गुरुवार, 14 जनवरी 2016

मधुबन खुशबू देता है ...

बड़े शहरों में जब मैंने पहली बार देखा कि वहां पर मेन रास्तों पर लगी ऊंची ऊंची स्ट्रीट लाइटों की साफ़ सफ़ाई या मुरम्मत के लिए एक ट्रक के ऊपर बड़ी सी सीड़ी लगाई जाती है, मुझे हैरानगी हुई थी...अब तो लखनऊ की मुख्य सड़कों पर भी यह सब दिखता रहता है ..बंबई में अकसर देखा करता कि सड़क किनारे या बीच में डिवाईडर पर लगे पेड़ों की छंटाई भी इस तरह से ही की जाती थी...वहां तो यह सब नियमित चलता ही है क्योंकि डबल-डेकर बसों की मूवमेंट के लिए ऐसा नियमित करना ही पड़ता है...

कटाई-छंटाई तो देख ली, समझ में आ गया लेकिन मैंने कभी इस के बारे में ज़्यादा नहीं सोचा कि इन को नियमित कौन पानी देता होगा!

इस के बारे में मेरी यही बचकानी सोच हमेशा से रही कि हो जाते होंगे, एक बार पौधे रोप दिए जाएं, जानवरों से बचाने के लिए ट्री-गार्ड्स् लगा दिए जाएं तो पौधे अपने आप पल्लवित-पुष्पित हो ही जाते होंगे... बिल्कुल होंगे वाली ही बात थी.. मैं यही सोचा करता था कि जब पानी बरसता है तभी इन की भी प्यास बुझ जाती होगी और ये धुल भी जाते होंगे ...उन दिनों पानी से धुल कर इन के चमकते-दमकते पत्ते मन को बहुत भाते हैं।

अकसर हम देखते हैं कि शहर के कुछ मेन चौराहे या तिराहे आदि होते हैं उन्हें किसी न किसी सरकारी या गैर-सरकारी संगठन ने गोद लिया होता है ... वे वहां पर अपने विज्ञापन लगा देते हैं...और उस जगह पर लगे सभी पेड़-पौधों और बेल-बूटियों का रख-रखाव का पूरा जिम्मा उन पर ही होता है ... बढ़िया सी लाल-हरी रोशनी भी वहां पर लगी होती है...it's fine ... Win-Win situation for both for the local civil authorities and the advertisers!

यह जो रास्तों पर पेड़ लगे होते हैं ..जिन पर किसी बैंक या किसी संस्था आदि के नाम की पट्टी लगी होती है, इन के बारे में बस इतना ही अनुमान जानता हूं कि वह संस्था इन जगहों पर विज्ञापन लगाने के लिए कुछ सरकारी शुल्क तो देती होगी ... क्या पता बस पेड़ ही लगा देती है...मुझे इस के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है...लेकिन कुछ तो शासकीय नियंत्रण होगा अवश्य।




कल शाम के समय मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी को जाने वाली रोड़ पर जा रहा था... बड़ी व्यस्त रोड है यह (कौन सी नहीं है!!) ...अचानक मेरा ध्यान गया इस लारी पर रखी इन बड़ी बड़ी टैंकियों पर .. वैसे तो मैं जल्दी में था, मुझे साईंस फिक्शन की एक वार्ता के लिए जाना था, लेकिन मैं वहां रुक गया... तभी मैंने देखा कि एक आदमी पाइप से सड़क किनारे लगे पौधों को बारी बारी से पानी दे रहा था ...


देख कर बहुत अच्छा लगा .. मैं यह मंज़र पहली बार देख रहा था ... इसलिए आप से शेयर करने का मन हुआ और ये तस्वीरें ले लीं....मुझे यही लगा कि देना बैंक के विज्ञापन इन ट्री-गार्ड्स पर लगे हैं तो यह सब रख-रखाव भी देना बैंक के जिम्मे ही होगा...

बस वह लारी ही नहीं चल रही थी, उस के साथ पाईप से हर पौधे को सींचने वाले वर्कर के साथ साथ तीन लोग और चल रहे थे ...एक तो साईकिल पर चलने वाले उन का कोई सुपरवाईज़र टाइप का बंदा था, दूसरा लाल झँड़ी लिए हुए था, पीछे से आने वाले ट्रैफिक को सावधान करने के लिए और एक तीसरा बंदा जो ड्राइवर से आवाज़ लगा कर संपर्क करता था कि अभी ठहरो और अभी आगे चलो...


अच्छा लगा यह देख कर कि कम से कम हम लोग बंदों की नहीं भी तो पेड़ों की तो परवाह करते हैं अभी भी .. बार बार कहा जाता है जितना पेड़ लगाना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी उन की देखभाल भी करना है.. लालफीताशाही के चक्कर में बहुत कुछ हो ही रहा है फाइलों में और होता भी रहेगा, लेकिन जो लोग निष्काम भाव से दिल से ये काम कर रहे हैं, उन को नमन करता हूं।

अभी मैं इस पोस्ट में ये फोटो लगाने के लिए इन्हें एडिट कर रहा था तो मेरा ध्यान गया कि यह काम सरकारी विभाग नहीं कर रहा, इस कोई गैर-सरकारी संस्था कर रही है... इस का नाम और फोन नंबर आप देख सकते हैं, अगर इन से संपर्क करना चाहें तो कर सकते हैं।


पेड़ों की बातें करना ...उन के बीचों-बीच रहना किसे अच्छा नहीं लगता, मुझे कुछ ज़्यादा ही पसंद है, लेकिन मैं इन के लिए बस कलम चलाने के अलावा कुछ करता नहीं हूं...मुझे बस इन भीमकाय छायादार पेड़ों के नीचे खड़े होकर फोटो खिंचवाना बहुत अच्छा लगता है .. इससे मुझे अपनी औकात और तुच्छता का अहसास रहता है!  लोग इन पेड़ों के प्यार में बहुत कुछ कर रहे हैं जैसे मैंने कुछ अरसा पहले फेसबुक पर भी इस वीडियो को शेयर किया था...


ये तो हो गये बड़े बड़े काम ...लेकिन आस पास अकसर हम देखते हैं कि लोगों को प्रकृति से बहुत प्रेम है...अपने अड़ोसी-पड़ोसियों के बाग बगीचों के बारे में तो लिखता ही रहता हूं ...अच्छे से लैंड-स्केपिंग करवाते हैं, फिर उन में छोटे छोटे फव्वारे और मन-लुभावन हरी-लाल लाइटें लगवाते हैं....शाम के वक्त टहलते हुए यह सब देख कर मन प्रफुल्लित होता है।


मुझे अभी ध्यान आया अपने सामने वाले घर में रहने वाले रिटायर्ड बुज़ुर्ग दंपति का ...ध्यान आया तो मैंने अभी यह तस्वीर ली ... ये दोनों विशेषकर महिला एक एक पौधे को रोज़ाना निहारती हैं, उन की देखभाल करती हैं जैसे उन से बतिया रही हों, मुझे देख कर बहुत अच्छा लगता है......आजकल ये लोग बाहर गये हुए हैं लेकिन इन के यहां काम करने वाली बाई इन पौधों को नियमित पानी देती दिख जाती है .. कहने का मतलब यही कि सब लोग अपनी अपनी साधना में जुटे हुए तो हैं..

हमेशा की तरह मुझे यह सुंदर गीत का ध्यान आ गया, इतना बढ़िया गीत ...बार बार याद आता है ...यसुदास की आवाज़ वजह से तो यह बेहद लोकप्रिय है है,  इस फिल्म की स्टोरी, इन महान कलाकारों ने, इस के संगीत ने....सब ने मिल जुल कर इस गीत को अमर बना दिया है ....अगर इसे सुनते हुए हम आंखें बंद कर लें तो यकीनन मेडीटेशन हो जाए ....मैं इस तरह के फिल्मी गीतों को भी एक भक्ति गीत या भजन से कहीं ज़्यादा ऊपर मानता हूं ... जीवन का उद्देश्य बता दिया हो जैसे गीतकार इंदिवर ने हम सब को ..इस तरह के गीत भी तो वही सभी बातें करते हैं जो हम सत्संग में सुनते हैं...सुनिएगा?....वैसे इस फिल्म साजन बिना सुहागिन की स्टोरी भी बड़ी टचिंग हैं...उद्वेलित करती है...उम्मीद है आपने ज़रूर देखी होगी! नहीं तो अभी देख लीजिए....a masterpiece indeed!