टॉरटर) 
मरीज़ों को लगता है कि यार अब ब्रुश करना भी सीखना पड़ेगा..लेकिन इस मामले में मैं उन की नहीं सुनता, सीखना तो है ही, और उसे प्रैक्टिस भी करना है। सभी मरीज बात मान लेते हैं।

यह लड़की भी जो मेरे पास दो दिन पहले आई थी.....यह अगले पांच सात दिनों में लगभग दो बार आकर लगभग ठीक हो जाएगी, इस के मसूड़ों से रक्त बहना बंद हो जाएगा, और मुंह से बदबू भी आनी बंद हो जायेगी। लेकिन यह जो मसूड़े अजीब से दिखने लगे हैं, इन्हें पंद्रह दिन-एक महीने बाद भी देखना पड़ेगा......अकसर कुछ करने की ज़रूरत नहीं पड़ती, यह भी अपने आप नार्मल जैसे दिखने लगेंगे.........

जानते हैं मैंने यह पोस्ट क्यों लिखी, इस का कारण यह है कि अगर आप या आप के आसपास इस तरह के पायरिया रोग से ग्रस्त लोग हैं तो उन में भी यह जागरूकता फैलाएं कि इस का इलाज करवाना बिलकुल आसान है........जैसा कि मैं ऊपर लिख चुका हूं।

और हां, जितनी कम उम्र होगी, उतना ही जल्दी ठीक हो जाएगा यह पायरिया रोग। मैंने लिखा कि इस तरह के केसों में जिस की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं इसे ठीक करना बहुत सुगम है, इस का कारण यह है कि अभी यह सूजन या पायरिया मसूड़ों तक ही सीमित है, यह आगे नीचे जबड़े की हड्‍डी तक नहीं फैला है........जब यह आगे हड़्डी तक फैल जाता है तो दांत हिलने लगते हैं, मसूडे दांतों से पीछे हट जाते हैं, मसूड़ों से पस निकलने लगती है........लेिकन इलाज तो उसका भी है..........but as they say......."a stitch in time saves nice"

"An ounce of prevention is better than a pound of treatment"

अच्छा, बात समझ में तो आ ही गई होगी। कुछ पूछना चाहते हैं तो बिंदास कमैंट्स में लिखिए।

                         इस तरह के लफड़ों से भी बच कर रहें......

फूलों की जगह लेने वाले हैं फल....

इतना बढ़िया टॉपिक है यह फूलों का तो इस की शुरूआत एक फूलों की आरती से तो होनी ही चाहिए , है कि नहीं..



फूल-पत्तों से सभी को प्यार होता है , मुझे ही दीवानगी की हद तक इन से लगाव है। सुबह सैर करते हुए किसी को फूल तोड़ कर प्लास्टिक की पन्नी में धकेलते देख कर मूड खराब हो जाता है। ईश्वर सब को तौफ़ीक बख्शे कि हम कुदरत की नेहमतों को कम से कम जैसे हैं वैसे तो रहने दें, अगर इन में इज़ाफ़ा नहीं भी कर सकते।

घर में सैंकड़ों फूल खिला करते थे लेकिन कभी याद नहीं कि किसी तरह की पूजा-अर्चना के लिए इन्हें तोड़ा हो, मुझे यह ठीक नहीं लगता, जिस ने हमें फूल दिया हम उसी को चढ़ाने के लिए उसे तोड़ दें।  हां, जब बचपन था तो 31मार्च के दिन (जिस दिन मेरा रिजल्ट निकलता था) मेरी बड़ी बहन मेरे लिए तीस-चालीस गुलाब के फूल तोड़ कर एक हार अपने स्कूल के प्रिंसीपल साहब के गले में डालने के लिए ज़रूर थमा कर मुझे स्कूल के लिए विदा करती थी....मुझे अभी भी याद है उस का उस दिन सुबह सुबह उठ कर, सूईं धागे से उन फूलों को एक माला में पिरोना...। आज लगता है कि यार उस की भी क्या ज़रूरत थी, जब एक फूल ही से काम चल सकता था।

मुझे तब भी बड़ा बुरा सा लगता है जहां पर मैं सैंकड़ों-हज़ारों फूलों की बर्बादी होती देखता था.....माखन लाल चतुर्वेदी जी की रचना पुष्प की अभिलाषा याद आ जाती है....हम हिंदी के मास्टर साहब ने बड़े दिल से पढ़ाई थी। एक बात बताऊं कि मैंने कभी भी बुके (फूलों का गुलदस्ता) किसी को भेंट करने के लिए नहीं खरीदा.......मुझे यह एक घोर फिजूलखर्ची, सिरदर्दी सी लगती है दोस्तो.......हम देखते हैं कि कितने टन फूल यूं ही स्टेजों को सजाने में, एक दूसरे का सम्मान करने के चक्कर में बर्बाद कर दिये जाते हैं.....और कभी देखें कि एक घंटे के बाद वही फूल उधर ही पब्लिक के पैरों के नीचे मसले जा रहे होते हैं.....यह सब देख कर सिर भारी हो जाता है........

फूल तो हैं हर तरफ खुशी बिखरने के लिए...यह मेरी टेबल के गुलदस्ते में रूक कर क्या करेंगे, यह इन का स्वभाव नहीं है, आप याद करिए जब कभी हम लो सा फील कर रहे थे और फिर बाग मे टहलने गये, और रंग बिरंगे खुखबूदार फूलों को देख कर हम ने कितना आनंद अनुभव किया था......उसी तरह आप कल्पना करें कि दिनों से बीमार व्यक्ति को जब अस्पताल की खिड़की से बाहर फूलों का बागीचा दिखता है तो उस का शरीर तो क्या, रूह भी गद गद हो जाती है......चेहरे पर अपने आप एक मुस्कान आ जाती है....

खिलो तो फूलों की तरह, बिखरो तो खुशबू की तरह..

बहुत हो गई शायरी, अब एक सुंदर सा गीत सुनते हैं .........और आश्चर्यचकित हो कर इन फूलों के बारे में सोचते हैं.....




पांच दिन पहले २६सितंबर की हिन्दुस्तान के संपादकीय पन्ने पर एक लेख दिखा था....नज़रिया स्तंभ के अंतर्गत....इस का शीर्षक था.....फूलों की जगह फलों से हो स्वागत। शीर्षक ही इतना बढ़िया लगा था कि उसे पढ़ने की उसी समय इच्छा हो गई....इसे गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा जी ने लिखा था। लेख इतना बढ़िया लगा कि उसे ऐसे का तैसा ही लिखने लगा हूं............
 "यह विचार गुजरात से आया है, लेकिन सबके लिए उपयोगी है। गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने एक कार्यक्रम चलाया है, जिसके तहत राज्य भर में अब गण्यमान्य लोगों का स्वागत फूलों से नहीं, फलों से किया जाएगा। इस कार्यक्रम के तहत जितने भी फल एकत्रित होंगे, वे किसी आंगनबाड़ी केंद्र, विद्यालय या अनाथालय में भेजे जाएंगे।  
पूरी दुनिया की तरह ही भारत में भी लोगों का फूलों से स्वागत करने की परंपरा बहुत पुरानी है। यदि कोई व्यक्ति किसी भी महत्वपूर्ण व्यक्ति का पुष्पगुच्छ से स्वागत करता है, तो अक्सर वे पुष्पगुच्छ व्यक्ति के मान-सम्मान और व्यक्ति की आर्थिक क्षमता का प्रदर्शन करते हैं, उस व्यक्ति का नहीं, जो सम्मानित होता है।  
देश भर में एक दिन में भिन्न भिन्न स्तर के नेताओं के स्वागत में हजारों टन पुष्प खर्च किए जाते हैं। स्वागत के बाद उनका कोई सदुपयोग नहीं होता है.। फूलों की उपयोगिता समाज में जहां है, वहां उनका उपयोग होना चाहिए। लेकिन गणमान्य लोगों के सम्मान में यदि फूल की जगह फल के छोटे छोटे टोकरे का उपयोग हो, तो उसका शहर और गांव के गरीब बच्चों के लिए उपयोग हो सकता है।  
हमारे देश में आज कुपोषण की बहुत चर्चा होती है। इसका स्थानीय स्तर पर एक समाधान ऐसे भी हो सकता है। यह ठीक है कि इससे सभी कुपोषित बच्चों को सुपोषित नहीं बनाया जा सकता है। परंतु स्वागत के फूल की जगह फल का उपयोग संवेदनशीलता का प्रतीक तो है ही। गोवा में राज्यपाल पद की शपथ लेने के बाद मैंने तय किया कि मैं भी यही करूंगी। पिछले दिनों मुझे उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी और उनकी पत्नी सलमा अंसारी का एयरपोर्ट पर स्वागत करने का अफसर मिला, तो मैं इसके लिए फल लेकर ही वहां पहुंची, जिसे देखकर उपराष्ट्रपति की आंखों में आश्चर्य के भाव उभरे - ' फल ' ? मैंने जब फूल के बदले फल की बात बताई, तो वह बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा --"   मैं पिछले सात वर्षों से लोगों से कह रहा हूं कि स्वागत के लिए फूल बर्बाद मत करो, एक फूल काफी है। पर मेरे दिमाग में फूल के बदले फल की बात नहीं आई। ये फल में दिल्ली ले जाऊंगा। एक-दो खाऊंगा और बाकी ज़रूरतमंदों को भिजवाऊंगा।" 
अब यह उम्मीद सभी गण्यमान्य लोगों से है। हमारे देश में बहुत सारी ऐसी गंभीर समस्याएं हैं, जिन्हें छोटे छोटे निर्णयों व कार्यों से सुलझाया जा सकता है। जब इस निर्णय की चर्चा मैंने गोवा के किसी गण्यमान्य व्यक्ति से की, तो उन्होंने मुझे बताया कि फूलों के गुच्छे की तुलना में फल देना सस्ता रहेगा। फिर यह भी पता चला कि गोवा में फूलों की खेती बहुत ज़्यादा होती भी नहीं। वहां फूल बाहर से मंगवाए जाते हैं। जहां फूलों की खेती होती है, वहां भी फल की छोटी डाली एक बड़े गुच्छे से सस्ती ही पड़ेगी। वैसे यह महंगे और सस्ते की बात नहीं है। बात तो भावना की है और सरोकार की है, जिसे पूरे देश को अपनाना ही चाहिए। "
-- मृदुला सिन्हा, राज्यपाल, गोवा.

जाते जाते यह ध्यान आ रहा है कि चलो यह तो बहुत अच्छी शुरूआत है फूलों की जगह फलों की शुरूआत....लेकिन वही बात है कि यहां भी अगर स्पर्धा शुरू हो गई कि महंगे से महंगे फल देना, ड्राई फ्रूट देना......लेकिन अच्छा ही होगा उन बच्चों के लिए जिन में यह सब कुछ बांटा जाएगा जिन के नसीब में वैसे यह सब कुछ नहीं होता....।

जाते जाते बनावटी फूलों के बारे में भी एक बात कर लेते हैं...........बात क्या करनी है, गीत ही सुन लेते हैं.......सारी बात समझ में आ जाएगी... आप तो पहले ही से समझे हुए हैं।



अबार्शन के लिए कूरियर से मिलने वाली दवाई

मैं अकसर बहुत बार नेट पर बिकने वाली दवाईयों के बारे में सचेत करने के लिए लिखता रहता हूं, इसलिए जब कल की टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले ही पन्ने पर इस तरह की खबर का शीर्षक दिखा (लिंक इस पोस्ट के अंत में दिया है) तो यही लगा कि यह भी कुछ वैसा ही चक्कर होगा....दवाईयां इंटरनेट के द्वारा बेचने वेचने का।

लेकिन जैसे जैसे उस न्यूज़-रिपोर्ट को पढ़ता गया मेरे सारे पूर्वाग्रह गल्त सिद्ध होते रहे।

पहले तो यही लगा कि नागपुर का जो शख्स यह काम कर रहा है, इसे एक धंधे के तौर पर ही तो कर रहा होगा...कि जो महिलाएं गर्भपात करवाने की इच्छुक हैं लेकिन जिन का देश इस बात की अनुमति नहीं देता, उन्हें यह शख्स अबार्शन करने के लिए टेबलेट्स कूरियर से भेजता है... मुझे लगा कि यह भी तो एक धंधा ही हुआ...

थोड़ा अजीब सा तो लगा कि ऐसे कैसे कोई भी औरत जिस का देश उसे गर्भपात करवाने की इजाजत नहीं देता, वह इन्हें लिखे और गर्भ को गिराने के लिए गोलियां मंगवा के खा ले......बस.......मुझे ऐसे लगा कि यह तो बड़ा जोखिम भरा काम है......दवाई मंगवाने वाली महिला को क्या पता कि वह दवा खा भी सकती है या नहीं, उस की प्रेगनेन्सी की क्या अवस्था है, इतना सब कुछ एक महिला कैसे जान पाती है, यह सब कुछ कहां समझ पाती है एक औसत घरेलू महिला।

लेकिन फिर जैसे मैंने इस िरपोर्ट को आगे पढ़ा तो इस सुंदर अभियान की परतें खुलती गईं।

तो हुआ यूं कि यह जेंटलमेन जो दवा महिलाओं को भेजते हैं ....उन को एक संस्था के बारे में पता चला ... और उस से भी पहले उस महिला चिकित्सक के बारे में इन्हें पता चला जिन्होंने ऐसे देशों की महिलाओं (जिन में अबार्शन किया जाना प्रतिबंधित था).. के लिए एक समुद्री जहाज में एक गर्भपात क्लिनिक खोल दिया....जो जहाज उस देश के बाहर खड़ा रहता था ताकि महिलाएं वहां आकर अपना अबार्शन करवा पाएं......लेकिन उस काम में कोई इन्हें ज़्यादा सफलता मिली नहीं।

फिर इन्होंने एक वेबसाइट खोली ...Women on Web......इस साइट के माध्यम से ज़रूरतमंद महिलाओं इस संस्था से संपर्क करती हैं, अधिकतर ऐसी महिलाएं जिन के देशों में स्थानीय कानून अबार्शन की अनुमति नहीं देते.... जब ये महिलाओं अपना प्रेगनेंसी टेस्ट करवा लेती हैं. और अगर हो सके तो अल्ट्रासाउंड भी करवा लेती हैं तो ये महिलाएं  एक प्रश्नोत्तरी के माध्यम से इंटरनेट पर इस संस्था की किसी महिला चिकित्सक से परामर्श लेती हैं......इस संस्था की वेबसाइट भी एक बार अवश्य देखें कि किस तरह से ज़रूरतमंद औरतों का सही मार्गदर्शन किया जाता है।

जब वह महिला चिकित्सक उन की प्रार्थना को स्वीकार कर लेती हैं तो वह गर्भपात की दवाईयों का नुस्खा उस नागपुर के इस कार्यकर्त्ता को भेज दिया है जो फिर वहां से दवाई को उस के गनतव्य स्थान की तरफ़ कूरियर कर देता है।

नागपुर का यह बंदा इस काम से कोई मुनाफ़ा नहीं कमाता....केवल सेवाभाव से काम कर रहा है, हां लेकिन महिला को इस संस्था को ९० यूरो दान के रूप में देने के लिए आग्रह किया जाता है.......लेिकन जो नहीं भी दे पातीं, उन्हें ऐसे ही दवा भिजवा तो दी ही जाती है।

 इसे भी ज़रूर देखिए....
Pills-by-post op helps women abort
The abortion ship's doctor