शुक्रवार, 18 मार्च 2022

कल रात खामखां हो गई अपनी धुनाई...

बंबई के लोकल स्टेशन का प्लेटफार्म -- बहुत भीड़, हर एक को जल्दी, इतने में अंधाधुंध चल रही किसी महिला का हाथ मेरे हाथ से छू गया...मेरी कोई गलती न थी, लेकिन जब वह रूक गई और मेरी तरफ़ गुस्से से देखने के लिए ज़रूरी गुस्सा अभी बटोर ही रही थी कि मैंने उस के आगे दोनों हाथ जोड़ दिए ...यही कि मेरा कोई कसूर नहीं ...लेकिन उसने तब तक मुझे बुड्ढे कह कर ज़ोर से एक या दो (अब वह याद नहीं) तमाचे मेरे चेहरे पर जड़ दिए....मुझे तब भी यही लगा कि अब यह बिना बात की बात यहीं पर खत्म हुई ...लेकिन नहीं जी, उस गुस्सैल औरत ने झट से अपनी जूती उतारी और मेरे सिर पर दो तीन दनादन मार दी ....लेकिन अब मेरा बर्दाश्त का मादा हो गया ख़त्म .......आगे क्या किया? .....मुझे पता है आप भी आगे का आंखों देखा हाल जानने के लिए मरे जा रहे हैं कि देखते हैं, इस साले की आगे क्या हालत हुई ...बड़ा लेखक बना फिरता है, हो गई न छित्तर परेड....(कुछ तो यह भी सोच रहे होंगे कि किया होगा इस ने कुछ न कुछ, यूं ही थोड़ा कोई हाथ में जूती उठा लेता है)...चलिए, आप जो भी समझना चाहें, समझते रहिए लेकिन आगे सुनिए....दो तीन जूतियां जैसे ही मेरे सिर पर पड़ी, जनाब, मेरी नींद टूट गई ...

जी हां, मुझे यह सपना कल देर रात या आज सुबह आया ..वक्त का मुझे पता नहीं, क्योंकि मैं इतना थका हुआ था कि सपना टूट गया ...सपने में हुई लित्तर-परेड (इस काम के लिए पंजाबी का एक ढुकवां लफ़्ज़) पर हैरानी या रोश दिखाने की भी फुर्सत न थी, मैं थका हुआ था...अब वैसे भी गर्मी हो गई है...सपना टूट गया, लेकिन मेरी नींद न टूटी...इसलिए आज अभी पौने नो बजे के करीब उठा हूं ...चाय पीते पीते यह सपना जब श्रीमती जी को सुनाया तो वह भी हैरान ...ऐसा सपना आप को !! आप को तो इस तरह का सपना नहीं आना चाहिए!!

जिस तरह के काम के लिए मेरी छितरोल हो गई ..,सपने में ही हुई चाहे...लेकिन इस तरह के जुड़े किसी भी काम के लिए मेरी रूचि अब इस उम्र में तो क्या होगी, तरुणावस्था और यौवनावस्था ही से हमें यही समझाया गया जो बात हमारे दिलो-दिमाग में बैठ भी गई कि नारी श्रद्धेय है जैसे कि महात्मा गांधी ने विदेश जाते वक्त अपनी मां को वचन दिया था ....(वैसे महात्मा गांधी का और मेरा जन्मदिन भी एक ही तारीख को है...2 अक्टूबर) ...

खैर, सपने तो सपने होते हैं ...लेकिन कईं बार हिला देते हैं...वैसे मेरे इस सपने के बारे में आप लोग भी ज़्यादा दिमाग पर ज़ोर न डालिए...और न ही किसी तरह के मनोविश्लेषण की ज़हमत ही उठाएं...कुछ हासिल न होगा...मुझे लगता है कल रात बांद्रा स्टेशन पर रात 10 बजे के करीब एर वाकया हुआ...जिसे मैंने देखा और कहीं न कहीं वही सपने में किसी दूसरी शक्ल में आ धमका। एक 20-25 बरस की युवती थी ...वह ऊंचा ऊंचा बोल रही थी, और किसी को कह रही थी कि तुमने मेरे मुंह पर इतना कस के थप्पड़ क्यों मारा, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ..अभी तक मेरे कान से गर्म हवा के साथ साथ खून निकलने लगा है .......खैर, वो दो औरतें थीं और दो मर्द, शायद वह स्टेशन के बाहर ही रहते थे ..मैं देख रहा था वह औरत स्टेशन के बाहर खड़े सिपाही के पास भी गई ...लेकिन उसने भी उसे स्टेशन से दूर रहने का इशारा कर दिया... लेकिन दूसरी औरत भी कुछ गालियां बके जा रही थी....माजरा कुछ समझ में आया नहीं ...मुझे यह देख कर बहुत बुरा लगा कि बंबई जैसी महानगरी में भी कुछ महिलाओं के हक-हुकूक कहां हैं ...सभी के हकों की हिफ़ाज़त तो होनी ही चाहिए...हर महिला एक सम्मान है ...किसी एक के हक किसी दूसरी महिला के हक से ज़्यादा ज़रूरी या कम ज़रुरी नहीं होते ...

कहां यह किताब, कहां वह सपना..😂
बस कल रात सोते सोते यही बातें दिल में चल रही होंगी ..चाहे किताबें तो मैं बहुत अच्छी ही पढ़ रहा था ...लेकिन फिर भी पता नहीं कल सपने में धुनाई होना जैसे मेरी तक़दीर में ही लिखा था...लेकिन हां, इस सपने को अपने ब्लॉग में दर्ज करना तो मेरे हाथ में ही था, मैं चाहता तो इसे न भी बताता...लेकिन एक लेखक का दिल माना नहीं ...दिल ने कहा कि अगर तुुमने इस का छिपा दिया...किसी भी वजह से ..तो मतलब लिखते वक्त तू अभी भी डरता है ..लिख दिया कर, जो घटित होता है ...किसी भी आंखोदेखी और ख़्वाब में देखी बात को लिख कर आज़ाद हो जाया कर...बेकार का बोझ क्यों उठाए फिरता है ..और स्टेशन पर तो तूं ही है जब लोगों को भारी भारी बोझ उठाए देखता है तो मन ही मन कितना हंसता है तू...फिर किसी तरह को बोझ अपने दिमाग पर रखने से क्या हासिल! 

दुनिया की तो ऐसी की तैसी ...कुछ तो लोग कहेंगे ........और जो तुम्हें जानते हैं, तुम से वाक़िफ़ हैं, उन्हें तुम्हारे बारे में और तुम्हें उन के बारे में सब पता होता है ...(वैसे न ही कुछ पता हो तो क्या फर्क पड़ता है, वे भी क्यास लगाते रहें तो भी क्या) ...और जो जानते नही हैं, उन से वैसे ही क्या फ़र्क पड़ने वाला है.....लेकिन हां, एक बात जो मैं ऊपर दर्ज करना भूल गया कि सपने में जिस वक्त मेरी जूती-परेड हो रही थी तो उस वक्त मुझे उस का दर्द कितना था, कितना न था, यह नहीं पता मुझे...क्योंकि मैं तो उस वक्त भी अपने आसपास यही देखने में मसरूफ था कि मुझे कोई पहचानने वाला तो नहीं ..और कोई वीडियो तो नहीं बना रहा ...खैर, यह वाक्या इतना लंबा चला नहीं...लेकिन मुझे इस बात की बड़ी राहत मिली कि जैसे कि बंबई की भीड़ के बारे में देखते-सुनते हैं ..यह भीड़ ही किसी ऐसे मनचले को वहीं के वहीं पेल देती है अच्छे से....लेकिन मुझे किसी ने कुछ नहीं कहा ....आह! कितना सुकून मिला मुझे उस वक्त भी ...कि चलिए, बंबई की पब्लिक ने तो हाथ नहीं उठाया.....

चलिए, इस बात को यहीं विराम देते हैं ...हां, सपने की बात चली तो सपनों से जुड़ी कुछ बहुत ही खट्टी मीठी यादें उमड-घुमड कर आ रही हैं कि हमें भूल गए,...नहीं, भई, कुछ भी नहीं भूला ...सब याद है ..लेकिन लिखूंगा किसी दूसरी पोस्ट में ...क्योंकि यह पोस्ट लंबी हो रही है ..वैसे भी मेरे कुछ पाठक मुझे कहने लगे हैं कि डाक्टर साहब आप के लेख लंबे होते हैं...फुर्सत से पढ़ने वाले होते हैं...यकीनन वाट्सएपिया पोस्टों के इस्टैंट दौर में ये लेख तो लंबे दिखेंगे ही..

चलिए, अब आप होली मनाईए...शुभ दिन है ...मेरे लिए तो होली का मतलब यहीं तक है कि गुजिया और मिठाई खानी है, न मैं किसी को रंग लगा के राज़ी हूं और न ही मुझे पसंद है कि कोई मुझे रंग लगाए...अब जैसे हैं वैसे हैं...क्योंकि फ़िज़ूल में नौटंकी करता फिरूं उन लोगों के साथ जिन के साथ 364 दिन कोई वास्ता नहीं होता, कोई जान पहचान नहीं, कोई जीने-मरने तक की कोई सांझ नहीं ...और अचानक 365 वें दिन आप उन के साथ रंग गुलाल  खेलने लग जाएं....इस के बारे मे आप की राय अलग हो सकती है, लेकिन मेरी जो है, अब 60 साल की उम्र में वही रहेगी...बुरी या अच्छी, अब उम्र की इस दहलीज पर कोई परवाह नहीं होती (अगर किसी की जानिब से मेरा कुछ बिगड़ना बाकी रह गया हो तो सोचता हूं उसे भी बिगड़ी हालत में देख ही लूं, यह सोचता हूं अकसर)...मस्त रहिए... और जाते जाते खुशियों से भरा एक होली का गीत सुन लीजिए... पांच छः साल पहले हम लोग होली वाले दिल गोवा में थे, वहां के एक बीच के किसी होटल जैसी जगह पर यह गीत बज रहा था जिस की धुन पर फिरंगी थिरक रहे थे ...

होली है....बुरा मत मनाईए, अपने सपने को मैंने हु-ब-हू सच लिखा है, बिल्कुल सच ....सच के सिवा कुछ नहीं...लेकिन सपना तो ऐसा था कि मेरा सिर भारी कर के चला गया...अभी भी भारीपन चल ही रहा है...


और यह शोले फिल्म का होली वाला गीत भी बेहद पसंद है क्योंकि इसे सुनते हुए मुझे वही 45-50 साल वाले दिन - 1975 का दौर रह रह कर याद आने लगता है ...इस तरह के गीत देखते-सुनते वक्त यही समझ में ही नहीं आता कि काबिलेतारीफ़ दरअसल है कौन...हीरोईन, हीरो, या एक्सट्रा आर्टिस्ट, निर्देशक, नृत्य-निर्देशक, गायिका, इस तरह के गीत लिखने वाला, संगीत निर्देशक...किस की तारीफ़ करें, किस की न करें.....असल बात यह है कि ये सभी लोग काबिले-तारीफ़ हैं क्योंकि अगर इन में से एक ने भी अपने काम को पूरी ईमानदारी से न किया होता तो इस तरह का शाहकार रचा न जाता ....सुनिए, आराम से सुनिए....और जाइए...जिस किसी को रंग मलना-मलाना है, उस काम से भी फ़ारिग हो आइए.....हम भी लगाते थे आपस में जब तक मां थी, घर में सब उन के चेहरे पर रंग लगाते थे तो वह बहुत हंसती थी ...कहती थीं कि शगुन तो करना ही चाहिए....बस, जब से मां गई काहे के शगुन...काहे का फागुन....😎


छपते छपते ....जिन दिनों हम छोटे थे तो अखबार के किसी कोने में एक जगह रहती थी ..छपते छपते...इस का मतलब होता था कोई ताज़ा तरीन खबर जिसे बस मुख्तसर सा लिख दिया जायेगा क्योंकि वह अभी ही मिली है। तो इस पोस्ट को बंद करने के दो तीन घंटे बाद मैं भी उस छपते-छपते वाले अंदांज़ में लिख रहा हूं ..कि येप्टो से कुछ सामान मंगवाया था...लेकिन उन की तरफ़ से एक होली का गिफ्ट हैंपर भी मिला है ...जिस में कोल्ड-ड्रिंक्स के साथ साथ गुलाल का एक पैकेट भी था....ज़ाहिर है हम ने भी उस गुलाल का सही इस्तेमाल कर लिया है ...शुक्रिया, तुम्हारा भी ...येप्टो....अब हम तो कहां जाते रंग वंग खरीदने ...आपने हमारी होली में भी रंग भर दिए... 🙏