मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

कुंजीओं, गाईडों, गेस पेपरों, टेन-एयर पेपरों के सच्चे किस्से ....

कल मैं मराठी में लिखा कुछ पढ़ रहा था, मैंने गेस कर के उस में कही बात को समझने की कोशिश की ...और मुझे पता है मैंने गुज़ारे लायक समझ ही लिया था...लेकिन उसी वक्त मुझे ख्याल आ गया कि यह गेस-लगाने का काम तो हम लोग बचपन से करते आए हैं अपने स्कूल के ज़माने से ...इस बात का ख़्याल लंबे अरसे के बाद आया ...

गेस-पेपर्स (Guess Papers) का जब मैं नाम लेता हूं तो मुझे हमारे दौर की (यही कोई 40-45 साल पहले का दौर) कुंजीयां और टेन-एयर पेपर्ज़ भी याद आते हैं...आज इन की यादों को सहेज कर इस ब्लॉग रूपी संदूकची में सहेजने की कोशिश करता हूं...

1970 का दशक - 1975-76 के आस पास मैं सातवीं आठवीं कक्षा में जब पढ़ता था तो हमारे स्कूल में भी कुंजीयों का अच्छा खासा चलन था। लेकिन इन कुंजीयों का इस्तेमाल बड़ी खराब बात समझी जाती थी...अच्छा, कुंजीयों का चिट्ठा खोलने से पहले एक याद आप से साझा कर लूं...मैं पांचवी-छठी कक्षा में था, गर्मी की छुट्टियां 45-50 दिनों की होती थीं...खूब सारा होम-वर्क मिलता था...एक तो होता था, हर रोज़ हिंदी, पंजाबी और इंगलिश की कापी में सुलेख लिखना है ...और गणित के खूब सारे सवाल भी हल करने होते थे। 

तो पहले सरकारी पाठ्य पुस्तकों में होता यह था कि किसी भी विषय, चेप्टर के सवाल की एक दो उदाहरणें हल कर के हमें उस में इस्तेमाल किए गए फार्मूले के बारे में समझा दिया जाता था, क्लास में भी ऐसा ही होता था, और फिर हमारे मास्टर हमें कह देते कि अब तुम लोगों ने उस चेप्टर के पीछे दिए गए सवाल हल करने हैं...अब उन में दिमाग लगता था...क्योंकि सोच, समझ के यह काम करना पड़ता था..कईं बार कोई सवाल का हल नहीं भी निकलता था, जिसे हम लोग अगले अपने मास्साब को बताते और वह उसे ब्लैक-बोर्ड पर सॉल्व कर देते और हमें फिर वह फार्मूला अच्छे से याद भी हो जाता...

और ग्रीष्म अवकाश का होम-वर्क भी ऐसी तादाद में हमें थमाया जाता कि हर रोज़ आठ-दस सवाल सॉल्व करते तो ही काम पूरा हो पाता....और हां, यह काम करना इसलिए भी ज़रूरी था कि जो छुट्टियों का काम पूरा कर के नहीं जाते थे, उन की ठुकाई होनी या नहीं होनी, यह मास्साब के मूड पर मुनस्सर था...कईं बार वे स्कूल खुलने के बाद भी दो-तीन का वक्त दे दिया करते थे ..कि अपना अपना काम कर लो पूरा...लेकिन होम-वर्क पूरा न कर के ले जाना...बड़ा बेइज़्ज़त होने वाला काम था, बड़ी किट किट थी ...इतने सारे सब्जेक्ट्स के टीचर्ज़ का मुंह देख कर उन के मूड का जायज़ा ही लगाते रहो ...

हां, तो मैं याद कर रहा था ऐसी ही एक गर्मी की छुट्टियों के शुरूआती दिनों को ...पांचवी-छठी के दिन थे...मुझे हमारे पड़ोस में रहने वाली एक लड़की ने आइडिया दिया कि गणित की कुंजी ले ले मेरे से ...और दो तीन दिन में काम खत्म कर , फिर खेला करेंगे। कुंजी में सभी सवाल सॉल्व किए हुए दिए होते थे...मैंने उस की बात मान ली ...और अगले दो तीन दिन में गणित के काम वाला कांटा निकाल कर लगा हुडदंग मचाने ...लेकिन मेरी बड़ी बहन की मेरी पढ़ाई पर पूरी नज़र रहती थीं...एक दिन उन्होंने पूछा और मैंने बता दिया कि मैंने तो आसान रास्ता निकाल लिया है ..और पड़ोस से मिली कुंजी के बारे में बता दिया...उन्होंने मुझे कहा तुम इसी वक्त कापी ले कर आओ...मैंने कापी हाज़िर कर दी ....उन्होंने उसी वक्त उस को पूरी तरह से फाड़ दिया ....और कहा कि चुपचाप कल से क़ायदे से होमवर्क करो....दिमाग लगा कर गणित के सवाल हल करो...कुंजी जहां से आई थी, उन्हें भी प्यार से समझा दिया कि यह सब मत किया करो ....आज सोचता हूं कि उस दिन बहन ने उस कापी को फाड़ कर बहुत अच्छा काम किया ...बड़ी बहनें होती ही ऐसी हैं....अब मां नहीं हैं, तो मुझे वह छोटी मां ही लगती हैं.....तीन चार साल पहले मां बहुत बीमार थीं तो मैं मां के पास ही बैठा रहता, बिल्कुल मुझे लगने लगता उन दिनों जैसे वह मेरी बेटी हैं ... 

और एक बात कुंजीयों की करनी है कि गणित के अलावा भी दूसरे विषयों के लिए भी ये आती थीं...उसमें क्या होता था, वही पंगा होता था कि अगर कोई छात्र उन्हें पढ़ कर पेपर दे आयेगा..नंबर तो शायद ले भी लेगा, नंबर अगर न भी आए तो शायद पास हो ही जाएगा,  ..लेकिन बात उस की समझ में आयेगी नहीं। और हां, इन कुंजियों एवं गाईड्स का भरपूर इस्तेमाल एग्ज़ाम-सेंटर के बाहर खड़े पेपर दिलाने आए या नकल करवाने आए कुछ प्रोफैशनल किस्म के करिंदों द्वारा खूब किया जाता था...अकसर हम देखते थे कि जो सब्जेट का किसी दिन पेपर होता उस की कुंजी या गाइड को इन नकल करवाने वाले अपने पास रखते। और फिर स्टॉफ के अंदर वाले स्टॉफ, पेपर देनेे वालों को पानी पिलाने वालों की सांठ-गांठ से उस किताब में से पर्चियां फाड़ फाड़ कर भिजवा रहते थे...

मुझे कभी इस तरह की नकल के लिए पर्चियां हासिल हुईं? नहीं, नहीं ....इन चक्करों से मुझे बहुत ज़्यादा डर लगता था ...और वैसे भी हमेशा से ही यह लगता रहा कि हम लोग तेज़ तेज़ लिख कर भी पेपर पूरा नहीं लिख पाते...ऐसे में पर्चियों से लिख कर पेपर पूरा करना तो नामुमकिन ही होता होगा...और जिस हम अकसर देखते कि जिस अफरा-तफरी में बाहर खड़े शुभचिंतक अंदर पर्चियां पहुंचाते और जिस खौफ़ के साये में अंदर बैठा बंदा उन को हु-ब-हू अपनी उत्तर-पुस्तिका पर छाप रहा होता...उस से तो बस शायद पास ही हुआ जा सकता था। 

अच्छा, तो यह गाईड्स क्या होती हैं.....ये भी कुंजीयों जैसी ही होती हैं...शायद कुछ इज़्ज़तदार नाम रखने के लिए इन्हें गाइड कहा जाने लगा था...लिखते लिखते कुछ बातें कैसे याद आने लगती हैं...मुझे याद आ रहा है कि हमारी आठवीं-नवीं-दसवीं कक्षा के दिनों में एमबीडी और कोहेनूर नाम से गाइडें बिका करती थीं...एमबीडी की गाइडें बहुत पापुलर हुआ करती थीं...मल्होत्रा बुक डिपो याने एमबीडी ...मुझे हिस्ट्री-ज्योग्राफी के लिए ये गाइडें खरीदना पड़ती थीं...बाकी तो मैं शुरू ही से क्लास में अच्छे से पढ़ता था, रोज़ाना पढ़ता भी था और नोट्स भी बनाता था...लेकिन हिस्ट्री-ज्योग्राफी की किताबों की तरफ़ देखने से भी मुझे चिढ़ थी...ये नक्शे वक्शे मेरे लिए बिल्कुल काला अक्षर भैंस बराबर हुआ करते थे...कभी भी इन्हें पढ़ना रूचिकर न लगा...दिक्कत यह थी कि हिस्ट्री-ज्योग्राफी की गाइड़ों को भी पढ़ने की इच्छा न होती थी...न ही मुझे हिस्ट्री-ज्योग्राफी पढ़ कर मुझे कुछ याद ही रहता था...हमारा मास्टर को भी हमें मुक्के, थप्पड़ मारने में ज़्यादा दिलचस्पी हुआ करती थी....इसलिए हम सब सहमे रहते उस के पीरियड में ...थप्पड़ भी ऐसा जड़ता था कि सिर घूम जाता था...पर मैं कुछ सालों बाद सोचता था उस के बारे में कि उस की अपनी परेशानियां थीं....उस के बारे में कुछ भी न लिखना चाहूंगा...पर था बड़ा विलेन टाइप....

अब चलते हैं टेन-एयर पेपर्ज़ की ओर....हमें एग्ज़ाम से तीन चार महीने पहले हमारे मास्साब भी कह दिया करते थे कि पिछले दस सालों के पेपर भी देखा करो...हर साल के दो पेपर होते थे ..वार्षिक एवं सप्लीमेंटरी ...अच्छा, जहां तक मुझे इस वक्त ख्याल आ रहा है कि ये टेन-एयर पेपर्ज़ अलग अलग विषयों के भी मिलते थे ..लेकिन एक बड़ी सी किताब भी मिलती थीं जिन में सभी विषयों के पिछले दस सालों के बोर्ड के पेपरों के परचे मिल जाया करते थे...उन्हें हम ज़रूर खरीद लिया करते थे..लेकिन ना जाने क्यूं उन्हें बार बार पढ़ना भी बोरिंग सा काम लगता था मुझे तो...फिर भी, देख तो लेते ही थे। 

और हां, एक बात और याद आ गई कि एग्ज़ाम के कुछ हफ्तों या कुछ दिनों पहले बोर्ड के पेपरों के गेस-पेपर्ज़ भी बाज़ार में मिलने शुरू हो जाते थे...एक दम रद्दी गेस हुआ करता था...मुझे तो नहीं याद कि कभी बोर्ड के किसी पेपर को देख कर लगा हो कि यह फलां फलां गेस-पेपर में भी दिया गया था। जहां तक मुझे याद है कि मैं कभी इन गेस-पेपरों वेपरों के चक्कर पड़ा नहीं, ज़रूरत ही न महसूस हुई. कभी क्योंकि हिस्ट्री-ज्योग्राफी को छोड़ कर सब कुछ अच्छे से पढ़ा ही होता था...

अभी एक बात गाइडों के बारे में लिखनी यह भी ज़रूरी है कि जैसे जैसे विभिन्न विषयों की गाइड़ों छात्रों की ज़िंदगी में आना शुरू हुईं...उत्तर लिखने के लिए मौलिकता (ओरिजिनेलेटी) ख़त्म होती चली गई...वही रटी-रटाई बात पेपर में लिखो और अपना रस्ता नापो। 

हां, गेस पेपरों की बात करते करते यह ख़्याल भी आ गया कि बोर्ड के एग्ज़ाम से पहले हमें लगभग एक महीने की लिए पेपर की तैयारी के लिए छुट्टियां मिलती थीं....उसे कहते थे प्रेपरेटरी होलीडेज़- उन दिनों हिंदी और इंगलिश के पेपरों में बोर्ड ेके पेपरों के गेस-पेपर्ज़ छपा करते थे ...मुझे याद है हम उन्हें ऐसे ही कभी कभी देख लिया करते थे ...कभी उन्हें भी इतनी गंभीरता से नहीं लिया...

एक बात और कहीं लिखना भूल न जाऊं....एग्ज़ाम के दो तीन पहले एक छोटी सी गाइड कह लें, कुंजी कह लें या कुछ कह लें, अलग अलग विषयों की आ जाया करती थी, जो छात्र 360 दिन अच्छे से नहीं पढ़ पाए ...उन्हें पढ़ने का आखिरी चांस देने के लिए...इन्हें तैयार तो बड़े क्रिएटिव तरीके से जाता था. लेकिन अकसर परचे के दिन (हमारे दौर में एग्ज़ाम को परचा भी कह देते थे...जैसे पापा पूछते थे-- कल किस का परचा है, मतलब किस विषय का एग्ज़ाम है) ....ही इन की किस्मत खुलती थी, क्योंकि पेपर करवाने (या नकल करवाने) आए बाहर खड़े लड़कों के हाथ में यही मिनी-गाइडें ही हुआ करती थीं...जिसमें से कागज़ फाड़ फाड़ कर वे अंदर अपने दोस्त तक पहुंचाया करते थे। 

नकल का काम बड़ी स्टिंकिग था तब भी ....कभी कभी परीक्षा-हाल की खिड़कियों के रास्ते से माल पहुंचाया दिया जाता, कभी किसी पत्थऱ के ऊपर लपेट कर (यह मैंने बहुत कम ही देखा) , कभी किसी पेपर देने वाले उस वक्त उस की सर्वाइवल किट पहुंचा दी जाती जब वह वॉश-रूम का बहाना बना कर दो मिनट के लिए बाहर हो कर आता...और कईं बार तो अपने इर्द-गिर्द जब हम देखते कि किसी छात्र ने बीस-तीस पेज़ का पर्चियों का पुलिंदा पकड़ा हुआ है जो उसे पानी पिलाने ने अभी अभी थमा दिया है...और वह उसमें से अपने काम की चीज़ बड़ी झुंझलाहट के साथ ढूंढ रहा है.. क्योंकि उसे सवाल ही समझ में नहीं आ रहा, तो जवाब वह कहां से ढूंढे....फिर वह पानी पिलाने वाले को गुस्से से कहता ...कभी कभी बाहर खड़े दोस्त के लिए अभद्र भाषा का भी इस्तेमाल करता कि उसे कहो यह क्या भेज दिया है, वह अच्छे से पढ़ कर भेजे....बहुत बार इस तरह की पर्चियों को वापिस बाहर एक्सपोर्ट करने की जिम्मेदारी भी इन पानी पिलाने वाले चपरासियों की ही होती..जिस के लिए इन्हें कुछ मेहनताना दिया जाता था...और कईं बार जब स्कूल का कोई बड़ा खिलाड़ी परचा लिख रहा होता तो यह काम स्कूल के पी.टी मास्टर को भी करते हम ने देखा...लेकिन वे पूरे आत्मविश्वास से यह काम कर जाया करते.......और दूसरे छात्रों की तरफ़ देखते तक नहीं थे...

पर्चियां मैं भी बनाया करता था, कभी कभी छोटी छोटी ...दो चार बार याद है..लेकिन डरपोक इतना कि अगर किसी ने पकड़ लिया तो बड़ी बदनामी हो जाएगी कि स्कूल के एग्ज़ाम में तो टॉप करता है, लेकिन यहां बोर्ड में परची चलाता है, वहां भी परची ही चलाता होगा, और दूसरा यह कि अगर स्कूल ने निकाल दिया या बोर्ड ने दो चार साल के लिए बाहर कर दिया तो क्या होगा...बस, यही सोच कर उन पर्चियों को इस्तेमाल नहीं किया....कईं बार तो पेपर से पहले मैं वॉश-रूम की टंकी के पास छिपा कर आता कि बीच में आकर थोड़ा देख लूंगा लेकिन एग्ज़ाम में बैठे वक्त यह सोच कर ही दिल धड़कने लगता कि अब उन को जा कर निकाल कर देखूंगा...नहीं, नहीं यह न होगा...एक बार यह काम किया भी ..लेकिन एक मिनट में उन को पढ़ कर कोई क्या पहाड़ खोद लेगा...पहले से ही पढ़ा हुआ ही काम आता है हमेशा। मेरे मामा का बेटा मेरी नानी के पास रहता था अंबाला में....पेपर से पहले वाली रात को ऐसी ही एक गाइड लाता, पर्चियां तैयार करता और हमें बताता कि वह अच्छे से यूज़ भी कर लेता है ...एक तरह से सारी गाइड ही साथ लेकर चलता ...और वह जब छोटा भी था तो अपनी निक्कर के अंदर अपनी जांघों पर लिख कर ले जाता...नानी उसे बहुत कहा करती ....वे पप्पूआ, न करया कर एह कम्म, पढ़ लिया कर... (पपू, यह काम मत किया करो, इस से अच्छा तो पढ़ ही लिया करो)....और नानी को डर इस लिए भी लगता होगा कि नाना जी अम्बाला के जाने माने गणित और इंगलिश के टीचर और पोता यह सब काम करने में मशगूल ...पपू ने जैसे तैसे बीए तो कर ली ....लेकिन वह उस के काम न आई..

बात बहुत लंबी हो गई है, मैं भी लिखते लिखते बोर होने लगा हूं.....सौ बात की एक बात ......अच्छे से पढ़ने-लिखने का कोई विकल्प न ही था, न ही है और न ही होगा...अगर नहीं पढ़ेंगे तो उस विषय में ता-उम्र कमज़ोर ही रहेंगे....जैसे मुझे हिस्ट्री-ज्योग्राफी बिल्कुल नहीं पता ...इसलिए जहां भी देश-दुनिया की बातें चलती है तो मैं उन लोगों के बीच में बैठा बिल्कुल अपने आप को अनपढ़ महसूस करता हूं ..और यह बात मैं बढ़ा-चढ़ा कर नहीं लिख रहा हूं...ऐसा ही होता है आजकल मेरे साथ...जो कुछ अच्छे से पढ़ा है, वही काम आ रहा है...बाकी, जिस बात में फिसड्डी रह गया, अब भी वैसा ही हूं...लेकिन मुझे इस का कोई गम भी नहीं है, बहुत कुछ देखा है, महसूस किया है, जिया है, हंडाया है...किसी चीज़ की अब तमन्ना रह नहीं गई...

लेकिन एक बात है कि ये बातें तो मैंने लिख डालीं एग्ज़ाम की ...पेपरों की, परचों की .....हम सब कहीं न कहीं एग्ज़ाम से डरते तो थे...लेकिन यह भी ध्यान आ रहा है कि आजकल तो बच्चों के लिए काउंसलर होते हैं, साइकोलॉजिस्ट होते हैं...अपने लिए सब कुछ अपने पेरेन्ट्स ही हुआ करते थे...बीजी और पापा ने कभी भी किसी तरह का एग्ज़ाम का प्रेशर फील नहीं होने दिया...कभी भी नहीं...हर एग्ज़ाम से पहले मेरी टेंशन देख कर दोनों यही कहते ....कोई बात नहीं, जो आता है, वही लिख कर आ जाओ। यही बात जो हमें विरसे में मिली हम ने अपने बच्चों को दी ...हमेशा उन्हें यही कहा कि ज़िंदगी में तो हर दिन एग्ज़ाम है ....इसलिए मस्त रहो और जो काम कर रहे हो, उसे अच्छे से करते रहो...

आनंद बक्शी के बेटे को यह भेजा था कुछ दिन पहले....मैं बक्खी साब के सभी लिरिक्स का बहुत बड़ा फैन जो हूं...

PS... आज सुबह सुबह इतना लंबा लिखने बैठ गया, क्योंकि बाहर कहीं जाना नहीं है, दायां घुटना फिर से कह रहा है, चुपचाप टिके रहो खटिया पर ही, अपनी उम्र का ख़्याल रख करो..इसलिए दो तीन दिन से बाहर निकलना बिल्कुल बंद है, चलने में बहुत दर्द है, कुछ दिन आराम करने से, दवाई लेने से, एक्सरसाईज़ करने से राहत मिल जाएगी...कुछ महीने पहले भी हुआ था...अब उम्र के साथ यह तो लगा ही रहेगा....65 की उम्र तक पहुंचते पहुंचते तो घुटनों की तो बिल्कुल ही ऐसी की तैसी हो जाएगी....मुझे ऐसा लगता है सच में और डर भी लगता है। लेकिन जो है, सो है। जब अपनी उम्र के किसी बंदे के घुटनों की परेशानी के बारे में सुना करता था तो कभी न सोचता था कि हमारा भी यही हश्र होने वाला है ...