मुझे भी आप की ही तरह यह हैडिंग बहुत ही अटपटा लगा था ... लेकिन जब मैंने कल टाइम्स ऑफ इंडिया में एक छोटी सी रिपोर्ट को देखा तो पता चला कि एक विश्व विख्यात मेडीकल जर्नल का संपादक कहना क्या चाह रहा है।
विश्व के सर्वश्रेष्ठ मैडीकल जर्नल के भूतपूर्व संपादक रिचर्ड स्मिथ ने यह कह कर मैडीकल जगत में तहलका मचा दिया है कि मरने का सब से बढ़िया तरीका कैंसर रोग है।
रिचर्ड स्मिथ का कहना है कि कैंसर के मरीज़ों को अत्यंत-महत्वाकांक्षी कैंसर रोग विशेषज्ञों के महंगे इलाज से दूर रहना चाहिए.. अरबों रूपये कैंसर के इलाज पर बहाने से बचना चाहिए .. फिर भी कैंसर से मौत तो भयानक रूप से हो ही जाती है।
संपादक रिचर्ड स्मिथ का कहना है कि कैंसर से होने वाली मौत बेस्ट है। मरने वाला अलविदा कह सकता है, अपनी ज़िंदगी के बीते लम्हों को याद कर सकता है, आखिरी संदेश छोड़ सकता है, शायद विशेष जगहों पर आखिर बार जा भी सकता है, मनपसंदीदा संगीत का लुत्फ़ उठा सकता है, पसंद की कविताएं पढ़ सकता है, और अपनी आस्था के अनुसार अपने ईश्वर, अल्ला, गॉड से मिलने की तैयारी भी कर सकता है। वह आगे कहता है कि उस के विचार में यह प्यार, मोर्फीन और विस्की के संग संभव है, लेकिन वे फिर से सावधान करते हैं कि अति-महत्वाकांक्षी कैंसर रोग विशेषज्ञों से दूर रहना चाहिए। रिचर्ड ने यह भी लिखा है कि अधिकतर लोग अचानक मौत की इच्छा रखते हैं लेकिन इस तरह की मौत सगे-संबंधियों पर भारी सािबत होती है।
यह तो हो गई जी मैडीकल संपादक की बात।
अब थोड़ी मैं भी बात कर लूं इस विषय पर .....जब मैं आज से बीस-पच्चीस वर्ष पहले हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन पढ़ रहा था और एक हमारा विषय होता था .. हेल्थ इकोनोमिक्स.... उस में हेल्थ-बेनिफिट रेशो और क्वालिटी ऑफ लाइफ ईर्ज़ एडेड ... Cost-benefit ratio and Quality of life years added (QLYA) जैसी परिभाषाएं पढ़ कर लगता है कि हम ने तो बहुत कुछ सीख लिया।
लेकिन दोस्तो लाइफ में ऐसा होता नहीं......संपादक ने तो ऊपर इतनी आसानी से कह दिया.....लेकिन हर समाज में अनेकों सामाजिक एवं भावनात्मक पहलू भी तो कैंसर जैसी बीमारी के साथ जुड़े हुए हैं......हर आदमी चाहता है कि वह बढ़िया से बढिया इलाज करवाए......और वह करता भी है, कर्जा लेता है, जमीन बेचता है, गिरवी रखता है .....कुछ भी।
मेरे विचार में संपादक द्वारा लिखी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पैसे की घोर बरबादी हो जाती है कईं बार.......मैं ऐसा इसलिए लिख रहा हूं कि कॉरपोरेट कल्चर वाले अस्पतालों में मरीज़ या उस के तीमारदार के साथ खुल कर बात तो करते नहीं, डाक्टर और मरीज के बीच इतनी गहरी खाई होती है कि उसे लांघा ही नहीं जा सकता....इस के बारे में ये बड़े बड़े महंगे अस्पताल जो भी कहें, सच्चाई तो सच्चाई है ही।
एक बार मेरे पास मुंह के एडवांस कैंसर से ग्रस्त एक ८० साल के ऊपर की बुज़ुर्ग महिला आई थीं....उन्होंने मेरे से अकेले में कुछ बातें की.....जिन्हें मैंने किसी से शेयर नहीं किया... ये उन्होंने मुझ पर भरोसा कर के कहीं.....लेकिन मैं बीमारी के पारिवारिक, सामाजिक पहलु समझने की कोशिश कर रहा था.....अपने बेटे के साथ आईं....मैंने उन्हें रेफर कर दिया ... हमारा अस्पताल मरीज़ों द्वारा खर्च किए जाने वाली रकम की प्रतिपूर्ति (रिएम्बर्समैंट) करता है.....मुझे याद है कि जाते समय वे जब मेरे से ये प्रश्न कर रही थीं कि डाक्टर साहब, यह ज़्यादा फैला तो नहीं अभी?...प्रश्न कर के वे मेरे जवाब से कहीं ज़्यादा मेरी आंखों में आंखें डाल कर मेरा झूठ पकड़ने की कोशिश करती दिखीं...... मुझे याद है मैंने उन के कंधे पर हाथ रख कर इतना ही कहा था.....आप इतनी हिम्मत वाली हैं, ईश्वर सब ठीक करेगा, आप को विशेषज्ञ को दिखाना तो होगा ही .........वैसे बड़ी एक्टिव बुज़ुर्ग महिला थीं, लेकिन उस के बाद वापिस लौट कर नहीं आईं........पता नहीं वह उस विशेषज्ञ के पास गईं भी कि नहीं।
कल की टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित इस रिपोर्ट का हैडिंग लगा तो मुझे भी काफी अटपटा ही था......लेकिन पढ़ने पर पता चला कि कुछ कुछ बातें तो ठीक ही कह गया.....फिर भी, दोस्तो, कोई भी मरीज तीमारदार कहां इस तरह की फिजूल बातों में पड़ता है, हर कोई जानता है ...........जब तक सांस, तब तक आस............आप का क्या ख्याल है?
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