रविवार, 1 सितंबर 2024

हाथ में है आधार-पैन , डिजी-लॉकर में भी, दूसरे हाथ में मोबाइल थामे बंदा साक्षात है सामने......फिर भी!!


कल शाम लोकल ट्रेन में कुछ दोस्त एक गंभीर चर्चा कर रहे थे ….सारा ज्ञान किताबों, अखबारों में ही नहीं होता, कईं बार इस तरह की जगहों पर भी अच्छा ज्ञान बंट रहा होता है …ध्यान से सुन ज़रूर लेना चाहिए, चाहे उस का इस्तेमाल करें या न करें, लेकिन दूसरों का पीओवी सुनने में क्या जाता है….


कल जो ज्ञानामृत की वर्षा हो रही थी वह इसी बात पर थी कि वे लोग चर्चा कर रहे थे कि जब वे किसी बैंक-डाकखाने में जाते हैं तो आधार, पैन एक हाथ में, डिजी-लॉकर में भी, दूसरे हाथ में मोबाइल थामे बंदा किसी बाबू के सामने साक्षात खड़ा है लेकिन वह यह सब देख कर भी झेरॉक्स कापी ही लाने की ज़िद्द करता है …यही बात हो रही थी कि बाबू के सामने बैठा (अधिकतर खड़ा हुआ, झुका हुआ…) बंदा उस वक्त इतना असहाय महसूस करता है कि क्या कहें। 


अब उसे बाहर जाकर झेरॉक्स की कोई दुकान ढूंढनी पड़ेगी…फिर वापिस लौट कर बाबू के सामने खड़ा होना पड़ेगा…


इस चर्चा में भाग लेने वाला एक बंदा तो यह कह रहा था कि इसी चक्कर के चलते अब उसे तो बैंक जाने में ही कंटाला आने लगा है, कोई भी छोटा मोटा काम करना हो, मोबाइल नंबर बदलना हो या पता, और भी कोई भी काम हो, उसी वक्त पैन-आधार की कापी मांग लेते हैं….किसी भी तरह का तर्क-वितर्क किसी काम का नहीं कि हमारा तो के.व्हाई-सी हो चुका है ….चाहे कितनी बार भी हो चुका हो, अगर बाबू ने कह दिया तो आप को उस की कापी लेकर आनी ही होगी…


आप तर्क करते अपना वक्त खोटी करते रहिए कि यह तो हम इतनी बार पहले भी दे चुके हैं…कुछ नहीं होने वाला ….


उस टोली में से एक ने कहा कि यार, एक बात बहुत मज़ेदार यह है कि अनपढ़, कम पढ़े-लिखे बंदों को इस से कोई उलझन नहीं होती, वे घर से जब चलते हैं तो ज़िंदगी भर के इक्ट्ठे किए हुए ज़रूरी सरकारी दस्तावेज़ और पहचान-पत्र और साथ में उन की कापियां और दो चार अपनी फोटो भी लेकर चलते हैं….बाबू को जो भी चाहिए होती है, उसे खुद उन की पन्नी से फरोल कर निकाल लेता है ….और झट से काम हो जाता है….दरअसल बार बार हम देखते हैं कि हर जगह इंगलिश झाडऩे से काम नहीं हो जाता, कईं बार इस से और भी पेचीदगी बढ़ जाती है, मामला खामखां बढ़ सा जाता है….इस मामले में अनपढ़ बंदे के फंडे बहुत सैट हैं….ठीक है भाई वह स्कूल जा कर न पढ़ा सका, लेकिन दुनिया के स्कूल में उसने पढ़े-लिखों से भी ज़्यादा पढ़ा होता है …इसलिए वह बेकार इन छोटे मोटे कामों के लिए किसी बाबू से उलझता नहीं देखा होगा आपने भी …आम इंसान इतनी ठोकरें, तिरस्कार, शोषण, उपेक्षा का शिकार होते होते एक दम रवां हो चुका होता है …खुरदरे किनारे एक दम घिस चुके होते हैं ….वैसे भी सयाने कहते ही हैं…..अकल बादाम खाने से नहीं, ठोकरें खाने से आती है…


यही व्यवहारिक बातें करते करते वे कुछ गंभीर बातें करने लगे कि देख यार, आधार-पैन बंदे की जेब में है, और किसी किसी ने तो मोबाइल में  डिजी-लॉकर में रखा होता है…और बंदा सामने साक्षात खड़ा है तो यह साबित करना कि वह वही है जो उस के कार्ड कह रहे हैं या कोई जालसाज़ है, यह तय करना तो उस बाबू का, उस दफ्तर का काम हुआ, है कि नहीं….


वैसे बात तो वे पते की कर रहे थे ….मुझे भी याद आया कि कुछ दिन पहले जब मैं सेंट्रल बैंक में गया तो मुझे भी एक छोटे से काम के लिए ई-के.व्हॉय.सी करने के लिए कहा गया, मैंने अपना आधार नंबर बताया, उस महिला ने किसी मशीन पर मुझे अंगूठा रखने को कहा और बस, हो गया….उन को तसल्ली हो गई कि यह तो फलां फलां डॉक्टर ही निकला…हुलिए से लग तो नहीं रहा था। 


मैंने भी उस चर्चा में यह बात बताई तो वह कहने लगे कि नहीं करते इस तरह से वे ई-के-व्हाय सी. का सत्यापन…..आप ने एक बार ऐसा करवा लिया होगा …बात थी उन की भी सही, एक बार ही शायद ऐसा हुआ था, वरना तो जगह जगह पैन-आधार दे दे कर मैं भी तो थक सा गया हूं ….और तो और श्मसान घाट में किसी की लाश भी तब तक ठिकाने नहीं लग पाती जब तक उस का आधार कार्ड पेश न किया जाए….मुझे नहीं पता कि किसी शव का अंगूठा भी किसी मशीन पर लगा कर उस की पहचान साबित की जा सकती है कि नहीं, लेेकिन दूसरी सभी जगहों पर तो ऐसा ही होना चाहिए कि आप अपना आधार नंबर बताइए, आपके सामने एक मशीन रखी हो, आप उस पर अपना अंगूठा रखें और तुरंत फैसला सुना दिया जाए कि यह बंदा असली है या नकली…क्या वही है जिस का आधार इस के हाथ में है …


खैर......

इतने में वह टोली तो प्रभादेवी स्टेशन पर उतर गई …मेरा स्टेशन तो अभी दूर था, मैं उन की बातों के जंगल में गुज़रे दिनों की यादें ढूंढने लगा…सब से पहले तो मुझे यही ख्याल आया कि जब टैक्नोलॉजी नहीं थी तो 50-55 वर्ष पहले लोग कैसे अपने सर्टिफिकेट या मार्क-शीट की कापी जमा करते थे ….मैं इस बात का एकदम चश्मदीद गवाह हूं कि कोई भी मार्क-शीट में जो भी लिखा है उसे एक कागज़ पर उन पुराने दौर के टाइप-राइटर की मदद से टाइप करवाया जाता, हुबहु….जहां शिक्षा बोर्ड की सील होती, वहां पर यह लिख दिया जाता ….सील….


और शिक्षा बोर्ड के सचिव के हस्ताक्षर की जगह इंगलिश में sd/- लिख दिया जाता और उस के बाद किसी राजपत्रित अधिकारी से उसे सत्यापित करवाया जाता …..अब एक आम इँसान के लिए किसी राजपत्रित अधिकारी को ढूंढना भी कोई आसान काम न था, इस काम के लिए भी चपरासी लोग अपनी चाय-पानी का जुगाड़ कर लिया करते थे उस ज़माने में …..


लिखते वक्त कईं बार याद आने लगती हैं, हां, अफसर के पास कहां इतना टाइम की मूल मार्क शीट या किसी सर्टिफिकेट का उस टाइप्ड पेपर से मिलान करने की सिर-खपाई करता फिरे, उस के लिए उस का अधीक्षक या सचिव आदि जब टाइप्ड पेपर पर उस की मोहर के नीचे अपने अर्ध-हस्ताक्षर के नाम पर छोटी सी चिड़िया बिठा देता तभी चपरासी जब उस कागज़ को अंदर लेकर जाता और अधिकारी तुरंत उस पर हस्ताक्षर कर के उसे एक विश्वसनीय दस्तावेज़ की शक्ल दे देता ….(अपने किसी रिश्तेदार की कापी कोई अधिकारी इस तरह से सत्यापित नहीं करता था…) 


मुझे इस वक्त 50 साल पहले का एक किस्सा सुना याद आ रहा है, सच है बिल्कुल जब रेल के एक अधिकारी ने खुद ही अपने बेटे की मार्क-शीट में नंबर बढ़ा कर उस की टाइप्ड कापी को सत्यापित कर दिया था…तो जब वह धांधली सामने आई तो वह अफसर धर लिया गया था ….बहुत सख्त कार्यवाई हुई थी, शायद नौकरी भी जाती रही थी …


फिर देखते ही देखते …फोटोकापी मशीन का हमारी ज़िदगी में प्रवेश हुआ ….1980 में मेरा पीएमटी का रिजल्ट आया….मुझे आवेदन भिजवाने के लिए उस पीएमटी के रिजल्ट-कार्ड की एक कापी चाहिए थी, किसी ने बता दिया कि अमृतसर में पुतलीघर में फोटोस्टैट मशीन लगी है एक दुकान में ….मैं वहां चला गया, उसने कहा कि दो रूपए लगेंगे …मैं कहा - ठीक है. फिर वह अंदर दुकान में गया….मेरे ख्याल में जिस मशीन पर उसने वह फोटोस्टेट करना था, उसने उस बड़े से कमरे की आधी जगह घेर रखी थी, मुझे याद है वह किसी स्टूल पर चढ़ा था, उस के हाथ में एक बड़ी सी प्लेट थी जिसे वह हिला रहा था….पूरी प्रोसेस थी …पूरी आवाज़ थी, लेकिन इस सारी प्रोसेस में मुझे यही डर लगता रहा कि यार, मैंने पता नहीं यह पंगा लेकर ठीक भी किया है या नहीं, ऐसा न हो कि मेरा पीएमटी का कार्ड ही कहीं फट वट जाए इतनी भारी भरकम मशीन में कुचल कर …..खैर, जब वह सही सलामत मुझे वापिस मिला, फोटोकापी के साथ तो मैंने सब से पहले अपना रैंक चेक किया …..ठीक था….266 रैंक था मेरा …(कुल 11000 छात्रों ने पीएमटी दिया था 1980 में…)....मेरी तो भई जान में जान आई….


उस के बाद तो फोटो स्टैट आम सी बात हो गई …हम लोग सब कुछ फोटोस्टैट करवाने लगे ….नोट्स तक फोटोस्टेट होने लगे ..पहले के ज़माने में छात्र लिख कर किसी के नोट्स कापी कर लेते थे ….लेेकिन जैसे जैसे फोटोस्टेट नोट्स मिलने लगे, बस, वो भी बंद ही रहते, अगर लिख कर नोट्स लिखने की फुर्सत खत्म हुई तो उन फोटोस्टेट नोट्स को पढ़ने की इच्छा भी खत्म हो गई …जो भी चीज़ आसानी से मिल जाती है, हम कहां उस की कद्र करते हैं….


हां, तो उस दौर के बाद फोटोस्टैट कापी को फिर किसी अधिकारी से सत्यापित करवाना पड़ता था ….लोगों को इस की वजह से बड़ी तकलीफ़ भी होती थी ….उसमें अपनी परेशानियां थीं, फोटोस्टैट है तो ठीक ही होगी, इसी चक्कर में अफसरों ने बिना देखे हस्ताक्षर करने शुरू किए ….और फिर वही फर्जीवाडे ….मार्क शीट में, डिग्री में, जाति प्रमाण-पत्र में भी ….धोखाधड़ी सामने आने लगी …


2014 में मुझे वह मोदी सरकार का वह फैसला ऐतिहासिक लगता है जब यह फैसला किया गया कि अब किसी को किसी राजपत्रित अधिकारी से अपने दस्तावेज़ सत्यापित करवाने की कोई बाध्यता नहीं होगी, आप खुद अगर अपने सर्टिफिकेट को स्वयं सत्यापित करते हैं तो भी आप का आवेदन मान्य होगा….मेरे विचार में ऐसा नियम बन चुका है …..ऐसा इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि कईं कईं जगह पर कोई किसी को कह देता है कि इसे कहीं से सत्यापित करवा के लाइए…वैसे ऐसे मामले कम ही दिखते हैं ….लेकिन मुझे इस की पक्की जानकारी है नहीं….लिखते लिखते ऐसा कुछ याद आ रहा है कि मन की बात में भी यह बात बताई गई थी आज से शायद दस बरस पहले …


काश, अब दस बरस बाद एक बार फिर कभी ऐसी भी घोषणा हो जाए कि अगर किसी नागरिक के पास आधार नंबर है, आधार कार्ड है तो यही पर्याप्त है, जिस भी दफ्तर में वह जाता है, यह उन की जिम्मेदारी होगी कि वे मशीन पर उस का अंगूठा लगवा कर उस कार्ड के दुरुस्त होने के बारे में आश्वस्त हो लें…..उसे फोटोकापी लाने के लिए, जमा करने के लिए नहीं कहा जाएगा….


हमारी भी ख़्वाहिशें कितनी हैं ………लेेकिन छोटी छोटी हैं …..चलिए, इस ख़्वाहिश के पूरी होने की प्रतीक्षा करें ….


बातें सच्चे-झूठे की हो रही हैं, जालसाज़ी, असली-नकली की हो और हमें 50 साल पुराना यह गीत याद न आए, ऐसा कैसे हो सकता है ....😎