गुरुवार, 21 नवंबर 2013

वो कचरेवाली....

मैं उसे बहुत दिन तक देखता रहा.. जब भी देखा उसे अपने काम में तल्लीन ही देखा...सुबह दोपहर शाम हर समय बस हर समय कचरे को बीनते ही देखा।

आज कल जगह जगह पर म्यूनिसिपैलिटि के बड़े बड़े से कूड़ेदान पड़े रहते हैं ना, जिसे हर रोज़ एक गाड़ी उठा कर ले जाती है और उसी जगह पर एक नया कूड़ादान रख जाती है।

बस वह उसी कूड़ेदान के पास ही सारा दिन कूड़ा बीनते दिखती थी। साथ में कभी कभी उस की लगभग एक साल की छोटी बच्ची भी दिखती थी... मां कूड़े में हाथ मार रही है और बच्ची साथ में कूड़ेदान से सटी खड़ी है, एक साल की अबोध बच्ची ...यह सब देख कर मन बेहद दुःखी होता था।

मैं उसे वह सब करते देखा करता था जो कूड़े प्रबंधन के बारे में किताबों में लिखा गया है, प्लास्टिक को अलग कर रही होती, पन्नियों को अलग, कांच को अलग.. फिर यह सब बेचती होगी।

उस की बच्ची उस कूड़ेदान के पास ही एक चटाई पर अकसर सोई दिखती, साथ में एक कुत्ता ...एक दो बार मैंने उसे एक टूटे खिलौने से खेलते देखा ..शायद उस की मां ने उस कचरे से ही ढूंढ निकाला होगा।

उस औरत को ---उम्र उस की कुछ ज़्यादा न होगी...शायद १८-२० की ही रही होगी लेकिन अकसर इस तरह की महिलाओं को समाज जल्द ही उन की उम्र से ज़्यादा परिपक्व कर देता है.... बदकिस्मती....

सुबह ११-१२ बजे के करीब मैं देखता कि उस का पति चटाई पर सोया रहता ... यह भी मेरा एक पूर्वाग्रह ही हो सकता है कि मुझे लगता कि इस ने नशा किया होगा, दारू पी होगी........लेकिन यह निष्कर्ष भी अपने आप में कितना खतरनाक है, मैंने कभी उस बंदे का हाल नहीं पूछा, कोई बात की नहीं, कोई मदद का हाथ नहीं बढ़ाया लेकिन उस के बारे में एक राय तैयार कर ली। अजीब सा लगता था जब इस तरह के विचार आते थे। क्या पता वह बीमार हो या कोई और परेशानी हो...वैसे भी हम जैसों को बहुत ही गरीब किस्म के लोग पागल ही क्यों लगते हैं, यह मैं समझ नहीं पाता हूं.......गरीबी, लाचारी, पैसे की कमी, भूख........बीमार कर ही देती है।

मैंने यह भी देखा कि पास की बिल्डिंगों से जो भी कूड़ा फैंकने आता उस महिला से ज़रूर बतियाता............उन के हाव भाव से ही वह पुरानी कहावत याद आ जाती ....गरीब की जोरू जने खने की भाभी। कुछ निठल्ले दो चार लोगों को बिना वजह उस की बच्ची के साथ खेलते भी देखा। उन का उस की बच्ची की खेल में ध्यान कम और उस महिला की तरफ़ ज़्यादा होता। आगे क्या कहूं........साथ में पड़ी चटाई पर उस का आदमी सोया रहता।

आते जाते जितनी तन्मयता से मेहनत मैंने उस औरत को करते देखा उतना मैंने किसी सरकारी कर्मचारी को नहीं देखा, मैं सोच रहा था क्या आरक्षण के सही पात्र ऐसे लोग नहीं हैं ...इतनी मेहनत, इतनी संघर्ष, इतनी बदहाली ..इतना शोषण...कईं प्रश्न उधर से गुजरते ही मेरे मन में कौंध जाया करते थे।

सरकारी सफाई कर्मीयों को तो कचरे बीनने के लिए तरह तरह के सुरक्षा उपकरण मिलते हैं, बूट, दस्ताने आदि ...लेकिन वह सब कुछ नंगे हाथों से ही कर रही होती थी, बेहद दुःख होता था............ छोटी उम्र, पति की सेहत ठीक नहीं लगती थी और ऊपर से बिल्कुल अबोध बच्ची ... मैं अकसर सोच कर डर जाता कि अगर यह महिला बीमार हो गई तो उस की बच्ची का क्या।

हां, एक बात तो मैं बताना भूल ही गया.... उस की बच्ची बड़ी प्यारी थी, गोल मटोल सी........मैंने उसे कभी रोते नहीं देखा, चुपचाप चटाई पर खेलते या सोते ही देखा या फिर मैं के साथ कचरेदान के साथ खड़े पाया ... दो एक बार मां उस को चटाई पर बैठा कर स्तनपान करवाती भी दिखी।

एक बार मैं शाम को छः सात बजे के करीब जब उधर से गुजरा तो मैंने देखा कि वह एक ट्रांजिस्टर पर रेडियो का कोई प्रोग्राम सुन रही है। अच्छा लगा।

सरकार की इतनी सामाजिक सुरक्षा स्कीमें हैं, अन्य कईं प्रकार के रोज़गार हैं, लेकिन फिर भी बहुत से लोग अभी भी अमानवीय ढंग से जीवनयापन कर रहे हैं............लिखते लिखते ध्यान आया कि कुछ दिन पहले एक मित्र ने किसी महिला की फेसबुक पर एक तस्वीर लगाई ...बेचारी फटेहाल सी लग रही थी, उस की पीठ थी कैमरे की तरफ़.... और वह गंदे नाले जैसी किसी जगह  से अपने हाथों में चुल्लु भर पानी भर कर पी रही थी। उसी फोटो के नीचे एक कमैंट था ...कोई पगली होगी।

नहीं, ऐसा नहीं होता ...हम ओपिनियन बनाने के मामले में हमेशा बहुत आतुर रहते हैं, गरीबी और पागलपन पर्यायवाची शब्द नहीं हैं ना।

बहुत दिनों तक मेरा रास्ता उधर से हो कर गुज़रता था, मुझे दो बातें सब से ज्यादा कचोटती रहीं ....जितने जोखिम भरी परिस्थितियों में वह काम कर रही है, ऐसे में वह क्या सेहतमंद रह पाएगी और दूसरी बात यह कि उस नन्हीं जान की परवरिश का क्या, कहीं पंद्रह वर्ष बाद वह तो इस रोल को न निभाती मिलेगी...