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बुधवार, 11 नवंबर 2009

जानवर आदमी से ज़्यादा वफ़ादार है !!

इस देश में जब कभी कोई गली का कुत्ता रोता है तो आसपास के घरों वाले लोग कांप जाते हैं ----क्योंकि यहां एक मान्यता सी बन चुकी है कि जब कुत्ता को भविष्य में कोई अनिष्ट होने का अंदेशा होता है तो ही वह रोता है। इसलिये लोग घर से बाहर निकल कर उसे दूर भगा कर अपनी आफ़त को दूसरे घरों की ओर ट्रांसफर कर के इत्मीनान कर लेते हैं। अब इस में कोई सच्चाई है कि नहीं यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन इतनी बात तय है कि अमेरिका में इस तरह के कुत्ते हैं जो लोगों की जान बचाने का काम कर रहे हैं।

अमेरिका में ऐसे ऐसे कुत्ते हैं जिन्हें बॉयो-डिटैक्शन डॉग्स कहते हैं और जो अपने मालिकों की सेहत पर एक सच्चे मित्र की तरह नज़र ऱखे रहते हैं। अगर इन का स्वामी मधुमेह के रोग से पीड़ित है और अगर उसे जब भी हाइपोग्लाईसीमिक एपीसोड ( hypoglycaemic episode) होने लगता है तो ये अजीब अजीब सी हरकत करने लग जाते हैं ---पूरी रिपोर्ट आप यहां पढ़-देख सकते हैं। अपने पालतू की इस तरह की हरकतें एक खतरे की घंटी जैसा काम करती हैं और मालिक अपनी गिरते शूगर स्तर को लाइन पर लाने के लिये तुरंत उचित उपाय कर लेता है।( हाइपोग्लाईसीमिक ऐपीसोड में क्या होता है कि किसी मधुमेह के रोगी की ब्लड-शूगर काफ़ी नीचे गिर जाने से उसे चक्कर जैसा आने लगता है ----और अगर तुरंत कुछ खा-पी न लिया जाये तो वह गिर भी सकता है !)
इसी तरह से ही अपने स्वामी में कैंसर की शिनाख्त करने में भी कुछ कुत्ते माहिर होते हैं। है कि नहीं हैरतअंगेज़ ? ऐसे ही तो नहीं इस जानवर को आदमी की सच्चा दोस्त कहा जाता !!
मेरा नाम जोकर के उस गाने का ध्यान आ रहा है ----जानवर आदमी से ज़्यादा वफ़ादार --- क्योंकि आदमी जिस थाली में खाता है उसी में छेक करने से रती भर भी गुरेज़ नहीं करता।

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

मोटापा से होता है मधुमेह का रिस्क 90 गुणा

आज सुबह मैं CNN की साईट पर डायबिटीज़ से संबंधित लेख पढ़ रहा था। कुछ बातें यहां दोहराने योग्य हैं ---हम में से बहुत से लोग पहले ही से इन्हें जानते हैं लेकिन फिर भी पुनरावृत्ति ज़रूरी है।

यह तो हम सब जानते ही हैं कि भारत में मधुमेह की समस्या इतनी विकराल हो गई है और दिन प्रतिदिन यह ऐसी विकट हो रही है कि इंडिया पर सारे विश्व में डायबिटीज़ की राजधानी होने का ठप्पा लगाया जा रहा है।

विकसित देशों में भी यह बहुत बड़ी समस्या है। अमेरिका में ही 240 लाख लोगों को डायबिटीज़ है, और 57 लाख लोगों की अवस्था प्री-डायबिटीज़ वाली है। अब यह प्री-डायबिटीज़ का क्या चक्कर है ? जब हम लोग खाली पेट ब्लड-शुगर का टैस्ट करवाते हैं तो 99mg% तक तो नार्मल है, 100-125 mg% को प्री-डायबिटिक कहा जाता है जिन में अभी बीमारी तो नहीं है लेकिन उन्हें अपनी जीवनशैली एवं खानपान में पूरी एहतियात की ज़रूरत है और जिन लोगों में फास्टिंग ब्लड-शुगर की मात्रा 126 एवं उस से ऊपर आती है उन को डायबिटिक लेबल किया जाता है।

दो बातें टाइप वन एंड टू डायबिटीज़ के बारे में करते हैं --- अधिकांश टाइप 1 डायबिटीज़ के केसों का अठराह वर्ष ( under 18) से कम उम्र में पता चल जाता है। इसे टाइप 1 इसलिये कहा जाता है क्योंकि यह एक ऑटोइम्यून डिसीज़ है जिस में पैनक्रिया ग्रंथी में मौजूद सैल( कोशिकायें) जो इंसुलिन बनाते हैं नष्ट हो जाते हैं जिस की वजह से इंसुलिन नहीं बन पाती और मधुमेह की बीमारी हो जाती है।

Type I Diabetes cases are mostly detected in under 18 years of age though it can strike at any age. It is an autoimmune disease in which the insulin-producing cells of the pancrease get destroryed which lead to diabetes.

और जहां तक टाइप 2 डायबिटीज़ का सवाल है यह पहले तो बड़ी उ्म्र के लोगों को ही अपना शिकार बनाया करती थी लेकिन अब मोटापा इतना आम सी बात होने के कारण यह बीमारी छोटी उम्र में भी ---यहां तक कि बच्चों को भी ----धर-दबोचने लगी है। टाइप2 डायबिटीज़ में यह होता है कि मरीज के शरीर में इंसुलिन के प्रति इन-सैंसिटिविटी उत्पन्न हो जाती है जिस की वजह से शरीर में ग्लुकोज़ की मात्रा बढ़ी रहती है।

अकसर लोगों में यह धारणा है कि जिस किसी भी परिवार में मधुमेह है बस फिर तो यह अगली पीड़ियों में भी आगे ही चलता है। लेकिन ऐसा नहीं है ---- CNN जैसी विश्वसनीय साइट पर यह जानकारी उपलब्ध है कि रिस्क तो बढ़ता है लेकिन यह धारणा ठीक नहीं है। जिस परिवार में टाइप 1 डायबिटीज़ है, उस में आगे बच्चों को यह बीमारी होने का रिस्क पांच प्रतिशत ज़्यादा होता है और टाइप 2 डायबिटीज़ में यह रिस्क तीस प्रतिशत होता है. इसलिये अगर परिवार में डायबिटीज़ का कोई मरीज़ है तो खाने पीने में एवं शारीरिक परिश्रम करने में तो और भी नियमितता की ज़रूरत है ताकि इस 30% को बस एक आंकड़ा ही बने रहने दिया जाए।

ऐसा भी नहीं कि स्लिम-ट्रिम लोग डायबिटीज़ के शिकार नहीं होते, दुनिया भर के बीस प्रतिशत डायबिटीज़ के रोगी दुबले पतले ही हैं।

हमारे पेट का मोटापा ( abdominal obesity) डायबिटीज़ के लिये सब से खतरनाक है-- क्योंकि इस मोटापे में हमारे शरीर के अंदरूनी अंगों के आसपास जो फैट जमा हो जाता है बस वही हमें ले डूबता है ----लेकिन हमारे देश में तो अकसर जब तक पेट बाहर निकल कर लटकने न जाये तब तक तो उसे खाता-पीता मानते ही नहीं हैं। मोटापा होने से डायबिटीज़ होने का रिस्क 90 गुणा बढ़ जाता है।

पंजाब की तो मैं गारंटी लेता हूं कि वहां पर तो लोगों की सेहत की यही परिभाषा है कि बंदा अच्छा तगड़ा होना चाहिये। शादी से पहले दुबले पतले लोगों को यह कह कह कर सांत्वना दी जाती है कि कोई गल नहीं, विवाह के बाद सब ठीक हो जायेगा। और अकसर होता भी यही है ----सुबह से परांठे, पूरी-छोले, दाल-मक्खनी, मलाई दार लस्सी, ज़्यादा मीठे वाली चाय--मलाई मार के, चिकन-शिकन, बटन चिकन, मच्छी फ्राई,....अब क्या क्या लिखूं ----बस समझिये हर तरफ़ दूध( पता नहीं असली या सिंथैटिक), देसी घी, फ्राई चीज़ों की भरमार और सारा दिन सब जगह इन्हीं के खाने पीने की बातें -------और मेहनत का काम न के बराबर ---ऐसे में भला कैसे फूल के कुप्पा हुये बिना रह सकता है ----लेकिन परिवार वाले , सगे -संबंधी गबरू की सेहत देख देख कर फूले नहीं समाते कि हुन बनी गल----एह होई न गल -----ऐन्नू कहंदे ने सेहत ---- लेकिन यह वाली सेहत साथ में ढ़ेरों बीमारियां भी तो ले आती है।

वैसे दूसरे की बातें क्या करें ----पहले हम लोग अपनी तरफ़ ही क्यों न देखें ----तो फिर आज ही से कम से कम फीकी चाय पीनी शुरू करें , मैं तो कर रहा हूं , आपने क्या सोचा है ?

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

वेसे है तो आज विश्व-डायबिटिज़ दिवस लेकिन..........

जी हां, आज विश्व मधुमेह दिवस है तो क्या आज के दिन इस बीमारी के बारे में शुभ-शुभ बातें ही करनी होंगी ?--- लेकिन मेरा मन कुछ और ही कह रहा है। मैं जितना इस बीमारी के इलाज की धज्जियां उड़ती देख रहा हूं, वह मैं ही जानता हूं। दोषारोपण? –क्या वह यहां भी करना ही होगा ? –वैसे मैं तो अभी तक इस का फैसला ही नहीं कर पाया कि इस के बीमारी के बुरे प्रबंधन का दोष किस के सिर पर मढूं---मरीज़ों पर, चिकित्सा व्यवस्था पर, मरीज़ों एवं मैडीकल ढांचे की परिस्थितियों पर !!

सब से अफसोसजनक बात यही है कि जो लोग इस बीमारी से जूझ रहे होते हैं उन की ठीक तरह से मॉनीटरिंग हो ही नहीं पाती है। इस के विभिन्न कारणों की तरफ़ देखना होगा। किसी मरीज़ को पता है कि उसे मधुमेह है ----और किसी डाक्टर ने उसे एक टेबलेट पर डाल दिया है। अब बहुत बार देखने में आया है कि वह सालों-साल बिना अपनी ब्लड-शूगर की जांच करवाये या तो उसी टेबलेट को उतनी ही मात्रा में लेता रहेगा वरना कुछ समय बाद जब उसे “ ठीक सा लगने लगेगा” तो उस टेबलेट को बिना किसी डाक्टरी सलाह के बंद कर देगा । शूगर के लिये ही नहीं बहुत सी तकलीफ़ों के लिये मरीज़ों के दवा बंद करने के कारण हमारे देश में कुछ इस तरह के होते हैं----- गोली खाने की आदत पड़ जायेगी, गोली गर्म होती है, लगातार गोली खाने से इस की खुराक बढ़ानी पड़ जायेगी, साथ वाली किसी पड़ोसन की शूगर तो बिना दवाई के ही गायब हो गई थी, देसी दवाई शुरू करनी है इसलिये अंग्रेज़ी दवाई तो बंद करनी ही होगी-------और भी इसी तरह के बहुत से कारण हैं डायबिटिज़ की दवाई अपने आप बंद करने के।

और एक ध्यान आ रहा है ---बहुत से मरीज़ आ कर बतलाते हैं कि डाक्टर ने तो मुझे इंसुलिन के टीके रोज़ाना लेने के लिये कहा हुआ है लेकिन मैं नहीं पड़ता इस चक्कर में ----कौन इस मुसीबत को मोल ले---एक बार लेने शुरू कर दिये तो हमेशा के लिये लेने ही पड़ेंगे। इसलिये मैं तो परहेज से ही काम चला रहा हूं और साथ में फलां दवाई की आधी गली कभी-कभी ले लेता हूं -----अब इन मरीज़ों को यह समझना भी बहुत ही ज़रूरी है कि अगर ये वह वाली आधी गोली भी नहीं लेंगे तो भी होगा कुछ नहीं ---बस वे शूगर-रोग से संबंधित तरह तरह की जटिलताओं की गिरफ्त में आ जायेंगे --- या तो दृष्टि किसी दिन जवाब दे जायेगी, गुर्दे पक्के तरह पर हड़ताल पर चले जायेंगे, हार्ट प्राब्लम हो जायेगी, वरना डॉयबिटिक पैर जैसी किसी समस्या का पंगा पड़ जायेगा और पैर या पैर का पंजा काटना पड़ सकता है ---मैं परसों रेडियो पर पीजीआई,चंडीगढ़ के एक विशेषज्ञ की एक इंटरव्यू सुन रहा था कि उन के संस्थान में चालीस में से उनचालीस पैर या पैर के पंजे आप्रेशन से काटने का कारण भी डायबिटिज़ ही होता है।

पिछले पैराग्राफ में ज़िक्र हुआ है देसी दवा का ----इस देसी दवा से मतलब है कि कुछ लोग किसी नीम-हकीम से कुछ पुड़ियां सी ले आते हैं जो बिल्कुल झूठा सा वायदा साथ में कर देता है कि इन के सेवन से शूगर-रोग जड़ से ही खत्म हो जायेगा। लेकिन वह सरासर फरेब कर रहा है ---ऐसी कोई पुड़िया, कोई तिलस्माई पुड़िया बनी ही नहीं है जिस से यह तकलीफ़ हमेशा के लिये पुड़िया घोल कर पी लेने से नष्ट हो जाये। जितनी भी आप कल्पना कर सकते हैं उतना ही नुकसान ये देसी दवाईंयां मरीज़ का करती हैं और उसे पता ही नहीं चलता। बहुत बार तो इन पुड़ियों में इन नीम-हकीमों ने बहुत से नुकसान-दायक कैमिकल डाले होते हैं जो शरीर में तरह तरह की व्याधियां पैदा करते हैं । और अगर खुशकिस्मती से कहूं या गलती से आप इन व्याधियों से बच भी गये तो भी ये देसी दवाईयां किसी के शक्कर रोग को इनडायरैक्टली बढ़ावा तो दे ही रही हैं ----किसी तरह का कोई टैस्ट हो नहीं रहा, टॉरगेट-आर्गनज़ को क्या हो रहा है उन की किसे फिक्र है नहीं ----सो, बहुत से मरीज़ इन्हीं देसी दवाईयों की वजह से शूगर रोग से संबंधित बहुत सी मुश्किलें मोल ले डालते हैं। कृपया इस तरफ़ ध्यान दें कि देसी दवा से मेरा मतलब है कि नीम-हकीम डाक्टरों द्वारा दी गई थर्ड-क्लास दवाईयां (अगर इन्हें हम दवाईयां कह सकें तो !!)

लेकिन अगर कोई आयुर्वैदिक पद्धति से या किसी अन्य भारतीय चिकित्सा पद्दति के द्वारा ही अपना इलाज करवाना चाहता है तो उसे उस पद्धति के किसी विशेषज्ञ के पास जाना ही होगा और उन के कहे अनुसार दवा एवं जीवन-शैली में बदलाव करने ही होंगे।

कुछ बातें लोग आ कर बताते हैं कि वे कहीं से पढ़ कर, किसी की सलाह से जामुन की गुठली को पीस कर ले रहे हैं, करेले का जूस ले रहे हैं, और डोडिया-पनीर रात को भिगो कर सुबह वह पानी पे रहे हैं-----अगर आप इस तरह का कोई काम भी कर रहे हैं या करने का विचार बना रहे हैं तो किसी आयुर्वैदिक डाक्टर के परामर्श से, उनकी अनुमति से करेंगे तो ही उचित है क्योंकि वह साथ ही साथ आप के ब्लड-शूगर के स्तर का भी ध्यान रखेंगे।

यह तो हो गई बात दवाईयों की, अब आते हैं ---मधुमेह की नियमित मॉनीटरिंग की । विभिन्न कारणों की वजह से यह भी ठीक तरह से हो नहीं पा रहा है। इस में काफी हद तक मरीज़ों की अज्ञानता का भी दोष है-----वास्तव में, काफी नहीं कुछ हद तक ही। बिना मॉनीटरिंग के कैसे दवा को बढ़ाया, घटाया जायेगा, रोग के कंट्रोल के लिये कैसे और निर्देश दिये जायेंगे ।

पिछले महीनों में शूगर रोग पर किस तरह का कंट्रोल रहा- इस की जांच के लिये ग्लाईकेटेड-हीमोग्लोबिन (glycated haemoglobin) नाम से एक टैस्ट तो है लेकिन इस के बारे में बहुत ही कम लोग, बहुत ही ज़्यादा कम लोग जानते हैं और जो जानते भी हैं वे इसे करवाने की ज़रूरत नहीं समझते हैं। वैसे यह टैस्ट लगभग 200 रूपये के आसपास हो जाता है। इस ब्लाग पर इस विषय पर इस नाम से एक पोस्ट है---अब हो पायेगी डायबिटिज़ की और भी बढ़िया स्क्रीनिंग।

यह ग्लाईकेटेड-हिमोग्लोबिन की बात दूर, अकसर कुछ लोगों में अगर खाली पेट और खाने के बाद ब्लड-शूगर चैक करवाने को कहा जाता है तो कईं लोग इस को भी नहीं मानते, या तो खाली पेट वाला टैस्ट ही करवा लेते हैं ---यह कहते हुये कि अब कौन दूसरे टैस्ट के लिये इंतज़ार करे, वरना कईं बार खाये-पिये ही टैस्ट करवा लेते हैं –यह कहते हुये कि हम से भूख सहन नहीं हो पाती। इन्हीं कारणों की वजह से ही इन मरीज़ों की सही मॉनीटरिंग हो ही नहीं पाती।

अच्छा बात बार बार हो रही है मॉनिटरिंग की ----हमें यह ध्यान रहे कि ब्लड-शूगर के स्तर की नियमित मॉनिटरिंग के साथ साथ शूगर के मरीज के टार्गट अंगों की भी नियमित जांच होनी चाहिये ----अपने चिकित्सक की सलाह अनुसार टार्गट अंगों की कार्य-प्रणाली का आकलन करने हेतु ये टैस्ट होते हैं। पहले ज़रा इस के बारे में बात करें कि यह जो शब्द टार्गट अंग है, इस का क्या मतलब है---इस का मतलब है कि जिन अंगों पर शूगर रोग के बुरे प्रभाव सब से ज़्यादा पड़ते हैं ---जैसे कि किडनी( गुर्दे), हार्ट, आंखें, नसें आदि -----इन की नियमित जांच के साथ साथ इन के लिये कुछ टैस्ट जैसे कि किडनी फंक्शन टैस्ट, ईसीजी, ब्लड-प्रैशर की नियमित जांच, लिपिड-प्रोफाइल टैस्ट, आंखों का नियमित परीक्षण, किसी न्यूरोलॉजिस्ट के द्वारा चैक-अप शामिल हैं----- किसी अमेरिकन वैब-साइट मैं पढ़ रहा कि शूगर के रोगियों में आंखों का चैक-अप तो एक साल की बजाये हर छः महीने के बाद ही होना चाहिये ताकि आंखों की समस्याओं का प्रारंभिक अवस्था में ही पता चल सके और उन की मैनेजमैंट की जा सके।

बातें तो बहुत हो गईं ----लेकिन अब असलियत के फर्श पर उतर ही आता हूं। क्या आप को लगता है कि इस तरह की नियमित मॉनीटरिंग किसी बिल्कुल आम आदमी के बस की बात है ---सरकारी हस्पताल मरीज़ों के लोड के कारण ठसा-ठस भरे हुये हैं----काम धंधा छोड़ कर कितने लोग इन लंबी कतारों में लग सकते हैं, कितने लोग महंगी महंगी दवाईयां खरीद पाते हैं, महंगे टैस्ट करवा पाते हैं, ये चाय में नकली मीठे की गोलियां इस्तेमाल कर सकते हैं ------ये सब सोचने की बाते हैं । और अगर आप सोच रहे हैं कि इस डायबिटिज़ में एक आम आदमी कैसे घुस आया ----तो यह अब हो चुका है। वह भी इस की चपेट में आ चुका है।

कोई समाधान ?--- सब से महत्वपूर्ण बात वही है कि कैसे भी हो अपने वजन को कंट्रोल करने की पूरी कोशिश की जाये----बिना जिह्वा के स्वाद पर पर कंट्रोल किये यह संभव है ही नहीं, जंक-फूड का नामो-निशां अपनी लाइफ से मिटाना होगा---और इन सब के साथ साथ रोज़ाना सैर तो करनी ही होगी ----चाहे मन करे या न करे----एक बार पैदल भ्रमण करने की आदत पड़ जाये तो फिर अच्छा भी लगने लगेगा। बहुत से लोग अपनी विवशता प्रगट करते हैं कि वे चल ही नहीं पाते, क्या करें !!--- उन्हे सलाह है कि अपने चिकित्सक से पूछ कर खड़े खड़े ही किसी एक्सर-साईकिल को ही चला लिया करें-----बहुत ही , बहुत ही ,बहुत ही, ..........मेरे इस तीन बार लिखे को तीस लाख बार जानिये कि वैसे तो सब के लिये ही लेकिन शूगर के रोगी के लिये भ्रमण निहायत ही ज़रूरी है।

चलिये,अब विश्राम लेते हैं क्योंकि मेरा भी भ्रमण के लिये जाने का समय हो गया है – रोज़ाना आधा घंटा भ्रमण करने की आदत डाल रहा हूं ---और इस विश्व डायबिटिज़ दिवस पर सारे विश्व के लिये यही मंगलकामना करता हूं कि शूगर के सब रोगियों की शूगर पूरी तरह से कंट्रोल में रहे, और उन के टार्गेट अंग पूरी तरह से फिट रहें और वे भरपूर ज़िंदगी का लुत्फ़ उठाएं और जो बंधु प्री-डायबिटिक्ट हैं वे अपनी जीवन-शैली में उचित परिवर्तन समय रहते कर लें ताकि उन्हें आगे चल कर किसी तरह की परेशानी न हो -----और सारे विश्व के लिये शुभकामनायें कि उन का वज़न कंट्रोल में रहे, वे जंक-फूड से मुक्त हो जायें, अपने नमक की खपत पर पूरा कंट्रोल कर लें और सारे विश्व-बंधुओं को रोज़ाना एक-आध घंटा टहलने का चस्का पड़ जाये।

जाते जाते यही लिखना चाह रहा हूं कि मैं इतनी बातें लिखते लिखते उस महान योगी ---बाबा रामदेव को कैसे भूल गया ---उन की बातें अनुकरणीय हैं -----अगर कोई बंधु हर तरह से परेशान हैं तो बाबा रामदेव की कही बातें अपने जीवन में उतारनी शुरू कर दें-----अवश्य कल्याण होगा। मैं क्या सारा संसार उन से बहुत प्रभावित है ----वे बिल्कुल निराश, हताश लोगों की ज़िंदगी में आशा का दीप जला रहे हैं , आखिर इस से बड़ी बात क्या हो सकती है !!

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

बच्चों की डायबिटिज़ को लेकर आजकल क्यों है इतना हो-हल्ला ?

जब भी बच्चों की बीमारियों की चर्चा होती है तो अकसर डायबिटिज़ का जिक्र कम ही होता है क्योंकि अकसर हम लोग आज भी यही सोचते हैं कि डायबिटिज़ का रोग तो भारी-भरकम शरीर वाले अधेड़ उम्र के रइसों में ही होता है लेकिन अब इस सोच को बदलने का समय आ गया है। डायबिटिज़ के प्रकोप से अब कोई भी उम्र बची हुई नहीं है और मध्यम वर्ग एवं निम्न-वेतन वर्ग के नौजवान लोगों में भी यह बहुत तेज़ी से फैल रही है।

जहां तक बच्चों की डायबिटिज़ की बात है, बच्चों की डायबिटिज़ के बारे में तो हम लोग बरसों से सुनते आ रहे हैं ----इसे टाइप-1 अथवा इंसूलिन-डिपैंडैंट डायबिटिज़ कहते हैं। अच्छा तो पहले इस टाइप-1 और टाइप-2 डायबिटिज़ की बिलकुल थोड़ी सी चर्चा कर लेते हैं।

टाइप-1 डायबिटिज़ अथवा इंसूलिन-डिपैंडैंट डायबिटिज़ में पैनक्रियाज़ ग्लैंड ( pancreas) की इंसूलिन-पैदा करने वाली कोशिकायें नष्ट हो जाती हैं जिस की वजह से वह उपर्युक्त मात्रा में इंसूलिन पैदा नहीं कर पाता जिस की वजह से उस के शरीर में ब्लड-शूगर का सामान्य स्तर कायम नहीं रखा जा सकता। अगर इस अवस्था का इलाज नहीं किया जाता तो यह जानलेवा हो सकती है। अगर ठीक तरह से इस का इलाज न किया जाये तो इस बीमारी से ग्रस्त बच्चों में आंखों की बीमारी, हार्ट-डिसीज़ तथा गुर्दे रोग जैसी जटिलतायें पैदा हो जाती हैं। इस बीमारी के इलाज के लिये सारी उम्र खाने-पीने में परहेज़ और जीवन-शैली में बदलाव ज़रूरी होते हैं जिनकी बदौलत ही मरीज़ लगभग सामान्य जीवन जी पा सकते हैं और कंप्लीकेशन्ज़ से बच सकते हैं।

सौभाग्यवश यह टाइप-1 डायबिटिज़ की बीमारी बहुत रेयर है ---बहुत ही कम लोगों को होती है और पिछले कईं दशकों से यह रेयर ही चल रही है।

लेकिन चिंता का विषय यह है कि एक दूसरी तरह की डायबिटिज़ – टाइप 2 डायबिटिज़ बहुत भयानक तरीके से फैल रही है। और इस के सब से ज़्यादा मरीज़ हमारे देश में ही हैं जिस की वजह से ही हमें विश्व की डायबिटिज़ राजधानी का कुख्यात खिताब हासिल है।

इस टाइप -2 डायबिटिज़ की सब से परेशान करने वाली बात यही है कि इस बीमारी ने अब कम उम्र के लोगों को अपने चपेट में लेना शुरु कर दिया है ----अब क्या कहूं ----कहना तो यह चाहिये की कम उम्र के ज़्यादा ज़्यादा लोग इस की गिरफ्त में रहे हैं। आज से लगभग 10 साल पहले किसी 20 वर्ष के नवयुवक को यह टाइप-2 डायबिटिज़ होना एक रेयर सी बात हुआ करती थी लेकिन अब चिंता की बात यह है कि अब तो लोगों को किशोरावस्था में ही यह तकलीफ़ होने लगी है। यही कारण है कि आज कल बच्चों की डायबिटिज़ ने इतना हो-हल्ला मचाया हुआ है।

ठीक है , बच्चों में इतनी कम उम्र में होने वाली तकलीफ़ के लिये कुछ हद तक हैरेडेटी ( heredity) का रोल हो सकता है ---लेकिन इस का सब से महत्वपूर्ण कारण यही है कि बच्चों की जीवन-शैली में बहुत बदलाव आये हैं ----घर से बाहर खेलने के निकलते नहीं, सारा दिन कंप्यूटर या टीवी के साथ चिपके रहते हैं ---और सोफे पर लेटे लेटे जंक-फूड खाते रहते हैं --- इन सब कारणों की वजह से ही बच्चों में टाइप-टू डायबिटिज़ अपने पैर पसार रही है। और यह बेहद खौफ़नाक और विचलित करने वाली बात है। मद्रास के एक हास्पीटल में पिछले बीस सालों में बच्चों में टाइप-2 डायबिटिज़ के केसों में 10गुणा वृद्धि हुई है।

लेकिन खुशखबरी यह है कि टाइप-2 डायबिटिज़ से रोकथाम संभव है---अगर जीवन-शैली में उचित बदलाव कर लिये जायें, खान-पान ठीक कर लिया जाये तो इस टाइप-2 से अव्वल तो बचा ही जा सकता है वरना इस को काफी सालों तक टाला तो जा ही सकता है। तो, बच्चों शुरू हो जाओ आज से ही रोज़ाना एक घंटे घर से बाहर जा कर खेलना-कूदना और अब तक जितना जंक फूड खा लिया, उसे भूल जाओ---अब समय है उस से छुटकारा लेने का ----जंक फूड में क्या क्य़ा शामिल है ?----उस के बारे में आप पहले से सब कुछ जानते हैं

सोमवार, 10 नवंबर 2008

क्या आप प्री-डायबिटिज़ के बारे में जानते हैं ?

डायबिटिज़ की पूर्व-अवस्था है.....प्री-डायबिटिज़ -----

अकसर देखा गया है कि लोग अपने आप कभी-कभार शूगर की जांच करवा लेते हैं और इस की रिपोर्ट ठीक होने पर आश्वस्त से हो कर अपने पुराने खाने-पीने में मशगूल हो जाते हैं। जब हम लोग छोटे छोटे थे तो सुनते थे कि यह शूगर की जांच यूरिन से ही होती है। लेकिन बहुत सालों के बाद पता चला कि इस की जांच ब्लड-टैस्ट से भी होती है।
मैं अकसर देखता हूं कि लोग कुछ वर्षों बाद अपनी ब्लड-शूगर की जांच करवा लेते हैं और रिपोर्ट ठीक होने पर इत्मीनान कर लेते हैं कि सब कुछ ठीक ठाक है।

मैं अकसर सोचा करता था कि यह बार-बार ब्लड-शूगर टैस्ट करवाई तो जाती है और अगर रिपोर्ट ठीक आती है तो बंदा खाने-पीने में आगे से भी एहतियात एवं कुछ परहेज़ करने की बजाये और भी बेफिक्र सा हो जाता है कि चलो, मैं तो अब सब कुछ खा-पी सकता हूं क्योंकि मेरी ब्लड-शूगर रिपोर्ट तो ठीक ही है। ऐसा देख कर यही लगता है कि इन लोगों के द्वारा तो बस ब्लड-शूगर का टैस्ट गड़बड़ आने की इंतज़ार ही हो रही है।

लेकिन अब यह सोच बदलने का टाइम गया है विश्व भर के सभी मैडीकल एक्सपर्टज़ के अनुसार डायबिटिज़ से पहले एक अवस्था प्री-डायबिटिज़ भी होती है। प्री-डायबिटिज़ का मतलब है कि किसी व्यक्ति में ब्लड-शूगर का स्तर सामान्य से अधिक तो है लेकिन इतना भी बढ़ा हुया नहीं है कि उसे डायबिटिज़ का श्रेणी में शामिल किया जाये लेकिन फिर भी ये प्री-डायबिटिज़ वाले लोगों में टाइप-2 डायबिटिज़, हार्ट-डिसीज़ और दिमाग की नस फटने का रिस्क बढ़ जाता है। लेकिन इत्मीनान की बात यही है कि जीवन-शैली में किये गये परिवर्तन जैसे कि खान-पान में सावधानी एवं शारीरिक परिश्रम करने से प्री-डायबिटिज़ वाले व्यक्तियों को भी या तो डायबिटीज़ होने से ही बचाया जा सकता है, अथवा डायबिटीज़ डिवेल्प होने को एवं उस से पैदा होने वाली जटिलताओं को काफी समय तक टाला जा सकता है।

Pre-diabetes is a condition in which blood glucose levels are higher than normal but not high enough to be classified as diabetes – but these individuals are at an increased risk for developing type2 diabetes, heart disease and stroke. However, life-style changes such as diet and exercise can prevent or delay development of diabetes and its complications.

तो अब अगला प्रश्न यह है कि इस प्री-डायबिटिज़ का पता कैसे चले ? – इस प्री-डायबिटिज़ का पता जिन टैस्टों के द्वारा चलता है उन्हें कहते हैं ----Fasting Plasma Glucose( Fasting blood sugar) ----फास्टिंग ब्लड-शूगर टैस्ट तथा Oral glucose tolerance test ---ओरल ग्लूकोज़ टालरैंस टैस्ट।

फास्टिंग ब्लड-शूगर चैक करने से पहले जैसा कि आप जानते ही हैं कि 12 से 14 घंटे तक कुछ भी नहीं खाया-पिया नहीं जाता, और इस की नार्मल रेंज है 100 मिलीलिटर में 100मिलीग्राम जिसे मैडीकल भाषा में 100mg% ( one hundred milligram percent ) बोल दिया जाता है और लिखने में 100mg/dl लिख दिया जाता है ---dl का मतलब है डैकालिटर यानि 100मिलीलिटर। अगर इस फास्टिंग ब्लड शूगर की रीडिंग 100 से 125 के बीच आती है तो यह प्री-डायबिटीज़ की अवस्था कहलाती है( इसे इंपेयरड फास्टिंग ग्लूकोज़ भी कह दिया जाता है यानि कि फास्टिंग ब्लड-शूगर टैस्ट में गड़बड़ी है) और 126mg% से ज़्यादा की रीडिंग का मतलब है डायबिटिज़।


अब आते हैं दूसरे टैस्ट की तरफ़ --- ओरल ग्लुकोज़ टालरैंस टैस्ट ----Oral glucose tolerance test - इस टैस्ट में व्यक्ति का ब्लड-शूगर रात भर से कुछ भी बिना कुछ खाये पिये तो किया ही जाता है ( overnight fast) और 75 ग्राम ग्लूकोज़ को पानी में घोल कर पिलाने के दो घंटे के बाद भी ब्लड-शूगर टैस्ट की जाती है। इस की रीडिंग अगर 140mg% तक आती है तो यह टैस्ट नार्मल माना जाता है , लेकिन 140 से 199 mg% की वैल्यू प्री-डायबिटिज़ की अवस्था की तरफ़ इशारा करती है, इसे इंपेयरड ग्लूकोज़ टालरैंस कहा जाता है --- और इस की वैल्यू अगर 200मिलीग्राम से ऊपर हो तो यह डायबिटिज़ ही होती है।

अब बहुत ही अहम् बात यह है कि अगर किसी को प्री-डायबिटिज़ का पता चला है तो यह एक तरह से एक चेतावनी है कि संभल जाइये-----क्योंकि इस अवस्था में तो परहेज़ करने से, लाइफ-स्टाइल में परिवर्तन करने से, और शारीरिक परिश्रम करने से बहुत ही परेशानियों से बचा जा सकता है, यह भी संभव है कि ये सब सावधानियां ले लेने से यह प्री-डायबिटीज़ अवस्था कभी भी डायबिटिज़ की तरफ़ बढ़े ही नहीं और शायद इन सब सावधानियों को वजह से डायबिटीज़ की डिवेलपमैंट लंबे अरसे के लिये टल ही जाये ---और इसी तरह डायबिटीज़ रोग की जटिलताओं ( complications) से भी लंबे समय के लिये बचा जा सकता है।

आशा है कि प्री-डायबिटिज़ का फंडा आप समझ गये होंगे और आगे से इसे कोई थ्यूरैटिकल कंसैप्ट ही नहीं समझेंगे।