अभी आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर देख कर चिंता हुई..इस अखबार में किसी खबर का पहले पन्ने पर छपना और और वह भी फोल्ड के ऊपर वाले हिस्से में इस के महत्व को दर्शाता है।
पहले तो शीर्षक देख कर कुछ ऐसा लगा जैसे कोई उपभोक्ता संरक्षण कानून से संबंधित कुछ खुलासा होगा...
पूरी खबर पढ़ी तो समझ में आया कि किस तरह से प्राईमरी हेल्थ सेट-अप में दमे की बीमारी का सटीक निदान किए बिना ही एन्हेलेर एवं अन्य स्टीरायड दवाईयां शुरू कर दी जाती हैं।
एक सात साल के बालक के बारे में लिखा था कि वह चंड़ीगढ़ में पिछले तीन वर्ष तक दमा की स्टीरायड जैसी दवाईयां लेता रहा....बाद में पता चला कि उसे दमा (अस्थमा) तो था ही नहीं, उस की सांस की नली में एक मूंगफली का दाना अटका पड़ा था।
इस अहम् रिपोर्ट में यह बताया गया है कि लगभग ५० प्रतिशत दमा के मरीज़ों में जिन की दवाईयां चल रही होती हैं उन में दमा होता ही नहीं है.. एक तरह का ओव्हरडॉयग्नोसिस कह लें या जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है कि वास्तविक कारण होता है ..किसी तरह की वॉयरल इंफेक्शन, एलर्जी या कोई ट्यूमर...
मुझे लगता है कि इसे पढ़ कर लोग वॉयरल इंफैक्शन, एलर्जी के कारणों को नहीं देखेंगे, बस किसी ट्यूमर की चिंता ही करने लगेंगे...लेकिन सांस की तकलीफ़ के लिए यह बहुत रेयर कारण होता होगा...अब विशेषज्ञों ने लिखा है तो होगा ही।
पिछले कुछ वर्षों से बिना दमे की बीमारी की पुष्टि के इंहेलर्स का इस्तेमाल न करने की सलाह तो दी ही जा रही है...लेकिन अनुभवी लोगों की सुनता कौन है!..शक्तिशाली मार्कीट शक्तियों का जाल बिछा हुआ है...और फिर कुछ छोटी जगहों पर कम अनुभव वाले चिकित्सक जो प्राईमरी यूनिटों पर काम करते हैं...शायद जाने अनजाने वे भी ये सब लिखने लगते हैं...जल्दबाजी में ही। एक बड़ा मुद्दा यह भी है कि इन इन्हेलर्स का इस्तेमाल करना तक बहुत से मरीज़ों को नहीं आता...बेकार में बहुत सी दवाई बेकार हो जाती है।
लेकिन इस के लिए ये क्वालीफाईड चिकित्सक ही नहीं, बहुत से नीम हकीम, झोला छाप डाक्टर ... कोई भी इन्हेलर्स के इस्तेमाल की सलाह दे देता है .. और एक बार शुरू हो जाए तो फिर वर्षों बस वही दवा चलती रहती है.. यही नहीं, मरीज़ खुद भी कैमिस्ट से खरीद लेते हैं ...एक तो आजकर नेट से आधी-अधूरी अधकचरी जानकारी लोगों के लिए आफत बनी हुई है... प्रेग्नेंसी टेंट तक खुद घर पर कर लेते हैं तो क्या मैडीकल तकलीफ़ों का भी पता खुद ही कर लेंगे...असंभव...A little knowledge is a dangerous thing!... और यहां भी यही बात है।
इस तरह से दमे के इलाज के लिए इंहेलर्स का ही अंधाधुंध इस्तेमाल नहीं हो रहा... सब से भयंकर तो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों का गलत इस्तेमाल हो रहा है...छोटी मोटी वॉयरल और अपने आप ठीक हो जाने वाली तकलीफ़ों के लिए भी लोग अपने आप ही कैमिस्ट से कुछ भी स्ट्रांग सा ऐंटिबॉयोटिक उठा लाते हैं....जिस तरह से देश में तंबाकू का इस्तेमाल करना नामुमकिन है, मुझे लगता है कि दवाईयों का irrational use और इन का misuse रोक पाना भी बहुत टेढ़ी खीर है...शायद लोगों की जागरूकता के बाद कुछ हो पाए...
अब हम सब लोगों को कम से यह तो याद रखना चाहिए कि हर सांस की तकलीफ़ दमा (अस्थमा) नहीं होती, किसी विशेष तरह की दवाई खाने के लिए या सूंघने के लिए जिद्द न करिए....अनुभवी डाक्टरों को सब कुछ पता रहते हैं...वे एक मिनट में ही आप की सेहत की जन्मपत्री जान लेते हैं..
वैसे भी प्रदूषण इतना ज़्यादा है हर तरफ़ ...यह भी सांस की तकलीफ़ों एवं एलर्जी की जड़ हो सकता है....इस तरफ़ भी पेरेन्ट्स को देखना चाहिए... बहुत ज़रूरी है यह भी ..हो सके तो बच्चों में हेल्थी जीवन शैली के बीज रोपने की शुरूआत बचपन से ही करिए....संतुलित पौष्टिक आहार, दैनिक शारीरिक परिश्रम, जंक फूड से दूरी... और जितना जल्दी हो सके कि योग एवं प्राणायाम् करने की शुरूआत की जाए...
लिखना का या किसी को प्रवचन देने का एक फायदा तो है, और कुछ हो न हो, अपने आप को वही बातें बार बार सुनानी पड़ती हैं तो असर हो ही जाता है ...धीरे धीरे... जैसा कि मुझे कुछ दिनों से थोड़ा थकावट सी महसूस होने लगी है...शाम के समय...और सोच रहा हूं ..आज से मैं प्राणायाम् किया करूंगा....मैंने इस का पूरा प्रशिक्षण लिया हुआ है...लेकिन आलस की बीमारी का क्या करूं... काश कोई इलाज होता इसका भी! कुछ न कुछ असर तो होता ही है, मैंने पिछले दिनों सुबह उठ कर पानी पीने की बात खूब शेयर करी... अब मैं भी अकसर उठते ही पानी पीता हूं...वैसे आज नहीं पिया...
हो गई बातें खूब..सुबह सुबह...सांसों की बातें हुईं तो ध्यान आ गया ...
चलती है लहरा के पवन के सांस सभी की चलती रहे....जी हां, सब का स्वास्थ्य अच्छा हो, सब मस्त रहें, व्यस्त रहें, खुश रहें......यही कामना करते हुए इस गीत में डूब जाइए... one of my favourites again!!...😎😎😎
दस दिन पहले जो रविवार था उस दिन प्रधानमंत्री के मन की बात सुनने के दौरान पता चला कि इस बार विश्व स्वास्थ्य दिवस का फोकस है कि डॉयबीटीज़ को हराया जाए...पी एम ने इसे हराने, भगाने और दूर रखने की बात अच्छी कही कि दिनचर्या में कठिन परिश्रम के लिए भी कुछ समय रखें...उस मन की बात में गर्मी के दिनों में घर की छत पर या आंगन में थके मांदे हांफ रहे पशु-पंक्षियों के लिए पानी रखने की बात भी सुनी और घर में किसी भी काम से आए किसी वर्कर ..डाकिया या कूरियर ब्वॉय को कम से कम एक गिलास पानी पिलाने की बात भी सुनी...
प्रोग्राम खत्म होते होते मुझे लग रहा था कि पी एम जैसी हस्तियों से हमें इस तरह की संवेदनशील एवं आत्मीय बातें सुनने की आदत ही कहां है..हमें तो यही पता है कि बस साल में एक बार लाल किले से बड़ी गंभीरता से हमें पीएम का भाषण सुनना होता है ...या फिर साल में एक दो बार अन्य अवसरों पर...लेकिन अब कुछ अलग लगता तो है!
विश्व स्वास्थ्य दिवस के दिन उसी बात पर ही टिका रहूं तो बेहतर होगा..
डॉयबीटीज़ के बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा जा रहा है..इसे टक्कर देने की बात आज होगी...इस से बचने की बातें हम सब जानते हैं..अधिकतर ...फिर भी हम सारा दिन मनपसंद खाना खाने में कोई कोर-कसर कहां छोड़ते हैं.. शारीरिक परिश्रम न करना और जंक-फूड पर निर्भरता हमें इस बीमारी की तरफ़ खींचती रहती है.. जंक-फूड, फास्ट-फूड के कुछ बड़े नुकसान वे तो हैं ही कि यह नमक और वसा से लैस तो होता ही है ..इस के साथ ही साथ इस का ग्लाईसैमिक इंडैक्स बहुत ज़्यादा होता है जिस का मतलब है कि इसे खाते ही शरीर में ग्लूकोज़ का स्तर एक दम से बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है .. और यह न तो मधुमेह के इलाज के लिए और न ही इस से बचाव के लिए ठीक है.... सीधे-सादे पारंपरिक हिंदोस्तानी खाने से बेहतर कुछ भी नहीं है..हम जानते तो हैं,लेकिन मन फिर भी सुबह सुबह नाश्ते के समय से ही जलेबी, कचौड़ी, खस्ता, भटूरे, पूरी के लिए मचलने लगता है...
आज विश्व स्वास्थ्य दिवस का यही थीम होने की वजह से विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरफ़ से इस बारे में विशेष संदेश दुनिया के लिए आते हैं...उस पेज का लिंक यह रहा ...विश्व स्वास्थ्य दिवस..मधुमेह हराएं..
बचपन में हम लोग इधर उधर से सुना करते थे कि अगर किसी के पेशाब करने के पश्चता उस जगह पर कीड़े-मकौड़े आ जाएं तो होती है शूगर... फिर थोड़ा और बड़े हुए तो अपनी एक आंटी जी को सुबह शाम अपनी जांघ में इंसुलिन के टीके लगाते देखा करते थे... बड़ी हिम्मत वाली थीं, कभी अपनी तकलीफ़ की शिकायत नहीं करती थीं, मस्त रहती थीं..
आज भी मैं डब्ल्यू एच ओ की साईट देख रहा था तो आंकड़े देख कर डर लग रहा था... ठीक है, सरकारों का काम है आंकड़ों की बात करना... मकसद यही होता है कि काश, हम लोग अभी भी जाग जाएँ...लेिकन मुझे विभिन्न कारणों से कभी भी आंकड़ों पर ज़्यादा भरोसा रहा नहीं....बस इतना ध्यान आता है कि जिसे कोई भी तकलीफ़ हो गई उस के लिए तो बीमारी का प्रतिशत शत प्रतिशत हो जाता है ....उस की एवं परिवार की लाइफ ही बदल जाती है ..अगर इस बीमारी से ग्रस्त आदमी इस के कंट्रोल की तरफ़ और ज़रूरी परहेज की तरफ़ ध्यान नहीं देता..
आज शायद आप सब को इस तकलीफ़ के बारे में दिन भर बहुत सी बातें सुनने को मिलेंगी... मैं भी कुछ कहना चाहता हूं..
डॉयबीटीज़ क्लीनिक
प्राईव्हेट अस्पतालों की तो बात ही क्या करें, कारपोरेट कल्चर में सुविधाओं का टोटा नहीं है...लेिकन बहुत ही कम लोगों की पहुंच वहां तक है...इन आलीशन अस्पतालों में डॉयबीटीज़ क्लीनिक चलते हैं..जहां पर सभी तरह की ज़रूरी जांचे और परीक्षण हो जाते हैं।
कुछ बड़े सरकारी अस्पतालों में भी इस तरह के क्लीनिक सप्ताह में दो बार या ज़्यादा चलते हैं...इस तरह के क्लीनिक सभी अस्पतालों में चलने चाहिए..
बात बस महीने भर की दवाईयां लेने तक की
मैंने जो देखा, सुना और अनुभव किया है कि आज कल मधुमेह के रोगियों का सरोकार बस महीने भर की दवाईयां लेने तक ही होता है ..कसूर उन का नहीं, मैडीकल व्यवस्था का भी नहीं है, बस, जो देखा-सुना है उस के आधार पर यही लगता है कि शायद डॉयबीटीज़ और हाईपरटेंशन ऐसे रोग हैं जिन की मैनेजमेंट में बहुत सुधार की ज़रूरत है...
इस सुधार के लिए केवल मैडीकल कम्यूनिटी ही नहीं, मरीज़ की जागरूकता भी बड़ी जरूरी है...
मैंने नोटिस किया है कि कुछ मरीज़ महीनों मधुमेह की दवाईयां लेते रहेंगे, बीच में छोड़े देंगे, फिर कुछ देसी शुरू कर देंगे...फिर किसी बाबा का नुस्खा आजमाने लगेंगे ....लेकिन उन का नियमित बेसिक सा ब्लड-शूगर का टेस्ट नहीं हो पाता.. हो नहीं पाता या वे करवाना नहीं चाहते ..दोनों ही बातें हैं....इसी चक्कर में ब्लड-शूगर का स्तर खूब इधर-उधर हो जाता है और अकसर किसी बड़ी तकलीफ़ के बाद ही इस का पता चलता है ..
कुछ अस्पतालों में ब्लड-शूगर करवाने के लिए जब वह आता है तो पहले दिन वह इस जुगाड़ में रहता है कि उस की जांच कोई लिख दे...जांच लिखे जाने तक लैबोरेट्री में सैंपल लेना बंद हो जाता है ..क्योंकि वह वैसे भी खाली पेट ही लेना होता है...फिर वह दूसरे किसी दिन खाना साथ बांध के आता है ..फॉस्टिंग शूगर की जांच के बाद खाना खा कर फिर से जांच होती है .....तीसरे किसी दिन उसे रिपोर्ट मिलती है ...कईं बार चौथी बार भी आना पड़ सकता है किसी तकनीकी रूकावट की वजह से ... व्यवस्था की अपनी मजबूरियां भी तो हैं ही।
एक तो पेचीदा रूट टेस्ट करवाने का .. रक्त जांच का आदेश, फिर उस आदेश पर अनुमति की मोहर, फिर एप्वॉयेंटमैंट....और इन सब के साथ साथ जनमानस में जागरूकता का अभाव...बस, इसी चक्कर में नियमित यह जांच हो नहीं पाती....अब अगर हम यह कहें कि लोग अपने आप घर में ही ये जांच कर लेते हैं आजकल....(ऐसा नहीं है बिल्कुल, आटे में नमक के बराबर ही लोग हैं जिन्हें यह सुविधा है) ... यह बिल्कुल वैसी बात होगी .. किसी देश की रानी को यह सूचना मिली कि देश में अकाल पड़ गया है, गेहूं की फसल ही नहीं हुई.....तो उसने तुरंत कह दिया....अनाज नहीं हुआ तो न सही, बिस्कुट और ब्रेड खा लिया करें.......उस के बाद फिर क्या हुआ, सब जानते हैं।
पंगा ले लिया है यह टॉपिक चुन कर ... समझ में आ नहीं रहा कि क्या लिखूं क्या छोड़ूं...बस कुछ अहम् बातें लिख कर इस पोस्ट को बंद कर रहा हूं...
अपने चिकित्सक की सलाह अनुसार तरह तरह की रक्त की जांचें एवं अन्य जांचे करवाते रहिए
यह सब के लिए ज़रूरी तो है ही ...मधुमेह के रोगियों के लिए तो और भी ज़रूरी है। इस में कोई चूक न होने पाए।
हां, एक टेस्ट होता है जिस से यह पता चलता है कि आप का ब्लड-ग्लूकोज़ पिछले छः महीने में किस तरह से नियंत्रित रहा ...इसे ग्लाईकोसेटिड हीमोग्लोबिन कहते हैं...इसे भी अपने चिकित्सक की सलाह अनुसार करवा लिया करें।
पेशाब की नियमित जांच
साल में एक बार या इस से ज़्यादा चिकित्सक जैसा भी कहें..बहुत ज़रूरी है ताकि आप के गुर्दों की सेहत का पता चलता रहे...मधुमेह के रोगियों को इस तरह की तकलीफ़ होने का अंदेशा थोड़ा ज़्यादा होता है।
नियमित जांच होती रहेगी तो आप आश्वस्त रहेंगे और कुछ भी छोटी मोटी गड़बड़ी होने पर सचेत हो जाएंगे।
ब्लड़-प्रैशर सब को नियंत्रित रखना चाहिए
शूगर के मरीज़ों को तो इस के बारे में और भी सजग रहने की ज़रूरत है...नियमित ईसीजी और रक्तचाप की जांच ..या कोई और भी जांच जिसे आपके चिकित्सक करवाना चाहें करवा लीजिए...
पैरों की देखभाल बहुत ज़रूरी है
वरना कईं बार पैर का अंगूठा, पैर या टांग का कुछ हिस्सा भी काटना पड़ सकता है अगर बेलगाम डॉयबीटीज़ के चलते गैंगरीन जैसी कोई जटिलता पैरों में हो जाए...हमारे एक अंकल अपने अंगूठे को दिखाने आए थे.. मैं उन दिनों में मैडीकल कालेज रोहतक में काम करता था.. उसी दिन एमरजैंसी में उन के पैर के अंगूठे को काट दिया गया था..नहीं, नहीं, उन की जान बचाने के लिए काटना पड़ा था, उन की शूगर कंट्रोल में नहीं रहती थी..
और आंखों को दिखाते रहिए
क्या मतलब, आंखें किसे दिखाएंगे?..मेरा मतलब आंखें तरेरने से नहीं है, किसे दिखाएंगे आंखे, रोग को और बढ़ा लेंगे...नेत्र रोग विशेषज्ञ से अपनी आंखों का नियमित परीक्षण करवाते रहिए...पहले तो साल में एक बार कहते थे मधुमेह के रोगियों को ..कहीं पढ़ रहा था कि यह जांच छःमहीने में एक बार होनी चाहिए..आप देखिए जैसा भी आप के नेत्र-रोग विशेषज्ञ कहें... और इस से भी पहले अगर कोई भी तकलीफ़ लगे...आंखों में कुछ भी अलग महसूस हो...तो नेत्र रोग विशेषज्ञ के पास पहुंच जाईए।
अब मुंह और दांतों की तकलीफ़ों की भी दो बातें
डॉयबीटीज़ के रोगियों में मसूड़ों के रोग होने की संभावना ज़्यादा होती है, अगर मसूड़े बीमार हैं तो ये ब्लड-ग्लूकोज़ को सामान्य होने नहीं देते...और बढ़ी हुई शूगर से मसूड़ों के रोग और भी जटिल होते जाते हैं....it is a vicious circle!... इसलिए मसूड़ों और दांतों की जांच भी नियमित करवाते रहिए... अपने दंत चिकित्सक से ...बचे रहिए जितना हो सके...और एक बात, आम पब्लिक में यह सब से भयंकर डर है कि शूगर का मतलब है कि दांत उखड़वाने के बाद ज़ख्म नहीं भरेगा... खराब भी हो जायेगा......इस का जवाब मेरे पास एक दम पक्का है...पिछले तीस बरसों में शूगर के रोगियों के सैंकड़ों दांत उखाड़ने के बाद एक भी ऐसा मरीज़ नहीं दिखा जिस का ज़ख्म नहीं भर हो....Nature Heals everything, we don't!
इसे यहीं बंद कर रहा हूं...आज विश्व स्वास्थ्य दिवस के दिन अपने आप से एक प्रण कर के कि ज़िंदगी में मिठास को कम करूंगा.... बस खाने पीने में ही ...और बोलचाल में इसे बढ़ा दूंगा...और अभी टहलने निकल रहे हैं...वरना...औरों को नसीहत, खुद बाबा फजीहत वाली बात हो जायेगी...😄😄😄😄😄😄😄😄😄
Stay healthy..Stay fit... All the best!
हम लोग इधर इतनी सीरियस बातें कर रहें और इधर देखिए ये अपने आप में कितने मस्त हैं...😊 ...Their own inimitable sytle to ward off Diabetes perhaps!