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शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

ज़्यादा नमक का सेवन कितना खतरनाक है....

इस का जवाब आज की टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर मिलेगा कि ज़्यादा नमक के सेवन से हर वर्ष कितने लाखों लोग अपनी जान गंवा रहे हैं.....ज़्यादा नमक खाने का मतलब सीधा सीधा -- उच्च रक्त चाप (हाई ब्लड-प्रेशर) और साथ में होने वाले हृदय रोग। आप इस लिंक पर उस न्यूज़-रिपोर्ट को देख सकते हैं......बड़ी विश्वसनीय रिपोर्ट जान पड़ रही है.....अब इस रिपोर्ट के पीछे तो किसी का कोई वेस्टेड इंट्रस्ट नज़र नहीं ना आ रहा, लेकिन हम मानें तो....
 1.7 million deaths due to too much salt in diet

 भारत में तो लोग और भी ज़्यादा ज़्यादा नमक खाने के शौकीन हैं.... आप इस रिपोर्ट में भी देख सकते हैं। यह कोई हैरान करने वाली बात नहीं है..क्योंकि जिस तरह से सुबह सवेरे पारंपरिक जंक फूड--समोसे, कचोरियां, भजिया.... यह सब कुछ सुबह से ही बिकने लगता है..... और जिस तरह से वेस्टर्न जंक फूड--बर्गर, पिज्जा, नूड्लस.... और भी पता नहीं क्या क्या.......आज का युवा इन सब का आदि होता जा रहा है, इस में कोई शक नहीं कि २० वर्ष की उम्र में भी युवा  मोटापे और हाई-ब्लड-प्रैशर का शिकार हुए जा रहे हैं.

दरअसल हम लोग कभी इस तरफ़ ध्यान ही नहीं देते कि इस तरह का सारा खाना किस तरह से नमक से लैस होता है, जी हां, खराब तरह के फैट्स (वसा) आदि के साथ साथ नमक की भरमार होती है इन सब से। और किस तरह से बिस्कुट, तरह तरह की नमकीन आदि में भी सोडियम इतनी अधिक मात्रा में पाया जाता है और हम लोग कितने शौकीन हैं इन सब के.....यह चौंकाने वाली बात है। आचार, चटनियां भी नमक से लैस होती हैं। और कितने दर्ज़जों तरह के आचार हम खाते रहते हैं। ज़रूरत है कि हम अभी भी संभल लें.......वरना बहुत देर हो जाएगी।

और एक बात यह जो आज के युवा बड़े बड़े मालों से प्रोसैसड फूड उठा कर ले आते हैं....रेडीमेड दालें, रेडीमेड सब्जियां, पनीर ...और भी बहुत कुछ मिलता है ऐसा ही, मुझे तो नाम भी नहीं आते.....ये सब पदार्थ नमक से लबालब लैस होते हैं।

मैं अकसर अपने मरीज़ों को कहता हूं कि घर में जो टेबल पर नमकदानी होती है वह तो होनी ही नहीं चाहिए...अगर रखी होती है तो कोई दही में डालने लगता है, कोई सब्जी में, कोई ज्यूस में....... नमक जितना बस दाल-साग-सब्जी में पढ़ कर आता है, वही हमारे लिए पर्याप्त है। और अगर किसी को हाई ब्लड-प्रैशर है तो उसे तो उस दाल-साग-सब्जी वाली नमक को भी कम करने की सलाह दी जाती है।

मुझे अभी अभी लगा कि यह नमक वाला पाठ तो मैं इस मीडिया डाक्टर वाली क्लास में आप सब के साथ मिल बैठ कर पहले भी डिस्कस कर चुका हूं.......कहीं वही बातें तो दोहरा नहीं रहा, इसलिए मैंने मीडिया डाक्टर ब्लाग पर दाईं तरफ़ के सर्च आप्शन में देवनागरी में नमक लिखा तो मेरे लिए ये लेख प्रकट हो गये......यकीन मानिए, इन में लिखी एक एक बात पर आप यकीन कर सकतें......बिना किसी संदेह के.......

मीडिया डाक्टर: केवल नमक ही तो नहीं है नमकीन ! (जनवरी १५ २००८)
मीडिया डाक्टर: एक ग्राम कम नमक से हो सकती है ... सितंबर २६ २००९
मीडिया डाक्टर: नमक के बारे में सोचने का समय ...(मार्च २९ २००९)
आखिर हम लोग नमक क्यों कम नहीं कर पाते (जून १६ २०१०)
श्रृंखला ---कैसे रहेंगे गुर्दे एक दम फिट (अक्टूबर ४ , २००८)
आज एक पुराने पाठ को ही दोहरा लेते हैं (जनवरी २९ २००९)
मीडिया डाक्टर: श्रृंखला ---कैसे रहेंगे ... (अक्टूबर १ २००८)

सर्च रिजल्ट में तो बहुत से और भी परिणाम आए हैं ..जिन में भी नमक शब्द का इस्तेमाल किया गया था।  मेरे विचार में आज के लिए इतने ही काफ़ी हैं।

आज इस विषय पर लिख कर यह लगा कि इस तरह के पाठ बार बार मीडिया डाक्टर चौपाल पर बैठ कर दोहराते रहना चाहिए......अगर किसी ने भी आज से नमक कम खाना शुरू कर दिया तो जो थोड़ी सी मैंने मेहनत की, वह सफल हो गई। मेरे ऊपर भी इस लिखे का असर हुआ.....मैं अभी अभी जब दाल वाली रोटी (बिना तली हुई).. खाने लगा तो मेरे हाथ आम के आचार की शीशी की तरफ़ बढ़ते बढ़ते रूक गये। ऐसे ही छोटे से छोटे प्रयास करते रहना चाहिए।

यह पाठ तो हम ने दोहरा लिया, आप अपनी कापियां-किताबें बंद कर सकते हैं .....और आज स्वतंत्रता दिवस के मौके पर एक दूसरा पाठ भी दोहराने की ज़रूरत है......मैं तो इसे अकसर दोहरा लेता हूं.....आप भी सुनिए यह लाजवाब संदेश...

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

बिना काटे आम खाना बीमारी मोल लेने जैसा

फिर चाहे वह लखनऊवा हो, सफ़ेदा हो या दशहरी ....किसी भी आम को बिना काटे खाने का मतलब है बीमार होना। अभी आप को इस का प्रमाण दे रहा हूं।

मुझे वैसे तो आमों की विभिन्न किस्मों का विशेष ज्ञान है नहीं लेकिन यहां लखनऊ में रहते रहते अब थोड़ा होने लगा है। वैसे तो मैं भी कईं बार लिख चुका हूं कि आम को काट कर खाना चाहिए, उस के छिलके को मुंह से लगाना भी उचित नहीं लगता ---हमें पता ही नहीं कि ये लोग कौन कौन से कैमीकल इस्तेमाल कर के, किन किन घोलों में इन्हें भिगो कर रखने के बाद पकाये जाने पर हम तक पहुंचाते हैं......तभी तो बाहर से आम बिल्कुल सही और अंदर से बिल्कुल गला सड़ा निकल आता है।

मेरी श्रीमति जी मुझे हमेशा आम को बिना काट कर खाने से मना करती रहती हैं। और मैं बहुत बार तो बात मान लेता हूं लेकिन कभी कभी बिना वजह की जल्दबाजी में आम को चूसने लगता हूं। लेकिन बहुत बार ऐसा मूड खराब होता है कि क्या कहें.....यह दशहरी, चौसा, सफ़ेदा या लखनऊवा किसी भी किस्म का हो सकता है। सभी के साथ कुछ न कुछ भयानक अनुभव होते रहते हैं।

आज भी अभी रात्रि भोज के बाद मैं लखनऊवा आम चूसने लगा.......अब उस जैसे आम को लगता है कि क्या काटो, छोटा सा तो रहता है, लेकिन जैसे ही मैंने उस की गुठली बाहर निकाली, मैं दंग रह गया......वैसे इतना दंग होने की बात तो थी नहीं, कईं बार हो चुका है, हम ही ढीठ प्राणी हैं, वह अंदर से बिल्कुल सड़ा-गला था....अजीब सी दुर्गंध आ रही थी, तुरंत उसे फैंका।

काटे हुए लखनऊवे आम का अंदरूनी रूप 
अभी मुझे इडिएट-बॉक्स के सामने बैठे पांच मिनट ही हुए थे कि श्रीमति ने यह प्लेट मेरे सामने रखते हुए कहा...विशाल के बापू, आप को कितनी बार कहा है कि आम काट के खाया करो, यह देखो। मैं तो यार यह प्लेट देख कर ही डर गया। आप के लिए भी यह तस्वीर इधर टिका रहा हूं।

मेरी इच्छा हुई कि उसे उलट पलट कर देखूं तो कि बाहर से कैसा है, तो आप भी देखिए कि बाहर से यही आम कितना साफ़-सुथरा और आकर्षक लग रहा है। ऐसे में कोई भी धोखा खा कर इसे काटने की बजाए चूसने को उठा ले।

बाहर से ठीक ठाक दिखता ऊपर वाला लखनऊवा आम 
लेकिन पता नहीं आज कर चीज़ों को क्या हो गया है, कितनी बार इस तरह के सड़न-गलन सामने आने लगी है।

अब दाल में कंकड़  आ जाए, तो उसे हम थूक भी दें, अगर ऐसे आम को चूस लिया और गुठली निकालने पर पर्दाफाश हुआ तो उस का क्या फायदा, कमबख्त उल्टी भी न हो पाए.......अंदर गया सो गया। अब राम जी भला करेंगे।

पहले भी मैं कितनी बार सुझाव दे चुका हूं कि आम की फांकें काट कर चमच से खा लेना ठीक है।

वैसे श्रीमति जो को आम इस तरह से खाना पसंद है.........अब मुझे भी लगने लगा है कि यही तरीका या फिर काट कर चम्मच से खाना ही ठीक है, कम से कम पता तो लगता है कि खा क्या रहे हैं, वरना तो पता ही नहीं चलता कि पेट में क्या चला गया। फिर अब पछताए क्या होत.......वाली बात।

आम खाने का एक साफ़-सुथरा तरीका 
दो दिन पहले ही मैं पढ़ रहा था कि किसी दूर देश में किस तरह से भुट्टे (मक्के) में किसी तरह की बीमारी को मानव जाति में किसी बीमारी से लिंक किया जा रहा है और वहां पर हड़कंप मचा हुआ है। उस जगह का ध्यान नहीं आ रहा, कभी ढूंढ कर लिंक लगाऊंगा।

यह पहली बार नहीं हुआ .....बहुत बार ऐसा हो चुका है, और बहुत से फलों के साथ ऐसा हो चुका है। मेरी श्रीमति जी मुझे हर एक फल को काट कर खाने की ही सलाह देती रहती हैं....... अमरूदों, सेबों के साथ भी ऐसे अनुभव हो चुके हैं.

मुझे बिल्कुल पके हुए पीले अमरूद बहुत पसंद हैं.......मैं उन्हें ऐसे ही बिना काटे खा जाया करता था, लेकिन मिसिज़ की आदत चाकू से काटने के बाद भी उस का गहन निरीक्षण करने के बाद ही कुछ खाती हैं या खाने को देती हैं।

ऐसी ही एक घटना पिछले साल की है .....उन्होंने मेरे सामने एक अमरूद काट कर रखा कि आप देखो इस में कितने छोटे छोटे कीड़े हैं, मैंने तुरंत कहा कि यह तो बिल्कुल साफ सुथरा है, इस में तो कीड़े हैं ही नहीं, लेकिन जब उन्होंने मुझे वह कीड़े दिखाए तो मैं स्तब्ध रह गया........मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ कि मैं कितनी गलती करता रहा। वैसे मैंने अमरूद में मौजूद कीड़ों के खाए जाने पर होने वाले नुकसान के बारे में नेट पर बहुत ढूंढा लेकिन मुझे कुछ खास मिला नहीं, लेिकन बात फिर भी वही है कि मक्खी देख कर तो निगली नहीं जाती।

हां, मैंने उस अमरूद में मौजूद कीड़ों के चलने -फिरने की एक वीडियो ज़रूर बना ली और अपने यू-ट्यूब चैनल पर अपलोड कर दी, आप भी देखिए.........(और गल्ती से इसे पब्लिक करना भूल गया..)

लगता है आज से एक बार फिर संकल्प करना होगा कि बिना काटे केवल आम ही नहीं, कोई भी फल खाना ही नहीं,  यह बहुत बड़ी हिमाकत है.............आप भी सावधान रहियेगा।

बुधवार, 6 अगस्त 2014

सर्दी-खांसी-जुकाम में ऐंटीबॉयोटिक्स का रोल

आज से ३६ वर्ष पहले -- १९७८ में जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ा करता था...स्कूल की मैगजीन का स्टूडैंट संपादक था तो मैंने इसी सर्दी-खांसी-जुकाम के ऊपर एक लेख लिखा था.. मैंने अभी तक उसे अपने पास रखा हुआ है ..और जो पिछले वर्षों में अखबारों में लेख छपे हैं, उन में से मेरे पास कितने हैं, कितने नहीं है, वह कोई बात नहीं

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

ख़त के पत्ते (khat leaves) चबाना भी पड़ सकता है महंगा

1981 का जून का महीना मुझे अच्छी तरह से याद है, उस समय मुझे पीलिया हुआ था----तब हमें कोई पता नहीं था कि यह अकसर हैपेटाइटिस (लिवर की सूजन) की वजह से होता है और इस के कईं कारण हो सकते हैं --जैसे कि हैपेटाइटिस ए, बी, सी, अथवा ई। टैस्ट करवाना तो दूर, किसी डाक्टर से बात करना भी दूर की बात थी ---इन डाक्टरों से डर ही इतना लगता था.... बस, सुने सुनाये अनुभवों के आधार पर इलाज चला रहा था।

बस, पीने के लिये गन्ने एवं मौसंबी का रस ही लिया जा रहा था और शायद ग्लुकोज़ पॉवडर भी--- रोटी बिल्कुल बंद थी। लेकिन आलूबुखारे मुझे खूब खिलाये जा रहे थे। अच्छी तरह से याद है कि मां-बाप की जान निकली हुई थी -- विशेषकर यह सुन कर कि पीलिया में तो लहू पानी बन जाता है। और मुझे अच्छे से याद है कि उन दिनों मेरी कितनी ज़्यादा सेवा की गई।

किसी डाक्टर से सलाह मशविरे का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता था--- बस, घर के पास हफ्ते में दो दिन किसी आयुर्वैदिक कॉलेज की वैन आती थी जो पांच रूपये में मरीज़ों का उपचार करती थी। उस में डाक्टर तो नहीं था, लेकिन जो भी था---वह बात बहुत अजीब ढंग से करता था। मुझे याद है मेरी मां ने उन्हीं दिनों के दौराना उस से एक बार यह पूछ था --- क्या इसे रोटी-सब्जी दे सकते हैं? और मुझे उस इ्ंसान का जवाब आज भी याद है ----"अगर तो इस की आपने जान बचानी है तो इसे रोटी सब्जी मत देना।" मरी़ज की तो छोडि़ये, आप यह समझ ही सकते हैं कि इतने कठोर शब्द सुन कर एक मां के दिल पर क्या गुजरेगी ? वैसे, इस की दवाई से कोई "आराम" भी नहीं आ रहा था, इसलिये उस दिन के बाद उस का इलाज भी बंद कर दिया गया।

जब 15 दिन के करीब हो गये, तो मेरी पिता जी एक दोस्त के साथ तरनतारन नाम जगह पर गये --- वे वहां से किसी से कोई जड़ी-बूटी लाये --जिसे एक दो दिन पानी में उबाल कर पिया गया ---और तुरंत ही पीलिया "ठीक" हो गया।

सोच रहा हूं कि आज मैं क्या इतना बड़ा हो गया कि उस जड़ी-बूटी देने वाले, लाने वाले या पिलाने वाले पर कोई टिप्पणी करूं -----थोड़ी बहुत कभी चिकित्सा विज्ञान को पढ़ने की एक कोशिश कर तो लेता हूं लेकिन फिर भी एक बात तो मेरे ज़हन में घर की हुई है कि जिस समय जिस तरह की परिस्थितियां होती हैं, हम वैसा ही करते हैं। किसी को भी इस के लिये दोष नहीं दिया जा सकता।

वैसे तो इस तरह की चमत्कारी दवाईयों की चर्चा पहले भी कर चुका हूं। लेकिन आज एक बार फिर से यह दोहराना चाहूता हूं जड़ी-बूटीयां भी हैं तो वरदान लेकिन अगर किसी जानकार, आयुर्वैदिक विशेषज्ञ की देख रेख में ली जाएं तो .....वरना कुछ जड़ी-बूटीयां हमारे शरीर में भयंकर रोग पैदा कर सकती हैं जो कि जानलेवा भी हो सकते हैं।

उदाहरण के लिये बात करते हैं ---- खत के पत्तों की (khat leaves) .....[Catha edulis]...अब पूर्वी अफ्रीका एवं अरेबियन पैनिनसुला के एरिया में इस के पत्तों को चबाने का रिवाज सा है। इसे वहां के लिये बस यूं ही मौज मस्ती के लिये चबाते हैं क्योंकि इसे चबाने से उन्हें बहुत अच्छा लगता है, मज़ा आ जाता है, मस्ती छा जाती है।
लेकिन वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है कि इन खत के पत्तों में कैथीनॉन (cathinone)नामक कैमीकल होता है जो हमारे शरीर में प्रवेश करने के बाद कैथीन एवं नॉरइफैड्रीन (cathine & norepherine) नामक पदार्थ पैदा करते हैं जिन का प्रभाव मानसिक रोगों में दी जाने वाली दवाईयों जैसा होता है। इतना ही नहीं, इस को निरंतर चबाने से तो लिवर बिल्कुल खराब हो जाता है जिस से जान भी जाने का अंदेशा बन जाता है।

                                               Credit ..http://www.flickr.com/photos/adavey/

वैसे तो अमेरिका में इस बूटी पर प्रतिबंध है लेकिन गुपचुप तरीके से यह उत्तरी अमेरिका में ब्रिटेन के रास्ते पहुंच ही जाती है। यूके में हर सप्ताह खत के सात टन पत्तों का आयात किया जाता है।

मौज मस्ती के लिये इतनी हानिकारक जड़ी-बूटी को चबा जाना, और वह भी इतने पढ़े लिखे , विकसित देशों के बंदों द्वारा ---- मुझे तो ध्यान आ रहा है अपने देश के छोटे छोटे नशेड़ियों का जो ऐसे ही झाड़ियों में बैठ कर हाथों पर कुछ पत्ते रगड़ कर कुछ करते तो रहते हैं ----और जो लोग भांग का इस्तेमाल करते हैं, उन के शरीर पर भी इस के कितने बुरे प्रभाव पड़ते हैं, इन सब से तो आप लोग पहले ही से भली भांति परिचित हो।

कईं बार सोचता हूं कि जो मैं लिखता हूं इसे नेट इस्तेमाल करने वाले खास लोगों से ज़्यादा बिल्कुल आम लोगों तक पहुंचने की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है, मेरी तमन्ना भी है कि लेख तो तभी सार्थक होता है जब यह किसी पाठक के मन को उद्वेलित करे, उसे बीड़ी मसलने पर, हमेशा के लिये गुटखा फैंकने पर, ..................ऐसा कुछ भी करने के लिये सोचने पर मजबूर कर दे जिस से उस के एवं उस के आसपास के लोगों के जीवन में कुछ सकारात्मक परिवर्तन आ सके। देखते हैं, क्या होता है?

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

एनडीटीवी इंडिया ने खोल दी मीठे ज़हर की पोल

आजकल मैं एनडीटीवी इंडिया खूब देखता हूं ---मेरे लड़के ने मुझे हिदायत दी हुई है कि हिंदी में खबरें सुननी हैं तो एनडीटीवी इंडिया देखा करो। कल रात एनडीटीवी पर एक बहुत बढ़िया कार्यक्रम देखने का अवसर मिला जिस में उन्होंने आज कल मिठाईयों के रूप में बिक रहे मीठे ज़हर की अच्छी तरह पोल खोली। कार्यक्रम की प्रस्तुति भी बहुत प्रभावपूर्ण थी।
Mithai ke dukaanअकसर ऐसे कार्यक्रम देख कर लगने लगता है कि ये जो हिंदी के न्यूज़-मीडिया चैनल हैं ये भी आम आदमी की आंखे और कान ही हैं। इन के संवाददाता इतनी मेहनत कर के, अपने आप को जोखिम में डाल के ऐसी ऐसी बातें जनता के सामने लाते हैं जिन के बारे में वैसे तो उसे कभी पता चल ही नहीं सकता।
लेकिन सोचने की बात यह भी है कि जागरूकता से भरपूर इतने बढ़िया बढ़िया कार्यक्रम देखने के बाद क्या पब्लिक सब तरह का कचरा खाने से गुरेज़ करनी लगती है--जिस तरह से बाज़ार में मिठाईयों आदि की दुकानों पर भीड़ टूट रही होती है उसे से मुझे तो ऐसा नहीं लगता। लेकिन लोगों के मन में आज के आधुनिक मीडिया द्वारा इस तरह की बातें डालना भी एक बहुत अच्छा प्रयास है ----ठीक है जब किसी को ज़रूरत महसूस होगी वह उस ज्ञान को इस्तेमाल कर ही लेगा (इतनी जल्दी भी क्या है यारो, जब जीना है बरसों !!!)..
असर होता है---डाक्टर हूं, सब देखता, पढ़ता-सुनता रहता हूं ----अभी कुछ दिन पहले की ही बात है जब टीवी पर पाव रोटी या पांव रोटी का कार्यक्रम आ रहा था ---- उस दिन के बाद डबलरोटी खाने की इच्छा ही नहीं हुई। और अब घर में जब कभी ब्रैड आती है तो केवल एक ही बढ़िया ब्रांड की ही आती है ---- लोकल ब्रांड तो बच्चे अपने डॉगी को भी नहीं डालते ----कहते हैं कि जो हम नहीं खाते इस छोटू को भी नहीं देंगे।
जिस तरह से कल एनडीटीवी ने दिखाया कि किस तरह से सिंथैटिक दूध बनता है ---जिस में दूध तो होती ही नहीं, केवल कैमीकलों की ही मिश्रण होता है जो कि बीसियों भयंकर बीमारियों की खान होते हैं। मिलावटी मावे में क्या क्या होता है इसे देख कर तो लगता नहीं कि कोई मावे के पास भी फटक जाए।
देसी घी की पोल भी अच्छी तरह से खोली गई कि उस में कितनी तरह के ज़हरीले पदार्थ डाले जाते हैं। कल का कार्यक्रम देख कर छोटे बच्चे भी कहने लगे कि लगता है अब तो केवल दाल-रोटी पर ही टिक के रहना चाहिये।
dabba mithai kaमिठाईयां किसे अच्छी नहीं लगतीं----मुझे भी बेसन के लड्डू, पतीसा और बर्फी बहुत अच्छी लगती है लेकिन महंगी से महंगी दुकान की भी खरीदी इन मिठाईयों पर मेरा तो भई बिल्कुल भी भरोसा नहीं रहा। इसलिये मैं कभी गलती से एक आधा टुकड़ा खा लूं तो भी मैं अपराधबोध का शिकार ही हुआ रहता हूं कि सब कुछ पता होते हुये भी .....।
हां तो बताया यह भी जा रहा है कि अगर हम इस तरह की मिलावटों से बचना चाहते हैं तो किसी मशहूर दुकान से ही खरीदी मिठाई खाएं अथवा स्वयं मिलावट की जांच कर लें। लेकिन मैं इस से इत्तफाक नहीं रखता ----किसी दुकान में बढ़़िया कांच लगवा लेने से ,एक-दो स्पलिट एसी फिट करवा लेने से क्या क्वालिटी की भी गारंटी हो जाती है। और जहां तक मिलावट को खुद जांचने की बात है अभी तक तो चांद को मांगने जैसी बात लगती है। लेकिन भवि्ष्य में इस के बारे में कुछ हो तो बहुत बढ़िया रहेगा।
मैं कईं बार सोचता हूं लोग ठीक ही कहते हैं ---हमारे यहां शायद जानें बहुत सस्ती हैं। मिलावट के बारे में टीवी चैनल इतनी जागरूकता फैला रहे हैं लेकिन फिर भी यह गोरख-धंधा फल-फूल ही रहा है। दो दिन पहले कहीं पढ़ रहा था कि अमेरिका में एशियाई मुल्कों से आयात किये हुी सूखे आलूबुखारे बिक रहे थे ----जब वहां की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने उन की जांच की तो उन में ---- Lead (शीशा) की मात्रा बहुत अधिक पाई गई । तुरंत वहां पर उस एजेंसी ने लोगों को हिदायत दे दी कि इन सूखे आलुबुखारों से बच के रहो और यहां तक कि वहां की सरकार ने इस तरह के प्रोडक्ट्स की फोटो कंपनियों के नाम के साथ वेबसाईट पर भी डाल दी।
और एक हम हैं कि दीवाली आ रही है और शुद्ध मिठाई के लिये तरसे जा रहे हैं। मैं आज सुबह ही किसी के साथ हंसी मज़ाक कर रहा था कि देखना, खन्ना साहब, वही दिन वापिस आ जायेंगे जब हम लोगों को चीनी के खिलौनों एवं कुरमुरे से ही दीवीली मनानी पड़ा करेगी।
जावेद अख्तर ने लिखा है कि पंछी नदियां पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके, सोचा तूमने और मैंने क्या पाया इंसा होके -------उसी तरह हम लोगों ने इतनी ज़्यादा तरक्की कर ली कि हम लोग मिठाई के लिये ही तरस गये ---- बचपन में अमृतसर में खाई बर्फी का स्वाद अभी में मुंह में वैसे का वैसा ही है-------तब हमारे जैसे ही सिरफिरे हलवाई हुआ करते थे जो घंटों एक कड़ाई में पक रही दूध की रबड़ी में घंटों कड़छे मार मार के थकते नहीं थे -------लेकिन अब कहीं भी न तो ऐसे सिरफिरे हलवाई ही दिखते है और न ही वैसी छोटी छोटी हलवाईयों की दुकानें जिन की खुशबू दूर से ही आ जाया करती थी और हम बच्चों का नाटक शूरू हो जाया करता था।
PS....Please let me know some good on-line tutorials for knowing the proper placement of pictures in a blog post. And also for putting some text-boxes, full-quotes etc. Thanks.

शनिवार, 26 सितंबर 2009

एक ग्राम कम नमक से हो सकती है अरबों ड़ॉलर की बचत !

अमेरिकी लोग अगर रोज़ाना लगभग साढ़े तीन ग्राम नमक की बजाये लगभग अढ़ाई ग्राम नमक लेना शुरू कर दें तो वहां पर 18 बिलियन डॉलरों की बचत हो सकती है।
केवल बस इतना सा नमक कम कर देने से ही वहां पर हाई-ब्लड-प्रैशर के मामलों में ही एक सौ दस लाख मामलों की कमी आ जायेगी। यह न्यू-यॉर्क टाइम्स की न्यूज़ रिपोर्ट मैंने आज ही देखी।
ऐसा कुछ नहीं है कि वहां अमेरिका में यह सिफारिश की जा रही है और भारत में कुछ और सिफारिशें हैं। हमारे जैसे देश में जहां वैसे ही विशेषकर आम आदमी के लिये स्वास्थ्य संसाधनों की जबरदस्त कमी है ---ऐसे में हमें भी अपनी खाने-पीने की आदतों को बदलना होगा।
जबरदस्त समस्या यही है कि हम केवल नमक को ही नमकीन मानते हैं। यह पोस्ट लिखते हुये सोच रहा हूं कि नमक पर तो पहले ही से मैंने कईं लेख ठेल रखे हैं ---फिर वापिस बात क्यों दोहरा रहा हूं ?
इस सबक को दोहराने का कारण यह है कि इस तरह की पोस्ट लिखना मेरे खुद के लिये भी एक जबरदस्त रिमांइडर होगा क्योंकि मैं आचार के नमक-कंटैंट को जानते हुये भी रोज़़ इसे खाने लगा हूं और नमक एवं ट्रांस-फैट्स से लैस बाकी जंक फूड तो न के ही बराबर लेता हूं ( शायद साल में एक बार !!) लेकिन यह पैकेट में आने वाला भुजिया फिर से अच्छा लगने लगा है जिस में खूब नमक ठूंसा होता है।
और एक बार और भी तो बार बार सत्संगों में जाकर भी तो हम वही बातें बार बार सुनते हैं लेकिन इस साधारण सी बातों को मानना ही आफ़त मालूम होता है, ज़्यादा नमक खाने की आदत भी कुछ वैसी ही नहीं हैं क्या ?
इसलिये इस पर तो जितना भी जितनी बार भी लिखा जाये कम है ---एक छोटी सी आदत अगर छूट जाये तो हमें इस ब्लड-प्रैशर के हौअे से बचा के रख सकती है।

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

इंटरनेट पर दवाई खरीदने का पंगा

इंटरनेट पर किस किस तरह की दवाईयां खरीदी जा रही हैं और इन के कितने बुरे प्रभाव पड़ सकते हैं, इसे देखने के लिये बीबीसी न्यूज़ की इस स्टोरी पर क्लिक करें।
ऐसा कहा गया है कि ब्रिटेन में लगभग दो करोड़ लोग इंटरनेट पर दवाईयां खरीदते हैं और फिर इन के दुष्परिणामों से बचने के लिये डाक्टरों के चक्कर काटते रहते हैं।
बिना अपने डाक्टर से बात किये किसी भी दवाई को स्वयं ही ले लेना अच्छा खासा डेयरिंग का काम हैं। मैं अकसर सोचा करता था कि शायद हम लोग ही इतनी डेयरिंगबाज हैं लेकिन यहां तो ….।
एक बात यह भी है कि जो दवाईयां इंटरनेट से खरीदी जाती हैं वे जैन्यून होते हुये भी नुकसान कर सकती हैं कि क्योंकि आम व्यक्ति को न तो उस की खुराक का, न ही अन्य ड्रग-इंटरएक्शनज़ का पता रहता है इसलिये इस काम में बहुत लफड़ा है।
इन दवाईयों में सब तरह की दवाईयां शामिल हैं जैसे कि सैक्स से संबंधित तकलीफ़ों के लिये , वज़न कम करने हेतु और कुछ युवक तो इंटरनेट पर स्टीरॉयड्स जैसी दवाईयां खरीद कर खा रहे हैं और तरह तरह की बीमारियों को बुलावा दे रहे हैं।
जैसे जैसे आज की पीड़ीं नेट पर आश्रित सी हो रही है इस से लगता है कि आने वाले समय में यह ट्रैंड बड़ जायेगा---समय रहते ही समझ जाने में समझदारी है।

अन्य पोस्टें
खुली बिकने वाली दवाईयां
आप भी कहीं नईं दवाईयों से जल्द ही इंप्रैस तो नहीं होते

सोमवार, 7 सितंबर 2009

दूषित सिरिंज से हमला करने वालों की पागलपंथी

निःसंदेह यह एक पागलपंथी नहीं तो और क्या है कि दूषित सिरिंज से आम जनता पर हमला किया जाये। आज की दा हिंदु में यह खबर देख कर बहुत ही दुख हुआ कि किस तरह से एच-आई.व्ही संक्रमित सिरिंजों से लोगों पर हमला कर के चीन में 500 से भी ज़्यादा लोगों को आतंकित किया गया है। जी हां, यह एक आतंक ही है, और इस की सख्त से सख्त सज़ा होनी चाहिये। पता नहीं कैसी कैसी पागलपंथी, जूनून लोग पाल लेते हैं।
खबर में आप ने भी पढ़ा ही होगा कि जितने लोग भी इस तरह के हमलों से जृख्मी हुये हैं उन में से किसी को किसी को इंफैक्शन तो नहीं है लेकिन उन के ज़ख्मों का इलाज कर दिया गया है।
मैं इस बात से सहमत नहीं हूं ---क्योंकि मैं इस बात को भली-भांति जानता हूं कि जब किसी व्यक्ति पर इस्तेमाल की गई नीडल किसी को चुभती है तो फिर क्या बीतती है ---मैं तो हैल्थ संस्थानों में इस तरह के हादसों की बात कर रहा हूं लेकिन चीन में तो एक तरह से आतंकी गतिविधि के रूप में किसी सीधे-सादे बंदे के शरीर में दूषित सूईं घोंपी जा रही है।

इस तरह की वारदातों के कुछ ही दिनों के भीतर यह कह देना कि किसी को इन से इंफैक्शन नहीं हुई ---यह उचित नही ंहै। क्योंकि एच-आई-व्ही एवं हैपेटाइटिस बी, सी जैसे इंफैक्शन हैं जिन के बारे में कम से कम इस तरह की चोट लगने के कुछ हफ़्तों बाद ही पता चलता है। इसलिये इस तरह की पागलपंथी को जितना जल्दी हो सके रोका जाना चाहिये।

मैं जानता हूं एक डाक्टर को जिसे किसी मरीज़ को इंजैक्शन लगाते वक्त सूँई चुभ गई थी ---लेकिन जब उस मरीज़ के रक्त की जांच करवाई गई तो उस साथी के पैरों तले से ज़मीन निकल गई थी ----वह मरीज़ एचआईव्ही संक्रमित था। इसलिये तुरंत उस डाक्टर की कुछ हफ़्तों के लिये दवाईयां देनी शुरू की गईं ताकि अगर शरीर में कोई वॉयरस का कण चला भी गया है तो भी उस को जड़ से खत्म कर दिया जाये ----छः महीने तक टैस्ट होते रहे तब जा कर कही ंपता चला कि सब कुछ ठीक ठाक है और इन छः महीनों के दौरान उस डाक्टर की मनोस्थिति मैं ब्यां नहीं कर सकता ।
बार बार ऐसा लिखने का अभिप्रायः केवल इतना ही है कि यह दूषित सिरिंज से हमला करने वाली आतंकी वाले भी खूंखार आतंकी ही हैं ----- और जिस तरह से उस डाक्टर को दवाईयां शूरू की गईं और उस के टैस्ट छः महीने तक चलते रहे, ऐसा इस तरह के आतंकी हमले के हर शिकार के साथ कैसे हो पाता होगा। सब से पहले तो किसी को यह ही नहीं पता होगा कि जिस दूषित सिरिंज से यह वार किया गया था वह किन किन बीमारियों के विषाणुओं से लैस थी ------इसलिये आओ सब मिल कर प्रार्थना करें कि यह इश्वर इन सिरफिरों के दिल में थोड़ी करूणा पैदा करे।
वैसे इन चीनी आतंकियों की बात तो हम ने कर ली, लेकिन सोचने की बात यह भी है कि हमारे ही देश में जो लोग इस डिस्पोज़ेबल सिरिंजों एवं सूईंयों की री-साईक्लिंग करते हैं ---- क्या वे आतंकी नहीं है ? ...क्यों नहीं, ये भी सब के सब आतंकी हैं। चीनियों ने कह दिया की 530 केस हुये है ंपिछले दिनों लेकिन इन री-साईक्लिंग करने वाले दरिंदों के कितने लाखों-करोड़ों लोग शिकार हो चुके होंगे या रोज़ाना होते होंगे, ये आंकड़े किसी भी सरकारी फाइल
में नहीं मिलेंगे ------- इस मुद्दे पर कोई भी सूचना का अधिकार कानून काम ही नहीं करेगा !!

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बुधवार, 17 जून 2009

क्रेडिट कार्ड को एटीएम में इस्तेमाल कर मैं कैसे बन गया पप्पू !!

चुनाव में जा कर भाग लेने या ना लेने पर लोग बन गये पप्पू, लेकिन यह पढ़ा लिखा नाचीज़ बंदा तो क्रेडिट कार्ड को एटीएम पर इस्तेमाल करने की हिमाकत कर के कैसे बन गया पप्पू---आज अपने चिट्ठाकार बंधुओं से यह साझा करना चाह रहा हूं। इस का उद्देश्य केवल इतना है कि मेरे जैसी दूसरी भी शायद कईं आत्मायें इस हिंदी चिट्ठाकारों के झुंड में न छुपी बैठी हों और उन्हें पप्पू बनने से रोकने के लिये यह सब कुछ बेझिझक होकर लिखने की हिमाकत कर रहा हूं।
इस से पहले की मैं यह आपबीती लिखनी शुरू करूं अंग्रेज़ी की एक मशहूर कहावत का ध्यान आ रहा है ---- Experience is a great teacher ---- it does not give lessons, it gives TUITION !!

हुआ यूं कि कुछ अरसा पहले किसी लेखकों की बैठक में दिल्ली जाना था --- ( एक तो कमबख्त यह शौक बार बार जा कर लेखकों में जा कर घुसने का पता नहीं पिछले दस सालों से क्यों पाल रखा है और इस पर इतना पैसा खराब कर चुका हूं कि कभी इस से संबंधित अपने अनुभव आप को बताने लग गया ना तो इन में छिपा दर्द महसूस कर के आप का तो रूमाल भीग जायेगा ----यह मेरा विश्वास है)।

हां, तो उस लेखकों की वर्कशाप में जाने के लिये उन्होंने फीस ऑन-लाइन मांगी थी -- इसलिये बेटे ( जो कि कंप्यूटर इंजीनियरिंग तो कर रहा है, लेकिन अपने संसार में ज़्यादा खोया रहता है ---- और उस के बारे में वह लाइन याद आ रहा है ---कि वक्त आने पे बता देंगे कि क्या हमारे दिल में है !! ) के साथ बैठ कर एक रात को बहुत माथा-पच्ची करी कि पे-पाल का एकाउंट बन जाये--- लेकिन उस साइट पर खूब धक्के खाने के बाद यही पता चला कि बिना कोई सा भी क्रैडिट कार्ड लिये बिना यह संभव नहीं है।

चूंकि मैं बैंक का एक डैबिट कार्ड कुछ दिन पहले ही गुम कर चुका था , इसलिये नया अप्लाई करना ही था, सोचा कि लगे हाथ क्रैडिट कार्ड के लिये भी आवेदन कर ही दूं। उस बैंक के क्रेडिट कार्ड के लिये इतनी सारी फारमैलिटीज़ थीं कि रह रह कर ध्यान आ रहा था कि छोड़ यार क्या फायदा इस पंगे में पड़ने का। शायद उस पता वैरीफाई करने वाले को मेरी बातचीत इतनी इम्प्रैसिव न लगी कि वह मेरी सैलरी के बारे में मेरे से बार बार पूछ रहा था और पक्का प्रूफ़ भी चाहिये था। इसलिये पहले यह सब कुछ उसी बैंक से कोई फोन से भी पूछ चुका था ---इसलिये मैं इरीटेट तो हुआ ही हुआ था, मैंने उस बंदे से इतना भी कहा कि यार, मुझे नहीं चाहिये, कोई क्रैडिट कार्ड, प्लीज़ मेरे आवेदन को कैंसिल कर दें।

खैर, लोगों के घर घर जा कर बेचने वाले ये लोग कैसे यह बात मान लें ? फ्रैंकली स्पीकिंग उस समय तो मैं इन के प्रश्नों की बौछार से इतना चिढ़ चुका था कि अगर वह मुझे मेरा फार्म वापिस लौटा देता तो मैं इस चक्कर में पड़ता ही ना।

अच्छा, तो पहले उस लेखकों वाली बैठक की भी एक क्लास ले लें ---हां, तो उन दुकानदारों की यह शर्त थी कि आनलाईन अगर वर्कशाप की फीस अदा कर देते हैं तो ठीक है, वरना ऑन-दा-स्पाट पेमेंट डबल ली जायेगी। तो, साहब, मैं भी पहुंच गया उस वर्कशाप में शिरकत करने के लिये --- यही सोच कर कि लिखने का क्या है, यूं ही लिख दिया होगा डराने के लिये --लेकिन मैं वहां पहुंच कर बहुत चौंका कि उन्होंने मेरे से डबल-रेट ही चार्ज किया। इन वर्कशापों में जाकर यही सीखा है कि यह भी दूसरी दुकानों की तरह दुकानदारियां सी ही हो गई हैं। इसलिये इन पर जा जा कर इतना ऊब चुका हूं कि अब इन से तौबा कर ली है।

लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि अपने अनुभव लोगों के साथ साझे नहीं करूंगा ----वह तो ज़रूर करता ही रहूंगा और भविष्य में ( मुझे खुद भी पता नहीं कब !!) यह सब अंधाधुंध बेबाकी से करने की इतनी चाह ज़्यादा चाह रखता हूं जितना मेरा छोटा बेटा बीस रूपये के कुरकुरे के पैकेट की चाह रखता है। ( जितने चटकारे ले कर वह उस के एक एक पीस को खाता है और दाल-रोटी-सब्जी खाते हुये उस के माथे के बल ऐसे लगते हैं जैसे कि ये लाइनें स्थायी ही हैं, मुझे खूब पता है कि आने वाले समय में उस के इन चेहरे की सिलवटों की वजह से क्या परेशानी होने वाली है, लेकिन अपने को तो बस छोटा सा सुकून है कि मैंने उसे किसी भी तरह का जंक-फूड बहुत ही कम बार खरीद कर दिया है---- शायद छःमहीने या एक साल में एक-आधा पैकेट लेकर दे भी दिया तो इस की क्या बात है !!

अच्छा, तो बच्चे के तरह तरह के पैकेट खाने के शौक से ध्यान आया कि इस क्रेडिट कार्ड को एटीएम पर इस्तेमाल मैंने कैसे किया । मैं बेटे के साथ जा रहा था ---क्रेडिट कार्ड आ गया, बाद में उस का पासवर्ड भी आ गया ( जिस जद्दोज़हद से वह आया, वह एक अलग स्टोरी है) ---यह सब दो एक महीने पहले की ही बात है। मैंने कभी इस को इस्तेमाल तो पहले किया नहीं था।

हां, तो बच्चों की तरफ़ से तरह तरह के पंप इस्तेमाल करने शुरू किये गये कि पापा, चलो आज उस फलां फलां रेस्टतां में चलते हैं, वे क्रैडिट कार्ड से पेमैंट लेते हैं। लेकिन उन का यह सुझाव घर में सभी को मंजूर न था क्योंकि आज तक मुझे नहीं याद कि कभी भी हम लोग किसी रेस्टरां में गये हों और फिर आग बबूला हो कर बाहर यह कहते ना बाहर निकले हों कि आगे से स्नैक्स ही ठीक हैं, ऐसा इसलिये है कि ऊपर वाले के आशीर्वाद से हमारे घर का खाना( बिल्कुल आप के घर के खाने की ही तरह !!) विश्व में सर्वोत्तम है ( थोड़ा सा झूठ बोलने के लिये क्षमा-प्रार्थी हूं ---मैं अपने जबरदस्त पसंदीदा ---अमृतसर के केसर के ढाबे को कैसे भूल गया !!) ---बाहर के खाने में तो मुझे वह सब से बढ़िया लगता था, लगता है और शायद लगता रहेगा। वरना, दूसरे जितने भी रेस्टरां वगैरा में जा कर खाया है तो आधे परिवार के सदस्यों की तबीयत तो घर आने तक खराब हो जाती है और आधे लोगों के मिजाज सुबह खराब हुये मिलते हैं कि तौबा, इतनी मिर्ची !!!!!!

हां, तो सोचा कि इस क्रैडिट कार्ड को किसी अन्य जगह पर इस्तेमाल करने से पहले इसे किसी बैंक के एटीएम पर इस्तेमाल कर के देख लूं कि यह चलता भी है कि नहीं। छोटे बेटे के साथ जा रहा था कि उस ने इशारा किया कि पापा, इधर चैक कर लो, ऐसी जगहों पर मेरे साथ उस के घुसने की फीस है ---एक सौ रूपया। वाह, मेरा क्रैडिट कार्ड तो चल रहा है, उस दिन यह जानने की खुशी इतनी थी कि बेटे द्वारा एक सो रूपये की चपत का लगना भी ज़रा महसून न हुआ।

लेकिन, अपनी बुद्दि भी तो वही है ना खोजी पत्रकार वाली। इतने हफ्तों से यह सोचे जा रहा था कि यह बात समझ में आ नहीं रही कि क्रैडिट कार्ड से भी एटीएम से पैसे निकलवा लो और डैबिट कार्ड से भी । इतने हफ्ते तक मन में यही सोचे जा रहा था कि जब यह काम क्रैडिट कार्ड के इस्तेमाल से ही संभव है तो क्या लिया मैंने नया डैबिट कार्ड। लेकिन मुझे इस का जवाब मिलने का समय नहीं था और ऊपर वाले का शुक्र है कि मैंने इन पिछले हफ्तों में दोबारा इस का इस्तेमाल एटीएम पर नहीं कर दिया।

इस का जवाब मुझे मिला परसों, लेकिन मैं इसे समझ नहीं पाया ---- चूंकि एसएमएस था कि आप के ई-मेल पर आप की क्रेडिट कार्ड स्टेटमैंट भेज दी गई है, आप भुगतान कर सकते हैं। तो मैंने रात को जब ई-मेल खोली तो लिखा था कि आप ने चार सौ उन्चालीस रूपये और तेरह पैसे भरने हैं -----यह सब समझ में नहीं आ रहा था कि यह कमबख्त तीन सौ रूपये और चालीस रूपये के तरह तरह के टैक्स किस लिये जोड़ दिये हैं। बेटा कहने लगा कि टाटा-स्काई की री-चार्ज किया था ना ---फिर ध्यान आया कि वह तो नैट-बैंकिंग के ज़रिये किया था, फिर यह तीस सौ चालीस रूपये का फटका क्यों ? लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था ।

बहरहाल, ध्यान आया कि बैंक वालों ने क्रेडिट कार्ड के साथ कुछ पैंफलेट भेजे थे --जब उन को पढ़ना शुरू किया तो अच्छी तरह से समझ आ गया कि क्रैडिट कार्ड को इस्तेमाल करते हुये रकम चाहे जितनी भी निकालें,यह तीन सौ रूपये की करारी चपत तो सहनी ही पड़ेगी। इस एटीएम विद्ड्रायल नहीं कहते, इस के लिये और भी पालिश्ड टर्म है ---कैश एडवांस। और जब यह बंदा क्रैडिट कार्ड के साथ भेजी उन शर्तों को पढ़ रहा था तो उन में एक शर्त यह भी थी ---

Cash Advance Feees ---
The cardmember can use the card to access cash in an emergency from ATMS in India or abroad. A transaction fee of 2.5%( Minimun Rs.300)would be levied on the amount withdrawn and would be billed to the cardmember in the next statement.

तो फिर कल रात को सोने से पहले ये 439 रूपये 13 पैसे नेटबैंकिग को इस्तेमाल कर के उन को लौटा कर ----मेरे द्वारा निकलवाये गये 100 रूपये पर चार-सौ गुणा दंड देने के बाद ( जब तक इस को पंजाबी में नहीं लिखूंगा, ठंड नहीं पैनी ----उन्नां दे पैसे उन्नां दे मत्थे मार के मैं मुंडे नूं जफ्फी पा के सोन दी कीती !!) ----थोड़ा डिप्रैस सा हो कर सो गया लेकिन प्यारे से बेटे की प्यार की झप्पी ने इस गम को कहां छू-मंतर कर दिया , पता ही नहीं चला। बिल्कुल थोड़ा सा डिप्रैस इसलिये हुआ कि मैं तो गलत तरीके से कोई भी पैसा अपने पास आने ही नहीं होने नहीं देता लेकिन फिर अपने को क्यों ऐसे इतने महंगे महंगे फटके लगते हैं। फिर ध्यान आया कि शायद कुछ सबक सिखाने के लिये। और सोते सोते बच्चों को भी इस के बारे में भी बता दिया ताकि वे भी भविष्य में कभी पप्पू न बनें।

सोच रहा हूं यह हुआ क्यों ? --इस का कारण है ओव्हर-कान्फीडैंस( थोडा़ थोड़ा ध्यान आया कि क्यों बसअड़्डे पर खड़ी एक बूढ़ी मां (जिसे मेरे जैसा पढ़ा लिखा तबका अनपढ़ कहने की हिमाकत करता है) बार बार मेरे जैसे कईं सो-काल्ड पढ़े-लिखों से यह पूछ कर ही बस में चढ़ती है कि यह बस क्या बराड़े जायेगी) --- क्योंकि पहले ये पैम्फलैट जो बैंक वाले भेजते हैं इन्हें हम लोग कहां ढंग से देखते हैं, हमें तो यह कुछ पता ही है और शायद यह भी एक भावना रहती है कि यार, जो कुछ भी इन्होंने काटना है ना, वह तो काट ही लेंगे चाहे हम ये निर्देश पड़े या नहीं। दरअसल बहुत बार होते भी ये इतने पेचीदा हैं कि इन्हें पढ़ कर सिरदर्दी मोल लेने की इच्छा ही नहीं होती। और दूसरी बात यह है कि हम कुछ ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही पढ़े लिखे लोग किसी से ऐसी कोई भी बात करने में या अपने साथियों के साथ ही यह सब डिस्कस करने में पता नहीं क्यों अपनी कमज़ोरी समझते हैं --और ठोकरे ठोकरें खा कर सीखने में ज़्यादा विश्वास रखते हैं। कम से कम मेरे साथ तो ऐसा ही है।

हां, तो विभिन्न कारणों की वजह से (जिस की चर्चा फिर कभी कर लेंगे), अब मैं इंगलिश ब्लागिंग पर भी ध्यान देने की सोच रहा हूं ---उस के लिये मैंने कुछ स्ट्रेटैजीज़ ( शेखचिल्लीज़) बनाई है, थोड़ा इंगलिश में एसटैबलिश होने के बाद शेयर करूंगा। मेरा इंगलिश ब्लाग भी सेहत से संबंधित मुद्दों पर ही होगा। मुझे पता है कि वह कर पाना मेरे लिये इतना सहज नहीं होगा जितना अपनी ही भाषा में लोगों के साथ तुरंत ही जुड़ जाना, लेकिन जो भी होगा, देखा जायेगा क्योंकि पिछले पूरे डेढ़ साल में हिंदी चिट्ठारी से खूब प्रेम किया है (और आगे भी यह प्रेम तो जारी ही रहेगा) लेकिन इंगलिश ज़्यादा न लिख पाने की वजह से मेरा उस भाषा का एक्सप्रैशन, मेरी इंगलिश की अभिव्यक्ति प्रभावित हो रही है, इसलिये आज तो ऐसा लगता है कि अब नेट पर हिंदी एवं इंगलिश की भागीदारी फिफ्टी-फिफ्टी कर दूंगा।

फिलहाल एक काम करता हूं ---टेबल पर पड़ी चाय ठंडी हो रही है और उस के साथ पडा रस मुझे बुला रहा है, इसलिये यह सोच कर कि मेरे जैसे और भी बहुत हैं इस दुनिया में --और अपना गम गलते करने के लिये यह गाना सुन कर दिल खुश कर लेता हूं। आप भी सुनने से पहले दोबारा से चाय की फरमाईश कर डालिये।
शुभकामनायें , आप भी कहीं पप्पू न बनें।

गुरुवार, 4 जून 2009

वज़न कम करने वाली दवाईयों के बारे में आई है फिर से चेतावनी

अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन में एक बार फिर से मोटापा कम करने वाली कुछ ऐसी दवाईयों की एक लंबी-चौड़ी लिस्ट जारी की है जिन में कुछ ऐसे तत्व मौजूद हैं जो कि हमारी सेहत को बहुत बुरी तरह खराब कर सकते हैं।
मैं भी जब कभी बाज़ार वगैरा जाता हूं तो अकसर पेट कम करने वाले, वज़न कम करने वाले विज्ञापन स्कूटरों की स्टपनी के कवर पर प्रिंट हुये देखता ही रहता हूं और अकसर मेरा सुबह का हिंदी का अखबार भी मुझे इस तरह के करिश्माई नुस्खों की खबर देता ही रहता है। लेकिन मैं यह सोच कर, देख कर सकते में हूं कि चलो, हमारे यहां की तो बात क्या करें, हम लोगों की जान की तो कीमत ही क्या है, लोगों को उल्लू बनाना किसे के भी बायें हाथ का खेल है लेकिन अमेरिका जैसे विकसित देश में भी अगर ये सब चीज़ें बिक रही हैं तो निःसंदेह यह एक बहुत संगीन मामला है।
मैं शायद पहले भी बता चुका हूं कि हमारी दूर की रिश्तेदारी में एक 35 वर्ष की महिला थी --- सेहत एवं सुंदरता की मूर्ति थी --- हम लोग छोटे छोटे से थे तो हमें उसे देख कर लगता था कि हमारी उस आंटी में और हेमा मालिनी में कोई फ़र्क ही नहीं है। लेकिन परिवार वाले बताते हैं कि उन्होंने मोटापा कम ( पता नहीं, उन की क्या परिभाषा थी मोटापे की ---हमें तो वह कभी भी मोटी नहीं लगीं) करने के लिये कुछ ऐसी ही दवाईयां खाईं थी जिस से वह अपनी भूख मार लिया करती थीं। बस, कुछ ही महीनों में उन्हें लिवर-कैंसर हो गया और देखते ही देखते वह चल बसीं।
हमारे देश में एक समस्या हो तो बतायें --- चलो, इस आंटी का तो हमें पता था कि इस ने कुछ दवाईयां खाईं थीं लेकिन अधिकतर तौर पर तो परिवार वालों तक को यह पता नहीं होता कि परिवार के सदस्य किस किस मर्ज़ के लिये किस किस सयाने के चक्करों में हैं। परेशानी की बात भी तो यही है कि ये झोलाछाप नीम-हकीम ( बिना किसी क्वालीफिकेशन के ही ) मरीज़ों को अपनी बातों में इस कद्र उलझा कर रखते हैं कि उन्हें उस के आगे कोई और दिखता ही नहीं है।
अब मेरा वह जुबान की कैंसर वाला मरीज़ जिस चमत्कारी इलाज का वायदा करने वाले शख्स के चंगुल में है वह उस से इतना ज़्यादा प्रभावित है कि कोई भी बात सुनने के लिये राज़ी ही नहीं है। वह तो उस झोलाछाप की इस अदा का ही कायल है कि बंदा हर समय मुंह में पान रखे रखता है और बार बार थूकता जाता है ----और साथ में कहता है कि वह भी बंदा क्या बंदा है, कोई टैस्ट ही नहीं करवाता , बस दो बातें करता है और अपने पैन को अपने नुस्खे पर घिसट देता है। इस बार तो मैंने उस मरीज़ को थोड़ा सख्ती से कह ही दिया था कि आप अपना समय नष्ट कर रहे हैं।
हां, तो बात हो रही थी --- वज़न कम करने वाली दवाईयों की जिन्होंने अमेरिका जैसे देश में हड़कंप मचा रखा है। समस्या इस तरह की दवाईयों में जो अमेरिका में भी दिखी वह यही थी कि इन दवाईयों की पैकिंग या लेबल पर अकसर यह ही नहीं बताया गया था कि इन में क्या क्या साल्ट मौजूद हैं. और इन तथाकथित दवाईयों का जब अमेरिका की सरकारी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने परीक्षण करवाया तो इन में कुछ इस तरह की दवाईयां मिलीं जिन के बारे में सुन कर आप भी परेशान हो जायेंगे।
इन तथाकथित मोटापा दूर भगाने वाली दवाईयों में कुछ गैर-कानूनी दवाईयां भी मौज़ूद थीं।
सिबूट्रामीन ( sibutramine) – इस दवा से भूख को दबाया जाता है और इसे केवल डाक्टर के नुस्खे द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। ये जो चालू किस्म की दवाईयों की लिस्ट अमेरिका में जारी की गई है इन में से कुछ में यह दवा बहुत ही ज़्यादा मात्रा ( much higher doses than maximum daily doses) में पाई गई।
फैनप्रोपोरैक्स ( Fenproporex) – एक ऐसा साल्ट है जिस की मार्केटिंग अमेरिका में हो ही नहीं सकती।
फ्लूयोएक्सटीन ( Fluoxetine) – इस दवाई को वैसे तो डिप्रेशन के मरीज़ों को ही दिया जाता है लेकिन अगर मोटापा कम करने वाली दवाईयों में भी यह मिला दिया जाये तो इस के क्या परिणाम हो सकते हैं, शायद इस की आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
ब्यूमीटैनाईड ( Bumetanide) – यह एक जबरदस्त डाययूरैटिक – potent diuretic- है जिसे केवल डाक्टर का नुस्खा दिखा कर ही प्राप्त किया जा सकता है। डाययूरैटिक वह दवाई होती है जिसे डाक्टर लोग विभिन्न प्रकार की जांच-वांच करने के बाद ब्लड-प्रैशर के रोगी को, दिल के मरीज़ को देते हैं ----अब अगर इस तरह की दवाई बिना वजह बिना किसी डाक्टरी सलाह के केवल मोटापा घटाने के लिये इस्तेमाल की जायेंगी तो इस के परिणाम कितने खौफ़नाक निकलेंगे, इस के बारे में कोई नॉन-मैडीकल बंदा क्या सोचेगा !!
रिमोनाबैंट ( rimonabant) – इस दवा की भी अमेरिका में मार्केटिंग नहीं हो सकती।
सैटिलिस्टैट ( cetilistat) – यह मोटापा कम करने वाली एक ऐसी दवा है जिस पर अभी भी प्रयोग ही हो रहे हैं और जिस की मार्केटिंग अमेरिका में हो नहीं सकती।
फैनीटॉयन ( phenytoin) – इस दवाई को मिर्गी के इलाज के लिये दिया जाता है लेकिन लालच के अंधे सिरफिरों ने इसे मोटापा कम करने वाली दवाईयों में ही झोंक दिया।
फिनोलथलीन ( phenolphthalein) – इस को कैमिस्ट्री के एक्सपैरीमैंट्स में इस्तेमाल किया जाता है और कैंसर उत्पन्न करने में इस की संदेहास्पद भूमिका है। इस की मिलावट भी वज़न कम करने वाली तथाकथित दवाईयों में पाई गई है।
अब अमेरिका की सरकारी संस्था ने तो सारे अमेरिका को तो सचेत कर दिया लेकिन मुझे कौन बतायेगा कि मोटापा कम करने वाले जिन इश्तहारों को मैं स्कूटरों की स्टपनी पर या हिंदी के अखबारों में रोज़ाना देखता हूं आखिर इन में क्या है ------ और मुझे पूरा यकीन है कि अगर अमेरिका में इन चालू किस्म की दवाईयों में खतरनाक किस्म की मिलावट है तो फिर हमारे यहां मिलने वाली दवाईयों में क्या क्या नहीं होगा। बेशक हमारे यहां तो स्थिति अमेरिका से तो बहुत ही बदतर होगी।
तो, फिर आज के पाठ से यही शिक्षा ले ली जाये कि कभी भी इन मोटापा कम करने वाली दवाईयों के चक्कर में न ही पड़ें तो ही ठीक है। लेकिन अगर किसी ने ठान ही ली है कि मोटापा कम करने के लिये दवाईयां लेनी ही हैं तो शहर के किसी topmost specialist ( फिज़िशियन) से मिल कर ही कोई भी फैसला करें।
और एक गुज़ारिश ---अगर किसी ने पहले इस तरह की दवाईयां खाई हुई हैं तो भी किसी फिज़िशियन से अपनी पूरी जांच अवश्य करवा लें।
जाते जाते अमेरिका की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन का बहुत बहुत धन्यवाद तो अदा कर लें कि उन की इस तरह की कार्यवाई से सारे विश्व को सचेत हो जाने का एक अवसर तो मिल जाता है ----आगे सब लोग अपनी मरजी के मालिक हैं, अपना तो काम है बस एक सीटी बजा देना।

रविवार, 12 अप्रैल 2009

भारत में आ रहा है भयंकर किस्म का हैज़ा

आज सुबह यह न्यूज़-रिपोर्ट देख कर चिंता हुई कि भारत में एक भयंकर किस्म का हैज़ा दस्तक दे रहा है। एक के ऊपर एक मुसीबत ---- लोग अभी एक आपदा से उठ भी नहीं पाते और दूसरी सामने खड़ी दिखती है।
आगे गर्मी का मौसम होने की वजह से और भी एहतियात की ज़रूरत है। बात चिंताजनक तो है लेकिन जहां तक हो सके इस से बच कर ही रहना चाहिये।

बचाव के उपाय
इन के बारे में जानने के लिये यहां क्लिक करें
केवल उबला हुआ पानी अथवा जिस पानी को क्लोरीन से ट्रीट किया गया है ,वही सुरक्षित है। वैसे भी पानी की वजह से तो इतनी तकलीफ़े गर्मीयों में होती रहती हैं।
ध्यान रहे कि खाना अच्छी तरह से पका हुआ हो और जिस समय आप उसे लें वह गर्म हो।
कम पकी हुई अथवा कच्ची मछली से परहेज़ ही करना होगा।
खोमचे वालों से तरह तरह के खाद्य पदार्थ एवं पेय लेकर इस्तेमाल करना खतरे से खाली नहीं है।
ऐसे फल का सेवन करें जिस पर से छिलका आप ने स्वयं उतारा हो ----बाज़ार से कटे हुये फल लेकर खाना तरह तरह के रोगों को बुलावा देना ही है।

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हैज़े के मरीज़ों के इस्तेमाल के लिये बिस्तर
credit: flickr/Teseum

हैज़े के लिये टीके के बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुंह से ही सुनते हैं ---इस लेख में आप जब oral chlera Vaccines के अंतर्गत लिखी जानकारी देखेंगे तो पहली पंक्ति में आप एक शब्द देखेंगे ---parenteral cholera vaccine -- इस का भाव है कि इस से बचने का ऐसा टीका जिसे इंजैक्शन के द्वारा दिया जाता है जिस की वल्र्ड हैल्थ आर्गेनाइज़ेशन ने कभी सिफारिश नहीं की है। मुंह के रास्ते दिये जाने वाले टीके के बारे में पूरी जानकारी के लिये इस लिंक पर क्लिक करें।

बुधवार, 18 मार्च 2009

इसे देखने के बाद कोई है जो सिगरेट-बीड़ी की तरफ़ मुंह भी कर जाये .....

पिछले हफ्ते की बात है मैं पानीपत से एक पैसेंजर गाड़ी में रोहतक की तरफ़ जा रहा था ---हरियाणा ज़्यादा तो मैं घूमा नहीं हूं --- लेकिन जिस रास्ते से मेरा वास्ता पड़ता है वह यही है ---- पानीपत से रोहतक और रोहतक से दिल्ली ---- मैंने नोटिस किया है कि इस रूट पर कुछ बहुत ही अक्खड़ किस्म के जाहिल से लोग भी अकसर गाड़ी में मिल जाते हैं ( कृपया मेरी जाहिल शब्द को अन्यथा न लें, आप को तो पता ही है कि मुझे अनपढ़ लोगों से पता नहीं वैसे तो बहुत ही ज़्यादा सहानुभूति है ही , लेकिन जो अनपढ़ है, ऊपर से अक्खड़ हो और साथ ही बदतमीज़ भी हो , तो ऐसे बंदे को तो सहना शायद सब के बश की बात नहीं होती) ....

हां, तो उस पानीपत से रोहतक जा रही पैसेंजर गाड़ी में मेरी सामने वाली सीट पर एक 20-22 वर्ष का युवक बैठा था ---बीड़ी पी रहा था ---- मेरी समस्या यह है कि बीड़ी का धुआं मेरे सिर पर चढ़ता है तो मुझे चक्कर आने शुरू हो जाते हैं, ऐसे में उस का मेरा वार्तालाप क्या आप नहीं सुनना चाहेंगे ?
मैंने कहा ----बीड़ी बंद कर दो भई। धुआं मेरे सिर को चढ़ता है।
नवयुवक ---- ( बहुत ही अक्खड़, बेवकूफ़ी वाले अंदाज़ में ) ---- अकेला मैं ही थोड़ा पी रिहा सू---वो देख घने लोग पीन लाग रहे हैं।
मैंने कहा ----लेकिन मुझे तो इस समय तुम्हारी बीड़ी से तकलीफ़ है।
नवयुवक ----तो फिर किसी दूसरी जा कर बैठ जा ।

और साथ ही उस ने अगला कश खींचना शुरू कर दिया। मैंने चुप रहने में ही समझदारी समझी ---- क्योंकि इस के आगे अगर वार्तालाप चलता तो उन का ग्रुप या तो मेरे को जूतों से पीट देता ---और अगर मैं अपनी बात पर अड़ा रहता तो क्या पता --- रास्ते में ही कहीं गाड़ी से नीचे ही धकेल दिया जाता। वैसे मैं इतनी जल्दी हार मानने वाला तो नहीं था लेकिन मेरी बुजुर्ग मां मेरे साथ थी , इसलिये मैं चुपचाप बैठा उस बेवकूफ़ इंसान के धूम्रपान का बेवकूफ़ सा मूक दर्शक बना रहा। लेकिन मैंने भी मन ही मन में उसे इतनी खौफ़नाक गालियां निकालीं कि क्या बताऊं ?

---- जी हां, बिल्कुल एक औसत हिंदोस्तानी की तरह जिस तरह वह अपने मन की आग जगह जगह मन ही में गालियां निकाल कर शांत सी कर लेता है। चलिये, उस किस्से पर मिट्टी डालते हैं। क्या है ना इस रूट पर बस में , ट्रेन में खूब बीड़ीयां पीने-पिलाने का जश्न खूब चलता है,लेकिन मेरे जैसों को इन बीड़ी-धारियों की सुलगती बीड़ी देखते ही फ * ने लगती है---शायद उस से भी पहले जब कोई भला पुरूष बीड़ी के पैकेट को हाथ में ले कर रगड़ता है ना तो बस मेरा तो सिर तब ही दुःखने लगता है कि अब खैर नहीं। इस रूट पर ---बार बार इस रूट की बात इसलिये कर रहा हूं क्योंकि इस रूट का वाकिफ़ हूं ---भुक्तभोगी हूं --- पता नहीं दूसरे रूटों पर क्या हालात होंगे , कह नहीं सकता।

लेकिन मेरे उस जाहिल-गंवार को एक बार कुछ पूछ लेने का असर यह हुआ कि उस ने दूसरी बीडी नहीं सुलगाई ----लेकिन पहली उस ने पूरे मजे से पी। होता यह है कि कानून का इन बीड़ी पीने वालों को भी पता होता है ---इसलिये मन में यह भी डरे डरे से ही होते हैं लेकिन हम हिंदोस्तानियों का रोना यही है कि हम लोग पता नहीं चुप रहने में ही अपनी सलामती समझते हैं ----काहे की यह सलामती जिस की वजह से रोज़ाना ऐसे लोगों की बीड़ीयों के कारण हज़ारों लोगों के फेफड़े बिना कसूर के सिंकते रहते हैं।

रोहतक-दिल्ली रूट पर मैंने 1991 में कुछ हफ़्तों के लिये डेली पैसेंजरी की थी ---- डिब्बे में घुसते ही ऊपर वाली सीट पर अखबार बिछा कर आंखें बंद कर लिया करता था । इसलिये जब मुझे यह वाली सर्विस छोड़ कर दूसरी सर्विस बंबई जा कर ज्वाइन करने का अवसर मिला तो मैं ना नहीं कर पाया। तुरंत इस्तीफा दे कर बंबई भाग गया ---- शायद मन के किसी कौने में यही खुशी थी कि इस साली, कमबख्त बीड़ी से तो छुटकारा मिलेगा।

बीड़ी की बात हो रही है ---आज सुबह एक 42 वर्ष का व्यक्ति आया जो लगभग पच्चीस साल से एक पैकेट बीड़ी पी रहा था लेकिन दो महीने से बीड़ी पीनी छोड़ दी है। परमात्मा इस का भला करे ----मुझे इस के मुंह के अंदर देख कर बहुत ही दुःख हुआ। यह आया तो इस तकलीफ की वजह से था कि मुंह के अंदर कुछ भी खाया पिया बहुत लगता है , दर्द सा होता है। उस के मुंह के अंदर की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं। इस के बाईं तरफ़ के मुंह के कौने का क्या हाल है, यह आप इस तस्वीर में देख रहे अगर आप को याद होगा कि मैंने अपने एक दूसरे मरीज़ के मुंह की तस्वीर अपनी किसी दूसरी पोस्ट में डाली थी ---- लेकिन इस के मुंह की हालत उस से भी बदतर लग रही थी ।

अनुभव के आधार पर यही लग रहा था कि सब कुछ ठीक नहीं है ---- यही लग रहा था कि यह कुछ भी हो सकता है, शायद यह जख्म कैंसर की पूर्वावस्था की स्टेज पार कर चुका था । इसलिये उसे तो यह सब कुछ बहुत ही हल्के-फुलके ढंग से बताया -----पहली बार ही उस को क्या कहें, देखेंगे अब तुरंत ही उस के इस ज़ख्म की बायोप्सी ( जख्म का टुकड़े लेकर जांच की प्रोसैस को बायोप्सी कहते हैं ) ....का प्रबंध किया जायेगा और उस के बाद उचित इलाज का प्रवंध किया जायेगा।

एक बहुत ही अहम् बात यह है कि उस की दाईं तरफ़ का कौना लगभग ठीक ठाक लग रहा था ----इसलिये उस की बाईं तरफ़ के ज़ख्म का किसी चिंताजनक स्थिति की तरफ़ इशारा करता लगता है।

और आप इस के तालू की अवस्था देखिये ---आप देखिये कि इस 42 वर्षीय व्यक्ति की बीड़ी की आदत ने तंबाकू का क्या हाल कर दिया है ---- इस की भी बायोप्सी करवानी ही होगी क्योंकि वहां पर भी काफ़ी गड़बड़ हो चुकी लगती है।

उस बंदे को तो मैंने जाते जाते बिलकुल सहज सा ही कर दिया ---लेकिन लोहा गर्म देखते हुये मैंने उस के मन में निष्क्रिय धूम्रपान ( passive smoking) के प्रति नफ़रत का बीज भी अच्छी तरह से बो ही दिया ---चूंकि वह स्वयं इस बीड़ी का शिकार हो चुका था ( उस ने मुझे इतना कहा कि डाक्टर साहब, मुझे भी लग तो रहा था कि छःमहीने से मेरे मुंह में कुछ गड़बड़ तो है ) ....मैंने पहले तो उसे समझाया कि पैसिव धूम्रपान होता क्या है ---- जब कोई आप के घर में , आप के कार्य-स्थल पर आप का साथी सिगरेट-बीड़ी के कश मारता है, बस-गाड़ी में कोई बीडी से अपने शरीर को फूंक रहा होता है तो वह एक धीमे ज़हर की तरह ही दूसरे लोगों के शरीर की भी तबाही कर रहा होता है।

इसलिये मैंने उसे कहा कि जहां भी सार्वजनिक स्थान पर, अपने साथ काम करने वाले लोगों को धुआं छोड़ते देखो , तो चुप मत रहो ----- बोलो, उसे बताओ कि आप के धुएं से मेरे को परेशानी है। आप यह काम यहां नहीं कर सकते -----यहां पर यह सब करना कानूनन ज़ुर्म है । ऐसा सब लोग कहने लगेंगे तो इस का प्रभाव होगा ---मेरा जैसा कोई अकेला कहेगा तो उसे बीड़ी-मंडली के द्वारा की जाने वाली जूतों की बरसात के डर से या गाड़ी से नीचे गिराये जाने के डर से अपना मुंह बंद करना पड़ सकता है ----अब सरकार गाड़ी के एक एक डिब्बे में तो घुसने से रही ----कुछ काम तो पब्लिक भी करे ----इन बीड़ी-सिगरेट पीने वालों को बतायो तो सही कि हमें आप की बीड़ी सिगरेट पीने से एतराज़ है ---इसे बंद करें ----वरना धूआं बाहर न निकालें ---इसे अपने फेफड़े अच्छी तरह से झुलसा लेने तो दो -------जब हर बंदा इस तरह की आपत्ति करने लगा तो फिर देखिये इन का क्या हाल होगा !!

वैसे आज सुबह मैं अपने मरीज़ से यह पैसिव स्मोकिंग वाली बात कर रहा था और वह बेहद तन्मयता से सुन कर मुंडी हिला रहा था तो मुझे बहुत ही सुकून मिल रहा था ---यह एक नया आईडिया था जिस पर शायद मैंने अपने मरीज़ों को इतना ज़ोर देने के लिये कभी प्रेरित नहीं किया था ----- क्योंकि मेरा बहुत सारा समय तो उन की स्वयं की बीड़ी सिगरेट छुड़वाने में निकल जाता है ---- लेकिन आज से यह बातें भी सभी मरीज़ों के साथ ज़रूर हुआ करेंगी । और हां, मुझे लग रहा था कि सार्वजनिक स्थानों पर पैसिव स्मोकिंग के बारे में बहुत कुछ लिख कर इस का मैं इतना प्रचार प्रसार करूंगा कि उस पैसेंजर गाड़ी वाले युवक की ऐसी की तैसी ---- जिस ने मेरे को कहा कि तू जा के किसी दूसरी जगह पर बैठ जा ------ मज़ा तो तब आये जब इन्हीं रूटों पर लोग गाड़ी में बीड़ी सिगरेट सुलगायें तो साथ बैठा दूसरा बंदा उस के मुंह से बीड़ी छीन कर बाहर फैंक दे -----------तो फिर, देर किस बात की है ------ह्ल्ला बोल !!!!!--------------लगे रहो, मुन्ना भाई। मेरे इस सपने को साकार करने के लिये आप में से हरेक का सहयोग चाहिये होगा ----वैसे, अभी तो इस बात की कल्पना कर के कि बस-गाड़ी में सफर कर रहे किसी बंधु की जलती बीड़ी उस के मुंह से छीन कर बाहर फैंके जा रही है ----ऐसा सोचने से ही मन गदगद हो गया है। हम लोगों की खुशीयां भी कितनी छोटी छोटी हैं और कितनी छोटी छोटी बातों से हम खुश हो जाते हैं ----- तो फिर इस सारे समाज को यह छोटी सी खुशी देने से हमें कौन रोक रहा है ?

PS....After writing this post, I just gave it to my son to have a look and I was feeling a bit embarrased about the too much frankness shown in the post. With somewhat I shared with my son that I feel like not posting it. So, I am going to delete it. "Papa, if you are not feeling like opening your heart --- your thoughts in your own blog, then where would you get a better opportunity to do that stuff like that !!" So, after getting his nod and clearance, i am just going ahead and pressing the PUBLISH button.

Good luck !!

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

अगर मुंह में ही ये हालात हैं तो शरीर के अंदर क्या हाल होगा ?

जिस व्यक्ति के मुंह की तस्वीर आप इस दोनों फोटो में देख रहे हैं, इन की उम्र 50 साल की है और ये पिछले 20-25 सालों से धूम्रपान कर रहे हैं। यह मधुमेह की तकलीफ़ से भी परेशान हैं। जब इन्होंने धूम्रपान शुरू किया तो पहला कश यारों-दोस्तों के साथ बैठे बैठे यूं ही मज़ाक में खींचा था ---और इन्होंने भविष्य में दोबारा कश न खींचने की बात कही थी क्योंकि धुऐं से इन को चक्कर सा आने लगा था।

लेकिन उन्हीं यारों दोस्तों के साथ उठते बैठते कब यह मज़ाक एक बदसूरत हकीकत में बदल गया इन्हें भी इस का पता ही नहीं चला। वैसे तो मेरे पास यह दांत की तकलीफ़ के लिये आये थे ----आप देख ही रहे हैं कि तंबाकू के इस्तेमाल ने इन के मुंह में क्या तबाही कर रखी है !!

ऐसे मरीज़ों की दांत की तकलीफ़ को तो मैं बाद में देखता हूं ---पहले उन्हें तंबाकू की विनाश लीला से रू-ब-रू होने का पूरा मौका देता हूं। यह जो आप पहली तस्वीर में देख रहे हैं यह इन के बायें तरफ़ की गाल का अंदरूनी हिस्सा है ---- यह भी ओरल-ल्यूकोप्लेकिया ही है ---अर्थात् मुंह के कैंसर की पूर्व-अवस्था । आप दूसरी तस्वीर में दाईं तरफ़ की गाल का भी अंदरूनी हिस्सा देख रहे हैं कि उस तरफ़ भी गड़बड़ शुरू हो चुकी है।

अब यह कौन बताये कि कौन सा ल्यूकोप्लेकिया मुंह के कैंसर में तबदील हो जायेगा और इसे ऐसा करने में कितने साल लगेंगे ------ लेकिन फिर भी इस तरह का जोखिम आखिर कौन लेना चाहेगा ? – जब सरेआम पता है कि मुंह में एक शैतान पल रहा है तो फिर भी क्यों इस को नज़रअंदाज़ किया जाये। ऐसी अवस्था को नज़रअंदाज़ करना एक अच्छा-खासा जोखिम से भरा काम है। इसलिये इस का तुरंत इलाज करवाना ज़रूरी है।

लेकिन इस का इलाज कैसे हो ? ---सब से पहली बात है कि जब भी पता चले कि यह तकलीफ़ है तो उसी क्षण से सिगरेट-बीड़ी के पैकेट पर गालीयों की जबरदस्त बौछार कर के ( जैसे जब-व्ही -मेट --jab we met की नायिका ने अपने पुराने ब्वॉय-फ्रैंड पर की थी !! , अगर हो सके तो उस से भी ज़्यादा ....!! ) बाहर नाली में फैंक दिया जाये। मेरे मरीज़ों को मेरी यह बात समझ में बहुत अच्छी तरह से आ जाती है जब मैं उन्हें यह कहता हूं कि देखो, भई, बहुत पी ली बीड़ीयां अब तक ---- अब इसे कभी तो छोड़ोगे, और अब खासकर जब आप को पता लग चुका है इस तंबाकू ने अपना रंग आप के मुंह में दिखा दिया है -----ऐसे में अगर अब भी इस कैंसर की डंडी ( सिगरेट- बीड़ी / कैंसर स्टिक) का मोह नहीं छूटा तो समझो कि धीरे धीरे आत्महत्या की जा रही है।

सिगरेट बीड़ी छोड़ कर इस ओरल-ल्यूकोप्लेकिया के इलाज की तरफ़ ध्यान दिया जाये – अगर तो आप किसी ऐसे शहर में रहते हैं जहां पर कैंसर हास्पीटल है तो वहां पर कैंसर की रोकथाम वाले विभाग में जाकर इस की ठीक से जांच करवायें, ज़रूरत होगी तो उस जगह से थोड़ा टुकड़ा लेकर बायोप्सी भी की जायेगी और फिर समुचित इलाज भी किया जायेगा। यह बहुत ही ज़रूरी है ----लेकिन इलाज से पहले , प्लीज़, कृपया, मेहरबानी कर के धूम्रपान की आदत को लात मार दें तो ही बात बनेगी।

मैं तंबाकू के विरोध में जगह जगह इतना बोलता हूं कि कईं बार ऊब सा जाता हूं –यहां तक कि इस किस्म के लेख लिख कर भी थकने लगता हूं लेकिन फिर वही ध्यान आता है कि अगर हम लोग ही थक कर, हौंसला हार कर बैठ गये तो यह तंबाकू नामक गुंडे का हौंसला तो और भी बुलंद हो जायेगा।

सोचने की बात यह है कि मुंह में तो यह तंबाकू के विभिन्न उत्पाद जो ऊधम मचा रहे हैं वह तो डाक्टर ने मरीज़ का मुंह खुलवाया और देख लिया लेकिन शरीर के अंदरूनी हिस्सों में जो यह तबायी लगातार मचाये जा रहा है, वह तो अकसर बिना किसी चेतावनी के उग्र रूप में ही प्रकट होती है जैसे कि दिल का कोई भयंकर रोग, श्वास-प्रणाली के रोग, फेफड़े का कैंसर, मूत्राशय का कैंसर -----------आखिर ऐसा कौन सा अंग है जो इस के विनाश से बचा रह पाता है ?

इसलिये केवल और केवल एक ही आशा की किरण है कि हम लोग सभी तरह के तंबाकू उत्पादों से दूर रहें -----यह भी एक खौफ़नाक आतंकवादी ही है जो गोली से नहीं मारता, बल्कि यह धीमा ज़हर है, धीरे धीरे मौत के मुंह में धकेलता है। सोचने की बात यह भी है कि आखिर यह सब जानते हुये भी किस फरिश्ते की इंतज़ार कर रहे हैं जो आकर हमें इस शैतान से निजात दिलायेगा।

तंबाकू या स्वास्थ्य -----------------आप केवल एक को ही चुन सकते हैं !!

गुरुवार, 5 मार्च 2009

क्यों हूं मैं खुली बिकने वाली दवाईयों का घोर विरोधी ?

आज सुबह ही बैंक में मेरी मुलाकात एक परिचित से हुई ---अच्छा खासा पढ़ा लिखा , अप-टू-डेट है और बीस-पच्चीस हज़ार का मासिक वेतन लेता है। बताने लगा कि डाक्टर साहब कल शाम को जब मेरे गला खराब हुआ तो मैं फलां फलां डाक्टर से कुछ दवाईयां लेकर आया , तो सुबह तक अच्छा लगने लगा। इस के साथ ही उस ने एक अखबार के कागज़ के छोटे से टुकड़े में लपेटी तीन चार दवाईंयां ---दो कैप्सूल, एक बड़ी गोली, एक छोटी गोली –दिखाईं। पूछने लगा कि क्या यह दवाई ठीक है ?

सब से पहले तो मैंने उसे यही समझाना चाहा कि यार, ठीक गलत का पता तो तभी चलेगा ना जब यह पता लगे कि आप जो दवाईयां ले रहो हो उन में आखिर है क्या !! वह मेरी बात समझ रहा था, आगे कहने लगा कि डाक्टर साहब, लेकिन मेरे को तो इस से आराम लग रहा है। मैंने यह भी कहा कि यार, देखो बात आराम आने की शायद इतनी नहीं है, बात सब से ज़्यादा ज़रूरी यह है कि आप जैसे पढ़े-लिखे इंसान को यह तो पता होना ही चाहिये कि आप दवाईयां खा कौन सी रहे हैं। फिर वह मेरे से पूछने लगा कि अब आप बताओ कि यह बाकी पड़ी खुराकें खाऊं कि नहीं --- तब मुझे उसे कहना ही पड़ा कि मत खाओ आगे से यह दवाईयां।

आज कल यह बड़ी विकट समस्या है कि नीम हकीम, झोला-छाप डाक्टर और कईं बार तरह तरह के गैर-प्रशिक्षित डाक्टर लोग इस तरह की खुली दवाईयां मरीज़ों को बहुत बांटने लगे हैं। मैं इन से इतना चिढ़ा हुआ हूं कि जब मुझे कोई दिखाता है कि इन खुली दवाईयों की खुराकें ले रहे हैं तो मुझे उन मरीज़ों को इतना सचेत करना पड़ता है कि वे खुद ही मेरी ओपीडी में पडें डस्ट-बिन में उन बची खुराकों को फैंक देते हैं।

इन खुली दवाईयों से आखिर क्यों है मुझे इतनी नाराज़गी ? –इस का सब से बड़ा कारण यह है कि इन दवाईयों के इस्तेमाल करने वाले मरीज़ों के अधिकारों की रक्षा शून्य के बराबर होती है। उन्हें पूरी तरह अंधेरे में रखा जाता है --- न दवाई का पता, न कंपनी का पता ---- यह तो भई बस में बिक रही दर्द-निवारक गोलियों की स्ट्रिप जैसी बात ही लगती है। उन्हें अगर किसी दवाई से रिएक्शन हो भी जाता है तो उन्हें यह भी नहीं पता होता कि आखिर उन्हें किस दवा के कारण यह सब सहना पड़ा। इसलिये संभावना रहती है कि भविष्य में भी वे दोबारा उसी तरह की दवाईयों के चंगुल में फंसे।

दूसरा कारण है कि आज कल वैसे ही नकली दवाईयों का बाज़ार इतना गर्म है कि हम लोग इतने इतने साल प्रोफैशन में बिताने के वाबजूद कईं बार चकमा खा जाते हैं। अकसर ये नीम हकीमों द्वारा बांटी जाने वाली दवाईयां बहुत ही सस्ते किस्म की, घटिया सी होती हैं ------इनका जितना विरोध किया जाये उतना ही कम है। तीसरा कारण है कि मुझे पूरा विश्वास है कि इन तीन-चार गोलियों-कैप्सूलों में से जो सब से छोटी सी गोली होती है वह किसी खतरनाक स्टिरायड की होती है ----steroid ----खतरनाक शब्द केवल इस लिये लिख रहा हूं कि ये लोग इन बहुत ही महत्वपूर्ण दवाईयों का इतना ज़्यादा गलत- उपयोग करते हैं कि बिना वजह भोले-भाले मरीज़ों को भयानक शारीरिक बीमारियों की खाई में धकेल देते हैं, इस लिये मैं इन का घोर विरोधी हूं और हमेशा यह विरोध करता ही रहूंगा।

नकली, घटिया किस्स की दवाईयों से ध्यान आ रहा है ---पंद्रह-बीस साल पहले की बात है कि हमारा एक दोस्त बता रहा था कि रोहतक शहर में उस के पड़ोस में एक नीम-हकीम अपने बेटे के साथ मिल कर रात के समय खाली कैप्सूल में मीठा सोडा और बूरा चीनी भरते रहते थे और सुबह मरीज़ों का इस से कल्याण किया करते थे। लालच की भी हद है !!--- यहां यह बताना ज़रूरी लग रहा है कि यह खाली कैप्सूलों के कवर बाज़ार में पैकेटों में बिकते हैं –और बस केवल चालीस-पचास रूपये में एक हज़ार रंग-बिरंगे कवर उपलब्ध हो जाते हैं। अब आप ही सोचें कि खुली दवाईयों को खाना कितना खतरनाक काम है ------अब कौन इन खाली कवर में क्या डाले, यह तो या तो डालने वाला जाने या ईश्वर ही जाने !!

मुझे अकसर लगता है कि मेरी जो यह खुली दवाईयों के बारे में राय है शायद इस के विरोध में किसी के मन में यह विचार भी आता हो कि यह तो हाई-फाई बातें कर रहा है , अब अगर किसी मरीज़ को बीस रूपये में दो-तीन दिन की दवाई मिल रही है तो इस में बुराई ही क्या है !! देश में निर्धनता इतनी है कि मेरे को भी इस बात का सही समाधान सूझ नहीं रहा ---- अगर जनसंचार के विभिन्न माध्यम इस तरह की बातों के प्रचार के लिये बढ़-चढ़ कर आगे आयें तो शायद कुछ हो सकता है।

ऐसा मैंने सुना है कि कुछ क्वालीफाईड डाक्टर भी कुछ तरह की दवाईयां ज़्यादा मात्रा में खरीद कर मरीज़ों को अपने पास से ही देते हैं, अब ऐसे केसों में यह निर्णय आप लें कि आप क्या उन्हें यह कहने के लिये तत्पर हैं कि डाक्टर साहब, कृपया आप नुस्खा लिख दें, हम लोग बाज़ार से खरीद लेंगे। यह बहुत नाज़ुक मामला है, आप देखिये कि इसे आप कैस हैंडल कर सकते हैं। मेरे विचार में अगर आप किसी क्वालीफाइड डाक्टर से इस तरह की खुली दवाईयां लेते हैं तो भी आप के पास ली जाने वाली दवाईयों का नुस्खा तो होना ही चाहिये।

कईं बार हास्पीटल में दाखिल मरीज़ों को नर्स के द्वारा खुली दवाईयां दी जाती हैं --- वो बात और है, दोस्तो, क्योंकि उस वक्त हम लोगों ने पूरी तरह से अपने आप को उस अस्पताल के हाथों में सौंपा होता है। बहुत बार तो नर्स आप की सुविधा के लिये गोलियों एवं कैप्सूलों का कवर उतार कर ही देती हैं , मेरे विचार में इस के बारे में कोई खास सोचने की ज़रूरत नहीं होती, यह एक अलग परिस्थिति है।

गुरुवार, 29 जनवरी 2009

आज एक पुराने पाठ को ही दोहरा लेते हैं !

सीख कबाब आप के शहर में भी खूब चलते होंगे---लेकिन इसे जानने के बाद शायद आप कभी भी उस तरफ़ का रूख ही न करना चाहेंगे --- ब्रिटेन के विभिन्न शहरों में बिकने वाले लगभग 500 कबाबों के अध्ययन करने से यह पता चला है कि इन में इतनी वसा, इतना नमक और इस तरह का मांस होता( shocking level of fat, salt and mystery meat !) है कि इसे जान कर आप भी हैरान-परेशान हुये बिना रह न पायेंगे।

जब कोई व्यक्ति कबाब खाता है तो समझ लीजिये उसे खाकर वह अपने दिन भर की नमक की ज़रूरत का 98प्रतिशत खाने के साथ साथ लगभग एक हज़ार कैलोरीज़ खपा लेता है। कहने का मतलब कि एक महिला को सारे दिन में जितनी कैलोरीज़ लेने की ज़रूरत है , उस का आधा भाग तो एक कबाब ने ही पूरा कर दिया। कबाब खा लेने से दैनिक सैचुरेटेड फैट की मात्रा का डेढ़ गुणा भी निगल लिया ही जाता है। कुछ ऐसे कबाब हैं जिन में लगभग दो हज़ार कैलोरीज़ का खजाना दबा होता है।

चिंता की बात यह भी तो है कि इन में से बहुत से कबाब तो ऐसे पाये गये जिन्हें बनाने के लिये वह मांस इस्तेमाल ही नहीं किया गया था जिस का नाम इंग्रिडिऐंट्स में लिखा गjया था। ज़रूरी नहीं कि कुछ भी सीखने के लिये सारे तजुर्बे खुद ही किये जाएं ----दूसरों के अनुभव से भी तो हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। और यहां इस अध्ययन से हम यह सीख क्यों न ले लें कि अगर ब्रिटेन में यह सब हो रहा है तो अपने यहां क्या क्या नहीं हो रहा होगा ? -----यह सोच कर भी हफ्तों पहले खाये कबाब की मात्र याद आने से ही उल्टी जैसा होने लगे तो कोई बड़ी बात नहीं है !!

ऊपर लिखी नमक वाली बात से तो मैं भी सकते में आ गया हूं –इस समय ध्यान आ रहा है कि यह नमक हमारी सेहत के लिये इतना जबरदस्त विलेन है लेकिन हम हैं कि किसी की सुनने को तैयार ही नहीं है, बस अपनी मस्ती में इस का अंधाधुंध इस्तेमाल किये जा रहे हैं -----जिस की वजह से उच्च रक्तचाप एवं हृदय रोग के चक्कर में फंसते चले जा रहे हैं।

नमक के बारे में अमेरिका में लोग कितने सजग हैं कि न्यू-यार्क सिटी में विभिन्न रेस्टरां, बेकरर्ज़, होटलों आदि को कह दिया गया है कि नमक के इस्तेमाल में 25 फीसदी की कटौती तो अभी कर लो, और 25 फीसदी की कटौती का लक्ष्य अगले दस साल के लिये रखो---- क्योंकि यह अनुमान है कि इस 50फीसदी नमक की कटौती से ही हर साल लगभग डेढ़ सौ अमेरिकियों की जान बचाई जा सकती है।

और जिन वस्तुओं में नमक कम करने की बात इस समय हो रही है उन में पनीर, बेक्र-फॉस्ट सीरियल्ज़, मैकरोनी, नूडल्स, केक, मसाले एवं सूप आदि शामिल हैं ---- ( cheese, breakfast cereals, bread, macaroni, noodle products, condiments, soups) .

न्यूयार्क सिटी बहुत से मामलों में सारे विश्व के लिये एक मिसाल सामने रखता है ---पहले वहां पर विभिन्न रेस्टरां में ट्रांस-फैट्स के इस्तेमाल पर रोक लगी , फिर हाल ही में वहां पर होटलों के मीनू-कार्डों पर बेची जाने वाली वस्तुओं के नाम के आगे उन में मौज़ूद कैलोरीज़ का ब्यौरा दिया जाने लगा और अब इस नमक को कम करने की मुहिम चल पड़ी है। इस से हमें भी काफ़ी सीख मिलती है – इतना कुछ तो सरकार किये जा रही है ---और किसी के घर आकर नमकदानी चैक करने से तो रही !!

हमें बार बार सचेत किया जा रहा है कि नमक एक ऐसा मौन हत्यारा है जिसे हम अकसर भूले रहते हैं। इसी भूल के चक्कर में बहुत बार उच्च रक्तचाप का शिकार हो जाते हैं, गुर्दे नष्ट करवा बैठते हैं, दिल के मरीज़ हो जाते हैं और कईं बार यही मस्तिष्क में रक्त-स्राव ( stroke) का कारण भी यही होता है। सन् 2000 में एक सर्वे हुआ था कि अमेरिका में पुरूष अपनी दैनिक ज़रूरत से दोगुना और महिलायें लगभग 70 फीसदी ज़्यादा नमक का इस्तेमाल करते हैं और इस के दुष्परिणाम रोज़ाना हमारे सामने आते रहते हैं, लेकिन फिर भी पता नहीं हम क्यों समझने का नाम ही नहीं ले रहे , आखिर किस बात की इंतज़ार हो रही है ?

एक बार फिर से उस पुराने पाठ को याद रखियेगा कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन 2300मिलिग्राम सोडियम से ज़्यादा सोडियम इस्तेमाल नहीं करना चाहिये ---इस 2300 मिलिग्राम सोडियम का मतलब है कि सारे दिन में एक चाये वाले चम्मच से ज़्यादा खाया गया नमक तबाही ही करता है ------हाई-ब्लड प्रैशर, हृदय रोग से बचना है तो और बातों के साथ साथ यह नमक वाली बात भी माननी ही होगी------ इस खामोश हत्यारे से जितना बच कर रहेंगे उतना ही बेहतर होगा।

यह पुराने पाठ को दोहरा लेने वाली बात कैसी रही ? -- स्कूल में भी जब हम लोग कोई पाठ पढ़ते थे, अपने मास्टर साहब कितने प्यार से उसे दोहरा दिया करते थे ---बाद में हम लोग उसे घर पर दोहरा लिया करते थे और फिर कईं बार टैस्ट से पहले, त्रैमासिक, छःमाही, नौ-माही परीक्षा से पहले सब कुछ बार बार दोहरा करते थे और फिर जब बोर्ड की मैरिट लिस्ट में नाम दिखता था तो क्या जबरदस्त अनुभव होता था , लेकिन जो शागिर्द मास्टर के पढ़ाये पाठ को आत्मसात करने में ढील कर जाते थे उन का क्या हाल होता था , यह भी हम सब जानते ही हैं -------तो फिर उन दिनों की तरह अपनी सेहत के लिये इन छोटी छोटी हैल्थ-टिप्स को नहीं अपने जीवन में उतार लेते ----- आखिर दिक्तत क्या है !! ----मास्टर लोगों की मजबूरी यही है कि कॉरपोरल पनिशमैंट के ऊपर प्रतिबंध लग चुका है , वरना हम लोगों की क्या मजाल कि ..............................!!

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

अनहोनी को होनी कर दें ...!!

निःसंदेह अमर अकबर एंथोनी में निरूपा राय को एक साथ अकबर और एंथोनी का रक्त चढ़ता दिखाते हुये रील-लाइफ़ में एक अनहोनी को होनी बता कर के तो दिखा दिया। लेकिन ऐसा रियल लाइफ में नहीं होता है क्योंकि जब किसी रक्त-दाता से रक्तदान प्राप्त होता है तो उस की कईं प्रकार की जांच होती है।


इसी बात पर ध्यान आ रहा है कि ये जो डाक्टर लोग रेडियो एवं टीवी वगैरह पर आते हैं इन की सब बातें पूरे ध्यान से सुननी चाहिये क्योंकि अकसर मैंने यह देखा है कि ये सारी उम्र भर के अनुभव को उस एक घंटे के कार्यक्रम में श्रोताओं से साझा कर देना चाहते हैं। ऐसे ही मुझे दो-दिन पहले विविध-भारती पर सुने एक ऐसे ही कार्यक्रम का ध्यान आ रहा है जिस में वह किसी ब्लड-बैंक के डाक्टर से की गई बातचीत का प्रसारण कर रहे थे।


अकसर हम लोग सोचते हैं कि किसी सर्टीफाइड ब्लड-बैंक से लिया गया रक्त लिया है तो वह शत-प्रतिशत सुरक्षित ही होता है। लेकिन डाक्टर साहब इस बात पर भी प्रकाश डालने का प्रयत्न कर रहे थे कि ठीक है, रक्त किसी सर्टीफाइड बैंक से लिया है लेकिन फिर भी कुछ बीमारी तो इस प्रकार से लिये रक्त से भी फैलने का रिस्क तो बना ही रहता है ---चाहे यह रिस्क होता बहुत कम है !!

अब आप का यह सोचना बिलकुल मुनासिब है कि अब यह कौन सी नईं मुसीबत है कि किसी मान्यता-प्राप्त ब्लड-बैंक से रक्त लेकर भी रिस्क की चिंता बनी रहे। दोस्तो, यह इसलिये है क्योंकि अभी भी बहुत से ऐसी वॉयरस हैं जिन का हमें पता ही नहीं है। जिन वॉयरसों अथवा जिवाणुओं का हमें पता है उन की तो हम नें रक्त दाता से रक्त लेकर जांच कर डाली लेकिन जिन के बारे में अभी चिकित्सा विज्ञान को कुछ भी पता ही नहीं है, उन का क्या ? कल ही मैं पढ़ रहा था कि रक्त के चढ़ाने से एक अन्य नईं सी बीमारी ( नाम ध्यान में नहीं आ रहा ) के फैलने के रिस्क का भी पता चला है ।

चलिये इस नईं सी बीमारी का तो मैं नाम भूल गया – लेकिन हैपेटाइटिस सी का तो नाम हम सब को याद है। दोस्तो, रक्त-दान से प्राप्त किसी भी रक्त की थैली के बाहर लिखा होता है कि इस रक्त की वीडीआरएल, हैपेटाइटिस बी, हैपेटाइटिस सी, एच-आई-व्ही, मलेरिया के जीवाणुओं के लिये जांच की जा चुकी है और इस सुरक्षित है ।
अकसर सर्टीफाइड सरकारी ब्लड-बैंक रक्त के एक यूनिट के लिये 250 रूपये की रकम लेते हैं – और यह रक्त की कीमत नहीं है (!!) , यह तो इसे टैस्टिंग करने की कीमत है और वह भी ये सब कैसे कर पाते हैं मैं इस का पता लगा कर बताऊंगा क्योंकि अकसर बाजार में ये सारे टैस्ट ही एक हज़ार-बारह सौ रूपये में होते हैं क्योंकि हैपेटाइटिस सी के लिये रक्त की जांच करने के ही लगभग 650 रूपये का खर्च बैठता है।

बात मुझे आज हैपेटाइटिस सी के बारे में ही करनी है --- मलेरिया, वीडीआरएल टैस्ट के साथ साथ हैपेटाइटिस बी और एचआईव्ही की जांच भी होती है , यह तो आप सब अच्छी तरह से जानते ही हैं लेकिन हैपेटाइटिस सी के बारे में इतना कहना चाहता हूं कि रक्त दान से प्राप्त रक्त की हैपेटाइटिस सी के लिये जांच अभी पिछले कुछ ही सालों से शुरू की गई है ----पहले यह टैस्टिंग नहीं की जाती थी –और जब से यह एचआईव्ही का शैतान आ गया तो उस के बाद से ही ये सारे टैस्ट वगैरह होने लगे।

इस का क्या यह मतलब है कि जब से हम लोगों ने रक्त के लिये इस तरह के टैस्ट करवाने शुरू कर दिये उस समय से ही ये बीमारियां हैं ---नहीं, उस से पहले ही से ये बीमारियां हैं लेकिन हमें इन के जीवाणुओं के बारे में ही पता ही न था और अगर पता भी था तो हमारे पास कुछ बीमारियों को पता करने के साधन नहीं थे और जहां कहीं किसी बीमारी अथवा इंफैक्शन का पता करने के लिये साधन थे , वहां तब यह पालिसी ही नहीं थी अथवा शायद ज़रूरत ही नहीं समझी जा रही थी कि इस बीमारी के लिये भी रक्त की जांच किये जाने की ज़रूरत है !!

अब यह पढ़ कर यह विचार आना कि यह सब भ्रम मात्र हैं ---- क्या पहले रक्त नहीं चढ़ा करता था ( blood transfusion) ---पहले भी तो यह सब होता ही था ना ---- ठीक है , होता तो था लेकिन जैसे कि ऊपर बार बार बताया जा चुका है कि हमारे पास कुछ बीमारियों की टैस्टिंग करने का कोई जुगाड़ ही न था।

अब चलिये हैपेटाइटिस की ही बात करते हैं ----कहां किसी को पीलिया होने पर इतनी जांच की जाती थी ----बस, पीलिया हो गया है तो यह कह दिया जाता था कि इस का सारा रक्त पानी बन गया है – और कुछ बच जाते थे और कुछ लंबे समय तक बीमार रहते थे और कुछ को पीलिये की बीमारी लील लिया करती थी। लेकिन आज किसी की व्यक्ति को जब पीलिया होता है तो तुरंत उस की जांच की जाती है कि यह दूषित पानी पीने की वजह से है ( हैपेटाइटिस ए) , दूषित रक्त अथवा ऐसे ही अन्य कारणों की वजह से ( हैपेटाइटिस बी, सी) , शराब द्वारा लिवर को तबाह कर दिये जाने की वजह है , पित्ते में पत्थरी की वजह से है ..........कहने का भाव यह है कि जो भी कारण पता चलता है उस के मुताबिक मरीज़ का इलाज शुरू कर दिया जाता है।

अब जिस बात पर मैं ज़ोर देना चाहता हूं कि जब हैपेटाइटिस सी की बीमारी की जांच नहीं हुआ करती थी , बीमारी तो यह तब भी थी और रक्तदान से प्राप्त रक्त को किसी को चढ़ाने के कारणवश फैलती तो होगी लेकिन किसी को पता ही नहीं चलता था । फिजिशियन से बात हो रही थी कि जिस दौर में हैपेटाइटिस सी का टैस्ट नहीं किया जाता था , उस ज़माने में जिन लोगों को रक्त चढ़ाया गया होगा, उन में हैपेटाइटिस सी की पुरानी बीमारी ( chronic hepatitis C infection) होने की संभावना तो है ही----यह रिस्क तो उन को झेलना ही पड़ा।

हैपेटाइसिस सी के बारे में थोड़ी बातें जाननी ज़रूरी हैं ---- इस इंफैक्शन के बारे में यह कहा जा सकता है कि यह वॉयरल सिकनैस खामोश रह सकती है और जिस का इलाज करना मुश्किल तो हो सकता है लेकिन इस का इलाज हो भी सकता है ।

हैपेटाइटिस सी इंफैक्शन का पता कईं बार तब चलता है जब बहुत सालों तक यह लिवर को तबाह कर चुकी होती है। विकसित देशों में तो आज की तारीख में लिवर ट्रांसप्लांट का एक मुख्य कारण ही वॉयरल हैपेटाइटिस है।
हैपेटाइटिस सी के बारे में यह बात बहुत रोचक है कि आज कल जिस तरह की दवाईयां उपलब्ध हैं उन के इस्तेमाल से पुरानी इंफैक्शन के 40 से 80 प्रतिशत केसों को जड़ से नष्ट किया जा सकता है।

सब से ज़्यादा ध्यान देने योग्य बात यही है कि हैपेटाइटिस सी से इंफैक्शन का कईं कईं साल तक पता ही नहीं चलता । ये वायरस इतनी चंचल है कि अकसर यह कईं सालों तक सोई रहती है और उस के बाद यह एक ऐसा रूप धारण कर लेती है कि डाक्टर लोग भी असमंजस की स्थिति में हैं कि इस के इलाज की सिफारिश करें अथवा मरीज़ों को सजग रहते हुये इंतज़ार करने की सलाह दें ( wait and watch !!) .

कहीं आप को यह सुन कर एक झटका न लगे कि अमेरिका जैसे देश में 32 लाख लोग ऐसे हैं जिन में हैपेटाइटिस सी की क्रानिक इंफैक्शन तो है लेकिन उन्हें इस का पता नहीं है ---- ऐसा कहा जाता है कि पांच में से चार लोगों में जब यह इंफैक्शन पहली बार होती है तो इस के कुछ भी लक्षण नहीं होते ( no symptoms).

अमेरिका में तो बहुत से लोगों को तो तब ही इस हैपेटाइसिस सी की बीमारी का पता चलता है जब वे रक्त दान देते हैं अथवा हैल्थ इंश्योरैंस के लिये उन का सारा चैक-अप होता है।

जिन लोगों को हैपेटाइटिस सी से इंफैक्शन होती है उन में से लगभग एक तिहाई लोग ऐसे होते हैं जिन की रोग-प्रतिरोधक शक्ति ( natural immunity) ही इस वॉयरस का खात्मा कर देती है लेकिन 70 फीसदी लोग ऐसे होते हैं जिन में यह एक क्रॉनिक संक्रमण का रूप ले लेती है जिस की वजह से लिवर की सिरोसिस ( liver cirrhosis) एवं लिवर के कैंसर की संभावना बहुत बढ़ जाती है। विडंबना देखिये कि जो लोग हैपेटाइटिस सी से इंफैक्शन होने के तुरंत बाद बीमार हो जाते हैं उन में इस वायरस के खत्म हो जाने की काफ़ी संभावना रहती है।
तो इस हैपेटाइटिस सी का इलाज क्या है ? – इस के लिये दवाईयां तो हैं जो महंगी तो हैं ही –इस के साथ ही साथ उन के साइड-इफैक्टस भी सीरियस किस्म के होते हैं । इसलिये कईं बार यह फैसला करना कि किस का इलाज किया जाये और किस का नहीं थोड़ा पेचीदा सा काम ही होता है।


विशेषज्ञों के अनुसार लगभग एक तिहाई ऐसे मरीज़ जिन में यह क्रॉनिक इंफैक्शन होती है उनमें लिवर सिरोसिस हो जाती है ---- पांच से दस प्रतिशत मरीज़ ऐसे होते हैं जिन में लिवर कैंसर हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो बहुत से मरीज़ क्रॉनिक इंफैक्शन होते हुये भी बिना किसी तकलीफ़ के ज़िंदगी बिता देते हैं --------मुश्किल बात यही बताना है कि कौन सा बंदा ठीक चलता रहेगा और किस की इस क्रॉनिक इंफैक्शन की वजह से मौत हो जायेगी।

अमेरिका में 1980 के दशक में हैपेटाइटिस सी इंफैक्शन के हर साल दो लाख चालीस हज़ार नये केस पकड़ में आते थे और यह संख्या 2006 में केवल 19000 रह गई है । लेकिन हम लोग ज़रा अपने यहां की हालात की कल्पना करें ----- सीधा जवाब है कि हमें पता ही नहीं है कि हम कहां पर खड़े हैं --- इस की एक छोटी सी शुरूआत मैं सूचना के अधिकार के अंतर्गत यह पता कर के करने की करूंगा कि पिछले पांच सालों में रक्त-दान के कितने केसों में से कितने लोगों में हैपेटाइटिस सी का संक्रमण पाया गया है।

हां, तो आप यह सब पढ़ कर भयभीत तो नहीं हो गये ----क्या करें, थोड़ा बहुत आदमी हो ही जाता है और विशेष कर अगर किसी को उस ज़माने में रक्त चढ़ाया जा चुका है जब रक्तदान से प्राप्त रक्त की हैपेटाइटिस सी की टैस्टिंग ही नहीं हुआ करती थी ----अगर ऐसा है तो डरने की बजाये आप अपने फिजिशियन से मिल कर अगर वह आप को सलाह दे तो हैपेटाइटिस सी के लिये अपना ब्लड-टैस्ट करवा लेंगे तो बेहतर होगा।

वैसे एक बात की तरफ़ हमेशा ध्यान रहना चाहिये कि अभी भी बहुत से वॉयरस हैं जिन का हमें अभी पता ही नहीं है --- लेकिन फिर भी दोस्त जब किसी को रक्त-दान दिया जाना होता है उस की लाइफ़ बचाने के लिये रक्त चढ़ाया ही जाता है ---- फौरी तौर पर उस की ज़िंदगी बचाना सब से ज़्यादा लाज़मी होता है ।

लेकिन एक बात का आप को पता है कि कई बार आप्रेशन के वक्त जिस किसी मरीज़ को रक्त दिये जाने की संभावना रहती है वह आप्रेशन के कुछ महीने पहले अपना ही रक्त निकलवा कर सुरक्षित रखवा देता है जिसे उस के आप्रेशन के समय ज़रूरत पड़ने पर चढ़ा दिया जाता है --- इसे ऑटोलॉगस ट्रांसफ्यूज़न ( Autologous transfusion) --कहते हैं। एक तरह से किसी तरह की बीमारी के फैलने की होनी को अनहोनी में बदलने का एक रास्ता !!

मैंने जो बात अनहोनी को होनी में बदलने की की थी उसे होनी को अनहोनी में बदल कर समाप्त कर रहा हूं। बस, अपना ध्यान रखियेगा।

शनिवार, 10 जनवरी 2009

सावधान -- वज़न कम करने वाले प्रोडक्ट्स खतरनाक !!

रिश्तेदारी में एक महिला थीं – आज से लगभग पच्चीस-तीस साल पहले की बात है – 35-40 साल की उम्र थी -- स्वास्थ्य की प्रतिमूर्ति दिखती थीं – लेकिन उन्हें किसी भी हालत में अपना वज़न कम करना था--- इसलिये वे कुछ पावडर टाइप की दवाईयां ले रही थीं --- मैं सत्तर-अस्सी के दशक की बात कर रहा हूं ---- एक-दो वर्षों के बाद ही पता चला कि उन्हें लिवर कैंसर हो गया है--- डाक्टरों ने ढूंढ निकाला कारण को –वही मोटापा कम करने वाले पावडरों का सेवन – कमज़ोर होते होते वह कुछ ही समय में चल बसीं।

कुछ दिन पहले जब अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने लोगों के नाम यह चेतावनी जारी की है कि अमेरिका में वज़न कम करने के ऐसे लगभग 12 उत्पाद हैं जिन से बच कर रहने की विशेष ज़रूरत है क्योंकि इनमें कुछ घटक ( ingredients) ऐसे भी होते हैं जिन के बारे में इन्हें बनाने वाली कंपनियां बताती ही नहीं हैं और जो स्वास्थ्य के लिये बेहद खतरनाक हो सकते हैं।

अमेरिका में ऐसे प्रोडक्ट्स कुछ रिटेल स्टोरों पर एवं इंटरनेट के माध्यम से उपलब्ध हैं जिन के बारे में यह बताया जाता है कि इन में प्राकृतिक अथवा हर्बल पदार्थ ही मौजूद हैं । लेकिन इन की पैकिंग के लेबलों पर जिन इनग्रिडिऐंट्स के बारे में कुछ भी बताया नहीं होता उन में मिर्गी के इलाज के लिये इस्तेमाल होने वाली दवाई से लेकर एक कैंसर पैदा कर सकने की क्षमता रखने वाला पदार्थ ( suspected carcinogen) भी हो सकता है, ऐसा अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने कहा है।

अकसर मैं देखता हूं कि कैमिस्ट की दुकानों पर , हिंदी की अखबारों में अथवा स्कूटर के कवरों पर इस तरह के मोटापा कम करने वाले उत्पादों के विज्ञापन अकसर दिख जाते हैं—और मैं व्यक्तिगत रूप से तो अपने मरीज़ों को इन के बारे में आगाह करता ही रहता हूं लेकिन ऐसा सोचता हूं कि इन से होने वाले दुष्परिणामों के बारे में लोगों को व्यापक स्तर पर सचेत करने की बहुत ही ज़्यादा ज़रूरत है। ध्यान यह भी आ रहा है कि अगर आज की तारीख में अमेरिका जैसे देश में इस तरह की उत्पादों के बारे में चेतावनियां जारी की जा रही हैं तो फिर हमारे देश में ऐसे ही उत्पादों-पावडरों एवं कैप्सूलों- के नाम पर क्या क्या बिक रहा होगा और ध्यान उस महिला की तरफ़ भी जा रहा है कि अगर आज ही हालात ऐसे हैं तो उस ने पच्चीस-तीस साल पहले जो खाया होगा वह भी किसी ज़हर से कम थोड़े ही होगा --- अब अगर मुझे कोई भी कहे कि नहीं, नहीं, यहां तो भई सब कुछ ठीक ठाक है तो वह कोई भी हो, उसे मैं केवल इतना ही कहूंगा --- Better you SHUT UP !!

समस्या यह भी है कि इस तरह के वज़न कम करने वाले उत्पादों में जो भी नुकसान देने वाली पावर-फुल ड्रग्स होती हैं जो कि आम लोगों के जीवन के लिये खतरा हैं --- उन के बारे में जानने का लोगों के पास तो बिल्कुल भी कोई साधन है ही नहीं। और इसीलिये अमेरिका में वहां की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने यह चेतावनी जारी की है।

एफ डी ए ने खोज करने पर पाया है कि इन मोटापा कम करने वाले जिन घटकों के बारे में लोगों को बिल्कुल बताया नहीं जाता ( undeclared ingredients) उन में सिबूट्रामीन( sibutramine- a controlled substance), रिमोनाबैंट( rimonabant- a drug not approved for marketing in the United states), फैनीटॉयन ( Phenytoin – मिर्गी के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवाई), और फिनोलथ्लीन( Phenolphthalein – एक ऐसा पदार्थ जिसे हम लोग कैमिस्ट्री के एक्सपैरीमैंट्स में इस्तेमाल करते हैं और जो कैंसर रोग पैदा कर सकता है !!) शामिल हैं।

जैसा कि ऊपर भी बताया जा चुका है सिबूट्रामीन ( sibutramine - a controlled substance) जो कि ऐसे अधिकांश उत्पादों में पाई गई – इस से उच्च-रक्तचाप, दौरे ( fits), दिल की धड़कन बढ़ना ( palpitations), हार्ट-अटैक अथवा दिमाग में रक्त-स्राव ( stroke) भी हो सकता है। और अगर कोई व्यक्ति पहले से कोई दवाईयां ले रहा है तो इस सिबूट्रामीन के उन के साथ मिल कर खतरनाक दुष्परिणाम पैदा होने का खतरा और भी बढ़ जाता है। गर्भवती महिलाओं में, ऐसी महिलाओं में जो शिशुओं को स्तन-पान करवाती हैं अथवा 16 साल से कम बच्चों में तो सिबूट्रामीन के सुरक्षात्मक पहलू का आकलन ही नहीं किया गया है।

रिमोनाबैंट एक ऐसी दवा है जिस का गहन परीक्षण तो अमेरिका में हुआ लेकिन इसे एफडीए द्वारा अमेरिका में मार्केटिंग की अनुमति नहीं मिली। यह ड्रग जो यूरोप में बिक रही है जो वहां पर अप्रूवड है... इस को अवसाद एवं आत्महत्या जैसे विचारों के साथ जोड़ा जा रहा है । और यूरोप में पिछले दो सालों में इसे लेने वाले 5 व्यक्तियों की मौत एवं 720 दुष्परिणाम( adverse reactions) के केस हो चुके हैं, यह फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने कहा है।

जाते जाते मुझे ध्यान आ रहा है कि हम लोग अकसर बड़े हल्के-फुलके अंदाज़ मे कह ही देते हैं कि अमेरिका हम से 100 साल आगे है ---लेकिन सोचने वाली बात यह है कि अगर अमेरिका में आज की तारीख में इस तरह की दवाईयों की बिक्री हो रही है तो हमारे यहां क्या क्या नहीं बिक रहा होगा --- इस का जवाब मैं आप के ऊपर छोड़ता हूं, लेकिन कृपया इस बात का जितना भी प्रचार-प्रसार हो करियेगा।

और दूसरा एक तर्कसंगत विचार यह भी आ रहा है कि बहुत हो गया कि किसी दवा को एक जगह पर तो मंजूरी है लेकिन दूसरी जगह पर उसी दवा पर प्रतिबंध है --- कहीं ऐसा तो नहीं कि हम लोगों की चमड़ी कुछ ज्यादा ही मोटी है ( जो कि वास्तव में नहीं है !!) या वही बात सही है कि अगर किसी ने भगवान देखना है तो वह यहीं मौजूद है ----- लेकिन ये सब हमारे कमज़ोर मन की दलीले हैं, सच्चाई से मुंह छिपाने के बहाने हैं, हमारे ढोंग हैं---- इस मुल्क में भी एक जान की कीमत भी उतनी ही है जितनी किसी बहुत ही अमीर मुल्क में ---लेकिन अफ़सोस है तो केवल इसी बात का कि यहां तो मौत का कारण तक ढूंढ़ने की कोशिश ही कहां की जाती है ---- जो गया सो गया, उस की लिखी ही इतनी थी , यही कह कर उसे राइट-ऑफ कर दिया जाता है ---- बस, हो गई छुट्टी !!

मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

आज जब मैंने उस 19-20 साल के नवयुवक को देखा ....

तो मुझे पहले तो यही लगा कि वह मेरे पास किसी दांतों की तकलीफ़ के आया है लेकिन जैसे ही मुझे पता लगा कि वह हैपेटाइटिस-बी के लिये कुछ टैस्टों के लिये साइन करवाने के आया है तो मुझे बहुत बुरा लगा। दोस्तो, बुरा इसलिये लगा क्योंकि इस नवयुवक का व्यक्तित्व किसी अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी से किसी भी तरह से कम नहीं था ---मुझे लगता है कि उस का कद छः फुट तो होगा ही और सामान्य स्वास्थ्य भी बहुत बढ़िया था।

मेरे पास वह युवक इसलिये आया था क्योंकि कुछ एडवांस टैस्ट जो हमारे हास्पीटल में नहीं होते, उन टैस्टों को हमारा हास्पीटल बाहर प्राइवेट लैब से करवाने की व्यवस्था करता है और उस के लिये उस की स्लिप पर चिकित्सा अधीक्षक( जो काम मैं आजकल देख रहा हूं) – की स्वीकृति के लिये वह मेरे पास आया था।

अभी मैं उस की टैस्टों वाली स्लिप पढ़ पाता जिसे फिज़िशियन ने लिखा हुआ था, इतने में ही उस का पिता कहने लगा कि इसे देखो, क्या आप को लगता है कि इसे पीलिया है ? – मैं थोड़ा चुप था – उस की बात समझने की कोशिश कर रहा था। उस लड़के ने आगे बताया कि बस कुछ समय पहले वह पंजाब गया हुआ था और वहां पर उस ने रक्त-दान किया था। और कल ही वहां से फोन आया है कि मेरे रक्त में हैपेटाइटिस-बी के विषाणु ( वायरस) पाये गये हैं।

उस लड़के एवं उस के पिता की बातचीत से यही लग रहा था कि वे समझ रहे हैं कि लड़के ने रक्त दान किया है और इसी की वजह से वह इस हैपेटाइटिस-बी की चपेट में आ गया है। ऐसा मैंने पहले भी कुछ हैपेटाइटिस-बी के मरीज़ों के मुंह से सुना था और एक-दो एच.आई.व्ही संक्रमित व्यक्तियों से भी ऐसा ही कुछ सुन रखा था।

मुझे उस लड़के के साथ पूरी सहानुभूति थी --- बहुत बुरा लगता है जब हम लोग किसी इतने कम उम्र के इतने हृष्ट-पुष्ट इंसान को मिलते हैं जिसे अभी अभी पता चला हो कि उसे हैपेटाइटिस-बी की इंफैक्शन है। इसलिये मैंने उसे एवं उस के पिता को 10 मिनट लगा कर बहुत अच्छी तरह से इस के बारे में बता दिया।

दरअसल होता यूं है कि जब भी कोई रक्त दान शिविर लगता है तो रक्त-दाताओं का पता एवं फोन नंबर इत्यादि नोट किया जाता है – रक्त को इक्ट्ठा करने के बाद उस की यह जांच की जाती है कि उस में एचआईव्ही, हैपेटाइटिस बी, हैपेटाइटिस सी एवं मलेरिया जैसे रोगों के कीटाणु तो नहीं है ---अगर किसी रक्त दाता के रक्त में इस तरह का कोई संक्रमण पाया जाता है तो उस रक्त को नष्ट कर दिया जाता है और उस रक्त दाता को सूचित कर दिया जाता है । इस नौजवान वाले केस में भी यही हुआ था।

जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूं कि लड़का बहुत ही स्वस्थ था --- उस का पिता पहले ही से मेरे को जानता था । उस के जो टैस्ट अभी करवाने के लिये फ़िज़िशियन ने लिखा था उस के बारे में मैंने उन्हें समझाया कि ये टैस्ट केवल इसलिये हैं कि लड़के के रक्त की पूरी तरह से जांच की जा सके --- हैपेटाइटिस बी की दोबारा जांच होगी, हैपेटाइटिस सी की भी होगी --- क्योंकि इन दोनों संक्रमणों के फैलने का रूट एक जैसा ही है। ये दोनों ही या तो संक्रमित सिरिंजों एवं सूईंयों के द्वारा, या संक्रमित रक्त के द्वारा अथवा संक्रमित व्यक्ति के साथ यौन संबंध स्थापित करने से ही फैलते हैं।

मुझे उस नवयुवक से ये सब बातें करने के बाद यह नहीं लगा कि वह ऐसे किसी कारण के बारे में कोई ठीक से हिस्ट्री दे पाया है --- न तो उसे कभी रक्त ही चढ़ा था, न ही उसे कभी इंजैक्शन वगैरा लगने का ध्यान था और यौन-संबंधों के बारे में मैंने उस की उम्र को देखते हुये कुछ ज़्यादा प्रोब करना ठीक नहीं समझा ।

मैंने उसे समझाया कि ऐसा नहीं कि यह जो तकलीफ़ हो गई है यह लाइलाज है --- अभी तुम्हारे सारे टैस्ट हो रहे हैं—उस के बाद यह निर्णय होगा कि तुम्हारा क्या इलाज चलेगा—कोई चिंता की बात नहीं है।

सोचता हूं कि हमारे लिये भी किसी मरीज़ को बिल्कुल एक तकिया कलाम की ही तरह यह कह देना कितना आसान होता है कि यार, चिंता न करो – सब ठीक होगा। शायद कईं बार मरीज़ की मनोस्थिति को भांपते हुये ये शब्द कहने भी बहुत ज़रूरी होते हैं।

यह पाठकों की सूचना के लिये बताना चाहता हूं कि हमारे देश की लगभग दो फीसदी जनसंख्या इस हैपेटाइटिस-बी के वायरस की कैरियर है – इसे हम लोग कहते हैं एसिंपटोमैटिक कैरियर्ज़ – अर्थात् ऐसे लोग जिन के रक्त में हैपेटाइटिस बी की वायरस तो है लेकिन उन्हें इस से संबंधित बीमारी अभी नहीं है ---- और अभी ही क्यों, कईं बार तो कुछ लोग बिना किसी तकलीफ़ के सारी उम्र केवल कैरियर ( संवाहक) ही रहते हैं --- उन्हें तो इस से कोई तकलीफ़ होती नहीं लेकिन बेहद दुःखद बात यह है कि वे इस वायरस को किसी भी दूसरे व्यक्ति को देने में पूरे सक्षम होते हैं – चाहे तो अपने रक्त के द्वारा, अपनी लार के द्वारा अथवा यौन-संबंधों के द्वारा।

उस युवक के बारे में बहुत बुरा इसलिये भी लगा कि अभी उस की इतनी छोटी उम्र है ---अभी पूरी उम्र पड़ी है उस के आगे --- अगर वह एसिंपटोमैटिक कैरियर भी है ( asymptomatic carrier of Hepatitis B virus) – अगर टैस्टों से इस बात का पता चला – तो भी उपरोक्त कारणों की वजह से एक बहुत बड़ी परेशानी तो हो गई ---सारी उम्र खौफ़ के साये में जीना पड़ेगा --- I really felt very very bad for this youngman – He was the picture of perfect health !!

अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर इन नौजवान में हैपेटाइटिस-बी का वॉयरस आया कहां से --- अब इस के बारे में क्या कहा जाये ---जब तक किसी से उचित हिस्ट्री प्राप्त नहीं होती, कुछ कहा नहीं जा सकता – इतना तो तय है कि आती तो वॉयरस रक्त के अथवा किसी अन्य बॉडी फ्लूयड़ ( body fluilds ) के माध्यम से ही ।

हैपेटाइटिस बी से बचाव के टीके का ध्यान आ रहा है --- अकसर लोग इसे कितना लाइटली लेते हैं --- लेकिन देखिये जिस किसी को भी यह इंफैक्शन हो जाती है उस की तो सारी ज़िंदगी ही बदल जाती है।

उस नवयुवक की लंबी स्वस्थ ज़िंदगी के लिये मेरी ढ़ेरों शुभकामनायें एवं आशीष !!