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बुधवार, 13 अप्रैल 2016

ओए जट्टा आई वैसाखी...

आज सुबह टहल रहा था तो स्कूल के ज़माने से मित्र रमन बब्बर के अमृतसर से वैसाखी के कुछ संदेश आए...यहां पेस्ट कर रहा हूं..बहुत अच्छा लगा...इतने सजीव मैसेज पा कर...रमन बब्बर कज़िन है राज बब्बर साहब के...हर समय मुस्कुराते हैं..और हमें हंसाते रहते हैं...स्कूल के दिनों से ही ...



बाग से लौटने के बाद मैंने सोचा कि हम भी वैसाखी मना लें...जलेबियां-मिठाईयां शाम में खा लेंगे..अभी ऑनलाईन ही इस का जश्न मना लेते हैं...

 मैंने जैसे ही लिखा जट्ट मेले आ गया...तुरंत इस पंजाबी फिल्म का बढ़िया सा ट्रेलर खुल गया...मैंने सोचा चलिए कुछ शुरूआत तो हुई...यह फिल्म २२ अप्रैल को आने वाली है ...इस में जिम्मी शेरगिल ने काम किया है ..शायद कुछ न जानते हों कि जिम्मी शेरगिल हिंदोस्तान की एक महान् हस्ती अमृता शेरगिल के पोते हैं...

जिम्मी को मैंने माचिस फिल्म के प्रीमियर वाले दिन पहली बार १९९५ के आस पास बंबई के मेट्रो थियेटर में देखा था..मुझे अच्छे से याद है ..सब लोग थियेटर से बाहर आ रहे थे ..अचानक मैंने देखा कि यश चोपड़ा साहब किसी युवक से बात करते चल रहे थे...उन्होंने इस के काम की तारीफ़ की ...और अपना कार्ड जिम्मी को दिया...जिम्मी ने बड़े सम्मान-पूर्वक उन के इस अभिवादन को स्वीकार किया...

दो दिन पहले भी हम लोग टाटास्काई के मिनिप्लेक्स पर इन की फिल्म युवा देख रहे थे...आप भी ज़रूर देखिए, अभी तो इस ट्रेलर को देखिए और वैसाखी की खुशियों के रंग में रंग जाइए...
वैसाखी को दिन देश के विभिन्न प्रदेशों में अलग अलग ढंग से मनाया जाता है ..सभी ढंग मुबारक हैं...सभी जश्न का माहौल ही बनाते हैं...

पंजाब में फसल के पकने के बाद आज से इस की कटाई शुरू होती है ..इस का विशेष महत्व पंजाब के लिए इसलिए भी है क्योंकि इसी दिन गुरू गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन किया था..

मुझे लग रहा है कि आज बातें कम करूं...वह तो करता ही रहता हूं...आज इस पोस्ट को वैसाखी स्पैशल ही रहने देते हैं..


आज तो लग रहा है आप से पंजाबी गीत शेयर करता रहूं सारा दिन....इस समय जो याद आ रहे हैं...यहां एम्बेड कर रहा हूं...सैंकड़ों पंजाबी गीतों की मेरे पास कलेक्शन भी है...मुझे भी कईं बार लगता है कि लोग ठीक ही कहते हैं मैं अगर मैं इस तरह की कलेक्शनों के चक्कर में ही पड़ा रहा तो पढ़ाई वढ़ाई कब की होगी...बिल्कुल ठीक है...तभी तो कुछ भी ढंग से कर ही नहीं पाया..

जसविंदर बराड़ के खुले अखाड़े मुझे बेहद पसंद हैं.....२००५ से २०१२ तक मैं नियमित इन की सी.डी देखा सुना करता था...खुले अखाड़े का मतलब है जब ये कलाकार किसी खुले मैदान, गांव में अपने फन से लोगों को निहाल करते हैं...कोई टिकट का झंझट नहीं, कोई सिक्यूरिटी नहीं....बस आप होते हैं और ये कलाकार...आप अपनी फरमाईश करते जाइए और ये थकते नहीं....किस किस का नाम लूं...पंजाब के सभी महान गायकों के खुले अखाड़ों बड़े लोकप्रिय होते हैं क्योंकि ये आम आदमी के दिल की बातें करते हैं..सभ्याचार को पल्लित-पुष्पित करते हैं...और बहुत बार कुछ कुछ बढ़िया नसीहत भी दे जाते हैं...पहली वीडियो में बराड़ मिरजा सुना रही हैं और पहले पांच मिनट जो बातें कर रही हैं वे डायरी में तो क्या अपने मन में नोट करने वाली हैं...पंजाबी नहीं आती, तो भी सुनिए... अपने आप समझ आने लगेगी..

दूसरी वीडियो में बराड़ देश की एक आम समस्या की तरफ़ ध्यान दिला रही हैं युवाओं का ...बिल्कुल बागबान फिल्म के थीम जैसी बात कह रही हैं अपने भाईयों को घर का सारा सामान चाहे तो बांट लो, ज़मीनें बांट लो..लेकिन बापू-बेबे को मत बांट लेना, वे एक दूसरे के बिना रह नहीं पाएंगे.... 

मैंने ऊपर लिखा है ना कि प्यार, मोहब्बत, अपनेपन की कोई भाषा नहीं होती, शुक्र है जश्न का कोई कोड-ऑफ-कंडक्ट भी नहीं होता...बरसों पहले मैंने इस मराठी महिला का यह वीडियो देखा था...मेरे मन में बस गया था यह ...सरबजीत के उस सुपर-़डुपर गीत पर इतना बेहतरीन डांस किया इस महिला ने....Have you noticed she is enjoying what she is doing?...Great lady! वैसे भी कहते हैं कि नाचना, गाना अपनी रूह के लिए होना चाहिए...यानि उस समय आप को यह फिक्र न हो कि कोई देख रहा है कि नहीं... इस औरत ने वही किया है..

जाते जाते अगर टाइम हो तो गुरदास मान को भी थोड़ा सुन लिया जाए...

आज के वैसाखी के पर्व के लिए कहने को बहुत कुछ है, गीत बहुत से हैं..लेकिन अच्छा होगा इस समय आप के सब्र का इम्तिहान न ही लिया जाए...


सोमवार, 11 अप्रैल 2016

घर से ज़्यादा सेफ़ है सड़क...

कईं बार लिखना बड़ा बोरिंग सा लगता है ...लगता है कि आखिर इतनी मगजमारी किस लिए...बिल्कुल कुछ भी लिखने की इच्छा नहीं होती...उस समय मुझे मूड बनाने के लिए अपने दौर के किसी मनपसंद गीत को सुनना पड़ता है ...एक बार नहीं, दो तीन बार...

यह जो ऊपर मैंने लिखा है ..सड़क घर से ज़्यादा सेफ़...ये शब्द हैं लखनऊ के एक बड़े बुज़ुर्ग के ...परसों एक बाज़ार में यह कोई अखबार पढ़ रहे थे.. अचानक एक खून-खराबे की खबर पर मेरी नज़र गई..मैं उसे देखने के लिए रूक गया..सुबह का समय था...इन्होंने पेपर मेरी तरफ़ सरका दिया....मैंने कहा कि लखनऊ जैसी नगरी में भी यह सब कुछ...!...गुब्बार निकालने लगे कि अब तो घर आ के मार जाते हैं...आए दिन खबरें आती हैं...अब तो सड़क घर से ज़्यादा सेफ़ हैं, कहने लगे। मैं भी सोच में पड़ गया। उस ने यह भी कहां कि फलां फलां के राज में इतनी गुंडागर्दी नहीं थी..सभी लोगों को कानून को डर था...

सच में मैं लखनऊ के लोगों की नफ़ाज़त और नज़ाकत से बहुत प्रभावित हूं..यहां के लोग जब बात करते हैं ऐसा लगता है जैसे कानों में मिशरी घोल रहे हों...बेशक यह तो खूबी है यहां लोगों में...और यह इन की जीवनशैली ही है...इस के लिए इन्हें १०० में से ९९ नहीं, १०० नंबर ही मिलने चाहिए...

 मैं भी यहां पिछले तीन सालों में कुछ कुछ सीख गया...और इस के लिए मेरा असिस्टेंट का बड़ा रोल है...उस का सभी से बातचीत करने का ढंग इतना आदरपूर्ण एवं शालीन है ...मुझे तीन सालों में एक बार किसी मरीज़ ने कहा कि आप के असिस्टेंट को बात करने की तहजीब नहीं है...मैंने उसे कहा कि कोई और बात होती तो मैं मान भी लेता, उस के पास रहने से मैं कुछ कुछ सीखने लगा हूं...


बात चीत की बात हो गई ...कर्मकांड की बात भी ज़रूरी है, कर्मकांड में भी एकदम फिट हैं लखनऊ के लोग, पूजा-अर्चना, दान दक्षिणा...सब में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं...घरों के बाहर पशु-पक्षियों के लिए और जगह जगह प्याऊ दिख जाते हैं...इस पोस्ट में सभी तस्वीरें आज की ही हैं...





यहां की गंगा-जमुनी तहजीब के खूब चर्चे हैं ही ..लेकिन एक बात उस के बारे में यह है कि एक बार मैंने एक साहित्यिक गोष्ठी में शहर की एक नामचीन वयोवृद्ध महिला को यह कहते सुना कि आपसी मिलवर्तन का बस यही मतलब नहीं कि आपने किसी के यहां जा के उन के त्योहारों पर सेवईयां खा लीं और उन्होंने आप के होली पे गुझिया खाईं...उन्होंने कहा कि ये भी ज़रूरी हैं, बेशक, लेकिन इन प्रतीकों से आगे बढ़ने की ज़रूरत है ..मुझे यह बात बहुत अच्छी लगी.. 


अब आता हूं अपने मन के एक प्रश्न पर...जो अकसर मुझे परेशान करता है कि इतने बढ़िया संस्कृति के शहर में इतना खून-खराबा...हर दिन अखबार में यहां पर मारधाड़ की खबरें आती रहती हैं...घर में बैठे निहत्थे, बड़े-बुज़ुर्गों तक को मौत के घाट उतार दिया जाता है....शायद आप के मन में आ रहा हो कि यह किस शहर में नहीं हो सकता...बिल्कुल आप सही कह रहे हैं...लेकिन लखनऊ की नफ़ाज़त, नज़ाकत के टगमें के साथ यह मेल नहीं खाता, इसलिए हैरानगी होती है....


अभी मैं साईकिल भ्रमण से लौटा हूं ....लखनऊ के साईकिल ट्रैकों के बारे में बहुत बार लिख चुका हूं...बहुत अच्छी बात है ..ये अधिकतर खाली पड़े रहते हैं....आज बड़े लंबे अरसे के बाद मैंने एक स्कूली बच्चे को इस पर साईकिल चलाते देखा..खुशी हुई.. मजे की बात यह कि उस समय मैं भी सड़क पर ही साईकिल चला रहा था...





लखनऊ के एलडीए एरिया में भी बहुत बढ़िया ट्रैक हैं... मैंने भी इन ट्रैकों पर साईकिल चला रहा हूं... एक बुज़र्ग मिल गये योग टीचर ..डाक्टर साहब हैं....कहने लगे कि अच्छा करते हैं साईकिल चलाते हैं..वैसे भी अगर ये ट्रैक इस्तेमाल होेंगे तो ही कायम रह पाएंगे...उन्होंने बिल्कुल सही बात कही थी... आगे चल के देखा तो एक ट्रक कुछ इस तरह से खड़ा दिखा... अब सरकार ने ये रास्ते बनाए हैं तो इन का इस्तेमाल भी होना चाहिए....इन को अतिक्रमण से बचाने का मात्र यही उपाय है...


एक बात और ...चाहे इन ट्रैक्स पर साईकिल सवार तो एक ही दिखा ..वह स्कूली बच्चा, लेकिन इन पर पैदल चलने वाले, सुबह भ्रमण पर निकले बहुत से लोग दिख गये.. यही ध्यान आया कि इसी बहाने चलिए देश में पैदल चलने वालों की भी सुनी गईं...वरना इन के तो कोई अधिकार हैं ही नहीं ..

बस करता हूं सुबह सुबह...मैं भी क्या टर्र-टर्र सुबह सुबह...सोमवार की वैसे ही अल्साई सी सुबह है...चलिए एक बढ़िया सा भजन सुनते हैं और इस हफ्ते की शुभ शुरूआत करते हैं......बहुत सुना बचपन में यह भजन...अभी भी सुनता हूं लेकिन मन नहीं भरता... 

सोमवार, 18 अगस्त 2014

कछुओं की तस्करी......लखनऊ टू मुंबई

लखनऊ में सब्जियां अच्छी मिलती हैं, आम भी अच्छे मिलते हैं, जून-जुलाई के महीने में तो भरमार होती है आमों की..... हर तरफ़ ये आम ही आम दिखते हैं बाज़ारों में।

मैं अकसर कईं बार सोचा करता हूं जिस तरह की सब्जियां या आम यहां दिखते हैं अगर ये बंबई जैसे शहरों में भेजे जाएं तो किसानों या व्यापारियों को काफ़ी मुनाफ़ा हो सकता है।

पता नहीं लखनऊ के कितने आम बंबई पहुंचते हैं या नहीं, लेकिन आज दैनिक जागरण से यह पता तो चल ही गया कि किस तरह से लखनऊ से बंबई दिल्ली जाने वाली पुष्पक एक्सप्रेस में कछुओं की तस्करी रूकने का नाम ही नहीं ले रही।

दो साल में एक हज़ार से ज्यादा कछुए लखनऊ जंक्शन पर पकड़े जा चुके हैं। सोचने वाली बात यह है कि अगर हज़ार पकड़े गये हैं तो कितने हज़ार (या फिर लाख..) तो मुंबई पहुंच चुके होंगे।

परसों इसी गाड़ी के जनरल कोच में २८६ कछुए लावारिस हालत में एक बोरे में बरामद किये गये। इन्हें बाद में चिड़ियाघर में छोड़ दिया गया।

लावारिस तो कहने को हुआ......जिस का होगा, अब वह कैसे कहे कि यह उस का है। वह पट्ठा भाग खड़ा हुआ होगा। सूत्रों का कहना है कि छोटे कछुओं को होटलों में सप्लाई करने के लिए मुंबई ले जाया जाता है।

पता नहीं ये तस्कर क्या करते होंगे इन कछुओं का, लेकिन यह इतना आसान सा षड़यंत्र भी नहीं लगता कि यहां से गये और वहां होटलों में बिक गये। ज़रूर कुछ न कुछ काला रहस्य तो होगा इस कारोबार के पीछे।

मुझे अच्छे से ध्यान में नहीं आ रहा....याद भी बिल्कुल नहीं आ रहा ...लेकिन धुंधला सा याद है कि कहीं पढ़ा था कि ये कछुए विदेशों में बहुत ज़्यादा दामों में बिकते हैं........इन्हें कुछ अनाप-शनाप दवाईयां भी बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है,  मुझे ऐसा ध्यान आ रहा है।

इन जीवों का बंबई जाने पर क्या हश्र होता है ..क्या नहीं होता, लेकिन एक बात तो बहुत अहम् है कि इतने सारे कछुओं को जब उन को प्राकृतिक आवास (natural habitat) से उठा लिया जाता है तो यह पर्यावरण के संतुलन (ecological balance)  को गड़बड़ाने का एक अन्य साधन ही है।

इस तरह से चुराये गये कछुओं का क्या होता है, कुछ आप ने भी कहीं पढ़ा-सुना हो तो कमैंट में लिखियेगा। 

रविवार, 10 अगस्त 2014

बी बी सी हिंदी की साइट कैसी है?

मुझे याद है जब मैं आठ-दस वर्ष का था, हमारे पास एक बाबा आदम के जमाने का मर्फी रेडियो हुआ करता था जिस का सब से बड़ा फैन मेरा बड़ा भाई था, उसे फिल्मी गीत सुनना बड़ा अच्छा लगता था, सारे प्रयोग कर लिया करता था चंद गीतों को सुनने के लिए -- ऊपर छत पर ऐरियर जैसी तार किसी पत्थर के नीचे रख कर आना, आवाज़ में गड़गड़ होने पर उस को हल्के से दो-तीन हाथ भी लगा देता था.......अरे यार, जो स्विच को ऑन करने के बाद वह एक-डेढ़ मिनट का इंतज़ार हुआ करता था कि अब आई आवाज़, अब आई.......वह रोमांच भुलाए नहीं भूलता।

और हां, खबरें भी तो हम उसी पर सुना करते थे और जिस दिन देश में कोई घटना हो जाती तो पड़ोसी-वड़ोसी यह कह कर बड़ी धौंस जमाया करते थे कि अभी अभी बीबीसी पर खबर सुनी है। मुझे धुंधला धुंधला सा याद आ रहा है कि १९७१ के भारत-पाक की सही, सटीक जानकारी के लिए हम लोग किस तरह से बीबीसी रेडियो के कैच होने का इंतज़ार किया करते थे ...शायद अकसर यह रात ही के समय कैच हो जाता था, उस रेडियो के साथ पूरी मशक्कत करने पर.....उस ऐरियर वाली तार के जुगाड़ को कईं बार इधर उधर हिला कर। लेकिन यह क्या, दो मिनट सुन गया, फिर आवाज़ गायब........कोई बात, हम इस के अभ्यस्त हो चुके थे। बहुत सारा सब्र... कोई अफरातफरी नहीं।

उस के पंद्रह बीच वर्ष बाद जब फिलिप्स का वर्ड-रिसीवर लिया.....तब बीबीएस को सुनना हमारे एजेंडा से बाहर हो चुका था. बस १९९० के दशक के बीच तक हम केवल रेडियो पर एफएम ही सुनने के दीवाने हो चुके थे।

हां, अब मैं बात शुरू करूंगा बीबीसी हिंदी वेबसाइट की....... इसे आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं और आनंद ले सकते हैं। इस का यूआरएल यह है ...  www.bbc.co.uk/hindi 

इस वेबसाइट से मेरा तारूफ़ पांच वर्ष पहले हुआ.. मैं इग्न्यू दिल्ली में विदेशी विशेषज्ञों सें इंटरनेट लेखन की बारीकियां  एक दो महीने के लिए सीखने गया था। वहां पर हमें अकसर बीबीसी साइट (इंगलिश) का उदाहरण लेकर कईं बातें समझाई जाती थीं, इसलिए धीरे धीरे इस साइट में मेरी भी रूचि बढ़ने लगी।

कैसे लिखना है, कितना लिखना है, लेखन को कैसे प्रेजैंट करना है, यह बीबीसी की अंग्रेजी और हिंदी वेबसाइट से बढ़िया कोई सिखा ही नहीं पाएगा, यह मैंने बहुत अच्छे से समझ लिया है।

जब भी इस वेबसाइट पर गया हूं अच्छा लगता है। एक बहुत बड़ी खूबी यह कि जो कुछ भी लिखा जाता है एकदम विश्वसनीय....यह इन की प्रशंसनीय परंपरा है।

एक बात और मजे की यह है कि इस पर हिंदी पत्रकारिता का कखग सीखने के लिए भी रिसोर्स है..... हिंदी पत्रकारिता पर हिंदी बीबीसी की वेबसाइट

एक बार और...जो मैंने नोटिस की कुछ बहुत ही लोकप्रिय हिंदी की वेबसाइटों के बारे में कि कुछ अजीब किस्म की चीज़ें अपनी साइटों पर डालने लगे हैं...सैक्स के फार्मूले, सैक्स पावर बढ़ाने के नुक्ते, बेड-रूम के सीन.......यानि कुछ भी ऐसा अटपटा खूब डालने लगते हैं ...शायद वे लोग यह नहीं समझते कि इस काम के लिए उन्हें इतनी मेहनत करने की ज़रूरत है ही नहीं, वैसे ही नेट इस्तेमाल करने वाले इस तरह की सामग्री से एक क्लिक की दूरी पर हैं, आप का काम है केवल हिंदी में साफ़-सुथरी उपलब्ध करवाना .......और इस महत्वपूर्ण वैश्विक सामाजिक दायित्व के काम के लिए मैं बीबीसी की हिंदी वेबसाइट को पूरे अंक देना चाहता हूं.....एक दम साफ सुथरी, ज्ञान-वर्धक, विश्वसनीय और बिना किसी अश्लील कंटैंट के ......इसलिए भी यह इतनी लोकप्रिय साइट है।

मैंने पिछले दिनों इस के रेडियो के भी कईं प्रोग्राम सुने और फिर उस के बारे में प्रोड्यूसर को फीड बैक भी भेजी.....मैंने भगवंत मान की इंटरव्यू सुनी थी और उसे इतने अच्छे तरीके से पेश किया गया था कि मुझे तुरंत प्रोग्राम प्रस्तुत करने वाले श्री जोशी जी को बधाई भिजवाने पर विवश होना पड़ा।

कुछ बातें इस वेबसाइट पर देख कर थोड़ा अजीब सा लगता है ......... सब से ज़्यादा अहम् बात तो यह है कि पता नहीं क्या कारण है, मेरी समझ से परे है, ये बीबीसी हिंदी वाले लोग (इंगलिश वाले भी) अपने पाठकों से सीधा संवाद क्यों नहीं स्थापित करना चाहते, इस के कारण मेरी समझ में नहीं आ रहे।

 इंटरएक्शन और फीडबैक तो वेब 2.0 की रूह है यार और वही गायब हो तो ज़ायका कुछ खराब सा लगता है, कुछ नहीं बहुत खराब लगता है....ठीक है यार आप लोगों ने अपनी स्टोरी परोस दी, दर्शकों-पाठकों तक पहुंच भी गई, लेिकन उस की भी तो सुन लो, उस की प्रतिक्रिया कौन लेगा।

आप इन की किसी भी न्यूज़-रिपोर्ट के साथ नीचे टिप्पणी देने का प्रावधान पाएंगे ही नहीं, आज के वक्त में यह बात बड़ी अजीब सी लगती है, फीडबैक से क्यों भागना, बोलने दो जो भी कुछ दिल खोल कर कहना चाहता है, उस से दोनों का ही फायदा होगा, वेबसाइट का भी और सभी यूजर्स का भी। अपने दिल की बात लिखने से ज़्यादा क्या कर लेगा फीडबैक देने वाला.......आप चाहे तो मानिए, वरना विवश कौन कर रहा है। लेकिन इस तरह की पारदर्शिता से लोग उस वेबसाइट से सीधा जुड़ पाते हैं --एक रिश्ता सा कायम होने लगता है।

एक बात और मैंने नोटिस की.....वह शायद मुझे ही ऐसा लगा हो कि बीबीसी हिंदी का फांट इतना अच्छा नही है, अगर कोई बढ़िया सा और थोड़ा बड़ा फांट हो तो इस साइट को चार चांद लग जाएंगे।

बहरहाल, यह वेबसाइट हिंदी वेबसाइटों की लिस्ट में से मेरी मनपसंद वेबसाइटों पर बहुत ऊपर आती है.......क्योंकि यहां फीडबैक के प्रावधान के बिना शेष सब कुछ बढ़िया ही बढ़िया है............लेकिन आज के दौर में फीडबैक का अभाव अपने आप में एक उचित बात नहीं लगती, वह ठीक है, उन की अपनी पालिसी होगी। हां, संपर्क के लिए एक फार्म तो भरने के लिए कहते हैं........लेकिन यार यह नेट पर जा कर फार्म वार्म भरने का काम बड़ा पकाने वाला काम लगता है....कौन पड़े इन फार्मों के चक्कर वक्कर में........ दो एक बार भर भी दिया.....लेकिन ये लोग कभी उस का जवाब नहीं देते......कम से कम मैंने यह पाया कि  ..they dont revert back!

फिर भी यह साइट रोज़ाना देखे जाने लायक तो है ही......... strong recommendation!

लीजिए इसी साइट पर रेडियो के एक प्रोग्राम को सुनिए.....बेहतरीन प्रस्तुति ..... (नीचे दिए गये लिंक पर क्लिक करिए) ..

http://www.bbc.co.uk/hindi/multimedia/2014/08/140807_sikh_us_video_akd.shtml

शनिवार, 9 अगस्त 2014

सदियों से होता आ रहा कीटाणुओं का जंग में इस्तेमाल

जब कभी कैमीकल वारफेयर के बारे में या फिर बॉयोलाजीकल वॉरफेयर के बारे में मैं कभी भी पढ़ता था तो यही सोचता था कि यह तो एक आधुनिक जुनून है। लेकिन आज ही पता चला कि लड़ाईयों में कीटाणुओं को इस्तेमाल पिछली कईं सदियों से चला आ रहा है।

बीबीसी इस रिपोर्ट पर जब मैंने इस विषय पर लिखा पढ़ा तो मुझे बड़ा शॉक सा लगा कि किस तरह से चेचक का वैसे तो उन्मूलन बीसवीं सदी में ही हो गया था और अगर आज चेचक कहीं फैल गया तो दुनिया किस तरह से फनां हो जायेगी। यह बात भी इस रिपोर्ट में लिखी है कि अमेरिका और सोवियत संघ ने किसी गोपनीय लैब में स्माल-पॉक्स के कीटाणु सहेज कर रख छोड़े हैं। सोच कर ही डर लगता है ना।

एक और देश के बारे में लिखा है कि उसने ३५०० वर्ष पूर्व एक दुश्मन देश के बार्डर पर छः भेड़े छोड़ दीं.....और जब उस देशवासियों ने उन्हें अंदर कर लिया तो उन भेड़ों के शरीर पर विद्यमान टिक्स (ticks) ने ऐसी एक बीमारी फैला दी जिस से देश की आधी जनसंख्या खत्म हो गई होगी।

How long mankind has been waging warfare?

मुझे यह सब पढ़ कर यही लग रहा है कि सुबह सवेरे उठ कर फेसबुक पर निरंतर धुआंधार स्टेट्स छोड़ने की बजाए सारे संसार की सद्बुद्धि की प्रार्थना निरंतर करते रहना चाहिए, पता नहीं किस के पास क्या धरा-पड़ा है और कब किस की बुद्धि थोड़ी सी भी सटक जाए।

एटमबम-वम के बारे में तो हम सुनते ही हैं, हीरोशीमा-नागासाकी अभी तक सत्तर वर्ष बाद भी उस एक धमाके का दंश सह रहे हैं, लेकिन क्या ये कीटाणु और कैमीकल्स भी किसी एटमबम से कम हैं।

चलिए सब के कल्याण की कामना करते हैं........

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

मेंढक, कॉकरोच, केंचुआ, खरगोश, छिपकली बच गये जी बच गये..

आज जब अखबार पकड़ा तो पहले ही पन्ने पर यह खबर देख कर बहुत खुशी हुई कि यूजीसी ने कालेजों में जीव-जंतुओं की चीड़-फाड़ पर प्रतिबंध लगा दिया है।

खबर तो कुछ वर्ष पहले भी इस तरह की छपी थी लेकिन अब यह खबर....अखबार पढ़ने पर पता चल गया कि पहले यूजीसी ने प्रतिबंध लगाया था कि विद्यार्थी कालेजों में ऐसी चीड़-फाड़ नहीं कर सकेंगे, लेकिन उन के प्रोफैसर लोग छात्रों को सिखाने के लिए यह चीड़-फाड़ कर सकते हैं।

लेकिन आज की खबर ने तो कमाल ही कर दिया कि अब तो प्रोफैसर लोग भी यह सब नहीं कर सकेंगे।

यह यूजीसी का एक प्रशंसनीय निर्णय है। आज कल के छात्र तकनीकी तौर पर इतने एडवांस हो चुके हैं कि नेट पर दुनिया जहान की चीज़ें सीखते रहते हैं....सब कुछ तो नेट पर पड़ा है। इसलिए बस इतने से काम के लिए इतने सारे जीव-जंतुओं की बलि दे दी जाए ... बात गलत तो बिल्कुल है ही।

लेकिन अफसोस मेरे जैसे लोगों को भी अब यह बात गलत दिखने लगी जब जानवरों के हितों के लिए सक्रिय संस्थाओं ने इस मुद्दे पर हाय-तौबा मचाई शुरू की। और वे बिल्कुल ठीक हैं .. उन के प्रयासों से लाखों-करोड़ों जीव-जंतु लगता है आजकल जश्न के मूड में होंगे।

मुझे याद है मैंने कालेज में प्री-यूनिवर्सिटी मैडीकल और प्री-मैडीकल के दौरान-- काकरोच, अर्थवर्म (केंचुआ), मेंढक, छिपकली---इन की चीड़फाड की थी। प्री-यूनीवर्सिटी में काकरोच और अर्थवर्म ... और अगले साल मेंढक और छिपकली की चीड़फाड़ की थी। हमें लैब में एक ट्रे दे दी जाती थी जिस में इन में से किसी भी जीव-जंतु को रख दिया जाता था....मुझे अभी ध्यान नहीं आ रहा कि क्या वे सब मरे हुए ही हुआ करते थे.... जहां तक याद है कईं बार मेंढक आदि के कुछ अंग उसकी चीड़फाड़ करने पर फड़फड़ाते से दिखते थे। अब कुछ ठीक से याद नहीं आ रहा।

जो भी हो, इस निर्णय से बड़ी राहत मिली है। जीव-जंतुओं के कल्याण के लिए काम करने वाली संस्थाओं को बड़ी आपत्ति थी कि इन जीव-जंतुओं को चीर-फाड़ के लिए उन के प्राकृतिक वातावरण (natural habitat) से ही पकड़ा जाता है और इस सब की वजह से वातावरण मंडल का संतुलन गड़बड़ हुआ जा रहा है।

एक धुंधली सी याद यह भी आ रही है कि उस जमाने में जिस छात्र के हाथ में एक डाईसैक्शन बाक्स होता था, जिस में एक छोटी कैंची और दो-तीन और औजार हुया करते थे.. तो जिस ने इस बाक्स को अपने हाथ में पकड़ा होता या फिर साईकिल के अगले हैंडल पर लगे कैरियर पर कसा होता, उस की ठसक मोहल्ले में और कालेज में पूरी होती थी क्योंकि आर्ट्स वाले छात्र इतना तो समझ ही लेते थे कि ये चीड़फाड़ वाले हैं........और इसी चक्कर में मेरे जैसा अनाड़ी भी बाक्स को पकड़े हुआ अपने आप को आधा डाक्टर तो समझने ही लगता था।

वे भी क्या दिन थे, हमारी डेयरी वाला एक बार किसी अन्य प्रदेश में गया, वहां से खरीद कर एक बीवी लेकर आया, जो अपने आप को डाक्टर कहा करती थी और अकसर पूरे विश्वास के साथ कहा करती थी कि हमारे यहां तो बंदर के दिल को आदमी के दिल में आसानी से लगा दिया जाता है......और हम छोटे छोटे बच्चे उस की बातें सुन कर हैरान हुआ करते थे।

जब हम लोग कालेज में थे तो एक लकड़ी की जाली वाली अलमारी में खरगोश भी देखा करते थे....हमें बताया जाता था कि जो बीएससी मैडीकल करते हैं उन्हें खरगोश की चीर-फाड़ करनी होती है। मैं भी दो दिन बीएससी मैडीकल की क्लास में गया था ... लेिकन फिर बीडीएस का बुलावा आ गया और हम अगले आठ साल के लिए सरकारी डैंटल कालेज अस्पताल के सुपुर्द कर दिए गये।
UGC finally gives in, bans animal dissections in colleges





अगली बार कोई खुला मेनहोल दिखे तो इस का ध्यान रखिएगा

इस पोस्ट का हीरो नं१.. सुरेश कुमार
पांच छः दिन पहले की बात है मैं अपनी ड्यूटी पर जा रहा था.. उस िदन मैं अपने टू-व्‌हिलर पर था। अस्पताल के अंदर जा रहा था, आगे एक बिल्कुल नुकीला सा मोड़ है जिसे क्रॉस करने पर मैंने पाया कि यह क्या कुछ तो खुला हुआ था
मेनहोल की चौड़ई और लंबाई का अंदाज़ा आप इस से लगा सकते हैं
मैंने आगे चल कर अपना स्कूटर रोक दिया...और फिर देखा कि वहां तो एक बहुत बड़ा मेनहोन खुला पड़ा है...तीन चार फुट गहरा और चौड़ाई तो आप इस इन तस्वीरों में देख ही रहे हैं।

एक बार तो मैं हिल गया.....मुझे लगा कि आज तो जान बाल बाल बच गई... ईश्वर का शुक्र अदा किया...लेकिन इतना बड़ा मेनहोल खुला देख कर वहां से हटने की इच्छा नहीं हुई।

सब से पहले तो मुझे पास ही कुछ ईंटे पड़ी हुईं मिली तो मैंने झट से उन पांच सात ईंटों को उस के किनारे पर रख दिया..इस उम्मीद के साथ कि आने वाले को दूर से ही कुछ तो दिखेगा कि यहां कुछ तो गड़बड़ है।

खुले मेनहोल की लोकेशन को आप यहां देख सकते हैं
इतने में मैंने अपने सहायक सुरेश कुमार को फोन किया....वह बाहर आया ..मैंने कहा कि देखो, इस का क्या हो सकता है।

बहरहाल उसे वहीं खड़ा कर के मैं अंदर आ गया और अंदर आने पर वह सब कुछ किया.....लिख कर, फोन पर, सूचित किया, इंफार्म किया......और इस एमरजैंसी के बारे में बताया। एक शख्स ने तो इतना कह दिया की ये लोग इतनी जल्दी सुनते नहीं हैं।

जो भी हो, मुझे पता चल गया कि अभी कुछ दिन तो होने वाला है नहीं.... मैं जानता हूं ना जहां हम लोग काम करते हैं। इसलिए मेरी चिंता यही थी कि अस्पताल में आने वाला कोई कर्मचारी, मरीज या कोई रिश्तेदार अगर उस में गिर विर कर चोटिल हो गया तो अगर उस की जान पर ना भी बन आई तो बेचारा कुछ हड्डियां तो टुड़वा ही बैठेगा और अगर सिर पर चोट लग गई तो और मुसीबत।

इतने में मेरा अटैंडेंट वापिस लौट आया...और मुझे खबर देने लगा कि सर, ऐसा जुगाड़ कर आया हूं कि दूर ही से किसी भी वाहन चालक को पता चल जायेगा कि यहां लफड़ा है, इस से बच कर निकलना है। बताने लगा कि एक पेड़ की टहनी उन ईंटों के बीचो बीच खड़ी कर के आ गया है। 

चलिए मुझे इत्मीनान पहले से थोड़ा ज़्यादा तो हुआ कि चलिए, ईंटों की बजाए यह तो एक बेहतर तरीका है दूर से ही आने वालों को सचेत करने का।

लेकिन उस दिन अपनी ओपीडी में मन बिल्कुल भी लगा नहीं.....शायद अगले दिन ईद की छुट्टी थी और यही चिंता सता रही थी कि पेड़ की टहनी कितना समय ऐसा ही टिकी रहेगी....अंधेरी से, पानी बरसने से िगर विर जायेगी और विशेषकर रात में आने वालों की तो भयंकर आफ़त हो जायेगी।

शायद प्रार्थना ही काम कर गई.....मेरे अटैंडेंट ने भी इस समस्या का हल खोजने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। उस दिन वह भी उस काम ही में लगा रहा.....अपने पांच छः साथियों को, सफ़ाई वालों को इक्ट्ठा कर के अस्पताल के किसी दूर कोने में पड़े एक बहुत बड़े पत्थर को धक्का देता हुआ वहां तक पहुंच गया और उस खुले मेनहोल पर टिका दिया। बनियानें इन लोगों की पसीने से लथपथ हो रही थीं।

 ऐसे  जुगाड़ से जनता को बचाने की कोशिश की गई
मुझे भी बुलाने आया बाद में कि आप देखो सर, कैसा है यह इंतजाम। मैं भी उस के साथ वहां देखने गया.... वह भारी भरकम पत्थर देख कर इतना हैरान हुआ कि ये लोग कैसे धक्का मारते हुए इसे यहां तक लाए होंगे। Where there is will, there is a way!

उस मेनहोल से जिस लोहे के कवर को चुराया गया था, उस का वजन ही ५०-६० किलो का बताया जाता है, पुराने जमाने के तैयार ये कवर......किसी चिंदीचोर की नज़र पड़ गई होगी, उसे काट कर उठा ले गया।

स्टॉफ के कुछ लोगों ने जिस तरह से इस एमरजैंसी को संभाल लिया ...मैं उस दिन यही सोचता रहा कि हर संस्था में कुछ न कुछ ऐसे लोग ज़रूर होते ही हैं जिन के लिए हर काम उन का अपना काम है, वे कभी किसी काम को ना करना तो जैसे सीखे ही नहीं, बल्कि स्वयं आगे आ कर इस तरह की सेवा में लग जाते हैं। 

सही बात है, विभिन्न तरह के ईनामों के सही पात्र इसी तरह के लोग होते हैं........लेकिन मजे की बात है कि इन लोगों की इन सब दिखावटी चीज़ों की कोई भी तमन्ना नहीं होती। जब मैंने अपने अटैंडेंट से ऐसा कहा तो उस ने हंसी में बात टाल दी और अपने साथियों के साथ चाय-पार्टी करने चला गया।

यह बात तो थी आज से शायद पांच-सात दिन पुरानी लेकिन आज भी यह पत्थर ही उधर पड़ा लोगों को बचा रहा है, देखते हैं कब तक उस का कवर तैयार हो कर आता है।

इस पोस्ट को लिखते का उद्देश्य केवल यही था कि हम लोग िजस रास्ते पर भी चल रहे हैं, वहां पर इस तरह के खुले मेनहोलों के बारे में सजग रहें और कुछ इस तरह का इंतजाम कर दें कि आने वाला बिना किसी पूर्वाभास के अपने जान माल का नुकसान न करवा बैठे..... चलिए माल तो फिर इक्ट्ठा हो भी जाएगा लेकिन हर बंदे की जान बेशकीमती है, अनमोल है, उस की हर कीमत पर रक्षा होनी चाहिए। पिछले महीने मैं अंधेरी क्षेत्र में एक फुटपाथ पर चल रहा था तो अचानक देखा उस फुटपाथ के बीचो बीच एक बहुत बड़ा मेनहोल खुला पड़ा है...... ऐसा दिखना ही संवेदनशीलता की कमी को दर्शाता है।

अाज कल हम सोशल मीडिया को इतना इस्तेमाल करते हैं....तो उस की फोटू निकाल कर व्हस्ट-एप, फेसबुक, ट्विटर पर संबंधित अधिकारियों तक पहुंचाने में देखिए तो क्या होता है। कुछ अरसा पहले एक फेसबुक पेज के बारे में इलैक्ट्रोिनक मीडिया से जाना कि उन्होंने उस पेज पर देश में कहीं भी मिलने वाले खुले मेनहोलों, गड्ढ़ों की तस्वीरें अपलोड की हुई हैं...... और फिर उन के ही कुछ वालेंटियर्ज़ उस गड्ढे को भरने निकल भी जाते हैं। इन के काम को सलाम। यही सच्ची इबादत है....जैसा कि इस गीत में भी कहा जा रहा है। 

मेरा बेटा बता रहा था कि कुछ दिन पहले बंबई में एक फ्लाईओव्हर पर एक गड्‍ढा होने से एक बाईक चालक की जान चली गई।




बुधवार, 6 अगस्त 2014

सर्दी-खांसी-जुकाम में ऐंटीबॉयोटिक्स का रोल

आज से ३६ वर्ष पहले -- १९७८ में जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ा करता था...स्कूल की मैगजीन का स्टूडैंट संपादक था तो मैंने इसी सर्दी-खांसी-जुकाम के ऊपर एक लेख लिखा था.. मैंने अभी तक उसे अपने पास रखा हुआ है ..और जो पिछले वर्षों में अखबारों में लेख छपे हैं, उन में से मेरे पास कितने हैं, कितने नहीं है, वह कोई बात नहीं

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

केवल बिस्तर से उठना ही तो मुश्किल होता है..

हम में से शायद ही कोई ऐसा हो जिसने सुबह सवेरे की खूबसूरती का कभी न कभी आनंद न लूटा हो.. है कि नहीं, कभी बचपन में गर्मी की छुट्टियों में हम लोग सुबह उठ कर जब भ्रमण के लिए निकल जाया करते थे। फिर जब बड़े हुए तो हमारी कुछ अलग यादें बन गईं......मैं बंबई में जब रहा तो कुछ बार सुबह समुद्र के किनारे मैरीन ड्राइव पर टहलने चले जाना, बहुत बार महालक्ष्मी रेस-कोर्स की तरफ़ सुबह चल पड़ना...शाहर से बाहर गये हैं तो मद्रास का मैरीना समुद्री तट........कहने का मतलब केवल यही कि ये सब यादें ही हमें कितना सुख दे देती हैं।

और एक बात यह भी है कि अब भी हम सब लोग सुबह सवेरे उठ कर टहलना, बाग की हरियाली को निहारते हुए वक्त बिताना, योगाभ्यास, प्राणायाम, प्रार्थना ...सब कुछ करना चाहते हैं, उस में नैसर्गिक आनंद है, लेकिन पता नहीं मेरे जैसे लोग सब कुछ जानते हुए क्यों इतना आलस करते रहते हैं......वैसे भी सुबह सवेरे नेट पर दोस्तों के दस स्टेट्स पढ़ने से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है कि हम अपने आप को समय देना शुरू करें। 

मैंने कुछ दिन पहले निहाल सिंह के बारे में बात की थी कि वे किस तरह से मिलने वाले लोगों को योगाभ्यास के लिए प्रेरित करते रहते हैं। आज सुबह मैं अपने एक मित्र को लेकर उसी पार्क में पहुंच गया जहां उन का ग्रुप योगाभ्यास करता है। 

योगाभ्यास तो कितना हुआ या नहीं हुआ, किस से नीचे बैठा गया और किस से नहंीं, कौन प्राणायाम की बारीकी समझ पाया, कौन नहीं........यह तो बिल्कुल भी मुद्दा है ही नहीं.......अहम् बात तो यह है कि सुबह सवेरे घर से बाहर निकल कर खुली फ़िज़ाओं में रहना एक अजीब सी तरोताज़गी देता है। मैं अपने मित्र से कह रहा था कि योगाभ्यास तो हम ने पांच-छः मिनट ही किया होगा, लेकिन उस से भी हम कितना हल्का महसूस कर रहे हैं। उन का भी यही मानना था कि केवल से बिस्तर से उठना ही मुश्किल होता है, बाकी तो फिर बस एक आदत बनने की बात होती है। 

हम लोग अकसर यही सोचते हैं ना कि हम से न  हो पायेगा यह योग वोग..हम नहीं कर पाएंगे प्राणायाम् ....कोई बात नहीं, सुबह सवेरे बिस्तर से उठ कर बैठ गये, इस से ही लाभ मिलने शुरू हो गये.......और घर से टहलते हुए पास के किसी पार्क में पहुंच गये, लाभ बढ़ गया.........वहां जाकर थोड़ा बहुत भ्रमण किया, हरियाली देख, फूल-पत्ते देख कर मन हर्षित हुआ......(एक आदमी को सुबह सुबह फूल तोड़ते देख कर मन थोड़ा दुःखी हुआ).... और उस के बाद जितना भई हो सका, योगाभ्यास किया, प्राणायाम् किया......ध्यान किया............ये सब लाभ जुड़ते जुड़ते आप अनुमान लगाईए कि लाभ की गठड़ी कितनी भारी भरकम हो जाएगी। 

आज उस योगाभ्यास की पाठशाला में भी यही बात कह रहे थे कि बस, योग का आनंद लो, सहजता लाओ, अपने आप पर दबाव डाल कर कुछ करने की कोशिश न करो...... सब कुछ अपने आप होने लगा, कुछ लोग पालथी मार नहीं बैठ पाते थे वे अब पद्मासन करने लगे हैं, जिन के घुटनों में तकलीफ़ थी और घुटने बदलवाने की कगार पर थे, वे अब पांच किलोमीटर तक सैर करते दिखते हैं........लोग कुछ न कुछ अनुभव बांट रहे थे। 

आदमी जैसी संगति में रहता है, उन की कुछ न कुछ बातें ग्रहण भी करने लगता है.......आज उन्होंने ने हमें आंखों की सफ़ाई करने वाले कप दिए------और कहा कि रात को सोते वक्त उन में पानी भर कर आंखों पर लगाकर आईलिड्स को हिलाएं कुछ समय ...फिर पानी को फैंक दें। अच्छा लगा जब अभी अभी घर आकर यह किया। 

संगति की बात हो रही थी तो कल की ही बात याद आ गई......कुछ दिन पहले मेरे पास एक लगभग १८-२० वर्ष का लड़का आया अपनी मां के साथ....गुटखे पान मसाले का व्यसन लग चुका था, मुंह में छोटे मोटे घाव........ऐसे युवाओं को इस गुटखे रूपी कोढ़ से मुक्ति दिलाना मैं अपनी सब से अहम् ड्यूटी समझता हूं.....उस दिन मैंने उस के साथ १०-१५ मिनट बिताए....उसे अच्छे से समझाया....डरा भी दिया कि नहीं छोड़ोगे तो क्या हो जाएगा। 

आज जब आया तो बताने लगा कि उस दिन के बाद मैंने गुटखा पान मसाला छुआ तक नहीं......उस की सच्चाई का उस के मुंह ही से पता चल रहा था। मैंने कहा कि जो यार दोस्त थोड़ा बहुत देने की कोशिश करते हैं, उन का क्या करते हो। तो उसने बताया कि अब उस ने उन दोस्तों को ही इग्नोर करना शुरू कर दिया है। मैंने पूछा कि छोड़ने में दिक्कत तो नहीं हुई, कहने लगा कि दो-तीन दिन थोड़ा सिर भारी रहा, लेकिन आप के बताए अनुसार मैं कोई दर्दनिवारक टिकिया ले लिया करता था --बस दो तीन दिन....... और फिर तो पता ही नहीं चला कि कब तलब ही लगनी बंद हो गई। 

और खुशी की बात तो यह कि ३-४ दोस्तों ने भी उस के कहने पर यह गुटखा-वुटखा खाना-चबाना छोड़ दिया है। मैंने जब खुश हो कर उस की पीठ थपथपाई तो मुझे यही लगा कि जैसे मैंने अपने बेटे को इस ज़हर से बचा लिया हो। 
अच्छा लगता है जब आप की वजह से कोई सीधे रास्ते पर आ जाए........ यह प्रयास बार बार करने योग्य है। 

बचपन से ही अपनी मां के मुंह को यह गीत गुनगुनाते पाया है, इसलिए इस समय याद आ गया....

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

यह कैसा कचरा प्रबंधन है ?

आज जब मैं प्रातःकाल भ्रमण के लिये निकला तो रास्ते में मेरा मूड बहुत ज़्यादा खराब हुआ....अकसर सड़कों पर बिल्कुल छोटे छोटे पिल्ले मस्ती करते दिख जाते हैं--आज भी तीन-चार ऐसे ही मदमस्त पिल्लों की टोली की तरफ मेरा ध्यान गया जो अपनी मस्ती में मस्त थे और मुझे लगा कि एक पिल्ला कोई प्लास्टिक जैसी चीज़ खा रहा था---मैंने ध्यान से देखा तो वह एक कांडोम को चबा रहा था।

मैंने दो-चार बार प्रयत्न किया कि किसी तरह से यह उस कॉंडोम को नीचे गिरा दे लेकिन मैं सफल न हो पाया। मुझे उन की मां से डर भी लग रहा था। जिस घर के आगे यह कचरा पड़ा हुया था वह अपने दरवाजे पर खड़ा दिखाई दिया तो मैंने उसे भी कहा कि देखो, भई, यह कुछ खराब सी चीज़ खा रहा है। उस ने बस इतना ही कहा ----ये तो बस ऐसे ही !!

अभी उस ने इतना ही कहा था कि मैंने वापिस पलट कर उस पिल्ले की तरफ़ देखा---और यह देख कर मुझे इतना ज़्यादा दुःख हुआ कि वह उस कांडोम को निगल चुका था। मुझे उस प्यारे से पिल्ले पर जितना तरस आया उतना ही गुस्सा उस अनजान "ही-मैन" पर आ रहा था जिस ने काम पूरा होने पर उस कांडोम को बिना कुछ सोचे समझे घर के आगे फैंक कर अपनी मर्दानगी का परिचय तो दे दिया लेकिन उसे कागज़ में लपेट कर पास के ही डस्टबिन में डालने की भी ज़हमत नहीं उठाई। और उस पिल्ले का उस कांडोम को चबा जाना उस के शरीर में क्या कोहराम मचाएगा, यह सोच कर मेरा मन रो पड़ा। कुछ साल पहले अखबारों में देखा करते थे किस तरह से गायों के पेट से कईं कईं किलों पालीथीन की थैलियां निकाली गईं। इस पिल्ले की मदद करने वाला भी तो कोई नहीं हैं।



अस्पतालों में कचरा प्रबंधन जिस तरह से हो रहा है इस के बारे में तो आप सब मीडिया में देखते सुनते ही रहते हैं। और जिस तरह से प्लास्टिक की थैलियों ने कहर बरपा रखा है उस के बारे में कितना कहें ----- कहें क्या, अब तो करने की बारी है। लेकिन पता नहीं हम में ही कहीं न कहीं कमी है। अगर हम सब यह निश्चय कर लें कि पोलीथीन की थैलियों को छोड़ कर हम जूट या कपड़े के थैले ही खरीददारी के लिये लेकर चलेंगे तो भी हालात कितने बदल सकते हैं।

और यह जो आज कर दिल्ली में रेडियोएक्टिव कोबाल्ट-60 जिस ने कबाड़ियों के यहां ऊधम मचा रखा है, यह तो एक बेहद संगीन मसला है। ठीक है अब यह बात सामने आ गई, एक हादसे के रूप में यह मामला सामने आया तो हडकंप मच गया। लेकिन मैं तो पिछले कईं दिनों से यही सोच रहा हूं कि ऐसा तो हो ही नहीं सकता यह हादसा पहली बार हुआ हो-----रेडियोएक्टिव कोबाल्ट-60 को लेकर इस तरह के हादसे कबाड़ियों के यहां, उन के वर्करों के साथ पहले भी ज़रूर होते ही होंगे लेकिन जागरूकता के अभाव में कुछ पता ही नहीं चल पाता होगा कि कब इस तरह के प्रभाव शरीर में उत्पन्न होते होंगे और कब सब कुछ "ठीक ठाक" सा लगने लग जाता होगा और लंबे अरसे जब इस तरह की किरणों के दुष्परिणामों की वजह से इन निर्धन, बेजुबान वर्करों को कैंसर जैसे जानलेवा रोग दबोच लेते होंगे तो शायद किसे ने इस तरह की मौतों के पीछे कारण जानने की कोशिश ही नहीं की होगी......बस, शायद किसी ने हल्का सा यह कह कर छुट्टी कर ली होगी कि चलो, बस यह तो इतनी ही लिखवा के आया था !!

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

बेशक तस्वीरें बोलती हैं .....

प्रजातंत्र के महोत्सव के दिन चुनाव की तस्वीरें सुबह से ही टीवी पर दिखने लगती हैं और अगले दिन अखबारों में भी खूब दिखती हैं।
इन तस्वीरों में बहुत बड़ी बड़ी, नामी-गिरामी, रईस हस्तियों को वोट डालते दिखाया जाता है ----इस के बारे में मेरे क्या विचार हैं ? --यह तो भई लिखने की कतई इच्छा ही नहीं हो रही, क्यों यह सब लिख कर खाली-पीली टाइम खराब करने का ?
चुनाव के दिन सारा दिन टीवी के लगभग सभी चैनलों पर यही दिखता रहता है कि फलां फलां ने वोट वहां डाला, उस की बीवी ने वहां डाला, साथ में उस के बेटे भी थे और बहू भी थी। फिर उन के साथ एक दो बातें भी दिखाई जाती हैं। और दूसरे चैनल पर दिख जाता है कि किस हस्ती ने नाश्ते से पहले, किस ने मंदिर जाने के बाद और किस ने सुबह के भ्रमण के तुरंत बाद वोट डाला। सोचने की बात यह है कि Agenda Setting Theory के अंतर्गत आखिर मीडिया कौन सा एजैंडा सैट कर रहा है ?
ओ..हो....इतना महान काम कर दिया, वोट डाल के। जिस अंदाज़ में ये सब लोग अपनी उंगली पर काली स्याही से लगा निशान मीडिया के सामने दिखाते हैं उसे देख कर सिरदर्द होने लगता है। इतनी भी कौन सी बड़ी बात है ---प्रजातंत्र है, जहां करोड़ों लोगों ने वोट किया, आप लोगों ने भी किया ---इस में आखिर इतनी बड़ी बात है क्या यह कभी भी मेरी समझ में नहीं आयेगी।
वैसे सोचने की बात है कि अगर कुछ नामी गिरामी हस्तियां मीडिया को अपनी यह उंगली दिखाते फिरते हैं तो इस में इन का क्या कसूर ? --- लगता है कि वोट वाले दिन इन हस्तियों को जो इतनी ज़्यादा कवरेज मिलती है इस में दोष मीडिया का ही है। मुझे तो यह सब देख कर बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता।
और अगले दिन जो लगभग सभी अखबारों के पहले पन्ने पर फोटो छपते हैं उन्हें देख कर भी कोई खास तबीयत खुश नहीं होती। आठ-दस बहुत ही बुज़ुर्ग महिलायों की तस्वीरें तो दिख जाती हैं जिन्हें उन के रिश्तेदारों ने स्वयं उठाया होता है। इन बुज़ुर्ग महिलायों की इतनी उम्र हो चुकी होती है कि शायद ही उन्हें पता होता होगा कि कौन से चुनाव हो रहे हैं और कौन कौन से प्रत्याशी हैं ?

Credit - The Hindu, Oct 14,2009
हां, लेकिन कुछ कुछ तस्वीरें ऐसी भी इन अखबारों में दिख जाती हैं जो कि आप को छू जाती है। ऐसी ही एक फोटो मेरे पसंदीदा अखबार दा-हिंदु में आज छपी है ---- आप देखिये की इस देवी की तस्वीर सारी अखबार पर हावी पड़ रही है। यह फोटो अखबार के पहले पन्ने पर छपी है। यह अम्मा वोट देने के बाद वापिस घर लौट रही हैं।
दा हिंदु में छपने वाली तस्वीरें होती भी ऐसी ही हैं जो कि पाठक को बहुत सोचने पर मजबूर करती हैं। मुझे कहने में यह कोई झिझक नहीं है कि आज तक चुनाव से संबंधित मैंने जितनी भी तस्वीरें देखी हैं यह उन सब में से बेहतरीन है।
मैं इस तस्वीर को लगभग दस मिनट तक देखता रहा ---शायद मैं इस के चेहरे की हरेक सिलवट में छिपी हुई बीसियों कहानियां पढ़ने की नाकाम कोशिश कर रहा था।
इस तस्वीर को देख कर कोई ऐसा होगा जो इस की हिम्मत की दाद दिये बिना रह सके। यह तस्वीर है भी तो परफैक्ट---तस्वीर में पूरा फोकस अम्मा पर होते हुये भी बैकग्राउंड में पूरी चुनावी एक्टिविटी को कैप्चर किया गया है।
अरे भाई, मीडिया वालो, चुनाव के दिन बड़े बड़े रइसों, नामी-गिरामी हस्तियों की तस्वीरें खींचने से थोड़ी सी भी फुर्सत मिले तो इस तरह की जिंदादिल, जिवंत, जीवित देवियों की तस्वीरें विभिन्न चैनलों पर सुबह सुबह से ही बार बार फ्लैश किया करें ---अगर इन से दो बातें भी करें तो कितना बढ़िया होगा । आप सोच रहे हैं कि इस तरह की इन देवियों को इस से क्या हासिल होगा ?
इन को क्या हासिल होगा ? --- शायद ये तो फायदे -नुकसान जैसी चीज़ों से बहुत ऊपर उठ चुकी हैं, लेकिन इन तस्वीरों को चुनाव के दिन बार बार दिखाने से हमारे कुछ युवा लोगों को शायद चुल्लू भर पानी की ज़रूरत महसूस होने लगे ----- शायद उन्हें इस देवी की हालत देख कर कुछ तो प्रेरणा मिले कि यार, अगर यह वोट देने जा सकती हैं तो हम क्यों नहीं ? ---बहुत हो गई सुस्ती , हम भी नहा धो कर अपने अधिकार का इस्तेमाल कर के आते हैं !!
तो, हो गई न इस तरह की फोटो से वोटों का प्रतिशत बढ़ाने में मदद। बहरहाल, मैं इस गुमनाम देवी के ज़ज्बे को दंडवत् प्रणाम् करता हूं और सभी चिट्ठाकरों की ओर से इन के स्वास्थ्य एवं दीर्घायु की कामना करता हूं।

गुरुवार, 11 जून 2009

मेरा पिंड ( मेरा गांव मेरा देश)

कल समीर लाल जी की एक बहुत ही बेहतरीन पोस्ट पढ़ने का हैंग-ओव्हर अभी तक नहीं टूटा है। उन्होंने ने कितने सुंदर एवं भावुक शब्दों में अपने गांव की मिट्टी को याद किया--- कल शाम ऐसे ही उन का ब्लॉग फिर से लगाया तो साठ के करीब टिप्पणीयां देख कर दंग रह गया। समीर जी की पोस्ट का नशा उतरने का मेरे लिये एक कारण एक और था --- आज दोपहर मेरे बेटे ने ज़ी-पंजाबी पर एक बहुत प्रसिद्ध पंजाबी गायक साबर कोटी का एक प्रोग्राम लगाया हुआ था। उस प्रोग्राम के बारे में बताने से पहले साबर कोटी का एक गीत सुनना चाहेंगे ?

कंडे जिन्ने होन तिक्खे, फुल ओन्हा हुंदा सोहना,
साडे अपने नहीं होय, तां परायां कित्थों होना .....
( कांटे जितने नुकीले हों, फूल उतना ही सुंदर होता है,
अगर हमारे अपने ही अपने न हुये तो बेगानों से क्या शिकवा )



हां, तो उस प्रोग्राम का नाम था ---मेरा पिंड। यह ज़ी-टीवी का एक रैगुलर प्रोग्राम है जिस में यह किसी शख्सियत को उस के गांव में ले जाकर इंटरव्यू करते हैं। मैं इस प्रोग्राम का बुहत शौकीन हूं। मुझे नहीं पता कि यह किस दिन कितने बजे आता है लेकिन जब कभी ऐक्सीडैंटली बच्चे रिमोट के साथ पंगे लेते हुये इस लगा लेते हैं तो बस फिर तो मैं इस के दौरान दिखाये जाने वाले कमर्शियल्ज़ के दौरान भी उसी चैनल पर ही डटा रहता हूं।

पंजाबी गायक साबक कोटी बिल्कुल ठेठ पंजाबी में अपनी पिंड ( गांव) की यादें बहुत भावुक हो कर दर्शकों से साझी कर रहा था जिन्हें सुन कर बहुत ही अच्छा लग रहा था। मैं अकसर कहता रहता हूं कि जब कोई दिल से अपनी बात रख रहा होता है तो बस फिर तो बात ही निराली होती है।

मुझे अपनी मां-बोली पंजाबी से बहुत ही प्यार है --- मैं इस के प्रचार-प्रसार के लिये अपने स्तर पर काम करता रहता हूं। घर में भी हम सब लोग पंजाबी में ही बात करते हैं --- मुझे बड़ा गर्व है कि मेरे बेटे भी बहुत अच्छी पंजाबी बोलते हैं। ऐसा हम लोग जान-बूझ कर करते हैं --- इस का कारण है कि दूसरी भाषायें तो आदमी विभिन्न मजबूरियों के कारण सारी उम्र सीखता ही रहता है। लेकिन अपनी मां-बोली मां के दुलार की तरह है --- शुरूआती वर्षों में इस का जितना अभ्यास कर लिया जाये वह भी कम है।

मैं प्रोग्राम देखते हुये बेटे को यही कह रहा था कि कितनी बढ़िया पंजाबी बोल रहा है कोटी --- मैंने फिर कहा कि दरअसल इस तरह के लोग जब बोलते हैं तो इन की बोली से भी इन के गांव की मिट्टी की खुशबू आती है। आज साबर कोटी को ज़ी-पंजाबी पर बोलते देख कर ऐसे लग रहा था कि भाषा कोई भी हो, बस जब तक उस की टांग न घुमाई जाये, बार बार स्लैंग का इस्तेमाल न किया जाये ---- तो फिर सब कुछ बढ़िया ही लगता है।

साबर कोटी ने हमें अपने पिंड की गलियों की सैर कराई, वह हमें उस स्कूल ले गया जहां पर उस ने पांचवी कक्षा तक पढ़ाई की थी। अपने स्कूल में जा कर वह भावुक हो रहा था ---उसे अपने उस स्कूल मास्टर की याद आ गई थी जिस ने उसे पहली पहली बार स्कूल की स्टेज पर गीत गाने का अवसर दिया था।

उस के बाद साबर हमें गांव के एक पीर की जगह पर हम सब को ले गया ---- साबर बता रहा था कि वह हर वीरवार के दिन वहां पर अपनी हाज़िरी लगवाने ज़रूर आता है -- वह कितना भी व्यस्त क्यों न हो, वहां आने के लिये समय कैसे भी निकाल लेता है।

मैंने साबर कोटी का प्रोग्राम लगभग 10-15 मिनट देखा, मुझे तो बहुत आनंद आया। मुझे इस का मलाल है कि मैं प्रोग्राम शुरू से नहीं देख पाया। आप को पता है मुझे इतना मज़ा क्यों आया --- क्योंकि जब साबर कोटी अपने गांव की गलियां हमें दिखा रहा था तो मैं भी उस के साथ अपने बचपन की गलियों की यादों में बह गया था ---मैं भी याद कर रहा था उस नीम के पेड़ को जिसे मेरी मां ने अपने हाथों से लगाया था ---किस तरह हम लोग उस की छांव में कंचे ( गोटियां) खेलते रहते थे और फिर उस डालडे के प्लास्टिक वाले डिब्बे में जमा करते रहते थे ----फिर जब उस दिन का खेल खत्म हो जाना तो उन कंचों को पानी से धोना और बढ़िया-बढ़िया और थोड़े टूटे हुये कंचों को अलग अलग करना ----इसलिये कि कल सुबह वाले सैशन में पहले खराब कंचे लेकर ही बाहर जाना है।

और उसी पेड़ के नीचे जमीन पर गुल्ली-डंडे के खेल के लिये बनाई गई एक खुत्थी (टोया, डूंग) को भी याद कर रहा था --- जब मैं साबर कोटी के गांव की नालियां देख रहा था तो मैं भी अपने घर के बाहर नाली को याद कर रहा था जिस में से कितनी बार मैंने गेंद उठाया था ---और दो-चार बार शायद एमरजैंसी में उस नाली पर बैठा भी था ----किस लिये ? --( अब वह क्यों लिखूं जिसे लिख कर मुझे शर्म आ जाती है)--- आप समझ गये ना !!

मुझे उस घर के बाहर पड़ा एक पत्थर भी याद आ जाता है जिस पर मैं अपने पापा की इंतज़ार किया करता था कि आज उन की टोकरी में क्या पडा़ मिलेगा ---- बर्फी, पेस्टरी, केले, अंगूर, भुग्गा( पंजाब की एक मशहूर मिठाई) या फिर कईं बार केवल बेइंतहा प्यार ही प्यार।

और फिर मुझे साबर कोटी का गांव घूमते घूमते अपने मोहल्ले का वह मीठे पानी का वह हैंड-पंप भी याद आ जाता है जहां से प्री-फ्रिज के दिनों में डोल में ठंडा पानी भर कर लाया करता था। कमबख्त यादें बहुत परेशान करती हैं --- लेकिन जब इन्हें बांट लो ना तो बहुत अच्छा लगता है। मैं उस छोटी सी चारपाई को भी याद कर रहा था जिस पर बैठ क मोहल्ले की महिलायें कभी खत्म न होने वाली बातों में लगी रहती थीं --- अब ये मुंह की मैल उतारने वाले मंजे नहीं दिखते।

अब लोग बहुत बड़े हो गये हैं ----शायद मैं बहुत बड़ा हो गया हूं -----लेकिन जब गहराई से टटोलता हूं तो पाता हूं कि अब भी हम तो वहीं ही हूं ---- शायद उस निश्छलता पर बहुत से कवर डाल लिये हैं ----कितने कवर किस जगह उतारने हैं बस इतना पढ़ने लिखने के बाद वही सीख पाया हूं,और ज़्यादा कुछ नहीं। क्या यही विद्या है, यही सोच रहा हूं ------पता नहीं साबर कोटी पर लिखते लिखते किधर निकल गया कि उसी ज़माने की एक मशहूर फिल्म मेरा गांव मेरा देश फिल्म की याद आ गई ---- वह गीत याद आ रहा है ---- मार दिया जाये या छोड़ दिया जाये।
यादें तो बांटने वाली अनगिनत हैं ---बाकी फिर कभी । बाई साबर कोटी, तेरा बहुत बहुत शुक्रिया ---- तूं तां सानूं वी अपने दिन याद करा दित्ते। परमात्मा अग्गे एहो अरदास है कि तूं होर वी बुलंदियां छोहे।

शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

विज़िटिंग कार्डों का बोझ ---1.

कल ऐसे ही मेरे हाथ विज़िटिंग कार्डों वाला फोल्डर लग गया ---वैसे तो आज के ई-युग में इस की तरफ़ लपकने की ज़रूरत ही कहां महसूस होती है ! एक कार्ड पर नज़र गई --- केशव गोपीनाथ भंडारी – यह शख्स मेरे साथ हास्पीटल अटैंडेंट के तौर पर बंबई में काम किया करता था और यह कार्ड उस ने मुझे लगभग पंद्रह साल पहले अपनी सेवा-निवृत्ति के समय दिया था।

मैंने झट से बंबई का नंबर लगाया ---बस आगे 2 लगा लिया --- घंटी बजी ---उधर से पूछने पर मैंने बताया की भंडारी से बात करनी है। तो, फोन उठाने वाले ने आवाज़ लगाई कि पापा, आप का फोन है। भंडारी के फोन पर आने के बाद मैंने कहा, भंडारी बाबू, राम-राम -----उस ने पूछा कौन। मैंने कहा --- भंडारी, काम पुड़ता मामा। वह यह बात बहुत बार बताया करता था ---- यह मराठी भाषा का एक जुमला है जिस का अर्थ है ---- काम पड़ने पर लोग किसी को भी मामा बना लेते हैं !! 10-15 मिनट उस से बातें होती रहीं --- मुझे और उसे बहुत ही अच्छा लगा। लेकिन, एक छोटे से विज़िटिंग कार्ड का कमाल देखिये कि उस ने हमारी पुरानी यादें हरी कर डालीं।

वैसे यह विज़िटिंग कार्ड वाला फोल्डर मैंने उठाया इसलिये था कि मैंने इस की सफ़ाई करनी थी – यह बंबई लोकल की तरह खचाखच भरा हुआ था। मेरे पास कुछ और कार्ड थे जिन्हें इस फोल्डर में जगह देनी ज़रूरी थी ---वही डार्विन वाली बात हो गई --- survival of the fittest ! अर्थात् जो लोग काम के लगेंगे वही इस फोल्डर में टिक पायेंगे और बाकी कार्ड रद्दी की टोकरी के सुपुर्द हो जायेंगे।

आज सुबह मैंने डेढ़-दो सौ के करीब कार्ड रद्दी की टोकरी में फैंक दिये --- और यह काम मेरे को बहुत आसान लगा। यह काम करते हुये सोच रहा था कि अकसर बहुत से लोगों के साथ हमारे संबंध कितने ऊपरी सतह पर ही होते हैं --- और ऐसे कार्डों को फोल्डर से निकाल कर बाहर फैंकते वक्त एक क्षण के लिये भी सोचना ही नहीं पड़ता। ये कार्ड विभिन्न कंपनियों आदि के साथ, उन के डीलर्ज़ के थे --- जब ये कार्ड किसी से लिये होंगे या जब किसी ने इन्हें दिया होगा तो शायद इंटरएक्शन ही कुछ इस तरह का हल्का-फुल्का रहा होगा कि कभी खास संपर्क बाद में रखा ही नहीं गया।

कुछ कार्ड इस लिये भी सुपुर्दे ख़ाक हो गये क्योंकि उन की जगह पर उन्हीं लोगों के नये अपडेटेड कार्ड मुझे मिल चुके थे --- और कुछ कार्ड ऐसे थे जो ट्रेन में सफ़र करते वक्त विज़िटिंग-कार्ड एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत प्राप्त हुये थे, इसलिये सालों तक इन को रखे रखने की भी कोई तुक नहीं थी।

जब मैं उस फोल्डर को उलटा-पुलटा कर रहा था तो रह रह कर यही विचार मन में आता जा रहा था कि जो कार्ड डस्ट-बिन में फैंक दिये वे तो सही जगह पर पहुंच गये हैं लेकिन जो बचे हुये कार्ड हैं इन में से हरेक कार्ड के पीछे एक अच्छी खासी स्टोरी है। और यही स्टोरियां ही मैं लिख कर साझी करना चाह रहा हूं।

जब मैं ये विज़िटिंग कार्ड फैंक रहा था तो कुछ कार्ड फैंकते हुये मुझे दुविधा सी हो रही थी कि फैंकूं या पड़ा रहने दूं ---- बस, फिर उस समय जो ठीक समझा कर दिया ---लगता है कि जब ऐसे मौके पर दुविधा हो तो उस कार्ड को रखे रखना ही मुनासिब है ।

यह साफ़-सफाई करते वक्त मैं यही सोच रहा था कि अगर मेरे इस फोल्डर में अपने किसी बचपन के दोस्त का कार्ड मिल जाता तो मैं देखता कि उसे मैं कैसे फैंक पाता – पता नहीं जैसे जैसे हमारी उम्र बढ़ती है तो हमारे संबंधों में इतना फीकापन क्यों आ जाता है --- कालेज से ज़्यादा अपने स्कूल के संगी-साथी अज़ीज लगते हैं, प्रोफैशन से जुड़े लोगों से कहीं ज़्यादा अपने कालेज के दिनों के हमसफर क्यों इतना भाते हैं , .........बस, इस तरह अगर हम यूं ही आगे चलते जायेंगे तो पायेंगे कि हम लोगों की कितनी जान-पहचान तो बस ऐसे ही कहने के लिये ही होती हैं ---- जैसे जैसे उम्र बढ़ती है इस में फीकापन इसलिये आता है क्योंकि हम मुनाफ़े और नुकसान का टोटल मारना शुरू कर देते हैं --- इस से मेरे को यह फायदा होगा और इस से कुछ नहीं होगा -----बस, यही हमारी समस्याओं की जड़ है। हम क्यों नहीं बच्चों की तरह हो जाते ---- जब मैंने डेढ़-दो सौ कार्ड अपने छठी में पढ़ रहे बेटे को कूड़ेदान में फैंकने के लिये दिये तो उस ने मुझे यह कह कर चौंका दिया ----पापा, ये सब मैंने अभी अपने पास रखूंगा, ये मेरे काम के हैं, बाद में बताऊंगा----ये कह कर उसने वे सभी मेरे डिस्कार्ड किये हुये कार्ड अपनी स्टडी-टेबल की दराज में रखे और अपना स्कूल का बैग उठा कर बाहर भाग गया । मैं हमेशा की तरह यही सोचने लगा कि यार, हम लोग कब बच्चों की तरह सोचना बंद कर देते हैं, पता नहीं हम लोग बड़े होकर, बड़ों की तरह सोच कर , बड़ों की तरह कैलकुलेटिंग होने से आखिर क्या हासिल कर लेते हैं !!

बुधवार, 28 जनवरी 2009

चार साल से भी ज़्यादा हो गये हैं टाई पहने हुये ...


जब से अमर उजाला में मेरा यह लेख छपा है –इसे चार साल से भी ज़्यादा हो गये हैं ---मुझे कभी टाई पहनने की इच्छा ही नहीं हुई। अकसर अपने दूसरे साथियों को देख कर जो कभी थोड़ी प्रेरणा मिलती भी है वह इस लेख का ध्यान आते ही छू-मंतर हो जाती है। बस, इसे पढ़ते हुये यह ध्यान दीजियेगा कि यह तो बस मेरी ही आप बीती है ---बस, जगह जगह अपने यार का ज़िक्र करने का केवल एक बहाना ही किया है। उस समय शायद अपने बारे में इतनी बात मानने की भी हिम्मत नहीं थी !!

लेकिन यह शत-प्रतिशत सच है कि यह लेख छपने के बाद एक बार भी टाई नहीं पहनी ----सभी जगह इस के बिना ही काम चला लिया। इसे क्या कहूं ----लेख का असर ? ………………जो भी है, धन्यवाद, अमर उजाला !!

शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

बीस साल बाद दिल्ली में एक रविवार (2)






और जब मैं धौला कुआं से वापिस दिल्ली के अंतर्राजीय बस अड्डे की तरफ़ लौट रहा था तो दिल्ली का मिजाज बदला बदला सा लग रहा था --- कारण ?--- मुझे नहीं पता कि इस मिजाज को बदले कितना अरसा हो गया होगा क्योंकि मेरे ख्याल में मैं किसी रविवार के दिन इस दरियागंज वाली सड़क से 18-20 साल बाद ही गुज़र रहा था।
दरअसल मैं अक्टूबर एवं नवंबर 1988 में दो महीने के लिये बिना सर्विस के यूं ही सबर्बन पास बना कर दिल्ली की सड़कों की खाक छानने रोहतक से लगभग रोज़ निकल जाया करता था --- वास्तव में एक जगह से नियुक्ति-पत्र आने में ही देरी लग रही थी --- लेकिन फिर भी मैं दिल्ली में भी किसी नौकरी की तलाश में चला जाया करता था। इन दिनों मैं अपने खाली समय में नेशनल मैडीकल लाइब्रेरी में भी बहुत जाया करता था।

और हां, जो बात विशेष रहती थी कि रविवार के दिन जब कभी दरियागंज के रास्ते से निकलना होता था तो वहां फुटपाथ पर कहीं कहीं पर किताबों वाले ज़रूर दिख जाते थे --- इसलिये इन से कभी कभी किताब भी खरीद ली जाती थी --- कौन सी किताबें ?- अब यह तो मत पूछो ---अंग्रेज़ी की वही किताबें जिन की इस उम्र में हमारे समय में पढ़ने की चाहत हुआ करती थी। अब जब उन किताबों के बारे में सोचता हूं तो हंसी आती है। लेकिन वह भी दौर था --- इस को कैसे नकारा जा सकता है।

लेकिन इस बार रविवार को मैं इस दरियागंज वाली सड़क का बहुत ही अलग नज़ारा देख रहा था --- यहां पर फुटपाथ पर सैंकड़ों किताबों की दुकानें बिछी पड़ी थीं और किताबों के प्रेमी लोग इन को खरीदने में व्यस्त थे। यह नज़ारा देखते ही बन रहा था। ये सब तस्वीरें उसी दरियागंज एरिया की ही हैं--- अब सोचता हूं कि किसी दिन रविवार के दिन इस जगह ज़रूर जाऊंगा।

इस क्षेत्र में बहुत रौनक थी --- किताबों की दुकान के पास ही अंग्रेज़ों की पहनी हुई जैकेटें, स्वैटर भी मिल रहे थे --- यह सब कुछ भी हम लोग पिछले तीस सालों से देख रहे हैं लेकिन मैं इस बात की खोज करूंगा कि स्वास्थ्य के पहलू से ये वस्त्र कितने सुरक्षित हैं --- मैं इस के बारे में बहुत बार सोचता हूं। लेकिन इस तरह के कपड़े बेचने वालों के अड्डों पर भी बहुत भीड़ थी।

और भीड़ यहां पर इतनी थी कि लगता था जैसे कोई मेला लगा हो --- मुझे ध्यान आ रहा था कि इसी फुटपाथ से शायद बीस साल पहले कईं बेल्ट भी खरीदे थे --- शायद दो-चार टाईयां भी खरीदी थीं ----क्या है न इंटरव्यू के लिये ये सब करना ही पड़ता था । बस, याद आ रहा है कि जैसे ही यह नौकरी लग गई यह दिल्ली जा कर यूं ही लगभग बिना वजह जा कर घूमना बंद सा हो गया --- और फिर दो एक साल बाद जब यह नौकरी छोड़ कर यूपीएससी द्वारा नियुक्त कर लिया गया तो सीधा बंबई पहुंच गया।

उस दिन मुझे दरियांगज एरिया से जुड़ी सारी यादें एक चलचित्र की भांति याद आ रही थीं --- बिल्कुल उसी तरह जिस तरह लगभग रोज़ आज कल जब मैं शाम को हास्पीटल से ड्यूटी करने के बाद बाहर निकलता हूं तो मुझे अपने पिता जी अकसर याद आते हैं ---दरअसल यहां यमुनानगर में शाम को अंधेरा बहुत जल्दी हो जाता है और जब मैं ड्यूटी के बाद छः बजे बाहर आता हूं तो मुझे मेरे ख्यालों में अपने स्वर्गीय पिता जी का चिंतित चेहरा अकसर दिख जाता है ---बात 1974 की हैं –अमृतसर के डीएवी स्कूल में मैं पढ़ा करता था ---छठी कक्षा में ---हिसाब में थोड़ी मुश्किल होती थी इसलिये स्कूल में ट्यूशन रखी हुई थी जो साढ़े पांच बजे तक चलती थी और फिर स्कूल से पैदल आना होता थी ----चूंकि मुझे आते आते थोड़ा अंधेरा हो जाया करता था तो अकसर मेरे पिता जी मुझे अकसर रास्ते में ही देखने आ जाया करते थे ---- आज सोचता हूं कि मेरे में आत्मविश्वास बहुत था, बहुत निडर था लेकिन अपने पिता के लिये तो एक 11 साल का बालक ही था---- उन के चिंतित चेहरे को जो सुकून मुझे देखने के बाद मिलता था वह मैं ब्यां नहीं कर सकता --- शायद उन्हें यही लगता होगा कि उन्हें कुबेर का खजाना मिल गया ।

जो भी था उन दिनों मुझे यह अनुमान नहीं होता था कि अपने बच्चों की इंतज़ार में बिताये गये चंद मिनट क्यों सदियों जैसे लगते हैं --- क्योंकि अब अपने पिताजी वाला काम मैं अपने बच्चों के साथ करता हूं --- और जिंदगी का चक्र चल रहा है ---- The history repeats itself----इतिहास अपने आप को दोहराता है !!

रविवार, 4 जनवरी 2009

लगभग बीस साल बाद दिल्ली में एक रविवार .....भाग 1..

मुझे आज दिल्ली में एक राइटर्ज़-मीट( लेखन मिलन) के सिलसिले में जाना था --- प्रोग्राम तो था सुबह दस बजे से एक बजे तक – मैं यहां यमुनानगर से सुबह लगभग साढ़े चार बजे बस से चला और दिल्ली के अंतर्राजीय बसअड्डे पर लगभग साढ़े आठ बजे पहुंच गया था। वैसे तो मुझे कहीं भी आने-जाने का इतना आलस्य आता है किक्या बताऊं --- लेकिन जब किसी बहाने लेखकों से मिलने की बात होती है तो मेरे रास्ते में न तो दूरी और न हीसमय की कोई बाधा आती है। आप हिंदी चिट्ठाकारों का भी कोई समारोह हिंदोस्तान के किसी भी कोने में रख के देख लीजिये --- वहां पर भी पहुंच ही जाऊंगा। लेखकों के साथ कुछ समय बिताने के चक्कर में तो अन्य जगहों के इलावा असम के जोरहाट में भी 10 दिन लगा के आ चुका हूं।

हां, तो जैसे ही दिल्ली के बस अड्डे पर उतरा बस-अड्डे की दीवार पर इस दीवारी सूचना नेस्वागत किया --- ये एक-दो नहीं एक दीवार पर तो बीस बार ही लिखा हुआ था । इस सूचना को देख कर इतना ही सोचा कि या तो यह भी लगे हाथ कानून ही बन जाये कि किसी ने भी पेशाब करना ही नहीं है – वरना इन बीसियों नोटिसों की व्याकरण ही थोड़ी दुरूस्त कर दीजाये --- केवल वाक्य के शुरू में यहां लगाने भर की तो बात है , वरना यह तो बीड़ी-सिगरेट की मनाही याद दिलाने वाले किसी विज्ञापन की तरह ही लग रहा है !!



वैसे तो इन नोटिसों में छिपी बैठी
एक ग्रैफिटी यह भी तो थी !!























वहां से मुझे धौला कुआं जाना था – लगभग 45 मिनट का सफ़र था। रास्ते में जाते हुये पता चला कि 1 जनवरी 2009 को दिल्ली में नो-होंकिंग डे ( अर्थात् उस दिन हार्न बजेंगे ही नहीं !!)- मुझे नहीं पता कि वह दिन वास्तव में दिल्ली वालों ने कैसे मनाया होगा लेकिन इतना सोच ही रहा था कि कुछ ही दूरी पर एक अन्य बड़े से पोस्टर पर निगाह पड़ गयी ---जिस में एक हार्न के साथ एक कुत्ते की तस्वीर थी और ये पोस्टर उस कुत्ते की तरफ़ से ही लगे हुये थे जिस में वो बहुत गुस्सा से फरमा रहे थे ---
मैं बिना वजह भौंकता नहीं हूंआप भी बिना वजह हार्न बजायें।

प्रिय टॉमी, हम लोग तुम्हारे जितने समझदार होते तो बात ही क्या थी , यह नौबत ही न आती कि तुम से भी प्रवचन सुनने पड़ते !!

आगे थोड़ी दूरी पर देखा कि मैट्रो का काम चल रहा था – उस के इर्द-गिर्द लगे लोहे की शीटों पर एक बहुत ही बढ़िया संदेश हम सब के लिखा हुआ था --- हैल्मेट इज़ मोर इंपोर्टैंट दैन यूअर हेयर-स्टाईल ---
आप के हेयर-स्टाईल से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है आप का हेल्मेट पहनना!!

जहां पर दरियागंज लगभग खत्म होता है वहां पर एक बहुत बड़ा बोर्ड यह भी दिख गया --- अंग्रेज़ी में लिखा हुआ - दान देने के लिये उपर्युक्त कंबल खरीदने के लिये इस मोबाइल पर संपर्क करें – इन की कीमत 75 रूपये से शुरू होती है। बात सोचने वाली यही है कि क्या दान वाले कंबलों में प्यार की इतनी ज़्यादा हरारत होती है कि एक 75 रूपये वाला कंबल भी फुटपाथ पर पड़े हुये किसी बदकिस्मत को इस नामुराद ठिठुरन से बचा सकता है ---- एक बात और भी है न कि अब किसी का जीना-मरना तो दानकर्त्ता के हाथ में थोड़े ही है ---- सुबह वह फुटपाथी फटीचर उठे या उठे ---लेकिन ठंड की वजह से अकड़ चुके इस बंदे के पड़ोस में ही फुटपाथ पर पड़ी अखबार के स्थानीय पन्ने पर धन्ना सेठ की रंगीन फोटो के नीचे कितना साफ़ साफ़ लिखा भी तो होगा कि कल शाम धन्ना सेठ ने गरीबों में 100 कंबल बांटे ------ गिनती पूरी होनी थी , सो हो गई !! और इसी चक्कर में धन्ना सेठ ने अपना तो लोक-परलोक सुरक्षित कर लिया ---कोई घाटे का सौदा थोड़े ही है ?

दिल्ली की महत्वपूर्ण जगहों की दीवारों पर अकसर गुमशुदा लोगों की तस्वीर देख कर बहुत रहम आता है --- अरेभई, किसे पड़ी है इस चक्कर में अपने दो मिनट खराब करे ---- जो गुमशुदा हो गयें उन का तो पता है कि वेगुमशुदा हो गये हैं लेकिन ये जो लाखों लोग अपने आप से ही गुम हो चुके हैं, महानगर की भागम-भाग में इन का खुद जीवन भी तो कहीं गुम हो चुका है लेकिन इन का गुमशुदा नोटिस क्या कभी कोई छापेगा -----क्योंकि मेरे साथ साथ सब के सब डरते हैं ----सच्चाई डरावनी होती है।

वहां लेखकों के मिलन के दौरान प्रोफैसर जावेद हुसैन से ये पंक्तियां भी सुनीं ---
----
रोज़ किया करते हो कोशिश जीने की ,
मरने की भी कुछ तैयारी किया करो।

अच्छा तो दिल्ली में बिताये गये इस रविवार की बकाया रिपोर्ट एवं उस लेखक-मिलन के बारे में अगली दो पोस्टों में लिखूंगा --- अभी नींद आ रही है ---आज सफर बहुत किया है ---अच्छा तो दोस्तो, शब्बा खैर !! शुभरात्रि !!

मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

चलो यार थोड़ा ठंड का इंतजाम करें ....





जब देश के इस भाग में यह जुमला दो दोस्तों के बीच बोला जाए तो समझ लिया जाये कि शाम को लवली पैग की तैयारी हो रही है, चिकन फ्राई की बात हो रही है, टिक्के, फिश-फ्राई की तैयारी हो रही है , चिकन-सूप का प्रोग्राम बन रहा है वरना खरोड़ों के जूस ( बकरे की टांग) की चाह हो रही है।

लेकिन हम इस ठंड का इंतजाम करते हैं चलिये सीधी सादी मूंगफली से --- अभी अभी बाज़ार से लौटा तो घर के पास ही एक रेहड़ी पर एक दुकानदार मूंगफली भून रहा था –मैं भी वह खरीदने के लिये खड़ा हो गया और ये तस्वीरें सभी वही ही हैं।

हम लोग पंजाब में बचपन से देखते रहे हैं कि मूंगफली की रेहड़ी पर एक बहुत बड़ा ढेर लगा रहता है – उस के बीचों बीच एक छोटे से मिट्टी के बर्तन में उपले या छोटी छोटी लकड़ीयां जलाई जाती थीं। और हर ग्राहक को मूंगफली उस बर्तन को उठा कर गर्मागर्म देता था --- और अगर कोई दुकानदार थोड़ा आलस्य करता था और ढेर में से किसी दूसरी जगह से मूंगफली देने की कोशिश भी करता था तो उसे ग्राहक से हल्की सी झिड़की भी पड़ जाती थी कि गर्म दो भई गर्म।

फिर कुछ समय तक हम लोग मूंगफली के पैकेट खरीद कर ही काम चला लिया करते थे --- लेकिन उस में कभी इतना मज़ा आता नहीं है --- पता नहीं क्यों --- कितनी तो खराब मूंगफली ही उस में भरी होती है !!


पिछले लगभग तीन साल से मैं यमुनानगर – हरियाणा में हूं और यहां पर मूंगफली खाने का मज़ा ही अपना है । जैसा कि आप इस फोटो में देख रहे हैं इस शहर में जगह जगह रेहड़ीयों पर मूंगफली बिकती है --- बस, आप यह समझ लीजिये कि पहला जो भट्ठीयां नीचे ज़मीन पर हुआ करती थीं अब ये भट्ठीयां रेहड़ी के ऊपर इन दुकानदारों ने बना ली हैं।


आप को ये तस्वीरें देख कर ही कितना अच्छा लग रहा होगा --- ठंडी छू-मंतर हो रही है कि नहीं ? – इन दुकानदारों ने लकड़ीयों आदि का इस्तेमाल कर के भट्ठी जलाई होती है – जिस पर ये थोड़ी थोड़ी मूंगफली लेकर सेंकते रहते हैं और उसी समय ग्राहकों को देते रहते हैं – इन रेहड़ीयों के इर्द-गिर्द खड़ा होना ही कितना रोमांचक लगता है ---किसी कैंप-फॉयर से कतई कम नहीं --- और आप को यह बताना भी ज़रूरी है कि इस मूंगफली को नमक में भूना जा रहा है --- इस मूंगफली का टेस्ट बहुत बढ़िया होता है।

अभी मूंगफली की बात खत्म नहीं हुई तो ध्यान आ गया है रोहतक की शकरकंदी का ---जिसे दुकानदार रेत की धीमी आंच में सेंक कर इतना बढ़िया कर देते हैं कि क्या बतायें --- वैसे एक बात है इन मौसमी बहारों का मज़ा जो रेहड़ी के पास ही खड़े हो कर खाने में आता है ना उस का अपना अलग ही रोमांच है।

वैसे भी व्यक्तिगत तौर पर मेरा बहुत ही दृढ़ विश्वास में गुमनाम हो कर जीने का मज़ा ही अलग है --- जहां कोई किसी को ना पहचाने --- सब अपनी मस्त में मस्त --- तो लाइफ का मज़ा ही आ जाये --- जहां पर जीवन की छोटी छोटी खुशियों उसे इस बात के लिये न बलिदान करनी पड़ें कि यार, मैं यहां खड़ा हो जाऊंगा तो लोग क्या कहेंगे--- मैं यहां खड़ा होकर कुछ खा लूंगा तो लोग क्या कहेंगे ---- कहेंगे सो कहेंगे --- यह उन की समस्या प्राचीन काल से है --- उन्होंने तो कुछ तो कहना ही है !!
चल बुल्लिया चल उत्थे चलिये,
जित्थे सारे अन्ने,
ना कोई साडी जात पछाने,
ना कोई सानूं मन्ने।

मूंगफली की बात हो रही है और कहां हम लोग मूंगफली खाते खाते गपशप करते करते उस महान पंजाबी सूफी संत बाबा बुल्ले शाह की तरफ़ निकल गये।

हां, तो मैं उस रेहड़ी वाले की बात कर रहा था --- मैंने उस की रेहड़ी के पास खड़े खड़े ऐसे ही कह दिया --- पहलां तां हुंदियां सन भट्ठीयां, हुन एह कम हुंदै रेहड़ीयों पर –( पहले तो यह काम भट्ठीयों के द्वारा होता था लेकिन अब यही काम रेहड़ीयों पर होता है ) --- मेरे पास ही खड़े एक सरदार जी ने कहा --- हुन तां न ही भट्ठीयां ही रहीयां ते ना ही भट्ठीयां वालीयां ही रहीयां --- ( अब न तो भट्ठियां ही रहीं और न ही भट्ठी वालीयां ही रहीं !!) --- मुझे भी उस समय बचपन के दिन याद आ रहे थे जब हम लोग मक्का लेकर एक भट्ठी पर जाया करते थे और उस के पास एक बोरी के टाट पर बैठ जाया करते थे --- वह हमें पांच मिनट में फारिग कर दिया करती थी --- कहां वह नायाब मक्का और कहां ये पैकेट वाले अंग्रेज़ी कार्न-फ्लेक्स !!-- आज भी मुझे जब कोई पूछता है ना कि कार्न-फ्लेक्स खाने हैं तो मेरी आधी भूख तो इस इंगलिश के नाम से ही उड़ जाती है।

यह मैं जिस मूंगफली की रेहड़ी की बात कर रहा हूं --- इन के द्वारा बहुत ही बढ़िया किस्म की मूंगफली इस्तेमाल की जाती है – बिल्कुल साफ --- और इतनी बढ़िया महक।

लगभग छःसात साल पहले मैं जब एक नवलेखक शिविर में गया तो मुझे कुछ आइडिया नहीं था कि लेखन कैसे शुरू करना होता है --- और वहां से आने के बाद कईं साल तक मुझे लगता रहा कि यार ये लेखों के विषय तो बड़े ही सीमित से हैं --- जब मैं इन सब पर लेख लिख लूंगा तो फिर क्या करूंगा --- लेकिन पिछले दो-तीन साल से यह आभास होने लगा है कि केवल हमारा आलस्य ही हमारे आड़े आता है --- हम कलम उठाने में ही केवल सुस्ती कर जाते हैं---वरना लेखों का क्या है ---- लेखों के बीसियों विषय हमें रोज़ाना अपने इर्द-गिर्द दिखते हैं – बस इस के लिये केवल शर्त इतनी सी है कि बस केवल आंखें और कान खुले रखें और हमेशा ज़मीन से जुड़े रहें ।

अच्छा दोस्तो अब मूंगफली काफी खा ली है , थोड़ा थोड़ा खाना खा लिया जाये ----उस के बाद मूंगफली को गुड़ के साथ लेकर फिर बैठते हैं । बिल्कुल सच बताईयेगा कि इस पोस्ट के द्वारा इस सर्दी में भी आप को गर्मी का अहसास हुआ कि नहीं ---- क्या कहा…… नहीं ? ….फिर तो आप को इस मूंगफली के लिये यहां यमुनानगर ही आना होगा।