रविवार, 15 जनवरी 2023

बदल गई अब वो नसीहत...."थोड़ी थोड़ी पिया करो"


बाज़ारवाद बहुत ताकतवर है....हमारे तसव्वुर से भी कहीं ज़्यादा ...इसलिए भी होठों पर चु्प्पी का ताला लोगों को लगाना पड़ता है ... हां, यह जो दारू के बारे में नसीहत बदलने वाली बात है यह मीडिया में ज़्यादा दिखाई नहीं देगी...लेकिन फिर भी जो चोटी के मीडिया हाउस हैं वे अपनी परंपरा पर खरे उतरते हुए पब्लिक को इशारा तो कर ही  देते हैं...और कुछ वाट्सएप पर इस तरह के स्टेट्स डाल कर अपना फ़र्ज़ निभा देते हैं...

कुछ दिन पहले हमारे एक सीनियर डाक्टर हैं उन्होंने लेंसेट मैगजीन के हवाले से यह बात लिखी थी वाट्सएप पर कि अल्कोहल की कोई भी मात्रा सुरक्षित नहीं है ....हर मात्रा में दारू तबाही मचाने में सक्षम है। अभी कुछ बरसों पहले की बात है यह है कि कहा जाता था कि जो लोग थोड़ी थोड़ी पी लेते हैं, वे तनाव से दूर रहते हैं, मस्त रहते हैं, दिल की बीमारियों की चपेट में आने से थोड़ा बच जाते हैं....यही कह कर लोगों ने अपने दिल को समझा के रखा ....यह थोड़ी थोड़ी कब बहुत ज़्यादा होने लगी किसी को पता ही न चला...और जब आसपास के लोगों ने रोकना चाहा तो वही दलील दी जाती कि यह तो डाक्टर लोग भी कहते हैं कि थोड़ी बहुत तो लेते रहना चाहिए...

खैर, अभी कुछ अरसा पहले यह चर्चा होने लगी ...जनमानस में नहीं, बल्कि चिकित्सकों ने यह सलाह देनी शुरु कर दी कि थोड़ी बहुत दारू जो रोज़ लेने की बात है यह उन लोगों के लिए जो रोज़ाना पीते हैं और बहुत पीते हैं, टल्ली हो जाते हैं...वे अगर बिल्कुल थोड़ी मात्रा में लेने लगेंगे तो तनाव-वाव से दूर रहेंगे और हार्ट-वार्ट की तकलीफ़ों से दूर रहेंगे ..मुझे लगता है कि डाक्टरों की इस दलील ने लोगों को अगर दारू पीने के लिए उकसाया न भी हो तो भी उस से होने वाली बीमारियों का डर तो कुछ खत्म कर ही दिया....

खैर, यह वाली सलाह इस तरह से दी जाती थी कि अगर कोई दारू नहीं पीता है तो उसे थोड़ी दारू पीने के लिए नहीं कहना है ...यह बहुत ज़रुरी बात थी ...लेकिन इतनी सी बात भी सुनता कौन है...जिस तरह से दारू को पिछले कुछ सालों से समाज ने स्वीकार किया है, पिछले दस-बीस सालों में यह भी हम सब देख ही रहे हैं....वैसे लिखने वाली बात है नहीं, मेरा काम कोई मोरल-पुलिसिंग का न है, न मैं करना चाहता हूं ...आदमी क्या और औरत क्या, लेकिन अकसर बंबई में इंगलिश दारू की दुकानों के बाहर दारू खरीदने वाली की भीड़ में महिलाओं एवं युवतियों को देखता हूं ....और आते जाते रेस्टरां के बाहर अपने दोस्तों के साथ युवतियों को सिगरेट के छल्ले उड़ाते देखना भी एक आम बात लगती है ...

जैसा मैंने ऊपर लिखा कि मार्केट शक्तियां बड़ी पावरफुल हैं....अपने रास्ते में आने वाले किसी को भी कब हटा दें, किसी को पता भी न चले, एक बात ...और किस तरह से विज्ञापनों का सहारा लेकर दारू, सिगरेट जैसी चीज़ों को कहां से कहां पहुंचा दें ...कोई कल्पना चाहे न भी कर पाए, लेकिन देख तो हम सब रहे ही हैं...

हां, अब मुद्दे पर आते हैं...लेंसेट एक बहुत ही सम्मानीय एवं प्रतिष्ठित मैगज़ीन है....मैंने इसे १९८६ में पहली बार देखा था...हमारे कालेज की लाइब्रेरी में आता था ...जिन प्रोफैसर साहब के पास मैं एमडीएस कर रहा था वह इसे पढ़ने के बहुत शौकीन थे, दोपहर में खाने के बाद अकसर उन्हें इसे पढ़ता देखते थे हम ...और मैं भी लाईब्रेरी में ऐसे ही कभी कभी इस के पन्ने उलट-पलट लेता था...बिल्कुल पतला कागज़ और बिलकुल पतली सी मैगज़ीन ..छपाई अति उत्तम...और कंटेंट अति विश्वसनीय..

हां, उस दिन हमारे एक वरिष्ठ साथी ने हमारे ग्रुप में यह बात शेयर की कि दारू की कोई भी मात्रा सेफ नहीं है....तो पढ़ कर यही लगा कि बड़ी ज़रूरी बात है ...इस के बारे में मुझे भी लिखना चाहिए ...यह कुछ दिन पहले की बात है ...मसरूफ़ रहने से बात आई गई हो गई ....

Health and Cancer risks associated with low levels of alcohol consumption  (इस पूरे लेख को आप यहां पढ़ सकते हैं..) 

लेकिन दो दिन पहले जब टाइम्स ऑफ इंडिया देख रहा था ..सच में अब देखने की ही नौबत आ गई है....रोज़ सोचता हूं फलां फलां लेख तो ज़रूर शाम को पढूंगा ...लेकिन शाम को इतना थक-टूट जाते हैं कि अखबार देखने की इच्छा ही नहीं होती...सुबह वक्त नहीं होता ..खैर, उस दिन भी यही खबर दिखी कि विश्व स्वास्थय संगठन ने भी यही कहा है कि दारू की थोड़ी से थोड़ी मात्रा भी सेहत के लिए हानिकारक है, कईं तरह के कैंसर के जोखिम को बढ़ाती है ...लीजिए आप भी पढ़िए...

टाइम्स ऑफ इंडिया, मुंबई .१२ जनवरी २३


मेरी नज़र में हिंदोस्तान के सब से बेहतरीन अखबार को बाज़ारवाद के उमड़ते बवंडर में भी इस तरह की खबर को जगह देने के लिए शुक्रिया...👍🙏

यह खबर पढ़ने के बाद फिर एक बार लगा कि इस तरह की जानकारी तो हिंदी में भी मुहैया करवानी चाहिए अपने ब्लॉग के ज़रिए मुझे ...चाहे है वो भी एक खुशफ़हमी कि पता नहीं ब्लॉग में जनमानस की ज़बान में लिखने से पता नहीं मै कौन सा पहा़ड़ उखाड़ लूंगा ..चलिए..अपना काम तो कर देना चाहिए...जंगल मे आग लगी तो चिडिया अपनी चोंच में पानी भर भर के उस आग में फैंकनी जाती..किसी ने कहा, अरी पागल, तेरे चोंच भरे पानी से क्या होगा...तो वह बोली, मेरा नाम तो आग बुझाने वालों में लिखा जाएगा....वही बात है इस ब्लॉग में इस दारू न पीने वाली बात को लिखना भी...

दो दिन सोचता ही रह गया लेकिन इस वक्त सोच रहा हूं कि अच्छा ही हुआ...लोगों ने लोहड़ी तो अच्छे से दारू-शारू के साथ मना ली...वरना यह सब पढ़ कर मज़ा किरकिरा हो जाता ....क्योंकि वैसे तो सभी जगह लेकिन पंजाब के तो गीत सुन कर ऐसा लगता है जैसा कि वह दारू पर ही जी रहा है, जीप पर चढ़े हुए कंधे पर दुनाली को टांगे दारू पी कर बड़कां मारने की बातें ...लेकिन यह सब इतना रोमांटिक है नहीं जितना दिखता है ..आस पास के सब लोग जिन को दारू, सिगरेट, बीड़ी पीते देखता था, सब के सब इन्हीं चीज़ों से होने वाली बीमारियों का शिकार हो के चले गए....और कुछ ऐसे भी जिन्होंने कभी इन का सेवन नहीं किया चले तो वह भी गए ....ऐसा नहीं है कि मैं अमर हूं या जो कुछ ऐसा खाते पीते नहीं, वे १५० साल जी लेंगे....ऐसा नहीं है, लेकिन बात इतनी सी है कि मक्खी देख कर तो नहीं निगली जाती ...क्या ख्याल है आपका?

अब ख्याल आ रहा है कि पढ़ने वालों को लग रहा होगा कि तुम भी तो बताओ अपने बारे में ....तो उस का जवाब यह है कि सारे अपने सारे खानदान में मैं एक अकेला ही ऐसा हूं जो पता नहीं कैसे बच गया इस से ...अच्छा ही हुआ, वरना जिस तरह का मैं ही मैं तो ठेके पर ही बैठा रहता...ऐसा क्या हुआ कि मैं इसे चखने से भी महरूम रह गया ..क्योंकि मुझे इस से पहले ही से बड़ी नफ़रत थी ...खास कर किसी भी दारू पिए हुए बंदे से बात करने की बात से ही ...फिर १८-१९ बरस की उम्र थी...मेडीकल कालेज अमृतसर की पैथोलॉजी की प्रोफैसर डा प्रेम लता वडेरा हमें एक दिन अल्कोहल के लिवर पर होने वाले बुरे प्रभावों - फैटी लिवर, सिरहोसिस- के बारे में इतने अच्छे से पढ़ा रही थीं कि ऐसे लगा जैसे एक मां अपने बच्चों को सचेत कर रही हो ....वह एक बहुत नामचीन पैथोलॉजिस्ट थी ....हमारी मां की उम्र की ही थीं ...पढ़ाने का तरीका भी ऐसा उम्दा ....(वैसे वो मेरी आंसरशीट को क्लास में दिखाया करती थीं कि ऐसे लिखते हैं पेपर में , यह होती है प्रिज़ेंटेशन....😎) ... देखिए, उन के पढ़ाने का असर कि उस दिन क्लास में मन ही मन यह निश्चय कर लिया कि दारू को तो हाथ नहीं लगाना ....और पापा जो शाम को एक-दो छोटे छोटे पैग लेते थे, उन्हें भी मैंने यह कह कर बोर करना शुरू कर दिया कि पापा, यह खराब है, यह नुकसान करती है ...लेकिन ...लेकिन, वेकिन, छोड़ो, यार ...जितना लिख दिया बस काफ़ी है। 

एक वक्त वह भी आता है कि जब किसी चीज़ को छोड़ने से भी कुछ खास फर्क पड़ता नहीं, समझ गए न आप.....जैसे गुटखा खाने वाले लोग मुंह के एडवांस कैंसर का इलाज करवाने आते हैं तो कहते हैं कि एक महीने से गुटखा छुआ तक नहीं..बीड़ी पंद्रह दिन से बंद है ....मन तो होता है कहने को कि पी लो, अब और जितनी पीनी हो ....लेकिन मरीज़ से ऐसी बात कहां हम लोग कर पाते हैं....हम भी यही कह कर उस का मनोबल बढ़ाते हैं ...अच्छा किया, बहुत अच्छी बात है ...वैसे ऊपर जो मैंने विश्व स्वास्थ्य संगठन की फेक्ट-शीट लगाई है उसमें यह भी कितना स्पष्ट लिखा है कि जो लोग तंबाकू और दारू दोनों चीज़ों का इस्तेमाल करते हैं उन में कैंसर होने का खतरा कितना बढ़ जाता है ..

चलिए, अब इस बात को यहीं विराम देते हैं...ज़्यादा कागज़ काले करने से भी कुछ होता वोता नहीं है...समझदार को इशारा काफी होता है ...अब तो लगता है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह बात अस्पतालों में जगह जगह लगी होनी चाहिए कि दारू की कम से कम मात्रा भी सेहत के लिए सुरक्षित नहीं है ... हां, मैं पंजाब की बातें कर रहा था ..दुनाली, जीपों, दारू और दारू पी कर बड़कें मारने की ....मुझे आज यह लिखते लिखते अचानक याद आया कि हम लोग बचपन में देखा-सुना करते थे कि पंजाब में विवाह शादी से पहले लेडीज़-संगीत (पंजाबी में उसे गौन या गावन कहते थे ...घर घर जा कर उस का सद्दा दिया जाता था...) शादी के कईं कईं दिन पहले यह शुरू हो जाता था ...चार पांच दिन पहले तो हमने देखा है, सुना है ...उसमें भी इस तरह के गीत ढोलक के साथ बजते थे ....नशे दीए बंद बोतले, तैनूं पीन गे ..हाय, तैनूं पीन गे नसीबां वाले ...(नशे को बंद बोतले, तुझे नसीबों वाले पिएंगे).. 😂


एक बात तो मैं दर्ज करनी भूल ही गया कि अभी मेरी जितनी उम्र है उस का आधा हिस्सा जिसने अमृतसर जैसे शाही शहर में बिताया हो ..जहां खाने पीने की पूरी ऐश थी...लज़ीज़ शाही खाना....आलू के परांठे और उस के बाद पेढ़े वाली मलाईदार लस्सी दा कड़े वाला गिलास....कमबख्त उस से ही इतना नशा हो जाता था कि दूसरे नशे के बारे में सोचने की होश ही किसे रहती....एक आम कहावत भी है न ..नशा तो रोटी में भी है ... सच बात है बिल्कुल...। लिखते लिखते याद आया हमारी एक कज़िन हम से १० साल बड़ी होंगी ...जब बंबई से अमृतसर आईं हमारे यहां तो एक दिन पानी का गिलास पकड़ कर इस गाने पर एक्टिंग करने लगीं ..हम सब बच्चों को अपने आस पास बिठा के ....हमें बड़ा अच्छा लगा, वह पानी का गिलास पकड़ कर १-२ मिनट के लिए ही यह गीत गाते झूम रही थीं.... हमने तब फिल्म भी न देखी थी ...बहुत बरसों बाद देखी... हां जी हां, मैंने शराब पी है ... 


अगर आप इस पोस्ट की भूमिका भी देखना चाहें तो यहां पधारिए.... 

शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

थोड़ी थोड़ी पिया करो.......लेकिन, ठहरिए!!

पचास बरस पहले का दौर याद आता है जब इस गीत या गज़ल का ख्याल आता है ...याद आता है वह वेस्टन कंपनी का टेप-रिकार्डर और उस में टेप पर बज रहा पंकज उधास का गाया वह गीत ....थोड़ी थोड़ी पिया करो...अच्छा लगता था उसे सुनना....१५ बरस पहले २००८ की बात होगी...अभी शायद मुझे ब्लॉगिंग करते एक साल ही हुआ था कि मैंने एक ब्लॉग लिखा था...थोड़ी थोड़ी पिया करो। नहीं, इसमें किसी को दारू पीने के लिए उकसाने वाली बातें न थीं....दिल से लिखा गया एक ब्लॉग था...जो पढ़ने वालों को इतना पसंद आया कि किसी मेहरबान ने उस का उन दिनों एक पॉडकॉस्ट ही बना दिया...

खैर, दारू की जब बात चलती है तो लोगों के दिलो-दिमाग में यही बात घर कर चुकी है कि थोड़ी बहुत पी लेना सेहत के लिए ठीक ही है ...इस से कोई दिक्कत नहीं होती, बल्कि सेहत पर कुछ अच्छा असर ही पड़ता है ..बिना टेंशन को दूर भगाने के लिए यह सब कुछ करता है ...यह तो एक प्रचलित धारणा है ही ...हर जगह ....दारू पीने वालों ने अपने मन को समझा लिया था ...और दारू बेचने वालों की तो बात ही क्या करें...वह लॉबी तो इतनी ताकतवर है कि किसी को कुछ बताने की ज़रूरत है नहीं...

आज बहुत अरसे बाद इस पर लिखने लगा हूं तो इतनी बातें याद आ रही हैं कि लगता है जो जो याद आ रहा है लिख दूं... यादों के झरोखे से दिखने वाले मंज़र कब दूर हो जाते हैं पता ही नहीं चलता....हमारे ताऊ जी के बेटे ने आज से ५०-५५ बरस पहले एक इंगलिश वाइन की शाप खोली...मैं यही कोई सातवीं-आठवीं कक्षा में था...मुझे अच्छे से याद है कि मैं एक दिन उस वाईन-शाप पर गया ...और पता नहीं मुझे क्या करना है, किसी कुर्सी को थोड़ा इधर उधर सरकाना था ...तो वाइन-व्हिस्की या पता नहीं क्या (इंगलिश दारू ही थी) ..उस का एक डिब्बा कार्डबोर्ड का वहां पड़ा था...उन बोतलों से भरा हुआ...मैं जैसे ही उसे उठाया, वह नीचे से फट गया और सारी बोतलें टूट गईं...मुझे बहुत बुरा लगा...थोड़ा डर भी लगा ...वैसे डर बहुत कम था क्योंकि मैं अपने घर वालों को जानता हूं, ये सब बडे़ ही भले लोग हैं, दूसरों को कुछ नहीं कहते तो मुझे इन्होंने क्या कहना था....

लेकिन यह बात तो मेरे दिलोदिमाग में आज भी ताजा है कि इतना बड़ा कांड होने के बावजूद किसी ने मुझे इतना भी नहीं कहा कि यार, यह क्या हो गया....वहां पर ऐसा माहौल था जैसे कुछ हुआ ही नहीं, जैसे रसोई में कोई गिलास टूट गया हो....अभी ख्याल आ रहा है कि हम लोगों से जैसा बर्ताव हुआ होता है, हम वही बर्ताव दुनिया को लौटाते हैं .....खैर, हमारे उस कज़िन की दुकान घाटे का सौदा ही थी...क्योंकि बिजनेस चलाना उन के बस की बात न थी, एक बात ....दूसरी बात यह कि शाम को उन के दोस्तो की महफिल रोज़ उस वाइन-शॉप में ही लग जाती थी...और एक महंगी सी बोतल तो उन को चाहिए होती थी ...और इस के साथ साथ दुनिया भर को दारू उधार देने से (जो कभी वापिस न मिला) वह दुकान का ऐसा दिवाला पिट गया कि उसके शटर नीचे गिर गए.... और उन्होंने आल इंडिया रेडियो में एक अच्छी नौकरी कर ली....इस के बाद बीसियों बरसों तक जब तक कुनबे के बुज़ुर्ग जिंदा रहे ...उन के ठहाके इसी बात पर लगते रहे कि चोपड़ों ने दारू की दुकान खोली और वह तो बंद होनी ही थी ...कोई उस ठेके से जुड़ा कोई किस्सा सुनाने लगता और कोई कुछ ...अरे यार, मैं एक बात तो भूल गया कि यह ठेके हमारे ताऊ जी की कोठी के बाहर ही था, मुझे याद है अंधेरा होते ही एक बोतल उस ठेके से उन के लिए भी पहुंचा दी जाती ..कईं बार तो वह खुद ही आ कर ले जाते ...

वैसे भी यह उन दिनों की बात है जब यह समझा जाता था या यह माना जाता था कि अगर दारू इंगलिश है तो कोई बात नहीं ....यह तो देसी दारू ही है जो शरीर खराब करती है, यही आम धारणा थी लोगों में। और एक बात ...यह जो केंटीन से दारू मिलती थी आर्मी वालों को ..लोगों को उसे पा लेने का बडा़ क्रेज़ था, आर्मी में न काम करने वाले भी इतने व्यापक स्तर पर उस कैंटीन से मिलने वाली दारू का जुगाड़ कैसे कर लेते थे ...यह देख कर बड़ी हैरानी होती थी ...जुगाड़ भी ऐसे ऐसे कि क्या कहें....मौसा जी किसी छावनी में बैंक मैनेजर क्या हो गए, सारे कुनबे में उन का रुतबा बढ़ गया ....पता नहीं मैनेजरी से या इस बात से कि अब वह वहां की कैंटीन से अच्छी क्वालिटी की दारू हासिल करने का जुगाड़ कर पाते ....मुझे उन दिनों की बातें याद आती हैं तो बहुत हंसी आती है जब किसी छत पर या बैठक में दारू की महफिल जमी होती तो कमरे में कितने ठहाके लगा करते ...खुशियां ही खुशियां....सिगरेट से धुएं से भरा कमरा ...ऊल जूल बातें करते बंदे....मुझे पता इसलिए है क्योंकि कईं बार जब बर्फ कम पड़ जाती तो बाज़ार से बर्फ लाकर, दाल मौठ के साथ ...उसे अंदर पहुंचाने की ड्यूटी मेरी या मेरे जैसे किसी दूसरे की लगती थी ....ठहाकों के बावजूद उस कमरे में जा कर अजीब सा महसूस होता था ....जिसे मैं अभी तक कभी लिख नहीं पाया हूं ...खैर, उसे भी लिख दूं कभी तो ... 


खैर, उस दौर में हमारे चाचा लोग ५५५ के सिगरेट पीते थे और जॉनी वॉकर दारू ही लेते थे ....मुझे याद है अच्छे से क्योंकि मुझे उस जानी वाकर, वैटे 69 की खाली बोतलें बहुत पसंद थीं...और हमें उन के खाली होने के बाद फ्रिज में पानी ठंडा रखने के लिए इस्तेमाल करने पर ही हर बार पांच फीसदी नशा हो ही जाता था ...और हम इन सब की रईसी को देख कर बस दांतों तले उंगली ही न दबाते थे ..दंग तो रह ही जाते थे ...५५५ कंपनी का सिगरेट ...जिसे उन दिनों शहर में ढूंढना मुश्किल होता था ....सिगरेट के बारे में भी उन दिनों यही बात मानी जाती थी कि जितना महंगा होगा उतना ही कम खराब होगा....५५५ पीने वाले भी कभी कभी ऐसे ही टशन के लिए बीड़ी के दो कश भी मारा करते थे, मैंने यह सब देखा है । वैसे मुझे गुज़रे दौर में महंगे दारू की खाली बोतलें ही न लुभाती थीं, मुझे अभी भी पुराने दौर की चीज़ों से खास लगाव है ...कुछ महीने पहले किसी एंटीक की दुकान पर ५५५ सिगरेटों की लोहे वाली डिब्बी दिख गई ...मैंने पहले कभी न देखा इस तरह की लोहे की डिब्बी को .......बहुत ज़्यादा महंगी बेच रहा था, खैर, मैंने उसे खरीद लिया ...क्योकि अभी तक तो ऐसी सिगरेट की डिब्बी न देखी थी न सुनी, और न ही आगे ही देखने की कभी उम्मीद ही लगी ....अभी ढूंढने लगा यहां पर फोटो लगाने के लिए तो मिली नहीं......पता नहीं कहीं पर रख कर भूल गया हूं....खैर, नेट से फोटो लेकर यहां लगा देता हूं....



आज सुबह सुबह उठते ही इस दारू का, इन सिगरेटों का ख्याल ऐसे आया कि लगभग ५० बरस पुरानी एक मैगजी़न के पन्ने अभी उलट ही रहा था कि सिगरेट के इस इश्तिहार पर नज़रें जा टिकीं....बस, फिर क्या था, बीते दिन आंखों के सामने घूमने लगे ...कभी यह कभी वो...पढ़ने की तो इच्छा थी नहीं, सोने का भी मन नहीं था चाहे नींद लग रहा था अभी पूरी नहीं हुई.....बस, और कुछ न सूझा तो यही डॉयरी लिखने बैठ गया...

यह डॉयरी लिखने की बात यह है कि जो मुद्दे की बात लिखना मैं चाह रहा हूं ....वह तो मैंने शुरू भी नहीं की। क्या करूं....पुरानी इधर उधर की यादों ने ही ऐसे घेर लिया कि लगा कि पहले इन्हें समेट लूं ...लेकिन फिर भी एक छोटा सा अंश ही समेट पाया ...और जो असल बात है वह कहने से रह गया.....कोई नहीं, अगली पोस्ट में उस बात को करते हैं.......ब्रेक के बाद!!😎😂

मंगलवार, 3 जनवरी 2023

किताबें पढ़ना तो चाहते हैं लोग....

किताबों की खुशबू में ही कुछ जादू है जो खींचती हैं मुझे ...एनसीपीए,मुंबई, नवंबर २०२२

कल शाम मैं एक बुक स्टोर में कोई किताब ढूंढ रहा था कि मेरे पास खड़े एक २५-३० बरस के युवक ने मुझ से पूछा कि क्या आप  पढ़ने के लिए मेरे लिए कोई बुक सुजेस्ट कर सकते हैं....पहले तो मैं एक बार चकरा सा गया कि अब यह काम भी मेरे हिस्से में आ गया...क्या मैं इतना पढ़ाकू दिखने लगा हूं ...चलिए, दिखूं या न दिखूं लेकिन मुझे किताबें खरीदने का बहुत शौक है ...बहुत ज़्यादा शौक है ...और एक तरह की नहीं, हर तरह की किताबें ...अपना अपना शौक है, किताब कितनी भी महंगी हो, मुझे नहीं लगती....मुझे यही लगता है कि मान लेंगे १-२ पिज़ा खा लिए या बाहर कहीं खाने चले गए....मन को समझाने की बात है, शुरू शुरु में तो इस तरह से समझाना पड़ता था लेकिन अब उसे भी समझ आ गई है, इसलिए अब यह काम भी नहीं करना पड़ता। 

हां, मैंने उस युवक से पूछा कि वह किस जॉनर की किताब पढ़ना चाहेगा...उसने कहा कि हैरी-पॉटर टाइप कुछ। खैर, वहां पर हैरी पॉटर की कोई किताब नहीं थी ...मैंने उसे कहा कि इस सेक्शन में तो अधिकतर नावल, इंस्पिरेशनल बुक्स, और ज्ञान झाड़ने वाली किताबें हैं...ज्ञान झाड़ने वाली बात पर वह हंसने लगा...मैंने उसे जैफरी आर्चर की कहानियों की किताब की तरफ़ इशारा किया..लेकिन उस ने उसे भारी भरकम देख कर अहमियत न दी....खैर, मैंने वह किताब खरीद ली...और उसने कहा कि मैं तो अभी शुरूआत ही कर रहा हूं कुछ पढ़ने से ...इसलिए उसने एक पतला सा नावल खरीद लिया...


मुझे अच्छा लगता है जब मैं किसी को किताब खरीदते, पढ़ते या डिस्कस करते देखता हूं...पिछले रविवार मुझे एक भव्य समारोह में जाने का मौका मिला...जहां पर बड़े बड़े लेखकों का जमावड़ा लगा हुआ था...वहां पर २-३ घंटे कैसे कट गए पता ही न चला...मौका सा धर्मवीर भारती साहब के ऊपर एक किताब का विमोचन...जिन्होंने भारती जी का नाम न सुना हो, उन के लिए बता दें कि वह धर्मयुग साप्ताहिक के १९६० से १९८७ तक संपादक थे ...उन्होंने धर्मयुग को उन ऊंचाईयों तक पहुंचाया कि एक दौर में उस की चार लाख कापियां छपी थीं...और कईं बार जब कोई अंक खत्म हो जाता था तो टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग के बाहर लोग प्रदर्शन करने लगते थे कि कापियां खत्म हैं, हमें नहीं मिलीं, दोबारा छापिए। ऐसा था, लोगों का प्यार धर्मयुग के लिए....

अपने बचपन का साथी ..धर्मयुग 

उस दिन जब उन की श्रीमति जी - पुष्पा भारती जी को सुना तो पता चला कि इस के पीछे जादू क्या था...वह सरल सादा भाषा इस्तेमाल करते थे ...मुझे भी तब समझ में आया कि १९७० के दशक में, अमृतसर शहर में पांचवी छठी कक्षा में पढ़ने वाला मेरे जैसा छात्र और परिवार के सभी लोग धर्मयुग के इतने दीवाने थे कि उस के लिए आंखें बिछाए रहते ...खैर, उस दिन वह किताब भी खरीद ली और उसे पढ़ कर जैसा वह ज़माना फिर से जी रहा हूं आज कल...

मैं तो किताब कब लिखूंगा मुझे नहीं पता ...मां यह कहती कहती चली गई...दो एक प्रकाशक कहते कहते थक गए ...लेकिन मैं पता नहीं किस बात का इंतज़ार कर रहा हूं ...सठिया तो गया ही हूं ...फिर भी अभी तक कुछ नहीं किया ....मैंने बीते साल की ३१ दिसंबर तक एक किताब की पांडुलिपि पूरी करने का संकल्प अपने स्टडी़-रूम में टांग रखा है, और किताब का नाम भी....लेकिन कुछ नहीं हुआ...बीस बरसों से बस प्लॉनिंग ही चालू है ...जब की खूब किताबें देख कर, अगर पढ़ कर नहीं भी तो उन के पन्ने उलट-पलट कर यह तो मन में विश्वास हो चुका है कि मैं किताब तो लिख ही सकता हूं और ठीक ठीक तरह की लिख सकता हूं....हिदी.पंजाबी, इंगलिश और उर्दू की किताबें पढ़ता हूं लेकिन अभी तक यही मन बनाया है कि अगर कभी किताब लिखूंगा तो वह होगी हिंदोस्तानी ज़बान में ही ..जो हम लोगों की बोलचाल की भाषा है ..हिंदी, उर्दू मिक्स...आम जन की समझ में आने वाली मासूम सी बातें....जैसा कि मैं जानबूझ कर अपने इस ब्लॉग में लिखता हूं.......मुझे किताब के लिए विषय ढूंढने में कोई मुश्किल नहीं है, न ही विषयों की कोई कमी है, बस, एक जगह टिक कर कुछ दिन बैठने भर की बात है ...शायद यही कोई आठ दस दिन ... लेकिन वह कब मुमकिन हो पाएगा, मुझे भी नहीं पता। 

दो महीने पहले एन.सी.पी.ए में ...

किताब लिखने के बारे में एक कथन मैंने कुछ महीने पहले एक किताब में यह पढ़ा था कि लेखक को वह किताब लिखनी चाहिए जो वह पढ़ना तो चाहता है लेकिन अभी तक लिखी नहीं गई है। अपना भी मंसूबा तो कुछ ऐसा ही है ..देखते हैं....

तीन बरस पहले जब अमेरिका गए तो वहां एक शाम न्यू-यार्क में एक लाइब्रेरी के सामने से गुज़र रहे थे ...क्या बात थी उस जगह की...मज़ा आ गया था....अंदर तो नही गया लेकिन उस लाइब्रेरी के इर्द-गिर्द फुटपाथ की कारीगरी देख कर ही हमें नज़ारा आ गया था ...अभी आप को भी वहां की फोटो दिखाते हैं...पढ़िएगा ज़रूर , मज़ा आएगा आपको भी ( चाहे ज़ूम ही क्यों न करना पड़े हरेक फोटो को ...)  वहां पर उस फुटपाथ पर क्या क्या लिखा हुआ है ....एक बात जो मुझे हमेशा के लिए याद रह गई कि किताबों को पढ़ना गुज़रों दौर के महान लोगों से मुलाकात करने जैसा शौक है ....जी हां, मैं भी यही मानता हूं...























कभी कभी लोकल ट्रेन में किसी को अखबार पढ़ते या कोई किताब पढ़ते देखता हूं तो अच्छा लगता है ....कोई कोई धार्मिक किताबें भी पढ़ते हैं...कोई मोबाईल में यह काम करते हैं...दो दिन पहले एक सिख युवक मोबाइल में कुछ गुरमुखी में लिखा पढ़ रहा था, जब उसने मोबाइल बंद किया तो मैंने पूछ ही लिया कि क्या वह जपुजी साहब का पाठ कर रहा था। उसने कहा ..हां, और साथ में उसने कुछ और नाम लिया जिसे मैं अब भूल गया हूं...


एक तरफ तो इतना पढ़ने लिखने की बातें , दूसरी तरफ़ ए.बी.सी तक को छोड़ने की इत्लिजा... एक तरफ़ तो बचपन में ऐसे गीत बज रहे होते रेडियो पर और दूसरी तरफ़ हाथ में चंदामामा, नंदन, धर्मयुग और राजन-इकबाल के बाल उपन्यास थामे रहते .... हा हा हा हा .