शनिवार, 27 मार्च 2021

आखिर कैसे हम पहुंच ही गए कोरोना वैक्सीनेटर तक ...

 आज सुबह भी मैंने क्या किया ....पोस्ट का हैडिंग तो लिख दिया .... आखिर दिल और दिमाग़ की जंग हुई ख़त्म - हमने भी लगवा ही लिया कोरोना वैक्सीन !

और पता नहीं लिखते लिखते किधर से किधर भटक गया ...पहुंच गया बचपन के दिनों में .... बात कुछ ख़ास नहीं, लेकिन ऐसे लगा जैसे रीडर्स को ठग लिया ....अब असली बात भी तो करूं, मैंने सोचा। इसलिए वही बात लिखने बैठ गया हूं। 

हां, तो जब कोरोना की पहली लहर का कहर जब बरप रहा था तो इस से बचाव के टीके की ख़बरें भी आने लगीं ...इस के बारे में साईंटिस्ट तो क्या बोलते, वे लोग तो कम बोलते हैं तभी तो इतने इतने महान् कारनामें अंजाम दे देते हैं ...लेकिन यह जो वाट्सएप यूनिवर्सिटी है न, यह मार्कीट में कोविड के टीके के आने की संभावित तारीख़ बताए जा रही थी ... लेकिन पढ़ा-लिखा तबका इन पर इतनी तवज्जो नहीं दे रहा था। 

ख़ैर, देखते ही देखते टीके के ट्रायल होने लगे और सफल भी होने लगे ... फिर जैसे अकसर होता है सोशल मीडिया पर टीके के ऊपर भी राजनीति होने लगी - एक दो साईंटिस्ट थे जिन की वीडियो वाट्सएप पर वॉयरल हो गईं कि आखिर इतनी अफरातफ़री में क्यों इस वैक्सीन को मार्कीट में लाने की तैयारी है। क्यों इतने शार्ट-कट अपनाए जा रहे हैं...लेकिन कुछ दिनों में देखा कि वे आवाज़ें कहीं नीचे दब सी गई हैं और ये ख़बरें आने लगी हैं कि दो तरह के टीके देश में फलां फलां तारीख से लगने शुरू हो जाएंगे ...तब तक विभिन्न मेडीकल संस्थानों को अपनी लॉजिस्टिक तैयारी करने को कहा ...अपनी भंडारण क्षमता, कोल्ड-स्टोरेज क्षमता बढ़ाने के आदेश आ गए...जो मेडीकल कर्मी वेक्सीनेटर के तौर पर काम करने के लिए सक्षम हैं, उन का पूरा डैटा-बैंक तैयार हो गया। 

हमारे अस्पताल में भी एक दिन इस के बारे में मीटिंग हुई ....यह वैक्सीन लगने जब शुरू हुए उससे कुछ दिन पहले की बात थी ...लेकिन कुछ भी ठोस कोई कह नहीं पा रहा था। यही बातें होती रहीं कि सेफ्टी डैटा आए तो पता चले ... फिर यह बात भी हुई कि हम लोग तो फ्रंट लाइन वर्कर हैं ..हमें तो टीका लगवाना ही होगा....उन्हीं दिनों यह भी शासकीय आदेश निकला था कि टीकाकरण ऐच्छिक है ...जिसे लगवाना हो अपनी मर्ज़ी से लगवाना होगा...कोई बाध्यता नहीं है, कोई बंदिश नहीं है। हम सब को यह सुखद लग रहा था ...

वैक्सीन लगने शुरु हो गए ... मेडीकल स्टॉफ ऐम्बुलेंस में बैठ कर जाने लगे ...और वैक्सीन सेंटर में जा कर टीका लगवाने लगे। और हां,  अभी टीके लगने शुरू नहीं हुए थे कि सभी फ्रंट-लाइन वर्कर का पूरा डैटा विभिन्न संस्थाओं द्वारा अपलोड कर दिया गया था .. इसलिए अब उन की लिस्ट आ गई...गलती से मेरा नाम रह गया था ..शायद मेरे पहले कार्य-स्थल की लिस्ट में नाम आया होगा ...मुझे मन ही मन यह इत्मीनान ही हुआ कि चलो, जब नाम ही नहीं है तो वैक्सीन लगवाने का सवाल ही कहां है। 

वैक्सीन लग रहे थे ....मेरी मिसिज़ डाक्टर हैं, उन्होंने भी यही सोच रखा था कि वह भी वैक्सीन नहीं लगवाएंगी.... बच्चे जो मेडीकल साईंस की एबीसी भी नहीं जानते, उन्होंने भी कहा कि वैक्सीन मत लगवाइए। लेकिन हर जगह peer-pressure काम करता है ...मिसिज़ के लगभग सभी बैच-मेट्स ने जब यह लगवा लिया तो इन्हेंं भी प्रेरणा मिली और इन्होंने भी लगवा लिया। 

मिसिज़ के लगवाने के बाद मुझे प्रेरणा मिली कि मैं भी लगवा के छुट्टी करूं ... मैं इतना अकलमंद भी नहीं कि बुद्धिजीवियों की बुद्धि मिला कर भी मेरे से कम है ....मैंने कुछ नहीं पढ़ा इन वैक्सीन के बारे में ...इससे और कंफ्यूज़न ही होता है ...लेकिन तब तक पता चला कि अब पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन बंद हो चुका है ...यह भी एक तरह से इत्मीनान ही था कि चलो, अब पंजीकरण ही नहीं हो रहा तो इस का ख़्याल ही दिल से निकाल दो...

लेकिन जैसे जैसे आसपास के लोगों ने इस वैक्सीन को लगवाना शुरू किया...मैंने भी इसे लेने का फ़ैसला तो कर लिया ...लेकिन यह सोचने लगे कि दूसरे अस्पताल में जाकर कहां इंतज़ार करेंगे, अपनी पहचान बताते फिरेंगे ...देखतें हैं ....इतने में एक दिन हमारे अपने अस्पताल में (जहां मैं काम करता हूं) वहां पर म्यूनिसिपल कोर्पोरेशन की तरफ़ से केवल मैडीकल स्टॉफ के लिए वैक्सीन लगाने का कैंप लगाया गया ... जब मैं वहां गया तो पता चला कि मेरा तो रजिस्ट्रेशन ही नहीं हुआ है ...इसलिए मुझे बैरंग उल्टे पैर वापिस लौटना पड़ा। 

कुछ दिन पहले ऐसे हुआ कि हमारे अस्पताल को म्यूनिसपल कार्पोरेशन ने कोविड वैक्सीन लगाने के लिए एक केंद्र बना दिया...इस में हमारे विभाग के सरकारी कर्मचारी ही नहीं बल्कि दूसरे नागरिक भी आते हैं...रोज़ाना 100 वैक्सीन लगाने से शुरूआत हुई ...अब यहां पर 150 से भी ऊपर कोविड वैक्सिन लग रहे हैं...

मेरा यह सारी राम यहां कहानी लिखने का मकसद क्या है... मैं इसी बात पर ज़ोर देना चाह रहा हूं कि कईं बार जहां पर जो मेडीकल सुविधा उपलब्ध करवाई जा रही है, वहां का रख-रखाव, वहां के स्टॉफ का व्यवहार, काम में दक्षता ....आने वाला इंसान ये सब बातें देखता है, फिर ही कोई निर्णय लेता है ...मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ कि जब से हमारा अस्पताल कोविड वैक्सीन सेंटर बना है, मैं दो-तीन बार हो कर आया, ऐसे ही चक्कर लगा कर नीचे आ गया ...सारी व्यवस्था बढ़िया लगी ...हमारे अस्पताल के वैक्सीन केंद्र के स्टॉफ का रवैया इतना बढ़िया लगा जैसे कि वो आने वालों को वेलकम कह रहे हों...परसों मुख्य नर्सिंग सुपरडेंट ज्योत्स्ना सेमुअल से बात हुई (जो यह सारी व्यवस्था संभाल रही हैं ) उन की बात में इतनी सहजता महसूस हुई ...इतने ठहराव से वह बात करती हैं कि हमने यह टीका लगवाने का फ़ैसला कर लिया। 

घर से भी दबाव आने लगा था कि लगवाओ अब वैक्सीन ...अभी तक इंतज़ार किस बात का कर रहे हो, केस निरंतर बढ़ रहे हैं, मरीज़ ओपीडी में पहले की ही तरह आ रहे हैं...मरीज़ के मुंह के अंदर काम करते हो उस के पास जाकर ....क्यों इतना रिस्क ले रहे हो, वैक्सीन लगवा लो। 

इतनी सी बात मेरी मोटी बुद्धि के पल्ले पड़ गई...70 प्रतिशत ही सही, कुछ तो बचाव होगा ही ...और इस बात को तो सभी लोग मान ही रहे हैं कि अगर वैक्सीन लगे हुए किसी इंसान को कोरोना होता है तो उसमें बिल्कुल हल्का-फुल्का रूप ही दिखेगा ... इसलिए कल वैक्सीन लगवा ली ..कोवी-शील्ड ..एक बात और भी है, जब तक नहीं लगवाया था तो एक अपराध-बोध तो यह भी बना हुआ था कि अगर बिना टीका लगवाए काम कर रहे हैं तो कहीं न कहीं मरीज़ों की सेहत के लिए भी यह ठीक नहीं है ...









वैसे जहां तक मरीज़ों की बात है,,,,ठीक है जिन्हें एमरजेंसी है उन्हें तो आना है ज़ूरूर आएं ...लेकिन दिक्कत तब होती है जब बरसों से तंबाकू -ज़र्दे से तहस-नहस किए दांतों को चमकाने कोई इन दिनों आ रहा है ... और एक बात, जिस किसी को जुकाम आदि के लक्षण हैं, अगर उसे कहें कि कुछ दिन के बाद आ जाइए,  तो कहते हैं कि नहीं, नहीं..कुछ नहीं है, बस ऐसे ही अभी फेसमास्क की वजह से ज़ुकाम जैसा लग रहा है...ये सब चुनौतियां तो हैं ही सरकारी अस्पताल में काम करने की। 

बार बार समझाया जा रहा है कि टीका लगवाते ही बिंदास घूमना मत शुरू कर दीजिए...न तो फेसमास्क को उतारना है और न ही सोशल-डिस्टेंसिंग का दामन छोड़ना है ...बिना कारण ऐसे ही तफ़रीह करने नहीं निकलना....क्योंकि अभी भी ख़तरा टला थोड़े न है...कोरोना वॉयरल के कुछ बिगडैल स्ट्रेन्स (म्यूटैंट स्ट्रेन्स) के यहां वहां मिलने की ख़बरें आ रही हैं...बच के रहिए....और अगर टीका लगवाने के लिए आप पात्र हैं और अगर आप को यह उपलब्ध हो रहा है तो चुपचाप बिना किसी नुकुर-टुकुर के लगवाने में ही समझदारी है ...

अच्छा अब करते हैं कोरोना की बातें बंद और लगाते हैं - होली के रंग में रंग जाने की करते हैं तैयारी यह गीत सुनते सुनते ...लेकिन ध्यान रहिए इस बार भी होली डिजीटल ही होगी ...हम इसे अपने मोबाइलों की स्क्रीन पर ही खेलेंगे ...वरना, एक बार फिर से होली बहुत महंगी पड़ जाएगी....अपना बहुत सारा ख़्याल रखिए ...अपना मनपसंद कोई काम कीजिए जिसमें आप को ख़ुशी मिलती हो ...

आखिर दिल और दिमाग़ की जंग हुई ख़त्म - हमने भी लगवा ही लिया कोरोना वैक्सीन !

कोरोना-फोरोना के बारे में तो बात कर ही लेंगे ...सच में पक गये हैं इस से बचते-बचाते ... पहले टीके के बारे में कुछ ऐसे ही बिना सिर-पैर की बातें साझा करी जाएं। क्या ख़्याल है? बचपन की याद करता हूं तो याद आता है शिवलाल नाम का शख़्स जो कि घर के नज़दीक वाले सरकारी अस्पताल में ड्रेसर था ...यह आज से 54-55 बरस पहले की यादें हैं ...मैं उस वक्त यही चार साल का रहा हूंगा ..लेकिन मुझे याद है बिल्कुल अच्छे से कि कैसे शिवलाल ही टीका लगवाने घर आते थे ...उन के पास साईकिल थी ...और साथ में एक स्टील की डिब्बी होती थी जिसमें उन्होंने कांच की सिरिंज और स्टील की कमबख़्त बड़ी बड़ी सूईंयां रखी होती थीं ...उन का हमारी कॉलोनी में बहुत मान सम्मान था क्योंकि वे पट्टी भी बिना दर्द के बिना ज़ख़्म की पपड़ी को बेरहमी से खींचे बिना एकदम बढ़िया करते थे, टांके भी टनाटन लगाते थे और टीका भी एकदम बिना दर्द के लगाया करते थे, पता ही नहीं चलता था...दो या तीन रूपए उन की फ़ीस थी घर आकर टीका लगाने की ...शायद चार रूपये। जहां तक मुझे याद है कि इसमें टीके की कीमत भी शामिल हुआ करती थी। (यह जो शिवपाल मैं बार बार लिख रहा हूं ..इससे मुझे लालजी मिश्र के उपन्यास राग दरबारी का ख़्याल रह रह कर आ रहा है...शायद उसमें भी एक किरदार का नाम था शिवपाल या जगह का नाम था ..शिवपालगंज ...कुछ तो था, चेक करूंगा आज...😁बिना वजह दिमाग़ पर लोड डालने की आदत नहीं छूट रही मेरी भी!!)

बचपन के उस दौर में मुझे याद है कि खेलते खेलते मेरे घुटने में कुछ लोहे का चुभ गया ..खून बहने लगा ...मेरे पिता जी मुझे साईकिल पर बैठा कर पास के अस्पताल में ले गए ...वहां पर शिवलाल जी ने उस घाव में टांके लगाए और शायद टीका लगवाने के लिए मेरे पिता जी ने उन्हें घर आने को कहा। हमारे घर पहुंचने के थोड़े ही वक्त के बाद वे आए और टीका लगा गए। पूरी कॉलोनी में उन की धाक थी ---होती भी क्यों न, वे अपने काम मेंं माहिर जो थे। 

लेकिन उन के टीका लगाने की प्रक्रिया पर तो मैं रोशनी डाली ही नहीं....जी हां, जनाब, वे घर पहुंचते ही अपनी वह स्टील वाली डिब्बी से इंजेक्शन और सिरिंज निकाल कर मेरे पिता जी को देते कि इन्हें उबाल कर लाइए...मां उसी वक्त स्टोव जलाकर फ्राई-पैन में उन को उबालने का प्रबंध करने लगती और वे पिता जी के साथ बातों में मशगूल हो जाते ...और मेरी यह सोच कर जान निकली रहती कि पता नहीं सूईं कितना दर्द करेगी...अस्पताल में तो हम लोग टीके के नाम पर बिदक कर जैसे तैसे मां को बहला-फुसला कर बिना टीके के ही घर लौट आते हैं लेकिन अब तो ये घर पर ही आ गये हैं ...सामान भी उबल रहा है, अब तो बच्चे ख़ैर नहीं। 

टीका लगाने का सामान कितने वक्त तक उबलेगा, इस के लिए कोई ख़ास दिशा-निर्देश नहीं दिए जाते थे ... जहां तक मुझे याद है पानी के उबलते ही सामान को विषाणुमुक्त मान लिया जाता था। लो जी, सामान उबल गया है ... और मां ने फ्राई-पैन को अच्छे से धो कर उस में चाय के लिए पानी चढ़ा दिया है ...शिव लाल जी सिरिंज के आगे स्टील की सूईं लगा कर अपना फ़न का मुज़ाहिरा करने के लालायित हैं और चारपाई पर पड़े पड़े हमारी जान निकल रही है ...ख़ैर, वह मनहूस घड़ी भी आ गई जिस का हमें सब से ज़्यादा खौफ़ हुआ करता था ...लेकिन यह क्या, कूल्हे पर टीका लग भी गया और पता भी नहीं चला। 

शिवलाल जी के सामान समेटने तक चाय तैयार हो चुकी होती ... पिता जी और शिवलाल बाबू चाय-बिस्कुट पर बातें करने लगते और हमारी कब आंख लग जाती कुछ पता नहीं। अच्छा, एक बात और भी यहां लिख दूं कि हमने हमेशा देखा कि पिता जी पूरे सम्मान के साथ उन की फीस उन्हें दिया करते ...मुझे लगता है यह उन के स्वभाव में शामिल था ... पिंगलवाडे से कोई दान भी लेने आया है तो उस से बड़ी इज़्ज़त से पेश आते ...और छठी जमात में हमारे ट्यूशन वाले मास्टर साब को फ़ीस के 25 रूपए भी हर महीने (1974 की बातें हैं) एक छोटे से लिफ़ाफे में डाल कर ही भिजवाते ...ज़ाहिर है हमने उन की इन बातों से भी बहुत कुछ सीखा। अब सोचता हूं तो हैरानी भी होती है कि आज से लगभग 50 साल पहले मास्टर को ट्यूशन फ़ीस भी इतने सलीके से भिजवाना....मास्टर साब को भी अच्छा लगता, वे इन्वेलप को खोले बिना अपने कोट की जेब के हवाले कर देते। 

चलिए यह शिष्टाचार की, ख़ुलूस की बातें तो अपनी जगह पर हैं  लेकिन यह तो गुस्ताख़ी ही हुई कि ऊपर कोरोना वैक्सीन का नाम लिख कर मैं अभी तक उस के आसपास तक नहीं पहुंच पाया हूं, इधर उधर की गप्पें छोड़े जा रहा हूं। लेकिन करें क्या, यह सब भी कब से अपनी इस वेब-डॉयरी में लिखना चाह रहा था, आज मौक़ा मिला है तो कर लेता हूं यह भी काम।  

और बातें जो टीके की याद आती हैं ...सरकारी अस्पताल में टीके वाला कमरा हमें बड़ा डरावना लगता था ...उधर से गुज़रते ही देखते थे सफेद वर्दी पहने हुए उस कमरे में तैनात बड़े बड़े स्टील के डिब्बे में दर्जनों सिरिंजों-सूईंयों को उबालते हुए अपने शिकार का इंतज़ार करते दिख जाते। लेकिन हमारी तो टीके के नाम से जान निकलती थी। मां का हाथ पकड़ कर ही अस्पताल जाते और रास्ते में बार बार जब मां से एक ही बात पूछते रहते - बीजी, टीका तो नहीं लगेगा न....यह सुन सुन कर वह बेचारी कितनी परेशान हो जाती होंगी और हम मां के जवाब से राहत महसूस कर लेते ....आखिर बच्चे के लिए उस की मां दुनिया की सब से बड़ी डाक्टर जो होती है। 

वहां जाकर डाक्टर को दिखाते ... अगर वह टीका नहीं लिखता तो सच में जान में जान आ जाती...उस के कमरे से बाहर निकलने से लेकर घर आने तक सारा रास्ता मन ही मन इतनी ख़ुशी महसूस करते कि ऐसे लगता जैसे चल नहीं रहे, उड़ रहे हैं। और अगर टीका लगवाने का नुस्खा वह थमा देता तो फिर हम पहले तो देखते कि टीका लगा कौन रहा है....अगर ऐसा कोई दिख जाता जिस का बिना दर्द टीका लगाने के लिए अच्छा नाम है, तब तो टीका लगवा लेते ....वरना, मां को बहला-फुसला कर कुछ भी कह कर बिना टीका लगवाए घर वापिस लौट ही आते। 

लोग मुझ से पूछते हैं कि लिखने का क्या फंडा है, मेरा फ़क्त इतना ही कहना है कि कापी-कलम लेकर बैठ जाओ बस, बाकी काम आप का नहीं है ...पता नहीं कहां कहां से बातें उमड़ने लगती हैं ...बरसों से अंदर दबी पड़ीं ...और ख़ुद अपने आप को लिखवा के ही दम लेती हैं...जैसे मुझे अभी ख़्याल आ गया कि हमारे बचपन के दिनों में पैनेसिलिन का टीका बड़ा कारगर समझा जाता था ..जिसे लग जाता था, समझा जाता था वह तो भला-चंगा हो ही जाएगी....शायद एक दिन के अंतराल पर लगता था और उस को लगाने से पहले उस की सेंसेटिव टैस्टिंग की जाती थी बाजू पर - सेंसेटिव लफ़्ज़ हमें मालूम न था, हमें तो इतना पता था कि पहले इस का टेस्ट किया जाएगा क्योंकि अगर वह किसी को रिएक्शन कर जाता था तो वह आंख झपकते ही सीधा स्वर्गसिधार जाता था ...इसलिए उस टीके का बड़ा खौफ़ होता था ..कईं केस ऐसे हमने देखे थे ...26 जनवरी1975 को मेरे 28 साल के मामा को भी  (अभी उन की शादी हुए दो साल ही हुए थे, कुछ महीनों की एक प्यारी सी बेटी थीं प्रीति...) यह टीका ही रिएक्ट कर गया था ...वे मिनटों में ही चल बसे....अंबाला में रहते थे, पाला पड़ रहा था, पौष के दिन, ठंडी लग गई थी, खांसी-बल्गम जम गई, डाक्टर साब आए...यही पैनेसिलिन का टीका लगाते ही सारे कुनबे को रोता बिलखता छोड़ कूच कर गए। उस दिन ननिहाल की तो दुनिया ही उजड़ गई थी।

वक्त का पहिया रुकता थोड़े न है ....क़िस्मत में ऐसा लिखा था कि हम डेंटिस्ट बन गए...टीके के नाम से डरने वाले दिन में आठ-दस टीके मुंह के अंदर लगाने लगे ...लेकिन मेरी मां मेरे इस काम से बड़ी इंप्रेस थीं....वह अकसर मुझे कहतीं कि तेरा काम कितना मुश्किल है, मुंह के अंदर टीका लगाना ...और यह कहते कहते ही वह सिहर जातीं। हम भी प्यार से उन्हें कह देते ...बीजी, हमें इस की आदत हो जाती है, अच्छे से पहले ट्रेनिंग देते हैं, फिर ही टीका पकड़ने देते हैं....। लेकिन फिर भी उन्हें मुंह में टीका लगाने की बात सुनना ही बहुत जोखिम का काम लगता। इसी वजह से मोबाइल आने पर भी उन्होंने हमें ड्यूटी के वक्त कभी भी अस्पताल में फोन नहीं किया - वे अकसर कहतीं कि फोन से ध्यान बंट जाता है, क्या पता उस वक्त आप लोग टीका लगा रहे हों या मरीज़ का कुछ और काम कर रहे हों। क्योंकि मुझे एक बार ऐसा ही झटका लग चुका है आज से 13-14 साल पहले ....

तो हुआ यूं कि 13-14 साल पहले मैं एक दिन किसी मरीज़ के तालू पर सुन्न करने का टीका लगा रहा था, उस की अकल की जाड़ निकालने के लिए...उस युवा की उम्र यही 25 बरस के करीब रही होगी ..स्पोर्टसमैन था...चेहरे की मांसपेशियां सख़्त थीं...अभी मैं टीका लगा ही रहा था कि उसने सिर को हिला दिया...उस पर इस्तेमाल की गई सूईं मेरी उंगली में खुभ गई...मैंने डबल-ग्लवज़ पहने हुए थे ..लेकिन नीडल-प्रिक तो हो ही गई। 

उंगली धो ली ...मिसिज़ को फोन किया ...तब तक वह मरीज़ जा चुका था ... मिसिज़ ने कहा देख लो उस की एचआईव्ही जांच करवा लो। मुझे भी लगा कि एक फार्मेलिटि के तौर पर करवा ही लेते हैं....उसे उस के दफ्तर से बुला लिया....जांच करवाई तो उस का एचआईव्ही टैस्ट पाज़िटिव आया ...उस के बाद मेरी भी जांच हुई ....निगेटिव थी ...मेरी दवाईयां उसी दिन से शुरू हो गईं...कुछ दवाईयां स्थानीय मार्कीट में नहीं थीं, उन्हें ट्रेन से दिल्ली से मंगवाया...रात 12 बजे हम लोग स्टेशन से जा कर वे दवाईयां लेकर आए...दवाईयां खाना जारी रहा। लेकिन मेरा स्टेट्स क्या है, इस का पता 6 सप्ताह बाद ही चलना था। वे 6 हफ्ते मैंने कैसे बिताए मेरे लिए ब्यां करना नामुमकिन है ...घर में बड़ा डिप्रेसिंग सा माहौल हो गया....जान निकली रही ...क्योंकि सूईं तो खुभी थी ...लेकिन विशफुल थिंकिंग यही रही उन दिनों कि वह युवा तो बिल्कुल हट्टा कट्टा था, मैंने दो दो ग्लवज़ पहने थे ...शायद कम वायरल लोड की वजह से बच ही जाऊं...ख़ैर जो भी हुआ ...सब की दुआ लगी या डाक्टर की दवा ....45 दिन के बाद मेरी टेस्ट रिपोर्ट निगेटिव आई --- जान में जान आई ...लेकिन उन दो तीन महीनों में जो दवाईयां लेनी पड़ी उन की वजह से भी और एचआईव्ही की जांच अगल छः महीने तक चलती रही ....ईश्वर का शुक्र है कि सब कुछ सामान्य रहा ....उस दौरान मुझे यह अहसास हुआ कि ये जो हम मेडीकल व्यवसाय के प्रोफेशनल जोखिमों की बात करते हैं, वे कितने खौफ़नाक हैं, कैसे एक सूईं के चुभने से आप की जान ही निकल जाती है जब तक कि आप की सभी रिपोर्ट सामान्य न निकलें ...ज़िंदगी के उन महीनों में मैंने बड़ा डिस्प्रेसिंग महसूस किया ...पहले 45 दिन तो हाल ज़्यादा ही बुरा था...हर वक्त मेरा लेटे रहने का ही मन करता ....यही लगता कि काश, कोई मशीन हो जिस से ये 45 दिन झट से बीत जाएं और मैं अपनी टेस्टिग करवा पाऊं...मेरा बड़ा बेटा जो उन दिनों 12 वीं कक्षा में था, वह भी उदास सा मेरे साथ ही पलंग पर लेटा रहता ....उन दिनों को याद करता हूं तो सच में एक बुरा सपने जैसे महसूस होता है ....मां भी उदास रहतीं और बार बार धाड़स बंधाती ...कुछ नहीं होगा...तुम फ़िक्र मत कर .....और बीवी की भी सोच तो बड़ी सकारात्मक और प्रैक्टीकल है ही ...वे कहतीं कि चिंता मत करो, जो भी होगा, देखा जाएगा।

अब यह लिखते लिखते मेरा मन भर गया है ....इसलिए कोरोना-फोरोना की वैक्सीन के बारे में लिखने की अब गुंजाइश नहीं है ...बाद में देखता हूं....अभी तो कोई मनपसंद गीत सुनना पडे़गा मूड को तरोताज़ा करने के लिए...

इस ठिकाने तक पहुंचने का क़िस्सा बाद में ब्यां करता हूं ...जल्द ही! 


और ज़िंदगी यूं ही आगे चलती रहती है....

मंगलवार, 23 मार्च 2021

गाय माता इस तरह भी अपने बच्चों को पाल रही है...

 


मुझे पुराने पेड़-पौधे बहुत रोमांचित करते हैं ... कहीं भी अगर हम घूम रहे हों और अचानक एक बड़ा सा दरख़्त दिख जाए तो यकीनन उस के पास ज़रूर एक मेले जैसा माहौल भी मिल जाएगा...यह दरख़्तों की बरकत है, इन के नीचे खड़े होते ही, इस की छाया में बैठ कर हमें अपनी तुच्छता का अहसास होने लगता है...और अगर उधर ही पास ही एक-दो गऊएं भी खड़ी हों तो क्या नज़ारा होगा वह ...वाह। बहुत खूब। 

कुछ बरस पहले यहां मुंबई में मैंने देखा कि कुछ चौराहों पर एक या दो गाय बंधी हुई हैं ...साथ में एक महिला या पुरूष फुटपाथ पर बैठा हुआ है...जिस के पास चारा रखा हुआ है ...और भी खाने का कुछ सामान धरा हुआ है। एक दो बार यह मंज़र देखा तो समझ में आ गया ... गऊ माता को खाना खिलाने का पुण्य कमाने का अभिलाषी कोई आदमी या औरत उस दुकानदार के पास आएंगे...उन्हें दस-बीस रूपये जो भी रेट होगा देंगे, चारे की एक दो टहनी उठाएंगे ..और उसे गाय माता को खिला कर, उसे नमस्कार कर अपनी राह पकड़ लेंगे। 

अब मुंबई जैसे महानगरों में लोग गाय माता को खिलाने कहां जाएंगे...कल्पना कीजिए...यहां तो वैसे कभी गाय दिखती ही नहीं ...अगर ये दुकानदार यह सर्विस प्रोवाइड कर रहे हैं तो उस का चार्ज तो देना ही पड़ेगा। अच्छा, एक मज़ेदार बात और भी है ...अकसर ये सर्विस प्रोवाइडर अपने हाथों से कुछ अलग अलग सामग्री के लड्डू भी बना रहे होते हैं..एक तो भूसे के लड्डू होते हैं, वे मैंने बनते देखे हैं...और अगर कोई भगत आदमी कुछ स्पैशल खिलाना चाहता है तो वह इन लड्डूओं के अलग से दाम देकर खिला सकता है...

मुंबई में पैसा कमाना बड़ा मुश्किल है ...मुझे बस यही काम आसान सा दिखा ...दुकानदार की गाय का पेट भी भर गया, दुकानदारी की जेब भी भर गई और घर जा कर उसे दोह भी लिया...

मुंबई के बहुत से इलाकों में मैं इस तरह के दुकानदार देखता हूं ...यह भी आज सुबह की ही तस्वीर है ...एक बहुत बड़े पेड़ के नीचे यह पुण्य कमाने का काम चल रहा था ...आस्था बहुत बड़ी बात है। 

लेकिन यह क्या कुछ महीने पहले मैंने इसे भी एक बैल जैसा कुछ लेकर बाज़ार में घूमते देखा....इस की बॉडी देख कर बड़ा डर लगा उस दिन ...एक तो वाट्सएप पर ऐसे ऐसे वीडियो दिखते हैं कि इन भीमकाय जानवरों से डर तो लगता ही है।

 कुछ तो इन से जुड़ी धार्मिक आस्था होगी ज़रूर जो मुझ अल्पज्ञ की समझ के परे है...खार-बांद्रा जैसे इलाके में देखता हूं एक विशेष किस्म की गाय ...सजी संवरी गाय -- सड़कों पर घुमा कर लोग दान-दक्षिणा का जुगाड़ करते हैं...

मुझे ध्यान यही आया कि गाय माता के पास अपने बच्चों का भरण-पोषण करने के बहुत से तरीके हैं...हैं कि नहीं। बस, बंदा थोड़ा सा मेहनती होना चाहिए। 

गुरुवार, 18 मार्च 2021

कुछ शुरुआती ख़ुशियां बाद में महंगी पड़ती है...

यह जो हम लोगों की ख़ुशी है न कि अब तो किराने का सामान और फल-सब्ज़ी भी एप से ही बुक कर देते हैं...और अगले दिन सुबह आप के दरवाज़े के बाहर उन सब चीज़ों का पैकेट पड़ा होता है ... बहुत बार डिलीवरी चार्जेज भी नहीं और अगर कुछ छोटी मोटी स्कीम स्बस्क्राईब कर लो तो सारा महीना कुछ भी डिलीवरी चार्जेज नहीं लगता ...आप चाहे तो 30 रूपये का सामान मंगवा लीजिए ...चाहे 3000 का । सुबह उठ कर जब हम उन का थैला चैक करते हैं तो उस में केले की अलग से कार्डबोर्ड के डिब्बे में पैकेजिंग देख कर हैरान होते हैं...चीकू की भी ऐसी ही पैकिंग ....हमें यह पता चलता है कि अंडों के बक्सों के आगे भी खाने पीने की सस्ती सस्ती चीज़ों की भी पैकेजिंग की भी दुनिया है ...

अच्छा, एक बात और ....इतनी इतनी बढ़िया एप्स आ गई हैं कि अगर कोई सब्जी या फल की क्वालिटि आप के मन मुताबिक नहीं है तो आप को बस उस की फोटो खींच कर एप को शेयर करनी होती है, उस आइटम के आप के पैसे लौटा दिए जाते हैं...और ये जब पैसो का लेनदेन डिजीटल ही होता है ...

सुनने में ही कितना बढ़िया लगता है ना....जी हां, लगता तो है लेकिन इस के बारे में गहराई से सोचिए कि इस तरह की जो सुविधाएं हमें एकदम निकम्मा और नकारा सा तो नहीं बना रही ....हमारी तो छोड़िए, हम तो चले हुए कारतूस हैं अब..इस से ज़्यादा और कितना निकम्मा हमें कोई बना पाएगा...हमारी तो बहुत सी ज़िंदगी कट गई लेकिन जब मैं आज के युवाओं के बारे में सोचता हूं और उन का इस तरह की एप पर भरोसा देखता हूं तो मुझे बड़ा डर लगता है ...

अच्छा आप एक बात सुनिए....ये सभी एप्स उस जेनरेशन के हाथ में हैं जिनमें से अधिकतर सभी तरह के जंक फूड पर पल रहे हैं...दालों, सब्ज़ियों के उन्हें नाम तक नहीं आते, खाना तो बहुत दूर की बात है ...अगर खाते भी हैं तो वही पीली वाली, हरी वाली, और राजमाह बस, और सब्जी में कोई बस भिंडी खाता है ...यह वह जेनरेशन है जिसे अधिकतर दालों, सब्ज़ियों के नाम तक तो आते नहीं, बाज़ार जा कर तो वही खरीदेगा न जिसे नाम आते हों या इन चीज़ों की क्वालिटि देखने की भी थोड़ी बहुत गुज़ारेलायक समझ हो ...ठीक है, आप कह रहे हैं कि यह इश्यू तो बड़े बड़े डिपार्टमैंटल स्टोर ने सेटल कर दिया है ...ये लोग वहां चले जाएंगे और वहां से खरीद लाएंगे ...लेकिन वही बात है बहुत सी ऐसी रोज़मर्रा की चीज़ें ऐसी होती हैं जिन्हें अरबपति-खरबपति "सेठों की दुकानों" से खरीदने से मुझे सख्त परहेज है ... दो चार रूपये महंगी सस्ती का सवाल नहीं है, लेकिन अगर हम सब इन धन्ना सेठों की बड़ी दुकानों से ही सब कुछ खरीदते रहेंगे तो अपने गांव से पांच दस किलो सब्ज़ी लेकर शहर में बेचने आए इंसान का क्या होगा, इस के बारे में सोचना भी ज़रूरी है ...उस से खरीदारी करना उस के एवं उस के परिवार के वजूद से जुड़ा हुआ है ... बडे़ सेठों के ऐशो-आराम वैसे ही चलते रहेंगे आप उन के कुछ खरीदें या नहीं ....

मैं जब 50 साल पहले की बातें याद करता हूं तो याद आता है कि हम किसी भी दाल सब्ज़ी को खाने से मना नहीं करते थे..कच्ची मूली गाजर भी खाते थे ..ककड़ी भी, खीरा भी ...हां, कोई एक सब्ज़ी या दाल ज़रूर होती होगी जिसे हम पसंद नहीं करते थे...अपनी बात करूं तो दालें तो सभी खा लेता था, कभी भी नुकुर-टुकुर नहीं, लेकिन सब्ज़ियों में करेला मुझे कभी भी पसंद नहीं (मुझे जितना नापसंद, मेरी नानी को उतना ही पसंद था) ....आज तक भी करेला और ग्वार की फली ही ऐसी दो चीज़ें हैं जिन्हें मैं नहीं खाता...और बचपन ही से रोज़ाना अलग अलग तरह की दालें (कभी कभी दो-तीन दालें मिला कर भी) ...और सब्ज़ियां खाते चले आ रहे हैं...लेकिन जब तक हम लोग स्कूल कालेज जाने लगे लोग इस बात पर फ़ख्र महसूस करने लगे कि उन के बेटों को तो दालों के नाम तक नहीं आते ...पीली दाल, हरी दाल...राजमा बस.....इतना ही ...फिर वक़्त ऐसा आया कि इस बात पर फ़ख्र महसूस किया जाने लगा कि हमारे लाडले को तो राजमा पसंद हैं, किसी का राजा बेटा बस पीली दाल ही खाता है ...अरहर की .....और सब्जी भी ऐसे ही एक दो ही या कोई कोई लाडला तो बस आलू ही खाता है ...

कितना लिखें ....लिखते लिखते थक गए हैं ...हमारा खाना-पीना ठीक नहीं है ...एक तो जिस तरह की कुकिंग हम लोग कर रहे हैं उस की अनेकों दिक्कतें हैं, हमारी सेहत के लिए दुश्वारियां ही पैदा करती है यह कुकिंग ...उस पर भी मैंने अपने बहुत से एक्सपेरीमेंट किए हैं अपने ऊपर ही ...फिर कभी साझा करूंगा ...और ऊपर से हमारी दुनिया भर की एप्स पर बढ़ती हुई डिपेंडेंस ...किसी भी चीज़ के बारे में जानने की ज़रूरत ही क्या है, सब कुछ दिख रहा है साइट पर....क्लिक करो और सिरदर्दी खत्म। 

नहीं ऐसा नहीं है ....जब भी हम लोग बाज़ार जाते हैं ...वहां हम बीस रूपये के आलू-प्याज़ ही नहीं खरीदने जाते ...हमें वहां जाकर दुनिया से रू-ब-रू होते हैं ...उन लोगों के रहन-सहन-बातचीत से रू-ब-रू होते हैं जिन के बीच हमें ज़िंदगी काटनी है ...हम हर सिचुएशन में, हर स्तर पर बात करना सीखते हैं....ये बातें लेटे लेटे ऑनलाइन नहीं सीखी जातीं ...टमाटर, नींबू और चीकू की सही क्वालिटी देखने के लिए उसे हाथ से टटोलना ही पडेगी ...ज़्यादा पकी हुई भिंडी और फली का पता एप से नहीं चलेगा ....और भी बहुत सी चीज़ें हैं जिन्हें बाज़ार जाकर ठेले पर खड़े होकर ही सीखा जा सकता है ....क्योंकि यह थ्यूरेटिकल ज्ञान नहीं है ... इतना प्रैक्टीकल है कि अगर गल्ती करेंगे तो उस रात के खाने का ज़ायका ही बदल जाएगा बिल्कुल.... है कि नहीं।

अच्छा एक बात और भी है ...आज कल मां-बाप बहुत ज़्यादा प्रोटैक्टिव भी हो गए हैं... उन्हें लगता है कि वे खरीदारी खुद ही कर लेंगे ...राजा बेटा कहां परेशान होगा...लेकिन यही गलती है ..खरीदारी उन्हें इस तरह से ख़ुद बाज़ार जा कर हम लोग करने नहीं देते, इन सब चीज़ों को अमूमन खाते वो हैं नहीं....जंक फूड का बोलबाला है ... कुकिंग में इन की कोई दिलचस्पी है नहीं ...ऐसे में वही स्टिरियोटाइप पैदा होते रहेंगे सदियों तक -कम से कम इस देश में ...जहां दुनिया भर का बोझ ...घर का सामान लाने का, तैयार करने का, और हंसते हंसते परोसने का सारा जिम्मा घर की गृहिणी का ही होता है ... और फिर सभी के खाने के बाद अपने खाने की सुध लेना और बाकी बचे सामान को पहले ही से ठूंसे पड़े फ्रिज में कैसे भी ठूंस देना ...क्योंकि उसे ही ये सब ख़त्म करना है ...बाकी तो घर में सभी लाट-साब हैं जिनकी तबीयत फ्रिज में रखी चीज़ें खाने से बिगड़ जाती है ...सोचता हूं कैसी व्यवस्था है इस मुल्क में भी ....एक गृहिणी जो 365 दिन बिना किसी छुट्टी के सारा दिन पिसती है ....हर चीज़ का ख्याल रखती है और किसी के पूछे जाने पर हाउस-वाईफ इस तरह से कहती है मानो कोई ज़ुर्म हो हाउस-वाईफ होना ....और जो महिलाएं आफिस के साथ साथ घर का काम भी देखती हैं ...उन की सोचिए....

अब ज़माना आ गया है इन को इन सब बेढि़यों से आज़ाद करने का - ये हम पुरूष लोग ही तोड़ेंगे तो होगा ...हरेक को आज़ादी पसंद है ...इतना कोई क्रांतिकारी काम भी नहीं करना हमें ...बस, हमें खाना बनाना-पकाना और बाज़ार से सामान लाने की जिम्मेदारी थोड़ी शेयर करनी चाहिए ...मैंने देखा है जिन घरों में बच्चे बचपन में (विशेषकर लोंडे) कुछ काम करना धरना तो दूर, पानी का गिलास तक खुद उठा कर नहीं पीते, आगे चल कर जब वे नौकरी-चाकरी के सिलसिले में बाहर जाते हैं तो वे महीने में हज़ारों रूपये खर्च कर भी भूखे ही रहते हैं ....पौष्टिकता तो गई तेल नहीं ...जंक फूड खा-खाकर भी पेट कहां भरता है.....एक भयंकर किस्म का कुपोषण जिसे सैलरी पैकेज के नशे में चूर जेनरेशन समझ नहीं रही ....इस की समझ आती है 35-40 साल के होने के बाद ...

बाज़ार जाएंगे ...कुछ खरीदेंगे अपने हाथ से ...तो कुछ नया भी ज़ूरूर पता चलेगा...मेरी इतनी उम्र हो गई है लेकिन मुझे याद नहीं कि मैं जिन भी शहरों में रहा हूं या जाता हूं वहां पर मैं जिस दिन भी बाज़ार कुछ लेने गया हूं और कुछ नया न देखा हो या सीखा हो ...मैं सात आठ साल लखनऊ में रहा और वहां पर मैंने कईं तरह की ऐसी सब्जियां देखीं जिन के बारे में हम लोगों ने कभी पंजाब-हरियाणा के बारे में सुना भी नहीं था..इन के बारे में मैं पिछले बरसों में ब्लॉग भी लिखता रहा हूं ...और बहुत सी दालों-अनाजों के बारे में पता भी दुकान पर जा कर ही चलता है ...एप पर तो सारी जानकरी काम-चलाऊ ही हो सकती है ...

कटहल की सब्जी तो खाते ही रहे हैं अकसर...

अभी कल ही की बात है ..शाम के वक्त मैं बाज़ार से गुज़र रहा था कि मेरी नज़र इस रेहड़ी पर पड़ी  जिसमें वह कटी हुई कटहल से यह फल जैसा कुछ निकाल रहा था ...देखा तो मैंने पहले भी यह बहुत बार था ...लेकिन कभी खाया नहीं, कभी खरीदा नहीं ...यही सोच कर कि पता नहीं इस कटहल का स्वाद कैसा होगा ...लेकिन कल मैं उस दुकानदार का उत्साह देख कर रुक गया...100 रुपये का आधा किलो खरीदा ... पहली बार चखा इसे कल ...लेकिन मैं इतनी अद्भुत चीज़ पहले कभी नहीं खाई...इतना बढ़िया स्वाद लगा इसका। 

वाह ही कटहल ....काश! तुम्हें इस रूप में पहले कभी चखा होता...

इस पोस्ट को बंद करते करते बस इल्तिजा यही है कि जब तक शरीर में दम है, घुटनों में थोड़ा भी दम-खम है, उन्हें ज़हमत दीजिए, खुद चल कर जाइए, सामान लाइए....बहुत सी बातें पता चलती हैं, कुछ नया सीखते हैं कुछ नया खाने को मिलता है ...और रही गुफ्तगू की बात ...इस सोशल-वोशल मीडिया के चक्कर में हम लोग वैसे ही लोगों से रू-ब-रू मिलने से कन्नी कतराने लगे हैं, हम वाट्सएप पर ही शेर बने घूमते हैं (मेरे जैसे) ....किसी से आमने-सामने बात करते हमें झिझक महसूस होती है...हम लोगों को एवॉयड करते हैं...(जितना काम के सिलसिले में ज़रूरी है उतना ही इंट्रेक्शन करते हैं ...धीरे धीरे लाइफ-स्किल्स भी कमज़ोर पड़ने लगी हैं....बस सॉफ्ट-स्किल्स के वाट्सएप स्टेट्स पढ़ कर थम्स-अप कर देते हैं) ....और अगर अब साग-सब्जी, फल-फ्रूट भी एप के ज़रिए घर के किवाड़ की खूंटी पर ही टंगे मिलेंगे रोज़ाना सुबह तो ऐसे तो हम दुनिया से बिल्कुल कट के ही न रह जाएं....

एक बात और ध्यान में आई बाज़ार जाने के नाम से ..बचपन में हम लोग मां की उंगली पकड़ कर सब्ज़ी लेने बाज़ार जाते थे ...आते वक्त मां के दोनों हाथों में सब्ज़ी से भरे थैले होते थे और हमें उंगली पकड़ने को नहीं मिलती थी ..इसलिए मां को बार बार हमारे ऊपर ध्यान रखना पड़ता था ...और एक मध्यम वर्गीय बजट में मां इतनी खरीदारी करने के बाद भी बाज़ार के आखिर में खड़े गन्ने के रस वाले या कप में मिलने वाली आइसकीम के लिए पैसे भी ज़रूर बचा कर रखती थी क्योंकि वह फरमाईश हमारी पक्की होती थी और मां ने कभी निराश नहीं होने दिया .....खुद कभी हमारे साथ उस आइस-क्रीम या गन्ने के रस का लुत्फ़ उठाया हो मां ने, हमें तो यह भी अच्छे से याद नहीं, हमें ज़िंदगी के उस दौर में यह सब सोचने की फ़िक्र ही कहां थी ....आज फ़िक्र ही फ़िक्र है लेकिन मां गायब है..

शनिवार, 13 मार्च 2021

मुंबई की लोकल ट्रेन में एक सफ़र

1991 से सन 2000 तक मुंबई की लोकल ट्रेनों में खूब सफ़र किया ...ज़्यादातर तफ़रीह के लिए ही इन में घूमने निकले...अधिकतर सफ़र मुंबई सेंट्रल से गिरगांव चौपाटी (चर्नी रोड स्टेशन), या मैरीन ड्राइव और कई बार नरीमन प्वाईंट तक अकसर रात में घूमने निकल जाते थे ... मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर ही रहते थे, बिल्डिंग से नीचे उतरे और लोकल में बैठ गए..पांच सात मिनट का सफ़र और पहुंच गए...वहां टहले, हवा के साथ साथ कभी कभी गिरगांव चौपाटी के सामने मशहूर कुल्फी खाई और एक-आध घंटे में वापिस ट्रेन पकड़ कर लौट आए...ज़रा सी भी बोरियत होती तो ऐसे ही निकल जाते ..और अगर कहीं नहीं जा पाए और बच्चों का मन कहीं जाने को मचल रहा है तो बिल्डिंग से नीचे आ कर बाम्बे सेंट्रल के प्लेटफार्म नं 5 पर 10 मिनट टहल आए...और बच्चे ट्रेनें, उन पर चढ़ने-उतरने वालों को देख कर ही ख़ुश हो जाया करते थे...

रात में उस वक्त लोकल ट्रेन खाली ही होती थीं...ज़रूरी नहीं होता था कि फर्स्ट क्लास में ही जाना है ...अगर गाड़ी प्लेटफार्म पर रुकी है और सामने सैकेंड क्लास का डिब्बा है तो उसी में चढ़ जाते थे ...यह तो था रात का सफ़र। उन दस सालों में अकसर हम लोग इसी तरह की प्लॉनिंग के साथ ही निकलते थे कि उस वक्त लोकल गाड़ीयां में भीड़-भाड़ न हो ... और बहुत बार तो रविवार के दिन ही घूमने निकलते थे ...जूहू बीच, फ्लोरा फाउन्टेन जैसी जगहों के लिए ...उम्र के उस दौर में घूमने का शौक कुछ ज़्यादा ही होता है और घुटनों का दम-खम भी उस शौक से मेल खाता है ..

उस के बाद भी यदा-कदा लोकल ट्रेनों में सफ़र तो चलता ही रहा ...लेकिन कोशिश यही होती की सीट तो मिल ही जाए ...और इंसान की लालसा देखिए अगर ट्रेन में बैठने की जगह है तो भी निगाहें ट्रेन की जाने वाली दिशा की विंडो-सीट पर टिकी रहतीं...ख़ैर, मुझे तो लोकल ट्रेन में ही सफ़र करना अच्छा लगता है ...शायद इस की वजह है कि मैंने इनमें इतना सफ़र किया है लेकिन इस में धक्के नहीं खाने पड़े....कुछ कुछ याद तो आ रहा कि पीक-ऑवर के दौरान शाम को चर्चगेट से मुंबई सेंट्रल या बांद्रा के लिए विरार फास्ट-लोकल से आया तो यह सबक बढ़िया से याद हो गया कि विरार-फॉस्ट लोकल में बांद्रा उतरने वाले को क्यों नहीं चढ़ना है ...बहरहाल, दो चार बार ही भीड़ भाड़ में सफ़र करने का मौका मिला ...और मुंबई वालों के लिए यह रोज़ की बात है ...फर्स्ट क्लास में भी इतनी भीड़ कि सफ़र के दौरान यही टेंशन बनी रही कि क्या बांद्रा में उतर भी पाएंगे ... और अगर उतरने को मिलेगा तो क्या सही सलामत उतर पाएंगे क्योंकि स्टेशन पर उतरने-चढ़ने की कशमकश में जेब-तराशी, चश्मा गिर जाना, चश्मा टूट जाना, छोटी-मोटी चोट लगने जैसा कुछ भी हो सकता है ...

लिखते लिखते एक ख़्याल आ रहा है कि मुंबई वालों की यह स्पिरिट माननी पड़ेगी कि जिसने लटक कर या जैसे भी एक बार लोकल-ट्रेन पकड़ ली, उसे वे जगह देना अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझते हैं ..कैसे भी कुछ भी कर के उसे पैर रखने के लिए जगह दे ही देंगे...मुझे इस शहर का यह जज़्बा बहुत हैरान करता है ...जिस तरह से लोग लोकल के दरवाज़े पर टंगे रहते हैं, कोई धक्का मुक्का नहीं ...बस, तुम चढ़ गए हो न, अब शांति से टिके रहो और अपने स्टेशन का इंतज़ार करो....यह देख कर भी एक सुखद अनुभूति होती है कि हर शहर का अपना एक तेवर होता है ...कईं बार सोचता हूं कि अगर इस तरह से दिल्ली में लोगों को सफ़र करना पड़े तो रोज़ ही हर गाड़ी के नीचे दस-बीस लोग ट्रेनों के नीचे दबे कुचले पड़े होते ...वहां पर धक्का-मुक्की के बिना कुछ होता ही नहीं .., अकसर लाठी वाला ही भैंस लिवा के ले जाता है ..इसलिए सलाम मुंबई..

उस दिन मैं रात 8.50 के करीब दादर पहुंचा ...मुझे कल्याण के लिए कोई फॉस्ट लोकल पकड़नी थी ...कल्याण फॉस्ट तो मिल जाती लेकिन शायद उस में बैठने की जगह न मिलती और वैसे भी ठाणे के बाद वह हर स्टेशन पर रुकती है, इसलिए सोचा कि थोड़ा इंतज़ार करता हूं ...कोई बाहर गांव वाली ट्रेन आ जाएगी ...वक्त थोड़ा ज़्यादा लगता है तो कोई बात नहीं, लेकिन उसी में कल्याण तक चले जाऊंगा ...पर पता चला कि बाहर गांव जाने वाली ट्रेन तो अभी वी.टी स्टेशन से ही नहीं चली ...वैसे भी मैं उस में ठाणे तक ही जा सकता था क्योंकि उस के बाद उसे पनवेल की तरफ़ से आगे जाना था ...लेकिन यह भी मंजूर था अगर वह तब मिल जाती ...

तभी एक इंडीकेटर से खोपोली फॉस्ट लोकल की सूचना मिली...खोपोली वी.टी स्टेशन से लगभग ढाई घंंटे की दूरी पर है ...वीटी से क्ल्याण एक घंटा और उस के आगे खोपोली डेढ़ घंटा ...जितनी लंबी की दूरी होगी, ट्रेन में उतनी ही ज़्यादा गर्दी रहेगी (मुंबईया भाषा में भीड़ का पर्यायवाची है गर्दी )....बंबई में रहने के दौरान इस बात की चिंता मुझे अकसर रहती है कि यहां से बाहर जाने तक अपनी हिंदी सही-सलामत रहनी चाहिए ...बड़ी मुश्किल से इसे लखनऊ में सात साल बिताने के बाद कहीं जा कर थोड़ा ठीक-ठाक गुज़ारे लायक किया है ...

अच्छा, तो उस दिन मेैं दादर से रात 9.01 की खोपोली फास्ट पर चढ़ तो गया लेकिन बरसों बाद ऐसी भीड़ में सफ़र कर रहा था ...कु्र्ला से और भीड़ चढ़ी और ठाणे से भी ... जिसे कहते हैं कि गाड़ी में पैर रखने की जगह नहीं, इस का अनुभव कभी करना हो तो आप भी मेरी तरह यह एडवेंचर कर लीजिए ..सब कुछ समझ में आ जाएगा..। अभी ट्रेन शीव स्टेशन से गुज़र रही थी तो स्लो-ट्रेक पर डोंबिवली एसी लोकल दिखी ...मैंने सोचा कि चाहे वह स्लो-ट्रेन है, हर स्टेशन पर रुकेगी ....लेकिन कुर्ला या घाटकोपर उतर कर डोंबिवली तक उसी में चला जाता हूं ..लेकिन दो चार दिन से घुटने में उठे अचानक दर्द की वजह से एक और एडवेंचर न करने में ही समझदारी समझी...सफ़र के दौरान मुझे मेरे फोन और बटुए की सलामती की फ़िक्र लगी रही ... बच्चे तो समझदार होते हैं...बेटे ने आज से 8-10 साल पहले मेरे साथ एक बार बेस्ट की बस में सफर किया था...उस का 40 हज़ार का नया फोन गायब हो गया सफ़र के दौरान ...उस दिन के बाद वह बस ही में नहीं बैठा कभी और लोकल ट्रेन में भी शायद दो चार बार ही कहीं मजबूरी में गया होगा...वह भी मेरे आग्रह करने पर। 

आप जब एक-आध घंटे के लिए इतनी भीड़ में किसी फॉस्ट-लोकल में सफ़र कर रहे होते हैं तो आप को अलग ही अनुभव होता है ....भय (चोट वोट लग जाने का, खीसा कट जाने का, कोरोना की चपेट में आ जाने का), रोमांच ( वाह! क्या फर्राटेदार हवा के झोंके), अचंभा (लोग कितनी मजबूरी में यह सब रोज़ झेल पाते होंगे) आदि -इत्यादि ....अकसर जिस स्ट्रेटजिक-प्लॉनिंग के बारे में आप लोग ज़ूम मीटिंग के दौरान पढ़ते-सुनते हैं ...उस डिब्बे में हो रही स्ट्रेटजिक-प्लॉनिंग के बारे में वे ज़ूम मीटिंग वाले पाठ आप को एकदम नीरस और बेकार लगने लगेंगे...क्योंकि ट्रेन के डिब्बे में चढ़ चुके या लटक चुके शख्स के लिए सवाल जिंदा रहने का है, सही सलामत परिवार तक पहुंचने का है ...कुछ लोग उस का बेसब्री से इंतज़ार किए जा रहे हैं....जो बाहर लटक रहा है उस की कोशिश यह रहती है कि कहीं अच्छे से पैर तो जम जाए ..और जो खडे़ हुए हैं ...वे भी सब त्रस्त हैं ....कोई सोच रहा है पैर तो ठीक से रख पाऊं फर्श पर, किसी के बैग ने उस के साथ साथ औरों का जीना दूभर किया हुआ है ...(मैंने तो अपना शोल्डर-बैग अपने पैरों के नीचे रख दिया था...और एक दीवार के साथ खड़े होने की जगह मिल गई थी) ...और जो सही सलामत खड़ा हुआ है वह बैठे हुए हर इंसान के हाव-भाव एक ही नज़र से ताड़ कर यह जान लेने को बेताब है कि क्या कोई उतरने वाला भी है इन में या ये सब भी दूर के राही हैं....

अच्छा, एक बार जो इस तरह की ट्रेन में घुस गया उसे भी चैन नहीं ....हो भी तो कैसे। कुछ तो मेरे जैसे लोग इसी उधेड़-बुन में रहते हैं कि क्या अपने स्टेशन पर उतर भी पाएंगे इतनी भीड़ में ...लेकिन जैसे बंबई की लोकल ट्रेन के बारे में लोग मज़ाक करते हैं ...कि इसमें चढ़ने या उतरने के लिए आप को कुछ नहीं करना होता ...यह काम भीड़ के धक्का-मुक्का अपने आप कर देती है...मेरे पास ही एक 70-75 साल के बुज़ुर्ग थे ...वे कुर्ला से चढ़े थे और उन्हें बदलापुर जाना था ....उन्हें यही चिंता सताए जा रही थी कि ठाणे या डोंबिवली उतरने वालों के धक्कों से वे अगर नीचे उतर गए तो क्या वापिस चढ़ भी पाएंगे ... वे बार यह बात दोहराए जा रहे थे ...मैं भी कोई लोकल ट्रेनों का खिलाड़ी नहीं हूं (इन के कानून कायदों से नावाकिफ़ ही हूं ...पिछले सप्ताह के 1200 रूपये की वॉटर-बाटल जो एक दिन पहले ही ली थी ...कल्याण से चढ़ते ही ऊपर ट्रेन के रैक पर रख दी ..और दादर उतरते वक्त भूल गया...पांच मिनट बाद ख़्याल आया कि हाथ कुछ खाली खाली से लग रहे हैं....खैर, तब तक तो चिड़िया खेत चुग ही चुकी थी....) ...मैंने भी उन्हें कहा कि आप नीचे उतरिए ही नहीं ...(जैसे यह उन के अपने हाथ में हो। अगर पीछे से धक्का आएगा उतरने वाले हुजूम का तो उस वक्त अपने फ़ैसले नहीं चला करते ...अपने फ़ैसले अपने दफ़्तरो में आम आदमी के सामने ही चलते हैं) ....लेकिन उन्हें इस बात की इतनी चिंता थी कि उन की यह बात सुन सुन कर एक मुंबई वाले को कंटाला आ गया है (वह ऊब गया) वह जिस दीवार से सटा हुआ था, वहां से हट गया और कहने लगा, ...चाचा, आप इधर दीवार के साथ आ जाइए, पहले आप की समस्या का समाधान तो करें। और वह बुज़ुर्ग खुश हो गए...क्या कहते हैं उन की जान में जान आई। 

अब मुझे वह कहने लगे कि कल्याण उतरना है तो बैग को कंधे पर अच्छे से डाल लो ...मैंने उनके कहने पर पैरों में रखे बैग को उठा लिया और एक कंधे पर डाल लिया ...लेकिन उन के फिर से कहने पर कि अच्छे से लटका लो, तभी आराम से उतर पाओगे ...मैंने उन की बात मान ली ... वैसे भी मैंने पैरों के बीच रखे हुए बैग को तो उठाना ही था, क्योंकि डोंबिवली स्टेशन पर जिस तरह से भीड़ उस डिब्बे से निकली मुझे लगा कहीं मेरा बैग भी उन के पैरों की ठोकर से नीचे न पहुंच जाए...खैर, अब अगला मुद्दा था कि कल्याण स्टेशन आयेगा किस तरफ़ ...दो तीन लोगों से पूछा ...सब ने कहा कि कभी इधर, कभी उधर ....एक ने सही से कहा कि आज तक कोई यह नहीं बता पाया कि किस तरफ़ आएगा ...यह तभी पता चलता है ...मैं उस दिन एक और हक़ीक़त से रू-ब-रू हुआ ....और फिर मैंने उसे कल्याण स्टेशन के प्लेटफार्मो की जानकारी से उसे को-रिलेट भी किया ...खैर, कल्याण स्टेशन आने वाला था और जैसे ही साइड का पता चला एक शोर सा मचा....खुशकिस्मती से यह तरफ़ ही था जिस तरफ़ के दरवाज़े की तरफ़ मैं खड़ा था...मैंने उन बुज़ुर्ग को अलविदा कहा और नीचे उतर गया ....रात के 9.51 बजे थे ....पचास मिनट का यह सफ़रनामा आप तक पहुंचा दिया ...आप तक पहुंचाने से भी कहीं ज़्यादा मुझे इसे अपनी डॉयरी में दर्ज करना था ....कुछ सबक़ होते हैं जो लेने ज़रूरी होते हैं ....इसलिए। कहते हैं कि गलतियां करना तो आदमी का स्वभाव है ...लेकिन वही वही गलतियां दोहरानी मूर्खता होती है .....किसी भी शख्स का आखिर वजूद है ही क्या, वह तो फ़क्त अपने अनुभवों का एक जीता-जागता पुलिंदा है ... इसलिए हर रोज़ कुछ गलती करता है, कुछ सबक सीखता है ...बस, यह सिलसिला मिट्टी में मिल जाने तक चलता रहता है ...

जितना मैं बोल चुका हूं ....अगर लखनऊ में होता तो कोई न कोई मुझे टोक देता ...यार, इतनी ज़्यादा बक...... मत कर, अब बस भी कर। मुझे भी वह लफ़्ज बोलने-सुनने में बड़ा मज़ा आता है, लेकिन वह लिखने में झिझक रहा हूं....समझने वालों को इशारा ही काफ़ी होता है....जैसे एक इशारा यह भी है कि पहले ज़माने में राजा लोग भेष बदल कर जनता-जनार्दन के बीच जाते थे ....उन की मुश्किलें उन्हें पता चलती थीं, उन के मिज़ाज की जानकारी हासिल करते थे फर्स्ट हैंड एकदम ....तभी तो वे आदर्श राजा कहलाए जाते थे ...सीधी सीधी बात है आम नागरिक के बीच में गए बगैर आप उन के डर, खुशी, उमंग में कैसे जान पाएंगे....उन में शामिल होना तो बहुत दूर की बात हुई। 

मुंबई छत्रपति शिवाजी टर्मिनस - सितंबर 2020 का एक दिन 

अभी इस पोस्ट को बंद करते करते ख्याल आ रहा है कि लॉक-डाउन के दौरान मैंने बहुत बार लोकल-गाड़ियों में तब भी सफर किया है जब उन में मैं अकेला ही हुआ करता था ...और अब ...उफ....आगे से रात के उस वक्त में दादर से खोपोली फास्ट लोकल लेने की गल्ती नहीं दोहराऊंगा ...देखते हैं अपनी बात पर कितना टिका रह पाता हूं!